Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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इसु ईठत्तं पुग्गलाईस) भने ते शरीरादिने पोता ना साध्य जाणी निरंतर तेने साधवा माटे अनेक प्रयास करे छे-तेनेज पोतार्नु कार्य जाणे के एम अज्ञान वशे पोते पर कर्तृत्व भावे परिणमे छे. तेथी कारकचक्र शुद्ध स्वभावथी विरूद्ध धाधकभावे परिण मे छे. पण यारे आत्मा योग्य कारण वडे सम्यक्ज्ञाननो लाभ पामे, अनंत परमानंदमय संपूर्ण सुखना हेतु परमात्म पद रूप पोताना शुद्ध माध्यने उलखें, न्यारे पर साध्य तरफयी अरूची थाय अने पोतार्नु शुद्ध साध्य साधवानी रूची थाय शुद्ध कार्य करवानो अभिलाषी थाय स्यारे जे कारकचक्र याधकभावे अर्थात् प्रास्माना ज्ञान दर्शन सुग्व वीर्यनी घात करवा रूप कार्य परिणमंतु हतुं ते साधक भावे एटले शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्य साधवा रूप परिणमे एटले श्रात्म पोताना शुद्ध परिणामे वर्ते-तेमां रमण करे-त्यांज स्थित थाय एम थतां प्रास्माना सर्व प्रदेशे मंगल थाय अर्थात् कर्म रूप रज गली जाय-अत्यंत सुख निधाननो लाभ थाय ॥९॥
त्राण शरण आधार छोरे, प्रभुजी भव्य सहायरे ॥ द० ॥ देवचंद्र पद नीपजेरे, जिन