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२०२०
जिगह बम्बई,इयवा,लाहौर आदिके छपे जैनग्रंथ मंगानेका सबसे बड़ा कार्यालय
મદ્ બુદ્ધિક : સાણ ૬ - જ્ઞાન મંદિ*
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श्री पाण्डवपुराण भाषा छन्द
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श्री अाराधनासारकथाकोप १२६ कथा
साभर
पता-लाला जैनीलाल जैन मालिक दिगम्बरजैनग्रन्थप्रचारक पुस्तकालय मु०देवजह (सहारनपुर)
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- 7200000
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श्रीकैलाससागरसरि ज्ञानमन्विय
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Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * खास हमारी छपाई पुस्तकें * श्री पद्म पुराणजी महान ग्रंथ ६ । तीर्थक्षेत्र पूजन गुटका
शत्रुजय गिर पूजन पाण्डव पुराण चौपाईबंद २ | विपापहार भाषा
पंचपरमेष्टी बन्दना भाराधनासारकथाकोषबदा३ नमोकार मन्त्र वेलबूटेदार
बारहमासा नमनाथ
. यशोधर चरित्रवचनका पंचमंगल कपचन्दजी कत
समाधिमरण भाषा बदा सरहद्वीप पूजन पाठ ज्योतीपूसाद भजनमाला
कटहरया,दुःखहरगवीनती). सेउसुदर्शन की कथा न्यामतसिंह भजनमाला
पदेशपचीसी,पूकारपचीसी)। चारदान कथा मंगतराय भजनमाला..
सप्तरिपी पूजन राजा श्रेणकब चेलनाचरित्र लावनी कर्ता रखएडन
भूविलास भजन नईरंगत । निश भोजन त्याग कथा चवीसी अखाड़ा..
पण पचीसी निश भोजन कथा जोगीरासा (बैराग्य भावन
नैबागकाण्ड भापा करकुएट स्वामी की कथा आलोचनापाठ
बारहभावना संग्रह.बडी. पातस्मरणेमंगलपाठ नित्यन्येम पूजन संस्कृत -)"
दर्शन कथा गिरनार और पाबा गिर पूजा
स-पूजनसंग्रहभादपाठ 11-)| क्रियाकोप. कृष्णसिंह कृत बम्बईलाहीस्तथा इटावा श्रादि नगरों के छप जैनग्रन्थ सर्वे. हमारे पास मिलते हैं भगवतीयाराधना सार
समयसार श्रात्मरख्याती
४) चहालादलत रामकृत चौबीस पूजनणठ वृन्दावन १) द्रव्यसंग्रह सटीक
छहराला द ख सटीक शील कथा रत्नकरंड काकाचार बदा
पकी भाव भापा. पूयुम्न चारित्र रस्न कट छोटी टीका
दशेनपाठ परमात्मप्रकाश सटीक धर्म परीक्षा
एच्छतीसी बसुनन्दीश्रावकाचारसटीक फाम्यपुराण
नाणेब १००पुस्तक देवगुरुशास्त्र पूजन सटीक पूवचनसार
जैननित्य पाट संग्रह पुण्याश्रावकथेकोषः चंदाबन बिलास
सामायक पाठ चौबीसठाणागुटका सानपादनाटक नया
ईस फरीपहर स्वानुभवदर्पण मोत शाख
बनती साह जिनदत्त चारित्र भधर जनशतक.
रमाथजकड़ी दानकथा अकलंक स्तोत्र व जीमनी
बारामासा सुति राज रक्षाबन्धन कथा जैनपद संग्रह दौलतराम
सीता जी इतबार कथा
भागचंद व्रत कथा संग्रह
भूधरदास
बचदंत होली की कथा
योनतराय
श्रावक.बनिता बोधिनी बुढ़ापे का विवाह
, नेतसुकदास ..! पुरायच्याथव कथाकार.. मनमोहनी नाटक श्रावकबनिता रागनी
हरिवंश पुराण नागरीपू.काश .
भक्तामर स्तोत्र संस्कृत
ताबसस्कतामात्मानशासन १०० के दाम
भाषा पुरुषार्थसिद्धोपायसटीक
सूचजी सदासुख जीकत.टीका) धर्मसंग्रह श्रावकाचार नोट-हमारे पाससर्चप्रकार और सर्बजगह के छपे जैनप्रन्थ हरसमय तेस्रारमिलते हैं
श्रावश्यक्ता पूर्वक मंगायो, कमीशन का हिसाब इसके दूसरी तरफ देखो - कमीशन काटकर पुस्तक भेजी जावेगी ।
पता-लाला जैनीलाल जैन मालिक दिगम्बर जैनग्रन्थ कार्यालय मु. देवबन्द ज़िला सहारनपुर
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नमः सिद्धेभ्यः ॥
डोकारम्बिन्दुसंयुक्तं नित्यन्ध्यायन्ति योगिनः कामदंमोक्षदं चैव ठोंकारायनमोनमः ॥ १ ॥ अविरल शब्दघनौघा प्रक्षालित सकल भूतल मलकलङ्का । मुनिभिरुपासिततीथा सरस्वती हर तुनोदुरितम् ॥२॥ अज्ञानतिमिरांधानां ज्ञानांजन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितंयेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३ ॥ परमगुरुवेनमः परम्पराचार्य श्रीगुरवे नमः । सकलकलुपविध्वंसकं श्रयसापरिवर्द्धकं धर्मसम्बन्धकं भव्यजीव मनः प्रति बोध कारक मिदंशास्त्रं श्रीपद्मपुराणनामधेयं तन्मूल ग्रंथ कर्त्तारः श्री सर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रंथ कर्त्तारः श्रीगणधरदेवास्तेषां वचीनुसार मासाद्य श्री रविषेणाचार्येण विरचितम् । मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमोगणी मङ्गलं कुन्दकुंदाद्यो जैनधर्मोस्तु मङ्गलम् ॥ वक्तारः श्रोतारश्च सावधानतया शृण्वन्तु ॥
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पद्म पुराण
१. ॥
विषय सूची श्री पद्मपुराणजी
नम्बर
विषय
पुष्ट
१ पंडित दौलतराम कृक मंगलाचरण १ २ संस्कृत ग्रन्थकार का मंगलाचरण ४
प्रथम अधिकार लोक स्थिति
३ मगध दश का वर्णन
४ राजगृह नगर का वर्णन
५ राजा श्रेणिक का वर्णन
६ बर्द्धमान स्वामी के समोशरणा कर
विपुलाचल पर्वत पर आगमन
9 वर्द्धमान स्वामी के गर्भ,
जन्म, तप, ज्ञानका वर्णन
१६
१८
८ समोशरण में इन्द्र का खागमन ९ इन्द्र का भगवानकी स्तुति करना १९ १० समोशरण की विभूति का वर्णन १९ ११ राजा श्रेणिक का समोशरण में
आगमन
१२ जीवादितत्व और चतुर्गति के दुःखों का वर्णन
१०
१२
"१३
१३ राजाश्रेणिक का रामचन्द्र जी के वृतान्त पूछने का विचार
१५
२०
२०
२५
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१४ राजा श्रेणिक का गौतम स्वामी
से रामचन्द्र का वृतान्त पूढ़ना २७ १५ गणधर देव का व्याख्यान करना २७ १६ लोकालोक का वर्णन
२८
१७ कालचक्र का वर्णन
२०
१८ चारप्रकारदान का वर्णन
३१
१९ कुलकरों की उत्पत्ति
३२
२० नामि राजा और मरुदेवी का वर्णन
३३
२९ ऋषभ देव स्वामी के गर्भ कल्याणानका वर्णन
२२ मरुदेवी के सोलह स्वप्नों का
व
३३ मरुदेवी माता को सखियों कर मंगल शब्द सुनाना
२४ मरुदेवीका नाभिराजा से स्वप्न
फल पूछना और राजाका उत्तरदेना ३६ २५ ऋषभदेव स्वामीका जन्मकल्याण ३१ २६ ऋषभदेव का सुमेरु पर्वतपरइन्द्र से हवन कराना २१ ऋषभ देव को कुमारादिश्रवस्था
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३४
३४
३०
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क्षत्रियादि व विभाग ४९ २८ ऋषभदेव स्वामोका तप कल्याणक ४३ २९ कच्छ महा कच्छ के नमि पुत्र विनमिका भगवान् से राजमांगना ४५ ३० ऋषभदेव का बहार लेना
४७
३१ ऋषभदेवस्वामीकासान कल्याणक ४८ ३२ ऋषभदेवस्वामी की दिव्यध्वनि का खिरना
४९
३३ भरत को चक्रवर्त्ति पदका प्राप्त होना और बाहुबली से युद्ध
३४ त्रिवर्ण की उत्पत्ति ३५ ऋषभदेवस्वामी और भरत जी का मोक्ष गमन
५४
५४
दूसरा अधिकार वंशकी उत्पत्ति ३६ चार वंशों की उत्पत्ति ३० इक्ष्वाकवंश (सूर्यवंश) की उत्पत्ति) २४ ३८ सोम (चन्द्र) वंश की उत्पत्ति ५४ ३९ विद्याधरों के वंशकी उत्पत्ति ४० संजयतिमनि श्रीवर्धन राजा और सत्यघोष की कथा ४९ अजित नाथ का वर्णन
५५
५१
५२
५६
५८
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पद्म ४२ सगर चक्रवर्ती सुलोचन सहस्र ५२ राजा इन्द्रका जन्म और कर्णन १९३ [ ६३ रावण का छह हजार कन्याओं से पुराणा ४३ मेघबाहनको लंका और पाताल ५३ इन्द्र और माली मुमाली का
गन्धर्व विवाह ।
१४२ ॥२ लंकाका राज्य भीम सुभीमसेदेना ६४ युद्ध और मालीका मारा जाना ११७६४ कुम्भकण विभीषण का विवाह १४५
४४ चौबीस तीर्थकर १२ चक्रवतिर ५४ सुमालीका लंका छोड़ पाता ६५ इन्द्रजीत और मेघनादका जन्म १४५ नारायण प्रतिनाराया बल | लंका में भागना
६६ रावण का वैश्रवण को युद्ध में जीत भद्र का कथन ६६ ५५ इन्द्रसे सौम वरुण कुवेर और
___ लंका को गमन करना। १४६ नयन मेघवाहन भावनिचन्द्र
यमकोलोकपाल थापना
६७ वैश्रवण का दीक्षा घर मोक्ष पाना १५१ श्रावली की कथा ६ ५६ इन्द्र से वैश्रवण को लंकाके " रावणकाराक्षसबंशमें उत्तमपदपाना१५२॥ ४५ राजा महा रक्ष का वर्णन ६ थाने राखना
१२९
६८ हरिषेण चक्रवर्तीका चरित्र १५३ ४६ अजित नाथ का निर्वाण सगर ५७ सुमाली के रत्नश्रवा पुत्र का ६९ रावणका त्रैलोक्यमयडल हस्ती को के पुत्रोंको कैलाशके गिरदखाई - जन्म होना
वश करना।
१६० | खोदते मृत्यु
०५८ रत्नश्रवा के रावण कुम्भकर्ण ७० रावण का यम से युद्ध और यम ४७ लंकाकेविद्याधर राजाओंका वर्णन ७२ विभीषण का जन्म होना १२५ ___ का भागना।
१६२ ४८ श्रुत सागर मुनि का धर्मोपदेश ५ वैश्रवण को जाते हुए देखकर १ रावण का सर्यरज को किहकन्धपुर
और महारिक्ष राजाका वैराग्य १४ रावण का माता से पूछना १२५ और रक्षर को किहकपुर का ve बानरद्वीपौरबानरवंशी राजावों रावण कुम्भकर्ण और विभीषण राज्य देना। ___ का वर्णन ० का विद्या साधना
७२ रावण का लंका में प्रवेश १६७ ५० धौपदेश और नरकादिकगति ६१ रावणका सहस्रों विद्या साधन ३ बाली सुग्रीव नल और नील की।
के दुःखों का वर्णन ९५ | कर माता पिता प्रादिसे मिलना १३१ उत्पक्ति ५१ श्रीमालाकास्वयंवर और किहकंध ६२ राजा मय की पुत्री मन्दोदरी से ३४ चन्द्रनखाको खरदूषस का हर ना १० का विजयसिंह से युद्ध
रावण का विवाह ।
७ ७५ चिराधित की उत्पत्ति
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पुराणा
|| ७६ रावण का बालीपर चढ़ना और | रावण का मरुत को वश करना ६ पवन शुक ( वायकुमार ) और । बाली का दीक्षा लेना। १२ और उसकी पत्नी से विवाह २१० अंजनी का वशान्त २१५ ७७ रावणका कैलाश को उठावना ८ गजा मधु से कृतचित्रा रावण की ८७ पधनञ्जय की कम चेष्टाकावन २० और बालो मुनि का अगट से
पत्रो का विवाह
२१५८ पवनंजयका अंजनीपर कोप २८३ दवाना १७६ राजा सुमित्र से भील पत्री का
पवनंजय का अंजनी से विवाह ७८ घरगोन्द्रका राबणाकोशक्तिकादेना१८२
विवाह और मधु को त्रिशूलकी कर उमको तज युद्ध में जाना २८८ 9 बाली मुनिका निर्वाण १८३ प्राप्ति
२१६ १०० पवनंजय का युद्ध से अंजनी के ८० सुग्रीव और सुतारा राशीके अंग ८० उररम्भा का रावया पै आना
___ महल में माना और अंजनीको ___और मङ्गद का जन्म । १८४
और रावणका नलकूबर को
गर्भ रहना। ८१ गवगा का इन्द्र पर चढ़ाई करना १८५
जीतना
२२० १०१ अंजनी को सासू का घर से ८२ रेवा नदी पर बाल के चखतरे पर
१ रावण का दुन्द्र से यद्ध २२५ निकालना रावणा को पूजा में विघ्न और
९२ रावण कर युद्ध में इन्द्र को पकड़ १०२ अंजनी को गंदर्भ देवका सिंहसे __ सहस्रनय से युद्ध। १८ लडा में ले जाना
२३५ बचाना और रक्षा करना और ८३ राजा बसु क्षार कदम्ब ब्राह्मण और नारद पर्वत की कथा और
९३ सहस्रार का लङ्का में जाकर इंद्र हनुमान का गुफा में जन्म ३१६ यज्ञ का वर्णन
का छुड़वाना और इंद्र का दीक्षा १०३ राजा प्रतिसूर्य का अजनीको ४ यज्ञ के विषय नारद और
२३७ | पुत्रसहितहमूहाद्वीपमें लेजाना३२१ पर्वत का संवाद
१८७
८४ केवली कर धर्मापदेश और १०४ पवनंजय का रावन की मदद ८५ नारद मुनि की उत्पत्तिका वर्णन २०१ ___चतुर्गति के दुःखों का विशेष
कर बरुणको जीत घर वापिस ८६ राजा मरुत के यज्ञ में नारद का वर्णन
२४४ भाकर अंजनी को न देख उनके जाना और रावणका मरुत के लप रावण का केवली के सम्मुख दृढ़ बिरह से रुदन करते हुये यज्ञ का विध्वंस २०३ म्येम धारण करना
बनों में फिरना
३२७
लेना।
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पा पुराण
118 11
१०५ पवनंजय का अंजनी से मिलाप ३३३ ९०६ हनुमान का रावण की मदद करना और बरुण को जीतकर रावण के सनमुख लाना १०७ हनुमान का रावणकी भानजी से विवाह
३४९
९०८ चौबीस तीर्थंकरों का पर्व सवादि afe मकल वर्णन १०० पल्य मागर अवसर्पिणी और सर्पिणी कालका बर्यान ११० चौबीस तीर्थंकरोंके जन्म काल में अन्तर १११ पांचवें और छटे काल का वर्णन ३५९ १९२ चौबीस तीर्थंकरों के शरीर की
३५०
ऊंचाई और त्रायुका वर्णन ३५२ ११३ चौदह कुलकरों की आयु और काय का वर्णन
३३५
१९६ नत्र बलभद्रों का वर्नन १९१ प्रति नारायणों का वर्तन
३४१
३४४
३५३
९९४ बारह चक्रवर्तियों का वर्नन ३५४ १९५ नव बासुदेवों का वर्नन
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| ११८ हरिवंश की उत्पत्तिका वर्मन ३६३ | १३२ पर स्त्री रमता राजा कुण्डल १९९ श्रीमुनि सुव्रतनाथ तीर्थंकर मंडित और पिंगल ब्रह्मया का वर्नन
का वर्तन
१२० राजा जनक की उत्पत्ति १२९ राजा बज्रबाहु का वर्तन १२२ कीर्तिघर और सुकौशल ि का वनंन १२३ राजा हिरण्यगर्भ का वर्तन १२४ मनुष्य भक्षी राजा सौदास का वर्तन
१२९ केकई के वर का दशरथ के धरोहर रखना
३८३
९२५ राजा दशरथ का वर्णन ३८५ १२६ रावणका कृत्रिम दशरथ औरजनक ६८६ १२७ के सिर को कटवाना १२० राजा दशरथ से केकईको स्वयंबर में परणना
३८१
९३० श्री रामचन्द्र लक्ष्मण भरत और शत्रुघन का जन्म
३५०
३६९ | १३१ भामण्डल और सीताकी उत्पत्ति ३६२ काव
३६३
TE
३६७
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३१३
३८९
३९२
३९५
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४०१
१३३ नरकों के दुःखों का वर्नन
१३४ देव से भामण्डल का हरन १३५ जानकी का वर्जन
१३६ राम लक्ष्य कर अन्तगत म्लेक्ष का जीतना १३७ सीता का चित्र देख भामण्डल का उसपर आसक्त होना १३८ मयासई कोडे से जनक को उड़ाकर रथन पर लेजाना १३९ चन्द्रगति का भामंडल को परगावने के अर्थ जनक से सीता का मागना
७७
९४० स्वयम्बर में सोता कर राम को वरना
१४१ सुप्रभा के पास रख कर गन्धोदक देश से लाना १४२ राजा दशरथ का मुनिराज से धर्म श्रवण करना
४०२
४००
४१०
४१३
४१४
४२०
४२४
४२७
४३५
४४०
४४५
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पद्म पण
।। ५ ।।
१४३ भामंडल का यह सुन कि सीता
ने राम को बराहे विवाद रूप होय सोता के देश जाना रास्ते में सीताको अपनी बहन जान जनक विदेहा और सीता से मिलाप
५२ल १५५ जितका लक्ष्मण को बरना ५४२ तीसरा महा अधिकार श्रीराम १५६ राम लक्ष्माकर देश भूषणा
४४
कुलभपण मुनियों का उपस निवारणा
बनवास
९४४ राजा दशरथ को अपने भव सुनकर बेराग्य होना १४५ केक को दशरथ से वर मांगना भरत को राज्य दिलाना १४६ श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण और सीमा का बनको जाना १४७ भरत का राज्याभिषक और दशरथका मुभि होना १४८ द्यति भहारकाचार्य कर श्रावक धर्म का वर्णन करना १४९ श्रीराम लक्ष्मणका बनमें बिहार १५० राम लक्ष्मणका सिंहोदर से बकर्म को बचाना १५१ राम लक्ष्मण का रौद्रभूत से बालखिल्य को उड़ाना १५२ राम लक्ष्मणका कपिल ब्राह्म का उपकार
४६०
४६७
५७०
४९०
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દ્
५९३
१५३ लक्ष्मया का बनमाला को फांसी
से बचा कर उसको परणमा ५२५ १५४ श्रीराम लक्ष्मण का नृत्यकारणी बनकर राजा अति वीर्य को पकड़ना
५८३
५८४
४०
५०३
१५० लक्ष्मण का खर दूषन युद्ध १६० रावन से सीता का हरन १६९ विराधितका लक्ष्मन से मिलाप ५ ४८३१६२ लक्ष्मन से सरदूषन कामरना ६०९ ४८८ १६३ रत्नजटी कर रावन को सीसा जाते हुए देखना ९६३ रावण का सीता को लेजाकर उसको समझाना और मीता का मानना फिर विभीषण और मंत्रियों का रावण को समझाना कि सीता को राम
५४७
१५७ श्रीराम लक्ष्मण को जटायु पक्षी की प्राप्ति चौथा महाअधिकार युद्ध १५८ लक्ष्मण का बांसों के ग्रिह में संक को काटना
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५६४
६०२
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चन्द्रजी को देदो और रावण
का न मानना
९६४ राम लक्ष्मण से सुग्रीव का मिलाप
१६५ राम का मायामई सुग्रीव को
मारना
६२५
१६६ रामका सुग्रीव की पुत्रीको बरमा ६२६ १६१ सुग्रीवका सीनाको टूढने जाना और रत्नजटाको रामपैलाना ६२९ १६८ लक्ष्मण कर कोटि शिला का
उठावना
१६० हनुमान का रामचन्द्र जी से मिलाप
१० मानका सोनाकी सुध लेने को लंका जाना
૧
E
B
ÉÆ
६४६
१११ हनुमानका मनियों का उप दूर करना और राजा मध्य का अपनी कन्यायों का रा-चन्द्रजी से विवाह करना १७२ हनुमान का लका में अनेक उपद्रव करना और मीता को रामको कुश के ममाचार सुनाना६५२ ११३ नुमानका सीताकी सुधलेकर रामपे खाना
૬૦
६७२
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पद्म
पुरा
॥ ६ ॥
११४ श्री रामचन्द्र का सेना सहित लंका पर चढ़ाई करना ११५ विभीषणका रामसे मिलाप
१७६ भामण्डलका सेना सहित राम पे भावना
€93
€99
१99 प्रक्षोहिणी का परिमा
१८ रामलक्षमण का रावणके साथ युद्ध और अनेक सामन्तों का मारा
जाना
६८६
१७९ लक्षमण के रावणका शक्तिबाया
लगमा
१० मादक का प्रयोध्या जाकर भरत की सर्व डाल सुनाना और विशल्पाको शक्ति निवार्यार्थ लक्षमा के निकट लेजाना और विशल्या के प्रभावकर लक्षमण के शरीर से शक्ति का निकलना और वि हया से लक्ष्मणका बिवाह होना
१८९ रावणका संधी के अर्थ दू को
राम पे भेजना संधी न होने कारण रावण का भय के बश होय बहुरूपणी विद्या साधने में उद्यमी होना
ર
१२
१२२
१२६
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१८२ लक्षमा का गवरा की विद्या भंगकरनेको सामन्तों को लंका भेजना परन्तु राधय को विद्या हो और युटुका आरम्भ १३८ १८३ लक्षमासे वाक माराजाना 999 १९४ श्रीरामका मीतासे मिलाप १८५ नारदका कौशल्या सुमित्रा के
१९
शोकका समाचार रामपरलामा ८१२ १८६ रामलक्षमणका अयोध्या गमन८१ल १८७ रामलक्षमणका माताश्रों से मिलाप८२१ ९८८ देशभूषण कुलभूषणका अयोध्या में उपाख्यान
८३३
१८९ भरत का अपने और लोक महन हा थोके पर्व भव सुनकर विरक्त तो अन्य गजाव सहिन जिनदीक्षा लेना १९० रामलक्षमका राज्याभिषेक ४ १९९ मधुको जीत शत्रुघ्नका यथुरा में राज्य
८४४
८५९
पांचवां महा अधिकार लव अंकुशका वृत्तान्त १९२ लवणांकुशका गर्भ में जाना १९३ रामको मीता का परित्याग सोनाका वन में विलाप १९४ राजा बनजंघ का सीता को कपुर ले जाना
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८७४
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සල්ලි
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१९५ सेनापतिका सीमाको भयानक नमें छोड़ने की रामको खबर देना रामका उपाकुल हो यरुदनकर ना ९०५ १९६ लवणांकुशका जन्म ११ १९७ लवणांकुश को अयोध्या पर कढ़ाई
१९८ लवलाकुश का रामलक्षमया से मिलाफ
१९९ सीताका अग्निकुण्ड प्रवे और अग्निका कमलों सहित सरावर होजाना
२०० मीताका दीक्षालेना
९५१
२०९ मलभूषा केवलका व्यायाम ९५४
२०२ कृतक रामके सेनापतिका जिनदीक्षा लेना
२२
२०३ लक्षमा के पत्रों का वर्णन और दीक्षा लेना
२०४ भामहल का भव वर्णन
३६
CC
१००७
१०१४
१०१७
२०५ हनुमान का दीक्षा लेना २०६ लक्षमण को मृत्यु और लब अंकुशका दोता लना छठा महाअधिकार रामचन्द्र
१०२७
जीका निर्वा २०७ रामका दीक्षा लेना
१०५०
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डोनमः सिष्टुभ्यः॥ अथ पद्मपुराण भाषा वचनिका
पण्डित दौलतराम कृत मङ्गलाचरण ॥ दोहा ।। चिदानन्द चैतन्य के, गुण अनन्त उरधार । भाषा पद्मपुराण की, भाषू श्रुति अनुसार ॥ १ ॥ पंच परमपद पद प्रणामि, प्रगामि जिनेश्वरबानि । नमि जिन प्रतिमा जिन भवन, जिनमारगउरानि॥२॥ भषभ अजित संभव प्रणमि, नमि अभिनन्दन देव । मुमति जु पद्मसु पार्श्व नमि, करि चन्दाप्रभुसेव ॥३॥ पुष्पदन्त शीतल प्रणमि, श्री श्रेयांस को ध्याय । वासपूज्य विमलेश नमि, नाम अनंतक पाय ॥४॥ धर्मशांति जिन कुन्थु नमि, और मल्लि यश गाय । मुनिसुव्रत नमिनेमि नमि, नभि पार्श्वके पाय ।।५।। वर्द्धमान बरबीर नमि, सुरगुरुवर मुनि वंद । सकल जिनंद मुनिन्द नमि, जैनधर्म अभिनन्द ॥६॥ निर्वाणादि अतीत जिन, नमोनाथ चौबीस । महापद्म परमुख प्रभू, चौबीसों जगदीश ॥१॥ होंगे तिन को बांदिकर, द्वादशांग उरलाय । सीमन्धर अादिक नमू, दश दून जिनराय || विहरमान भगवान ये, क्षेत्र विहेद मझारि । पूजें जिन को सुरपती, नागपती निरधार ॥६॥ द्वीप श्राई के विषे, भये जिनेन्द्र अनन्त । होंगे केवलज्ञानमय, नाथ अनन्तानन्त ॥१०॥
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पराक
। सब को बन्दन कर सदा, गणधर मुनिवर ध्याय । केवली श्रुतिकेवली, नमूं श्राचार्य उवमाय ॥११॥
वन्, शुद्धस्वभाव को धर सिद्धन का ध्यान ! सन्तन को परणाम कर, नमि दृगबत निज ज्ञान ॥१२॥ |शिवपुर दायक सुगरु नमि, सिद्धलोक यश गाय । केवल दर्शन ज्ञान को पूजू मन वच काय ॥१३॥
यथाख्यात चारित्र और, क्षपक श्रेणि गुण ध्याय । धर्म शुक्ल निज ध्यान को, बन्दू भाव लगाय ॥१४॥ उपशम वेदक तायका, सम्यग्दर्शन सार । कर बन्दन समभाव को, पूजु पयाचार ॥ १५ ॥ भूलोत्तर गुण मुनिन के, पञ्च महाबत श्रादि । पञ्च मुमति और गुप्तिलय, ये शिव मूल अनादि ॥१६॥ अनित्य श्रादिक भावना, सेऊ चित्त लगाय । अध्यातम श्रागम नमू, शांति भाव उरलाय ॥ १७॥ अनुप्रेक्षा द्वादश महा. चितवें श्रीजिनराय । तिन स्तुति करि भाव सों, षोड़श कारण ध्याय ॥१८॥ दश लक्षणमय धर्म की, घर सरधा मन मांहि । जीवदया सत् शील तप, जिनकर पाप नसाहिं ॥१६॥ तीर्थकर भगवान के पूजू पंच कल्याण । और केवलिन को नमूं केवल अरु निर्वाण ॥ २० ॥ श्रीजिनतीरथ क्षेत्र नमि, प्रणमि उभग विधिधर्म । थुति कर चहुं विधि संघ की, तजकर मिथ्या मम ॥२१॥ बन्दूं गौत्तम स्वामि के, चरण कमल सुखदाय । बन्दू धर्म मुनीन्द्र को, जम्जूकेवाल ध्याय ॥२२॥ भद्रबाहु को कर प्रणति, भद्रभाव उरलाय । वन्दि समाधि सुतन्त्र को, ज्ञानाने गुणगाय ॥ २३ ॥ महा धवल अरु जयधवल, तथा धवल जिन अन्य । बन्दूं तन मन बचन कर, जे शिवपुर के पंय ॥२४॥ पट पाहुड नाटक त्रय, तत्वारथ सूत्रादि । तिनको बन्दूं भाव कर, हरें दोष रागादि ॥ २५ ॥ गोमठ सार अगाधि श्रुत, लब्धिसार जगसार । क्षपण सार भवतार है, योगसार रस धार ॥ २६ ॥
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पुराण ॥३॥
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ज्ञानार्णव है ज्ञान मय, नमूं ध्यानका मूल । पद्मनन्द पच्चासिका, करे कर्म उन्मूल ॥ २७ ॥ यत्याचार विचार नमि, नमूं श्रावका चार । द्रव्य संग्रह नय चक्रफुनि, नमूं शांति रसधार ॥ २८ ।।
आदि पुराणादिक सबै, जैन पुराण बखान । बन्दूं मन बचकाय कर दायक पद निर्वाण ॥ २६ ॥ तत्व सार आराधना, सार महारस धार । परमातम परकाश को, पूजू बारम्बार ।। ६० ॥ वन्दू विशाखाचारिजे, अनुभव के गुण गाय । कुन्द कुन्द पद धोक के, कहूं कथा सुखदाय ||३|| कुमन्द चन्द अकलंकनमि. नेमिचंद्र गुण ध्याय । पात्र केशरी को प्रणमि. समत भद्र यशगाय ॥३२॥ अमृत चन्द्र यति चन्द्र का, उमास्वामि को बन्द । पूज्य पाद को कर प्रणति, पूजादिक अभिनन्द ॥३३॥ ब्रह्मचर्यव्रत बन्दि के, दानादिक उरलाय । श्रीयोगीन्द्र मुनिन्द्र को, बन्दूं मन वचकाय ॥ ३४ ॥ बन्दू मुनि शुभ चन्द्र को, देवसेन को पूज । करि बन्दन जिनसेन को, जिनके जग सों दूज ॥३५॥ पदम पुराण निवान को, हाथजोड़ि सिरनाय । ताकी भाषा वचनिका, भायूं सब सुखदाय ॥३६॥ पद्म नाम बल भद्र का, रामचन्द्र बलभद्र । भये पाठवें धार नर, धारक श्रीजनमुद्र ।। ३७ ॥ । पीछे मुनिसुव्रत्त के, प्रगटे अति गुण धाम । मुर नर वन्दित धर्ममय, दशरथ के सुत राम ॥ ३८ ॥
शिवगामी नामी मही, ज्ञानो करुणा वन्त । न्यायवन्त बलवन्त अति, कर्म हरण जयवन्त ॥ ३६॥ | जिन के लक्ष्मणा वीर हरि, महावली गुणवन्त । भ्रात भक्त अनुरक्त अति जैन धर्म यशवन्त ॥४०॥
चन्द्र सूर्य से वीरये, हरें सदा पर पीर । कथा तिनों की शुभ महा, भाग गौतम धीर ॥४१॥ । नी सबै श्रेगिक नुपति, धीर सरधा मन मांहि । सो भाषी रविषगाने, यामे संशय नाहि ॥४२॥
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महा सती सीता शुभा, रामचंन्द्र की नारि । भरत शत्रुधन अनुज हैं, यही यात उरवार ॥४३॥ तदभव शिवगामी भरत, अरु लवअंकुश पूत, मुक्त भए मुनिवरत परि, नमै तिने पुरहूत ॥४४॥ रामचन्द्र को करि प्रणति, नमिरविषेण ऋषीश । रामकथा भाषू यथा, नमि जिन श्रुति मुनिईश ॥४५॥
॥ संस्कृत ग्रन्धकार का मङ्गलाचर रख . सिद्धं सम्पूर्णभव्यार्थ सिद्धेः कारणमुत्तमम् । प्रशस्तदर्शन ज्ञानचारित्रप्रतिपादनम् ॥१॥ सुरेन्द्रमुकुटाशिलष्ट पादमझांशुकेसरम् । प्रणमामि महावीरं लोकत्रितयमङ्गलम् ॥२॥
अर्थ सिद्ध कहिये कृत कृत्य हैं, और सम्पर्ण भये हैं सर्व सुन्दर अर्थ जिनके अथवा जो भव्य जीवों के सर्व अर्थ पूर्ण करते हैं, आप उत्तम हैं अर्थात् मुक्त हैं औरों को मुक्ति के कारण हैं। प्रशंसा योग्य दर्शन ज्ञान और चारित्रके प्रकाशन हारे हैं। और सुरेन्द्र के मुकटकर पूज्य जो किरण रूप केसर ताको घरेंचरणकमल जिनके, ऐये भगवान महावीर जो तीनलोकप्राणियोंको मङ्गलरूपहें तिनको नमस्कार करूं हूं
भावार्थ-सिद्ध कहिये मुक्ति अर्थात् सर्व बाधा रहित उपमारहित अनुपम अविनाशी जो सुख ताकी प्राप्ति के कारण श्रीमहावीर स्वामी जो काम, क्रोध, मान, मद, माया, मत्सर, लोभ, अहंकार, पाखण्ड दुर्जनता क्षुधा, तृषा, व्याधि, वेदना, जरा. भय, रोग, शोक, हर्ष, जन्म, मरणादि रहितहें शिव अर्थात् अविनश्वर हैं। द्रव्यार्थिकनय से जिनका आदिभी नहीं और अन्त भी नहीं अछेद्य अभेद्य क्लेशरहित शोकरहित, सर्वव्यापी, सर्वसन्मुख, सर्वविद्या के ईश्वर हैं यह उपमा औरोंको नाहीं बने है ।जोमीमांसक सांख्य, नैयायिक वैशेषिकबौद्धादिक मत हैं तिनके कर्ता जो मुनि जैमिनि, कपिल, अक्षपाद, कणाद,
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पद्म
॥५॥
MENT
बुद्ध हैं वे मुक्तिके कारण नाहीं । जटा मृगछाला वस्त्र शस्त्र स्री रुद्राक्ष कपाल माला के धारक हैं और जीवों के दहन घातन छेदन विषे प्रवृत्ते हैं। विरुद्ध अर्थ कथन करनेवाले हैं मीमांसा तो धर्मका हिंसा लक्षण बताय हिंसा विषे प्रवृत्ते हैं और सांख्य जो हैं सो आत्मा को अकर्ता और निर्गुण भोक्ता माने हैं और प्रकृतिही को कर्ता माने हैं । और नैयायिक वैशेषिक आत्माको ज्ञान रहित जड़ माने हैं और जगत कर्ता ईश्वर माने हैं। और बौद्ध क्षिण भंगुर माने हैं। शून्यवादी शून्य मानहें और वेदांतवादी एक ही आत्मा त्रैलोक्यव्यापी नरनारक देव तिर्यंच मोक्ष सुख दुःखादि अवस्था विषे माने हैं इसलिये ये सर्व ही मुक्ति के कारण नाहीं । मोक्ष का कारण एक जिन शासनही है जो सर्व जीवमात्रका मित्रहै । और सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, का प्रगट करनेवाला है ऐसे जिन शासनको श्रीवीतराग देव प्रकट कर दि. खावें हैं। वह सिद्ध अर्थात् जीवन मुक्तहैं और सर्व अर्थकर पूर्ण हैं मुक्ति के कारण हैं सर्वोत्तम हैं
और सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र के प्रकाश करनेवाले हैं इन्द्रों के मुकुटों कर स्पर्शे गये हैं चरणारविन्द जिनके ऐसे श्रीमहावीर वर्द्धमान सन्मत नाथ अन्तिम तीर्थकर तीनलोक के सर्व प्राणियोंको महा मङ्गल रूप हैं महा योगीश्वर हैं मोह मल्ल के जीतनेवाले हैं अनन्त बल के घारक हे संसार समुद्र विषे डूब रहे जे प्राणी तिनके उद्धार के करन हारे हैं शिव विष्णु दामोदर, त्रयम्बक, चतुर्मुख, बुद्ध ब्रह्मा, हरि शङ्कर, रुद्र, नारायण, हरभास्कर, परममूर्ति इत्यादि जिनके अनेक नाम हे तिनको शास्त्रकी आदि विषे महा मङ्गल के अर्थ सर्व विघ्न के विनाशवे निमित्त मन बचन काय कर नमस्कार करूं हूं इस अवसर्पिणी काल में प्रथमही भगवान श्रीऋषभदेव भए सर्व योगीश्वरों के नाथ सर्व विद्या के निधान
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पन
स्वयम्भू तिनको हमारा नमस्कार हो । जिन के प्रसाद कर अनेक भव्य जीव भवसागर से तिरे हैं फिर श्रीअजितनाथस्वामी जीते हैं वाह्य अभ्यन्तर शत्रु जिन्हों ने हमको रागादिक रहित करो ।तीजेसम्भव नाथ जिनकर जीवन को सुख होय और चौथे श्री अभिनन्दनस्वामी आनन्द के करनहारे हैं और पांचवें सुमति के देन हारे सुमतिनाथ मिथ्यात्व के नाशक हैं, और छटे श्रीपद्म प्रभु ऊगते सर्य की किर णों कर प्रफुल्लित कमल के समान हैं प्रभा जिनकी। सातवें श्रीसुपार्श्वनाथ स्वामी सर्व के बेत्ता सर्वज्ञ सवन के निकट वत्तीही हैं और शरदकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान है प्रभाजिनकी ऐसे आठवें श्रीचंद प्रभु ते हमारे भव ताप हरो। और प्रफुल्लित कुन्द के पुष्प समान उज्ज्वल हैं दन्त जिनके ऐसे नवमें श्रीपष्पदन्त जगत के कन्त हैं और दशवें श्री शीतलनाथ शुक्ल ध्यान के दाता परमइष्ट ते हमारे क्रोधा दिक अनिष्ट हरो। और जीवों को सकल कल्याण के कर्ता धर्मके उपदेशक ग्यारहवें श्रेयांसनाथ स्वामी ते हमको परम आनन्द करो और देवों कर पूज्य सन्तों के ईश्वर कर्म शत्रों के जीतने हारे बारहवें श्रीवासपूज्य स्वामी ते हमको निज वास देवो और संसारके मूल जो रागादि मल तिनसे अत्यन्त दर ऐसे तेरहवें श्रीविमलनाथ देव ते हमारे कलंक हरो और अनन्त ज्ञान के घरन हारे सुन्दर हैं दर्शन जि नका ऐसे चौदहवे श्रीअनन्तनाथ देवाधिदेव हमको अनन्त ज्ञान की प्राप्ति करो। और धर्मकी धुराके धारक पन्दरखें श्रीधर्मनाथ स्वामी हमारे अधर्म को हरकर परम धर्मकी प्राप्ति करो और जीते हैं ज्ञानावर णादिक शत्रु जिन्होंने ऐसे श्रीशांतिनाथ परमशान्त हमको शान्त भावकी प्राप्तिकरो। और कुंथु आदि सर्व जीवों के हितकारी सतरहवें श्रीकुंथुनाथ स्वामी हमको भ्रमरहित करो। समस्त क्लेश से रहित मोच
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पुराव
के मूल अनन्त सुख के भण्डार अठारहवें श्रीअरनाथ स्वामी कर्मरज रहितकरो । संसारके तारक मोह मल्ल | के जीतन हारे वाह्याभ्यन्तर मल रहित ऐसे उन्नीसवें श्रीमल्लिनाथ स्वामी ते अनन्त वीर्यकी प्राप्ति करो
और भले बतों के उपदेशक समस्त दोषों के विदारक बीसवें श्रीमुनिसुव्रत नाथ जिनके तीर्थ विषय श्रीरामचन्द्र का शुभचरित्र प्रगट भया ते हमारे अव्रत मेट महाव्रत की प्राप्ति करो। और नमी भूत भये हैं सुर नर असुरों के इन्द्र जिनको ऐसे इक्कीसवें श्रीनमिनाथ प्रभु ते हम को निर्वाण की प्राप्ति करो।
और समस्त अशुभकर्म तेई भये अरिष्ट तिनके काटिबेको चक्रकी धारा समान वाईसवें श्रीअरिष्ट नेमि भगवान् हरिवंश के तिलक श्रीनेमिनाथ स्वामी ते हमको यम नियमादि अष्टांग योग की सिद्ध करो और तेईसवें श्री पार्श्वनाथ देवाधिदेव इन्द्र नागेन्द्र चन्द्र सूर्यादिक कर पूजित हमारे भव सन्ताप हो । और चौबीसवें श्री महावीर स्वामी जो चतुर्थकाल के अन्त में भये हैं । ते हमारे महा मंगल करो। और मी जो गणधरादिक महामुनि तिनको मन, वच, काय कर बारम्बार नमस्कार कर श्री रामचन्द्र के चरित्र का व्याख्यान करूं हूं। कैसे हैं श्रीराम लक्ष्मीकर आलिगत है हृदय जिन का और प्रफुल्लितह मुख रूपी कमल जिनका महापुण्याधिकारी हैं महाबुद्धिमान हैं गुणन मंदिर हैं उदार है चरित्र जिनका, जिनका चरित्र केवलज्ञान के ही गम्य है ऐसे जो श्री रामचन्द्र उनका चरित्र श्री गणधर देवही किंचित् मात्र करनेको समर्थ हैं यह बड़ा आश्चर्य है कि जो हम सारिखे
अल्प बुद्धि पुरुष भी उनके चरित्र को कहें हैं यद्यपि हम सारिखे इस चरित्रके कहनेको समर्थ नहीं | तथापि परंपरा से महामुनि जिस प्रकार कहते आए हैं उनके कहे अनुसार कुछयक संक्षपता कर कहे
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पुराव
हैं जैसे जिस मार्ग विषे मस्तहाथी चालें तिस मार्ग विषे मृग भी गमन करे हैं और जैसे युद्ध विष महा सुभट भागे होय कर शस्त्रपात करे हैं तिन के पीछे और भी पुरुष रण विषे पायहें और जैस बज्रसूची के मुख कर भेदी जो माण उस विषे सूत भी प्रवेश करे है तैसे ज्ञानीन की पंक्तिकर भाषा हुआ चला आया जो राम सम्बन्धी चरित्र ताके कहने को भक्ति कर प्रेरी जो हमारी अल्प बुद्धि सो भी उद्यमवती भई है। बड़े पुरुष के चिन्तवन कर उपजा जो पुण्य ताके प्रसाद कर हमारी शक्ति प्रकट भई है । महा पुरुषन के यश कीत्तन से बुद्धि की वृद्धि होय है और यश अत्यंत निर्मल होय है और पाप दूर जाय है। यह प्राणीनका शरीर अनेक रोगों कर भरा है इसकी स्थिति अल्प काल है और सत्पुरुषन की कथा कर उपजाया जो यश सो जब तक चांदमूर्य्य हैं तब तक रहे हैं इस लिये जो आत्मवेदी पुरुष हैं वे सर्व यत्नकर महापुरुषनके यश कीर्तन से अपना यश स्थित करे हैं जिसने सज्जनो को आनन्द की देन हारी जो सत्पुरुषन की रमणीक कथा उसका प्रारम्भ किया उसने दोनों लोकका फल लिया जो कान सत्पुरुषन की कथा श्रवण विषे प्रबृतेहैं वेही कान उसम हैं और जे कुकथा के सुनन हारे कान हैं वे कान नाहीं तथा आकार घरे हैं और जे मस्तक स पन की चेष्टा के वर्णन विषे घूमे हैं तेही मस्तक धन्य हैं और जे शेष मस्तक हैं वे थोथे नारियल समान जानने । सत्पुरुषन के यश कीर्तन विषे प्रवृते जे होंठ तेही श्रेष्ठ हैं और जे शेष होंठ हैं ते जोक की पीठ समान विफल जानने । जे पुरुष सत्पुरुषन की कथा के प्रसंग विष अनुराग को प्राप्त भये उनही का जन्म सफल है । और मुख वेही हैं जो मुख्य पुरुषन की कथा विष रत भया। शेष
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मुख दांत रूपी कीड़ान का भरा हुआ विल समानहै और जे सत्पुरुषन की कथा के वक्ताह अथवा श्रोता है सो ही पुरुष प्रशंसा योग्य हैं और शेष पुरुष चित्र के पुरुष समान जानने । गुण और दोषन के संग्रह विषे जे उत्तम पुरुष हे ते गुणन ही को ग्रहण करे हैं जैसे दुग्ध और पानीके मिलाप विषे हंस दुग्ध ही को ग्रहणकरे है और राग दोषनके मिलाप विष जे नीच पुरुष हैं ते दोषहीको ग्रहण करे हैं जैसे गजके मस्तक विषे मोती मास दोऊ हैं तिन काग मोतीको तज मासही को ग्रहण करे है।
जो दुष्ट हैं ते निदों रचनाको भी दोष रूप देखेहें जैसे उल्लू सूर्यके बिम्ब को तमाल वृक्षके पत्र समान | स्याम देखे है, जे दुर्जन हैं ते सरोवरमें जल पानेका जाली समान हैं जैसे जाली जल को तज तृण पत्रादि काठकादिक का ग्रहण करे तैसे दुर्जन गुणको तज दोषनहीको धारे हैं इस लिये सजन और दुर्जनका ऐसा स्वभाव जानकर जो साधु पुरुष हैं वे अपने कल्याण निमित्त सत्पुरुषनकी कथाके प्रबंध विषेही प्रवृतेहैं सत्पुरुषनकी कथाके श्रवणसे मनुष्योंको परम सुख होयहै जे विवेकी पुरुषहें उन को धर्म कथा पुण्यके उपजावनेका कारणहै सो जैसा कथन श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्रकी दिव्य ध्वनिमें खिरा तिसका अर्थ गौतम गणधर धारते भए। और गौतमसे मुधर्माचार्य धारते भए ता पीछे जम्बूस्वामी प्रकाशते भए जम्बूस्वामीके पीछे पांचश्रुत केवली और भए वे भी उसी भांति कथन करते भये इसी प्रकार महा पुरुषनकी परम्पराकर कथन चला पाया उसके अनुसार रविषणाचार्य न्याख्यान करते भये । यह सर्व रामचन्द्रका चरित्र सज्जन पुरुष सावधान होकर सुनो यह चरित्र सिद्ध पदरूप मंदिर की प्राप्तिका कारणहै और सर्व प्रकारके मुखका देनहारा है। और जे मनुष्य भीरामचन्द्रको श्रादि दे
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जे महापुरुष तिनको चिन्तवन करें हैं वे अतिशयकर भावनके समूहकर नम्रीभूत होय प्रमोदको घर हैं तिनको अनेक जन्मोंका संवित किया जो पाप सो नाशको प्राप्त होयहै औरजे सम्पूर्ण पुराण का | श्रवण करें तिनका पाप दूर अवश्य ही होय यामें संदेह नहीं कैसा है पुराण चन्द्रमा समान उज्ज्वल है इस लियेजे विवेकी चतुर पुरुषहें वे इस चरित्रका सेवन करें यह चरित्र बड़े पुरुषकर सेवन योग्य है।
इस ग्रन्थ विषे ६ महा अधिकार हैं। (१)लोकास्थिति(२)वंशोंकीउत्पत्ति(३)वनवास(४)युद्ध(५)लवअंकुशकावृतान्त(६)रामचंद्रजीकानिर्वाण।
अथ लोकास्थिति महा अधिकार मगध देशवे राना नगर श्री महावीर स्वामी के म मोरखका भामा और राजासिक का रामचन्द्रको कथाका पूचना ।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मगध देश अति सुन्दर है, जहां पुण्याधिकारी सेहें इन्द्र के लोक समान सदा भोगोपभोग करहै जहां योग्य व्यवहार से लोक पूर्ण मर्यादा रूप प्रवृतेहें और जहां सरोवग्में कमल फूल रहे हैं और भूमि मे सांठेन के बाड़े शोभायमान हैं और जहां नाना प्रकार के अन्नोंके समूह के पर्वत समान ढेर होय रहेहैं अरहट की घड़ीसे सींचे जीगके खेत हरित होय रहेहैं. जहां भूमि अत्यन्त श्रेष्ठ है | सर्व वस्तु निपजेहैं। चांवलों के खेतोभायमान और मुंगमोठ और ठौर फूल रहेहें गेहूंपादिअन्नको किसी भांति विघ्न नहीं और जहां भेंस की पीठ पर चढे ग्याल गाहें गऊओं के समूह अनेक वर्ण के हैं जिनके गलेमें घण्टा बाजे हैं और दुग्ध झरती अत्यन्त शोभेहें, जहां, दूधमयी धरती हो रहीहै, अत्यन्त स्वादु ।
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रस के भरे तृण तिन को चरकर गाय भस पुष्ट होय रही हैं, और श्याम सुन्दर हिरण हजारों विचरे हैं मानो इन्द्र के हजारों नेत्र हीहैं. जहां जीवन को कोई बाधा नहीं जिन धर्मियों का राज्य है और बनके प्रदेश केतकी के फूलों से धवल होरहे हैं, गंगा के जल के समान उज्वल बहुत शोभायमान हैं और जहां केसर की क्यारी अति मनोहर हैं और जहां ठौर और नारियल के वृक्ष हैं और अनेक प्रकार के शाक पत्र से खेत हरित होरहे हैं और बनपाल नर मेवादिक का आस्वादन करे हैं, .
