Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 77
________________ इसो संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए महाकवि पुष्पदन्त ने लिखा है "अत्थें सद्देण वि सोहिल्लउ गद्द, अगद्द, दुविहु कव्वुल्लउ । सक्कउ पायउ पुणु अवहंसउ वित्तउ उप्पाइउ सपसंसउ । सत्त्थक लासिउ सग्गणिवद्धउ पाउड अक्खाइय कहरिद्धउ । अणिबद्धउ गाहाइउ अक्खिउ गेयवज्जलक्खणुवि णिरिक्खउ ॥ बंभे सई वक्खाणिसं जं जिह कुंअरी जुयलें बुज्झिउ तं तिह।"१ अर्थ-अर्थ और शब्द से सुशोभित गद्य और अगद्य (पद्य) दो प्रकार का काव्य आलाप और संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की छन्दरचना का प्रशंसायोग्य उपाय बताया । उन्होंने शास्त्र कलाश्रित सर्ग-निबन्धन, कथाप्राभृत की रचना, अनिबद्ध गाथा और गीत-वाद्य के लक्षण भी कहे । इस प्रकार स्वयं ब्रह्म (ऋषभदेव) द्वारा जिसका जैसा व्याख्यान किया गया, युगल कुमारियों ने उसको वैसा ही समझ लिया। .. पुष्पदन्त ने जो गद्य-अगद्य काव्य, विविध भाषाओं की छन्द रचना, सर्गनिबन्धन, कथा प्राभृत, गाथा और गीतवाद्य के सम्बन्ध में कहा, वह सब लिपि के सन्दर्भ के अनुकल ही था। भगवान् ने उसी प्रवाह में यह सब कुछ अपनी पुत्रियों को सिखाया और पुत्रियाँ इतनी प्रतिभावान् थीं कि भगवान् ने जो कुछ जैसा बताया, उन्होंने वैसा ही ग्रहण कर लिया--आत्मसात् किया, स्मरण रक्खा और साधना से और अधिक विस्फुरित किया। इस पर डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन का निष्कर्ष दृष्टव्य है, "ब्राह्मी और सुन्दरी (ऋषभ की पुत्रियों) को काव्य की शिक्षा विशेष रूप से दी गई--संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश, छन्द, शास्त्रनिबद्ध कलाएँ, सर्गबद्ध गाथाएँ और गीत-वाद्य। इससे इतना ही निष्कर्ष निकलता है कि राजकुमारियों को उस युग में काव्य की शिक्षा का विशेष महत्त्व था। संस्कृत काव्य के अतिरिक्त लोकभाषा का साहित्य भी उन्हें पढ़ाया जाता था। इस काव्य के कई भेद थे। 'गणेशायनमः' की जगह 'ओं नमः सिद्धानाम्' शिक्षा के प्रारम्भ में कहा जाता था।" २ । इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने भी 'सठशलाका पुरुष चरित्र' में भगवान् ऋषभदेव के द्वारा ब्राह्मी और सुन्दरी को अक्षर और गणित की शिक्षा दिये जाने की बात लिखी है। आचार्य हेमचन्द्र का जन्म वि. सं. ११४५ और दिवावसान वि. सं. १२२९ माना जाता है । 3 गुजरात के महाराज सिद्धराज और कुमारपाल के समय में वे जीवित थे। दोनों के गुरु थे और अपने युग के १. वही, ५/१८-मध्यवर्ती पाँच पंक्तियाँ २. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, अपभ्रंशभाषा और साहित्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९६५, पृ० २७७. ३. डॉ० हरवंश कोछड़, अपभ्रंशसाहित्य, पृष्ठ ३२१-२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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