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घुटनभरा असन्तुष्ट जीवन जीता है। वह कभी उच्चता (superiority complex) का प्रदर्शन करता है तो कभी हीनता (inferiority complex) का। निर्बलों पर झल्लाना, उन पर नाराज होना तथा सबलों की खुशामद करना-यही उसका जीवन व्यवहार बन जाता है। उसे स्वयं अपने ऊपर विश्वास तो रहता ही नहीं, उसका आत्मविश्वास समाप्तप्राय हो जाता है, कभी अतिविश्वास (over-confidence) का शिकार बन जाता है तो कभी अल्पविश्वास (under confidence) का। विभिन्न प्रकार के परस्पर विरोधी विचारों के वात्याचक्रों में घूमता-भटकता रहता है।
___ अतः ग्रन्थियों के मूल कारणों और आधारों को समझना साधक के लिए आवश्यक है जिससे वह अपनी साधना समुचित रूप से कर सके। ग्रन्थियों के मूल कारण और आधार ___ग्रन्थियों के मूल कारण हैं-राग-द्वेष और आधार है-पक्षपात। पक्ष दो होते हैं-एक अपना और दूसरा पराया। अपने के प्रति कभी राग भी होता है और रागजन्य क्रोध भी। क्रोध इस प्रकार कि अपने पुत्र आदि, जिस पर अपनत्व भाव है उसने कोई बात न मानी तो उस पर क्रोध आ गया। लेकिन पराया तो पराया है, उसके प्रति अपनत्व भाव तो है ही नहीं; उसके प्रति द्वेष की ग्रंथि ही बनती है।
इस अपने-पराये का पक्षपात और अहंकार-ममकार, राग-द्वेष रूप आधार को समाप्त किये बिना ग्रंथि-भेद नहीं हो पाता। ग्रन्थि-भेदयोग की साधना
ग्रंथि-भेद का अभिप्राय श्वानवृत्ति को त्यागकर सिंहवृत्ति अपनाना है, श्वान से सिंह बनना है। श्वान की दो प्रमुख वृत्तियाँ हैं-एक, निर्बलों पर झपटना, उन पर गुर्राना, उनको नोंचना, खसोटना, नाजायज रूप से दबाना; तथा बलवानों के आगे दब जाना, दाँत दिखाना, पूँछ हिलाना और उनकी खुशामद करना; और दूसरी वृत्ति है निमित्त पर झपटना, निमित्त को ही दोषी मानना; जैसे कोई व्यक्ति कुत्ते को लकड़ी से मारे तो वह लकड़ी पर झपटता है, उस व्यक्ति पर नहीं; श्वान की यह दूसरी वृत्ति निमित्त आश्रित होती है।
. इसी प्रकार जो ग्रंथिग्रस्त मनुष्य होते हैं वे भी श्वानवृत्ति के समान आचरण करते हैं।
* 184 * अध्यात्म योग साधना *