और जहां दाड़म के बहुत वृक्ष हैं जहां सूवादि अनेक पक्षी बहुत प्रकार के फल भक्षण करें हैं, जहां। बंदर अनेक प्रकार किलोल करहैं, विजोन के वृत्त फल रहे हैं बहुत स्वाद रूप अनेक जाति के फल । | तिनका रस पीकर पक्षी सुख सों सोय रहेहैं. और दाख के मण्डप छाय रहेहैं. जहां वन विषे देव विहार करें, जहां खजूर को पायक भक्षण करे, कलाकेबन फल रहे हैं । ऊंचे ऊंचे अरजुन वृचोंके बन सोहेहैं
और नदीके तट गोकुल के शब्द से रमणीक हैं, नदियों में पची के समूह किलोल करेहें, तरङ्ग उठेहैं मानो नदी नृत्य ही करे हैं और हंसन के मधुर शब्दों मानो नदी गान ही करेहें, जहां सरोवर के तीर पर सारस क्रीड़ा करे हैं और वस्त्र आभरण सुगन्धादि सहित मनुष्यों के समूह तिष्ठहैं, कमलों के समूह छल रहे हैं और अनेक जीव क्रीड़ा करेहें, जहां हंसों के समूह उत्तम मनुष्यों के गुणों समान उज्ज्वल सुन्दर शब्द सुन्दर चालवाले तिनकर बन धवल होयरहाहै । जहां कोकिलों का रमणीक
शब्द और भंवगे का गुञ्जार मोगेंके मनोहर शब्द संगीत की ध्वनि बीन मृदङ्गों का बजना इनकर |दों दिया रमणीक होरही हैं औरवह देश गुणवन्त पुरुष से भराहै, जहां दगावान् क्षमावान् शीलवान
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पद्म पुराण
१२॥
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उदार चित्त तपस्वी त्यागी विवेकी श्राचारी लोग बसेंहैं, मुनि विचरे हैं, श्रार्थिका विहार करे हैं उत्तम श्रावक, श्राविका बसे हैं शरद की पूर्णमासी के चन्द्रमा समान है चित्त की वृति जिन की मुक्ता फैल समान उज्वल हैं श्रानन्त्र के देने हारे हैं; और वह देश बड़े २ गृहस्थीन, कर मनोहर है कैसे हैं गृहस्थी कल्पवृक्ष समान हैं तृप्त की हैं अनेक पथिक जिन्होंने जहां अनेक शुभ ग्राम हैं जिनमें भले भले किसान बसे हैं और उस देश विषे कस्तूरी कपूरादि सुगन्ध द्रव्य बहुत हैं और भांति भांति के वस्त्र आभूषणों कर मण्डित नरनारी विचरेहैं मानो देव देवी ही हैं, जहां जैन वचन रूपी अंजन ( सुरमा ) से मिथ्यात्व रूपी दृष्टि विकार दूर होवे है और महा मुनियों को तप रूपी अभि से पाप रूपी बन भस्म होय है ऐसा धर्म रूपी महा मनोहर मगध देश बसे है ॥
मगधदेश में राजगृह नामा नगर महा मनोहर पुष्पों की बासकर महा सुगन्धित अनेक सम्पदा कर भरा है मानो तीन भवनका योबनही है और वह नगर इन्द्रके नगर समान मनका मोहनेवाला है इन्द्र के नगरमें तो इंद्राणी कुंकुम कर लिप्त शरीर विचरे हैं और इस नगर में राजा की रानी सुगन्ध कर लिप्त विचरे हैं, महिषी ऐसा नाम रानी का है और भैंसका भी है सो जहां भैंसभी केसर की क्या में लोटकर केसर सों लिप्तभई फिरे हैं और सुन्दर उज्ज्वल घरों की पंक्ति और टांचीनके घड़े हुऐ सफेद पाषाण तिनसे मकान बने हैं मानो चन्दकान्ति मणिन का नगर बना है मुनियों को तो वह नगर तपोन भासे है, [मालूम होता है ] वेश्या को काम मन्दिर, नृत्यकारनी को नृत्यका मन्दिर और बैरीको यम पुर है, सुभटको वीरका स्थान, याचकको चिन्तामणी, विद्यार्थीको गुरु गृह गीत शास्त्रके पाठीको गंधर्व
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॥१३॥
नगर, चतुरको सर्व कला चतुराई सीखने का स्थान, और ठगको धूर्त का मन्दिर भासे है सन्तनको साधुओं का संगम ब्यापारी को लाभ भूमि शरणागति को बब्रपिंजर नीति के वेताको नीति का मन्दिर कौतुकी ( खिलारियों) को कौतिकका निवास, कामिनि को अप्सरों का नगर सुखीयाको आनन्दका । निवास भासे है ।जहां गज गामिनी शीलवन्ती व्रतवन्ती रूपवन्ती अनेक स्त्री हैं जिनके शरीरकी पद्म राग मणिकीसी प्रभा है और चन्द्रकांति मणि जैसा बदन है सुकुमार अङ्ग हैं पतिव्रता है व्यभिचारीको अगम्य हैं महो सौन्दर्य युक्त हैं मिष्ट वचनकी बोलनहारी हैं और सदा हर्षरूप मनोहर हैं मुख जिनके । और प्रमाद रहित हैं चेष्टा जिनकी सामायिक प्रोषध प्रतिक्रमण की करनहारी हैं बत नेमादि विषे साव. धान हे अन्न का शोधन जलका छानना यतिनको भक्ति से दान देना और दुखित भखित जीव को | दयाकर दान देना इत्यादि शुभ क्रिया में सावधान हैं जहां महा मनोहर जिन मन्दिर हैं जिनेश्वर की
और सिद्धांतकी चरचा ठौर और है । ऐसा राजगृह नगर बसे है जिसकी उपमा कथन में न भावे, स्वर्ग | लोक तो केवल भोगहीका बिलासहै और यह नगर भोग और योग दोनोही का निवासहै जहां पर्वत । समान तो ऊंचा कोट है और महागंभीर खाई है जिसमें बैरी प्रवेश नहीं करसक्त ऐसा देवलोक समान शोभायमान राजगृह नगर बसे है।
राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करे है जो इन्द्र समान विख्यात है। बड़ा योधा कल्याण रूप है प्रकृति जिसकी कल्याण ऐसा नाम स्वर्ण का भी है और मंगल का भी है सुमेर तो सुवर्ण रूप है। | और राजा कल्याण रूप है, वह राजा समुद्रसमान गम्भीर है मर्यादा उलंघन का है भय जिसको ।
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॥९॥
कला के ग्रहण में चन्द्रमा के समान है, प्रताप में सूर्य समान है. धन सम्पदा में कुबेर के समान है, शूरवीरपनों में प्रसिद्ध है लोक का रक्षक है महा न्यायवन्त है लक्ष्मी कर पूर्ण है गर्व से दूषित नहीं सर्व शत्रुओं का विजय कर बैठाहे तथापि शस्त्र (हथियार) का अभ्यास रखताहै और जो आपसे नमीभूत भये हैं तिनके मान का बदावन हारा है जे आपते कठोर हैं तिन के मान का छेदन हारा है और आपदा विषे उद्वेग नहीं सम्पदा विषे मदोन्मत्त नहीं जिसकी साधुओं में निर्मलरत्न बुद्धि है और रत्न के विषे पापाणावृद्धि है जो दानयुक्त क्रिया में बड़ा सावधान है और ऐसा सामन्त है कि मदोन्मत्त हाथीको कीट समान जाने है और दीन पर दयालु है जिसकी जिन शासन में परम प्रीतिहै धन और जीतब्य में जीर्ण तण समान बुद्धि है दशों दिशा वश करी हैं प्रजा के प्रतिपालन में सावधानहै और स्त्रियों को चर्मकी पुतली के समान देखे हे धनको रज समान गिने है गुणनकर नमीभूत जो धनुष ताही को अपना सहाई जाने है चतुरंग सेनाको केवल शोभा रूप माने है ( भावार्थ ) अपने बल प्राक्रम से राज करे है जिसके राजमें पवनभी वस्त्रादिक को हरण नहीं करे तो ठग चोरों की क्या वात जिसके राज में कर पशु भी हिंसा न करते भये तो मनुष्य हिंसा कैसे करे, यद्यपि राजा श्रेणिक से वासुदेव बड़े होते हैं परंतु उन्होंने बृष कहिये बृषासुरका पराभव कियाहै और यह राजाश्रेणिक वृषकहिये। धर्म ताका प्रतिपालक है इसलिये उनसे श्रेष्ठ है और पिनाकी अर्थात् शंकर उसने राजा दक्ष के गर्व को आताप किया और यह राजा श्रेणिक दक्ष अर्थात् चतुर पुरुषों को आनन्दकारी है इसलिये शंकर से भी अधिक है और इन्द्र के बंश नहीं यह वंश कर विस्ती है और दक्षिण दिशाका दिग्पाल जो
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पभ
पुराण
॥१५
यम सो कठोर है यह राजा कोमल चित्त है और पश्चिम दिशाका दिग्पाल जो वरुणसो दुष्ट जलचरों का अधिपति है इसके दुष्टों का अधिकारही नहीं और उत्तर दिशा का अधिपति जो कुबेर वह धनका रक्षक है यह धनका त्यागी है और बौद्ध की समान क्षणिक मती नहीं चन्द्रमाकी न्याई कलंकी नहीं राजा श्रेणिक सर्वोत्कृष्ट है जिसके त्याग का अर्थी पार न पावें जिसकी बुद्धि का पार पण्डित न पावते भए शूरवीर जिसके साहस का पार न पावते भए जिसकी कीर्ति दशों दिशामें विस्तरीहै जिसकेगणन | की संख्या नहीं सम्पदा का क्षय नहीं सेनाबहुत बड़े बड़े सामन्त सेवा करे हैं हाथी घोडे स्थ पयादे| सबही राजका ठाठ सबसे अधिक है और पृथिवी विषे प्राणीन का चित्त जिस से ति अनुरागी होता भया जिसके प्रताप का शत्रु पार न पावते भये सर्व कला विषे प्रवीण है इसलिये हम सारखे परुषवाके गुण कैसे गासकें जिसके क्षायक सम्यक्त की महिमा इन्द्र अपनी सभा विषे सदाही. करे है वह राजा मनिराजके समूह में वेतकी लता के समान नम्रीभूत है और उद्धत वैरी को बज्र दण्ड सेवश करनेवाला है जिसने अपनी भुजों से पृथिवी की रक्षा करी है कोट खाई तो नगरकी शोभामात्रहै जिन चैत्या खयों का कराने वाला जिन पूजा का करानेवाला जिसके चेलना नामा रानी महा पतिव्रता शीलवंती गुणवन्ती रूपवन्ती कुलवन्ती शुद्ध सम्यग्दशन की धरनेवाली श्रावक के व्रत पालनेवाली सर्व कलामें निपुण उसका वर्णन कहां लग करें ऐसा उपमा कर रहित राजा श्रेणिक गुणों का समूह राज गृह नगर में राज करे है।
एक समय सजगृह नगर के समीप विपुलाचल पर्वत के ऊपर भगवान महावीर अंतिम तीर्थकर |
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पन
१६
| समोशरण सहित प्राय बिराजे तब भगवन् के आगमन का वृत्तांत वनपालने आनकर राजासे कहा कार और छहों ऋतुओं के फल फूल लाकर आगे घरे तब राजाने सिंहासनसे उठकर सात पैंड पर्वतके सम्मुख
जाय भगवान्को अष्टांग नमस्कार किया ओर वनपालको अपने सर्व प्राभरण उतारकर पारितोषिक में देकर भगवान के दर्शनोंको चलने की तैयारी करता भया।
श्रीवर्धमान भगवान के चरणकमल सुर नर और असुरों से नमस्कार करने याग्यहें गर्भ कल्याण में छप्पन कुमारिकाओं ने शोधा जो माता का उदर उसमें तीन ज्ञान संयुक्त अच्युत स्वर्गसे आय वि राजे हैं । और इंद्र के आदेशसे धनपति ने गर्भ में प्रावने से छह मासपहले से रतन वृष्ट करके जिन के पिता का घर पूरा है और जन्म कल्याणक में सुमेर पर्वतके मस्तक पर इंद्रादिक देवोंने क्षीर सागर के जल जिनका जन्माभिषेक किया है और घरा है महावीर नाम जिनका और बाल अवस्था में इंद्रने जो देवकुमार रखके उन सहित जिन्हों ने क्रीड़ा करी है और जिनके जन्म में माता पिताको तथा अन्य समस्त परिवार को और प्रजाको और तीनलोकके जीवों को परम आनन्द हुआ नारकियोंका भी त्रास एक महरत के वास्ते मिट गया जिनके प्रभाव से पिता के बहुत दिनों के विरोधी जो राजाथे वह स्व मेवही आय नमीभूत भये और हाथी घोड़े स्थ रत्नादिक अनेक प्रकार के भेट किये और छत्र चमर बाहनादिक तजदीनहो हाथजोड़ कर पांवों में पड़े, और नाना देशों की प्रजा आयकर निवास करती भई जिन भगवानका चित्त भोगों में रत न हुवा जैसे सरोवरमें कमल जलसे निर्लेप रहै तैसे भगवान | जगत्की माया से अलिप्त रहे वह भगवान् स्वयं बुद्ध बिजली के चमत्कारवत् जगत्की माया को |
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पद्म पुराण ॥१७॥
चञ्चल जान बैरागी भए, और कियाहै लोकांतिक देवों ने स्तवन जिनका मुनिव्रतको धारण कर सम्य ग्दर्शन ज्ञान चारित्र का अाराधन कर घातिया कर्मों का नाशकर केवल ज्ञानको प्राप्त भये वह केवल ज्ञान समस्तलोकालोकका प्रकाशकहै, ऐसे केवल ज्ञानकेधारक भगवाननेजगत्के भव्यजीवोंके उपकार के निमित्त धर्म तीर्थ प्रगट किया, वह श्रीभगवान मल रहित पसेव रहित है जिनका रुधिर क्षीर[दध]समानहै और सुगंधित शरीरशुभलक्षण अतुलबल मिष्ट वचन महा सुन्दर स्वरूप सम चतुरस्र संस्थान वेज्र वृषभ नाराच संहनन के धारक हैं जिन के विहार में चारों ही दिशात्रो में दुर्भित नहीं रहता, सकल ईति भीति का अभाव रहेह, और सर्व विद्याके परमेश्वर जिनकाशरीर निरमल स्फटिक समान है और पाखों की पलक नहीं लगती हैं और नख केश नहीं बढ़ते हैं, समस्त जीवों में मैत्री भाव रहता है और शीतल मन्द सुगन्ध पवन पीछे लगी आवे है, छह ऋतु के फल फूल फलें हैं और धरती दर्पण समान निर्मल होजाती है
और पवनकुमार देव एक योजन पर्यंत भूमि तृण पाषाण कण्टकादि रहित करे हैं और मेघकुमारदेव गन्धोदिक की सुबृष्टि महा उत्साह से करें हैं, और प्रभु के विहार में देव चरण कमल के तले स्वर्णमयी कमल रचे हैं चरणों को भूमिका स्पर्श नहीं होता है, अाकाश में ही गमन करें हैं, धरती पर छह ऋतु के सर्व धान्य फलें हैं, शरद के सरोवर के समान अाकाश निर्मल होय है और दश दिशा धूभ्रादि रहित निर्मल होय है, सूर्य की कांति को हरणे वाला सहस्र धारों से युक्त धर्मचक्र भगवान के आगे श्रागे चले है, इस भान्ति आर्यखण्ड में विहार कर श्रीमहाबीरस्वामी विपुलाचल पर्वत ऊपर प्राय विराजे हैं, मुख पर्वत पर नाना महर के जलके निझरने झरे हैं. उन का शब्द न हमार हारा है. जहां बेल और।
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॥१८॥
पद्म । वृक्ष शोभायमान हैं। और जहां जाति विरोधी जीवों नेभी वैर छोड़दिया है, पक्षी बोल रहे हैं उन के पुराण शब्दों से मानो पहाड़ गुंजार ही करे है, और भ्रमों के नाद से मानो पहाड़ गान ही कर रहा है, सघन
वृक्षों के तले हाथियों के समूह बैठे हैं, गुफाओं के मध्य सिंह तिष्ठे हैं, जैसे कैलास पर्वत पर भगवान् ऋषभ देव विराजे थे तैसे विपुलाचल पर श्री वर्धमान स्वामी विराजे हैं।
जब श्रीभगवान् समोसरण में केवल ज्ञान संयुक्त विराजमान भये तब इन्द्रका श्रासन कम्पायमान भया, इन्द्रने जाना कि भगवान केवल ज्ञान संयुक्त विराजे हैं मैं जायकर बन्दना करूं इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढकर पाए वह हाथी शरद के बादल समान उज्ज्वल है मानो कैलास पर्वत ही सुवर्ण की सांकलनसे संयुक्त है जिसका कुम्भस्थल भृमरोंकी पंक्तिसेमण्डितहै जिसने दशोंदिशा मुगन्धसे ब्याप्त करी है महा मदोन्मन्त है, जिसके नख सचिक्कण हैं जिसके रोम कठोर हैं जिसका मस्तक भले शिष्य के समान बहुत विनयवान और कोमल है, जिसका अंगदृढहै और दीर्घ कायहै जिसका स्कंध छोटा है मद झरेहै और नारद समान कलह प्रियहै, जैसे गरुड़ नागको जीते तैसे यह नाग अर्थात् हाथीयों को जीते है जैसे रात्री नक्षत्रों की माला शोभेहै तैसे यह नक्षत्र माला जो आभरण उससे शोभहै सिन्धुर कर अरुण (लाल) ऊंचाजो कुम्भस्थल उस से देव मनुष्यों के मनको हरे है, ऐसे ऐरावत गज पर चढकर सुरपति आए और भी देव अपने अपने बाहनों पर चढ कर इन्द्र के संग आये जिनके मुख कमल जिनेन्द्र के दर्शन के उत्साह से फूल रहेहैं, सोलहही स्वर्गों के समस्त देव और भवन बासी व्यन्तर ज्योतिषी सर्बही आये और कमलायुध श्रादि अखिल विद्याधर अपनी स्त्रियों सहित आए, वे विद्याधर रूप और विभा में देवों के समान हैं |
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पद्म
॥१॥
समोसरण में इन्द्र भगवान् की ऐसे स्तुति करते भये । हे नाथ ! महामोहरूपी निद्रा में सोता यह जगत् तुमने ज्ञानरूप सूर्य के उदय से जगाया । हे सर्वज्ञ वीतराग ! तुमको नमस्कार हो, तुम परमात्मा पुरुषोत्तम ही संसार समुद्र के पार तिष्ठो हो, तुम बडे सार्थवाही हो, भव्य जीव चेतन रूपी धन के ब्यापारी तुमारे संग निर्वाण द्वीप को जायेंगे तो मार्ग में दोषरूपी चोरों से नाहीं लूटेंगे, तुमने मोक्षाभिलापियों को निर्मल मोक्ष का पन्थ दिखाया और ध्यान रूपी अग्नि कर कर्म रूपी ईंधन | को भस्म कियेहैं । जिनके कोई बांधव नहीं, नाथ दुःख रूपी अग्नि के ताप कर सन्तापित जगत् के प्राणी तिन के तुम भाई हो और नाथ हो, परम प्रताप रूप प्रगट भये हो, हम तुमारे गुण कैसे वर्णन कर सकें। तमारे गुण उपमा रहित अनन्तहैं, सो केवल ज्ञान गोचरहैं इस भांति इन्द्र भगवान् की स्तुति कर अष्टांग नमस्कार करते भये समोशरण की विभूति देख बहुत श्राश्चर्य को प्राप्त भये । ___ वह समोशरण नाना वर्णके अनेक महारत्न और स्वर्णसे रचा हुवा जिसमें प्रथमही स्त्र की धूलि का धूलि साल कोट है और उसके ऊपर तीन कोट हैं एक एक कोट के चार चार द्वार हैं द्वारे २ अष्ट मङ्गल द्रव्य हैं और जहां रमणीक वापी हैं सरोवर अद्भुत शोभा धरे हैं तहां स्फटिक मणि की भी (दिवार ) से बारह कोठे प्रदक्षिण रूप बने, एक कोठे में मुनिराज हैं दूसरे में कल्पवासी देवों की देवांगना में तीसरे में आर्यिका हैं चौथे में जोतिषी देवोंकी देवीहें पांचवें में ब्यन्तर देवीहें छठेमें भवन वासिनी देवी हैं, सातवें में जोतिषी देव हैं, आठवें में व्यन्तर देवहैं, नवमेंमेंभवनवासी, दरावें में कल्प वासी, ग्यारवें में मनुष्य, बारमें तियच ॥ सर्व जीव परस्पर बैरभाव रहित तिष्ठ हैं । भगवान् अशोक
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पद्म वृक्षक समीप सिंहासन पर विराजे हैं; वह अशोक वृक्ष प्राशियों के शोकको दूर कर है, और सिंहा
सन नाना प्रकार के रत्नों के उद्योत से इन्द्र धनुषके समान अनेक रंगोंको धेरहै, इंद्र के मुकट में जो रत्न लगेहैं, उनकी कान्तिके समूहको जीते हैं, तीन लोककी ईश्वरता के चिन्ह जो तीन छत्र उनसे श्री भगवान शोभायमान हैं और देव पुष्पोंकी वर्षा करे हैं, चौंसठ चमर सिरपर दूरे हैं, दुंदुभी । बाजे बजे हैं उनकी अत्यन्त सुन्दर ध्वनि होय रही है। ____राजगृह नगरसे राजा श्रेणिक भावते भये ।अपने मन्त्री तथा परिवार और नगर निवासियों सहित । समोशरण के पास पहुंच समोशरण को देख दूरही से छत्र चमर वाहनादिक तज कर स्तुति पूर्वक । नमस्कार करते भये पीछे आयकर मनुष्योंके कोठेमें बैठे अक्रूर, वारिषेण, अभय कुमार, विजय बाहु इत्यादिक राज पुत्र भी नमस्कार कर आय बैठे जहां भगवान की दिव्य ध्वनि खिरे है, देव मनुष्य तियच सवही अपनी अपनी भाषामें समझे हैं वह ध्वनि मेघके शब्द को जीते है, देव और सूर्यकी कान्तिको जीतने वाला भामण्डल शोभे है, सिंहासन पर जो कमल है उसपर आप अलिप्त विराजे हैं । गणधर प्रश्न करे है और दिव्य ध्वान विषे सर्व का उत्तर होय है ॥
गणधर देवने प्रश्न किया कि हे प्रभो तत्वके स्वरूप का ब्याख्यान करो तब भगवान तत्वका निरूपण करते भये । तत्व दो प्रकार के हैं एक जीव दूसरा अजीव, जीवों के दो भेद हैं सिद्ध और
संसारी ॥संसारीके दो भेदहें एक भव्य दूसरा अभव्य, मुक्त होने योग्यको भव्य कहिये और कोरडू (कुडकू) || मूंग समान जो कभी भी न सीझे तिनको अभव्य कहिये, भगवान्के भाषे तत्वोंका श्रद्धान भव्य जीवोंके ।
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॥२९॥
-
पद्म | ही होय अभव्य को न होय, और संसारी जीवों के एकेन्द्रिय श्रादि भेद और गति काय आदि
चौदह मारगणा का स्वरूप कहा और उपशम क्षायक श्रेगी दोनों का स्वरूप कहा और संसारीजीव दुःख रूप कहे, मूढो को दुःख रूप अवस्था सुख रूप भासे है, चारों हीगति दुःख रूप हैं नारकियों को तो अांखके पलक मात्र भी मुख नहीं,मारण,ताड़न,छेदन,शूलारोपणादिक अनेक प्रकारके दुःख निरन्तरहैं, और तियञ्चोंको ताड़न,मारण,लादन,शीत उष्ण भूख प्यासादिक अनेक दुःखहैं और मनुष्यों को इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोगादिअनेक दुःखहें औरदेवोंको बड़े देवोंकी विभूति देखकर संताप उपजे है और दूसरे देवोंका मरण देख बहुत दुःख उपजेहै तथा अपनी देवांगनाओंका मरण देख वियोग उपजेहै
और जब अपना मरण निकट आवे तब अत्यन्त विलापकर झुरे हैं, इसी भांति महा दुःख कर संयुक्त चतु गतिमें जीव भ्रमण करे है, कर्मभूमिमें मनुष्य जन्म पाकर जो सुकृत (पुण्य) नहीं करे है उनके हस्तमें प्राप्त हुअा अमृत जाता रहे है, संसारमें अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ यह जीव अनन्त काल में कभी ही मनुष्य जन्म पावे है तब भीलादिक नीच कुलमें उपजा तो क्या हुआ और म्लेच्छ खंडों। में उपजा तो क्या हुआ और कदाचित् आर्य खंडमें उत्तम कुलमें उपजा और अंग हीन हुआ तो क्या और सुंदर रूप हुश्रा और रोग संयुक्त हुआ तो क्या और सर्व ही सामग्री योग्य भी मिली परंतु विषयाभिलाषी होकर धर्ममें अनुरागी न भया तो कुछ भी नहीं, इस लिये धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभहै, कई एक तो पराये किंकर होकर अत्यन्त दुःखसे पेट भरे हैं, कई एक संग्राममें प्रवेश के हैं संग्राम शस्त्र के पातसे भयानक है और रुधिर के कर्दम (कीचड़) से महा ग्लानि रूप है, और कई
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॥
शा
एक किसाण वृतिकर क्लेशसे कुटुम्बका भरण पोषण करें हैं, जिसमें अनेक जीवोंकी बाधा करनपडती है ॥ इस भांति अनेक उद्यम प्राणी करें हैं उनमें दुःख क्लेशही भो में हैं, संसारी जीव विषय नखके अत्यन्त अभिलाषी हैं, कै एक तो दरिद्र से महा दुखी हैं और कई एक धन पायकर चोरवा अग्नि । वाजल वा राजादिकके भयसे सदा आकुलता रूप रहे हैं, और के एक द्रव्यको भोगते हैं परंतु तृष्णा रूप अग्निके बढ़नेसे जले हैं, के एकको धर्मकी रुचि उपजे है परंतु उनको दुष्ट जीव संसार ही के मारग में डारे हैं, परिग्रह धारियों के चित्तकी निर्मलता कहांसे होय, और चित्त की निर्मलता बिना । धर्म का सेवन कैसे होय, जब तक परिग्रह की आसक्तता है तब तक जीव हिंसा विषे प्रवृते हैं,
और हिंसा से नरक निगोद आदि कुयाोन में महा दुःख भोगें हैं, संसार भूमण का मूल हिंसाही है, और जीव दया मोक्ष का मूल है, परिग्रहके संयोगसे राग द्वेष उपजे है सो रागद्वेषही संसारमें दुःख के कारण हैं, कै एक जीव दर्शन मोहके अभावसे सम्यक् दर्शनकोभी पावे हैं परन्तु चारित्र मोहके उदय से चारित्र को नहीं धार सक्ते हैं और कै एक चारित्र को भी घारकर बाईस परीषहों से पीड़ित होकर चारित्र से भ्रष्ट होय हैं, के एक अणुव्रतही धारे हैं और कै एक अणुबतभी धार नहीं सके हैं केवल अत्रत सभ्यक्ती ही होय हैं, और संसार के अनन्त जीव सम्यक्त से रहित मिथ्या दृष्टिही हैं, जो मिथ्या दृष्टि । हैं वे बार बार जन्म मरण करे हैं, दुःख रूप अग्नि से तपतायमान भव संकटमें पड़े हैं, मिथ्या दृष्टि जीव जीभ के लोलुपी हैं और काम कलंकसे मलीन हैं क्रोध मान माया लोभ में प्रवृत्ते हैं, और जो पुण्याधिकारी जीव संसार शरीर भोगने से विरक्त होकर शीघही चारित्रको धारे हैं और निबाहै हैं और संयम में
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पुराख
पद्म प्रवृत्ते हैं. वे महाधीर परम समाधि से शरीर छोड़कर स्वर्ग में बड़ देव होकर अद्भुत सुख भोगे हैं, वहांसे
चयकर उत्तम मनुष्य होकर मोक्ष पावें हैं, कई एक मुनि तपकर अनुत्तर विमान में अहिमन्द्र होयहें वहां से चयकर तीर्थकर पद पावे हैं, कई एक चक्रवर्त्त बलदेव कामदेव पदपावे हैं, कई एक मुनि महातप कर निदान बांध स्वर्ग में जाय वहां से चयकर वासुदेव होय हैं वे भोगको नाही तज सके हैं इसप्रकार श्रीवर्द्धमान स्वामी के मुख से धर्मोपदेश श्रवण कर देव मनुष्य तिर्यच अनेक जीव ज्ञानको प्राप्त भए कई एक उत्तम पुरुष मुनि भए कईएक श्रावक भए कईएक तिर्यचभी श्रावक भए देवव्रत नहीं धोरणकर सक्ते हैं इसलिये अवृत सम्यक्त कोही प्राप्त भए, अपनी अपनी शक्ति अनुसार अनेक जीव धर्ममें प्रवर्ते पाप कर्म के उपार्जन से विरक्त भए, धर्म श्रवणकर भगवान को नमस्कार कर अपने अपने स्थानगए श्रेणिक महाराज भी जिन बचन श्रवणकर हर्षित होय अपने नगरको गए। सन्ध्या समय सूर्य अस्त होनेको सन्मुख भया अस्ताचल के निकट आया अत्यन्त आरक्तता (सुरखी) को प्राप्त भया किरण मंद भई सो यह बात उचितही है जब सूर्य का अस्त होय तब किरण मन्द हौयही होंय जैसे अपने स्वामी को आपदा परे तब किसके तेजकी बृद्धि रहै । चकवीनके अश्रूपात सहित जे नेत्र तिनको देख मानो दयाकर सूर्य अस्तभया, भगवान के समवशरण विषे तो सदा प्रकाशही रहे है. रात्रि दिनका विचार नहीं और सर्वत्र पृथिवी विषे रात्रि पड़ी सन्ध्या समय दिशालाल भई सो मानो धर्म श्रवणकर प्राणियों के चित्तसे नष्टभया जो राग सो सन्ध्या के छल कर दशों दिशान में प्रवेश करता भया (भावार्थ) राग का स्वरूप भी लाल होय है और दिशा विषे भी ललाई भई और सूर्य के अस्त होनेसे लोगोंके
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पद्म
४२४॥
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नेत्र देखने से रहित भए क्योंकि सूर्य्य के उदय से जो देखनेकी शक्ति प्रगटभईथी सो अस्त होनेसे नष्ट भई और कमल संकुचित भये जैसे बड़े राजाओं के अस्त भये चोरादिक दुर्जन जगत् विषे परधन हर णादिक कुचेष्टा करें तैसे सूर्य के अस्त होने से पृथिवी विषे अन्धकार फैलगया रात्री समय घर २ चम्पे की कली समान जो दीपक तिनका प्रकाश भया, वह दीपक मानो रात्री रूप स्त्री के आभूषणही हैं । कमल के रससे तृप्त होकर राजहंस शयन करते भए और रात्रि सम्बन्धी शीतल मन्द सुगन्ध पवन चलती भई मानो निशा (रात) का स्वासही है और भ्रमरों के समूह कमलों में विश्राम करतेभये और जैसे भगवान के वचनों कर तीन लोकके प्राणी धर्म का साधन कर शोभायमान होय हैं तैसे मनोज्ञ तारों के समूह से आकाश शोभायमान भया और जैसे जिनेन्द्र के उपदेशसे एकान्त वादियोंकी संशय विलाय जाय तैसे चन्द्रमा की किरणों से अन्धकार विलाय गया लोगों के नेत्रों को आनन्द करनहार चन्द्रमा उद्योत समय कम्पायमान भया । मानो अन्धकार पर अत्यन्त कोप भया ( भावार्थ ) क्रोधसमय प्राणी कम्पायमान होय हैं अन्धकार कर जे लोक खेदको प्राप्त भएथे वे चन्द्रमा के उद्योतकर हर्षको प्राप्त भए और चन्द्रमा की किरण को स्पर्श कर कुमुद प्रफुल्लित भये । इस भांति रात्रि का समय लोकों को विश्राम का देनहारा प्रगट भया राजा श्रेणिक को सन्ध्या समय सामायिकपाठ करते जिनेन्द्रकी कथा करते करते घनी रात्रि गई सोनेको उद्यमी भये कैसा है रात्रि का समय जिसमें स्त्रीपुरुषों के हितकी बृद्धिहोय है राजा के शयन का महल गंगा के पुलिन [ किनारो ] समान उज्ज्वल है और रत्नों की ज्योति से अति उद्योत रूप है और फूलोंकी सुगन्धित जहांसे झरोखों के द्वारा आवे है और महलके समीप सुन्दर स्त्री मनोहर
