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(4) उपेक्षा अथवा माध्यस्थ्य भावना द्वारा वह पापी, दुष्ट, दुराग्रही जीवों पर से राग-द्वेष हटा लेता है।
इन चार भावनाओं के अनुशीलन से अध्यात्मयोगी साधक की आत्मा में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार, गुणानुराग तथा राग-द्वेष की निवृत्ति सम्पन्न होती है और वह अध्यात्मयोग का सम्यक् प्रकार से आचरण करने में सक्षम बनता है।
इस प्रकार अध्यात्मयोग के स्वरूप को समझकर जो व्यक्ति उसे आत्मसात् कर लेता है, उसके पापों का नाश, वीर्य का उत्कर्ष, चित्त की प्रसन्नता, वस्तुतत्त्व का बोध तथा आत्मानुभवरूप अमृत की प्राप्ति होती है। 2 `यह अध्यात्मयोग की फलश्रुति है।
(2) भावनायोग
वह
भावना योग का माहात्म्य आगमों में भी बताया गया है । सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है - जिस साधक की आत्मा भावनायोग से शुद्ध हो गई है, साधक जल में नौका (नाव) के समान है; और जिस प्रकार नाव को तट पर विश्राम प्राप्त होता है उसी प्रकार उस साधक को भी सभी प्रकार के दुःखों एवं कष्टों से छुटकारा प्राप्त हो जाता है तथा उसे परम शान्ति का लाभ होता है।
भावनायोग का लक्षण बताते हुए कहा गया है - प्राप्त हुए अध्यात्मयोग का बुद्धिसंगत ( विचारपूर्वक) बार-बार अभ्यास करना, चिन्तन करना - १ - भावनायोग
है।"
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(क) सुखीर्ष्या दुखितोपेक्षां पुण्यद्वेषमधर्मिषु । रागद्वेषौ त्यजेन्नेता लब्ध्वाऽध्यात्मं समाचरेत्।।7।। -योगभेदद्वात्रिंशिका (ख) मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणांभावनातश्चित्त प्रसादनं । –पातंजल योगसूत्र 1/36
अतः पापक्षयः सत्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम्। तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यदि एव तु ।।
-योगबिन्दु 359; तथा योगभेदद्वात्रिंशिका 8
भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। णावा व तीर सम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टई ।। अभ्यासो बुद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः ।
- सूत्रकृतांग 1/15/5
- योगभेदद्वात्रिंशिका 9
* जैन योग का स्वरूप 83