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यह निश्चित है कि समझे हुए पदार्थ का जब बार-बार चिन्तन किया जाता है तभी वह मन-मस्तिष्क में स्थिर रह सकता है। इसी प्रकार अध्यात्मतत्त्व को भी हृदय में स्थिर रखने के लिए भावनाओं का चिन्तन अति आवश्यक है। वस्तुतः अध्यात्मयोग का बहुत कुछ तत्त्व भावनायोग पर ही निर्भर है।
जैन आगमों में मोक्ष-प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं-दान, शील, तप और भाव। इन सब में भी भाव ही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भाव के बिना दान, शील और तप भी कार्यकारी नहीं हो पाते। सब क्रियाएँ फलहीन रह जाती हैं।
पतंजलि ने भी समाधि-प्राप्ति के साधन रूप उपादेय अभ्यास' के बारे में भी यही बात कही है।
भावना के लिए आगमों में अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) शब्द भी व्यवहृत हुआ है, जिसका अर्थ है बार-बार देखना-चिन्तन-मनन और अभ्यास करना।
अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य-ये पाँच विषय भावना के हैं। इन विषयों की भावना करने से वैभाविक संस्कारों (कर्मजन्य उपाधियों) का विलय, अध्यात्म, तत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उत्कर्ष होता है।
भावनायोग के सन्दर्भ में बारह भावनाओं का भी वर्णन जैन शास्त्रों में प्राप्त होता है। वे बारह भावना हैं
(1) अनित्य भावना-इसमें जीवन की क्षणभंगुरता-अनित्यता का चिन्तन किया जाता है।
(2) अशरण भावना-इस भावना में साधक यह चिन्तन करता है कि संसार में धर्म के सिवाय अन्य कोई भी व्यक्ति या वस्तु प्राणी के लिए शरणभूत नहीं है।
(3) संसार भावना-इसमें संसार की स्थिति और उसके दुःखमय स्वरूप का चिन्तन साधक करता है।
(4) एकत्व भावना-इस भावना द्वारा साधक यह चिन्तन करता है कि वह अकेला ही जन्म ग्रहण करता है और अकेला ही मरता है, उसका कोई साथी नहीं है।
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स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः।
-पातंजल योगसूत्र 1/14
*84 * अध्यात्म योग साधना.