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गीत गाय रही हैं और महल के चौगिरद सावधान सामन्तोंकी चौकी है और अति शोभा बन रही है सेज पर अति कोमल बिछौने बिछ रहे हैं वह राजा भगवान के पवित्र चरण अपने मस्तक परधारे है और स्वप्न में भी बारम्बार भगवानहीका दर्शन करे है और स्वप्नमें गणधरदेव सेभी प्रश्न करे है इस भांति सुख से रात्री पूर्णभई पीछे मेघकी ध्वनि समान प्रभातके वादित्र वाजतेभए उनके नादसे राजा निद्रासे रहितभया ,
राजा श्रेणिकअपने मन में विचार करता भया कि भगवान की दिव्य ध्वनि में तीर्थकर चक्रवादिक के जो चरित्र कहेगये वह मैने सावधान होकर सुने अब श्रीरामचन्द्र के चरित्र सुनने में मेरी अभि लाषा है क्योंकि लौकिक ग्रन्थों में रावणादिक को मांस भक्षी राक्षस कहा है परन्तु वे विद्याधर महाकुल । वन्त कैसे मद्य मांस रुधिरादिक का भक्षण करें । और रावण के भाई कुम्भकरण को कहे है कि वह छै । महीने की निद्रा लेता था और उसके ऊपर हाथी फेरते और ताते तेल से कान पूरते तोभी छह महीना से पहले नहीं जागता था और जब जागता था तब ऐसी भूख प्यास लगती थी कि अनेक हस्ती महिषी , (भैसा) आदि तिर्यंच और मनुष्यों को भक्षण करजाता था और राधि रुधिर का पान करता। तौभी तृप्ति नहीं होतीथी और सुग्रीव हनमानादिकको बानर कहें हैं परंतु वेतोबड़े राजा विद्याधर थे बड़े पुरुष को विपरीत कहनेमें महा पापका बंध होयहै जैसे अग्निके संयोगसे शीलतान होय और तुषार (बर्फ) के संयोगसे ऊष्णता (गरमी) न होय जलके मथन से घीकी प्राप्ति न होय और बालूरेतके पेलने से तेल की प्राप्ति न होय तैसे महा पुरुषों के चरित्र विरुद्ध सुनने से पुण्य न होय और लोक ऐसा कहे हैं कि देवों के स्वामी इन्द्र को रावण ने जीता परन्तु यह बात नहीं बनती, कहां वह देवों का इन्द्र और कहा।
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पद्म
पुरःया
॥२६॥
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यह मनुष्य जो इन्द्र के कोपमात्र से ही भस्म हो जाय, जिस के रावत हस्ती, वज्रसा प्रायुष, जिस की ऐसी सामर्थ कि सर्व पृथिवी को वश कर ले, सो ऐसे स्वर्ग के स्वामी इन्द्रको यह अल्प शक्तिका घनी मनुष्य विद्याधर कैसे लाकर बन्दी में डारे, मृग से सिंहको कैसे बाधाहोय तिलसे शिलाको पीसना और गिडो से सांप का मारना और श्वान से गजेन्द्र का हनना कैसे होय, और लोक कहे हैं कि श्रीराम चन्द्र मृगादिक की हिंसा करते थे परन्तु यह बात न बने, वे बती- विवेकी दयावान् महापुरुष कैसे जीवों की हिंसा करें और कैसे अभक्ष्य का भक्षण करें, और सुग्रीव का बड़ा भाई बाली को कहे हैं कि उस
सुग्रीव की स्त्री अङ्गीकार करी मरन्तु बड़ा भाई जो बाप समान है कैसे छोटे भाई की स्त्री अङ्गीकार करे, सो यह सर्व बात सम्भवे नहीं इसलिये गणधर देवको पूछकर श्रीरामचन्द्र की यथार्थ कथा श्रवण करूंगा, औसा विचार श्रेणिक महाराज ने किया और मनमें विचारे हैं कि नित्य गुरुजीका दर्शन किये
के प्रश्न किए तत्व निश्चय किए से परम सुख होय है ये आनन्द के कारण हैं जैसा विचार कर राजा सेज से उठे और रानी अपने स्थानको गई, रानी जिसकी कांति लक्ष्मी समान है, महा पतिव्रता और पतिकी बहुत विनयवान है, और राजा जिसका चित्त अत्यन्त धर्मानुराग में निष्कम्प है दोनों प्रभात क्रिया का साधन करते भये और जैसे सूर्य्य शरदके बादलों से बाहिर यावे तैसे राजा सुफेद कमल समान उज्ज्वल सुगन्ध महल से बाहिर धावते भए, उस सुगन्ध महल में भंवर गंजार करे हैं । राजा सभा में आकर विराजे और प्रभात समय जो बड़े बड़े सामन्त आए उन को द्वारपाल ने राजा का दर्शन कराया, सामन्तोंके वस्त्र आभूषण सुन्दर हैं उन समेत राजा हाथी पर चढ़ कर नगर से समो
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पद्म
पुराण
॥ २७ ॥
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शरण को चले । आगे आगे बन्दीजन बिरद बखानतें जाय हैं, राजा समोशरण के पास पहुंचे, समोशरण में अनन्त महिमा के निवास महाबीर स्वामी विराजे हैं, उन के समीप गौतम गणधर तिष्ठे है तत्वों के व्याख्यान में तत्पर और कांति में चन्द्रमा के तुल्य दीप्ति, प्रकाश में सूर्य के समान, जिन के हाथ और चरण वा नेत्ररूपी कमल अशोक वृक्ष के पल्लब (पत्र) समान लाल हैं और अपनी शांतता से जगत् को शान्ति करे हैं, मुनियों के समूह के स्वामी हैं । राजा दूर से ही समोशरण को देख कर हाथी से उतर कर समोशरण में गए, हर्ष कर फूल रहे हैं मुख कमल जिन के सो भगवान् की तीन प्रदक्षिणा दे हाथ जोड़ नमस्कार कर मनुष्यों की सभा में बैठे
॥
राजा श्रेणिक ने श्री गणघर देव को नमोस्तुते कह कर समाधान ( कुशल ) पूछ प्रश्न किया कि भगवान् मेरेको राम चरित्र सुनने की इच्छा है यह कथा जगत् में लोगोंने और भांति प्ररूपी है इसलिये हे प्रभो कृपा कर सन्देह रूप कीचड़ से बहुत जीवों को काढ़ो ॥
राजा श्रेणिक का प्रश्न सुन श्री गणधर देव अपने दांतों की किरण से जगत् को उज्ज्वल करते गम्भीर मेघकी ध्वनि समान भगवान् की दिव्य ध्वनि के अनुसार व्याख्यान करते भए, हे राजा ! तू सुन मैं जिन आज्ञा प्रमाण कहूं हूं, जिन बचन तत्व के कथन में तत्पर हैं, तुम यह निश्चय करो किं रावण राक्षस नहीं मनुष्य है मांस का आहारी नहीं विद्याधरों का अधिपति है, राजा बिनमि के वंस में उपजा है, और सुग्रीवादिक बन्दर नहीं यह बड़े राजा मनुष्य हैं, विद्याधर हैं। जैसे नीव विना मन्दिर को चिना न होग तैरी जिन वचन रूपी मूल बिना कथा की प्रमाणता नहीं होय है इस लिये प्रथम
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०२८॥
पुराण | ही क्षेत्र कालादिक का बरणन सुन फिर और महा पुरुषों का चरित्र जो पाप का विनाशने हारा है सुनो।
लोकालोक, कालचक्र, कुलकर नाभि राजा, और श्री ऋषभदेव और भरत का वर्णन गौतम स्वामी कहे हैं कि हे राजा श्रेणिक अनन्त प्रदेशी जो अलोकाकाश उसके मध्य तीन बात बलों से वेष्टित तीनलोक तिष्ठे हैं तीनलोक के मध्य यह मध्य लोक है इस में असंख्यात द्वीप और समुद्र । हैं उनके बीच लवण समुद्रकरखेढ़ा लक्ष योजन प्रमाण यह जम्बूद्वीप है, उसके मध्य सुमेरु पर्वतहै वह मूल में बज्र मणि मई है ओर ऊपर समस्त सुवर्ण मई है अनेक रत्नों से संयुक्त है संध्या समय रक्तताको धरे । है मेघों के समूह के समान सुरङ्ग ऊंचा शिखर है शिखर के और सौधर्म स्वर्ग के बीच में एक बालकी अणी का अन्तर है सुमेरु पर्वत निन्यानवें हजार योजन ऊंचा है और एक हजार योजन कन्द है और पृथिवी पर तो दश हजार योजन चौड़ा है और शिखर पर एक हजार योजन चौड़ाहै मानो मध्यलोक के नापने का दण्डही है जम्बद्धीप में एक देव कुरु एक उत्तर कुरु हैं और भरतश्रादि सप्त क्षेत्र हैं षट्कुलाचलों से जिनका बिभाग है जम्बू और शालमली यह दोय वृक्ष है जम्बदीप में चौंतीस विजियाध पर्वत हैं एक एक विजिया में एकसौ दश विद्याधरों की नगरी हैं एक एक नगरी को कोटि २ ग्राम लगे हैं, ओर जम्बू द्वीप में बत्तीस विदेह एक भरत एक ऐरावत यह चौंतीस क्षेत्र हैं एक एक क्षेत्र में एक एक राजधानी है, और जम्बद्धीप में गङ्गा आदिक १४ महानदी हैं और छह भोग भमिहें एक एकविजियार्घ पर्वत में दोय दोय गुफा हैं सो चौंतीस विजिया में अड़सठ गुफाहें षट्कुलाचलोंमें और विजियाध पर्वतोंमें तथा वक्षार पर्वतों में सर्वत्र भगवान के अकृत्रिम चैत्यालय हैं और जम्बवृक्ष और
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.२९
पुराण शाल्मली वृक्ष में भगवान्के अकृत्रिम चत्यालय हैं जो रत्नोंकी ज्योतिसे शोभायमान हैं जम्बूद्वीप की।
दक्षिण दिशा की ओर राक्षसद्धीप है और ऐरावत क्षेत्र की उत्तर दिशा में गन्धर्व नामा देश है और पूर्व विदेह की पूर्व दिशा में वरुण द्वीप है और पश्चिम विदेह की पश्चिम दिशा में किन्नर द्वीप है वे चारोंही द्वीप जिन मन्दिरों से मण्डित हैं।
जैसे एक मासमें शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष यह दो पक्ष होती हैं तैसेही एक कल्प में अवस। पणी और उत्सर्पणा दोनों काल प्रवृते हैं, अवसर्पणी कालमें प्रथमही सुखमा सुखमा कालकी प्रवृति होय है, फिर दूसरा सुखमा, तीसरा सुखमा दुखमा, चौथा दुखमासुखमा, पांचवां दुखमा और छठा दुखमादुखमा प्रवृते है, तिसके पीछे उत्सर्पणी काल प्रवृते है उसकी श्रादिमें प्रथम ही छठा काल दुखमादुखमा प्रवृते है फिर पांचवां दुखमा फिर चौथा दुखमासुखमा फिर तीसग सुखमा दुखमा फिर दूसरा सुखमा फिर पहला मुखमासुखमा । इसी प्रकार अरहटकी घड़ी समान अवसर्पणीक पीछे उत्सर्पणी और उसणी के पीछे अवसर्पा, सदायह कालचक्र इसी प्रकार फिरता रहताहै, परतु इस कालकी पलटना केवल भरत और त्रैरावत क्षेत्रमें ही है, इस लिये इनमें ही श्रायु कायादिककी हानि वृद्धि होयहै, और महा विदेह क्षेत्रादिमें तथा स्वर्ग पातालमें और भोग भूमिश्रादिक में तथा सर्व द्वीप समुद्रादिक में कालचक्र नहीं फिरता इस लिये उनमें रीति नहीं पलटती, एकही रीति रहे है। देवलोकमें तो मुखमासुखमा जो पहला कालहै सदा उसकीही रीति रहेहै और उत्कृष्ट भोग भूमिमें । भी मुखमासुखमा कालकी गति रहेहै और मध्य भोगभूमिमें सुखमा अर्थात् दूजे काल की रीति रहे
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॥३०॥
है और जवन्य भोगभूमि में सुखमा दुखमा जो तीसरा कालहै उसकी गति रहेहै, और महा विदेह । क्षेत्रोंमें दुखमासुग्वमा जो चौथा काल है उसकी गति रहे है, और अढाई द्वीपके परै अन्तके आधे स्वयम्भू रमण द्वीप पर्यन्त बीचके असंख्यात द्वीप समुद्र में जघन्य भोगभूमिहै सदा तीसरेकालको गति रहे है और अन्तके आधे द्वीपमें तथा अन्तके स्वयम्भू रमण समुद्रों तथा चारों कोण में दुखमा अर्थात् पंचम काल की गति सदा रहे है, और नरकमें दुखमादुखमा जो छठा काल उसकी रीति रहे और। भरत अरावत क्षेत्रोंमें छहों काल प्रवृते हैं, जब पहला सुखमासुखमा काल ही प्रवृते है तब यहां देव। कुरु उत्तर कुरु भोगभूमि की रचना होयह कल्प वृक्षों से मंडित भूमि सुखमई शोभे है और उग्रत । सुर्य समान मनुष्य की कांति होय है, सर्व लक्षण पूर्ण लोक शोभे है, स्त्री पुरुष युगल ही उपजेहैं।
ओर साथही मरे हैं, स्त्री पुरुषों में अत्यन्त प्रीति होय है, मरकर देव गति पावे हैं, भूमि काल के प्रभावसे रत्न सुवर्णमयी और कल्पवृत्त दश जातिके सर्वही मन बांचित पूर्ण करें, जहां चार चार अंगुल के महा सुगंध महा मिष्ट अत्यन्त कोमल तृणोंसे भूमि अाछादित है सर्व ऋतुके फल फूलोंसे वृत्त शोभे हैं और जहां हाथी घोड़े गाय भैंस आदि अनेक जातिके पशु सुख से रहे हैं. और कल्प वृक्षों से उत्पन्न भहा मनोहर आहार मनुष्य करे हैं, जहां सिंहादिक भी हिंसक नहीं मांस का आहार नहीं योग्य आहार करे हैं, और जहां वापी सुवर्ण और रत्नकी पैड़ियों संयुक्त कमलों से शोभित दुग्ध दही घी मिष्टान्नकी भरी अत्यन्त शोभा को धर हैं, और पहाड़ अत्यन्त ऊंचे नाना प्रकार रत्न की किरणों से मनोज्ञ सर्व प्राणियोंको सुख के देने वाले पांच प्रकारके वर्णको धरे हैं, और जहां नदी !
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पुराण M३१.
जलचरादि जंतु रहित महा रमणीक दुग्ध (दूध ) घी मिष्टान्न जलकी भरी अत्यन्त स्वाद संयुक्त प्रवाहरूप बहे है, जिनके तट रत्ननकी ज्योतिसे शोभायमान हैं । जहां वेइन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री असेनी पंचेन्द्री तथा जलचरादि जीव नहीं हैं, जहां थलचर, नभचर. गर्भज तिथंच हैं, वह तिर्यंच भी युगल ही उपजे हैं, वहां शीत उष्ण वर्षा नहीं, तीन पवन नहीं,शीतल मंद सुगंध पवन चलेहें और किसी भी प्रकारका भय नहीं सदा अद्भुत उत्साह ही प्रवर्ते है और ज्योतिरांग जाति के कल्पवृक्षोंकी ज्योति से चांद सुर्य नजर नहीं आते हैं, दशही जाति के कल्प वृत्त सर्वही इंद्रियों के मुख स्वादके देने वाले शोभे हैं, जहां खाना, पीना, सोना, बैठना, वस्त्र, आभूषण, सुगन्धादिक संबही कल्प वृत्तोंसे उपजे हैं और भाजन (वर्तन) तथा वादिनादि ( वाजे) महा मनोहर सर्व ही कल्प वृक्षों से उपजे हैं यह कल्प वृत्त बनस्पति काय नहीं और देवाधिष्ठित भी नहीं केवल पृथ्वीकाय रूप सार बस्तु है, तहां मनुष्यों के युगल ऐसे में हैं जैसे स्वर्ग लोक में देव ।
जब लोक के वर्णन में गौतम स्वामीने भोगभूमि का वर्णन किया तब राजा श्रेणिकने भोग भूमि में उपजने का कारण पूछा सो गणधर देव कहे हैं कि जैसे भले खेत में बोया वीज बहुत गुणा होकर फले हैं और इतु में प्राप्त हुआ जल मिष्ट होय हे और गाय ने पिया जो जल सा दूध होय परिणमे है तैस व्रतकर मंडित परिग्रह रहित मुनिको दिया जो दान सो महा फल को फले है, जो सरल चित्त साधनों को आहारादिक दान के देने वाले हैं वे भोगभूमि में मनुष्य होय हैं और जैसे निरस क्षेत्र में बोया बीज अल्प फल को प्राप्त होय और नींब में गया जेल कटुक होय है ।
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"३२०
तैसे ही भोग तृष्णा से जो कुदान करें हैं वह भोग भूमि में पशु जन्म पावें हैं ॥ ( भावार्थ )-दान चार प्रकार का है एक आहार दान दूजा औषधदान तीजा शास्त्रदान चौथाअभयदान, तिस में मुनि आर्यिका उत्कृष्ट श्रावकों को भक्ति कर देना पात्र दान है और गुणों कर पाप समान साधर्मीजनों को देना समदान है और दुखित जीव को दया भावकर देना करुणादान है और सर्व त्याग कर के मुनिव्रत लेना सकल दान है यह दान के भेद हैं। ____जब तीजे काल में पल्य का आठवां भाग बाकी रहा तब कुलकर उपजे प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति भये तिनके वचन सुनकर लोक अानन्द को प्राप्त भये वह कुलकर अपने तीन जन्म को जाने हैं और उनका चेष्टा सुन्दर है और बह कर्म भूमि के व्यवहारके उपदेशक हैं तिनके पीछे दूजा कुलकर सम्मति भया तिनके पीछे तीसरा कुलकर क्षेमकर चौथा क्षेमंधर पांचवां सीमंकर छठा सीमंधर सातवां विमल वाहन आठवां चक्षुष्मान नवां यशस्वी दशवां अभिचंद्र ग्यारवां चन्द्राभ बारहवां मरुदेव तेरहवां प्रसेनजित चौदवांनाभि राजा यह चौदह कुलकर प्रजा के पिता समान महा बुद्धिमान शुभ कर्मसे उत्पन्न भये नव ज्योतिरांग जाति के कल्पवृक्षों की ज्योति मन्द भई और चांदसूर्य नजर आए तिनको देख कर लोग भयभीत भए कुलकरोंको पूछते भये हे नाथ ! यह अाकाश में क्या दीखे है तब कुलकर ने कहा कि अब भोगभूमि समाप्तहुई कर्म भूमिका आगमन है ज्योतिरांग जाति के कल्पवृक्षोंकी ज्योति मन्द भई है इसलिये चांद सूर्य नजर आएहैं देव चार प्रकार के हैं कल्पवासी भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी तिन में चांद सूर्य ज्योतिषयों के इन्द्र पतीन्द्र हैं चन्द्रमा तो शीत किरण है और सूर्य ऊष्य
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पुराण
॥३३॥
किरण है जब सूर्य अस्त होय है तब चंद्रमा कांतिका घरे है और प्रकाश विषे नक्षत्रों के समूह प्रगट होय हैं सूर्यकी कांति से नक्षत्रादि नहीं भासे ह इसी प्रकार पहिले कल्पवृक्षोंकी ज्योतिसे चंद्रमा सूर्यादिक नहीं भासते थे अब कल्पवृक्षोंकी ज्योति मंदभई इसलिये भासे हैं यह कालका स्वभाव जानकर तुम भय को तजो कुलकर का बचन सुनकर उनका भय निवृत्त भया॥
चौदवें कुलकर श्रीनाभि राजा जगत् पूज्य तिनके समय में सबही कल्पवृक्षोंका अभाव भया और युगल उत्पत्ति मिटी अकेलेही उत्पन्न होने लगे तिनके मरुदेवी राणी मनकी हरणहारी उत्तम पतिव्रता जैसे चन्द्रमाके रोहिणी,समुद्र केगंगा,राजहंसके हंसिनी तैसे यह नाभि राजाके होती भई, वह राणी राजाके मन में वसहै उसकी हंसिनी केसी चालऔर कोयलकैसे वचनहें जैसे चकवीकी चकवेसों प्रीति होयहै तैसे राणीकी राजासों प्रीति होतीभईराणीको क्या उपमा दीजाय जो उपमा दीजाय वह पदार्थराणीसे न्यूननजर आवेहैं, सर्व लोकपूज्य मरुदेवी जैसे धमके दया होय तैसे त्रैलोक्यपूज्य जो नाभिराजा उसके परमप्रिय होतीभई, मानो यह राणी आताप की हरण हारी चन्द्रकला ही कर निरमापी (बनाई) है, आत्मस्वरूप की जानन हारी सिद्ध पदका है ध्यान जिस को ब्रैलोच की माता महा पुण्याधिकारनी मानो जिनवाणी ही है और अमत का स्वरूप तृष्णा की हरण हारी मानो रत्न बृष्टि ही है सखियों को आनन्द की उपजावन हारी महा रूपवती काम की स्त्री जो रति उस से भी अति सुन्दर है, महा अानन्द रूप माता जिन का शरीर ही सर्व आभूषण का आभूषण है जिस के नेत्रों समानं नील कमल भी नहीं और जिसके केश भ्रमरों से भी अधिक श्याम, वह केश ही ललाट का शृङ्गार हैं यद्यपि इनको आभूषणों की अभिलाकर
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पद्म
पुराण
नहीं तथापि पतिकी आज्ञा प्रमाण कर कर्ण फूलादिक आभूषण पहिरे हैं जिन के मुख का हास्य ही सुगन्धित ३४. चूर्ण है उन समान कपूरकीरज कहां और जिन की बाणी बीए के स्वरको जीते है उनके शरीरके रंग के आगे स्वर्ण कुंकुमादिक का रंग क्या चीज़ है, जिन के चरणारविन्द पर भ्रमर गुआर करे हैं, नाभि राजा सहित मरुदेवी राणी यश का वर्णन सैकड़ों ग्रन्थों में भी न होसकै तो थोड़े से श्लोकों में कैसे होय ॥
जब मरु देवी के गम में भगवान् के श्रागमन के छह महीना बाकीरहे तब इन्द्र की आज्ञा से छप्पन .. कुमारिका हर्ष की भरी माता की सेवा करती भई और १ श्री २ ही ३ धृति ४ कीर्ति ५ बुधि ६ लक्ष्मी । यह षट् (६) कुमारिका स्तुति करती भई हे मात ! तुम अानन्दरूप हो हम को आज्ञा करो तुमारी श्रायु दीर्घ होवे इस भान्ति मनोहर शब्द कहती भई और नाना प्रकार की सेवा करती भई, कई एक बीणबजाय महा सुन्दर गान कर माता को रिझावती भई और कई एक ग्रासन विद्यावती भई और कई एक कोमल हाथों से माता के पांव पलोटती भई कई एक देवी माता को तांबूल (पान) देती भई कै एक षड्ग हाथ में धारण कर माता की चौंकी देती भई कैएक बाहरले द्वार में कैएक भीतर के द्वार में सुवर्ण के से लिये खड़ी होती भई और कै एक चवर ढोरती भई कई एक आभूषण पहरावती भई कई एक सेज विद्यावती भई के एक स्नान करावती भई कई एक चांगन वहारती भई के एक फूलों के हार गथती भई कई एक गन्ध लगावती भई कई एक खाने पीने की विधि में सावधान होती भई कई एक जिस को बुलावे उस को बुलावत भई इस भान्ति सर्व कार्य्य देवी करतीं भई, माता को किसी प्रकार की भी चिन्ता न रही ॥
एक दिन माता कोमल सेज पर शयन करती थी, उसने रात्री के पिछले पहर अत्यन्त कल्याणकारी
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पद्म पुराण
॥३५॥
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सोलह स्वप्न देखे १ पहले स्वप्ने में ऐसा चन्द्र समानउज्ज्वल मद भरता गाजता हाथी देखा जिसपर भ्रमर गुंजारकरे हैं २ दूजे स्वप्ने में शरद के मेघसमान उज्ज्वल घवल दहाड़ ता हुआ बैल दखा जिसके बड़बड़े कन्धे हैं ३ तीसरे स्वप्ने में चन्द्रमा की किरण समान सुफेद केशों वाला विराजमान सिंह देखा ४ चौथे स्वप्ने में देखा कि लक्ष्मी को हाथी सुवर्ण के कलशों से स्नान करारहे हैं, वह लक्ष्मी प्रफुल्लित कमल पर निश्चल तिष्ठे है ५ पांच वे स्वप्ने में ऐसी दो पुष्पों की माला आकाश में लटकती हुई देखी जिनपर भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं ६ छठे स्वप्ने में उदयाचलपर्वत के शिखर पर तिमिर के हरण हारे मेघ पटल रहित सूर्य्य देखा ७ सांतवे स्वपने में कुमदनी को प्रफुल्लित करण होरा रात्री का आभूषण जिसने किरणों से दशदिशा उज्ज्वल करी हैं सा तारों का पति चन्द्रमा देखा = आठवें स्वप्ने में निर्मल जल में कलोल करते अत्यन्त प्रेम के भरे हुवे महा मनोहर मीन युगल (दो मछ) देखे ६ नवमें स्वप्ने में जिन के गले में मोतियों के हार और पुष्पों की माला शोभायमान हैं ऐसे पञ्च प्रकार के रत्नों कर पूर्ण स्वर्ण के कलश देखे और १० दशवें स्वप्ने में नाना प्रकार के पक्षियों से संयुक्त कमलों कर मण्डित सुन्दर सिवा (पौड़ी ) कर शोभित निर्मल जल कर भरा महा सरोवर देखा ११ ग्यारहवें स्वप्ने में आकाश के तुल्य निर्मल समुद्र देखा जिस में अनेक प्रकार के जलचर केलकरें हैं और उतंग लहरें उठें हैं १२ बारहवें स्वप्ने में अत्यन्त ऊंचा नाना प्रकार के रत्नों कर जड़ित स्वर्ण का सिंहासन देखा १३ तेरहब स्वप्ने में देवताओं के विमान आवते देखे जो सुमेरु के शिखर समान और रत्नों कर मण्डित चामरादिक से शोभित हैं १४ र चौधहवें स्वप्ने में घरणींद्र का भवन देखा जिस में अनेक खण ( मंजिल ) हैं
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पुराव ॥३६॥
और मोतियों की माला कर मण्डित रत्नों की ज्योति कर उद्योत मानो कल्प वृक्ष कर शोभित है. १५ पन्द्रहवें स्वप्ने में पञ्च वर्ण के महा रत्नों की राशि अत्यन्त ऊंची देखी जहां परस्पर रत्नों की किरणों के उद्योत से इन्द्रधनुष चढ़ रहा है १६ सोलहवें स्वप्ने में निर्धन अग्नि ज्वाला के समूह से प्रज्वलित देखी। ऐसे सोलह स्वप्ने देख कर मंगल शब्द के श्रवण से माता जागती भई ॥
सखी जन कहें हैं हे देवी तेरे मुखरूप चन्द्रमाकी कांतिसे लज्जावान् हुअा जो यह निशाकर (चंद्र मा) सो मानो कांतिकर रहित हुआ है और उदयाचल पर्वतके मस्तक पर सूर्य उदय होने को सन्मुख भया है मानो मंगलके अर्थ सिन्दूरसे लिप्त स्वर्गका कलश ही है और तुम्हारे मुखकी ज्योति । से और शरीरकी प्रभासे तिभिरका क्षय हुश्रा मानो इससे अपना उद्योत वृथा जान दीपक मंद ज्योति भये हैं और पक्षियोंके समूह मनोहर शब्द करेहैं मानो तिहारे अर्थ मंगल पढ़े हैं और जो यह मंदिर में बारा है तिनके वृक्षोंके पत्र प्रभात की शीतलमंद सुगन्ध पवन से हालें हैं और मन्दिरकी वापि । का में सूर्य के बिम्ब के विलोकन से चकवी हर्षित भई मिष्ट शब्द करती संती चकवे को बुलाये हैं। और यह हंस तेरी चाल देख कर अति अभिलाषा बान हरषित होय महा मनोहर शब्द करे हैं। और सारसोंके समूह का सुन्दर शब्द होय रहा है । इस लिये हे देवी अब रात्रि पूर्ण भई तुम निद्रा । को तजो । यह शब्द सुनकर माता सेजसे उठी जिस पर कल्प वृत्तके फूल और मोती बिखर रहेहैं मानो वह सेज क्या है तारोंसे संयुक्त आकाश ही है ।
मरुदेवी माता सुगंध महलसे बाहिर आई और सकल प्रभातकी क्रिया कर जैसे सूर्यकी प्रभा
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। मूर्यके समीप जाय तैसे नाभिराजाके समीप गई, राजा देखकर सिंहासनसे उठे राणी बरावर आय पुराण Man बैठी, हाथ जोड़कर स्वप्नोका समाचार कहा, तब गजाने सर्व स्वप्नो का फल भिन्न भिन्न कहते भए
कि हे कल्याण रूपिणी तेरे गृहमें त्रैलोक्यका नाथ श्री श्रादीश्वर स्वामी प्रगट होवेगा यह शब्द मुनकर वह कमल नयनी चन्द्रबदनी परम हर्षको प्राप्त भई और इन्द्रकी आज्ञासे कुवेरने पन्द्रह मही ना तक रत्नोंकी बरपा करी जिनके गर्भमें पाए छै मास पहले से ही रत्नो की वरषा भई इस लिये इन्द्रादिक देव इनका हिरण्यगर्भ जैसा नाम कहकर स्तुति करते भए और तीन ज्ञानकर संयुक्त भगवान माताके गर्भमे श्राय बिराजे, माताको किसी प्रकारकी भी पीड़ा न हुई।
जैसे निर्मल स्फटिकके महलसे बाहिर निकसिये तैसे नवमे महीने ऋषभदेव स्वामी गर्भसे बाहिर आए तब नाभिराजाने पुत्रके जन्मका महान उत्सव किया त्रैलोक्य के प्राणी अति हर्षित भए इन्द्र के आसन कम्पायमान भए और भवनवासी देवोंके बिना बजाए शंख बजे और व्यन्तरोंके स्वयमेव ही ढोल बजे और ज्योतिषी देवोंके अकस्मात सिंहनाद बाजे और कल्पवासियों के बिना बजाये घंटा बाजे, इस भांति शुभ चेष्टायों सहित तीर्थकर देवका जम्म जान इन्द्रादिक देवता नाभिराजा के घर
आये, वह इन्द्र श्रेरावत हाथी पर चढ़े हैं और नाना प्रकार के आभूषण पहरेहैं, अनेक प्रकार के देव नृत्य करते भये, देवोंके शब्दसे दशों दिशा गुंजार करती भई, अयोध्यापुरीकी तीन प्रदक्षिणा देय कर राजाके आंगनमें श्राए, वह अयोध्या धनपतिने रची है, पर्वत समान ऊंचे कोटसे मंडितहै जिस की गम्भीर खाई है और जहां नाना प्रकार के रत्नोंके उद्योत से घर ज्योति रूप होय रहे हैं। तक
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॥३८॥
इन्द्र ने इन्दाणी को भगवान के लावने के अर्थ माता के पास भेजी, इन्द्राणीने जाकर नमस्कारकर माया मई बालक माताके पास रखकर भगवान को लाकर इन्द्रके हाथमें दिया, भगवान का रूप त्रैलोक्यके रूपको जीतने वालाहै। इन्द्रने हजार नेत्रोंसे भगवान के रूपको देखा तो भी त्प्त नभयो ।
भगवान को सोधर्म इन्द्र गोद में लेकर हस्ती पर चढ़े, ईशानइन्द्र ने छत्र धरे, और सनत्कु मार महेंद्र चमर ढोरते भए, और सकल इन्द्र और देव जयजयकार शब्द उच्चारते भए फिर मेरुपर्वतके शिखरपर पांडुक शिलापर सिंहासन ऊपर पधारे अनेक बाजोंका शब्द होता भया जैसा समुद्र गरज.
