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( २३० )
आणा घातक जाणि ॥ उपाधि शन शिष्यादिक परठवे रे ।
यति लाम पिछा मु० ॥ ४ ॥ वध्या श्राहारे तपीया परिवे रे । निज कोठे अप्रमाद । देह अरागी जात अव्यापता रे । धीरनोह अपवाद ॥ मु० ॥ ५ ॥ संलोकादिक दूषण परिहरी रे | वर्जी राग ने द्वेष || आगमरीते परठवणी करे । लाघव हेतु विशेष ॥ मु० ॥ ६ ॥ कपातीत आहालंदी क्ष्मी रे । जिनकपादि मुनीश || तेहने परववणा एक मल तणी रे । तेह प वलिदीस ॥ मु० ॥ ७ ॥ रात्रे प्रश्रवणादिक परadd | विधिकृत मंगल ठाम ॥ थिविरकपनो प्रति अपवादळे रे । ग्लानादिक नहिं काम ॥ मु० ॥ ८ ॥ वलि एह व्यथी जावे रे । बाधक जे परिणाम | द्वेष निवारी मादक तावनी रे | सर्व विज्ञाव विराम ॥ ए ॥ अंतःपरिणति तत्त्वमयी करे रे । परिहरिता पर जाव ॥ इव्य समिति परंगजाव जी धरे रे । मुनिनो एह स्वभाव ॥ मु० ॥ १० ॥ पंच समिति समता परिणामथी रे । हमा कोष गतरोष ॥ जावन पावन संयम साधता रे । करता गुण गए पोष ॥ मु० ॥ ११ ॥ साध्य रसी निजतत्त्वे तन्मया रे | जबरंगी निर्माय । योग क्रिया फल जाव वचता रे | शुचि अनुभव सुखदाय ॥ मु० ॥ १२ ॥ आणा जीत जुआ नाणी रसी रे । निश्चय निग्रह युत्त ॥ देवचंद्र एहवा निग्रंथ जे रे । ते माहूरुं गुरुतत्त्व ॥ मु० ॥ १३ ॥ इति पंचम पारिष्ठापनिका समिति सजाय ॥
॥ अथ षष्ठ मनोगुप्ति सज्झाय लिख्यते ॥ ॥ वैरागी अयोरे ॥ देश ॥ मुनि मन वश करो रे ॥ मन
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