Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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२४२ राग वडे उपयोग सहित जे कई क्रिया प्रादरे ते 'सद्धेतुअनुष्ठान जाणवू. .. अमृतानुष्ठान-सहजो भाव धर्मोहि शुद्ध श्चंदन गंधवत् ॥ एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं संप्रचक्ष्यते ॥ जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य, प्रवृत्तं चित्त शुद्धितः । संवेग गर्भमत्यतममृतं तद्विदो विदुः॥
अर्थः-सहज भावधर्म ते शुद्ध चंदननी सुगंध समान छे. अने ते भावधर्म सहित जे अनुष्ठान ते अमृतानुष्ठान छे. अत्यंत संवेग गुण सहित चित्त शुद्धिए जिनेश्वरनी आज्ञामा वर्तव॒ तेने गणघरादिक अमृतानुष्ठान कहे छे तेज मोहनो संपूर्ण क्षय करवा समर्थ छे. ॥२॥
प्रीति भक्ति अनुष्ठानथी रे ॥म० ॥ वचन असंगी सेवरे ॥ भवि० ॥ कर्त्ता तन्मयता लहरे॥म०॥ प्रभु भक्ति नित्यमेवरे ॥भवि.३॥
अर्थ:-सर्वे पुद्गल भावमाथी प्रीति उठाधी मात्र एक जिनेश्वरना स्वाभाविक पवित्र ज्ञानादि गुणोमा अत्यंत प्रीति भाव करवो तेमां चित्तनी