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गुरु से, पुस्तकों से जो कुछ भी ज्ञान अर्जित करता है, उसी के अनुकूल उसके अन्तर्जगत में एक धारा बन जाती है, वैसे ही उसके विचार बन जाते हैं, सोचने-समझने का एक दायरा बन जाता है, यही उसकी विचारों की धारा
मानव, चिन्तन-मननशील प्राणी है, वह सोचे-विचारे बिना रह ही नहीं सकता; हमेशा कोई न कोई विचार उसके मन-मस्तिष्क में बहता ही रहता है, यह बहते हुए विचार ही एक धारा का रूप ले लेते हैं और यही आत्मा की विचारों की धारा है, विचारों का स्पन्दन है।
___एक दूसरी धारा भी मानव के (और विशाल दृष्टि से देखा जाय तो प्राणी मात्र के) अन्तर्जगत में सतत गतिमान रहती है, वह है भावों की धारा। भावधारा का अभिप्राय है-कषायों की धारा। क्रोध की, मान की, माया की, लोभ की, हास्य-रति-अरति-भय-जुगुप्सा स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद की (काम भावना की) धारा-यह धारा भी मानव के अन्तर्जगत में-सूक्ष्म अथवा तैजस् शरीर में सतत बहती रहती है।
यह धारा प्रशस्त भी होती है और अप्रशस्त भी; शुभ भी होती है और अशुभ भी तथा संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट भी; अन्धकार के रंग-काले-नीले-हरे रंग की भी होती है और प्रकाश के रंग-पीले, लाल और श्वेत रंग की भी। इसे संक्षेप में राग-द्वेष अथवा मोह की धारा भी कह सकते हैं। ___जब. संक्लिष्ट विचारों की धारा प्रवाहित होती है तो मनुष्य के मन में बुरे भाव (विचार) आते हैं, कभी घृणा के तो कभी द्वेष के, कभी कपट के तो कभी भय एवं वासना के। जब मनुष्य मूर्च्छित होता है, पर-पदार्थों, विषयों, घटनाओं के प्रति संवेदनशील होता है, उनके प्रति प्रतिबन्धित होता है तब यह संक्लिष्ट विचारों की धारा अथवा द्वेष की धारा चलती है।
लेकिन द्वेष की धारा भी स्थायी नहीं होती, असंक्लिष्ट धारा भी मनुष्य की अन्तश्चेतना में चलती है तब उसमें अच्छे भाव, अच्छे विचार, प्रेम, करुणा, एकता, विश्वास आदि के आवेग उमड़ते हैं, वह अच्छे काम करने को प्रवृत्त होता है।
लेकिन संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट ये दोनों ही प्रकार की भावधारा मोहजन्य है, अतः इसमें मूर्छा भाव रहता है। योग की भाषा में कहें तो मनुष्य की अन्तश्चेतना मोह-मूर्च्छित रहती है।
* लेश्या-ध्यान साधना * 333 *