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(9) कायोत्सर्गासन-कायिक ममत्व का त्याग करके. दोनों भजाओं को लटकाकर शरीर और मन से स्थिर होना, कायोत्सर्ग आसन है।'
इनमें से किसी एक आसन अथवा एक से अधिक आसन और अन्य भी कोई आसन, यथा सिद्धासन आदि जिस आसन से भी साधक सुखपूर्वक अधिक देर तक स्थिर रह सके, मन को अचंचल दशा में रख सके-उसी आसन का प्रयोग साधक करता है। __आसनों से साधक को शारीरिक एवं मानसिक लाभ भी होता है, जैसे कायोत्सर्गासन से मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है, साधक का तन-मन तनाव-मुक्त होकर हल्का और तरोताजा हो जाता है, उसके अन्दर उत्फुल्लता
और उत्साह उत्पन्न होते हैं। ____आसन-जय अथवा आसन-शुद्धि के द्वारा साधक अपने स्थूल (औदारिक) शरीर को स्थिर करने का अभ्यास करता है।
शरीर के स्थिर होने पर, जो प्राण-शक्ति की धारा शरीर की हलन-चलन आदि क्रियाओं में खर्च हो जाती थी, वह नहीं हो पाती; परिणामस्वरूप प्राणशक्ति का प्रवाह तैजस और औदारिक शरीर को अधिक प्रभावी बनाता है। साथ ही औदारिक शरीर के स्थिर होते ही तैजस् शरीर भी स्थिर हो जाता है; अतः प्राणधारा का अखण्ड प्रवाह सहज गति से शरीर के अन्दर ही संचारित होता रहता है। इससे भी तैजस् शरीर को बल मिलता है।
इस प्रकार आसन-शुद्धि की फलश्रुति साधक के तैजस् और औदारिक शरीर की स्वस्थता, प्रभावशाली बनना तथा मानसिक स्थिरता है। ये तीनों लाभ साधक आसनशुद्धि से प्राप्त करता है।
- नाड़ी शुद्धि प्राण-शक्ति को तीव्र, ऊर्जस्वी और ऊर्ध्वमुखी बनाने का यह द्वितीय सोपान है। आसन-शुद्धि के बाद साधक 'नाड़ी-शुद्धि की ओर अभिमुख होता है। नाड़ी-शुद्धि का अभिप्राय है स्वर नियन्त्रण अथवा स्वर-नियमन। ___मनुष्य के दाएँ और बाएँ नथुने से जो वायु बाहर निकलता रहता है, वह योग की भाषा में 'स्वर' कहलाता है। दाएँ नथुने से जब वायु निकलता
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ये आसन मुक्ति-प्राप्ति में भी सहायक हैं। अधिकांश साधकों को इन्हीं आसनों में अवस्थित रहकर कैवल्य और मोक्ष की प्राप्ति हुई है।
-सम्पादक
*320अध्यात्म योग साधना *