Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 83
________________ ७२ आर्यिका बनी । उसने तप किया और आर्यिकाओं में अग्रणी हो गई । अमरों ने उसकी पूजा की। महापुराण में इसका उल्लेख है "भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात् । गणिनीपदमार्याणां सा भेजे पूजितामरैः || ” १ अर्थ-- भरत की बहन ब्राह्मी ने गुरु के अनुग्रह से दीक्षा ली और कुछ समय में ही आर्यिकाओं में गणिनीपद को प्राप्त हो गई । अमरों से पूजित बनी । ऐसा ही एक उल्लेख आचार्य दामनन्दि के 'पुराणसार संग्रह' में भी प्राप्त होता है । उसमें लिखा है कि अपने जीवन से सन्तुष्ट ब्राह्मी, सुन्दरी सहित पुरुदेव अर्थात् भगवान् ऋषभदेव की शरण को प्राप्त हुई । वहाँ दीक्षा लेकर आर्यिकाओं की पुरस्सरी बन गई । पुरस्सरी का अर्थ है अग्रणी । ऐसा अवश्य ही द्रव्यश्रुत में निष्णात होने के कारण हुआ होगा । वह श्लोक है "ब्राह्मी ससुन्दरी तुष्टा प्रपद्य शरणं पुरुम् । अभिषेकमवाप्याभूदायकाणां पुरस्सरी ॥ २ नाट्य-शास्त्र के प्रसिद्ध रचयिता भरतमुनि ने ब्राह्मी को नाट्यमातृ का पद प्रदान किया है। उसके प्रसन्न होने की कामना की है, क्योंकि प्रसन्न नाट्यमातृ नाटक के उद्देश्य को सफल बनाने में पूर्ण समर्थ है। उन्होंने ब्राह्मी को बारम्बार नमस्कार किया है । 3 भागुरि ने 'ब्राह्म याद्या मातरः स्मृताः' लिख कर ब्राह्मी आदि माताओं को स्मरणीय माना है । भागुरि का तात्पर्य है कि ब्राह्मी आदि माताएँ पावनता की प्रतीक हैं और उनके स्मरण से मन पवित्र हो जाता है । हर्षकीर्ति ने 'शारदीय नाममाला' में वाग्देवी, शारदा, भारती, गीः और सरस्वती को ब्राह्मी का पर्यायवाची बताते हुए लिखा है - "हंसयाना ब्रह्मपुत्री सा सदा वरदास्तु नः अर्थात् हंसयाना सरस्वती हमें सदैव वरदान देवे। उन्होंने उसमें वर देने वाली सामर्थ्य को स्वीकार किया है । ४ महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा है कि पूर्वकाल में ब्रह्मा ने ब्राह्मी और सरस्वती की रचना चतुर्वर्णों के लिए की थी, किन्तु वे लोभ में पड़ कर अज्ञानता को प्राप्त गये । इसका अर्थ है कि ब्राह्मी लिपि का ज्ञान चारों वर्णों के लिए समान रूप से निर्धारित किया गया था, केवल ब्राह्मण के लिए नहीं । लिखने-पढ़ने का अधिकार १. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, २४/१७५. २. पुराणसार संग्रह, डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी - सम्पादित, इसमें संकलित आदिनाथ चरित, ३ / ८४, पृ० ४८. Jain Education International ३. “ नमोस्तु नाट्यमातृभ्यो ब्राह्म याद्याभ्यो नमोनमः । " भरतमुनि, नाट्यसूत, ३/६७. ४. शारदीया नाममाला, १ / २ . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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