Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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अर्थः-संसारमा भ्रमण करता अनेक प्रकारना दुःख सहता ज्ञानादिक लक्ष्मी रहित दीन कंगाल जीवो ऊपर अत्यंत करुणा करी मोक्ष मार्गे दोरनार होवाथी हे प्रभु! नापज दीन दयाल छो तथा कृपालुओ कहेता कृपाना श्रालय ( निधान ) छो, दोन अनाथ जीयोना नाथ छो,संसार समुद्रमांधता भव्य जीवोने उद्धारवा माटे श्राप पुष्ट अवलंघन छो, सर्वे देवोमां चंद्रमा सामन हे देवजला प्रस! आपनी सेवना सर्वोत्कृष्ट अमृत समान परमानंद दातार तथा शिव सुखनी करनार ले ॥ ८ ॥
॥ सम्पूर्ण ॥ ॥ अथ विंशति श्री अजितवीर्यजिन स्तवनम् ।।
अजितवीर्य जिन विचरतारे, मन सोहनारे लाल ॥ पुष्कर अर्द्ध विदेहरे, भवि बोहनारे लाल ॥ जंगम सुरतरु सारिखोरे, मन मोहनारे लाल ॥ सेवे धन्य धन्य तेहरे, भवि मोहनारे लाल ॥१॥
अर्थः-अतिशय दुर्जेय मोहराजानो जेणे लीला मात्रमा समूल क्षय करीनांख्योछे, तथा जेनुं वीये हणवाने कोइ पण समर्थ नथी एहवा भतिशय निश्चल