Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 199
________________ कुवलयमाला-कथा [187] इस प्रकार बहुत दिन बीत जाने पर कुवलयचन्द्र ने कहा "कुमार! राज्यग्रहण करो, मैं प्रवज्या ग्रहण करूँगा।" कुमार बोला-"महाराज! आप राज्य का पालन कीजिये, मैं पुनः दीक्षा स्वीकार करूँगा।" राजा ने आदेश दिया-'आज भी तुम बच्चे हो, राज्यसुख का अनुभव करो, भोगों को भोगे हुए हम दीक्षा ग्रहण करेंगे।" इस प्रकार कुमार को समझाकर काम- भोगों से निर्विण्ण हुआ, प्रवज्याग्रहण का मन किया हुआ राजा किसी गुरु के आगमन की अभिलाषा करता रहा। दूसरे दिन महादान किये हुए, अशेष परिजनों से सम्मानित हुए अथवा अशेष परिजनों को सम्मानित किये हुए भूपति ने कुवलयमाला के साथ धार्मिक बातें करते हुए रात्रि के पिछले प्रहर में प्रथम ही जगे हुए ने चिन्तन किया दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त कर विचार-चतुरों को दक्षिणावर्त्त शङ्ख के समान हेय और उपादेयों के हेतु का चिन्तन करना चाहिए।। ५८ ।। मनुष्य होना अतिश्रेष्ठ है विशेष करके उत्तम कुल में जन्म लेना और पुनः कृपामय जैन धर्मतीनों दुर्लभ हैं।। ५९ ।। वे पुण्यशाली हैं जिन्होंने भवसागर को उत्तीर्ण कर लिया और संगम परित्याग से निगममार्ग के गामी बन गये।। ६० ।। वे ही कृती और भुवनश्री को विशिष्ट बढ़ाने वाले हुए जिन्होंने जिनेन्द्रमुनि कथित सर्वविरति को अलङ्कृत कर दिया।। ६१ ।। वे क्षेत्र धन्य हैं जहाँ विभ्रमत्यागी मुक्ताहार और शुभाशय जैन मुनीश्वर भ्रमण किया करते हैं।। ६२ ।। मुझे प्रमुदित करने वाली वह पुण्यतिथि कौन होगी और वह पुण्यवार भी कौन होगा एवं वह मुहूर्त क्या होगा।। ६३ ।। जिसमें पवित्र चारित्र रूपी सूर्य की प्रभा के उदय से मेरा मनरूपी कमल विकास को प्राप्त होगा।। ६४।। दीक्षा शिक्षा रूपी शिला पर जिस प्रधान धान्य से मैं कुवास मलिन अपने मनरूपी वास (वस्त्र)को कब क्षालित करूँगा।। ६५ ।। इस प्रकार चिन्तन करते हुए राजा के निमित्त प्रभातकालीन मङ्गल का पाठ करने वाले ने पढा --"अन्धकाररूपी सेना को मारे हुए, नक्षत्र रूपी योद्धाओं के समूह को गिराये हुए प्रतापी शूर वीर पृथ्वीपति उदित हो रहे हैं।। ६६ ।। यह सुनकर राजा ने विचार किया 'अहो, पुत्र के राज्य के लिए यह सुन्दर उपश्रुति है। चतुर्थ प्रस्ताव

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