Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 198
________________ [186] कुवलयमाला-कथा तदनन्तर दो प्रकार की शिक्षा से विद्वान् बने हुए उस राजर्षि ने चारुचारित्र का आचरण करते हुए गुरु के साथ विहार किया। समस्त राजाओं के मुकुटों से घिसे गये चरणारविन्दों वाले कुवलयचन्द्र के भी समुद्रपर्यन्त विपुल पृथ्वी का पालन करते हुए बहुत सारे वर्ष बीत गये। इस बीच में पद्मकेसर सुर ने अपने च्यवन के चिह्नों को जानकर दुर्मना होकर चिन्तन किया। हे जीव! तू खेद मत कर, हृदय में दीनता भी धारण मत कर। जब तक आयु उपार्जित की है तभी तक उपभोग किया जाता है।। ५७।। 'तब इस समय कालोचित किया जाय' यह सोचकर अयोध्या में आकर सुर ने कुवलयचन्द्र और कुवलयमाला के सम्मुख कहा- "जब तक अमुकमास और अमुक दिन में आप दोनों के पुत्र होऊँगा तब तक पद्मकेसरनाम से अङ्कित इन कटक, कुण्डल, हार, अर्द्धहार आदि आभूषणों को स्वीकार करो। फिर बुद्धि का विस्तार हुए मेरे शरीर पर इनको धारण कर देना जिससे चिरपरिचित इसको देखकर मुझको जाति स्मृति उत्पन्न हो जाय।" यह कहकर और सौंपकर सुर अपने स्थान पर आ गया। तब कुछ दिनों में सुर च्युत होकर कुवलयमाला के गर्भ में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। तब उसने भी समय पर पवित्र पुत्र को प्रसूत किया। पिता ने पुर के मध्य वर्धापन महोत्सव रचे जाने पर बारहवें दिन मुनि द्वारा पूर्व में कहा हुआ 'पृथ्वीसार' यह नाम कर दिया। उस कुमार ने कलाकलाप और यौवन स्वीकार किया। उसके माता-पिता ने उसे वे आभूषण सौंप दिये। उनको देखते ही पहले भी कहीं देखे गये थे इस प्रकार का ऊहापोह करते हुए उसको मूर्छा हो गयी और जाति स्मृति हो आयी। तब शीतल जल से और वायु से आश्वसित हुए चेतना-प्राप्त किये हुए उसने ध्यान किया- 'अहो! वहाँ उन सुखों का अनुभव कर पुनः इस प्रकार के तुच्छ मनुष्य जन्म में हुओं को जीव चाहता है, इस मोह को धिक्कार है और धिक्कार है संसार में निवास करने को जहाँ व्यक्ति निरन्तर आधि-व्याधियों से व्यथित रहता है तो मैं सांसारिक दुःख परम्परा को पराभूत करने वाली प्रवज्या ग्रहण करके अपने आपको साधूंगा।' इस प्रकार चिन्तन करते हुए उसको वयस्यों ने कहा"स्वस्थ शरीर वाले तुमको यह क्या हो गया?" वह बोला “मुझे अजीर्ण विकार से यह भूमि उत्पन्न हो गयी थी।" उसने पुनः आत्मस्वभाव नहीं बताया। चतुर्थ प्रस्ताव

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