Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रुतस्कन्ध. १ लोकसार अ. ५. उ. ३
टीका-'य' इत्यादि, या विचारितसंसारासारो धर्मानुष्ठानपरायणः पूर्वोत्थायी पूर्व-चारित्रग्रहणावसरे चारित्राचरणेनोत्थातुं शीलं यस्य स पूर्वोत्थायी, नोपश्चान्निपाती-पश्चात् चारित्रग्रहणानन्तरं निपतितुं शीलं यस्य नास्ति स नोपश्चान्निपाती भवति । सिंहवनिष्क्रान्तः सिंह इव एकान्तविहरणशीलः गणधरादितुल्यः, इति प्रथमो भङ्गः, स चात्युत्तमः । ___ तथा-मुनिजन को कैसा होना चाहिये ? इस बात को प्रकट करने के लिये कहते है-"जे पुष्पुट्ठाई " इत्यादि ।
'पूर्व-चारित्रग्रहणावसरे चारित्राचरणेन उत्थातुं शीलं यस्य स पूर्वोत्थायी'-चारित्र ग्रहण करने के अवसर में चारित्र के आचरण से अपनी वृद्धि करने का जिसका स्वभाव है वह पूर्वोत्थायी है। अर्थात्चारित्र को अंगीकार कर के जो अपने चारित्रमय आचरण से अपने जीवनकी उन्नति करता है उसका नाम पूर्वोत्थायी है। वह पूर्वोत्थायी “नोपश्चान्निपाती" चारित्र ग्रहण के अनन्तर अपने गृहीत चारित्र से कभी पतित नहीं होता है, क्यों कि इसका स्वभाव गृहीत चारित्र से निपतनशील नहीं होता है, प्रत्युत इसके परिणाम चारित्र ग्रहण के अवसरसे लगा कर सदा वर्धमान रहते हैं। इसीलिये वह पश्चान्निपाती नहीं होता है। सिंह की तरह एकान्त विहरणशील होने से यह गणधरादि के समान माना गया है । यह प्रथम भंग है । इस भंगवाला मुनि अति उत्तम है।
ફરી–મુનિજને કેવું થવું જોઈએ ? આ વાતને પ્રગટ કરતાં કહે છે“जे पुवुदाई" त्याहि.
पूर्व-चारित्र-ग्रहणावसे चारित्राचरणेन उत्थातुं शीलं यस्य स पूर्वोत्थायी न्याश्त्रि प्रह४२वाना समये यारित्र मायरथी पोतानी वृद्धि ४२वानो नो स्वभाव छ ते" पूर्वोत्थायी" छ. मे-यारित्रना गी२ કરી જે પોતાના ચારિત્રમય આચરણથી પિતાના જીવનની ઉન્નતિ કરે છે એનું नाम पूर्वोत्थायी छे. ये पूर्वोत्थायी “नो पश्चान्निपाती" यात अड ४ा पछी પોતે જેને સ્વીકાર કરેલ છે એનાથી ચલિત થતો નથી. કેમ કે એને સ્વભાવ ગ્રહણ કરેલા ચારિત્રના પાલનમાં ખૂબ જ મક્કમ બનેલો હોય છે એથી એ ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યા પછીથી ઉત્તરોત્તર એમાં જ રત બની રહે છે. આથી તે " पश्चान्निपाती" यतो नथी. सिडनी भा३४ सेमेत विरघुशील पाथी તેને ગણધરાદિ સમાન માનવામાં આવેલ છે. આ પ્રથમ ભંગ છે. આ ભંગવાળા મુનિ અતિ ઉત્તમ છે.
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શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