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(7) लोकोपचार विनय-माता-पिता, गुरु-बन्धु, मित्र, स्वजन आदि के साथ उनकी मर्यादानुकूल आचरण सद्व्यवहार तथा शिष्टाचार आदि को लोकोपचार विनय कहते हैं। इस के सात भेद हैं-(1) अभ्यासवर्तित (गुरु आदि के सन्निकट रहना), (2) परछन्दानुवर्ती (गुरु जनों आदि वरिष्ठ जनों की इच्छानुसार कार्य करना), (3) कार्य हेतु (गुरु जनों के कार्यों में सहायोग देना), (4) कृत प्रतिकृत्य (गुरु आदि वरिष्ठ व्यक्तियों के उपकारों का स्मरण करके उनके प्रति कृतज्ञ रहना), (5) आर्तगवेषणा (रोगी एवं अशक्त श्रमणों के लिए आहार आदि की गवेषणा करना), (6) देश काल ज्ञाता (देश और समय के अनुसार व्यवहार करना), (7) सर्वत्र अप्रतिलोमता (किसी के विरुद्ध आचरण न करना)।
__ भगवान महावीर ने विनय को धर्म का मूल बताया है। धर्म का मूल आधार होने से विनय तप है, निर्जरा का हेतु है।
साधक इन सातों प्रकार के विनय द्वारा अपने आचरण को, योगों को शुद्ध करता है। उसकी आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होती है। लोकोपचार विनय से उसकी स्वयं की प्रशंसा तो जगत में होती ही है, साथ ही धर्मसंघ की भी प्रभावना होती है। अन्य पर-धर्मी व्यक्ति भी धर्म की ओर अभिमुख होकर आत्म-कल्याण में तत्पर होते हैं।
(3) वैयावृत्य तप : समर्पण की साधना वैयावृत्य का अभिप्राय है-पूर्णतया समर्पण। सेवा और वैयावृत्य में बहुत बड़ा अन्तर है। निःस्वार्थ सेवा करते हुए भी व्यक्ति में इतना विचार तो रहता ही है कि 'मैं अमुक की सेवा कर रहा हूँ, या 'मुझे अमुक की सेवा करनी चाहिए;' अथवा 'सेवा करना मेरा कर्तव्य है।' किन्तु सेवा वैयावृत्य तब बनती है जब उसके ये विचार तिरोहित हो जाते हैं, वह सेवा में तन्मय हो जाता है, उसे अपने आप का भी भान नहीं रहता। ऐसी सेवा ही तप की कोटि में आती है, वैयावृत्य तप कहलाती है और कर्म-निर्जरा का हेतु बनती है।
तपोयोगी साधक वैयावृत्य तप की साधना उसमें तल्लीन और तन्मय होकर करता है। और जब उसे उत्कृष्ट तन्मयता (रसायन) आ जाती है, वैयावृत्य करते समय बाह्य भावों से विरत होकर, सुख की अनुभूति करने लगता है तब उसे तीर्खकर नाम कर्म का बंध भी हो सकता है।
1. धम्मस्स विणओ मूलं।
-दशवैकालिक 9/2/2
* आभ्यन्तर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना * 263 *