Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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छे ते मरणथी मुक्त थाय छ; जे मरणथी मुक्त थाय छे ते नरकथी भुक्त थाय छे; जे नरकथी मुक्त थाय छे ते तियेच गतिथी मुक्त थाय छे; जे तियच गतिथी मुक्त थाय छे ते दुःखथी मुक्त थाय छे" एहवा अकषायरूप शुद्ध धर्मने नहि जाण नारा, तेनी अपेक्षा नहि राखनारा, एकांते बाह्य क्रियानी हठ धरनारा पुरुषो मात्र बाह्य क्रियानेज मोक्षतुं कारण मानी, पोताना गच्छ प्रमाणे वर्ती ते बाह्य क्रियानेज परमार्थ ठराववा प्रयत्न करे अने कहे के प्रावू पात्र, वा आवी मुहपत्ती, विगेरे राखवां अने श्रावीज रीते प्रतिक्रमणादि क्रिया करवी तेज मोक्षनुं कारण छे. श्रमाराधी प्रकारांतरे जे उपकरणो तथा प्रतिक्रमणादि बाह्य क्रियाश्रो श्रादरे छे ते मोक्ष पामी शके नहि. एम पोते पारेल बाह्य लिंगने तथा बाह्य करणीने परमार्थ मोक्षद् कारण मानी अमे साचो धर्म श्राराधीए छिये, अमारो धर्म प्रशंसनीय छे, एम जे पोतानी जीव्हाग्रे जल्पे छ अने ते माटे लांबा लांबा वितंडाघादो मांडी बेसे छे, समतारूप अमृतने तजी कषायरूप हालाहल विषः ने भक्षण करे छे; एहवा एकांतवादी पुरुषोनो दुरा, ग्रह नाश करवा माटे श्री जिनेश्वर प्रणीत शुद्धा.