Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 19
________________ सिन्धुघाटी की खुदाइयों में मिली कायोत्सर्ग योगियों की मूर्तियों पर खुदी लिपि उनके कथन को एक सशक्त चुनौती है, जिसका कोई उत्तर नहीं है। सिन्धुघाटी की लिपि और बड़ली, पिप्रावा तथा अशोक के शिलालेखों की लिपि में केवल समय का अन्तराल है। समय बहुत बदल देता है । बदलाव ही गति है। गति जीवन है। उसका रुकना ही मौत है। तो, परिवर्तन हुआ। ईसा से पांच सौ वर्ष पूर्व और दो सहस्र वर्ष पूर्व में पन्द्रह सौ वर्ष का अन्तर है। परिवर्तन स्वाभाविक था। कुछ ऐसा शेष रह गया, जो दोनों को एक वंश का बताने में समर्थ है । डा. सुनीतिकुमार चाटुा का कथन है कि मोहन-जो-दरोलिपि के कुछ चिह्न ब्राह्मी वर्गों के सदृश हैं अथवा लगभग वही हैं। इसके अतिरिक्त व्यञ्जन वर्णों में स्वरमात्राओं के लगाने की ब्राह्मी-विशिष्टिता भी मोहन-जो-दरो-लिपि में प्राप्त होती है ।' डॉ. उदयनारायण तिवारी का तो स्पष्ट अभिमत है कि ब्राह्मी लिपि का प्राचीन रूप सिन्धु घाटी लिपि में उपलब्ध होता है । सिन्धु घाटी लिपि ही चित्र, भाव तथा ध्वन्यात्मक रूपों से गुजरती हुई ब्राह्मी लिपि में परिणत हुई थी। अतः ओझा जी का यह कथन कि "प्राचीन शिलालेख अथवा साहित्य, जहाँ भी ब्राह्मी दिखाई दी, अपनी प्रौढ़ अवस्था और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिली। उसके प्रारम्भिक विकास का पता नहीं चलता,"३ सुसंगत प्रतीत नहीं होता । उसका प्रारम्भिक रूप सिन्धुघाटी लिपि में सुरक्षित है। ब्राह्मी सार्वभौम थी, ऐसा अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है। महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने कहा कि, “यदि कोई एक ब्राह्मी लिपि को अच्छी तरह सीख जाये, तो वह अन्य लिपियों को थोड़े ही परिश्रम से सीख सकता है और शिलालेख आदि को पढ़ सकता है, क्योंकि सारी लिपियाँ ब्राह्मी से ही उद्भूत हुई हैं।" दक्षिण की द्राविड़ी लिपियां, जो जावा-सुमात्रा तक फैली थीं, ब्राह्मी से ही निकलीं । यदि ऐसा न होता तो सम्राट अशोक दक्षिण में अपने शिलालेखों को ब्राह्मी में न खुदवाता । दक्षिण भारत के अनेक प्राचीन ग्रन्थों में लिखा मिलता है कि ब्राह्मी ऋषभदेव की बड़ी पुत्री थी। उसी ने अठारह प्रकार की लिपियों का आविष्कार किया, जिनमें से एक लिपि कन्नड़ हुई। श्रीरामधारीसिंह दिनकर ने इस मान्यता को पल्लवित किया है। श्री सिद्धगोपाल काव्यतीर्थ ने १. देखिए, 'Indian systems of writing', Govt of India, 1966, Page 9. २. हिन्दी भाषा : उद्गम और विकास, पृष्ठ 580. ३. प्राचीनलिपिभाला. ४. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन सम्पादित गंगा-पुरातत्त्वांक, 1933, भारतीयों का लिपिज्ञान शीर्षक निबन्ध. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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