Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 231
________________ कुवलयमाला-कथा [219] है सूक्ष्म या स्थूल मोह या लोभ से उसको त्याग देते हैं । हास्य से, भय से, क्रोध से अथवा लोभ से जो कुछ भी वृथा कहा गया उस सब की निन्दा करते हैं और प्रायश्चित्त करते हैं । जो स्वल्प भी धन दूसरे के बिना दिया हुआ रागद्वेष से लिया उस सब को भी त्याग देते हैं । पक्षी, मनुष्य, देव सम्बन्धी जो मैथुन हमारे द्वारा किया उन तीन प्रकार के मैथुनों को तीन प्रकार से त्यागते हैं। जो धन, धान्य, पशु आदि का लोभ से परिग्रह किया उसे त्यागते हैं । पुत्र, पत्नी, मित्र, बान्धव, धन, धान्य, गृह आदि में और अन्यों में भी जो ममत्व किया उस सबकी भी निन्दा करते हैं । इन्द्रियपक्ष में पराभूत हुए हमारे द्वारा चार प्रकार का भी आहार रात में जो किया गया उसकी भी तीन प्रकार से निन्दा करते हैं। क्रोध, अभिमान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, पैशुन्य, परनिन्दा, आख्यान आदि चारित्र के सम्बन्ध में जो दुराचार किया उस को तीन प्रकार से त्याग हैं। वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, नमस्कार, परिवर्त्तनादि में वीर्याचार्य में जिस वीर्य का गोपन किया उसकी तीन प्रकार से निन्दा करते हैं। जिस किसी की भी कोई वस्तु अपहृत की, किसी को प्रहार दिया, या किसी को कर्कश वचन कहा और जिसका अपराध किया वे सभी हमारे उसको क्षमा करें। जो मित्र अमित्र स्वजन शत्रुजन हैं वे सभी क्षमा करें उन सब में भी समान हैं। तिर्यक्योनि में तिर्यञ्चों को, नरक योनि में नरकवासियों को, स्वर्ग में स्वर्गवासियों को और मनुष्य योनि में मनुष्यों को जिनको हमने दुःख में गिराया, वे सभी क्षमा करें हम भी उनको क्षमा कराते हैं । उन सब में हमारी मैत्री हो । जीवन, यौवन, लक्ष्मी, लावण्य और प्रियसङ्ग ये सभी वायु से नचायी हुई समुद्र की तरङ्गों के समान चञ्चल हैं। व्याधि, जन्म, वार्द्धक्य और मृत्यु से ग्रस्त देहधारियों के लिये जिनप्रणीत धर्म के बिना कोई भी अन्य धर्म शरण नहीं है । ये सभी जीव स्वजन और परजन उत्पन्न हुए उनमें अल्प भी हम सुधी जन कैसे प्रतिबन्ध करें? एक ही प्राणी उत्पन्न होता है, एक ही विपत्ति प्राप्त करता है । एक सुखों का उपभोग करता है और एक ही दुःखों का भी । शरीर अन्य है, धनधान्यादि अन्य है, बान्धव अन्य हैं, जीव अन्य हैं कैसे हम उनमें वृथा मोहित होते हैं? रस, रक्त, माँस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, यकृत्, शकृत् आदि से पूरित अपवित्रता के आलय शरीर में हम मूर्च्छा नहीं करते | यह देह नित्य पाला हुआ भी लालित किया हुआ भी किराये पर लिये गये घर की चतुर्थ प्रस्ताव

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