Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 208
________________ [196] कुवलयमाला-कथा इस प्रकार अनेक रीति से विविध जनों से पूछे गये संदेह समूह को भङ्ग करके भगवान् उठ खड़े हुए। तब देववृन्द भी अपने अपने स्थान चले गये। भगवान् भी श्रावस्ती पुरी को ओर चले गये। देवों द्वारा समवसरण किये जाने पर त्रैलोक्याधिपति ने अपने आसन को अलङ्कृत किया। गौतमादि गणधर यथास्थान बैठ गये। वहाँ का राजा रत्नाङ्गद भगवान् को प्रणाम कर बैठ गया। भगवान् ने संसार के कष्ट का निवारण करने वाली देशना निर्मित की। इस बीच में गौतमस्वामी ने सब कुछ जानते हुए भी न जानने वालों के ज्ञान के लिए तीर्थनाथ से पूछा-"नाथ! जीव का स्वरूप बताइये।" तब भगवन् ने सारा ही यथार्थ जीव का स्वरूप बता दिया। तदनन्तर वह बालमृणाल के समान कोमल भुजा वाला, भुजाओं के बीच दीप्तिमान् हारों वाला कपोल पर शोभित कुण्डलों वाला कोई नर देवकुमार के तुल्य प्रवेश करके जय जय ऐसा कहता हुआ त्रैलोक्य से अभिवन्दनीय की अभिवन्दना करके बोला-"नाथ! जो आज मैंने रात्रि के मध्य देखा, सुना और अनुभूत किया उसे बताइये, वह क्या इन्द्रजाल है, क्या स्वप्न है या सत्य है?" भगवान् ने कहा- "देवानुप्रिय! जो तुमने देखा वह सत्य ही है", यह सुनकर उसी क्षण तेजकदमों से समवसरण से निकल गया। तब गौतम ने पूछा-"स्वामिन् ! यह क्या? हमको भी बहुत कौतुक है।" तब तीर्थंकर ने कहा-"यहाँ से ज्यादा दूर नहीं अरुणाभ नाम का नगर है। वहाँ रत्नगजेन्द्र नामक नरपति है। उसका पुत्र कामगजेन्द्र। वह एक बार प्रियङ्गमती प्रिया के साथ मत्तवारण में प्रविष्ट हुआ। तब नगर में विद्यमान वैभव विलासों को देखने में प्रवृत्त हुआ। तब किसी वणिक् के मन्दिर पर उसने कुट्टिमतल में कन्दुक क्रीडा करती हुई एक कन्या को देखा। उसका उस पर महान् अनुराग उत्पन्न हो गया। सुरूप और कुरूप में भी कहीं प्रेम होता है। रूप स्नेह का हेतु नहीं होता, तो फिर अङ्गियों में रूप वृथा है।। ७६।।। __उसने पास में स्थित कान्ता के भय से अपने आकार का संवरण ही कर लिया। उसने तो वह सब देख लिया था। उस राजपुत्र का उसी का ध्यान करते हुए को उद्वेग हो जाने पर उसने विचार किया- 'इनके उद्वेग का कारण क्या है? अथवा ज्ञात हुआ कि वही वणिक्पुत्री मेरे पति के चित्त में स्थित हो गयी।' चतुर्थ प्रस्ताव

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