Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१७५ नादि लक्ष्मीने श्राप संपूर्ण प्रगट स्वाधीन करी निरंतर भोगवो छा, तजन्य परमानंदमां मग्न छो. एबुं प्रापर्नु स्वरूप द्रष्टि गोचर थतां मने पण एवं भान थयु के ए अनुपम विभूतिना ईश्वर माहरी स्वजाति छे, तेथी हु पण श्राप समान लक्ष्मीनो स्वामी थवाने सत्तावंत छ, एम भासन थतां श्राप समान परमात्मपद साधवानी मने रुचि थइ तेथी आप माहरी सिद्धिना साचा कारण छो. जो श्रापना परमानंदमय स्वरूपनुं मने दर्शन न थयु होत तो मने परम्गत्म पद साधवानी रुचि पण थती नहि धने रुची थयाविना कार्य साधनामा उद्यम प्रवृत्ति थाय नहि अने साधना विना कार्य सिद्धि पण थाय नहि माटे न्यायद्रष्टिए जोतां प्रापर्नु सिद्धपद माहरी सिद्धिन कारण प्रतित थाय छ । उक्तं च विशेषावश्यके ।। " सर्वेपि बुद्धो संकल्प्य कार्यं करोति इति ॥ व्यवहारस्ततो बुध्धाद्धयवसितस्य कुंभस्य चिकीर्षितो मृन्मय कुंभस्तहबुद्धयालंबन तया कारणं भवति" तथा वली ते परमात्मपद साधवानो यथार्थ मार्ग बतावनार पण आपज छो तेथी पण आप माहरी सिद्धिना कारण छो माटे