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( २४८ ) sorकर्म कर्त्ता थयो रे अप्पा | नय अशुद्ध व्यवहार | तेह i नीवारो स्वपदे रे अप्पा | रमतां शुद्ध व्यवहार रे ॥ सु० ॥ सा० ॥ १४ ॥ व्यवहारे समरे थकी रे अप्पा | समरे निश्चया चार | प्रवृत्ति समारे विकल्पने रे अप्पा | तेह स्थिर परिणती सार रे || सु० ॥ सा० ॥ १५ ॥ पुद्गलने पर जीवश्री रे अप्पा | कीधो नेद विज्ञान बाधकता दूरे टली रे अप्पा | हवे कुण रोके ज्ञान रे || सु० ॥ सा० ॥ १६ ॥ आलंबन जावन वसे रे
या । धरम ध्यान प्रगटाय । देवचंद पद साधवा रे अप्पा | एहज शुद्ध उपाय रे ॥ सु० ॥ सा० ॥ १७ ॥
॥ ढाल ३ जी ॥ राग धन्याश्री ॥ थायो आयो रे । अनुजव श्रातम चो आयो । शुद्ध निमित्त आलंबन जजता श्रात्मा लंबन पायो रे ॥ ० ॥ १ ॥ तम खेत्रे गुण पर्याय विधि | तिहां उपयोग रमायो । पर परिणति पर रीते जाणी । तास fare समायो रे || श्रा० ॥ २ ॥ प्रथकत्व वितर्क शकल आरोही । गुण गुणी एक समायो । पर जय जव्य वितर्क एकता | डरधर मोह खपायो रे || ० || ३ || अनंतानुबंधी सुटने काढी । दर्शन मोह गमायो रे । तिरिगति हेतु प्रकृति दय कीधी थयो खतम रस रायो रे ॥ ० ॥ ४ ॥ द्वितीय तृतीय चोकमी खपावी । वेद युगल दय थायो । हास्यादिक सत्ताथी ध्वंसी । उदय वेद मिटायो रे ॥ ० ॥ ५ ॥ थई वेदीने अविकारी । हल्यो संजलनो कसायो । मार्यो मोह चरण क्षायक करी । पूरण समता समायो रे ॥ श्र०
॥ ६ ॥ घन घाति त्रिक योधा लमीया । ध्यान एकत्वने धायो ।
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