Book Title: Bangal Ka Aadi Dharm
Author(s): Prabodhchandra Sen, Hiralal Duggad
Publisher: Vallabhsuri Smarak Nidhi

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Page 10
________________ (छ) बंग, लाढ के नाम सूर्य-प्रकाशवत् स्पष्ट हैं। पृष्ट ३५ पर लेखक का निष्कर्ष ध्यान देने योग्य है। वे स्पष्टरूपेण लिखते हैं कि ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ से तृतीय शताब्दी अशोक के शासनकाल तक बंगालदेश में जैन व आजीवक धर्म की प्रधानता थी। बंगालदेश में आर्य सभ्यता का पदार्पण बाद में हुआ। ईसवी पूर्व दूसरी शती तक वैदिक आर्य ग्रंथों में बंग जनपद का आर्य भूमियों में उल्लेख नहीं मिलता। पाठकों से मेरी विनती है कि वे पृष्ट ४७ पर दिए गए सारांश को अवश्य ध्यान-पूर्वक पढ़ें। इस से हमें नवीन अनुसंधान की भी प्रेरणा प्राप्त होगी। इतिहास विद्यार्थी हिन्दी में इस निबंध के प्रकाशन का निश्चयरूपेण स्वागत करेंगे। जैनधर्म कभी भारत की सीमाओं के बाहर भी व्यात था। भारत में तो हर प्रान्त में इस का प्रचार था । बंगाल, बिहार, उड़ीसा इस के प्राचीन प्रधान केन्द्र माने जा सकते हैं। सम्मेय अथवा सम्मेत शिखर पर २४ में से २० तीर्थंकरों का निर्वाण हुआ था । यह आजकल पारसनाथ हिल के नाम से बंगाल के हज़ारी बारा जिला में है। पहले यह कलिंग में था। अब इस पर्वत के चरण बंगाल में हैं । 'पुराने समय में यह बंगाल से मद्रास तक फैला हुआ था' (T. L. Shah :--Ancient India vol III P. 101) ऐसी मान्यता है कि आचार्य भद्रबाहु भी बंगाल के एक ब्राह्मण कुल में सन्न हुए थे। श्री टी० एल० शाह ने Ancient India vol III P. 341 पर लिखा है कि जगत् प्रसिद्ध आचार्य कालिकसूरि (B.C. 74) तथा उनकी बहिन साध्वी सरस्वतो बंगाल के थे और वहां से अवन्ती आए जहां राजा गर्द्धभिल ने सतो साध्वी पर अत्याचार किया था बृहत् कल्पसूत्र में लिखा है कि भगवान महावीर के साधु पूर्व में अंग व मगध तक विहार करते थे। इस प्रकार बंगाल व निकटस्थ प्रदेश में जैनधर्म का कभी व्यापक प्रचार था।

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