Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ I पुन: लौटते हुए मार्ग भूल गया । प्रातः आया तो तू नहीं मिला । मैंने बहुत ढूंढा, पर तू कहीं न मिला । फिर मैं पल्ली में रहने लगा । परंतु महासेन ने मुझसे युद्ध करके मेरी पल्ली ले ली । मुझे बंधिकर पर्वत की गुफा में डाल दिया कर्मयोग से जीवित रहा । रात को वर्षा हुई । चमड़े की गंध से पक्षियों ने आकर चमड़े को काटा । मैं उस बंधन से छूटा । पूरा शरीर घावो से जर्जर हो गया था । फिर भी वहाँ का पर्वत उल्लंघन कर ग्राम, पुर आदि में भिक्षा द्वारा जीवन यापन करता हुआ यहाँ आया । यहाँ भिक्षा भी न मिली | तो चोरी करने लगा। पकड़ा गया । तूने छुड़ाया । तेरा दास हूँ। मैं उऋण कैसे होऊंगा ? मैंने ऐसे पाप किये हैं, जिसका फल मैं भोग रहा हूँ ।" कुमार ने उसे सान्त्वना दी। अपने पास रखा । वस्त्रालंकारों से सज्ज किया । यह मेरा बड़ा भाई हैं। ऐसा सब से कहता था । सिंहकुमार मन में उसकी संपत्ति और अपनी विपत्ति से दुःखी था । उसने सोचा 'अब यह दुःखी हो, तो मुझे आराम मिले।' वह वहाँ भी उसे दुःखी करने का उपाय खोजने लगा । उसने सोचा 'राजा का विश्वासपात्र बनूं, तो मेरा कार्य सिद्ध हो सकता है।' उसने राजा से परिचय बढ़ाया । कुमार की पत्नियों ने उसके लक्षणों से उसे पहचानकर पति से कहा " पतिदेव ! यह व्यक्ति विश्वसनीय नहीं है । " कुमार ने उस ओर लक्ष्य न दिया लोकों में भी आश्चर्य था, कि इस चोर को कुमार इतना महत्त्व क्यों दे रहा है ? ऐसे लक्षणोंवाला इसका भाई नहीं हो सकता । एक बार राजा ने सिंहासर से पूछा " कुमार आपको इतना मान क्यों देता है ? तब उसने अवसर पाकर कहा "यह मेरे राज्य में चंडाल का पुत्र है । मैंने उस पर बहुत उपकार किये हैं । मैं बहुत 1 1 १४५ ૧૦

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194