Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 186
________________ पत्र पढ़ते ही जयानंद राजा ने सेनापति को युद्ध के लिए प्रयाण का आदेश दे दिया । सेना सज्ज होने लगी । एक दूत के साथ सिंहसार को समाचार भेज दिये । कि " इतने दिन तेरे सैकड़ों अन्याय मैंने भाई के नाते सहन किये हैं, अब सहन नहीं करूँगा । अतः इस राज्य को छोड़कर अन्यत्र चला जा । " जयानंद की सेना आ गयी । सिंहसार अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए आया । जयानंद राजा ने युद्ध में उसे हराकर बांध लिया । बेड़ियों से जकड़कर, पिता को सौंप दिया श्री विजयराजा ने उसे कारागृह में डाल दिया। वहाँ वह अपने पाप का फल भोगने लगा । श्री विजय एवं जयानंद राजाओं का पुर प्रवेश अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक हुआ । श्री विजय राजा का राज्याभिषेक करवाया। प्रजा का उत्साह अपार था । दोनों राजों से प्रजा अत्यंत संतुष्ट थी । जयानंद ने राजसभा में आर्हत् धर्म की चर्चाकर, अपने पिता परिवार एवं प्रजा को जैन धर्मानुरागिणी बना दी । कुछ दिनों बाद जयानंद राजा ने लक्ष्मीपुर जाने की आज्ञा मांगी। वह पिता के आग्रह से कुछ दिन और रहा। फिर आज्ञा लेकर लक्ष्मीपुर आया । सर्वप्रकार से प्रजाको प्रमुदित करता हुआ । प्रजा का पालन करता हुआ, पूर्वकृत पुण्यफल को अनेक प्रकार से भोग रहा था । श्री विजयराजा ने अनेक प्रकार से धर्म की प्रतिपालनाकर, अपना आत्मकल्याण हो, इस अपेक्षा से, जयानंद की आज्ञा से छोटे पुत्र शतानंद को राज्य देकर, आगमसागर सद्गुरु भगवंत के पास चारित्र ग्रहणकर, निरतिचार चारित्र पालन करते हुए गुरु के साथ विचरने लगे । शतानंद भी राज्य का न्यायपूर्वक पालन करता था । एकबार उसे बड़े भाई को मिलने की इच्छा हुई तो वह अपने परिवार के साथ लक्ष्मीपुर आया । भाई को प्रणामकर उनकी १८५

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