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है और आत्मा की अपेक्षा से तप का कार्य एवं लक्ष्य आत्म-शोधन अथवा आत्म-शुद्धि है।
तप का महत्त्व आत्म-शुद्धि को ही बौद्धों ने चित्तशुद्धि कहा है और चित्तशुद्धि के लिए तपश्चरण करने की व्यवस्था की है। महामंगलसुत्त में वर्णित चार उत्तम मंगलों में तप को प्रथम स्थान दिया है।
तथागत बुद्ध ने कहा है कि तप करने से किसी के कुशल धर्म बढते हैं और अकुशल धर्म कम होते हैं तो उसे तप अवश्य करना चाहिये।
इसी प्रकार वैदिक परम्परा में भी तप को बहुत उच्च स्थान दिया गया है। इसे आत्मा को तेजस्वी बनाने की साधना माना गया है।
जैन धर्म में भी तप का बहुत महत्त्व है। इसे आत्म-शुद्धि और मुक्ति का प्रत्यक्ष कारण माना गया है। तपोयोग की साधना से साधक अपने पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को शुद्ध बनाता है। इसीलिए जैन श्रमणों के लिए आगम ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार के विशेषण प्रयुक्त हुए हैं, जो उन्हें 'तप:शूर'' अथवा तपोयोग के उत्कृष्ट साधक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
तप के विभिन्न प्रकार तपोयोग का जैन आगमों और ग्रन्थों में विस्तत विवेचन मिलता है। भगवान महावीर ने तपोयोग को विस्तृत और व्यापक संदर्भ प्रदान किया है। भगवान महावीर स्वयं एक महान तपोयोगी थे।
1. अंगुत्तरनिकाय-दिट्ठिवज्ज सुत्त। 2. (क) अजो भागस्तपसा तं तपस्व।
-ऋग्वेद 10/16/14 (ख) श्रेष्ठो ह वेदस्तपसोऽधिजातः।
-गोपथ ब्राह्मण 1/1/9 (ग) तपसा चीयते ब्रह्मः।
-मुण्डकोपनिषद 1/1/8 (घ) ऋतं तपः सत्यं तपः श्रुतं तपः शांतं तपो दानं तपः।
-तैत्तिरीय आरण्यक 10/8 3. तपसा निर्जरा च। -तत्वार्थ सूत्र 9/3 4. उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले घोरे घोरगुणे घोर तवस्सी।
-भगवती शतक 1, उद्देशक 3 5. तवेसूरा अणगारा। .
-आवश्यकनियुक्ति, गा. 450 6 देखिए-औपपातिक सूत्र, आचारांग, उत्तराध्ययन सूत्र आदि ग्रंथ।
. * बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना - 233 *