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( २२६ )
सार रे || बोध प्राग् जाव सद्याय थी । वलि करे जगत उपकार रे ॥ सा० ॥ ४ ॥ साधु निजवीर्यथी परतणो । नवि करे ग्रहणनें त्याग रे || ते जणी वचन गुप्ति रहे । एह उत्सर्ग मुनि मार्ग रे ॥ सा० ॥ ५ ॥ योग जे श्रव पद हतो | ते को निर्जरा रूप रे || लोहश्री कंचन मुनि करे साधता साध्य चिद्रूप रे ॥ सा० ॥ ६ ॥ आत्महित परहित कारणें । आदरे पांच सकाय रे || ते जणी शन वसनादिका । आश्रय सर्व व वाय रे ॥ सा० ॥ ७ ॥ जिनगुणस्तवन निज तत्त्वने । जोश्व करे विरोध रे || देशना जव्य प्रति बोधवा । वायणा करण निजबोध रे ॥ सा० ॥ ८ ॥ नय गम जंग निक्षेप श्री । स्वहित स्याधादयुत वाणि रे || शोल दश चार गुणशुं मलि । कहे अनुयोग सुपहारे ॥ सा० ॥ ए ॥ सूत्र ने अर्थ अनुयोग ए । वीय निर्युक्ति संजुत्त रे ॥ तीय जाप्ये नयें जावियो । मुनि वदे वचन एम तंत रे ॥ सा० ॥ १० ॥ ज्ञान समुद्र समता जखा । संवरी दयानंकार रे ॥ तत्व आनंद आस्वादता वंदियें चरण गुण धार रे ॥ सा० ॥ ११ ॥ मोह उदयें अमोही जेहवा । शुद्ध निज साध्य लय लीन रे । देवचंद तेह मुनि वंदियें । ज्ञान अमृत रस पीन रे ॥ सा० ॥ १२ ॥ इति जाषा समिति सजाय ।। ॥ अथ तृतीय एषणा समिति सज्झाय लिख्यते ॥ ॥ कांकरीया मुनिवर धन्य० ॥ एदेशी || समिति तीसरी एषा जी। पांच माहात्रत मूल || अनाहारी उत्सर्गनो जी । अपवादी मूल || १ || मन मोहन मुनिवर | समिति सदा चित्तधार ॥ एांकणी ॥ चेतनता चेतन तणी जी । नवि पर
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