और यक्ष किन्नर गन्धर्व तुंबरु नारद अपनी स्त्रियों सहित गान करते भए, वह गान मन और श्रोत्रण (कान) का हरण हाराहै, जहां बीन आदि अनेक वादित्र बाजते भए, अप्सरा अनेक हाव भाव कर नृत्य करती भई और इन्द्र स्नानके अर्थ क्षीर सागरके जलसे स्वर्णकलश भर अभिषेक करनेको उद्यमी भए, उन कलशोंका एक योजन का मुखहै और चार योजनका उदर है अाठ योजन ओंड [ डंघ | और कमल तथा पल्लवसे ढके हैं असे कलशों से इन्द्र ने अभिषेक कराया, विक्रिया ऋद्धि की सम । थता से इन्द्र ने अपने अनेक रूप किये और इन्द्रों के लोकपाल सोम वरुण यम कुवेर सर्वही अभिः । षेक करावते भए, इन्द्राणी आदि देवी अपने हाथो से भगवान के शरीर पर सुगन्ध का लेपन | करती भई, इन्द्राणियों के हाथ पल्लव (पत्र) समान हैं, महागिरि समान जो भगवान् तिनको मेघः | समान कलशसे अभिषेक कराय गहना पहरावने का उद्यम किया, चांद सूर्य समान दोय कुण्डल | कानों में पहराये, और पद्मराग माण के आभूषण मस्तक विषे पहराए जिनकी कांति दशों दिशा
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पद्म
॥३॥
विषे प्रगट होती भई और अर्धचन्द्राकार ललाट (माथा ) विषे चन्दनका तिलक किया और दोनों भुजों में रत्नों के बाजूबन्द पहराए और श्रीवत्सलक्षण कर युक्त जो हृदय उस पर नक्षत्र माला समान मोतियों का सत्ताईस लड़ीका हार पहराया और अनेक लक्षणके धारक भगवान को महा, मणि मई कड़े पहराये और रत्नमयी कटिसूत्रसे नितम्ब महा शोभायमान भया जैसा पहाड़का तर सांझ की बिजली कर शोभे और सर्व श्रांगूरियों में रत्न जड़ित मुद्रिका पहराई, इस भांति भक्तिकार देवीयों ने सर्व श्राभूषण पहराए और आभूषणों से आपके शरीर को कहां शोभा होय, त्रैलोक्य के आभूषण श्री भगवान के शरीर की ज्योति से प्राभूषण अत्यन्त ज्योति को घरते भए, और कल्प वृक्ष के फूलोंसे युक्त जो उत्तरासन सो भी दिया, जैसे तारों से आकाश शोभे है तैसे पुष्पन कर यह उत्तरासन शोभे है और पारिजात सन्तानकादिक जो कल्प वृक्ष उनके पुष्पों से सेहरा रचकर सिर पर पधराया जिसपर भूमर गुंजार करे हैं । इस भांति त्रैलोक्य भूषणको आभूषण पहराय इन्द्रादिक देव स्तुति करते भए, हे देव कालके प्रभावसे इस जगहमें धर्म नष्ट हो गया है और महा अज्ञान अन्ध कार फेल रहाहै इस जगतमें भूमण करते भव्य जीवों के मोह तिमिर के हरणेको तुम सूर्य उगे हो है। जिनचंद्र तुम्हारे बचन रूपकिरणों से भव्य जीव रूपी कुमुदनीकी पंक्ति प्रफुलित होवेगी, भव्योंको तत्वके दिखावनेके अर्थ इस जगत् रूप घरमें तुम केवल ज्ञानमयी दीपक प्रकट भये हो और पाप रूप शत्रुओं के नाशने के लिये मानो तुम तीक्ष्ण वाणही हो और तुम ध्यानाग्नि कर भव अटवी [जंगल] को भस्म करणे वाले हो और दुष्ट इन्द्रि रूप जो सर्प तिनक वशीकरण के अर्थ तुम गरुड़ रूपहीहो और संदेह
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10"
पद्म | रूप जे मेघ उनके उड़ावन को महा प्रबल पवन ही हो, हे नाथ भव्य जीव रूपी पपऐ ।
सिहारे घामृत रूप पचन के तिसाए तुमहीको महा मेघ जानकर सन्मुख भए देखे हैं तुम्हारी प्रात्यंत मिर्मल कीर्ति तीनलोक में गाई जाती है, तुम्हारे ताई नमस्कार हो तुम कल्प वृक्षहो गुणरूप पुष्पलों से मण्डित मन वांछित फल के देनवाले हो कर्मरूप काष्ठ के काटनेको तीक्षण धार के घारण हारे महा कुठार रूपहो मोहरूप पर्वत के भंजिवे को महा बज्रूप ही हो और दःख रूप अग्नि के बुझावनेको जल रूपहीहो बारम्बार तुमको नमस्कार करू हूँ । हे निर्मल स्वरूप ! तुम कर्मरूप रज के संग से रहित केवल आकाश स्वरूप ही हो इस भांतिइन्दादिक देव भगवान् की स्तुति कर बारम्बार नमस्कार कर ऐरावत गज पर चढ़ाय अयोध्या में लावनेको सनमुख भए अयोध्या श्राय इन्द्र ने माताकी गोद में भगवान्को स्था पन कर परम आनन्द हो तांडव नृत्य करतेभए इस भान्ति जन्मोत्सव कर देव अपने अपने स्थानक को गए माता पिता भगवान को देखकर बहुत हषित भये श्रीभगवान अद्भुत आभूषण से विभूषित हैं और परम सुगन्ध के लेप से चरचित हैं और सुन्दर चारित्र हैं जिनके शरीरकी कान्तिसे दशों दिशा प्रकाशित होरही हैं महा कोमल शरीर है मता भगवान्को देखकर महा हर्षको प्राप्त भई और कहने में न प्राबे सुख जिसका ऐसे परमानन्द सागर में मग्न भई वह माता भगवान् को गोद में लिये ऐसी शोभती भई जैरने उगते सूर्य से पूर्व दिशा शोभे बैलोक्य के ईश्वर को देख नाभिराजा आपको कृतार्थ मानते भए पुन के गात्रको स्पर्श कर नेल हपितभए मन आनन्दित भया समस्त जग विषे मुख्य ऐसा जे जिनराज उन का ऋषभ नाम पर माता पिता सेवा करते भए हाथ के अंगुष्ट में इन्द्रने अमृत रस मेला उसको पाना ।
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पद्म
पुराया
४१।।
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कर शरीर बृद्धिको प्राप्त भये प्रभुकी वय ( उमर ) प्रमाण इन्द्रने देवकुमार रक्खे उन सहित निःपाप क्रीड़ा (खेल) करतेभ ये वह क्रीड़ा माता पिता को अति सुखकी देनहारी है ॥
अथानन्तर के भगवान् के आसन शयन सवारी बस्त्र आभूषण अशन पान सुगन्धादि विलेपनन गात नृत्य वादिनाकि सर्वं सामग्री देवोपनीत होती भई थोडेही काल में अनेक गुणोंकी वृद्धि होती भई रूप उनका अत्यन्त सुन्दर जो वर्णन में न यावे मेरुकी भीति समान महा उन्नत महा दृढ़ वक्षस्थल शोभ ता भया और दिग्गज के थम्भ समान बाहु होती सई वह बाहु जगत् के अर्थ पूर्ण करने को कल्पवृ ही हैं और दोऊ जंघा त्रैलोक्यरूप घरके थांभवेको थम्भही हैं और मुख महासुन्दर मनोहर जिसने अपनी कांति से चन्द्रमाको जीता है और दीप्ति से जीता है सूर्य्य जिसने और दोऊ हाथ कोपल से भी अति को मल और लाल हथेली और केश महासुन्दर सघन दीर्घ बक्र पतले चीकने श्याम हैं मानों सुमेरु शिखर पर नीलाचलही विराजे है और रूप महा अद्भुत अनुपन सर्व लोक के लोचनको प्रिय जिसपर अनेक कामदेव वारे जा सर्व उपमाको उलंघें सर्वका मन और नेत्र हरें इसभांति भगवान् कुमार - स्था में भी जगत् को सुखदायक होते भये उस समय कल्पवृक्ष सर्वथा नष्टभए और विना वाहे धान अपने यापही उगे उनसे पृथिवी शोभती भई और लोक निपट भोले षट कर्मसे अनजान उन्हों ने प्रथम ई रसका आहार किया वह थाहार क्रांति वीर्यादिक के करनेको समर्त है के एक दिन पीछे लोगों को क्षुधा वघी जो ईतुरस से तृप्ति न भई तब लोक नाभिराजा के निकट आए और नमस्कारकर विनती करते भए कि हे नाथ कल्प वृक्ष समस्त क्षय हो गये और हम क्षुधा तृषा कर पीड़ित हैं तुमारे शरण आये
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पक्ष
४२
पुराण हैं तुम रक्षा करो, यह कितनेक फल युक्त वृक्ष पृथ्वी पर प्रगट भए हैं इनकी विधि हम जानते नहीं हैं, इनमें कौन भक्ष्य है कौन अभक्ष्य है, और गाय भैंसके थनोंसे कुछ झिरे है पर वह क्या है और यह व्याघ्रसिंहादिक पहले सरलथे अब वक्रता रूप दीखे हैं. और यह महा मनोहर स्थल पर और में पुष्प दीखे हैं सो क्या हैं, हे प्रभु तुमारे प्रसाद कर आजिविका का उपाय जानें तो हम सुख स जीवें । यह बचन प्रजा के सुनकर नाभिराजाको दया उपजी, नाभिराजा महावीर तिन सो कहते भये कि इस संसार में ऋषभदेव समान और कोई भी नहीं जिनकी उत्पत्तिमें रत्नोंकी कृष्टि भई और इन्द्रादिक देवका आगमन भया, लोकों को हर्ष उपजा, वह भगवान महा अतिशय संयुक्त हैं तिनके निकट जाकर हम तुम आजीवका का उपाय पूछें भगवान का ज्ञान मोह तिमिर से त तिष्ठा है प्रजा सहित नाभिराजा भगवानके समीप गये और समस्त प्रजा नमस्कार कर भगवानकी स्तुति करती भई, हे देव तुम्हारा शरीर सर्वलोक को उलंघकर तेजोमय भासे है सर्व लक्षण संपूर्ण महा शोभायमान हैं और तुम्हारे अत्यन्त निर्मल गुण सर्व जगत्में व्याप रहे हैं वह गुण चन्द्रमा की किरण समान उज्ज्वल महा आनन्द के करण हारे हैं । हे प्रभु हम कार्य के अर्थ तुम्हारे पिता के पास आये थे सो यह तुम्हारे निकट लाये हैं तुम महा पुरुष महा बुद्धिमान् महा अतिशय कर मंडित हो जो से बड़े पुरुष भी तुमको सेवें हैं इस लिये तुम दयालु हो हमारी रक्षा करो क्षुधा, तृषा हरनेका उपाय कहो और जिससे सिंहादिक क्रूर जीवोंका भी भय मिटे सो उपाय बताओ तब भगवान कृपानिधि कोमल है हृदय जिनका इन्द्रको कर्म भूमिकी रीति प्रकट करने की आज्ञा करते |
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पद्म
॥४३४
| भये प्रथमहै नगर ग्राम गृहादिककी रचना भई और जे मनुष्य शूरवीर जानें तिनको क्षत्री वर्ण ठह
राये और उनको यह अाज्ञा भई कि तुम दीन अनाथोंकी रक्षा करो कैएकनको वाणिज्यादिक कर्म बताकर वैश्य ठहराए और जो सेवादिक अनेक कर्मके करने वाले उनको शुद्र ठहराए, इस भांति भगवानने किया जो यह कर्म भूमि रूप युग उसको प्रजा कृतयुग [सत्ययुग] कहते भए और परम हर्षको प्राप्त भए श्री ऋषभदेव के सुनंदा और नंदा यह दो राणी भई, बड़ी गणी के भरतादिक सौ पुत्र और एक ब्राह्मी पुत्री भई और दूसरी राणीके बाहुबल एक पुत्र और सुंदरी एक पुत्री भह इस प्रकार भगवान ने त्रेसठ लाख पूर्व काल राज किया और पहले बीस लाख पूर्व कुमार रहे. इस भांति तिरासी लाख पूर्व गृह में रहे। ____एक दिन नीलांजना अपसरा नृत्य करती करती विलाय [मर ] गई उसको देखकर भगवान की बुद्धि वैराग्य में तत्पर भई वह बिचारने लगे कि यह संसारके प्राणी वृथाही इन्द्रियों को रिझा कर उन्मत्त चरित्रोंकी विडंबना करे है, अपने शरीरको खेद का कारण जो जगत की चेष्टा उस से जगत जीव सुख माने है इस जगतमें कई एक तो पराधीन चाकर हो रहे हैं कई एक अापको स्वामी मान तिनपर आज्ञा करे हैं जिनके बचन गर्व से भरे है धिकार है इस संसार को जिस । जीव | दुःख ही भोगे हैं और दुःखही को सुख मान रहे हैं इस लिये मैं जगतके विष सुखोंको तजवर तप
संयमादि शुभ चेष्टा कर मोक्ष सुखकी प्राप्तिके अर्थ यत्न करूं यह विषय मुख क्षणभंगुर हैं और कर्म || के उदय से उपजे हैं इस लिये कृत्रिम [ बनावटी ] है इस भांति श्री ऋषभदेवके मन वैराग्य चिन्त
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पप
वनमें प्रवरता तबही लोकांतिक देव आय स्तुति करते भए कि हे नाथ तुमने भली बिचारी त्रैलो क्यमें कल्याणका कारण यहही है, भरत क्षेत्रमें मोक्ष का मार्ग विछद्र भया था सो आपके प्रसादसे प्रवरतेगा, यह जीव तुम्हारे दिखाए मार्गसे लोक शिखर अर्थात् निर्वाणको प्राप्त होंगे, इ. भांति लोकांतिक देव स्तुति कर अपने घाम गए और इन्द्रादिक देव आयकर तप कल्याणका सम् यसाधते भये रत्न जड़ित सुदरशन नामा पालिकी में भगवानको चढ़ाया वह पालकी कल्प वृक्षके फूलों की मालासे महा सुगंधित है, और मोतीनके हारोंसे शोभायमान है, भगवान उसपर चढ़कर घर सेवनको चले, नाना प्रकारके वादित्रोंके शब्द और देवों के नृत्यसे दशों दिशा शब्द रूप भई इस प्रकार महा विभूति संयुक्त तिलकनामा उद्यानमें गए माता पितादिक सर्व कुटंबसे क्षमा भावकराकर और सिद्धों को नमस्कार कर मुनि पद अंगीकार किया, समस्त बस्त्र आभूषण तजे और केशोंका लौकिया वह केश इन्द्रने रत्नों के पिटारे में रखकर क्षीरसागर में डारे भगवान जब मुनिराज भए तब चौदह हजार राजा मुनिपद को न जानते हुवे केवल स्वामी की भक्तिके कारण नग्न रूप भए भगवान ने छः महीने पर्यंत निश्चल कायोत्सर्ग धरा अर्थात् सुमेरु पर्वत समान निश्चल होय तिष्ठे और मन और इन्द्रियों का निरोध किया कच्छ महा कच्छादिक राजा जो नग्न रूप धार दीक्षित भये थे वह सर्व ही क्षुधा तृषादि परीषह सहनेको समर्थ चलायमान भए, कैएक तो परीषह रूप पवनके मारे भूमि पर गिर पड़े कई एक जो महा बलवान थे वे भूमि पर तो न पड़े परन्तु बैठ गये, कैएक कार्यात्सर्ग को तज चूधा तृषा से पीड़ित फलादिक के आहार को गये, और कैएक गरमीसे तपतायमानाहाकर ।
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पुराख ॥४५॥
शीतल जलमें प्रवेश करते भये, उनकी यह चेष्टा देखकर आकाशमें देवबाणी भई कि मुनि रूपधार कर तुम ऐसा काम मत करो, यहरूप धार तुमको ऐसा कार्य करना नरकादिक दुखको कारण है, तब वे नग्न मुद्रा तजकर बक्कल धारते भयेकैएक चरमादि धारते (पहनते) भये, कैएक दर्भ (कुशा दिक) धारते भये और फलादि से सुधा को शीतल जलसे तृषा को निवारते भये, इस प्रकार यह लोग चारित्र भ्रष्ट होकर और स्वेच्छाचारी बनकर भगवान के मत से पराङ्मुख होय शरीरका पोषण करते भये किसी ने पूछा कि तुम यह कार्य भगवान की प्राज्ञा से करो हो वा मन हीसे करो हो, तब उन्हों ने कहा कि भगवान तो मौन रूप हैं कुछ कहते नहीं हम सुघा तृषा शीत उष्ण से पीडित होकर यह कार्य करे हैं, और केएक परस्पर ( आपस में ) कहते भए कि आओ गृह में जाय कर पुत्र दारादिक का अवलोकन करें तब उनमें से किसी ने कहा जो हम घर में जावेंगे तो भरत घर में से निकाल देंगे और तीव्र दण्ड देंगे इस लिये घर नहीं जायें, तब बनही में रहें,इन सब में महा मानी मारीच भरतका पुत्र भगवानका पोता भगवे बस्त्र पहरकर परिव्राजक (संयासी) मार्ग प्रकट करत भया।
अथानंतर कच्छ महाकच्छके पुत्र नमिबिनमि आयकर भगवान के चरणोंमें पड़े और कहने लगे कि हे प्रभु तुमने सबको रान दिया हमको भी दीजे इस भांति याचना करते भए तबधरणीन्द्रका श्रासन | कंपायमान भया धरणीन्द्रने आयकर इनको विजियाका राज दिया वह विजिया पर्वत भोगभूमि के समान है, पृथिवी तलसे पच्चीस योजन ऊंचा है और सवाछै योजन का केन्द्र है और भमि पर | पचास योजनचौड़ा है और दशदश योजन ऊपर दशदशयोजनकी चौड़ीदोयश्रेणी में एक दग्विणश्रेणी
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परपणा
एक उत्तरश्रेणी इन दोनों श्रेणियों में विद्याधर बसे हैं दक्षिणश्रेणी की नगरी पचास उत्तर श्रेणी की साठ एक एक नगरी को कोटि कोटि ग्राम लगे हैं और दस योजन से ऊपर दस योजन जाइये तहां गंध किन्नर । देवों के निवास हैं और पांच योजन ऊपर जाइये तहां नव शिखर हैं उन में प्रथम सिद्धकूट उस में भगवान् । के अकृत्रिम चैत्यालय हैं और देवों के स्थान हैं, सिद्धकूट पर चारण मुनि आयकर ध्यान घरे हैं विद्याधरों। की दक्षिणश्रेणी की जो पचास नगरी हैं उन में रत्नपुर मुख्य है और उत्तरश्रेणी की जो साठ नगरी हैं । उन में अलकावती नगरी मुख्य है इस विद्याधरों के लोक में स्वर्ग लोक समान सुख है सदाउत्साह ही प्रवृते है, नगरों के बड़े बड़े दरवाजे, और कपाट युगल, और सुवर्ण के कोट, गंभीर खाई,और बन उपबन । वापी कूप सरोवरादि से महा शोभायमान हैं। जहां सर्व ऋतु के धान और सर्व ऋतु के फल फल सदा। पाइये हैं जहां सर्व औषधि सदा पाइये हैं जहां सर्व काम का साधन है, सरोवर कमलों से भरे जिन में हंस क्रीडा करे हैं, और जहां दधि दुग्ध घृत मिष्टान्नों के झरने वहै हैं, वापी काओं के मणि सुवर्ण के सिवान (पौड़ी) हैं और कमल के मकरन्दों से शोभायमान हैं, जहां कामधेनु समान गायहैं और पर्वत समान अनाज के ढेर हैं और मार्ग धूल कंटकादि रहित हैं, मोटे वृक्षों की छाया है महा मनोहर जल के लिवाण हैं। चौमासे में मेघ मनवांछित बरसे हैं और मेघों की श्रानन्दकारी ध्वनि होय है, शीत काल में शीत की विशेष बाधा नहीं और ग्रीष्म ऋतु में विशेष प्राताप नहीं, जहां छै ऋतु के विलास हैं, जहां स्त्री
श्राभूषण मंडित कोमल अंगवाली हैं और सर्व कला में प्रवीण पट् कुमारीका समान प्रभावाली हैं कईएक || तो कमल के गर्भ समान प्रभा को धरे हैं, कईएक श्यामसुन्दर नील कमल की प्रभा को धरे हैं, कईएक
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पद्म
पुराण
॥४
॥
सिझना के फूल समान रंग को घरे हैं, कईएक विद्युत समान ज्योति को घरे हैं, यह विद्या धरी महा। सुगंधित शरीवाली हैं मानों नन्दन बन की पवन ही से बनाई हैं, सुन्दर फूलों के गहने पहने हैं मानों बसंत की पुत्री ही हैं, चन्द्रमा समान कांति है मानो अपनी ज्योति रूप सरोवर में तिरेही हैं, और श्याम श्वेत सुरंग तीन वर्ण के नेत्र की शोभाको धरणहारी, मृग समान है नेत्र जिनके, हंसनी समान है चाल जिनकी, वे विद्याधरी देवांगना समान शोभे हैं, और पुरुष विद्याधर महा सुन्दर शूरवीर संह समान पराक्रमी हैं महा बाहु महा पराक्रमी आकाश गमन में समर्थ भले लक्षण भली क्रिया के धरणहारे न्यायमार्गी, देवों के समान हैं प्रभा जिनकी अपनी स्त्रियों सहित विमान में बैठे अढ़ाई ईप में जहां इच्छा होय तहां ही गमन करे हैं,इस भांति दोनों श्रोणियों में वे विद्याधरदेव तुल्य इष्ट मोग भोगते महा विद्याओंको धरे हैं, कामदेव समान है रूप जिनका और चन्द्रमा समानहै बदन जिनका। धर्म के प्रसाद से प्राणी सुख संपत्ति पावें हैं इस लिये एक धर्म ही में यत्नकरो और ज्ञानरूप सूर्य से अज्ञानरूपति मर को हरो।
वे भगवान् ऋषदेव वहाध्यानी सुवर्ण समान प्रभा के धारण हारे प्रभु जगत् के हित करने निमित्त छै मास पीछे आहार लेने को चले लोक मुनिके श्राहारकी विधि जाने नहीं अनेक नगर ग्राम विषे विहार किया मानो अद्भुप्त सूर्यही विहार करे है जिन्होंने अपने देहकी कांतिसे पृथ्वी मण्डर पर प्रकाश करदिया है जिनके कांधे सुमेरु के खिर समान दैदीप्यमान हैं और परम समाधानरूप अघोष्टि देखते जीव दया पालते विहार करे हैं पुर प्रामादि में लोक अज्ञानी नाना प्रकारके वस्त्र रत्न हा थी घोडे स्थ कन्यादिक भेठ करें सो प्रभुके कुछभी प्रयोजनकी नहीं इस कारण प्रभु फिर बनको चले जावें इस भांति
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पद्म पुराण
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महीने तक विधिपूर्वक आहारकी प्राप्ति न भई अर्थात् दीक्षा समय से एक वर्ष बिना आहार बीता, पीछे विहार करते हुये हस्तिनापुर आऐ सर्वही लोक पुरुषोत्तम भगवान् को देख कर याश्चर्यको प्राप्त भए, राजा सोमप्रभ और तिनके लघु भ्राता श्रेयांस दोनोंही भाई उठकर सन्मुख चले, श्रेयांस को भगवान् के देखने से पूर्वभवका स्मरण भया और मुनि के आहार की विधि जानी वह नृप भगवान की प्रदक्षिणा देते ऐसे शोभे हैं मानो सुमेरुकी प्रदक्षिणा सूर्यही देरहा है, और बारम्बार नमस्कारक र रत्न पात्र से अर्घ देय चरणारविन्द घोए और अपने सिर के केशसे पोंछे श्रानन्दके अश्रुपात आए चौर गद गद aria भई श्रेयांस ने जिसका चित्त भगवान् के गुणों में अनुरागी भया है महा पवित्र रत्नन के कलशों में रखकर महा शीतल मिष्टइतरस आहार दिया परम श्रद्धा और नवधा भक्ति से दान दियाा वर्षोंपवा रणा भया उसके व्यतिशय से देव हर्षित होय पांच आश्चर्य करते भए ( १ ) रत्ननकी वर्षा भई ( २ ) कल्पवृक्षों के पंच प्रकारके पुष्प बरसे (३) शीतल मन्द सुगन्ध पवन चली (४) अनेक प्रकार दुन्दभी बाजे बाजे (५) यह देववाणी भई कि धन्य यह पात्र और धन्य यह दान और धन्य दानका देनहारा श्रेयांस, ऐसे शब्द देवताओंके आकाश मैं भए, श्रेयांश की कीर्ति देखकर दानकी रीति प्रगटभ ई, देवतों कर श्रेयांस प्रशंसा योग्य भए और भरत ने अयोध्यासे प्रायकर बहुत प्रस्तुति करी ऋति प्रीति जनाई भगवान् आहार लेकर वन में गये ।
श्रथानंतर भगवान्ने एक हजार वर्षपर्यंत महातप किया और शुक्ल ध्यानसे मोहका नाशक र केवल ज्ञान उपजाया केवल ज्ञान में लोकालोक का अवलोकन होता है जब भगवान् केवल ज्ञानको प्राप्त भए
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पुरावा
ma
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तच अष्ट प्रातिहार्य प्रगटे प्रथमतो थाप के शरीकी कांतिका ऐसा मण्डल हुआ जिससे चन्द्र सूर्यादिक का प्रकाश मन्द नजर आवे रात्रि दिवसका भेद नजर न आवे और अशोक वृक्ष रत्नमई पुष्पोंसे शोभित रक्त हैं पल्लव जिनके और आकाश से देवों ने फूलोंकी वर्षा करी जिनकी सुगन्धसे भ्रमर गुंजार करें महा दुन्दुभी बाकी ध्वनि होती भई जो समुद्र के शब्द से भी अधिक थी देवोंने बाजे बजाए उनका शरीर मायामई नहीं दीखता है जैसा शरीर देवों का है तैसाही दीखे है, ओर चन्द्रमाकी किरण से भी अधिक उज्ज्वल चमर इन्द्रादिक ढोरते भए और सुमेरु के शिखर तुल्य पृथिवीका मुकट सिंहासन आपके विरा जने को प्रकट भया, कैसा है सिंहासन अपनी ज्योति कर जीती है सूर्यादिक की ज्योति जिसने और तीन लोक की प्रभुता के चिन्ह मोतियों की झालर से शोभायमान तीन छत्र अति शोभे हैं मानी भग बानू के निर्मल यशही हैं और समोशरणमें भगवान सिंहासनपर विराजे सो समीशरणकी शोभा कहने को केवली ही समर्थ हैं और नहीं । चतुरनिकाय के देव सर्वही बन्दना करनेको आए, भगवान के मुख्य गणधर बृषभसेन भये आपके द्वितीय पुत्र और भी बहुत जे मुनि भएथे वह महा बैराग्य के धारण हारे. मुनि आदि बारह सभा के प्राणी अपने अपने स्थानक में बैठे ।
अथानन्तर भगवानकी दिव्य ध्वनि होती भई जो अपने नादकर दुन्दुभी बाजोंकी ध्वनिको जीते है, भगवान जीवों के कल्याण निमित्त तत्त्वार्थ का कथन करते भये कि तीन लोकमें जीवोंको धर्मही परम शरण है इसही से परम सुख होय है, सुखके अर्थ सभी चेष्टा करे हैं और सुख धर्म के निमित्त से aat है ऐसा कर धर्म का यत्न करो। जैसे मेघ बिना वर्षा नहीं बीज बिना धान्य नहीं तैसे
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जीवोंको धर्म विना सुख नहां, जसे कोई उपंग (लंगड़ा) परुष चलनेकी इच्छा करे और गंगा बोलने पुरास
की इच्छा करे औरअंधा देखने की इच्छा करे तैसे मूढ प्राणी धम विना सुखकी इच्छा करे हैं, जैसे पर माण से और कोइ अल्प ( सूक्ष्म) नहीं और आकाश से कोई महान् [ बड़ा ] नहीं तैसे धर्म समान जावों का और कोई मित्र नहीं और दया समान कोई धर्म नहीं मनुष्य के भोग और स्वर्ग के भोग सब परमसुख धर्मही से होय हैं इसलिये धर्म बिना और उद्यमकर क्याहै, जो पण्डित जीव दयाकर निर्मल धर्मको सेवे हैं उनही का ऊर्ध (ऊपर) गमनहै दूसरे अघो [ नीचे ] गति जायहें, यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि तपकी शक्ति से स्वर्गलोक में जाय, तथापि बडे देवोंके किंकर होकर उनकी सेवा करे हे देवलोक में नीच देव होना देव दुर्गति है सो देव दुर्गतिके दुःखको भोगकर तिर्यंच गतिके दुख को भोगे हैं, और जो सम्यग्दृष्टि जिन शासन के अभ्यासी तप संयमके धारण हारे देवलोक में जाय हैं ते इन्द्रादिक बडे देव होयकर बहुत काल सुख भोग देव लोक से चय मनुष्य होय मोक्ष पावै हे, धर्म दो प्रकार का है एक यतीधर्म दूसरा श्राक्कधर्म, तीजा धर्म जो माने हैं वे मोह अग्नि से दग्ध हें, पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाबत यह श्रावक का धर्म है, श्रावक मरण समय सर्व श्रारम्भ तज शरीर से भी निर्ममत्व होकर समाधि मरणकर उत्तमगति को जावे है, और यती का धर्म पंच महाव्रत पंच सुमति तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार का चारित्र हैं। दशों दिशा ही यतिके वस्त्र हैं, जो परुष यति का धर्म धारे हैं वे शुद्धोपयोग के प्रसाद से निर्वाण पावे हैं, और जिन के शभोपयोग की एख्यता है वे स्वर्ग पावे हैं परम्पराय मोक्ष जाय हैं। और | जो भावों से मुनियों की स्तुति करे हैं वेभी धर्म को प्राप्त होय हैं, मुनि परम ब्रह्मचर्य के धारण हारे हैं
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पुराण
पा यह प्राणी धर्म के प्रभाव से सर्व पाप से छूटे हैं और ज्ञान का पावे हें , इत्यादिक धर्म का कथन देवाधि
देवने किया सो सुन कर देव मनुष्य सर्व ही परम हर्ष को प्राप्त भए कैएक तो सम्यक्त को धारण करतेभए, कैएक सम्यक्त सहित श्रावक के व्रतको धारते भए, कैएक मुनिव्रत धारते भए, सुर असुर मनुष्य धर्म श्रवण कर अपने अपने धामगए, बगवान् नै जिन जिन देशों में गमन किया उन उन देशों में धर्म का उद्योत भया । आप जहां जहां विराजे तहां तहां सौ सौ योजन तक दुर्भिक्षादिक सर्व वाधा मिटी, प्रभु के चौरासी गणघर भए और चौरासी हज़ार साधुभए इनसे मण्डित सर्व उत्तम देशों में विहार किया ॥ ____अथानन्तर भरत चक्रवर्ती पद को प्राप्त भए और भरत के भाई सब ही मुनिव्रत धार परमपद को प्राप्त भए, भरतने कुछ काल छ पण्ड का राज किया, अयोध्या राजधानी, नवनिधि चौदह रत्न प्रत्येक की हज़ार हजार देव सेवा करें, तीन कोटि गाय एक कोटि हल चौरासी लाख हाथी इतने ही रथ अठारा कोटी घोडे और बत्तीस हज़ार मुकट बन्ध राजा और इतने ही देश महासम्पदाके भरे, छियानवे हज़ार रामी देवांगना समान, इत्यादिक चक्रवर्ति के विभवका कहां तक वरणन करिए । पोदनापुर में दूसरी माता का पुत्र बाहुवली था वह भरत कीअाज्ञा न मानतेभए, कहतेभए कि हम भी ऋषभदेवके पुत्र हैं किस की आज्ञा मानें, तवभरत वाहुबलि पर चढे, सेनायुद्ध न ठहरा, दोऊ भाई परस्पर युद्ध करें यह ठहरा, तब तीन युद्ध थापे ॥१॥ दृष्टियुद्ध ॥ २॥ जलयुद्ध ॥ ३॥ और मल्लयुद्ध, तीनों ही युद्धों में वाहुबली
जीते और भरत हारे, तब भरत ने वाहुबली पर चक्र चलाया, वह उनके चरम शरीरपर घात नकर सका, || लौटकर भरत के होथ पर आया भरत लज्जितभए, वाहुबली सर्व भोग त्यागकर बैरागीभए, एक वर्ष पर्यंत ।
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२
कायोत्सग घर निश्चलतिष्ठे शरीर वेलों से वेष्टित भया, सांपों ने बिलकिए, एक वर्षपीछे केवल ज्ञान उपजा, भरत चक्रवर्ति ने प्राय कर केवली की पूजा करी, बाहुबली केवली कुछ काल में निर्वाण को प्राप्त भए अवसर्पणी काल में प्रथम मोक्ष को गमन किया, भरत चक्रवर्ति ने निष्कंटक छै खंड का राज किया जिसके राज्य में विद्याघरों के समान सर्वसम्पदा के भरे और देव लोक समान नगर महा विभूति कर मंडित हैं जिनमेंदेवों समान मनुष्य नाना प्रकार के वस्त्राभरण से शोभायमान अनेक प्रकार की शभ चेष्टा कर रमते हैं, लोक भोगभूमि समान सुखी और लोकपोल समान राजा और मदन के निवास की भूमि अप्सरा समान नारियां जैसे स्वर्ग विषे इन्द्र राज करे तैसे भरत ने एक छत्र पृथिवी विषे राजकिया, भरत के सुभद्रा राणी इन्द्राणी समान भई जिस की हजार देव सेवा करे चक्री के अनेक पुत्र भए उनको पृथिवी का राज दिया इसप्रकार गौतम स्वामी ने भरत का चरित्र श्रेणिक राजा से कहा ॥
अथानन्तर श्रेणिक ने पूछा हे प्रभो तीन वर्णकी उत्पत्ति तुमने कही सो मैंने सुनी अब विनों की उत्पति सुना चाहताहूं सो कृपाकर कहो गणधर देव जिन का हृदय जीव दयाकर कोमलहै और मद मत्सर कर रहित हैं वे कहते भए कि एक दिन भरतने अयोध्या के समीप भगवान्का श्रागमन जान समोशरणमें जाय बन्दना कर मुनिके आहार की विधि पूछी तब भगवान की आज्ञा भई कि मुनि तृष्णाकर रहित जितेन्दी अनेक मासोपवास करें तो पराए घर निर्दोष माहार ले अन्तराय पड़े
तो भोजन न करें, प्राण रक्षा निमित्त निर्दोष आहार करें, और धर्मके हेतु प्राण को राखें, और || मोचके हेतु उस धर्म को आचरें जिसमें किसी भी प्राणीको बाधा नहीं यह मुनिका धर्म मुन कर ||
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पा
बुराव
५३॥
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चक्रवर्ती विचारे हैं हो यह जैनका व्रत महा दुर्धर है मुनि शरीर से भी निःस्पृह (निर्ममत्व ) तिष्ठे हैं तो और बस्तु में तो उनकी बांधा कैसे होय मुनि महा निग्रन्थ निलोंभी सर्व जीवों की दया विषे तत्पर हैं, मेरे विभूति बहुत हैं में गुबती श्रावक को भक्ति करदूं और दीन लोकों को दया कर यह श्रावक भी मुनि के लघु भ्राता हैं ऐसा विचार कर लोकों को भोजन को बुलाए और बृतियों की परीक्षा निमित्त प्रांगण में जो धान उर्दू मूंगादि बोए तिनके अंकुर उगे सो अविवेकी लोक तो हरातिकाय को खूंदते आए और जो विवेकी थे वे अंकुर जान खड़े होय रहे तिनको भरतने अंकुर रहित जो मार्ग उसपर बुलाया और बतीजान बहुत आदर किया और यज्ञोपवीत (जनेऊ) कंठमें डाला आदरसे भोजन कराया वस्त्राभ दिये और मन बांछित दान दिये और जो अंकुरको दल मलते आए थे तिनको बती जान उनका आदर न किया और व्रतियों को ब्राह्मण ठहराए चक्रवती के मानने से कै एक तो गर्व को प्राप्त भये और कैएक लोभ की अधिकता से धनवान लोकों को देख कर याचना को प्रवृते तब मतिसमुद्र मंत्री ने भरत से कहा कि समोशरण में मैंने भगवान के मुख से ऐसा सुना है कि जो तुमने विप्र धर्माधिकारी जान कर माने हैं वे पंचम कालमें महा मदोन मत्त होवेंगे और हिंसा में धर्म जान कर जीवों को हनेंगे और महा कषाय संयुक्त सदा पाप क्रिया में
गे और हिंसा के प्ररूपक ग्रन्थों को कृत्रिम मान कर समस्त प्रजा को लोभ उपजावेंगे महा आरम्भ विषे यस परिग्रह में तत्पर जिन भाषित जो मार्ग उस की सदा निन्दा करेंगे निमन्थ मुनि को देख महा क्रोध करेंगे, यह बचन सुन भरत इन पर क्रोधायमान भए, तब यह भगवान्
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पुरास
के शरण गए भगवान ने भरत को कहा हे भरत कलिकाल विषे ऐसा ही होना है तुम कषाय मत करो इस भांति विनों की प्रवृती भई और जो भगवान के साथ वारग्य को निकलेथे तजो चारित्र भूष्ट भए तिनमें कछादिक तो कैएक सुलटे और मारीचादिक नहीं सुलटे तिनके शिष्य प्रति शिष्या दिक सांख्य योगमें प्रवृते कोपीन (लंगोटी) पहरी बकलादि धारे।
अथानंतर अनेक जीवन को भवसागर से तार कर भगवान ऋभष कैलाश के शिखर से लोक शिखर जो निर्वाण उस को प्राप्त भए और भरत भी कुछ काल राज्य कर जीर्म तृणवत् गज्य को छोड़ कर वैराग्यको प्राप्त भये अंतर्मुहूर्त में केवल उपजा पीछे श्रायु पूर्णकर निर्वाण को प्राप्त भये ।।
अथ वंशात्पत्ति नामा महा अधिकार ॥२॥ अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से बंशों की उत्पत्ति कहते भए कि हे श्रेणिक इस जगत विषे महावंश जो चार तिनके अनेक भेद हैं। ___ १ प्रथम इक्ष्वाकु वंश यह लोक का श्राभूषण है इस में से सूर्य बंश प्रवर्ता है । २ दूसरा सोम (चन्द्र ) बंश चन्द्रमा की किरण समान निर्मल है । ३ तीसरा विद्याधरों का बंश अत्यन्त मनोहर है। ४ चौथा हरिबंश जगत् विषे प्रसिद्ध है। अब इनका भिन्न २ बिस्तार कहें हैं ॥
__ इक्ष्वाकु वंश में भगवान ऋषभदेव उपजे तिनके पुत्र भरत भए भरत के पुत्र अर्क कीर्ति भये | राजा अर्ककीर्ति महा तेजस्वी राजा हुए हैं इनके नाम से सूर्य बंश प्रवृता है अर्क नाम मूर्य का
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पद्म
पुराण ५५३
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है इसलिये कीर्ति का बंश सूर्यवंश कहलाता है इस सूर्यवंश में राजा कीर्ति के सतयश नामा पुत्र भये इन के बलांक तिनके सुबल तिनके महाबल महा बलके अति बल तिनके अमृत अमृत सुभद्र तिनके सगर तिनके भद्र तिनके रवितेज तिनके शशी तिनके प्रभुततेज तिनके तेजस्वी . तिनके तपबल महा प्रतापी तिनके अति वीर्य तिन के सुवीर्य तिन के उदित पराक्रम तिन के सूर्य तिनके इन्द्रद्युमा तिनके महेन्द्रजित तिनके प्रभु तिनके विभु तिनके अविध्वंस तिनके वीतभीतिन
बृषभध्वज तिनके गरुड़ांक तिनके मृगांक, इस भांति सूर्य वंश विषे अनेक राजा भए ते संसार के भ्रमण ते भयभीत पुत्रों को राज देय मुनित्रत के धारक भए महा निग्रन्थ शरीर से भी निस्पृही यह सूर्यवंशकी उत्पत्ति तुझे कही अब सोमवंशकी उत्पत्ति तुझे कहिये है सो सुन ।
ऋषभदेवकी दूसरी राणी के पुत्र बाहुबली तिनके सोमयश तिनके सौम्य तिनके महाबल तिनके सुबल तिनके भुजबली इत्यादि अनेक राजा भए निर्मल है चेष्टा जिनकी मुनित्रत धार परम धाम को प्राप्त भए, एक देव होय मनुष्य जन्म लेकर सिद्ध भए यह सोमवंश की उत्पति कही |
अब विद्याधरन के बंश की उत्पत्ति सुन ।
नमि रत्नमाली तिनके रत्न बज्र तिनके रत्न रथ तिन के रत्नचित्र तिनके चन्द्ररथ तिनके बज् जंघ तिनके वज्रसेन तिनके वज्रदंष्ट तिनके वज्रधुज तिनके बज्रध्वध तिनके बजू तिनके मुवज्र तिन के बज्रभृत् तिनके बचभ तिनके बज्रबाहु तिनके बच्चांक तिनके वज्र सुन्दर तिनके बज्रास्य तिनके बज्रपाणि तिनके बज्रभानु तिनके बज्रवान तिनके विद्युन्मुख तिनके सुवक्र तिनके विद्युदंष्ट्र और
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पु
बन्न || उसके पुत्र विबुख और वियुदाभ और विद्युद्वेग और विधुत्व इत्यादि विद्या धरों के वंश में भनक
