Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
पुराव
के आनन्द निमित्त प्रगटभरहो तुम्हास आकार देखकर यह जानिये कि तुम किसीकी प्रार्थना भंग म I "करोहो तुम बड़े दातार सबके अर्थ पूर्ण करोहो तुम सारिखे महंत पुरुषों की जो विभूतिहै सो परउपकारही के हो आप सबको बिदा देकर एकक्षण एकांत बिराजकर चितलगाय मेरी बात सुनो तो मैं कहूं तब रावणने ऐसाही किया सब उसने उपरंभाका सकल वृतांत कान में कहातव रावण दोनों हाथकानन पर घर सिर धुन नेत्र संकोच केकसी माताके पुत्र पुरुषों में उत्तम सदाचाचार परायण कहते भए । हे भद्रे क्या कहीं यह काम पापके बंधका कारण कैसे करनेमें आवे में परनारियों को अंगदान करनेमें दरिद्री हूँ ऐसे कर्मोंको धिक्कार होवे तैंने अभिमान तजकर यहबात कही परंतु जिनशासनकी यह आज्ञा है कि farairwear बनी सग्री अथवा कुंवारी तथा वेश्या सर्वही परनाने सदा काल सर्वथा रजनी । नारी रूपवती है तो क्या यह कार्य इस लोक और परलोकका बिरोधी विवेकी न करें जो दोनों लोक भ्रष्ट करे सो काहेकी मनुष्य, है भने पर पुरुषकर जिसका अंग मर्दित भया ऐसी जो परदारासो उदिष्ट वीजनसमान ताहि कौन नर अंगीकार करे । वह बात सुन विभीषण महा मंत्री सकलनय के जानने
राजविद्या श्रे बुद्धि जिनकी रावणको एकांतमें कहतेभए हे देव राजाओं के अनेक चरित्र हैं किसी समय किसी प्रयोजन के अर्थ किंचितमात्र अलीक भी प्रतिपावन करे हैं इस लिये श्राप इससे ..स्व रूखी बात मसकहो वह उपरभावशभई संतीककुढ़के लेनेका उपाय कहेगी ऐस बचन विभीषण के सुनकर रावण राजविद्या में निपुणमायाचारी विचित्रमाला सखीसे कहते भए हे भद्रे वह मेरे में मन है और मेरे बिना अत्यंत दुखी है इस लिये उसके माणों की रचा मुझे करनी योग्य है सो प्रायों
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only