Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 213
________________ कुवलयमाला-कथा [201] पर उसका अङ्ग स्थापित कर दिया। उनके द्वारा दी गयी अग्नि प्रज्वलित हो गयी। 'इसके बिना हम दोनों को जीवित रहने से क्या?' यह कहकर और देर तक विलाप करके वे दोनों भी वहीं चिता में प्रविष्ट हो गयीं। इस प्रकार तीनों के ही अस्थिशेष हो जाने पर एक क्षण मैंने भी मुद्गर से चोटिल, महाशोक कुन्तक से विदीर्ण की भाँति चिन्तन किया -' देखा विधाता की करतूत कि यह बिन्दुमती मेरे अनुराग से मर गयी, उसके दुःख से दोनों भी। तो स्त्रीवध के कलङ्क से कलुषित हुए मेरे जीवित रहने से भी क्या? तो उसी चिताग्नि में प्रविष्ट होकर अपने कलङ्क को उतार देता हूँ' इस प्रकार मैं ज्यों ही चिन्तन कर रहा था विद्याधर मिथुन के मध्य विद्याधरी ने कहा -“देखो, यह कैसा निर्दय कुमार है, यह बेचारी मर गयी, यह आज भी जी रहा है" विद्याधर बोला "ऐसा मत कहो, क्योंकि स्त्रियाँ पति के मर जाने पर चिता में प्रविष्ट हो जाती हैं, फिर सत्पुरुष को महिला के विनष्ट हो जाने पर आत्महत्या नहीं करनी चाहिए।" यह सुन कर मैंने सोचा- 'इसने ठीक कहा है। इसके बाद इस बिन्दुमती की अनुकृति करने वाली जल के सौन्दर्य से पूर्ण विकसित नील कमल जैसे लोचनों वाली, चलते हुए धवल मृणाल वस्त्रों से युक्त, विकसित शतपत्र के तुल्य वक्र, चञ्चल जल की तरङ्गों से कटाक्ष की छटा देने वाली, विकट, कनक तटनितम्ब फलक वाली बावड़ी में उतर कर इन तीनों को जलाञ्जलि दे देता हूँ,' यह सोचकर उस बावड़ी में उतरकर और मजन उन्मजन करके 'हे दयिते!' ज्यों ही मैं निकला त्योंही मैंने सब अपूर्व देखा। वहाँ आकाश को छूने वाले वृक्ष, महाप्रमाण ओषधियाँ, उन्नत अङ्ग वाले अश्व, पञ्चचाप परिमित मनुष्य, विपुलकाय पक्षी थे। मैंने विचार किया यह स्थान हमारा बिलकुल नहीं है, जहाँ पुरुष सात हाथ शरीर के हैं , यह द्वीप सर्वथा अन्य है' यह मैंने सोचा ही था कि हे दयिते! वह वापी विमान बन गयी। तो मैं किसी पुरुष से पूछता हूँ कि यह द्वीप कौन सा है? यह विचारते हुए मैंने एक दारक युगल को देखकर पूछा 'यह द्वीप कौन सा है?' मुझे कृमि के समान, कुन्थु के सदृश, पिपीलिका के बच्चे के तुल्य देखकर विस्मित मनों वाले उन्होंने कहा -"वयस्य! यह अपूर्व विदेह महाक्षेत्र है।" मैंने सोचा- 'अहो, अति उत्तम हुआ, यह भी दर्शनीय हुआ।' यह मैं सोच रहा था कि उन्होंने मुझे कृमि की तरह कौतुक से हाथ में उठा लिया। फिर श्रीसीमन्धर स्वामी के समवसरण चतुर्थ प्रस्ताव

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