राजा भए अपने पुत्रको राज देय जिन दीचा पर राग द्वेषका नाश कर सिद्ध पदको प्राप्त भए केएक देवलोक मोह पाशसे बंधे राज विषे मरकर कुगति को गये। ___ अब संजयति मुनि के उपर्सगका कारण कहें हैं कि विद्युइंष्ष्ट्र नामा राजा होऊ श्रेणीका अधि
ति विद्यावलसे उद्धत विमानमें बेटा विदेह क्षेत्रमें गया तहां संजयंति स्वामी को ध्यानारूढ़ देखा। जिनका शरीर पर्वत समान निश्चल है उस पापी ने मुनि को देखकर पूर्व जन्म के विरोधसे उन को उठाकर पंचगिरि पर्वत पर घरे और लोकों को कहा कि इसे मारो पापी जीवोंने लष्टि मुष्टिपाषाणादि । अनेक प्रकार से उनको मारा मुनि को शमभाव के प्रसाद से रंच मात्र भी क्लेश न उपजा दुस्सह उपसर्ग को जीत लोक लोकका प्रकाशक केवल ज्ञान उपजा, सर्वदेव बंदना को श्राए, धरणीन्द्र ।। भी पाए, वह धरणींद पूर्व भव में मुनि के भाई थे इस लिये क्रोध कर सर्व विद्याघरों को नाग फांस से | बांधे, तब सबन ने विनती करी कि यह अपराध विद्युद्दष्ट का है, तब और को छोड़ा और विद्युदृष्ट को न छोड़ा, मारणे को उद्यमी भए तब देवों ने प्रार्थना कर के छुड़ाया, छोड़ातो परन्तु विद्या हर ली, तब इसने प्रार्थना करी कि हे प्रभो मुझे विद्या कैसे सिद्ध होयगी, तब धरणीन्द्र ने कहा कि संजयति स्वामी की प्रतिमा के समीप तप क्लेश करनेसे तुम को विद्या सिद्ध होयगी परन्तु चैत्यालयके उलंघन से तथा मुनियों के सलंघन से विद्या का नाश होंवेगा इस लिये तुमको तिनकी बन्दना करके धागे गमन | ॥ करना योग्य है । तब घरपीन्द ने संजयति स्वामी को पूछा कि हे प्रभो विद्युदंष्ट्र ने पापको उपसर्ग
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पद्म
५७।।
क्यों किया, भगवान् संजयति स्वामी ने कहा कि में चतुर्गति विषे भ्रमण करता सकट नामा ग्राम में दयावान् पुराण प्रियवादी हितकार नामा महाजन भया, निष्कपट स्वभाव साधू सेवा में तत्पर सो समाधि मरण कर कुमुदावती नगरी में न्यायमार्गी श्रीवर्धन नामा राजा हुवा, उस ग्राम में एक ब्रह्मण जो अज्ञानतपकर कुदेव हुआ था वहां से चय कर राजा श्रीवर्धन के वह्निशिख नामा पुरोहित भया, वह महा दुष्ट कार्य का कर वाला आप को सत्यघोष कहावे परन्तु महा झूठा और परद्रव्य का हरणहारा, उसके कुकर्म को कोई न जाने, जगत् में सत्यवादी कहावे, एक नेमिदत्त सेठ के रत्न हरे, राणी रामदत्ता ने जूवा में पुरोहित की अंगूठी जीत और दासी के हाथ पुरोहित के घर भेजकर रत्न मंगाए और सेठ को दीए, राजा ने पुरोहित को ती दण्ड दीया, वह पुरोहित मर कर एक भवकेपश्चात यह विद्याधरों का अधिपति भया और राजा मुनित धार कर देवभए, कईएक भवकेपश्चात यह हम संजयंति भए सो इसने पूर्व भव के प्रसंग से हम को उपसर्ग किया यह कथा सुन नागेन्द्र अपने स्थान को गए ॥
अथानन्तर उस विद्याधर के दृढ़रथ भए उसके अश्वघरमा पुत्र भए उसके अश्वाय उसके अश्वध्वज उसके पद्मनाभ उसके पद्ममाली उसके पद्मरथ उसके सिंहजाति उसके मृगधर्मा उस के मेघास्त्र उस के सिंह उसके सिंहकेतु उसके शशांक उस के चन्द्राहूं उस के चन्द्रशेखर उसके इन्द्ररथ उसके चक्रधर्मा उसके चक्रायुष । उसके चक्रध्वज उसके मणिग्रीव उसके मयंक उसके मणिभासुर उसके मणिरथ उसके न्यास उसके विस्वष्ट उसके लंबिताकर उसके रक्तोष्ठ उसके हरिचन्द्र उसकेपूर्णचन्द्र उसके वालेन्द्र उसके चला उसके यह उसके
उसके
के
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पद्म
ayan
वज्रचूड़ उसके भरिचूड उसके अर्कचूड़ उसके वन्हिजटी उसके वन्हितेज इस भान्ति अनेक राजा भए। | तिन में कईएक पुत्र को राज देय मुनि होय मोक्ष गए कईएक स्वर्ग गए कईएक भोगासक्त होय बैरागी
न भए ते नारकी तिरयंच भए इस भांति विद्याधर का वंश कहा । आगे द्वितीय तीर्थंकर जो अजितनाथ स्वामी उनकी उत्पति कहे हैं।
जब ऋषभदेव को मुक्ति गए पचासलाख कोटि सागर गए चतुर्थकाल श्राधा व्यतीत भया जीवों की आयुकाय पराक्रम घटते गए जगत् में काम लोभादिक की प्रवृति बढ़ती भई तब इक्ष्वाकु कुल में ऋषभदेव ही के बंश में अयोध्या नगर में राजा धरणीधर भए उनके पुत्र त्रिदशजय देवों के जीतने वाले उनके इन्दुरेखा राणी उसके जितशत्रु पुत्र भया, सो पोदनापुर के राजा भव्यानन्द उनके अम्भोद माला राणी उसकी पुत्री विजया वह जितशत्रु मेपरणी जितशतुको राज देयकर राजा त्रिदशजय केलाश पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त भए, राजा जितशत्रु की राणी विजया देवी के श्रीअजितनाथ स्वामी भए उनका जन्माभिषेकादिक का वर्णन ऋषभदेववत् जानना जिनके जन्म होतेही राजा जितशत्रु ने सर्व राजा जीते इसलिये भगवान्का अजित नाम धरा अजितनाथ के सुनयानन्दा श्रादिक स्री भई जिनके रूपकी समानता इन्द्राणी भी न करसके एक दिन भगवान् अजितनाथ राजलोक सहित प्रभात समय मेंही बनक्रीड़ा को गए. कमलों का बन फलाहुवा देखा और सूर्यास्त समय उसही बनको सकुचा हुवा देखा सो लक्ष्मीकी इस भांति अनित्यता मानकर परम वैराज्ञको प्राप्तभए, माता पितादि सर्व कुटुम्ब | से क्षमाभाव कर ऋषभदेवकी भान्ति दीक्षा घरी दस हजार राजा साथ निकसे, भगवानने वेल्लापारणा
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पद्म पुराण ॥५॥
अंगीकार करा ब्रह्मदत्त राजाके घर आहार लिया चौदह वर्ष तप करके केवल ज्ञान उपजाया । चौंतीस अतिशय तथा अाठ प्रातिहार्य प्रकट भये, भगवान के नब्बे गणधर भए और लाख मुनिभए॥ ___ अजितनाथके पुत्र विजयसागर जिनकी ज्योति सूर्य समान है उनकी राणी सुमंगला उन के पुत्र सगर द्वितीय चक्रवर्ती भए । नवनिधि चौदह रत्न आदि इनकी विभूति भरत चक्रवर्तीके समान जानन , उनके समयमें एक बृत्तान्त भया सो हे श्रेणिक तुम मुनो । भरत क्षेत्रके विजयार्थकी दक्षिण श्रेणीमें चक्रवाल नगर तहां राजा पूर्णघन विद्याधरोंके अधिपति महा प्रभाव मंडित विद्यावलकर अधिक थे उसने तिलक नगर के राजा सुलोचन की कन्या उत्पलमती विवाह के वास्ते मांगी राजा सुलो चनने निमित्त ज्ञानी के कहने से उसको न दी और सगर चक्रवर्ती को देनी बिचारी, तब पूर्ण घन सुलोचन पर चढ़ श्राए सुलोचन के पुत्र सहसू नयन अपनी बहिन को लेकर भागे और बन छिप रहे । पूर्णघन ने युद्ध में सुलोचन को मार नगर में जाय कन्या ढूंढ़ी परन्तु न पाई तब अपने नगर को चले गये, सहसू नयन बाप का बध सुन पूर्णमेघ पर क्रोधायमान भए । परन्तु कुछकर नहीं सके गहरे बनमे घुसे रहे, वह बन सिंह व्याघ्र अष्टापदादि से भराहै पश्चात् चक्रवर्ती को एक मायामई अश्व लेय उड़ा सो जिस बनमें सहमू नयन ये तहां आये । उत्पलम्ती ने चक्रवर्ती को देखकर भाई को कहा कि चक्रवर्ती अापही यहां पधारें हैं । तव भाई ने प्रसन्न होकर चक्रवर्ती को बहिन परणाई यह उत्पलमती चक्रवर्ती की पटराणी स्त्री रत्न भई और चक्रवर्ती ने कृपा कर सहस्र नयनको दोनों श्रेणी का अधिपति किया । सहस्र नयन ने पूर्णघन पर चढ़कर युद्ध में पूर्णघन को मारा और बाप
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पदाकार सिता कस्वती छह साउथ्यो कागज पोर और सहसनयन पावती का साला विचाधर non | की दोऊ श्रेणी का राज करें । पूर्णमेघ का बेटा मेघवाहन भयकर भागा सहस्रनयन के योधा मारने
को साथ दौड़े मेघवाहन समोशरण में श्री अजितनाथकीशरण श्राया इन्द्र ने भय का कारण पूछा तब मेघवाहन ने कहा हमारे बाप ने सुलोचन को मारा था सो सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन ने चक्र वर्ती का बल पाकर हमारे पिता को मारा और हमारे कधु क्षय किये और मेरे मारने के उद्यम में है सो में मन्दिर में से हंसों के साथ उड़कर श्री भगवान की शरण आया हूं। ऐसा कहकर मनुष्यों के कोठे में बैठा जो सहस्रनयन के योधा इसके मारणे को आये थे वै इसको समोशरण में पाया जान पीछे हट गए और सहस्रनयनसे सकल वृत्तान्त कहातब वह भी समोशरम में आया भगवान के चरणारबिन्द के प्रसाद से दोनों निर्वेर होय तिष्ठे । तब गणधरने भगवानसे इनके पिताका चरित्र पूछा भगवान कहे हैं कि जम्बूद्वीपके भारत क्षेत्रमें सद्रति नामा नगर वहां भावनि नामा बणिक उसके पातकी नामा स्त्री और हरिदास नामा पुत्र भावन चार कोटि द्रव्यका धनी था तो भी लोभ कर व्यापार निमित्त देशान्तरको चला चलते समय पुत्रको सर्व धन सौंपा और द्यूतादिक कुव्यसन | न सेवनेकी शिक्षा दीनी हे पुत्र यह छूतादि (जूवा) कुव्यसन सर्व दोपका कारण है इनको सर्वथा । तजने इत्यादि शिक्षा देकर आप धनतृष्णाके कारण जहाजके द्वारा द्वीपांतर को गया। पिता के गए पीछे पुत्रने सर्व धन वेश्या जूश्रा और सुगपान इत्यादेक व्यासनमें खोया जब सर्व धन जाता रहा और जुआरीनका देनदार हो गया तब द्रव्यके अर्थ सुरंग लगाय राजा के महलमें चोरी को
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पुराण
पद्म | गया इस प्रकार राजाके महिल में से द्रव्य लावे और कुब्यसन सेवे । कईएक दिनों में भावन पर ॥६॥ देश से आया घर में पुत्रको न देखा तब स्त्री को पूछा स्त्री ने कहा इस सुरंग में होकर राजा के
महिल में चोरी को गया है । तब यह पिता पुत्र के मरण की शंका कर उसके लावने को मुरंगमें गया । सो यह तो जावे था और पुत्र अावे था पुत्रने जाना यह कोई बैग आवे है उसने बैरी जान खड्ग से मारा पीछे स्पर्शकर जाना यह तो मेरा बापहे तब महादुखी होय डरकर भागा और अनेक देश भूममा कर मरा पिता पुत्र दोनों कुत्ते भए फिर गीदड़ भए फिर मार्जार भए फेर रीछ भये फिर न्योला भये, फेर भैसे भये, फिर बलध भये, इतने जन्मों में परस्पर घातकर मरे, फिर विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देशमें मनुष्य भये, उग्र तपकर एकादश स्वर्ग में उत्तर अनुत्तर नामा देव भए वहांसे आयकर जो भावन नामा पिता था वह तो पूर्णमेघ विद्याधर भया और हरिदास नामा पुत्र जो था सो सुलोचन नामा विद्याधर भया इस बैर से पूर्णमेघ ने सुलोचन को मारा । तब गणधर देव ने संहस्रनयन को और मेघवाहन को कहा तुम अपने पितावोंका इस भांति चरित्र जान संसारका बैर तजकर समता भाव धरो और सगर चक्रवर्तीने गणधर देवको पूछा कि हे महाराज मेघवाहन और सहस्रनयन का बैर क्यों भया तब भगवान की दिव्य ध्यान में आज्ञा भई कि जम्बूद्दीपके भरतक्षेत्र में पद्मक नामा नगर है तहां प्रारम्भ नामा गणित शास्त्रका पाठी महा धनवन्त था उसके दो शिष्य एक चन्द्र एक श्रावली भये इन दोनों में मित्रता थी दोनों धनवान गुणवान् विख्यात हुये इनके गुरु प्रारम्भ ने ओ अनेक नयचक्रमें अति विचक्षण या मन में विचाग कि कदाचित यह दोनों ||
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॥६२४
मेंग पद भंग कर ऐसा जानकर इन दोनों के चित्त जुदे कर डारे एक दिन चन्द्र गाय के बेचनेको पुराण
गोपाल के घर गया सो गाय बेचकर वह तो घर आ रहा था पावली को उसी गाय को गोपाल से खरीदकर लावता देखा इस कारण मार्गमें चन्द्र ने प्रावलीको मारा सो म्लेच्छ भया और चन्द्र मरकर बलद भया मलेच्छ ने बलध को भषा मलेच्छ नरक तियच योनि में भूमण कर मूसा भया
और चन्द्र का जीव मार्जार भया, मार्जार ने मुसा भषा फिर ये दोऊ पाप कर्म के योगसे अनेक योनि में भूमण कर काशी में संभ्रम देव की दासी के पुत्र दोऊ भाई भए, एकका नाम कूट और एकका नाम कार्पटिक इन दोनों का संभ्रमदेव ने चैत्यालय की टहलको राखा मरकर पुण्यके योग से रूपानन्द और स्वरूपानन्द व्यंतर भये रूपानन्द तो चन्द्रका जीव और स्वरूपानंद भावली का जीव रूपानन्द तो चय कर कलूंवीका पुत्र कलन्धर भया और स्वरूपानन्द पुरोहित का पुत्र पुष्पभूत भया यह दोनों परस्पर मित्र एक हालीके अर्थ बैरको प्राप्त भये और कुलन्धर पुष्पभूत के मारणेको प्रवृता एक वृक्षके तले साधु बिराजते थे उनसे धर्म श्रवणकर कुलन्धर शान्त भया । राजा ने इस को सामंत जान बहुत बढ़ाया पुष्पभूत कुलन्धर को जिन धर्म के प्रसाद से संपत्तिवान देख करजेनी भया व्रतधर तीसरे स्वर्ग गया और कुलन्धर भी तीसरे स्वर्ग गया स्वर्ग से चयकर दोनों धात की | खण्ड के विदेह में अरिजय पिता और जयावती माता के पुत्र भये एकका नाम अमरश्रुत दूसरेका नाम धनश्रुत यह दोनों भाई बड़े योधा सहस्र शिरसके एतबारीचाकर जगतमें प्रसिद्ध हुवे एकदिन राजा सहस्रशिरस हाथी पकड़ने को बनमें गया दोनों भाई साथ गये बनमें भगवान केवली बिराजे ।
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पुराण
॥६॥
पत्र || थे। उन के प्रताप से सिंह मृगादिक जाति विरोधी जीवों को एक ठौर बैठे देख राजा श्राश्चर्य
| को प्राप्तभया, आगे जाकर केवली का दर्शन किया राजा तो मुनिहोय निर्वाण गए और यह दोऊ भाई मुनि होय ग्यारवें स्वर्ग गए वहां से चयकर चन्दकाजीव अमरश्रुत तो मेघबाहन भया और ओवलीका जीव धनश्रुत सहसनयन भया यह इन दोनों के बैरका वृत्तांत है फिर सगर चक्रवर्ती ने भगवान् से पूछा कि हे प्रभो सहसनयनसों मेरा जो अतिहित है सो इसमें क्या कारण है तब भगवान ने कहा कि वह प्रारम्भ नामा गणित शास्त्रका पाठी मुनियोंको आहार दान देकर देवकुरु भोगभूमि गया वहांसे प्रथम स्वर्गका देव होकर पीछे चन्द्रपुर में राजा हरि राणी धरादेवी के प्यारा पुत्र ब्रतकीर्तन भया, मुनि पद घार स्वर्ग गया, और विदेह क्षेत्र में रत्नसंचयपुर में महाघोष पिता चन्द्राणी माताके पयोबल नामा पुत्र होय मुनि व्रत घोर चौघवें स्वर्ग गया वहांसे चयकर भरतक्षेत्र में पृथिवीपुर नगरमें यशोधर राजा और राणी जया के घर जयकीर्त नामा पुत्र भया सो पिता के निकट जिन दीक्षा लेकर विजय बिमान गया वहांसे चयकर तू सगर चक्रवर्ती भया और प्रारम्भ के भव में श्रावली शिष्य के साथ तेरा स्नेह था सो अब प्रावली का जीव सहसनयन उससे तेरा अधिक स्नेहहै यह कथा सुन चक्रवर्तीको विशेष धर्मरुचि हई और मेघवाहन तथा सहसनयन दोनों अपने पिताके और अपने पूर्व भव श्रवणकर निर भए परस्पर मित्रभए और इनकी धर्म विषे प्रति रुचि उपजी पूर्व भव दोनोंको याद आए महा श्रद्धावन्त होय भगवान्की स्तुति करते भए, कि हे नाथ श्राप अनाथन के नाथ हैं यह संसार के प्राणी महा दुःखी हैं उनको धर्मोपदेश देकर उपकार करोहो तुम्हारा किसी से भी कुछ प्रयोजन नहीं तुम निःकारण जगत्के बन्धुहो
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पुराण
पन | तुम्हारा रूप उपमा रहित है और प्रमाण बलके धारण हारे हो इस नगर में तुम समान और नहीं है
तुम पूर्ण परमानन्द हो कृतकृत्य हो, सदा सर्वदर्शी सर्व के बल्लभ हो किसी के चितवनमें नहीं पाते हो जाने हे सर्व पदार्थ के जाननेवाले सब के अन्तर्यामी सर्वज्ञ जगत् के हितु हो हे जिनेन्द्र संसाररूप बन्धकप में पड़े यह प्राणी इनको धर्मोपदेश रूप हस्तावलंबनही हो इत्यादिक बहुत स्तुति करी और पह दोनों मेघवाहन और सहसनयन गदगद वाणी होय अश्रुपातकर भीग गए हैं नेत्र जिनके परम हर्ष को पास भए भौरविधि पूर्वक नमस्कारकर तिष्ठे सिंह वीर्यादिक मुनि इन्द्रादिकदेव सगरादिक राजा परम आश्चर्य को प्राप्त भए
अथानन्तर भगवान के समोशरण में राक्षसोंका इन्द्र भीम और सुभीम मेघवाहन से प्रसन्न भए भोर कहते भए कि हे विद्याधरके बालक मेघवाहन तू धन्यहै जो भगवान अजितनाथकी शरणमें श्राया हम ते रेपर अतिप्रसन्न भए हैं हम तेरी स्थिरताका कारण कहे हैं तू सुन इस लवणसमुद्र में अत्यन्त । विषम महारमपीक हजारों अन्तर द्वीपहें लवण समुद्रमें मगरमच्छादिको समूह बहुतहैं और तिन अंतर द्वीपों केमें कहीं तो गन्धर्व क्रीडाकरे हैं कहीं किन्नरोंकेसमूह रमें हैं कहीं यक्षों के समूह कोलाहल करे हैं कहीं किंपुरुष जातिके देव केलि करे हैं उनके मध्यमें राक्षस दीपहै जो सातसौ योजन चौड़ा और सात सौ योजन लम्बा है उसके मध्यमें त्रिकूटाचल पर्वत है जो अत्यन्त दुष्प्रवेशहै, शरणकी ठौरहै, पर्वत के शिखर सुमेरु के शिखर समान मनोहर है, और पर्वत नव योजन ऊंचा पचास योजन चौड़ा है नाना | प्रकारको रत्नों की ज्योति के समूह कर जड़ित है सुवर्ष मई सुन्दर तट हैं नाना प्रकार की बेलों कर
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॥६५॥
या | मण्डित कल्प वृक्षोंकर पूर्ण है उसके तले तीस योजन प्रमाण लंका नामा नगरी है, रत्न और सुवर्ण
के महलोंकर अत्यन्त शोभे है जहां मनोहर उद्यान में कमलों से मण्डित सरोवर हैं बड़े २ चैत्यालय हैं वह नगरी इन्द्रपुरी समानहै दक्षिण दिशाका मण्डन (भूषण) है, हे विद्याधर! तुम समस्त बांधव वर्ग कर सहित वहां बसकर सुखसे रहो ऐसा कहकर भीम नामा राक्षसोंका इन्द्र उसको रत्नमई हार देताभया वह हार अपनी किरणों से महा उद्योत करे है तथा घरती के बीचमें पाताल लंका जिसमें अलंकारोदय नगर छैयोजन डूंघा और एकसौ साढे इकतीस योजन और डेढकला चौड़ा यहभी दीया उसनगर में वैरियों का मन भी प्रवेश न करसके स्वर्गसमान महा मनोहर है राक्षसों के इन्द्र ने कहा कदाचित् तुझे परचक्र का भय हो तो इस पाताललंका में सकल वंश सहित सुख सो रहिये, लंका तो राजधानी और पाताललंका भय निवारणका स्थानक है, इस भान्ति भीम सुभीमने पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन को कहा, तब मेघवाहन परम हर्ष को प्राप्त भया, भगवान् को नमस्कार कर के उठा, तब राक्षसों के इन्द्र ने राक्षस विद्यादी सो आकाशमार्ग से विमान में चढकर लंकाको चले, तव सर्व भाइयों ने सुना कि मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्रने अति प्रसन्न हो कर लंका दी है सो समस्तही बन्धु वर्गों के मन प्रफुल्लित भए जैसे सूर्य के उदय से समस्तही कमल प्रफुल्लित होंय तेसे सर्वही विद्याघर मेघवाहन पे आए, उन से मण्डित मेघवाहन चले के एकतो राजाके आगे जाय हैं कैएक पीछे के एक दाहिने के एक बांये केएक हाथियों पर चढ़े के एक तुरंग (घोड़े) पर क्या एक रथों पर चढे जाय हैं के एक पालकी पर चढ़े। जाय हैं और अनेक पियादेही जाय हे, जय जय-सन्दा होरहा है दुन्दुभी बाजे बाजे हैं राजा पर छत्र
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पद्म
पुरास
॥६६॥
फिरे है भारचमर दुरे हैं, अनेक निशान ( झंडे ) चले जायहें, अनेक विद्याधर सीस निवावे हैं, इसभांति || राजा चलते २ लवणसमुद्र ऊपर आए पह समुद्र आकाश समान विस्तीर्ण और पाताल समान डूंघा || तमाल वन समान श्याम है तरंगों के समूह से भरा है अनेक मगरमच जिसमें कलोलकरे हैं, उस समुद् | को देख राजा हर्षित भए, पर्वत के अधोभाग में कोट और दरवाजे और खाइयोंकर संयुक्त लंका मामा | महा पुरी है वहां प्रवेश किया, लंका पुरी में रत्नोंकी ज्योतिसे आकाश सन्ध्या समान अरुण (लाल)हो
रहा है कुन्द के पुष्प समान उज्ज्वल ऊंचे भगवान् के चैत्यालयों से मण्डित पुरी शोभे है चैत्यालयोंपर | ध्वजा फरग रहे हैं चैत्यालयों को वन्दना कर राजा ने महल मे प्रवेश किया और भी यथा योग्य घरों में तिष्ठे रत्नों की शोभा से उसके मन और नेत्र हरगए। ..
अथानन्तर किन्नरगीत नामा नगर में रतिमयूख राजा और राणी अनुमती तिन के सुप्रभा नामा कन्या, नेत्र और मन की चुराने वाली, काम का निवास, लक्ष्मी रूप, कुमुदनी के प्रफुल्लित करणे को चन्द्रमा की चांदनी, लावण्य रूप जलकी सरोवरी, आभूषणों का आभूषण, इन्द्रियों को प्रमोद की करण हारी, सो राजा मेघवाहन ने उस को महा उत्साहकर परणी, उसके महारक्षनामा पत्रभया, जैसे स्वर्ग में इन्द्र इन्द्राणी सहित तिष्ठे तैसे राजा मेघवाहन ने राणी सुप्रभा सहित लंका में बहुत काल राज किया ।।
एक दिन राजा मेघवाहन अजित नाथ स्वामी की बन्दना के लिये समोशरण में गए वहां जबू | और कथा होचुकी तब सगर ने भगवान को नमस्कार कर पूछा कि हे प्रभो इस अवसर्पणी काल में धम | चक्र के स्वामी तुम सारिषे जिनेश्वर कितने भए और कितने होवेंगे, तुम तीनलोक के सुख के देनेवाले
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पदा
॥६
॥
हो, तुम सारिषे पुरुषोंकी उत्पत्ति लोक में आश्चर्य कारिणी है, और चक्र रत्नके स्वामी कितने होवेंगे. तथा वासुदेव बलभद कितने होवेंगे, इसभांति सगर ने प्रश्न किये तब भगवान् अपनी ध्वनि से देव दुन्दुभीकी ध्वनिको निराकरण करते हुऐ ब्याख्यान करते भए, अर्घ मागधी भाषा भाषण हारे भगवान उनके होंठन हालें यह बड़ाआश्चर्य है उस दिव्य ध्वनिने श्रोताओंके कानोंको उत्साह उपजा रक्खा है उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रत्येककालमें चौबीस तीथकर होय हैं, जिस समय मोहरूप अन्धकारसे समस्त जगत् अच्छादितथा, धर्मका विचार नहीं था, और कोई भी राजा नहीं था, उस समय भगवान् ऋषभ देव उपजे उन्होंने कर्म भूमिकी रचना करी तबसे कृतयुग कहाया भगवानने क्रिया के भेदसे तीन वर्ण थापे और उनके पुत्र भरतने विप्र वर्ण थापे भरतका तेजभी ऋषभसमानहै भगवान ऋषभदेवने जिन दीक्षा घरी और भवतापकर पीड़ित भब्यजीवोंको शमभावरूप जलसे शान्त किया श्रावकके धर्म और यतीके धर्म दोऊ प्रगट कीए । जिनके गुणों के कहनेको जगत्में कोईभी समर्थ नहीं कैलाश के शिखर से आप निर्वाण को पधारे ।ऋषभदेव का शरण पाय अनेक साधु सिद्ध भऐ कई एक स्वर्ग के सुखको प्राप्त भये कई एक भद परिणामी मनुष्यभवको प्राप्त भए, और कई एक मारीचादिक मिथ्योत्त्व के राग से अत्यन्त उज्ज्वल भगवान के मार्गको अवलोकन करते भए जैसे घुग्गू ( उल्लू) सूर्य के प्रकाशको न जाने तैसे कुधर्म को | अंगीकारकर कुदेव भए और नरक तिर्यंच गतिको प्राप्त भए भगवान ऋषभको मुक्ति गए पचास लाख
कोटि सागर गये तव सर्वार्थ सिद्धसे चय द्वितीय तीर्थकर हम अजित भए जब धर्मकी ग्लानि होय और | मिथ्यादृष्टियोंका अधिकार होय प्राचार का अभाव होय तब भगवान तीर्थकर प्रगट होयकर धर्मका उद्योत
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पध
करें हैं और भव्य जीव धर्मको पाय सिद्धास्थानकको प्राप्त होयह अब हमको माक्ष गये पीछे बाईस तीर्य कर और होंगे, तीन लोक में उद्योत करणे वाले वे सर्व मुझ सारिष कांति वीर्य विभूति के धनी वैलो क्यपूज्य ज्ञान दर्शन रूप होंगे, तिनमें तीन तीर्थकर १ शान्ति २ कुंथ३ अर चक्रवर्ती पदके भी धारक होवेंगे। सो चौबीसों के नाम सुन ऋषभ १, अजित २,संभव ३, अभिनन्दन ४, सुमति ५, पद्मप्रभ६ सुपार्श्व ७, चन्द्रप्रभ ८, पुष्पदन्त , शीतल १०, सांस ११, वासपूज्य १२, विमल १३, अनन्त १४, धर्म १५, शान्ति १६, कुंथु १७, अर १८ मल्बि १६, मुनि सुत्रत २०, नमि २१, नेमि २२, पार्श्वनाथ २३, महावीर २४, यह सर्वही देवाघि देव जिम मार्ग के धुरन्धर होवेंगे, और सर्व के गर्भावतारमें रत्नों की वर्षा होगी सर्व के जन्म कल्यानक सुमेरु पर्वतफर क्षीर सागर के जल से होगे उपमा रहितहें तेज रूप सुख और बल जिनके ऐसे सर्वही कर्म शत्रु के नाश करण हारे होवेंगे और महावीर स्वामी रूपी सूर्य के अस्त भए पीछे पाखण्ड रूप अज्ञानी चमत्कार करेंगे वह पाखण्डी संसार रूप कूपमें आप पडेंग
और औरों को गैरेंगे चक्रवर्तियों में प्रथमतो भरत भए दूसरा तू सगर भया, और तीसरा, मघवा चौथा सनत्कुमार और पांचवां शान्ति छठा कुथु सातवां अर आठवां सुभूम नवा महापद्मदशवां हरिषेण ग्यारवां जयसेन बारवां ब्रह्मदत्त यह बारह चक्रवत्तों और वासुदेव नव औरप्रेतिवासुदेव वलभद्र नब होवेंगे इनका धर्ममें सावधानचित्त होगा यह अवसर्पणीक महापुरुष क इसीभान्तिउत्सर्पणी में भरत ऐरावत में जानने इस
भांति महापुरुषोंकी विभूति और कालकी प्रवृति और कर्मके वशसे संसारका भ्रमण और कर्म रहितोंको || मुक्ति का निरुपमसुख यह सर्वकथन मेघवाइनने सुना यह विचक्षण चित्त में विचारता भया कि अफसोस! |
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पद्य पराया
जिन कर्मों से यह जीव आताप को प्राप्त होय है उन्ही कर्मों को मोह मदिरासे उनमत्त हुआ यह जीव बांधे है यह विषय विषवत् प्राणों के हरण हारे कल्पना मात्र मनोज्ञ हैं। दुःख के उपजावन हारे हैं इन में रति कहां इस जीव ने धन त्री कुटम्बादि में अनेक भव राग कीया परन्तु वे पपदार्थ इसके नहीं हुये यह सदा अकेला संसार में परिभ्रमण करे हैं यह सर्व कुटंबादिक तबतकही स्नेह करे हैं जबतक दानकर उनका सम्मान करे है जैसे श्वान के बालक को जब लग टूक डारिये तोलग अपना है अन्तकाल में पुत्र कलत्र बान्धव मित्र धनादिक की साथ कौन गया और यह किसके साथ गए यह भोग काले सर्प के फण समान भयानक हैं नरक के कारण हैं इनमें कौन बुद्धिमान संग करे ग्रहो यह बड़ा आश्चर्य है। लक्ष्मी बानी अपने प्राश्रिनों को उगे है इसके समान और दुष्टता कहाँ जैसे स्वप्न में किसी वस्तुका || समागम होय है जैसे कुटम्ब का समागम जानना और जैसे इंद्र धनुष क्षण भंगुर है तैसे परिवार का सुख चाणभंगुर जानना यह शरीर जल के बुदबुदेवत् असारहै ओर यह जीतव्य बिजलीके चमत्कारख असार चंचल है इसलिये इन सबको तज कर एक धर्मही का सहाय अंगीकार कर धर्म सदा कल्याण कारीही है। कदापि विघ्नकारी नहीं और संसार शरीर भोगादिक चतुरगतिके भ्रमणके कारण हैं महा दुःख रूप हैं असा जानकर उससजा मेघवाहनने जिसके बकलर महा वैयन्यही है महारक्ष नामा पुत्र को राज्य देकर भगवान् । श्रीअजितनाथके निकट दीचाधारी राजाके साथाएकसौ दस राजा नैराग्य पाय घर रूप बंदीखानेसे निकसे।
अथानन्तर मेघवाहन का पुत्र महारक्ष गज पर बैठा सो चन्द्रमा समान दान रूपी किरणानके । समूहसे कुटम्ब रूपी समुहको पूर्ण करता सन्वा वका रूपी भाकाशमें मनाश करता भया, बहे बड़े |
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1901
पर विद्याधरों के राजा स्वप्न में भी उसकी आज्ञा को पाकर श्रादर से प्रतिवोध होय कर हाथ जोड
नमस्कार करते भये । उस महारक्षके विमलप्रभा राणी होती भई, प्राण समान प्यारी सो सदा राजा की आज्ञा प्रमाण करती भई वह राणी मानों छाया समान पतिकी अनुगामिनी है उसके अमररक्ष उदधिरक्ष भानुरच थे तीन पुत्र भए वह पुत्र नाना प्रकारके शुभकर्म कर पूर्ण जिनका बड़ा विस्तार
पति ऊंचे जगत में प्रसिद्ध मानों तीन लोक ही हैं। ___अथानन्तर अजितनाथ स्वामी अनेक भव्य जीवोंको निस्तारकर सम्मेद शिखरसे सिद्धपद को प्राप्त भये सगरके छाणवें हजार राणी इन्द्राणी तुल्य और साठ हजार पुत्र ते कदाचित बन्दना के अर्थ कैलाश पर्वत पर आये भगवानके चैत्यालयोंकी बन्दना कर दण्डरत्न से कैलाशके चौगिरद खाई खोदते भए उनको क्रोधकी दृष्टि से नागेंद्रने देखा और ये सब भस्म हो गए उनमें से दो श्रायु कर्म के योगसे बचे एक भीमरथ और दूसरा भगीरथ, तब सबने विचारा जो अचानक यह समा चार चक्रवर्ती को कहेंगे तो चक्रवर्ती तत्काल प्राण तजेगे, ऐसा जान इनको मिलनेसे और कहनेसे पंडित लोकों ने मना किये, सर्व राजा और मन्त्री जिस विधि पाथे उसी विधिसे आये बिनयकर अपने अपने स्थानक चक्रवर्ती के पास बैठा तब एक वृक्ष कहता भया कि हे सगर देख इस संसार की अनित्यता जिसको देखकर भव्य जीवोंका मन संसार में नहीं प्रवृत है आगे तुम्हारे समान परा क्रमी राजा भरत भये जिसने छै खण्ड पृथ्वी दासी समान बश करी उसके अर्ककीर्ति पुत्र भये महा | पराक्रमी जिनके नाम से सूर्य बंश प्रवृता इस भांति जे अनेक राजा भये वे सर्व कालवश भये और
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पा
॥११॥
राजाओं की बात तो दूरही रही स्वर्ग में इन्द्र महा विभव युक्त हैं वे भी क्षण में विलाय जाय हैं । और जे भगवान तीर्थकर तीनों लोक के अानन्द करण हारे हैं वे भी श्रायुके अन्त होनेपर शरीर को तज निर्वाण पधारे हैं जैसे पक्षी वृक्ष पर रात्रिको आय बसे हैं प्रभात अनेक दिशाको गमन करे हैं तैसे यह प्राणी कुटम्ब रूपी वृक्ष में प्राय बसे हैं स्थिति पूरी कर अपने कर्म बश चतुर्गति में गमन करे हैं सबसे बलवान महाबली यह काल है जिसने बडे २ बलवान निर्बल किये अहो बड़ा आश्चर्य है बड़े पुरुषों का विनाश देखकर हमारा हृदय नहीं फट जाय है जीवोंके शरीर सम्पदा और और इष्टका संयोग सर्व इन्द्र धनुष, वा स्वप्न, वा विजली. वा झागा, वा बुदबुदा समान जानना इस जगत में असा कोई नहीं जो कालसे बचे एक सिद्धही अविनाशी हैं और जो पुरुष पहाड़ को हाथसे चूर्ण कर डॉर और समुद्रको शोष जावें वे भी कालके बदन में प्राप्त होय हैं मृत्यु अलंघ्य है यह त्रैलोक्व मृत्युके वश है केवल महा मुनि ही जिन धर्मके प्रसाद से मृत्यु को जीते है जैसे अनेक राजा काल षश भये तैसे हमभी काल बश होंबेगे तीन लोक का यही मार्ग है ऐसा जान कर ज्ञानी पुरुष शोक न करें शोक संसार का कारण है इस भांति वृद्ध पुरुषने कही और इस भांति सर्व सभा के लोगों ने कही उसी समय चक्रवर्ती ने दोऊ बालक देखे तब मनमें बिचारी कि सदा ये साठ हजार भेले होय मेरे पास श्रावते थे नमस्कार करते थे और अाज ये दोनों ही दीन बदन दीखे हैं इस लिये जानियेहै कि और सब काल वश भए और ये सब राजा मुझे भन्योक्ति कर समझाये हैं मेरा दुःख देखनेको असमर्थ है ऐसा जान राना शोक रूप सर्पका उसा हुआ भी प्राणों
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पा को न तजता भया, मंत्रियोंके बचनसे शोकका दबाकर संसारको कदली (केला)के गर्भवत् असार
जान इंद्रियोंके मुख छोड़ भगीरथ को राज देकर जिन दीचा प्रादरी, यह सम्पूर्ण छै खण्ड पृथ्वी जीप तृण समान जान तमी, भीमरष सहित श्री अजितनाथ के निकट मुनि होय केवल ज्ञान उपाय सिद्ध पद को प्राप्त भए। ___ अथानन्तर एक समय सगरके पुत्र मगीरथ श्रुतसागर मुनिको पूछते भए कि हे प्रभो जो हमारे भाई एकही साथ मस्याको प्राप्त भए उनमें में बचा सो किस कारणसे बचा तब मुनि बोले कि एक समय चतुर्विधि संघ बन्दना निमित्त संमेद शिखरको जाते थे चलते २ अन्तिक ग्राममें आय निकसे तिनको देखकर अन्तिक माम के लोक दुर्वचन बोलते भए, हंसते भये, तहां एक कुम्भार ने उनको मने करा और मुनियों की स्तुति करी तदनंतर उस ग्रामके एक मनुष्य ने चोरी करी राजाने सर्व ग्राम जला दिया उस दिन वह कुंभार किसी ग्राम को गया था वहही बचावह कुंभार मरकर बणिक भया और और जे ग्राम के मरे थे सो दिइंद्री कौड़ी भये, कुंभारके जीव महाजनने सर्व कौडीखरीद फिर वह महाजन मर कर राजा भया, और कौडी मरकर गिजाई भई, सो हाथी के पगके तले चूरी गई राजा मुनि होयकर देव भये, देवसे तू भागीरथ भया और ग्राम के लोक कैएक भव लेय सगर के पुत्र भये सो मुनोंके संघ की निन्दा के पाप से जन्म जन्म में कुमौत पाई और तू स्तुति करने से ऐसाभया, यह पूर्वभव सुनकर भगीरथ प्रतिबोषको पायकर मुनिराजका व्रतधर परम पदको प्राप्त भये।
अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे श्रेणिक यह सगरका चरित्र तो तुझे कहा
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पन्न
॥१३॥
है भागे लंकाकी कथा कहिये है सो सुन । महारिष नामा विद्याधर बड़ी संपदा कर पूर्ण लंकाका निकंटक राज करै सो एक दिन प्रमद नामा उद्यान में राजा राजलोक सहित क्रीड़ा को गये,वह उद्यान कमलों से पूर्ण सरोवरों से अधिक शोभाको धरे है और नाना प्रकार के रत्नों की प्रभावाले ऊंचे पर्वतों से महा रमणीक है और मुगन्धि पुष्पों से फूले हुवेहै जो वृक्षों के समूहसे मंडित और मिष्ट शब्दों के बोलनहारे पक्षियों के समूह से अति सुन्दर है, जहां रत्नों की राशि हैं और अति सघन पत्र पल्लवन कर मंडित लताओं (वेलों )के मंडप से छा रहाहै ऐसे बनमें राजा राज लोकों सहित नाना प्रकारकी क्रीड़ा कर रति के सागर में मग्न हुआ जैसे नंदन बनमें इंछ क्रीडा करै तैसे क्रीडा करी अथानन्तर सूर्य के अस्त भये पोछे कमल संकोच को प्राप्त भये उनमें भूमण को दबकर मूवा देख राजा के जी में चिन्ता उपजी उस राजा के मोह की मंदता होगई थी और भवसागर से पार होने की इच्छा उपजी थी राजा बिचारे है कि देखो मकरंद के रस में आसक्त यह मूढ़ भौंरा गन्ध से तृप्त न भया इस लिये मुवा तैसेमें स्त्रियोंके मुख रूप कमल को भूमण हुश्रा मरकर कुगति को प्राप्त होऊंगा जो यह एक नासिका इंद्रिय का लोभी नाश को प्राप्त भया तो मैं तो पंच इंद्रियों का लोभी हूँ मेरी क्या बात अथवा यह चौइंद्री जीव अज्ञानी भूलें तो भूले में ज्ञान संपन्न विषयों के बश क्यों हुअा शहतकी लपेटी खड्ग की धारा के चाटनेसे मुख कहां जीभ ही के खंड होय हे तेसे विषय हैं सेवन में सुख कहाँ अनन्त दुःखों का उपार्जनही होय है विषफल सुल्य विषय है उम से परांग मुख हैं तिनको मैं मन पथ काय से नमस्कार कर हँहाय यह बड़ा कष्ट है जो में पापी धने
