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अन्तर् आत्मा में सिद्धचक्र ध्यान-साधना
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सिद्धचक्र की ध्यान-साधना के आसनों की अपेक्षा, दो भेद हैं। जब साधक अपनी अन्तर् आत्मा में ही सिद्धचक्र का ध्यान एवं साधना करता है तो वह दो आसनों से अवस्थित होकर करता है - ( 1 ) कायोत्सर्गासन और (2) पद्मासन।
कायोत्सर्गासन में अवस्थित साधक 'नमो अरिहंताणं' पद को चरण युगल में स्थापित करता है, 'नमो सिद्धाणं' को ललाट में, 'नमो आयरियाणं' को नासिकाग्र में, 'नमो उवज्झायाणं' को दायीं आँख में, 'नमो लोए सव्व साहूणं' को बायीं आँख में, 'नमो दंसणस्स' को कण्ठ (विशुद्धि चक्र) में, 'नमो नाणस्स' को हृदय कमल में, 'नमो चरित्तस्स' को उदर कमल में, और 'नमो तवस्स' को नाभि कमल में।
इस प्रकार इन नवपदों को स्थापित करने के बाद साधक अपनी चेतना की धारा को चरण युगलों से ऊर्ध्वगामी बनाकर सीधा ललाट पर, फिर नासिकाग्र पर, तब दायीं आँख पर, बायीं आँख पर, कण्ठ में, हृदय कमल, उदर कमल और अन्त में नाभि कमल पर पहुँचाता है तथा इस प्रकार क्रमशः नवपदों की साधना करता है ।
इस साधना से साधक की पूरी चेतना धारा (चरणों से लेकर ललाट–कपाल तक) सम्पूर्ण शरीर में जागृत हो जाती है।
पद्मासन में अवस्थित साधक ' णमो अरिहंताणं' पद को मुख पर स्थापित करता है, 'णमो सिद्धाणं' को ललाट में, ' णमो आयरियाणं' को कण्ठ में, ‘णमो उवज्झायाणं' को दायें हाथ में, णमो लोए सव्वसाहूणं' को बाएँ हाथ में तथा 'एसो पंच नमुक्कारो', 'सव्व पावप्पणासणो', 'मंगलाणं च सव्वेसिं' और 'पढमं हवइ मंगलं' ये चारों पद क्रमशः सुषुम्ना में स्थापित करता है । अथवा 'नमो दंसणस्स', 'नमो नाणस्स', 'नमो चरित्तस्स' और 'नमो तवस्स' इन चारों पदों को क्रमशः सुषुम्ना में स्थापित करता है।
साधना क्रम वही है, अर्थात् साधक अपनी प्राणधारा को 'णमो अरिहंताणं' से प्रारम्भ करके 'पढमं हवइ मंगलं' अथवा 'नमो तवस्स' पर समाप्त करता है तथा इस प्रकार अपने अन्तरात्मा में प्राणधारा का चक्र ही निर्मित कर लेता है। यह चक्राकार घूमती हुई प्राणधारा कुण्डलिनी शक्ति को शीघ्र ही जागृत कर देती है और साधक ऊर्ध्वरेता बन जाता है।
* 388 अध्यात्म योग साधना