Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 207
________________ कुवलयमाला-कथा [195] 1 ने इसकी प्रिया का हरण किया और उसे अन्यत्र ले गया । तो वह ऐसा अनर्थ, निष्कृप, निर्घृण और कृतघ्न है जिसने ऐसा आचरण किया। तब उसने कहा"ऐसा होने पर क्या किया जाना चाहिए ?" उसने कहा- "मैं नहीं जानती, आप ही जानते हैं। इस सम्बन्ध में क्या करना चाहिए ।" उसने कहा - " भद्रे ! सत्य है, तो सुन - ' सदा एक ही जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है, प्रिय कौन है और प्रिया कौन है ? सारा ही संसार स्वरूप बिजली के तुल्य क्षण में देखे और नष्ट हो जाने वाला है । सर्वथा अनित्यादि की भावना को अपना लो । संयोग वियोगान्त होते हैं । उत्थान पतनान्त होते हैं । भोग महारोगवत् हैं । यह जीव संसार में चोरासी लाख संख्यावाली योनियों में नटवत् विविध रूपों वाला हो जाता है यह जान कर सम्यक्त्व को स्वीकार करलो और हे मणिरथकुमार ! जिस सुन्दरी को प्रबोधित किया था, उसके साथ घर चली गयी। उसके पिता ने महोत्सव रखा। सर्वत्र नगर मध्य साधुवाद फैल गया कि इस सुन्दरी को कुमार ने प्रबोधित किया है। तो हे मणिरथकुमार ! जो सुन्दरी जीव है, वह तुम हो, तब सम्यक्त्व के लिए यत्न किये हुए पञ्चत्व प्राप्त कर मानभट हो गये । उससे पद्मसार नामक हुआ । उससे कुवलयचन्द्र हुआ उससे वैडूर्य नामक देव हुआ । उससे तुम मणिरथकुमार हुए। जो फिर वणिक् पुत्र है, वह संसार में परिभ्रमण करके इस वन में हरिणी हुई है । तुमको देख ऊहापोह करती हुई इसको पूर्वजन्म की स्मृति से तुम में स्नेह उत्पन्न हो गया। इस प्रकार भगवान् के द्वारा बताए जाने पर मणिरथकुमार ने कहा 'इस प्रकार मुझे यह दुःखावास संसारवास अलं है, भगवन्! कृपा करके मुझे प्रवज्यारत्न दे दीजिये" ऐसा कहते हुए कुमार को श्री भगवान् ने दीक्षित कर दिया । इसी बीच में गणभृत् गौतम ने निवेदन किया " भगवन् ! इस संसार में कौन सजीव दु:खी है ? भगवान् ने कहा - " सम्यग्दृष्टि वाले जीव अविरत दुःखी ही हैं। गौतम ने कहा - " किस कारण से?" भगवान् ने कहा " जो सम्यग्दृष्टि वाला होता है वह नरक, तिर्यञ्च और मनुष्यों की वेदना को जानता है अत: वह दु:खियों में भी दुःखी है।" फिर गौतम ने पूछा - "स्वामिन्! सुखी कौन है?” भगवान् ने कहा - " सम्यग्दृष्टि से विरत हुआ जीव सुखी है, क्योंकिदेवलोक के समान सुख और नरक के सदृश दुःख होता है । रत और अरतों के लिए महानरक के तुल्य है ।। ७५ ।। चतुर्थ

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