Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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पांवेला कलेना उदय काले पण उपर प्रमाणे वत्ती पुनः ज्ञानावरणादि कर्म वांधे छे. एम परना कतापणा, ममत्व करी निरंतर सात आठ कर्म बांधतो. श्रा संसार समुद्रमा परिभ्रमण करे छे भने 'जन्म जरा मरण तथा सोग शोक भय आदि अनेक दुःसह दुःखनो अमाप भार पोताना शिरऊपर उपाडी लेके.
पण ज्यारे सम्यकज्ञान सम्यकदर्शन सम्यकचारित्र रूप शुद्ध निमित्तमा रमण करे अर्थात् माई तल्लीन थाय, पोतानी आत्म परिणतिने तेमां स्थित करे, पर द्रव्यादिथी उदासिन्न वृत्ति धारण करे त्यारे पोतानाज स्वभावनो कर्ता भोक्तादि थाय, निर्मल प्रशमरतिनो विलास पामे अने राग स्नेहथी रहित वर्त्तवाथी कर्म रूप रज तेने स्पर्श करवा पामे नहि तथा पूर्व बांधेला संचित कमनो क्षय निजरा थाय ||
जेहना धर्म अनंता प्रगट्या, जे निज परिणांते वारया ॥ परमातम जिन देव अमो ही, ज्ञानादिक गुण दरियारे स्वामी० ॥६॥