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अप्रयत्न है, अप्रवृत्ति है, निवृत्ति है और है निवृत्ति की साधना, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को रोककर उन्हें स्थिर करना, एक ध्येय पर लगाना, दृढ़ीभूत
करना।
ध्यान की साधना तपोयोगी साधक सत्य की खोज के लिए करता है। सत्य की खोज के दो मार्ग हैं- भौतिक और आध्यात्मिक, प्रवृत्तिपरक और निवृत्तिपरक । सत्य की जितनी भी खोज वैज्ञानिक करता है, वह सब प्रवृत्तिपरक है; क्योंकि उसका क्षेत्र संसार है, जड़ पदार्थ है, पुद्गल है। किन्तु तपोयोगी का क्षेत्र अध्यात्म है, अतः उसकी खोज का मार्ग भी निवृत्तिपरक है, वह ध्यान तप की साधना द्वारा चित्त को एकाग्र करके चेतना की अतल गहराइयों में उतरता है और आध्यात्मिक सत्य को खोजकर उसकी स्वतंत्र सत्ता का, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। अब तक जो उसे कषायात्मा आदि का अनुभव हो रहा था, उसके स्थान पर वह शुद्धात्मा का अनुभव करता है तथा अपने ज्ञायक भाव को प्रतिष्ठित करता है। साथ ही अपनी चेतना की धारा को व्यापक बनाता है।
अध्यात्मयोगी साधक योग की साधना द्वारा पदार्थों के प्रति प्रतिबद्धता को तोड़ता है, इसका प्रतिफलन दुःख-मुक्ति के रूप में होता है। दुःख - मुक्ति के साथ ही उसका मन (चित्त), अन्तर्मुखी, निर्मल और सशक्त बनता है।
मानव के मन की स्थिति शरीर में वही है जो नगर में पावर हाउस की होती है। पावर हाउस से विद्युत की धारा जब नगर में फैल जाती है तो पावर हाउस रिक्त हो जाता है, उसकी ऊर्जा, शक्ति और क्षमता क्षीण हो जाती है, यही स्थिति मन (मस्तिष्क) की है। पावर हाउस को पुनः शक्तिशाली नई विद्युत के उत्पादन एवं संचयन से किया जाता है और मन ( मस्तिष्क) को शक्तिशाली ध्यान से बनाया जाता है। स्मृति, विश्लेषण, चयन आदि कार्य मानव शरीर में लघुमस्तिष्क (Cerebellum) द्वारा किये जाते हैं और ध्यान द्वारा इन शक्तियों का विकास होता है।
आध्यात्मिक भाषा में प्रवृत्ति से शक्ति क्षीण होती है और निवृत्ति से शक्ति का संचय होता है। व्यक्ति चलने से थकता है, बोलने से थकता है और मन के संकल्पों -विकल्पों, कषायों के आवेगों-संवेगों से थकता है। ये सब कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति ही तो हैं और इन तीनों योगों की स्थिरता, प्रवृत्ति का अभाव अथवा निवृत्ति तथा एकाग्रता - एकनिष्ठता ही ध्यान है। इसीलिए ध्यान से असीम शक्ति का संचयन होता है। ध्यान के बाद साधक को स्फूर्ति का अनुभव होता है।
* ध्यान योग-साधना 273