Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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सो संधुणोदि कम्मरयं” ॥ ४ ॥ . . सकल प्रदेशे हा कर्म अभावता, पूर्णानंद स्वरूप ॥ आतम गुणनी हो जे संपूर्णता, सिद्ध स्वभाव अनूप ॥ स्वामी० ॥ ५॥
अर्थः-श्रापना अात्म अंगना लवे प्रदेशथी ज्ञानावरणादि कर्म मलनो सर्वथा अभाव थयो छे तेथी सर्वे प्रदेश स्फटिकमणि समान शुद्ध संपूर्ण निरावरण थया छे, कोइपण काले हवे कर्म .मलनों रंच मात्र पण सश्लेष थवानो संभवं नथी, तेथी श्रात्म अंगमां वसता अनंत गण पर्यायना सर्वे अविभागो संपूर्ण शुद्ध थया छे, शुद्ध कार्ये परिणमे छे तेथी हे भगवंत ! आप पूर्णानंद स्वरूपं छो. अर्थात् जगत्जीव तो उपाधिना प्रतिकारथी आनंद माने छे, परद्रव्यने भोग जाणी तेमा लयलीन थई रहे छे नेथी जगत्जीवनो आनंद तो क्षणभंगुर अपूर्ण तथा भयसहित छे, पण आप तो. पोताना स्वाधीन अविनश्वर एक क्षेत्रावगाही गुण पर्यायोना भोक्ता छो, तेमां रमण करो छो, तेमा संतुष्ट तल्लीन थई.मानंद भोगवों छो तेथी मापनो श्रानंद कोईपण काले नांश धाय अथवा दूर जाय तेम