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इस कार्य-कारण भाव को श्रमण अपनी तितिक्षा की साधना से स्थिर रखता है। जितनी ही उसकी तितिक्षायोग की साधना गहरी होगी उतनी ही उसमें सरलता एवं ऋजुता होगी और आर्जव धर्म का परिपालन वह उत्तम भावों से कर सकेगा।
इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है-सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ-ऋजु अथवा सरल व्यक्ति में धर्म स्थिर होता है।
(4) मार्दव-मार्दव धर्म का परिपालन करने वाला श्रमण मान कषाय का परिमार्जन करता है। ___मान के लिए सूत्रकृतांग सूत्र (1/39) में शब्द दिया गया है-विउक्कसंव्युत्कर्ष; और आधुनिक मनोविज्ञानशास्त्री मैक्डूगल ने भी मान का संवेग व्युत्कर्ष माना है।
व्युत्कर्ष का अभिप्राय है अपने को उच्च समझना। जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने को उच्च समझेगा तो अन्य उसकी दृष्टि में नीचे हो ही जायेंगे। उच्चता का अभिमान या दर्प मान का मुख्य कारण है।
श्रमण इस ऊँच-नीच की भावना का परिमार्जन अपने समरसीभाव-साम्यता की भावना-तितिक्षायोग की साधना से करता है। वह संसार के सभी प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझता है, सबके प्रति आत्मौपम्य भाव रखता है।
(5) लाघव-इस धर्म का परिपालन करता हुआ श्रमण ऋद्धि, रस और साता-इन तीनों गारवों का पूर्णतः परित्याग कर देता है, उपकरण भी अल्प रखता है। गारवों के त्याग और उपकरणों की अल्पता से उसकी तितिक्षा और भी बढ़ती है, गहरी होती है।
(6) सत्य-सत्य का श्रमण के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। यह दूसरा महाव्रत है, भाषा समिति है, वचन गुप्ति है, वचन समिति है और धर्म भी है। ___वस्तुतः सत्य के विधेयात्मक (Positive) और निषेधात्मक (Negative) दोनों पहलुओं को श्रमण के जीवन में महत्त्व दिया गया है, स्वीकारा गया है। भाषा समिति में उसका विधेयात्मक रूप है और वचनगुप्ति में निषेधात्मक
रूप।
सत्य आत्मा का धर्म है, यह वीतराग भाव की साधना है, शान्ति का
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