Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 38
________________ which means the lord of diviras."' इसका स्पष्ट अर्थ है कि बहुत से लेखक इस दिविरपति-विग्रह और संधि मंत्री के नीचे ड्राफ्ट्स और डोक्यूमेन्ट्स तैयार करते थे । ऐसे लेखकों को राज लिपिकर भी कहते थे। सांची के शिलालेख में 'सुबिहित गोतीपुत्त'-को राजलिपिकर कहा गया है ।२ अशोक के शिलालेखों से ऐसा लगता है कि लेखक शब्द, उस समय तक लिखने और उत्कीर्ण करने दोनों अर्थों में आता था, किन्तु आगे चल कर ये दो पृथक्-पृथक् काम हो गये । लेखक केवल लिखने का काम करता था और शिल्पी उन्हें पत्थरों अथवा ताम्र पत्रों आदि पर खोदने का काम करते थे। इस सन्दर्भ में हूलर का कथन दृष्टव्य है, "जैसा कि अभिलेखों के अन्तिम अंशों से विदित होता है कि परम्परा यह थी कि पत्थर पर खोदे जाने के लिए प्रशस्तियाँ अथवा काव्य पेशेवर लेखकों को दिये जाते थे। ये उसकी स्वच्छ प्रति तैयार करते थे। इस प्रति के आधार पर ही कारीगर (सूत्रधार, शिलाकट, रूपकार या शिल्पिन्) पत्थरों पर प्रलेख खोद देते थे।"3 इण्डिया एपिग्राफिका XVI २०८ में शिल्पिन् के लिए वीनाणि शब्द के प्रयोग की बात कही गई है। वीनाणि का अर्थ है वैज्ञानिक । अर्थात् शिल्पी वैज्ञानिक कहा जाता था । कलिंग में इसे ही अक्षशालिन् अथवा अश्मशालिन् कहते थे। कारीगरों के रूप में अयस्कर, कण्सर (कसेरा), संगतराश और हेमकार का भी उल्लेख मिलता है। पेशेवर लेखकों में कायस्थ प्रमुख थे। पहले इनकी कोई जाति नहीं थी। भिन्न-भिन्न वर्गों के लोग राज्य के आफिसों में लेखक (क्लर्क) का काम करने के लिए आते थे। आगे चल कर इनकी एक जाति बन गई । वह एक सम्मिश्रित जाति थी। ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन है कि उनमें शूद्र रक्त अधिक है, किन्तु राजाओं और मंत्रियों के सम्पर्क में रहने के कारण उनका स्थान ऊँचा था।" शायद इसी कारण उनके द्वारा पीड़ित प्रजा की रक्षा की बात याज्ञवल्क्य स्मृति में आई है, “कायस्था लेखका गणकाश्च ते पीड्यमाना विशेषतो रक्षेत् । १. डॉ. राजबली पाण्डेय, इण्डियन पेलियोग्राफी, पृ ६१ २. एपिग्राफिया इण्डिका, II, १०२ ३. व्हूलर, भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृ. २०८. ४. इण्डियन एण्टीक्वेरी, १३ वाँ भाग, पृ. १२३. ५. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृ २०६, पादटिप्पड़. ६. डॉ. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, वाराणसी, १६६१, पृ. २५६. .. कोलबुक, एसेज, II, १६१, १६६ (काबेल) और बम्बई गजेटियर, XIII, I, ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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