Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 119
________________ १०८ के लिखने के लिए भी इसका प्रयोग किया गया, अत: इसे देवनागरी कहते हैं।" कोहरे से आछन्न-सा लगता है। एक प्रश्न उभरता है कि--क्या संस्कृत ही देवनागरी में लिखी गई, प्राकृत और अपभ्रंश नहीं ? फिर केवल संस्कृत के नाम पर ही उसका नामकरण क्यों हुआ? इसका कोई समुचित समाधान नहीं मिलता। देवनगर से देवनागरी की उत्पत्ति की बात श्री आर. एम. शास्त्री ने 'इण्डियन एण्टीक्वेरी' जिल्द ३५ में लिखी थी। उनका कथन है कि--"देवताओं की मूर्तियाँ बनने के पूर्व सांकेतिक चिह्नों द्वारा उनकी पूजा होती थी। वे त्रिकोण, चक्रों आदि से बने हुए यंत्रों के मध्य लिखे जाते थे। सांकेतिक चिह्नों से युक्त ये यन्त्र देवनगर कहलाते थे। देवनगर के मध्य लिखे जाने वाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में उन-उन नामों के पहले अक्षर माने जाने लगे। देवनगर के मध्य उनका स्थान था, अतः उनसे बनी लिपि देवनागरी के नाम से ख्यात हुई।" श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा शास्त्रीजी के इस कथन को गवेषणा-पूर्ण मानते हैं, किन्तु इसमें दिये गये तान्त्रिक पुस्तकों के उद्धरणों के काल निर्णय के सम्बन्ध में उन्हें संदेह है। उनका कथन है, “जब तक यह न सिद्ध हो जाय कि जिन तांत्रिक पुस्तकों से अवतरण दिये गये हैं, वे वैदिक साहित्य से पहले के हैं अथवा काफी प्राचीन हैं, इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।"२ किन्तु यह समझ में नहीं आया कि ओझाजी को यह आग्रह क्यों है कि ये तान्त्रिक चिह्न वैदिक साहित्य से पूर्व के अथवा अत्यधिक प्राचीन ही होने चाहिए। न तो देवनागरी प्राचीन है न उसके विकास के मूल के ही प्राचीन होने की आवश्यकता है। वैसे देवताओं को लेख कहने की बात अत्यधिक प्राचीन है, शायद इस कारण कि घर-द्वारों पर रेखाओं से देवताओं के चित्र बनाने की प्रथा थी। यह कोई तान्त्रिक क्रिया नहीं थी, अपितु सर्वसाधारण में प्रचलित रिवाज था । उन रेखाओं से लिपि का विकास हुआ और उसी क्रम में देवनागरी भी एक है। देवनागरी नाम जिस किसी भी कारण से पड़ा हो, किन्तु उसका विकास सिद्धमातका से हुआ, इसे सभी मानते हैं । इसमें सिरे की पड़ी रेखा लम्बी हो गई और अक्षरों में लम्बी लकीर का समावेश हो गया । सिद्धमातका से भिन्न सिरे की मात्राएँ अधिकतर सीधी हो गईं । सातवीं सदी में नागरी के स्वरूप का आभास मिलने लगा था, किन्तु नवीं सदी से सर्वत्र नागरी में लेख या पुस्तक लिखना आरम्भ १. भाषाशास्त्र तथा हिन्दी भाषा की रूपरेखा, डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृष्ठ ३१६. २. ओझा, प्राचीन लिपिमाला, पृष्ठ ३०. ३. “लेख : देवः । लेखः कस्मात् ? पुरा हि अनुमतां दिव्यानां देवानां विग्रहात्मिका रूपवर्णरचना भित्तिषु लिखित्त्वैव क्रियते स्मेति लेखः ।" देखिए जिनसहस्रनाम, 'लेखर्षभोऽनिल:' की श्रुतसागरीय व्याख्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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