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वधति वसति मध्ये वर्णा अकार-हकारयोरिति यदनघं शब्दब्रह्मास्पदं मुनयो जगुः । यदमृतकलां विभ्रविन्दुज्ज्वलां रचिचिषं
ध्वनति परब्रह्म ध्यानं तवस्तु पदं मुदे ॥११९॥" अकार से हकार पर्यन्त जो मन्त्ररूप अक्षर हैं, वे अपने-अपने मण्डल को प्राप्त हुए परम शक्तिशाली ध्येय हैं और दोनों लोक के फलों को देने वाले हैं। यहाँ “अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, संयोजकस्तत्र दुर्लभः ॥” पूर्ण रूप से चरितार्थ हुआ है। यह सत्य है कि ऐसी कोई मूल (जड़) नहीं, जो औषधि के काम न आती हो और कोई ऐसा अक्षर नहीं जो मन्त्र के रूप में प्रतिष्ठित न हो सके । किन्तु, जिस प्रकार प्रत्येक मूल (जड़) से औषधि का काम लेने वाला दुर्लभ है, उसी प्रकार प्रत्येक अक्षर की मन्त्र-रूप में योजना करने वाला भी दुर्लभ है । 'योजकस्तत्र दुर्लभः' ठीक ही है। इस सन्दर्भ में मुनिश्री नथमल का एक कथन दृष्टव्य है, “एक कालिदास संस्कृत का कवि है और दूसरा अन्य कोई साधारण कवि । क्या अन्तर पड़ता है कालिदास में और दूसरे में । अन्तर कुछ नहीं है, सिर्फ वर्णों के विन्यास का होता है। जो शब्दों की योजना करने में समर्थ होता है, वह उनमें प्राण भर देता है। जो प्राण भरने में निपुण नहीं होता, वह प्राण भरने के स्थान पर कभी-कभी प्राण हर भी लेता है। इससे स्पष्ट है कि हमारे आचार्य और साथ् ब्राह्मी लिपि के अक्षरों और वर्णों का संयोजन करने में निपुण रहे हैं। उन्होंने सावधानता बरती है। यही कारण है कि हमारा वर्णविन्यास यदि एक ओर वैज्ञानिक बन पड़ा है, तो दूसरी ओर भाव रूप में भी जप, संकल्प और मन्त्र को साध सका है और श्रीमद् भगवद्गीता के शब्दों में सच्ची "ब्राह्मी स्थिति" तक पहुँच सका है। __ उसी समय, एक दूसरी समन्नत लिपि और थी। उसका नाम था खरोष्ठी। यह दायें से बायें लिखी जाती थी। इसके अवशेष एक ओर पश्चिमोत्तर प्रदेश से मथुरा तक, तो दूसरी ओर मध्य एशिया तक मिलते हैं। इसका प्राचीनतम पुरातात्त्विक लेख अशोक से तीन सौ ई. पूर्व के एक शिलालेख में प्राप्त हुआ है । मध्य एशिया से प्राप्त शिलालेख दो सौ ईसवी पूर्व के हैं। ग्रन्थ रूप में इसका प्राचीन नमूना खोतान से मिली धम्मपद की हस्तलिखित प्रति है । प्राचीन जैन-ग्रन्थों-भगवतीसूत्र, आवश्यकचूणि, समवायांगसुत्र आदि में अठारह लिपयों का विवेचन है। उनमें एक खरोष्ट्रिका है। मैंने
१. जागरिका, जैन विश्व भारती प्रकाशन, 1973, पृष्ठ 129.
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