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पा
पार
दिन तक इन दुष्ट विषयों स ठगाया गया इन विषयोंका प्रसंग विषम है विषतो एक भव प्राणहरे है वि. षय अनन्त भव प्राण हरे हैं यह विचार राजामे किया उस समय श्रुतसागर मुनि बनमें आये वह मुनि अपने रूप से चन्द्रमाकी कांति को जीते हैं और दीप्ति से सूर्यको जीते हैं स्थिरता में सुमेरु से अधिक हैं जिनका मन एक धर्म ध्यानमेंही आसक्त है और जीते हैं राग द्वेष दोय जिन्होंने और तजे हैं मन वचन कायके अपराध जिन्हों ने चार कषायोंके जीतनेहारे पांच इंद्रियोंके वश करणहारे छै कायके जीव के दयालु और सप्त भय वर्जित आठ मद रहित नव नयके वेत्ता शीलके नववाडिके धारक दशलक्षण धर्म के स्वरूप परम तप के धरणहारे साधुवों के समूह।,सहित स्वामी पधारे सो जीव जंतु रहित पवित्र स्थान देख बनमें तिष्ठे जिनके शरीर की ज्योति का दशों दिशा में उद्योत होगया।
___ अथानन्तर बनपाल के मुख से स्वामी को आया सुन राजा महारिक्ष विद्याधर बन में आए कैसे हैं राजा का मन भक्ति भावसे विनय रूप है राजा पाकर मुनि के पांव पड़े मुनिका मुख अति प्रसन्न है और कल्याण के देनहारे हैं चरण कमल उनके राजा समस्त संघको नमस्कार कर समाधान (कुशल) पछ क्षण एक बैठ भक्ति भावसे धर्मका स्वरूप पूछते भये मुनिके हृदय में शांति भावरूपी चन्द्रमा प्रकाश कर रहाथा सो बचन रूपी किरणसे उद्योत करते संते व्याख्यान करते भये कि हे राजा धर्म का लक्षण जीव दया भगवान ने कहा है और यह सत्य वचनादि सर्व धर्मही का परिवार है यह ! जीव कर्म के प्रभाव से जिस गतिमें जायहै उसी शरीर में मोहित होय है इसलिये तीनलोक की सम्पदा
जो कोई किसीको देय तौभी वह जीव प्राणको न तजे सव जीवोंको प्राण समान और कुछ प्यारा नहीं सब
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पुराण 119॥
ही जीवनेको इच्छे हैं मरनेको कोई भी न इच्छे बहुत कहनेकर क्या जैसे श्रापको अपने प्राण प्यारे हैं तैसेही सबको प्यारे हैं इसलिये जो मूरख पर जीवोंके प्राण हरें हैं ते दुष्टकर्मी नरकमें पड़ें हैं उन समान कोऊ पापी नहीं यह जीव जीवोंके प्राण हर अनेक जन्म कुगतिमें दुःख पावें हैं जैसे लोहका पिण्ड पानी में डूब जाय है तैसे हिंसक जीवन का मन भवसागरमें डूबे हैं जे वचनकर मीठे बोल बोले हैं और हृदय में विपके भरे है इंद्रियों के वश होकर मलीन हैं भले आचारसे रहित स्वेच्छाचारी काम के सेवन हारे, ते नरक तिर्यच गतिमें भ्रमण करे हैं प्रथम तो इस संसार में जीवोंको मनुष्य देह दुर्लभ है फिर उत्तम कुल आर्याक्षेत्र सुन्दरता धनकर पूर्णता विद्या का समागम तत्व का जानना धर्म का आचरण यह अति दुर्लभ है धर्म के प्रसाद से के एकतो सिद्ध पद पावे हैं कैएक स्वर्ग लोक में सुख पाकर परम्पराय मोक्ष को जाय हैं और कई एक मिथ्या दृष्टि अज्ञान तप कर देव होय स्थावर योनि में प्राय पड़े हैं कईएक पशु होय हैं कई एक मनुष्य जन्म में श्रावे हैं माता का गर्भ मल मूत्रकर भराई कृमियों के समूह करपूर्ण है महा दुर्गंध अत्यन्त दुस्सह उसमें पित्त श्लेष्म के मध्य चर्मके जालमें ढके यह प्राणी जननीके आहार का जो रस ताहि चाटें हैं जिनके सर्व अंग सकुच रहे हैं दुःख के भार कर पीड़े नव महीना उदरमें बसकर योनि के द्वार से निक से हैं मनुष्य देह पाय पापी धर्मको भूलै हैं मनुष्यदेह सर्व योनियोंमें उत्तमह मिथ्या दृष्टि नेम धर्म प्राचार वर्जित पापी विषयोंको सेवे हैं जे ज्ञान रहित कामके वश पड़े स्त्री के वशी होय हैं ते महा दुःख भोगतेहुये संसार समुद्रमें डूबे हैं इसलिये विषय कषाय न सेवने हिंसाका वचन जिसमें पर | जीव को पीड़ा होय सोन बोलना हिंसाही संसारका कारणहै चोरी न करना सांच बोलना स्त्रीकी सङ्गति
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पद्म
पुराग
॥६॥
न करनी धनकी बांछा न राखनी सर्व पापारम्भ तजमे परोपकार करना पर पीड़ान करनी यह मुनिकी अाज्ञा सुनकर धर्मका स्वरूप जोन राजा बैराग्यको प्राप्त भये मुनिको नमस्कार कर अपने पूर्व भव पूछे चार ज्ञान के धारक मुनि श्रुतिसागर संक्षेपताकर पूर्व भव कहते भये कि हे राजन् ! पोदनापुर में हित नामा एक मनुष्य उसके माधवी नामा स्त्री उसके प्रीतमनामा तू पुत्रथा और उसी नगरमें राजा उदयाचल राणी अर्हश्री उसका पुत्र हैमरथ राजकरे सो एक दिन जिन मन्दिरमें महा पूजा कराई वह पूजा आनन्दकीकरणहारी, सो उसके जयजय कार शब्द सुनकर तैनेभी जयजयकार शब्द किया सो यहपुण्य उपार्जा कालपाय मुवा और यक्षोंमें महा यक्ष हुवा एक दिन विदेह क्षेत्र में कांचनपुर नगर के वन में मुनियों को पूर्व भवके शत्रु ने उपसर्ग किया यक्ष ने उसको डराकर भगा दिया और मुनियों की रक्षा करी सो अति पुण्यकी राशि उपार्जी के एक दिन में आयु पूरी कर यक्ष तडिदंगद नामा विद्याधरकी श्रीप्रभा स्त्री के उदित नामा पुत्र भया अमर विक्रम विद्याधरों के ईश बन्दनाके निमित्त मुनि के निकट
आए थे उनको देखकर निदान किया महा तपकर दूसरे स्वर्ग जाय वहां से चयकर तू मेघवाहमके पुत्र हुवा । हे राजा ! तूने सूर्यके रथकी न्याई संसार में भमण किया जिह्वा का लोलुपी स्त्रियोंके वशवर्ती होय अनन्त भवधरेतेरे शरीर इस संसारमें एते व्यतीत भये जो उनको एकत्र करिये तो तीनलोकमें न समावें
और सागरों की प्राय स्वर्ग में तेरी भई जब स्वर्गही के भोग से तू तृप्ति न भया तो विद्याधरों के अल्प भोग से तू कहा तृप्तिहोयगा और तेरा आयु भी अब आठ दिन का वाकी है इसलिये स्वप्न इन्द्रजाल समान जे भोग उनसे निरबृत्य हो ऐसा सुन अपना मरण जाना तोभी विषादको न प्राप्त भये प्रथमतो
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1990
पद्म | जिन चैत्यालय में बड़ी पूजा कराई पीछे अनन्त संसारके भमणसे भयभीत होकर अपने बड़े पुत्र अमररक्ष पुराण को राजदेय और लघु पुत्र भानुरक्ष को युवराज पद देय आप परिग्रह को त्याग कर तत्व ज्ञानमें मग्न
भये पाषाण के थंभ तुल्य निश्चल होय ध्यान में तिष्ठे और लोभ कर रहित भये खान पान का त्याग कर शत्रु मित्र में समान बुद्धिधार निश्चल चित्तकर मौनव्रतकेधारक समाधि मरणकर स्वर्गविषे उत्तम देवभये
अथानन्तर किन्नरनादनामा नगरीमें श्रीधर नामा विद्याधर राजा उसके विद्यानामा राणी उसके अरिजयानामा कन्या सो अमररक्ष ने परणी और गन्धर्व गीत नगरमें सुर सन्निभ राजा उसके राणी गंधारी की पुत्री गंधर्वा सो भानुरक्षने परणी बडे भाई अमररक्षके दशपुत्र और देवांगना समान छेहपुत्री भई जिनके आभूषण गुणही हैं और लघु भाई भानुरक्षके भी दश पुत्र और छैपुत्रीभई सो उन पुत्रोंने अपने अपने नामसे नगर बसाये वे पुत्र शत्रुओंके जीतनेहारे पृथिवा के रक्षक हैं उन नगरों के नाम सुनो सन्ध्याकार १ सुदेव २ मनोहुलाद ३ मनोहर ४ हंसदीप ५ हरि ६ जोध ७ समुद्र ८ कांचन ६ अर्धस्वर्ग १० ए दशनगर तो अमररक्षके पुत्रों ने बसाये और पावर्त नगर १ विघट २ अंभोद ३ उतकट ४ स्फुट ५ रतुग्रह ६ तष ७ तोय ८ अावली : रत्नदीप १० यह दशनगर भानुरक्षके पुत्रने बसाए कैसे हैं उन नगर में नाना प्रकारके रत्नों से उद्योत होरहा है सुवर्णकी भीति तिमसे दैदीप्यमान वे नगर क्रीडा के अर्थी राक्षसोंके निवास होते भये बड़े २ विद्याधर देशांतरोंके बासी वहां प्राय महा उत्साहकर निवास करते भये
अथानन्तर पुत्रों को राज देय अमररच भानुरतं यह दोनों भाई मुनि होय महा तप कर मीच पदको प्राध भए, इस भांति राजा मेघवाहन के वंशमें बड़े २ राजा भए वे न्यायवन्त प्रजा पालन
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11900
कर सकल बस्तुसे विरक्त होय मुनिके बतधार कैएक मोचको गये कईएक स्वर्गमें देवता भये, उस बंशमें एक राजा रक्ष भर उनके राणी मनोवेगाउसके पुत्र राक्षस बामा राजा भये तिनके नामसे राक्षस बंग कहाया यह विद्याधर मनुष्यहें राक्षस योनि नहीं, राजा राक्षसके राणी सुप्रभा उसके दो पुत्र भए अादित्यगति नामा बड़ा पुत्र और छोटा वृहत्कीर्ति, यह दोनों चन्द्र सूर्य समान अन्याय रूपबंध कार को दूर करते भये, उन पुत्रों को राज देय राजा राक्षस मुनि होय देवलोक गये राजा आदित्यगति राज्य कर और छोटा भाई युवराज हुवा बड़े भाई की स्त्री सदनपद्मा और छोटे भाईकी स्त्री पुष्पनखा थी आदित्यगति का पुत्र भीमप्रभ भया उसकी हजार राणी देवांगना समान और एकसौ अाठ पुत्र भये जो पृथ्वी के स्थम्भ होते भए उनमें बड़े पुत्र को राज्य देय भीमप्रभ वैराग्य को प्राप्त होय परमपद को प्राप्त भए पूर्व राक्षसों के इन्द्र भीममुभीम ने कृपा कर मेघवाहन को रात्तस द्वीप दिया था सो मेघवाहन के बंश में बड़े २ गजा राक्षस द्वीप के रक्षक भये भीमप्रभका बड़ा पुत्र पूजार्ह सो अपने पुत्र जितभास्कर को राज्य देय मुनि भये और जितभास्कर संपरकीति नामा पुत्र को राज्य देय मुनि भए और संपरकीर्ति सुग्रीव नामा पुत्र को राज्य देय मुनि भये सुग्रीव हरिग्रीव को राज्य देय उग्रतप कर देवलोक गया और हरिग्रीव श्रीग्रीव को राज्य देय वैराग्य को प्राप्त भये और श्रीग्रीव सुमुख नामा पुत्रको राज्य देय मुनि भये अपने बडोंहीका मार्ग अंगीकार किया और सुमुख भी सुब्यक्त को राज देय श्राप परम ऋषि भए और सुव्यक्त अमृतवेग को राज देय वैरागी भये और अमृतवेग भानुगत को राज देय यती भये और वे द्विचिन्तागत को राज देकर निश्चिन्त
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Hel
पद्म भये और चिन्तागति भी इंद्र को गज देय मुनींद्र भये इस भांति राक्षस बंश में अनेक राजा भये
| तथा राजा इंद्र के इंद्र प्रभु उसके मेघ उसके मृगीदमन उसके पवि उसके इंद्रजित् उसके भानुवर्मा उस के भानुसूर्य, समान तेजस्वी उस के मुगरि उसके त्रिजित, उसके भीम, उसके मोहन, उस के उद्धारक उस के रवि, उसके चाकार उसके बज्रमध्य, उसके प्रमोद, उसके सिंह, उसके विक्रम, उसके चामुण्ड, उसके मारण, उसके भीष्म, उसके द्रुपवाह, उसके अरिमर्दन, उसके निर्वाणभक्ति, उसके उग्रश्री उसके अर्हद्भक्त, उसके अनुत्तर, उसके गतभ्रम, उसके अनि, उसके चंड, उसके लंक, उसके मयूखाहन, उसके महाबाहु, उस के मनोम्य, उसके भास्कर प्रभ, उसके ब्रहद्गति, उसके ब्रहदांकत
और उसके प्रारसंत्रास उसके चन्द्रावर्त, उस के महारव, उसके मेघध्वान, उसके ग्रहक्षोभ, उस के नक्षत्रदमन इस भांति कोटिक राजा भए बड़े विद्याधर महाबल मंडित महाकांतिके धारी पराक्रमी परदारा के त्यागी निज स्त्री ही में है संतोष जिनको लंका के स्वामी महा सुंदर अस्त्र शस्त्रकेधारक स्वर्ग लोक के आये अनेक राजा भए उन्हों ने अपने पुत्रों को राज देय जगत से उदास होय जिन दीक्षा घारी केएक तो कर्म काट निर्वाण को गये जो तीन लोक का शिखर है और कैएक राजा पुण्य के प्रभाव से प्रथम स्वर्ग को आदि देय सर्वार्थ सिद्धि तक प्राप्त भए इस भांति अनेक गजा व्यतीत भये लंका का अधिपति घनप्रभ उसकी राणी पद्माका पुत्र कीर्तिधवल प्रसिद्ध भया अनेक विद्याधर जिसके आज्ञाकारी जैसे स्वर्गमें इंद्र राज करें तैसे लंका में कीर्तिधवल राज करता भया इस भांति पूर्व भवमें किया जो तप उसके बलसे यह जीव देवमति के तथा मनुष्य गतिके सुख भोग
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पुराख
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पन
ता है और सर्व त्याग कर महा व्रत घर पाठ कर्म भस्मकर सिद्ध होय है और जे पापी जीव खोटे फर्म में आसक्त हैं ते इसी ही भव में लोक निन्द होय मरकर कुयोनिमें जाय हैं और अनेक प्रकार दुख भोगवे हैं ऐसा जान पाप रूप अन्धकारके हरणेको सूर्य समान जो शुद्धोपयोग उसको भजो।
मौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक रातस वंश और विधाघरों के वंशका वृत्तान्त तो तुझसे कहा अब बानर बंशियोका कथन सुन स्वर्ग समान जो विजियागिरि उसकी दक्षिण श्रेणीमें मेघपुर मामा नगर ऊंचे महलों से शोभित है, वहां विद्याधरों का राजा अतींद्र पृथ्वी पर प्रसिद्ध भोग सम्पदा मे इन्द्र तुल्य उस के श्रीमती मामा रार्णा लक्ष्मी समान हुई जिसके मुख की चांदनी से सदा पूर्णमासी समान प्रकाश होय, तिन के श्री कण्ठ नामा पुत्र हुआ जो शास्त्र में प्रवीण जिस के नेत्र नाम को सुनकर विचक्षण पुरुष हर्षको प्राप्त होय उस के छोटी बहिन महा मनोहर देवी नामा हुई जिसके नेत्र काम के बाण ही हैं।
रत्नपुर नामा नगर अति सुन्दर वहां पुष्पोत्तर नाम राजा विद्याधर महा बलवान उस के पद्मा भा नाम पुत्री देवांगना समान और पद्मोत्तर नामा पुत्र महा गुणवान जिसके देखने से अति श्रा नन्द होय सो राजा पुष्पोत्तर अपने पुत्र के निमित्त राजा अतींद्र की पुत्री देवी की बहुत बार याचना करी परन्तु श्रीकंठ भाई ने अपनी बहिन लंका के धनी कीर्तिधवल को दीनी और पद्मोत्तरको
न दीनी यह बात सुन राजा पुष्पोतर ने अति कोप किया और कहा कि देखो हममें कुछ दोष नहीं | दारिद्र दोष नहीं मेरा पुत्र कुरूप नहीं और हमारे उनके कुछ वैरभी नहीं तथापि मेरे पुत्रको श्रीकंठ
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पद्म
॥८१॥
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ने अपनी बहिन न पराई यह क्या युक्त किया एक दिन श्रीकण्ठ चैत्यालयोंके बन्दना के निमित्त सुमेरु पर्वत पर विमान में बैठ कर गए विमान पवन समान वेग वाला और अति मनोहर है. सो बन्दना कर आवते थे मार्ग में पुष्पोतर की पुत्री पद्माभा का राग सुना और वीणका वजावन सुना उसका राग मन और श्रोत्रका हरणहारा है सो राग सुन मन मोहित भया गुरु समीप संगीत गृह में वीण वजावतीं पद्माभा देखी उसके रूप समुद्र में उसका मन मग्न हो गया मनके काढिवे को समर्थ भया उसकी ओर देखता रहा और यहभी अति रूपवान सो इसके देखने से वहभी मोहित भई यह दोनों परस्पर प्रेमसूत कर बन्धे सो उसकी मनशा जान श्रीकण्ठ उसको आकाश में ले चला तब परिवार के लोगों ने राजा पुष्पोत्तर पै पुकार करी कि तुम्हारी पुत्री को श्रीकण्ठ ले गया राजा पुष्पोतर के पुत्र को श्रीकंठने अपनी बहिन न परणाई थी उससे वह क्रोधरूप याही अब अपनी पुत्री के हरणे से अत्यन्त कोपित होकर सर्व सेनालेय श्रीकण्ठ के मारणे को पीछे लगा दांतों से होंठों को पीसता क्रोध से जिस के नेत्र लाल होरहे हैं ऐसे महाबली को श्रावते देख श्रीकंट डरा और भाज कर अपने बहनेऊ लंका के घनी कीर्तिधवल की शरण आया सो समय पाय बड़ों के शरण जायाही करते हैं राजा कीर्तिधवल श्रीकंठ को देख अपना साला जान बहुत स्नेह से मिला छातीस लगाया बहुत सन्मान किया इनमें आपस में कुशल वार्ता होरही थी कि पुष्पोतर सेना सहित आकाश में आए कीर्तिधवल ने उनको दूर से देखा राजा पुष्पोत्तरके संग अनेक विद्याधरों के समूह महातेजवान हैं खड्ग सेल घनप बाण इत्यादि शस्त्रों के समूह से द्याकाश में तेज होय रहा है।
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पुराण
॥२॥
ऐसे मायामई तुरङ्ग जिनका वायु के समान तेज है और काली घटो समान मायामई गज चलायमान है घंग और सूंड जिनकी मायामई सिंह और बड़े २ बिमान उनकर मण्डित आकाश देखा उत्तर दिशा की ओर सेना के समूह देख राजा कीर्तिघवल ने क्रोध सहित हँसकर मन्त्रियों को युद्ध करनेकी आज्ञा दीनी तब श्रीकण्ठ लज्जा से नीचे होगए और श्रीकण्ठ ने कीर्तिधवल से कही कि मेरी स्त्री और मेरे कुटम्बकी तो रक्षा आपकरो और में आपके प्रताप से युद्धमें शत्रुओं को जीत पाऊंगा तब कीविधवल कहते भए कि यह बात तुमको कहनी अयुक्त है तुम सुख से तिष्ठो युद्ध करनेको हम बहुत हैं जो यह दुर्जन नरमी से शान्त होय तो भलाही है नहींतो इनको मृत्यु के मुखमें देखोगे असा कह अपने स्त्री के भाईको सुखसे अपने महलमें राख पुष्पोत्तरके निकट बड़ी बुद्धि और बड़े वय ( उमर ) के धारक दूत भेजे वय दूत जाय पुष्पोत्तर सो कहते भए कि हमारे मुखसे तुमको राजा कीर्तिधवल बहुत आदर से कहें है कि तुम बड़े कुल में उपजे हो तुम्हारी चेष्टा निर्मलहै तुम सर्व शास्त्रके बेता हो जगत् में प्रसिद्ध हो और सबमें वयकर बड़े हो तुमने जो मर्यादाकी रीति देखी है सो किसीने कानों से सुनी नहीं यह श्रीकण्ठ चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल कुल में उपजा है, और धनवान है, विनयवान है, सुन्दर है, सर्व कलामें निपुण है, यह कन्या ऐसेही बरको देने योग्य है कन्या के और इसके रूप और कुल समान हैं इसलिये तुम्हारी हमारी सेनाका क्षय कौन अर्थ करावना, यह तो कन्याओं का स्वभावही है कि पराए
गृहका सेवन करें दूत जब तक यह बात कहही रहेथे कि पद्मामा की भेजी सखी पुष्पोत्तर के निकट आई | और कहती भई कि तुम्हारी पुत्री ने तुम्हारे चरणारविन्द को नमस्कार कर वीनती करी है कि मैं तो
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पद्म
पुराण
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लज्जासे तुम्हारे समीप कहनेको नहीं आई इसलिये सखीको पठाई है है पिता इस श्रीकण्ठका अल्प भी अपराध नहीं में कर्मानुभव कर इसके संग आईहूं जो बड़े कुलमें उपजी हैं स्त्री हैं तिनके एकही बर होता है इसलिये इसके सिवाय मेर और पुरुषका त्याग है इस प्रकार सखी ने वीनती करी तब राजा सन्चित हो रहे मनमें विचारी कि मैं सर्व बातों में समर्थहूं युद्धमें लंकाके धनीको जीत श्रीकंटको बांधकर ले जाऊं परन्तु मेरी कन्याही ने इसको बरा तो में इसमें क्या करूं ऐसा जान युद्ध न किया और जो कीर्तिधवलके दूत आये थे उनको सनमान कर विदा किया, और जो पुत्रीकी सखी आई थी उसको भी सन्मानकर विदा करी वे हर्षकर भरेलंका आये और राजा पुष्पोत्तर सर्व अर्थ के बेत्ता पुत्री की वीनती से श्रीकण्ठ से क्रोध तज अपने स्थानक को गए ||
अथानन्तर मार्गशिर शुदी पडवा के दिन श्रीकण्ठ और पद्माभा का विवाह हुवा और कीर्तिधवल ने श्रीकण्ठ सो कहा कि तुम्हारे बैरी विजयार्धमें बहुत हैं इसलिये तुम यहांही समुद्र के मध्य में जो द्वीप है। वहां तिष्ठो तुम्हारे मनको जो स्थानक रुचें सो लेवों मेरा मन तुमको घोड़ नहीं सके है और तुमभी मेरी प्रीति के बन्धन तुड़ाय कैसे जावोगे ऐसे श्रीकण्ठ सो कहकर अपने आनन्द नामा मन्त्री से कहा कि तुम महाबुद्धिमान हो और हमारे दादे के मुह अगिले हो तुमसे सार असार कुछ छाना नहीं है श्रीकण्ठ योग्य जो स्थानक होय सो बतावो तब आनन्द कहते भए कि महाराज आपके सबही स्थानक मनोहर हैं तथापि आपही देखकर जोदृष्टि में रुचे सो लेवें समुद्र के मध्य में बहुत द्वीपहें कल्पवृश समान वृक्षों से मण्डित जहां नाना प्रकारके रत्नों कर शोभित बडे २ पहाड हैं जहां देव क्रीड़ा करे हैं तिन द्वीपों
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पद्म पुराण
४॥
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महा रमणीक नगर हैं जहां स्वर्ण रत्नोंके महल हैं सो उनके नाम सुनो संध्याकार सुवेल कांचन हरि पुर जोधन जलविध्वान हंसदीप भरक्षम अर्धस्वर्ग कूटावर्त विघट रोधन अमल कांत स्फुटतट रत्नद्वीप तोयावली सर अलंघन नभोभा क्षेम इत्यादि मनोज्ञ स्थानक हैं जहां देवभी उपद्रव न कर सकें यहांसे उत्तर भाग तीनसौ योजन समुद्र के मध्य वानरद्वीप है जो पृथिवी में प्रसिद्ध है जहां अवांतरदीप बहुत रमणीक हैं कैएको सूर्य कांति मणियोंकी ज्योतिसे देदीप्यमान हैं और कैएक हरित मणियोंकी कांतिसे ऐसे शोभे हैं मानो उगते हरे तृणों से भूमिव्याप्त हो रही है और कईएक श्याम इन्द्र नीलमणिकी कांति के समूह से ऐसे शोभे हैं मानो सूर्य के भयसे अन्धकार वहां शरण आकर रहाहै और कहीं लाल पद्म राग मणियों के समूह से मानो रक्त कमलोंका बनही शोभे है जहां ऐसी सुगन्ध पवन चले है कि याकाश में उड़ते पक्षी भी सुगन्ध से मग्न होय जाय हैं और वहां वृक्षोंपर आय बैठे हैं और स्फुटिक मणि के मध्य में जो पद्मराग मणि मिला है उन से सरोवरमें पङ्गही कमल जाने जायहैं उन मणियोंकी ज्योति से कमल के रङ्ग न जाने जाय हैं जहां फूलोंकी बाससे पक्षी उन्मत्त भए ऐसे उन्मत्त शब्दकरें हैं मानो समीप के द्वीप से अनुराग भरी बात करे हैं जहां औषधियोंकी प्रभा के समूहसे अन्धकार दूर होय है इस लिये अंधेर पक्षमें भी उद्योतही रहे है जहां फल पुष्पों से मण्डित वृक्षों का आकार छत्रसमान है जिनके बड़े २ डाले हैं उनपर पक्षी मिष्ट शब्द कर रहे हैं जहां विना बाहे घान आपसेही उगे हैं वह धान वीर्य और कांति को विस्तीरणे वाले हैं मंद पवन से हिलते हुवे शोभे हैं उनसे पृथिवी मानों कंचुक (चोला) पहरे है जहां नीलकमल फूल रहे हैं जिनपर भ्रमरोंके समूह गुंजार करे हैं मानो सरोवरही नेत्रोंसे पृथिवी
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॥५॥
पद्म || का विलास देखे हैं नील कमल तो सरोवरनी के नेत्र भए और भ्रमर भौहें भए जहां पौढ़े और सांठोंकी।
विस्तीर्ण वाड़ी हैं वह पवन के हालने से शब्द करे हैं ऐसा सुन्दर बानरद्वीप है उसके मध्यमें किहकुन्दा नामा पर्वत है वह पर्वत. रत्न और स्वर्ण की शिला के समूह से शोभायमान है जैसा यह त्रिकूटाचल मनोज्ञ है तैसाही तिहकुन्द पर्वत मनोज्ञ है अपने शिखरों से दिशारूपी कान्ताको स्पर्श करे हैं आनन्द मन्त्री के ऐसे वचन सुनकर राजा कीर्तिधवल बहुत आनन्द रूप भए बानरद्वीप श्रीकण्ठ को दिया तब चैत्र के प्रथम दिन श्रीकण्ठ परिवार सहित बानरद्वीप में गये मार्ग में पृथिवीकी शोभा देखते चले जाय, वह पृथिवी नीलमणिकी ज्योति से आकाश समान शोभे है और महा ग्राहों के समूह से संयुक्त समुद्र
को देख आश्चर्यको प्राप्त भए वानरद्वीप जाय पहुंचे बानरद्वीप मानों दूसरा स्वर्गही है अपने नीझरनों | के शब्द से मानों राजा श्रीकण्ठ को बुलावेही है नी झरनेके छांटे आकाशको उछले हैं सो मानो राजा के श्रानेपर अति हर्षको प्राप्तभये आनन्दकर हंसे हैं नाना प्रकार की मणियों से उपजा जो कान्ति का सुन्दर समूह उससे मानो तोरण के समूह ऊंचे चढ़ रहे हैं राजा बानरद्वीप में उतरे और सर्व ओर चौगिरद अपनी नील कमल समान दृष्टि सर्वत्र विस्तारी छुहारे प्रांवले कैथ अगर चन्दन पीपरली सहीजणां
और कदम्ब आंबचा रोली केला दाडिम सुपारी इलायची लवंग बौलश्री और सर्व जाति के मेवों से युक्त नाना प्रकारके वृक्षों से दीप शोभायमान देखा ऐसी मनोहर भूमि देखी जिसके देखतेहये और ठौर दृष्टिन जाय जहांवृक्ष सरल और विस्तीर्ण ऊपर छत्रसेबनरहे हैं सघन सुन्दर पल्लव और शाखा फूलनके समूहसे शोभे हैं ओर महा रसीले स्वादिष्ट मिष्ट फलों से नम्रीभत होयरहे हैं और वृक्ष अति ऊंचे भी नहीं अति नीचेभी
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'पद्म
मदा
नहीं मानों कल्पवृक्ष के समान शोभे हैं जहां वे फूलों के गुच्छे बन रही हैं जिन पर भ्रमर गुंजार करे हैं मानो यह बेलतो स्त्री है उन के जो पल्लव हैं सो हाथोंकी हथेली हैं और फलों के गुच्छे कुच हैं और भ्रमर नेत्र हैं वृक्षों से लग रहे हैं और ऐसेही तो सुन्दर पक्षी बोले हैं और ऐसेही मनोहर भ्रमण गुंजार करे हैं मानो परस्पर श्रालाप करे हैं जहां कैएक देश तो स्वर्ण समान कांतिको धरे हैं कैएक कमल समान कैएक वैडूर्य माणि समान है वे देंश नाना प्रकार के वृत्तों से मंडित हैं जिनको देख कर स्वर्ग भूमि भी नहीं रुचे है जहां देव क्रीड़ा करे हैं जहां हंस सारिस सूवा, पैना, कबूतर, कमेरी इत्यादि अनेक जाति के पक्षी क्रीड़ा करें हैं जहां जीवों को किसी प्रकार की बाधा नहीं नाना प्रकार के वृक्षों की छाया के मंडप रत्न स्वर्ण के अनेक निवास पुष्पों की अति मुगंधी ऐसे उपवन में सुन्दर शिला के ऊपर राजा जाय बिराजे और सेनाभी सकल बनमें उतरी हंसों,सारिसों मयूरोंके नाना प्रकार के शब्द सुने और फल फूलों की शोभा देखी सरोवरों में मीन केल करते देखे वृक्षों के फूल गिरें हैं और पक्षियों के शब्द होय रहे हैं सो मानों वह बन राजा के प्रावने से फूलों की वर्षा करे हैं और जयजयकार शब्द करें हैं नाना प्रकार के रत्नों से मंडित पृथ्वी मंडल की शोभा देख देख विद्याधरों का चित बहुत सुखी हुश्रा और नन्दनबन सारिखा वह बन उस में राजा श्रीकंठ ने क्रीड़ा करते बहुत बानर देखे जिनकी अनेक प्रकार की चेष्टा हैं राजा देखकर मनमें चितवने लगा कि तिर्यंच योनि के यह प्राणी मनुष्य समान लीला करें हैं जिनके हाथ पग सर्व श्राकार मनुष्य का सा है सो इनकी चेष्टा देख राजा थकित होय रहे निकटवर्ती पुरुषोंसे कहा कि इनको मेरे समीप ।
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| लामो सो राजा की आज्ञा से कैएक बानरों को लाए राजा ने उनको बहुत प्रीतसो राखे और नृत्य MS करणा सिखाया और उनके सुफेद दांत दाडिमके फूलों सों रंग रंग तमाशा देखे और उनके मुखमें
सोने के तार लगाय लगाय कौतूहल करे वे आपस में परस्पर जूं काढ़े तिनके तमाशे देखे और वे आपस में स्नेह कर वा कलह करें तिनके तमाशे देखे राजा ने ते कपि पुरुषों को रक्षा निमित्त साँप और मीठे मीठे भोजन से उनको पोखे उन बानरों को साथ लेकर किहकुं पर्वत पर चढ़े राजा काचित्त सुन्दर वृक्ष सुन्दर वेलि पानीके नीझरनों से हरा गया तहां पर्वतके ऊपर विषमतारहित विस्तीर्ण भूमि देखी वहां किहकुं नामा नगर बसाया जिसमें वैरियोंका मन भी न प्रवेशकर सके चौदह योजन लंबा और चौदह योजन चौड़ा और जो परिक्रमा करिये तो बियालीस योजन कछ इक अधिक होय जाके मणियों के कोट रत्नों के दरवाजे वा रत्नों के महल रत्नों को कोट इतना ऊंचा है कि अपने शिखर से मानों भाकाश से ही लग रहा है और दरवाजे ऊंचे मणियों से ऐसे शोभे हैं मानों यह अपनी ज्योति से श्रीभूत हो रहे हैं घरों की देहली पनरागमणिकी है सो अत्यन्त लाल हैं मानों यह नगरी नारी स्वरूप है सो तांबूल कर अपने घर ( होंठ) लालकर रही है और दरवाजे मो तियों की माला कर युक्त हैं सो मानों समस्त लोक की सम्पदाको हंसे हैं और महलों के शिखरों पर चन्द्रकांत मणि लग रहा है जिससे रात्रि में ऐसा भासे हैं मानों अन्धेरी रात्रि में चन्द्र उग रहा है और नाना प्रकार के रत्नों की प्रभा की पंक्ति से मानों ऊंच तोरण चढ़ रहे हैं वहां घरोंकी पंक्ति विद्याधरों की बनाई हुई बहुत शोभे हैं घरों के चौक मणियों के हैं और नगर के राज मार्ग बाजार
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पुनश्या CCI
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बहुत सीधे हैं उनमें वक्रता नहीं, अति विस्तीर्ण हैं मानों रत्नों के सागर ही हैं सागर जल रूप हैं यह स्थल रूप हैं और मंदिरों के ऊपर लोगोंने कबूतरों के निवास निमित्त नील मणियों के स्थान कर रखे हैं सो कैसे शोभे हैं मानों रत्नोंके तेजसे अन्धकारको नगरसे काढ़ दिया है सो शरण भाय कर समीप पड़ा है इत्यादि नगर का वर्णन कहां तक करिए इंद्र के नगर समान वह नगर जिस में राजा श्रीकंठ पद्माभा राणी सहित जैसे स्वर्ग विषे शची सहित सुरेश रमे हैं तैसे बहुत काल रमते भए । जे बस्तु भद्रशाल बनमें तथा सौमनस बनमें तथा नन्दनमें न पाइये वह राजाके बनमें पाई जावें एक दिन राजा महल ऊपर विराज रहेथे श्रष्टानिका के दिनों में इन्द्र चतुरनिकाय के देवताओं सहित नन्दीश्वर द्वीपको जाते देखे और देवोंके मुकटोंकी प्रभाके समूहसे आकाश को अनेक रंग रूप ज्योति सहित देखा और बाजा बजाने वालों के समूह से दशों दिशा शब्द रूप देखी। किसी को किसीका शब्द सुनाई न देवे, कैयक देवमाया मई हंसोंपर तथा तुरंगों पर तथा हथियारों पर और अनेक प्रकार बाहनो पर चढ़े जाते देख देवों के शरीर की सुगंधता से दशो दिशा व्याप्त होय गईं तब राजा यह अद्भुत चरित्र देख मनमें बिचारा कि नन्दीश्वर द्वीपको देवता जाय हैं। यह राजा विद्याधरों सहित नन्दीश्वर द्वीपको जानेकी इच्छा करते भये बिना विवेक बिमानपर चढ़ कर राणी सहित प्रकाशके पन्थ से चले परन्तु मानुषोत्तर के आगे इनका बिमान न चल सका देवता चले गए । यह अटक रहे तब राजा ने बहुत विलाप किया मनका उत्साह भंग हो गया कांति रही हो गई मन में विचारे हैं कि हाय बड़ा कष्टहै हम हीन शक्तिके धनी विद्याधर मनुष्य
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पुराण
पा
पद्म अभिमान को धरे सो धिक्कार है हमको । मेरे मनमें यह थी कि नन्दीश्वर द्वीपमें भगवान के
अकृत्रिम चैत्यालय हैं उनका में भाव सहित दर्शन करूंगा और महा मनोहर नाना प्रकारके पुष्प धूप, गन्ध इत्यादि अष्टद्रव्यों से पूजा करूंगा बारम्बार घरती पर मस्तक लगाय नमस्कार करूंगा इत्यादि मनोरथ किये हुए थे वे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म से मेरे मन्द भागी के भाग्य में न भए मैंने मागे अनेक बार यह बात सुनी थी कि मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघ कर मनुष्य आगे न जाय हैं तथापि अत्यन्त भक्ति गगकर यह बात भूल गया अब ऐसे कर्म करूं जो अन्य जन्ममें नन्दोश्वर दीप जाने की मेरी शक्ति हो । यह निश्चय कर बज्रकंठ नामा पुत्रको राज्य देय सर्व परिग्रहकोत्याग कर राजा श्रीकंठ मुनि भए । एक दिन बजकंठ ने अपने पिताके पूर्व भव पछनेको अभिलाष किया तब वृद्ध पुरुष बजकंठ को कहते भए कि हमको मुनियों ने उनके पूर्व भव ऐसे कहे थे कि पूर्व भव में दो भाई वाणक थे उनमें प्रीति बहुत थी स्त्रियों ने वे जुदे किए उन में छोटा भाई दरिद्री और बड़ा धनवान था सो बड़ा भाई सेठकी संगति से श्रावक भया और छोटा भाई कुव्यसनी दुःख सों दिन पूरे करे बड़े भाईने बोटे भाईकी यह दशा देख बहुत धन दिया और भाईको उपदेश देय व्रत लिवाए
और आप स्त्रीको त्यागकर मुनि होय समाधि मरणकर इंद्र भए और छोटा भाई शांतपरिणामी होय शरीर छोड़ देवहुवा देवसे चयकर श्रीकण्ठ भया बड़े भाईका जीव इन्द्र भयाथासो छोटे भाईक स्नेहसे अपना स्वरूप दिखावतासन्तानन्दीश्वर द्वीप गया सो इन्द्रको देख राजा श्रीकण्ठको जातीस्मरणहुवा वह वैरागी भए। | यह अपने पिताका व्याख्यानसुन राजा वज्रकण्ठ इन्द्रायुधपम पुत्रको राज्यदेय मुनिभए और इन्द्रायुधप्रभ ।
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प
utor
भी इन्द्रमति पत्रको राज्य देय मुनि भए तिनके मेरु मेरु के मन्दिर उनके समीरणगति तिनके रविप्रभ तिनके अमरप्रभ पुत्र हुवा उसने लंकाके धनी की बेटी गुणवती परणी, गुणवती राजा अमरप्रभ के महल में अनेक भांति के चरित्राम देखती भई कहीं तो शुभ सरोवर देखे जिनमें कमल फलरहे हैं और भ्रमर गुआर करें हैं कहीं नील कमल फूल रहे हैं हंस के युगल क्रीडा कर रहे हैं जिनकी चोंच में कमलके तंतुहें
और क्रौंच सारस इत्यादि अनेक पक्षियों के चित्राम देखे सो प्रसन्न भई और एक ठौर पञ्च प्रकारके रत्नों के चर्णसे बानरोंके स्वरूप देखे वे विद्याघरों ने चितर हैं, राणी बानरोंके चित्रामदेख भयभीत होय कांपने लगी, रोमांच होय पाए पसेवकी बूंदोंसे माथेका तिलक बिगड़गया, और आंखों के तारे फिरनेलगे राजा अमरप्रभ यह बृत्तान्त देखा घरके चाकरों से बहुत खिझे कि मेरे विवाह में ये चित्राम किसने कराए मेरी प्यारी राणी इनको देख डरी तब बड़े लोगों ने अरज करी कि महाराज इसमें किसीका भी अपराध नहीं, आपने कही जो यह चित्राम कराणहारेने हमको विपरीत भाव दिखाया सो ऐसा कौनहै जो आप की आज्ञा सिवाय काम करे सबके जीवनमूल श्राप हो, आप प्रसन्न होयकर हमारी विनती सुनो आगे तुम्हारे वंशमें पृथिवी पर प्रसिद्ध राजा श्रीकण्ठ भए जिनने यह स्वर्ग समान नगरे बसाया और नाना प्रकारके कौतूहलका धारणेवाला जो यह देश उसके वह मूलकारण ऐसे होतेभए जैसे कर्मोंका मूलकारण रागादिक प्रपंच,बनके मध्य लतागृहमें सुखसों तिष्ठीहुई किन्नरी जिन के गुण गावें हैं और किन्नर गावें हैं, इन्द्र समान जिनकी शक्ति थी ऐसे वे राजा इन्होंने अपनी स्थिर प्रकृति से लक्ष्मी की चंचलता से उपजा जो नपयश सो दूर किया। राजा श्रीकण्ठ इन बानरों को देखकर आश्चर्य को प्राप्तभए और इन |
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पुराण 1 .
