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(२०२) ॥ ए आंकणी ॥ कहेणी करणी एकज सरखी । अहर्निश धर्म विलु जी ॥ सु० ॥१॥ निरति चार महाव्रत पाले । टाले सघला दोष जी। चारित्र शुं लयलीन रहे नित्य । चित्तमा सदा संतोष जी ॥ सु० ॥२॥ जीव सहुना जे ने पीयर । पीके नहीं खटकाय जी। श्राप वेदन पर वेदन सरखी । न हणे न करे घाय जी ॥ सु० ॥३॥ मोह कर्मनें जे वश न पझे। नीरागी निर माय जी। जयणा करतो हलुये चाले । पूंजी मूके पाय जी ॥ सु०॥४॥ अरहो परहो दृष्टि न देखे । न करे चालत वात जी । दूषण रहित सूजतो देखे । तो लिये पाणी नात जी ॥ सु० ॥ ५॥ नूख तृषा पीड्या मुःख पीके। बूटे जो निज प्राण जी। तो पण अशुद्ध आहार न लेवे। जिनवर आण प्रमाण जी ॥ सु०॥६॥ अरस निरस आहार गवेषे । सरस तणी नहीं चाह जी। श्म करतां जो सरस मले तो । हरख नहीं मनमांह जी ॥ सु० ॥ ७॥ शीतकाले शीतें तनु सूके । उनाले रवि ताप जी । विकट परिसह घट अहीयासे । नाणे मन संताप जी ॥ सु० ॥ ॥ मारे कूटे करे उपअव । कोइ कलंक दे शीश जी । कर्म तणा फल जाणी उदीरे । पण नाणे मन रीश जी ॥ सु०॥ ए॥ मन वचकाया जे नवि दमे । बंसे पांच प्रमाद जी। पंच प्रमाद संसार वधा रे । जाणे ते निःस्वाद जी ॥ सु० ॥ १० ॥ सरल स्वलाव लाव मन रूमो।न करे वाद विवाद जी। चार कषाय कर्मना कारण। वरजे मद उनमाद जी ॥ सु० ॥ ११ ॥ पापस्थान अढारे वरजे । न करे तास प्रसंग जी। विकथा मुखथी चार निवारे ।
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