Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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नाथ भक्ति रस भाव थी रे मनः । तृण जाणु पर देव रे भवि• । चितामणि सुरतरु थकी रे मन ।
अधिकी अरिहंत सेव रे । भवि० ॥ ६ ॥ मायावी देवों को कुछ न मानते हुए अरिहत की सेवा को चितामणि और कल्पवृक्ष से भी बढ़ कर मानी है। ऐसा करके श्रीमान् ने अपने अनुपम विवेक को व्यक्त किया है।
इस प्रकार यह “विहरमान जिन स्तवन वीसी" ऐक आध्यात्मिक पुरुष के अनुपम आध्यात्मिक भावों से संपन्न जैन दर्शन की विशिष्टता को दिखाती है। - इसकी रचना श्री सिद्धाचन तीर्थाधिराज पर चतुर्मास करते हुए श्रीमान देवचंद्रजी महाराज ने की है । आपकी गुरु परपरा आपने इसी बीसी के अंतिम पद में इस प्रकार दी हैं।
खरतर गच्छ जिनचंद सरिवर, पुण्य प्रधान मुणिदो। सुमतिसागर साधुरंग सुवाचक पीधो श्रुत मकरदो ॥ मिनः ॥ गज सार पाठक उपकारी ज्ञान धर्म दिणदो। दीपचंद्र सहरु गुणवता