पद्म । सहित रमें मीठे २ भोजन इनको दिये और इनके चित्राम कदाए पीछे उनके वंशमें जो राजा भए उनने
मङ्गलीक कार्यों में इनक चित्राम बढाए और वानरों से बहुत प्रीति राखी इसलिये पूर्व रीति प्रमाण अब भी लिखे हैं ऐसा कहां तव राजा क्रोध तज प्रसन्न होय आज्ञा करतेभए कि हमारे बड़ोंने मङ्गल कार्य में इनके चित्राम लिखाए तो अब भूमिमे मत डारो जहां मनुष्योंक पाब लगें में इनको मुकटपर राखूगा
और ध्वजावों में इनके चिन्ह करावो और महलों के शिखर तथा छत्रों के शिखर पर इन के चिन्ह करावो यह अाज्ञा मन्तियों को करी सो मन्त्रियों ने उसही भान्ति किया राजाने गुणवती राणी सहित परम सुख भोगते विजयाध की दोऊ श्रेणी के जीतने का मन किया बड़ी चतुरङ्ग सेना लेकर विजियार्घ गये, राजा की ध्वजारों में और मुकटों में कपियों के चिन्ह हैं राजा ने विजिया जायकर दोऊ श्रेणीजीत कर सब राजा वश किये सर्व देश अपनी प्राज्ञामें किये किसीका भी धन न लिया जो बडे पुरुष हैं तिन की वृती यही है कि राजाओंको नवावें अपनी आज्ञा में करें किसी का धन न हरें सो राजा सब विद्याधरोंकों आज्ञा में कर पीछे किहकूपुर आए विजियार्घ के बड़े २ राजा लार आए सर्व विद्यधरों का अधिपति होकर घने दिन तक राज्यकिया लक्ष्मी चंचल थी सो नीतिकी वेड़ी डाल निश्चल करी, तिनके पुत्र | कपिकेतु भए जिनके श्रीप्रभा राणी बहुत गुणकी धारणहारी ते राजा कपिकेतु अपने पुत्र विक्रम संपन्न
को राज्य देय वैरागी भए और विक्रम सम्पन्न प्रतिवल पुत्रको राज्य देय बैरागी भए यह राज्य लक्ष्मी विषकी वेल के समान जानो बडे पुरुषों के पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावकर यह लक्ष्मी विनाही यत्न मिले ॥ है परन्तु उनके लक्ष्मी में विशेष प्रीति नहीं लक्ष्मी को तजते खेद नहीं होय है किसी पुण्य के प्रभाव
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ज्य राज्य लक्ष्मी पाय देवों के सुख भाग फिर बैराज्ञ को प्राप्त होय कर परमपद का प्राप्त होय हे मोच का ,
अविनाशी सुख उपकरणादि सामग्री के आधीन नहीं, निरन्तर आत्माधीन है, वह महासुख अंतर रहित है अविनश्वरहै ऐसे सुखको कौन न बांछे राजा प्रतिबल के गगनानंद पुत्रभए उसके खेचरानन्द उसके गिरिनन्द इसभांति बानरवंशियों के वंशमें अनेक राजा भए वे राज्य तज वैराग्यधर स्वर्ग मोक्षको प्राप्त भए इस वंशके समस्त राजाओंके नाम और प्राक्रम कौन कहसके जिसका जैसा लक्षण होय सो तैसाही कहावे सेवाकरे सो सेवक कहावे धनुषधारै सो धनुषधारी कहावै परकी पीड़ा टालै सो शरणागति प्रतिपाल होय क्षत्री कहावे ब्रह्मचर्य पाले सो ब्राह्मण कहावे जो राजा राज्य तजकर मुनि होय सो मुनि कहावे श्रम कहिये तपधारे सो श्रमण कहावे यह बात प्रगटही है लाठीराखे सो लाठीवाला कहावे तैसे यह विद्याघर ध्वजावों पर बानरों के चिन्ह राखते भएइसलिये बानरवंशी कहाए क्योंकि संस्कृतमें वंश बांसको कहते हैं और कुलकोभी कहते हैं परन्तु यहांवंश शब्द बांस को वाचक है । बानरों के चिन्हकर युक्त वंश बांस वाली जो ध्वजा सो भई बानर वंश उस ध्वजावाले यह राजा बानरवंशीकहलाए भगवान् श्रीवासपूज्य के समय राजा अमरप्रभ भए उनने बानरों के चिन्ह मुकुट ध्वजामें कराए तब इनके कुल में यह रीति चली आई इस भान्ति संक्षेप से बानरवंशीयों की उत्पति कही इसकुलमें महोदधि नामा राजाभए तिन के विद्युत्प्रकाशा नामा राणी भई वह राणी पतीव्रता स्त्रियों के गुणकी निधान है जिसने अपने विनय
और अंगसे पति का मन प्रसन्न किया है राजाके सुन्दर सैकड़ों रानी हैं ति की यह राणी शिरोभाग्य | हे महा सौभाग्यवती रूपवती ज्ञानवती है उस राजा के महा प्राक्रमी एकसौ पाठ पुत्र भए तिनको राज्य
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पद्म
॥
३
का भारदे राजा महासुख भोगते भए मुनि सुव्रतनाथ के समय में वानवंशीयों में यह राजा महोदधि भये और लंका में विद्युतकेश भये । विद्युतकेश के और महोदधि के परम नीति भई ये दोऊ सकल प्राणीयों के प्यारे और आपस में एक चित्त देह न्यारी भई तो कहा । विद्युतकेश मुनि भये, यह वृत्तान्त सुन महोदधिभी वैरागी भए । यह कथा सुन राजा श्रेणिकने गौतम स्वामी से पूछाकि हे स्वामी राजा विद्युतकेश किसकारणसेवैरागी भए तवगौतम स्वामीनेकहाकि एकदिनविद्युत केश प्रमद नामा उद्यान में क्रीड़ा करनेको गये जहां क्रीड़ाके निवास अति सुंदर, निर्मलजलके भरेसरो वर तिनमें कमल फूल रहे हैं । सरोवरमें नाव डार राखी हैं बनमें ठौर ठौर हिंडोले हैं सुंदर वृक्ष सुंदर वेल और क्रीड़ा करनेके लिये सुवर्ण के पर्वत जिनके रत्नोंके सिवाण वृक्ष मनोज्ञ फल फूलोंसे मंडित जिनकी पल्लवमें लता अति शो हैं और लताओंसे लपटि रहेहैं ऐसे बनमें गजा विद्युतकेश राणियों के समूहमें क्रीड़ा करतेथे वह राणी मनकी हरणहारी पुष्पादिकके चूटिनेमें घासत है जिनके पल्लव समान कोमल सुगंध हस्त मुखकी सुगंधसे भ्रमर जिनपर भूमेहें क्रीड़ाके समय गणी श्रीचन्द्राके कच एक बानरने नखोंसे विदारे तब राणी खेदखिन्न भई रुधिर श्राय गया राजान राणीको दिलासा देय कर अज्ञान भावसे बानरको बाणसे बांधा बानर घायल होय एक गगनचारण महा मुनिके पास जाय पड़ा वे दयालु बानर को कांपता देख दयाकर पंच नमोकार मन्त्र देते भए सो बानर मरकर उदधि कुमार जातिका भवन बासी देव उपजा यहां बनमें वानरके मरण पीछे राजाके लोक और बानरों | को मार रहेथे सो उदधिकुमारने अवघिसे बिचारकर बानरोंको मरते जानमायामई वानरोंकी सेनाबनाई।
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|| यह बानर ऐसे बने जिनकी दाढ़ विकराल बदन बिकराल भोंह बिकराल सिंदूर सारिखालाल मुखसों पुराण | डराने शब्दको करते हुवे प्राय कैएक हाथमें पर्वत घरे कैएक मूलसे उपारे वृक्षोंको घरे कैएक हाथसे धरती
को कूटते हुवे कईएक अाकाशमें उछलते हुवे क्रोधके भारकर रोद्रहै अंग जिनका उन्होंने राजा को घेरा कहते भए अरे दुराचारी सम्हार तेरी मृत्यु आईहै तू बानरोंको मारकर अब किसकी शरमा जायगा तब विद्युतकेश डरा और जाना कि यह बानरोंका बल नाहीं देवमाया है तब देहकी श्राशा छोड़ महामिष्ट वाणी करके विनती करता भया कि महाराज आज्ञा करो आप कौन हो महादेदीप्यमान प्रचंड शरीर जिनके यह वानरोंकी शक्ति नाही अाप देव हैं तब राजाको अति विनयवान देख महादधि कुमार बोले । हे राजा । बानर पशु जाति जिनका स्वभावही चंचल है उनको तैने स्त्रीके अपराध से हते सो मैं साधुके प्रसादसे देव भया मेरी विभूति तू देख, राजा कांपने लगा हृदय विषय भय उपजा रोमांच होय अाए तब महादधि कुमारने कही तू मत डर तब इसने कहा कि जो आप अाज्ञा करो सो करूं । तब देव इसको गुरुके निकट ले गया यह देव और राजा यह दोनों मुनिकी प्रदक्षिणा देय नमस्कार कर जाय वैठे । देवने मुनिसे कही कि मैं बानर था सो अापके प्रसादसे देवता भया और राजा विद्युतकेशने मुनिसों पूछा कि मुझे क्या कर्तव्यहै मेरा कल्याण किस तरह होय । तब मुनि चार ज्ञानके धारक तपोधन कहते भए कि हमारे गुरु निकटही हैं उनके समीप चलो अनादि काल का यही धर्म है कि गुरुओं के निकट जाय धर्म सुनिये श्राचार्य के होते सन्ते जो उनके निकट न जाय और शिष्यही धर्मोपदेश देय तो वह शिष्य नहीं कुमार्गी है आचारसे भूष्ट है ऐसा तपोधनने
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पुराण
पटकहा तब देव और विद्याधरचित्तमें चितवते भगे कि ऐसे महा पुरुष हैं वे भी गुरु आज्ञा बिना उपदेश
नहीं करे हैं अहो तपका महातम्य अति अधिक है । मुनिकी आज्ञासे वह देव और विद्याधर मुनि के लार मुनिके गुरुपै गये वहां जायकर तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर गुरुके निकट बैठे महा मुनि की मूर्ति देख देव और विद्याधर श्राश्चर्यको प्राप्त भये महा मुनि की मूर्ति तपकी राशिकर उपजी जो दीप्ति उसकर देदीप्यमान है देखकर नेत्र कमल फूल गये महा विनयवान होय देव और विद्याधर धर्म का स्वरूप पूछते भये ॥ ___मुनि जिनका मन प्राणियों के हितमें सावधान है और गगादिक जो संसारके कारण हैं उनके प्रसंगसे दूरहैं जैसे मेघ गंभीर ध्वानकर गर्जे और बरसे तैसे महा गंभीर ध्वनिसे जगतके कल्याणके निमित्त परमधर्म रूप अमृत बरसात भये जब मुनि व्याख्यान करने लगे तब मेघ जैसा नाद जान लताओंके मंडपमें जो मयुर तिष्ठेथे वे नृत्य करते भये मुनि कहते भये अहो देव विद्याधरो तुम चित्त लगाय सुनो तीन भवनको आनन्द करणहारे श्रीजिनराजने जो धर्मका स्वरूप कहाहै सो मैं तुमको कहूंहूं केएक जो प्राणी नीच बुद्धिहैं विचार रहित जड चित्तहें वे अधर्मही को धर्म जान सेवतेहैं जो मार्गको न जाने सो घने कालमें भी मन बांछित स्थानकको न पहुंचे मन्दमति मिथ्या दृष्टि विषया भिलाषी जीव हिंसासे उपजा जो अधर्म उसको धर्म जान सेवेहें वे नरक निगोदके दुःख भागे हैं जे अज्ञानी खोटे दृष्टान्तोंके समूहसे भरे महापापकेपुंज मिथ्या ग्रन्थोंके अर्थ तिनकर धर्म जान प्राण घात करे हैं वे अनंत संसार भूमणकरे हैं जो अधर्म चर्चा करके वृथा बकवाद करे हैं ते दंडोंसे श्रा
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‘पन काशको कूटे है सो कैसे कूटा जाय जो कदाचित् मिथ्या दृष्टियों के कायक्लेशादि तप होय और Hd शब्द ज्ञान भी होय तो भी मुक्ति का कारण नहीं सम्यक दर्शन बिना जो जान पना है सो ज्ञान
नहीं है और जो भाचारण है सो कुचारित्र है मिथ्या दृष्टियोंका जो तप ब्रत है सो पाषाण बराबर है और ज्ञानी पुरुषों के जो तप ब्रत हैं सो वैडूर्य माणसमान हैं धर्मका मूल जीव दया है और दयाका मूल कोमल परिणाम है कोमल परिणाम दुष्टों के कैसे होय और परिग्रह धारी पुरुषों को प्रारम्भ करनेसे हिंसा अश्वय होय है इस लिये दयाके निमित्त परिग्रहका प्रारम्भ तजना चाहिये तथा सत्य बचन धर्म है परन्तु जिस सत्यसे पर जविको पीडा होय सो सत्य नहीं झूठही है और चोरी का त्याग करना परनारी तजनी परिग्रह का प्रमाण करना सन्तोष व्रत धरना इंद्रियों के विषय निवारने कषाय चीण करने देव गुरु धर्मका बिनय करना निरन्तर ज्ञानका उपयोग राखना यह सम्यक दृष्टि श्रावकों के व्रत तुझे कहे अबघरके त्यागी मुनियों के धर्म सनो सर्व प्रारंभ का परित्याग दश लक्षण धर्मका धारण सम्यक दर्शन कर युक्त महा ज्ञान वैराग्य रूप यतीका मार्ग है महा मुनि पंच महाव्रत रूप हाथीके कांधे चढ़े हैं और तीन गुप्ति रूप दृढ़वकतर पहरेहैं और पांच मुमति रूप पवादों से संयुक्त हैं नाना प्रकार तपरूप तीक्ष्ण शस्त्रों से मंडित हैं और चित्तके अानन्द करण हारे हैं ऐसे दिगम्बर मुनिराज काल रूप वैरीको जीता वह काल रूप बैरी मोह रूप मस्त हाथी पर चढ़ा है और कषाय रूप सामन्तों से मंडित है यतीका धर्म परमनिर्वाणका कारण है महामंगल रूप है उत्तम पुरुषों के सेवने योग्य है और श्रावक का धर्म तो साचात् स्वर्ग का कारण है और
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पुराण 191
परम्पराय मोक्ष का कारण है स्वर्ग में देवों के समूह के मध्य तिष्ठता मन बांछित इन्द्रियोंके सुखको भोगे है और मुनि के धर्म से कर्म काट मोक्ष के अतेन्द्रिय सुखको पावे है अतेन्द्रिय सुख सर्व बाधा रहित अनुपम है जिसका अन्त नहीं, अविनाशी है और श्रावकके व्रतसे स्वर्ग जाय तहांसे चय मनुष्य होय मुनिराज के व्रत घर परमपदको पावै है और मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित तपकर स्वर्ग जाय तो चयकर एकेन्द्रि यादिक योनि के विषे आय प्राप्त होय है अनन्त संसार भ्रमण कर है इसलिये जैनही परम धर्म है और जैनही परम तपहै जैनही उत्कृष्ट मत है जिनराज के वचनही सार हैं जिनशासन के मार्गसे जो जीव मोक्ष प्राप्त होनेको उद्यमीहुवा उसको जो भव धरने पड़ें तो देव विद्याधर राजाके भव तो बिना चाहे सहजही होय हैं जैसे खेती के करनहारेका उद्यम धान्य उपजानेकाहै घास कबाड़ पराल इत्यादि सहज ही होय हैं और जैसे कोऊ पुरुष नगर को चला उसको मार्ग में वृक्षादिक का संगम खेदका निवारण है तैसे शिवपुरी को उद्यमी भये जे महामुनि तिनको इन्द्रादिक पद शुभोपयोग के कारणसे होय हैं मुनि का मन तिनमें नहीं शुद्धोपयोग के प्रभावसे सिद्धि होनेका उपाय है और श्रावक और जैनके धर्म से जो विपरीत मार्ग है सा अधर्म जानना जिससे यह जीव नाना प्रकार कुगति में दुःख भोगे है तियंच योनिमें मारण ताड़ण छेदन भेदन शीत ऊष्ण भूख प्यास इत्यादि नाना प्रकारके दुःख भोगे है और सदा अन्धकार से भरे नरक अत्यन्त उषण अत्यंत शीत महा विकराल पवन जहां अग्निके कण बरसै हैं नाना प्रकार के भयङ्कर शब्द जहां नारकियों को पानी में पेले हैं करोतें से चीरे हैं जहां भयकारी शाल्मली वृक्षोंके पत्र चक्र खड़ग सेल समान हैं उनसे तिनकेतन खण्ड खण्ड होयहैं। जहां तांधाशीशा गालकर
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पद्य चुराण
मदरा के पीवनहारे पापियों को प्यावें हैं और मास भक्षियोंको तिनही के मांस काट काट उनके मुख | में देवे हैं और लोह के तप्त गोले सिण्डासी से मुख फाड़ फाड़ जोरावरी से मुख में देवें हैं और पर दारा सङ्गम करनहारे पापियों को ताती लोहे की पुतलियों से चिपटावे हैं जहां मायामई सिंह, ब्याधू, स्याल इत्यादि अनेक प्रकार बाधा करें हैं और जहाँ मायामयी दुष्ट पक्षी तीक्षण चोंच से चूटें हैं नारकी सागरों की आयु पर्यंत नाना प्रकार के दुःख त्रास मार भोग हैं मारते मर नाही आयु पूर्ण: करही मरें हैं परस्पर अनेक बाधा करें हैं और जहां मायामयी मक्षिका और मायामई कृमि सूई समान तीक्ष्ण मुख से हैं यह सर्व मायामयी जानने और पशु पक्षी तथा विकल तहां नाहीं नारकी जीव ही हैं तथा पंच प्रकारके स्थावर सर्वत्रही हैं नरक में जो दुःख जीव भोगे हैं उसके कहिनेको कौन समर्थ है तुम दोऊ कुगति में बहुत भ्रमेहो ऐसा मुनि ने कहा तब यह दोऊ अपना पूर्व भव पूछते भये संयमी मुनि कहे हैं कि तुम मन लगाकर सुनो यह दुःखदाई संसार इसमें तुम मोह से उन्मत्त होकर परस्पर दोष धरते आपस में मरण मारण करते अनेक योनि में प्राप्त भए तिन में एकतो कोशी नामा देश पोरधी भया दूजा श्रावस्ती नामा नगरी में राजाका सूर्यदत्त नामा मन्त्री भया सो ग्रह त्यागकर मुनि भया, महा तपकर युक्त अति रूपवान पृथिवी में विहार करै एक दिन काशी के बनमें जोव जंतु रहित पवित्र स्थानक में मुनि विराजे थे और श्रावक श्राविका अनेक दर्शनको श्रावते थे सो वह पापी पारधी मुनिको देख तीक्षण बचनरूप शस्त्र से मुनिको बींधता भया यह विचारकर कि यह निर्लज्ज मार्ग भष्ट स्नान रहित मलीन मुझको शिकार में जानेको अमंगलरूप भयाहै यह वचन पारधीनेकहे तब मुनिको ।
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पद्म ध्यान का विघ्न करणहारा संक्लेश भाव उपजा फिर मनमें विचारी कि मैं मुनि हूं मुझे उचित नाहीं । पुराण कि असा क्रोधकरूं कि एक मुष्टि प्रहारकर इस पापी पारधीको चूर्णकर डारूं मुनिके अष्टम स्वर्ग जायबेका
पुण्य उपजा था सो कषाय के योग से क्षीण पुण्य होय मरकर ज्योतिषी देवभयो तहांसे चयकर तू विद्युत्केश विद्याधर भया और वह पारधी बहुत संसार भूमण कर लंका के प्रमद नामा उद्यानमें वानर भया सो तुमने स्त्री के अर्थ बाण कर मारा सो बहुत अयोग्य किया पशुका अपराध सामंतोंको लेना योग्य नाहीं वह बानर नवकार मन्त्रके प्रभाव से उदधिकुमार देव भया, ऐसा जानकर हे विद्याधरो तुम बैरका त्याग करो जिससे इस संसार में तुम्हारा भ्रमण होय रहाहै जो तुम सिद्धोंके सुख चाहो हो तो राग टेप मत करो सिद्धों के सुखों का मनुष्य और देवों से बरणन न होसके अनन्त अपार सुख है जो तुम मोनाभिलापीहो और भले आचार कर युक्तहो तो श्रीमुनि सुव्रतनाथकी शरण लेवो परम भक्तिसे यक्त इन्द्रादिक देवभी तिनको नमस्कार करे हैं इन्द्र अहमिंद्र लोकपाल सर्व उनके दासों के दासहें वे त्रिलोक । नाथ तिनकी तुम शरण लेय कर परम कल्याण को प्राप्त होवोगे वे भगवान ईश्वर कहिये समर्थ हैं सर्व अर्थ पूर्ण हैं कृत कृत्य हैं यह जो मुनिके वचन वेई भये सूर्यकी किरण तिनकर विद्युतकेश विद्याधरका मन कमलवत् फूलगया सुकेश नामा पुत्रको राज्य देय मुनि के शिष्य भए राजा महाधीर हैं सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्रका अाराधन कर उत्तम देव भए किंहकुपुर के स्वामी राजा महोदधि विद्याधर बानर बंशीयों के अधिपति चन्द्रकांत मणियों के महल ऊपर विराजे हुते अमृतरूप सुन्दर चर्चाकर इन्द्र समान । सुख भोगते थे तिनपै एक विद्याधर श्वेत वस्त्र पहरे शीघ जाय नमस्कार कर कहता भया कि हे प्रभो ।
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य
॥१००n
राजा विद्युत्केश मुनि होय स्वर्ग सिधारे यह सुनकर राजा महोदधि ने भी भोग भाव से विरक्त होय जैन दीक्षा में बुद्धि परी और ये वचन कहे कि मेंभी तपोवन को जाऊंगा, ये वचन सुनकर राजलोक मन्दिर में विलाप करते भये सो विलापकर महल गुंजिउठा उन राजलोकों को शब्द वीण बांसुरी मृदंग की ध्वनि समान है और युवराजभी आयकर राजा से वीनती करते भये कि राजा विदुतकेशका और अपना एक व्यवहार है राजाने बालक पुत्र सुकेशको राज जो दीया है सो तिहारे भरोसे दियाहे सुकेश के राज्यकी दृढ़ता तुमको राखनी उचित है जैसा उनका पुत्र तैसा तिहारा इसलिये कैएक दिन आप बैराग्य न घारें आप नव योबन हो इन्द्र कैसे भोगों से यह निकंटक राज्य भोगो इस भांति युवराज ने बीनती करी और अश्रुपातकी वर्षा करी तौभी राजाके मनमें न आई और मन्त्री महा नयके वेतानेभी
अति दीनहोय बीनती करी कि हे नाथ हम अनाथहैं जैसे बेल वृक्षों से लगरहै तैसे तुम्हारे चरणसे लगि रहे हैंतुम्हारेमनमें हमारामन तिष्ठे है सो हमको छोड़िकर जाना योग्य नहीं इस भान्ति बहुत बीनती करी तौभी राजा ने न मानी और राणीमे बहुत वीनती करी चरणों में लोटगई वहुत अश्रुपातडारे राणी गुण के समहसे राजाकी प्यारीथी सो विरक्त भावसे राजाने नीरस देखी तब राणी कह है कि हे नाथ हम तुम्हार गुणोंकर बहुत दिनकी बंधी और तुमने हमको बहुत लड़ाई महालक्षमी समान हमको राखी अब स्नेह पाश तोड़ कहां जावोहो इत्यादिअनेक वातकरी सो राजाने चित्तमें न घरी और राजाक बड़े २ सामंतोंनेभी वीनती करी कि हे देव इस नवयौवनमें राज छोड़ कहां जावो सर्बकों मोहसे तजा इत्यादि अनेक स्नेह के वचन कहे राजाने किसीकी न सुनी स्नेह पाश तोड़ सर्व परिग्रहकात्यागकर प्रतिचंद्र पुत्रको राज्य देय श्राप
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पुराख
पा अपने शरीरसे भी उदास होय दिगंबरी दीक्षा श्रादरी राजा पूर्ण बुद्धिवान महा धीरवीर पृथ्वी पर । ॥१०९० चन्द्रमा समान उज्ज्वल है कीर्ति जिसकी ध्यान रूप गजपर चढ़करतपरूपीतीक्ष्णशस्त्र से कर्म
रूप शत्रु को काट सिद्ध पदको प्राप्त भए प्रति चन्द्र भी केएक दिन राज कर अपने पुत्र किहकंघ को राज्य देय और छोटे पुत्र अधिक रूढ़ को युवराज पद देय श्राप दिगम्बर होय शुक्ल ध्यान के प्रभाव से शिवस्थान को प्राप्त भए ।
राजा किहकन्ध और अधिक रूढ़ दोऊ भाई चांद मूर्य समान औरोंके तेजको दाबकर पृथ्वी पर प्रकाश करते भये उस समय विजिया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें रत्नपुर नामा नगर सुरपुर समान वहां राजा अशनिवेग महा पगक्रमी दोऊ श्रेणीके स्वामी जिनकी कीर्ति सबके मनको हरनहारी उनके पुत्र विजयसिंह महारूपवानथे आदित्यपुरके राजा विद्या मन्दिर विद्याधर उसकी राणी वेगवती उसकी पुत्री श्रीमाला उसके विवाह निमित्त जो स्वयंवर मंडप रचाथा और अनेक विद्याधर पाएथे वहां प्रशनिवेगके पुत्र विजयसिंह भी पधारे श्रीमाला की कांतिसे श्राकाशमें प्रकाश होय रहा है, सकल विद्याधर सिंहासनोंपर बैठे हैं बड़े २ राजाओंके कुंवर थोड़े २ साथसे तिठे हैं सबकी दृष्टि नील कमलों की पंक्तिकी समान श्रीमालाके ऊपर पड़े श्रीमालाको किसीसे भी रागद्वेष नहीं मध्यस्थ परिणाम है वे विद्याधर कुमार मदनसे तप्त हैं चित्त जिनका अनेक सविकार चेष्टा करते भए कैएक तो माथेका मुकट निकंपथातोभी उसकोसुन्दर हाथोंसे ठीक करते भए कैएक खंजरपासवराथातोभी करके || अप्रभागसे हिलावते भए कटाचकर करीहे दृष्टि जिन्होंने और कैएकके किनारे मनुष्य चमर ढोरते |
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पा
॥१०२॥
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भए और वीजना करते हुवे तौभी लीला सहित महा सुन्दर रूप रूमाल से अपने मुखको क्यार करते भये और कैक वामेचरणपर दाहिना पांव मेलते भये राजाओं के पुत्र सुन्दर रूपवान हैं नवयौवन हैं कामकला में निपुण हैं दृष्टि तो कन्याकी भोर और पगके अंगुष्टसे सिंहासनपर कछू लिखते भये और एक महामणियों के समूहसे युक्त जो सूत्र कटिमें गाढ़ा बंधाही या तौभी उसे संवार गाढ़ा बांधते भये और एक चंचल हैं नेत्र जिनके निकटवर्तीयोंसे कोल कथा करते भए कै एक अपने सुंदर कुटिल केशोंको संभारते भए कैएक जापर भ्रमर गुंजार करे हैं ऐसे कमलको दाहिने हाथ से फिरावते भए मकरन्दकी रजविस्तारते भए इत्यादि अनेक चेष्टा राजाभोंके पुत्र स्वयम्बर मंडप में करते भए स्वयम्बर मंडप में बीन बांसुरी मृदंग नगारे इत्यादि अनेक बाजे बज रहे हैं और अनेक मंगलाचरण होय रहेहै बन्दीजनों के समूह सत्पुरुषों के अनेक चरित्र वरणन करे हैं उस स्वयम्बर मंडप सुमंगलानामा धाय जिसके एक हाथ में स्वर्ण की छड़ी एक हाथमें बेंतकी छड़ी कन्याको हाथ जोड महा विनय कर कहती भई कन्या नाना प्रकार के मा भूषणों कर सचात् कल्पवेल समान है है पुत्री यह मार्तंडकुण्डल नामा कुंवर नभष्तिलक के राजा चन्द्र कुण्डल राणी विमला तिनका पुत्र है अपनी कांति से सूर्य का भी जीतने हारा अति रमणीक है और गुणों का मण्डन है इसके सहित रमणे की इच्छा है तो इसको बर यह शस्त्र शास्त्रमें निपुण है तब यह कन्या इसको देख यौवनसे कछु इक चिगा जान आगे चली फिर धाय बोलीहे कन्या यह रनपुर के राजा विद्यांग राणी लक्ष्मी तिनका पुत्र विद्या समुद्र घात नामा बहुत विद्याधरोंका अधिपति इसका नाम सुन बैरी
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पद्म
ऐसा कांपे जैसे पीपलका पत्र पवनसे कांपे महा मनोहर हारोंसे युक्त इसका सुन्दर वक्षस्थल जिस पुराण में लक्ष्मी निवास करे है तेरी इच्छा होय तो इसका बर तब इसको सरल दृष्टि कर देख आगे चली
।। १०३ ॥
फिर वह धाय जो कन्या के अभिप्रायके जाननेहारी है बोली हे सुते यह इन्द्र सारिखा राजा बज्रशील का कुंवर खेचरभानु बज्रपंजर नगरका अधिपति है इसकी दोऊ भुजाओं में राज्य लक्ष्मी चंचल है तो निश्चल तिष्ठे है इसे देखकर और विद्याधर श्राज्ञा समान भासे हैं यह सूर्य समान भासे हैं एक तो मानकर इसका माथा ऊंचा है ही और रत्नोंके मुकटसे अतिही शोभे है तेरी इच्छा है तो इसके कंडमें माला डार तब यह कन्या कुमुदनी समान खेचरभानुको देख सकुच गई आगे चली तब धाय बोली हे कुमारी यह राजा चन्द्रानन चन्द्रपुरका घनी राजाचित्रांगद राणी पद्मश्रीका पुत्र इस का बक्षस्थल महा सुन्दर चंदनसे चर्चित जैसे कैलाशका तट चन्द्रकिरण से शोभ तैसे शोभ है उछले है किरणों के समूह जिसके ऐसा मोतियोंका हार इसके उरमें शोभे है जैसे कैलाश पर्वत उछलते हुवेनी झरनों के समूह से शोभ है इसके नामके अरसे वैरियोंका मन परम आनन्दको प्राप्त होय है और दुख आताप करि रहित होय है धाय श्रमाला से कहे है हे सौम्यदर्शन कहिये सुखकारी है दर्शन जिस जिसका ऐसा जो तू तेरा चित्त इसमें प्रसन्न होय तो जैसे रात्रि चन्द्रमासे संयुक्त होय प्रकाश करे है तैसे इसके संगमकर प्रल्हाद को प्राप्त हो तब इसमें इसका मन प्रीतिको न प्राप्त भया जैसे चंद्रमा नेत्रों को आनन्दकारी है तथापि कमलों को उस में प्रसन्नता नहीं फिर धाय बोली हे कन्या मन्दर कुंज नगरका स्वामी राजा मेरुकांत राणी श्रीरंभा का पुत्र पुरंदर मानों पृथ्वी पर इन्द्र ही अवतारा
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Rom
पन | हे मेघ समान है ध्वनि जिसकी और संग्राममें जिसकी दृष्टि शत्रुमोंके सहारणेको समर्थ नहीं तो।
ताके बाण की चोंट कौन सहारे देव भी यासों युद्ध करणको समर्थ नहीं तो मनुष्योंकी तो क्या बात श्रति उन्नत इसका सिर सो तू पायनपर डार ऐसा कहा तोभी वह इसके मनमें न आया क्योंकि चितकी प्रवृति विचित्र है फिर धाय कहती भई हे पुत्री नाकार्धपुर का रक्षक राजा मनोजव राणी वेगिनी तिनका पुत्र महावल सभा रूप सरोवर में कमल समान फूल रहा है इसके गुण बहुत हैं गिनने में भावें नहीं यह ऐसा बलवान है जो अपनी भौंह टेढ़ी करणेसे ही पृथ्वी मंडल को वश कर है और विद्या बलसे अाकाश में नगर बसावे भोर सर्व ग्रह नक्षत्रादिक को पृथ्वी तलपर दिखावे चाहे तो एक लोक नवा और बसाय इच्छा करे तो सूर्य को चन्द्रमा समान शीतल कर पर्वतको चूर करडारे पवनको थांभे जलका स्थलकरडारेस्थलका जलकर डारे इत्यादि इसके विद्याबल वर्णन किये तथापि इसका मन इसमें अनुरागी न भया और भी अनेक विद्याधर धायने दिखाए सो कन्याने दृष्टि में न घरे तिनको उलंघि आगे चली जैसे चन्द्रमाकी किरण पर्वतको उघंले वह पर्वत श्याम होय जांय तैसे जिन विद्याधरोंको उलंघ यह अागे गई तिनका मुख श्याम हो गया सब विद्याधरों को उलंघ कर इसकी दृष्टि किहकंध कुमार पर गई ताके कंठमें बरमाला डारी तब विजयसिंह विद्याधरकी दृष्टि क्रोध भरी किहकंध और अंधक दोऊ भाइयों पर पड़ी विजयसिंह विद्याबल से गर्वितहै सोकिहकंध
और अंध्रकको कहता भया कि यह विद्याधरोंका समाज तहां तुम बानर किस लिये श्राए विरूपहै दर्शन तुम्हारा क्षुद्र कहिये तुच्छ हो विनय रहित हो इस अस्थानक में फलों से नमभूत जे वृक्ष उनसे
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पुराल
संयुक्त कोई रमणीक बन नहीं और गिरियोंकी सुन्दर गुफा नीझरणों की धरणहारी जहां बानरोंके समूह | क्रीड़ा करें सो नहीं, लाल मुखके वानरों तुमको यहां किसने बुलाया जो नीच तुम्हारे बुलावनेको गया उसका निपात करूं, अपने चाकरों को कही इनको यहां से निकाल देवो यह वृथाही विद्याधर कहावें हैं, यह शब्द सुनकर किहकन्ध अंधक दोनों भाई वानरध्वज महा क्रोध को प्राप्त भए जैसे हाथियों पर सिंह कोप करे, और इनकी समस्त सेनाके लोक अपने स्वामियों का अपवाद सुन विशेष क्रोधको प्राप्त भए कैयक सामन्त अपने दहिने हाथ से चावी भुजाको स्पर्श करतेभये पोर कैयक क्रोधके आवेश से लाल भए हैं नेत्र जिनके सो मानों प्रलयकालके उल्कापातही हैं मह्य कोपको प्राप्तभए कैयक पृथिवीविषे हृदः बांधी है जड़ जिनकी ऐसे कृत्यों को उखास्ते भए. वृक्ष फल और पल्लवको धारे हैं कैयक थंभ उखाहुने भयो और कैयक सामन्तों के अगले घाव भी क्रोध से फट गए तिनमें से रुधिर की धारा निकसती भई मामों उत्पात के मेघही बरसे हैं कैएक माजते. भए: सो दशों दिशा शब्दकर पूरित भई और कैयक योधा सिरके केश विकरालतेभए, मानों सत्रिही होय गई, इत्यादि अपूर्व चेयवोंसे बानरवंशी विद्याधरों कीसेमा समस्त विद्याधरोंके मारनेको उद्यमी भईहाथियोंसे हाथी घोड़ेसे घोड़े स्थोंसे रथ युद्धकरतेभये दोनों सेनामें महायुद्धप्रवरता, आकाशमें देवः कौतुक देखतेभये यह युद्धकी वार्ता सुनकर राक्षसवंशी विद्याधरोंके अधिपतिराजा सुकेश लंका के धनी वानरसंशियोंकी सहायताको पाए, राजासुकेश किहकन्ध और अन्धक
के परम मित्रमानों इनके ममोस्व पूर्णकस्ने कोही पाए हैं. जैसेभरतचक्रवर्ती के समय राजा अकम्पन | की पुत्री सुलोचमा के निमित्त अति जनामार का युद्ध भयातैसा यह यद्ध हुषा, यह स्त्रीही युद्ध
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॥१०६
का मूलकारणहे विजयसिंहके और राक्षसवंशी बानवंशियोंके महायुद्धभया उससमय किहकन्धको कन्या लेगया और छोटे भाई अन्धक ने खड्ग से विजयसिंह का सिर काटा एक विजयसिंह के बिना उसकी सर्व सेना बिखरगई जैसे एक आत्मा बिना सर्व इन्द्रियों के समूह विघटित जांहि, तब राजा अशनिवेग विजयसिंह का पिता अपने पुत्रका मरण सुनकर मूर्खाको प्राप्त भया अपनी स्त्रियों के नेत्र के जल से सींचा है वक्षस्थल जिसका सो घनी बेर में मूळ से प्रबोधको प्राप्त भया पुत्र के बरसे शत्रुओंपर भया. नक आकार किया उस समय उसका आकार लोक देख न सके मानों प्रलयकाल के उत्पात का सूर्य उसके आकार को धरे है सर्व विद्याघरों को लार लेजाकर किहकन्धपुरकोघेरा।। नगरको घेरा जान दोनों भाइ बानरध्वज सुकेश सहित अशनिवेगसे युद्ध करनेको निकसे परस्पर महा युद्ध भया गदाओंसे शक्तियों से बाणों से पानों से सेलोंसे षड़गों से महा युद्ध भया तहां पुत्र के बधसे उपजी जो क्रोधरूप अग्नि की ज्वाला उससे प्रज्वलित जो अशनिवेग सो अन्धकके सनमुख भया तब बड़े भाई किहकन्धने बिचारी कि मेरा भाई अन्धक तो नव योवन है और यह पापी अशनिवेग महा बलवान है सो मैं भाई की मददकरूं तब किहकन्ध आया और अशनिवेग का पुत्र विदयुद्धाहन किहकन्धके सन्मुख आया सो किहकन्ध के और विद्युद्धाहन के महायुद्ध प्रवरता उस समय अशनिबेगने अन्धकको मारा सो अन्धक पृथिवी पर पड़ा जैसा प्रभातका चन्द्रमा कांति रहित होय तैसा अन्धक को शरीर कांति रहित होयगया
और किहकन्धने वियद्वाहनके वक्षस्थल पर शिलाचलाई सो वह मच्छित होय गिरा पुनः सचेत होय | उसने वही शिला किहकन्ध पर चलाई सो किहकन्ध मूळ खाय घूमने लगा सो लंकाक धनी ने सचेत
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पद्म किया और किहकन्ध को किहकुम्पुर ले आए तब किहकन्ध ने दृष्टि उघाड़ देखा तो भाई नहीं तब निकट
वर्तीयों को पूछने लगा मेरा भाई कहां है तब लोक नीचे होयरहे और राजलोक में अन्धक के मरणे ॥१०१
का विलापहुवा सो विलाप सुन किहकन्धभी विलाप करने लगा शोकरूप अग्नि से तप्तायमान हुवा है मन जिसका बहुत देर तक भाई के गुणका चितवन करतासंता शोक रूप समुद्र में मग्न भया हाय भाई मेरे होते संते तू मरण को प्राप्तभया मेरीदक्षिणभुजा भंगभई जो में एकक्षण तुझे न देखताथा तो महाब्याकुल होता था सो अब तुमविनप्राणको कैसे राखंगा अथवा मेरा चित्त वज्रका है जो तेरा मरण सुनकर भी शरीर को नहीं तजे है हे बाल तेरा वह मुलकना और छोटी अवस्थामें महावीर चेष्टा चितार चितार मुझको महा दुःख उपजे है इत्यादि महा विलापकर भाइ के स्नेहसे किहकन्ध खेद खिन्न भया तब लंकाके धनी सुकेशने तथा और बड़े२ पुरुषोंने किहकन्धको बहुतसमझाया कि धीर पुरुषोंको यह रंज चेष्टा योग्य नहीं यह क्षत्रियों का बीरकुल है सो महा साहस रूप है और इस शोक को पण्डितों ने बड़ा पिशाच कहा है कर्मों के उदय से भाइयोंका वियोग होय है यह शोक निरर्थक है यदि शोक कीए फिर
