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(14) आसन सिद्धि होती है। (15) राग-द्वेष का उपशमन होता है। (16) स्थूल और सूक्ष्म शरीर का शोधन होता है। (17) तैजस् शरीर बलशाली होता है। उसका प्रभाव बढ़ता है। (18) अन्तरंग तपों की साधना के लिए आधार भूमि तैयार होती है। (19) चित्त-शुद्धि होती है। (20) मन के संकल्प-विकल्प और आवेग-संवेगों का उपशमन होता
इस प्रकार तपोयोगी साधक बाह्य तपों की आराधना-साधना से बाह्य शुद्धि करके आन्तरिक शुद्धि की ओर-आभ्यन्तर तपों की ओर कदम बढ़ाता है। दूसरे शब्दों में, बाह्य तप, आभ्यन्तर तपों की आधार-भूमि प्रस्तुत करते हैं। तपोमार्ग पर गति करने वाले साधक के लिए बाह्य तपों की साधना आवश्यक है। बाह्य तपों से बाह्य आवरण-शुद्धि के बाद ही साधक आत्म-शुद्धि के सोपान पर बढ़ पाता है।
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* बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना * 257*