आगम होय तो शोक करिये यह शोक शरीर को शोखे है और पापोंका बन्ध करे है महा मोहका मूल है इसलिये इस बैरी शोक को तजकर प्रसन्न होय कार्य में बुद्धि धारो यह शनिवेग विद्याधर अति प्रल वैरी है अपना पीछा छोड़ता नहीं नाशका उपाय चितवे है इसलिये अब जो कर्तव्य होय सो विचारो वैरी बलवान होय तब प्रछन्न (गुप्त ) स्थान में कालक्षेप करिये तो शत्रुसे अपमानको नपाइये फिर केएक दिन में वैरी का बल घटे तब वैरी को दवाइये विमति सदा एक और नहीं रही है अपनी पाताल
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पद्म
१९०८ ॥
लंका जो बड़ों से व्यासरे की लगा है सो कुछ काल वहां रहिये जा अपने कुलमें बड़े हैं ये स्थानक की बहुत प्रशंसा करें हैं जिसको देखे स्वर्गलोक में सी मन न लगे है इसलिये उठो वह जगा वैगियों से अगम्य है इस भांति राजा किहकन्ध को राजा सुकेशी ने बहुत समझाया तोभी शोक न बाड़े, तब राणी श्रीमाला को दिखाई सो उसके देखने से शोक निवृत्त भया तब राजा सुकेशी और किहकन्ध समस्त परिवार सहित पाताल लंकाको चले और शनिवेगक्ता पुत्र विद्युद्वाहन इनके पीछे लगा अपने भाई विजयसिंह के बैर से महा क्रोधवन्त शत्रु के समूल नाश करनेको उद्यमी भया तब नीति शास्त्र के पाठियों ने जो शुद्ध बुद्धिके पुरुष हैं समझाया कि क्षत्री भगे तो उसके पीछे न लगे और राजा अश निबेग ने भी विद्युद्वाहन सों कही कि अन्धूक ने तुम्हारा भाई हता सो तो मैं अन्धकको रथ में मारा इसलिये हे पुत्र इस उसे निवृत होबो दुःखी पर दगाही करनी उचित है जिस कायरने अपनी पीठ दिखाई सो जीवही मृतक है उसका पीछा क्या करना, इस भांति प्रशनिवेग ने विद्युद्वाहन को समझाया, इतनेमें राक्षसवंशा और वानरवंशी पाताल लंका जाय पहुंचे नगर स्त्नों के प्रकाश से शोभायमान है वहां शोक और हर्ष धरते दोऊ निर्भयर हैं एक समय प्रशनित्रेम शरद में मेघपटल देख और उनको विलय होते देख विषियों से विरक्तभए चितविषे विचारा यह राज सम्पदा क्षणभंगुर है मनुष्य जन्म अतिदुर्लभ है सो मैं मुनित्रत घर अन्तिम कल्याण करूं ऐसा विचार सहस्रारि पुत्रको राज देय ध्याप विद्युद्वाहन सहित मुनि भए और लंका विषे पहले शनिवेगने निर्घातनामा विद्याधस्थाने राखाथा सो अब सहस्रारिकी आज्ञा प्रमाण लंका विषे थाने रहे एक समय निर्धात दिग्विजयको निकसा सो सम्पूर्ण राक्षसदीप
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॥१०॥
पद्म | में राक्षसों का संचार न देखा सबही घुसरहे हैं सो सिर्घल निर्भय लंकामें रहे एकसमय सजा किहकन्ध
राणी श्रीमाला सहित सुमेरुपर्वतसं दर्शन कर अाबेथा माममें दक्षिमा समुद्र के लटपर देवकुरु भोग भूमि समान पृथ्वीमें करनतटनामा बन देखा, देखकर प्रसन्न भए और श्रीमाला गणसे कहते भए राणीके सुंदर बचन वीणले स्वर समानहैं देवी तुप्न मह रमणीक बन देखो जहां वृक्ष फूलों से संयुक्त हैं निर्मल नदी बहेहैं और मेघके आकार समान धरणीमालि नामा पर्वत शोभे है पर्वत के शिावर ऊंचे हैं और कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल जल के नीझरने झरें हैं सो मानो यह पर्वत हंसे ही है और वृक्षोंकी शाखासे पुष्प पड़े हैं सो मानो हमको पुष्पांजली ही देवे हैं और पुष्पोंकी सुगंध से पूर्ण पक्नसे हालते जो वृत्त उनसे मानों यह बन हमको उठकर ताजीम ही करें है और वृक्ष बेलॉस वमीभूत होय रहे हैं सो मानो हमको नमस्कार ही करे हैं जैसे गमन करते पुरुषों को स्त्री अपने गुणोंसे मोहितकर आगे जाने न दे है खड़ा करे है तैसे यह बन और पर्वतकी शोभा हमको मोहितकर सखे है आगे जाने न देह में भी इस पर्वतको उलंघ अागे नहीं जाय सकू इस लिये यहां ही नगर बसाऊंगा जहां भूमिगोचरियोंका गमन नहीं पाताल लंकाकी जगह ऊंटी है वहां मेस मन खेद खिन्न भया है सो अब यहां रहिनेसे मन प्रसन्न होयमा इस भांति राणी श्रीमाला सो कहकर भाप पहाइसे उतरे वहां पहाड़ ऊपर स्वर्ग समान नगर बसाया नगरका किहधपुर नाम धरा वहां आप सर्व कुटख सहित निवास किया सजा किवलंघ सस्यक दर्शन संयुक्त है और भगवान जा में सावधानहै सो राजा किहकंधके राणी श्रीमाला के योगसे सर्वरज और रत्ताज दो पुत्र भए और | मूर्यकमला पुची भई जिसकी शोभासे सर्व विद्याधर मोहित हुए।
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पन्न पुराण ॥१९॥
_मेघपुरका राजा मेरु उसकी राणी मघा पुत्र मृगारिदमन उसने किहकंघकी पुत्री सूर्यकमला देखी सो ऐसा आसक्त भया कि रात दिवस चैन नहीं तब उसके अर्थ वाके कुटम्बके लोगोंने मूर्य | कमला याची सो राजा किहकंध ने राणी श्रीमाला से मन्त्रकर अपनी पुत्री मर्यकमला मृगारिदमनको परणाई सो परमाकर जावेथा मार्गमें कर्ण पर्वतमें वर्णकुण्डल नगर बसाया।
अलंकापुर कहिए पाताल लंका उसमें मुकेश राजा इन्द्राणी नामा राणी उसके तीन पुत्र भये माली मुमाली और माल्यवान बड़े ज्ञानी गुणही हैं आभूषण जिनके अपनी क्रीड़ाओंसे माता पिता का मन हरते भए देवों समान है क्रीडा तिनकी तीनों पुत्र बड़े भये महा बलवान सिद्ध भईहे सर्व विद्या जिनको एक दिन माता पिताने इनको कहा कि तुम क्रीड़ा करनेको किहकंधपुर की तरफ जावो तो दक्षणके समुद्रकी ओर मत जाओ तब ये नमस्कारकर माता पिताको कारण पूछत भए तब पिताने कही हे पुत्रो यह बात कहीवेकी नहीं तब पुत्रोंने बहुत हठकर पूछी तब पिताने कही कि लंकापुरी अपने कुल क्रमसे चलीग्रावे है श्री अजितनाथ स्वामी दूसरे तीर्थकरके समयसे लगाय कर अपना इस खंडमें रज है आगे अशनिवेग के और अपने युद्ध भया सो परस्पर बहुत मरे लंका अपनेसे छूटी अशनिवेगने निर्घात विद्याधर थाने राखा सो महा बलवान है और कूरहै ताने देश देशमें हलकारे राखे हैं और हमाराछिद्र हेरेहै यह पिताके दुखकी वार्ता सुनकर माली निश्वास नाखता भया और आंखों से आंसू निकसे क्रोधसे भर गया है चित्त जिसका अपनी भुजाओं का बल देखकर पितासों कहता भया कि हे तात एते दिनों तक यह बात हमसे क्यों न कही तुम ने
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पद्म पुराण ॥१११॥
स्नेहकर हमको ठगे जे शक्तिवंत हायेकर बिना काम किये निरर्थक गाजें हैं वह लोकमें लघुता को पावे हैं सो हमको निर्घातपर श्राज्ञा देवो हमारे यह प्रतिज्ञाहै लंकाको लेकर और काम करें तब माता पिताने महा धीर बीर जान इनको स्नेह दृष्टिसे आज्ञादी तब यह पाताल लंकासे ऐसे निकसे मानों पाताल लोकसे भवनबासी निकसे हैं बैरी ऊपर अति उत्साहसे चले तीनों भाई शस्त्र कला में महा प्रवीणहें समस्त राक्षसोंकी सेना इनके लार चली त्रिकुटावल पर्वत दूरसे देखा, देखकर जान लिया कि लंका नीचे बसेहै सो मानों लंका लेहीली मार्ग में निर्घातके कुटंबी जो दैत्य कहावें ऐसे विद्याधर मिले सो युद्ध करके बहुत मरे कैएक पायन परे कैएक स्थान छोड़ भाग गये कैएक बैरी कटक में शरण आए पृथ्वीम इनकी बड़ी कीर्ति विस्तरी निर्घात इनका आगमन सुन लंकासे बाहिर निकसा निर्घात युद्ध में महा शूर वीर है छत्रकी छायासे आच्छादित किया है सूर्य जिसने तब दोऊ सेना में महा युद्ध भया मायामई हाथियोंसे घोड़ोंसे विमानोंसे रथोंसे परस्पर युद्ध प्रवरता हाथियों के मद झरनसे श्राकाश जलरूप हो गया और हाथियोंके कान वह ही भए ताडके बीजने उनकी पवनसे आकाश मानो पवनरूप हो गया परस्पर शस्त्रों के घात से प्रगटी जो अग्नि उससे मानो श्राकाश अग्नि रूपही होगया इस भांति बहुन युद्ध भया तब मालीने विचारा कि दोनों के मारणे से क्या होय निर्घातही को मारिये यह विचार निर्यात पर श्राए ऐसे शब्द कहते भये कहां वह पापी निर्घात कहां वह पापी निर्यात है सो निर्घातको देखकर प्रथम तो तीक्ष्ण बाणोंसे रथसे नीचे डारा फेर वह उठा महा युद्ध किया तब मालीने खड्गसे निर्घातको मारा उसको मारा जानकर उसके वंशके
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पमा भागकर विजिया में अपने २ स्वामकको गये और केएक कायर होय मालीही की शरमा पाए
माती प्रादि तीनों भाइयोंने लंकामें प्रवेश किया संका महा मंगल रूपहै माता पिता आदि समस्त परिवार को लेकामें बुलाया फिर हेमपुरका राजा म विद्याधर गही भोगवती तिनकी पुत्री चन्द्रमती खो मासीने परणी चन्द्रमती मनकी शानन्द करबहारी है और प्रीतिकूट नगरका राजा श्रीतिकांत राशी प्रीतिमती सिसकी पुरी प्रीतिसंज्ञका सो मुमालीने परणी और कनकांत नगरका राजा कनक गणी कमश्री तिनकी पुत्री कनकावधी मा माल्यवान ने परगणा इनके यह पहली राणी भई और प्रत्येक हजार १ सणी कळु इक अक्कि होती भई माल ने अपने पराक्रमसे विजिया की दोऊ श्रेणी वश करी सर्व विद्याधर इनकी आशा आशीर्वाद की न्याई माथे चढ़ावते भए केएक दिनों में इनके पिता गजा मुकेश माली को राज देय महा मुनि भए और राजा किहकंध अपने पुत्र सूर्यरज को राज देश वैरामी भए के दोऊ परम मित्र राजा मुकेश और किहकव समस्त इंद्रियोंके मुखको स्वाभकर अनेक भयके पापोंडा हरणहारा जो जिनधर्म उसको पायकर सिद्ध स्थान के निवासी भए हे श्रेणिक इस भांति अनेक राजा प्रथम अवस्था में अनेक विलास कर फिर राज तजकर प्रात्म ध्यान के योग से सभस पालो को मस्य कर अविनाशी धामको पास भए ऐसा जानकर हे राजा मोहका नाश कर शांति दशा को पास हो।
स्थमूल नगर में राजा सहस्रार यज्य कर उसके सणी मानमुन्दरी रूप और गुणों में अति सुदर सो गर्भिणी भई अत्यन्त करा भया है शरीर जिसका शिथिल होय गये हैं म आभूषण जिस
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पद के तब मरतारने बहुत प्रादरसों पूछी कि हे प्रिये! तेरे अंग कासे क्षीण भएहैं तेरे क्या अभिलाषा
है जो अभिलाषा होय सो में अवारही समस्त पूर्ण करूं, हे देवी तू मेरे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी है इस भांति राजाने कही तब राणी बहुत बिनयकर पतिसे बिनती करती भई कि हे देव जिस दिन से बालक मेरे गर्भमें आयाहै उस दिनसे यह मेरी बांछोहै कि इंद्रकी सी संपदा भोगू सो मैंने लाज तज आपके अनुग्रहसे श्रापसों अपना मनोरथ कहाहै नातर स्त्रीकी लज्जाप्रधानहै सो मनकी बात कहिबेमें न श्रावे तब राजा सहस्त्रारने जो महा विद्यावलकर पूर्ण था तणमात्र में इसके मनोरथ पूर्ण किये तब यह सभी महा श्रानन्द रूप भई सर्व अभिलाषा पूर्ण भई अत्यन्त प्रताप और कांति को धरती भई सूर्य ऊपर होय निसरे वहभी उसका तेजान सहार सके सर्व दिशाओंके राजाओंपर श्राज्ञा चलाया चाहे नव महीने पूर्ण भए पुत्रका जन्म मया पुत्र समस्त बांधवोंको परम संपदाका कारण है तब राजा सहस्त्रारने हर्षित होय पुत्रके जन्मका महान उत्सव किया अनेक बाजोंके शब्दसे दशों दिशा शब्द रूप भई और अनेक स्त्री नृत्य करती भई राजाने याचकोंको इच्छा पूर्ण दान दिया ऐसा विचार न किया जो यह देना यह न देना सर्वही दिया हाथी गरजते हुए ऊंची मुंडसे नृत्य करते भए राजा सहसारने पुत्रका इन्द्र नाम धरा जिस दिन इन्द्रका जन्म भया उस दिन समस्त बेरियों के घमें अनेक उत्पात भए अपशकुन भए और भाइयोंके तथा मित्रोंके घरमें महा कल्याणके करन हारे शुम शकुन भए इन्द्र कुंवरका बालक्रीड़ा तरुण पुरुषों की शक्तिको जीतने हारी सुन्दर कर्मकी करणहारी बेरियाका गर्व छेदती भई अनुक्रमकर कुंवर यौवनको प्राप्त भया कुंवर अपने तेजकर
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पाख
१९४०
पद्म जीताहे सूर्यका तेज जिसने और कांतिसे जीताहै चन्द्रमा और स्थिरतासे र्जाताहै पर्वत और विस्तीर्ण
है वक्षस्थल जिसका दिग्गजके कुम्भस्थल समान ऊंचेहें कांधे जिसके और अति दृढ़ सुंदरहें भुजा दश दिशाकी दाबनहारी और दोऊ जंघा जिसकी महा मुन्दर यौवनरूप महलके थांभनेको थंभे समान होती भई विजियार्घ पर्वत विषे सर्व विद्याधर जिसने सेवक किये जो यह आज्ञा करे सो सर्व करें यह महा विद्याधर बलकर मंडित इसने अपने यहां सब इन्द्र कैसी रचना करी अपना महल इन्द्र के महल समान बनाया अड़तालीस हजार विवाह किये पटरानी का नाम शची घरा छबीस हजार नट नृत्य करें सदा इन्द्र कैसा अखाढ़ा रहे महामनोहर अनेकइन्द्र केसे हाथी घोड़े और चन्द्रमा समान महा उज्ज्वल ऊंचा आकाश के आंगनमें गमन करनेवाला किसीसे निवारा न जाय महा बलवान अष्टदंतन कर शोभित गजराज जिसकी महा सुन्दर मूंड सोपाठ हाथी उसका नाम भैरावत धरा चतु रनिकायके देव थापे और परमशात युक्त चार लोकपाल थापे सोम १ वरुण २ कुवेर ३ यम ४ और सभाका नाम सुधर्मा बज्रायुध तीन सभा और उर्वशी मेनका रम्भा इत्यादि हजारां नृत्य कारिणी तिनको अप्सरा संज्ञा ठहराई सेनापतिका नाम हिरण्यकेशी और पाठ बमु थापे और अपने लोकों को सामानिक त्रायससतादि दश भेद देवसंज्ञा धरी गाने वालोंका नाम नारद १ तुम्बुरु २ विश्वासु ३ यह संज्ञा धरी मंत्रीका नाम वृहस्पति इत्यादि सर्व राति इन्द्र समान थापी सो यह राजा इन्द्र समान सर्व विद्याधरों का स्वामी पुण्यके उदयसे इन्द्र कैसी सम्पदा का धरन हारा होता भया उस समय लंकामें माली राज करे सो महा मानी जैसे आगे सर्व विद्याधरों पर अमल करे था तैसाही |
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राण
| अबभी करे इन्द्रकी शंका न राखे विजियार्धके समस्तपुरोंमें अपनी आज्ञा राखे सर्व विद्याधरराजावों। 5 के राजमें महारत्न सुन्दर हाथी घोड़े मनोहर कन्या मनोहर बस्त्राभरण दोनों श्रेणियोंमें जो सार
बस्तु होय सो मंगाय लेय ठौर २ हलकारे फिरा करें अपने भाइयोंके गर्वसे महा गर्ववान पृथ्वी पर एक पापही को बलवान जाने अब इन्द्र के बलसे विद्याधर मालीकी आज्ञा भंग करने लगे सो यह समाचार मालीने सुना तब अपने सर्व भाई और पुत्र और कुटम्ब समस्त राक्षसर्वशी और कहकंधके पुत्रादि समस्त बानर बंशी उनको लार लेय विजियाध पर्वतके विद्याधरोंपर गमन किया कैएक विद्या घर अति ऊंचे विमानोंपर चढ़े कैएक चालते महल समान सुवर्ण के रथोंपर चहें कैएक कालीघटा समान हाथियोंपर चढ़े हैं कैएक मन समान शीघ्रगामी घोड़ोंपर चढ़े कैएक शार्दूलोंपर चढ़े कैएक चीतोंपर चढ़े कैएक वलदोंपर चढ़े कैएक ऊंटोंपर कैएक खचरोंपर कैएक भैंसोंपर कैएक हंसोंपर कैएक स्यालोंपर इत्यादि अनेक मायामई वाहनोंपर चढ़े अाकाशका आंगन आछादते हुवे महा देदीप्यमान शरीर धस्कर मालीकी लार चढ़े प्रथम पयाणमें अप शकुन भए तब मालीसे छोटा भाई सुमाली कहता भया बडे भाईमें है अनुराग जिसका, हे देव यहांहीमुकाम करिये आगे गमन न करिये अथवा लंका उलटा चलिये आज अपशकुन बहुत भएहैं मूके वृक्षकी डालीपर एक पगको संकोचे काग तिष्टा है अत्यन्त श्राकुलित है चित्त जिसका बारबार पंख हलावे है मूका काठचोंचमें लिये सूर्यकी
ओर देखे है और कूर शब्द बोले है अर्थात् हमारा गमन मने करे है और दाहिनी ओर रोद्र स्या॥ लिनी रोमांच धरती हुई भयानक शब्द करे है और सूर्यके विम्बके मध्य जलेरी में घिर मरता देखि
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पञ्च || येहै. और मस्तक रहित धढ़ नजर आयें हैं और महा भयानक बज्रपात होय? कम्पायाहै समस्त पर्वत । IN जिसने और श्राकाशमें विखरि रहेहैं केश जिसके ऐसी मायामई स्त्री नजर श्रावेहै और गर्दभ [गधा]
आकाशकी तरफ ऊंची मुखकर खुरके अग्रभागसे धरती को खोदता हुवा कठोर शब्द करे है. इत्यादि अपशकुन होय हैं तब राजा माली सुमालीसे हंसकर कहत भए. राजा माली अपनी भुजाओंके बल से शत्रुओंको गिनते नहीं अही बीर बैरियोंको जीतनामनमें विचार विजय हस्तीपर चढ़े महापुरुष धास्ताको घरते कैसे पावाहु जो शूरवीर दांतोसे उसे हैं अघर जिन्होंने और टेढ़ी करी है भौंह जिन्हों ने और किराल है मुख जिनका और बैरीको डसने वाली हैं आंख जिन्होंकी तीक्ष्ण बाणोंसे पूर्ण
और बाजे हैं अनेक वाजे जिनके और मद भरते हाथियोंपर चढ़े हैं अथवा तुरंगनपर चढ़े हैं महा बीर रसके स्वरूप आश्चर्यकी दृष्टि से देवों ने देखे जो सामंत वे कैसे पाछे बाहु. मैंने इस जन्म में अनेक लीला विलास किये सुमेरु पर्वत की गुफा तहां नन्दन बन आदि मनोहर बन तिनमें देवां गना समान अनेक राणी सहित नाना प्रकारकी क्रीडा करी और आकाशमें लगे रहेहैं शिखरजिन के ऐसे रत्नोंके चैत्यालय जिनेन्द्र देवके कराए विधि पूर्वक भाव सहित जिनेन्द्रदेवकी पूजा करी और अर्थी जो याचेसो दिया ऐसे किमिछिक दान दिये इस मनुष्य लोकमें देवों कैसे भोग भोगे और अपने यशसे पृथ्वीपर बंश उत्पन्न किया इस लिये इस जन्ममें तो हम सब बातोंमें इच्छा पूर्ण हैं अब जो महा संग्राममें प्राणोंको तजें तो यह शूरवीरोकी रीतिहीहै परंतु क्या हम लोकोंसे यह कहावेंकि माली कायर हो | कर पीछे हटगया अथवा वहांही मुकाम किया यह निन्के लोकोंके शब्द धीरवीर कैसे सुने धीर
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पद्म
।।११७।।
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बीरों का चित्त क्षत्रिय व्रत में सावधान है भाईको इस भांति कह आप वैताड़के ऊपर सेना सहित क्ष मात्रमें गये सब विद्याधरों पर श्राज्ञा पत्र भेजे सो कैएक विद्याधरनने न माने उनके पुर ग्राम उजाड़े और उद्यान के वृक्ष उपर डारे, जैसे कमल के बनको मस्त हाथी उखाड़े तैसे राक्षस जाति के विद्याघर महा क्रोधको प्राप्त भए तब प्रजाके लोग मालीके कटक से डरकर कांपते संते रथनूपुर नगर में राजा सहसार के शरणे गये चरणों को नमस्कार कर दीन वचन कहते भए कि हे प्रभो सुकेश का पुत्र माली राक्षस कुली समस्त विजियार्थ में याज्ञा चलावे है हमको पीड़ा करे है आप हमारी रक्षाकरो तब सहमार ने आज्ञा करी कि हो विद्याधरो मेरा पुत्र इन्द्र है उसके शरण जाय बीनती करो वह तुम्हारी रक्षा करने को समर्थ है जैसे इन्द्र स्वर्गलोककी रक्षा करे है तैसे यह इन्द्र समस्त विद्याधरों का रक्षक है।
समस्त विद्याधर इन्द्र पै गये हाथ जोड़ नमस्कार कर सर्व वृत्तान्त कहा तब इन्द्र माली ऊपर महा कायमान हो गर्व कर मुलकते संते सर्वलोकों से कहते भए पास घरा जो बज्रायुध उसकी ओर देख इन्द्र ने लाल होगये हैं मैं लोकपाल लोककीरक्षा करूं जो लोकका कण्टक होय ताहि हेरकर मारू और वह आपही लड़नेको आया तो इस समान और क्या रण के नगारे बजाए वे वादित्र जिन के श्रवण से मस्त हाथी गजबन्धनको उखाड़े समस्त विद्याधर युद्धका साज कर इन्द्रपै आये वकतर पहरे हाथमें अनेक प्रकार के आयुध महा हर्ष से धरते संते केएक स्थोंपर कैंएक घोड़ों पर चढ़े तथा हस्ती ऊंट सिंह व्याघ्र स्याली तथा मृग हंस बेला वलद मांडा इत्यादि मायामयी अनेक वाहनों पर चढ़ आए एक विमान में बैठे कैएक मयूरों पर चढ़े कईएक खचरों पर चढ़े अनेक याए इन्द्रने जो लोकपाल थापे हैं वे
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पना अपने अपने गर्व सहित नाना प्रकार के हथियारोंकर युक्त भौंह टेढ़ी किए आए भयानक, मुख जिन पुराण १८॥ के पाठवी हस्ती का नाम ऐरावत उसपर इन्द्र चढ़े वकतर पहिरे शिरपर छत्र फिरते हुये रथनूपुर से बाहिर
निकसे विद्याधर जो देव कहावें इनके और लंका के राक्षसों के महायुद्ध प्रवरता हे श्रेणिक! ये देव और राक्षस समस्त विद्याधर मनुष्य हैं नमि विनमि के वंशके हैं ऐसा युद्ध प्रवरता जो कायर जीवों से देखा न जाय हाथियों से हाथी घोड़ों से घोड़े पयादों से पयादे लड़े सेल मुद्गर सामान्य चक्र खड्ग गोफण मूसल गदा कनक पोश इत्यादि अनेक आयुधों से युद्ध भया देवोंकी सेना ने कछुएक राक्षसोंका बल घटाया तब बानरवंशी राजा सूर्यरज रक्षरज राक्षसवंशियों के परम मित्र राक्षसों की सेना को दवा देख युद्धको उद्यमी भए सो इनके युद्धसे समस्त इन्द्रकी सेना के लोकदेव जातिके विद्याधर पीछे हटे इनका बल . राक्षसकुली विद्याधर लङ्का के लोक देवों से महा युद्ध करने लगे शास्त्रोंके समूहसे आकाश में अन्धेरा कर डारा राक्षस और बानर वंशीयोंसे देवोंका वल हरा देख इन्द्र श्राप युद्ध करणेको उद्यमी भए समस्त राक्षसवंशी और वानर बंशी मेघरूप होकर इन्द्ररूप पर्वत पर गाजते हुवे शस्त्र की वर्षा करते भए इन्द्र महा योधा कछुभी विषाद नहीं करता भया किसी का बाण आपको लगने न दीया सबके बाण काट डारे और अपने बाण से कपि और राक्षसों को दवाए तब राजा माली लङ्का के धनी अपनी सेनाको इन्द्र के बल से ब्याकुल देख इन्द्र से युद्ध करणे को प्राय उद्यमी भए कैसे हैं राजा माली क्रोध से उपजा जो तेज उससे समस्त आकाश में किया है उद्योत जिन्हों ने॥ इन्द्रक और माली के परस्पर महा युद्ध प्रवरता माली के ललाट पर इन्द्र ने बाण लगाया माली ने उस वाणकी वेदना न गिनी और इन्द्र के
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पक
११
ललाट पर शक्ती लगाई सो इन्द्र के रुधिर झरने लगा और माली उछल कर इन्द्रपै आया तब इंद्र ने पुरास || महा क्रोध से सूर्यके विम्ब समान चक्र से माली का सिर काटा माली भूमि में पड़ा तब सुमाली माली
को मुवा जान और इन्द्रको महा बलवान जान सर्व परिवार सहित भागा मालीको भाईका अत्यंत दुःख हुवा जब यह राक्षसबंशी और बानवंशी भागे तब इन्द्र इनके पीछे लगा तब सौम नामा लोकपाल ने जो स्वामी की भक्ति में तत्पर है इन्द्र से बीनती करी कि हे प्रभो जब मुझसा सेवक शत्रुओं के मारणे को समर्थ है तब आप इनपर क्यों गमन करें सो मुझे आज्ञा देवो शत्रुओं को निमूल करू, तब इंद्रने आज्ञा करी, यह आज्ञा प्रमाण इनके पीछे लगा और बाणों के पुंज शत्रुओं पर चलाए कपि
और राक्षसों की सेना बाणों से बेधी गई जैसे मेघकी धारा से गाय के समूह ब्याकुल होवें तैसे इनकी सर्व सेना ब्याकुल भई ॥ : अथानन्तर अपनी सेना को ब्याकुल देख सुमाली का छोटा भाई माल्यवान् बाहुड़ कर सौम पर
आया और सौमकी छाती में भिण्डिपाल नामा हथियार मारा वह मूछित होगया और जबलग वह सावधान होय तब बग राक्षसवंशी और बानवंशी पाताल लङ्का जा पहुंचे मानों नया जन्म भया, सिंह के मुख से निकले, सौमने सावधान होकर सर्व दिशा शत्रुओं से शून्य देखी बहुत प्रसन्न होय इन्द्र के निकट गया और इन्द्र विजय पाय ऐरावत हस्तीपर चढ़ा लोकपालों से मण्डित शिरपर छत्र फिरते चवर
दुरते आगे अप्सरा नृत्य करती बड़े उत्साह से महा विभूति सहित स्थनूपुर में पाए वह स्थनूपुर रत्नमई || वस्रोंकी ध्वजावों से शोभे हैं ठोर ठोर तोरणों से शोभायमान है जहां फेलन के ढेर होय रहे हैं अनेक
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यम
पुराण
॥१२०॥
प्रकार सुगंध से देवलोक समान है, सुन्दर नारियां झरोखों में बैठी इन्द्रकी शोभा देखें हैं इन्द्रराज महल में आए अतिविनय से माता पिता के पायन पड़े, माता पिता ने माथे हाथ धरा और इसके गात सपरशे प्राशीस दीनी इन्द्र बैरियों को जीत अति आनन्दको प्राप्त भया प्रजा के पालनेमें तत्पर इंद्र के समान भोग भोगे विजियार्घ पर्वत तो स्वर्ग समान और राजा इंद्र लोक में इंद्र समान प्रसिद्ध भयो।। - गौतम स्वायी राजा श्रेणिक से कहे हैं कि हे श्रेणिक अब लोकपालों की उत्पतित्त सुनो ये लोक स्वर्ग से चयकर विद्याधर भए हैं राजा मकरध्वज राणी अदिति उसका पुत्र सौम नामा लोकपाल महा कांतिधारी सो इन्द्र ने ज्योति पुर नगर में थापा और पूर्व दिशा का लोकपाल किया और राजा मेघरथ राणी वरुणा उनका पुत्र वरुण उसको इंद्रने मेघपुर नगर में थापा और पश्चिम दिशाकालोकपाल किया जिसके पास पाश नामा आयुध जिसका नाम सुनकर शत्रु अति डरें और राजा सूर्य राणो कनकांवली उसका पुत्र कुवेर महा विभूतिवान उसको इन्द्र ने कांचनपुर में थापा और उत्तर दिशा का लोकपाल किया
और राजा बालाग्नि विद्याधर गणी श्री प्रभा उसका पुल यम नामा महा तेजस्वी उसको किहकंधपुर में थापा और दक्षिण दिशाका लोकपाल किया और असुर नामा नगर ताके निमाली विद्याधर वे असुर ठहराए और यक्षकीर्ति नामा नगर के विद्याधर यक्ष ठहराए और किन्नर नगरके किन्नर गंधर्व नगर के गंधर्व इत्यादिक विद्याधरोंकी देव संज्ञाधरी इन्द्रकी प्रजादेव जैसी क्रीडा करे यह राजा इ-द्र मनुष्य योनि में लक्ष्मी का विस्तार पाय लोगों से प्रशंसा पाय आपको इंद्रही मानता भया और कोई स्वर्गलोक है इंद्र है देव हैं यह सर्वधातभूल गया और पापहीको इन्द्र जाना विजियार्थगिरिको स्वर्ग जाना अपने थापे
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पुराब
॥२१॥
| लोकपाल जाने और विद्याघरों को देव जाने इस भांति गर्बको प्राप्त भया कि मेर से अधिक पृथिवीपर और कोई नहीं मेंही सर्बकी रक्षा करूं यह दोनों श्रेणी का अधिपति होय ऐसा गर्वा कि मेंही इंद्र हूं।
कौतुकमङ्गल नगरका राजा ब्योमविंदु पृथिवीपर प्रसिद्ध उसके राणी मन्दवती उसके दो पुत्री भई बड़ी कौशिकी छोटी केकसी कौशिकी राजा विश्वको परणाई जो यज्ञपुर नगरके धनीथे उनके वैश्रवण पुत्र भया अति शुभ लक्षण का धारणहारा कमल सोरिषनेत्र उसको इन्द्रने बुलाकर बहुत सन्मान किया और लंका के थाने राखा और कहा मेर आगे चार लोकपाल हैं तैसे तू पांचवां महा बलवान है तब वैश्रवण ने विनती करी कि प्रभो जो आज्ञा करो सोही में करूं ऐसा कह इन्द्रको प्रणाम कर लंका को चला सो इन्द्रकी प्राज्ञा प्रमाण लंका के थाने रहै जाको राक्षसों की शंका नहीं जिसकी आज्ञा विद्याघरों के समूह अपने सिरपर धेरै हैं ॥
पाताल लंका में सुमाली के रत्नश्रवा नामा पुत्र भया महा शूर बीर दातार जगत् का प्यारा उदारवित्त मित्रों के उपकार निमित्त है जीवन जिसका और सेवकों के उपकार निमित्त है प्रभुत्व जिसका पण्डितों के उपकार निमित्त है प्रवीणपणा जिसका भाइयोंके उपकार निमित्तहै लक्ष्मीका पालन जिसके दरिद्रियों के उपकार निमित्त है ऐश्वर्य जिसका साधुओंकी सेवा निमित्त है शरीर जिसका जीवन के कल्याण निमित्तहै बचन जिसका सुकृतके स्मरण निमित्तहै मन जिसका धर्मके अर्थ है आयु जिसका शूरवीरता का मूलहै स्वभाव जिसका सो पिता समान सब जीवोंका दयालु जिसके परस्री माता समान पर द्रव्य तृण समान पराया शरीर अपने शरीर समाम महा गुणवान जो गुणवंतोंकी गिनती करें तहां
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पन
|| इसको प्रथम गिरे और दोषयन्तों की गिणती में नहीं आवै उसका शरीर अद्धत परमाएवों कर रचाहे
जैसी शोभाइसमें पाइये तैसी और ठौर दुर्लभहै संभाषणमें मानोंअमृतही सींचे है अर्थियोंको महादान देता मया धर्म भये काम में बुद्धिमान् धर्म का अत्यंत प्रिय निरन्तर धर्मही का यत्न करे, जन्मांतर से धर्मको लिये आया है जिसके बड़ा आभूषण यशही है और गुणही कुटुम्ब है वह धीर बीर बैरियों का भय तजकर विद्या साधने के अर्थ पुष्पक नामा बनमें गया वह बनभूत पिशाचादिक के शब्द से महा भयानक है यहतो वहां विद्या साधे है और राजा व्योमविंदुने अपनी पुत्री केकसी इसकी सेवा करणेको इसके ढिग भेजी सो सेवाकरे हाथ जोड़े रहै आज्ञाकी है अभिलाषा जिसके कैएक दिनों में रत्नश्रवाका नियम समाप्त भया, सिद्धोंको नमस्कार कर मौन छोड़ा केकसी को अकेली देखी कैसी है केकसी सरल हैं नेत्र जिसके नीलकमल समान सुन्दर और लाल कमल समान है मुख जिसका कुन्दके पुष्प समान है दन्त और पष्पोंकी माला समान हैं कोमल सुन्दर भुजा और मूङ्गा समान हैं कोमल मनोहर अघर मौलश्री के पष्पोंकी सुगन्ध समान है निश्वास जिसके चंपेकी कली समान है रङ्ग जिसका अथवा उस समान चंपक कहां और स्वर्ण कहां मानो लक्ष्मी रत्नश्रवाके रूपमें वश हुई कमलों के निवास को तज सेवा करनेको पाई है। चरणारविंद की ओर हैं नेत्र जिसके लज्जा से नमीभूत है शरीर जिसका अपने रूप वा लावण्य से कपलोकी शोभाको उलंघती हुई स्वासनकी सुगन्धतासे जिसकेमुखपर भ्रमर गुआर करें हैं । अति सुकुमार है तनु जिसका और यौबन श्रावतासा है मानों इसकी अति सुकुमारता के भय से योजनभी स्पर्शता शंके है । मानो समस्त स्त्रियोंका रूप एकत्रकर बनाई है अद्भुत है सुन्दरता
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पद्म
1133311
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जिसकी मानों साचात् विद्याही शरीर धार कर रत्नश्रवा के तपसे वशी होकर महा कांतिकी धारणहारी आई है तब रत्नश्रवा जिनका स्वभावही दयावान है केकसी को पूछते भए कि तू कौनकी पुत्री है और कौन अर्थ अकेली यूथ से विधुरी मृगी समान महा वन में रहे हैं और तेरा क्या नाम है तब यह अत्यन्त माधुर्यता रूप गद गद वाणी से कहती भई कि राजा व्योमविंदु राणी नन्दवती तिनकी मैं केक्सी नामा पुत्री आपकी सेवा करणेको पिता ने राखी है उसी समय रत्नश्रवा को मानस स्तम्भिनी विद्या सिद्ध भई सो विद्याके प्रभावसे उसी बनमें पुष्पांतक नामा नगर बसाया और केकसी को विधि पूर्वक परणा और उसी नगर में रहकर मन वांछित भोग भोगते भए, प्रिया प्रीतम में अद्भुत प्रीति होती भई एक क्षणभी आपस में वियोग सहार न सके यह केकसी रत्न श्रवा के चित्तका बन्धन होती भई दोनों अत्यन्त रूपवान नव यौवन महा धनवान इनके धर्म के प्रभावसे किसी भी वस्तुकी कमी नहीं यह राणी पतिमता पतिकी छाया समान अनुगामिनी होती भई ॥
एकसमय यह राणी रत्न के महल में सुन्दर सेज पर पड़ी हुई थी सेजका वस्त्र वीर समूद्रकी तरङ्ग समात उज्ज्वल है और महा कोमल है अनेक सुगन्धकर मण्डित है रत्नों का उद्योग होय रहा है राणी के शरीरकी सुगन्ध से अमर गुञ्जार करें हैं अपने मनका मोहनहारा जो अपना पति उसके गुणों को चिंत बती हुई और पुत्रकी उत्पत्ति को बांछती हुई पड़ी थी रात्री के पिछले पहरे महा ध्याश्चर्य के करणहारे शुभ स्वपने देखे फिर प्रभात में अनेक बाजे बाजे शंखोंका शब्द भया मागध बन्दी जन विरद बखानते भए तब खीसेजसे उठकर प्रभात क्रिया कर महा मङ्गल रूप आभूषण पहर सखियोंकर मण्डित पतिके डिग
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भाई, राजा रोणी को देख उठे बहुत श्रादर किया दोऊ एक सिंहासनपर विराजे राणी हाथ जोड़ राजा | से विनती करती भई हे नाथ आज रात्री के चतुर्थ पहर में मैंने तीन शुभ स्वपन देखे हैं एक महा बली ०१२५०
सिंह गाजता अनेक गजेन्द्रों के कुम्भस्थल विदारता हुवा परम तेजस्वी आकाशसे पृथिवीपर आय मेरे मुख में होकर कुक्षि में पाया और सूर्य अपनी किरणों से तिमिरका निवारण करता मेरी गोदमें भाय तिष्ठा और चन्द्रमा अखण्ड है मण्डल जिसका सो कुमुदनको प्रफुल्लित करता और तिमिरको हरताहुवा मैंने अपने आगे देखा यह अद्भुत स्वप्न मेंने देखे सो इनके फल क्या तुम सर्व जानने योग्य हो स्त्रियों को पतिकी आज्ञाही प्रमाण है तब यह बात सुन राजा स्वप्नके फलका व्याख्यान करते भये राजा अष्टांग निमित्त के जाननहारे जिन मार्ग में प्रवीण हे हे प्रिये तेरे तीन पुत्र होंगे जिनकी कीर्ति तीन जगत् में विस्तरैगी बड़े प्राक्रमी कुल के बृद्धि करणेहारे पूर्वोपार्जित पुण्य से महा सम्पदा के भोगनेहारे देवों समान अपनी कांति से जीता है चन्द्रमा अपनी दीप्ति से जीता है सूर्य अपनी गम्भीरता से जीता है समुद्र और अपनी स्थिरतासे जीताहै पर्वत जिन्होंने स्वर्गके अत्यन्त सुख भोग मनुष्यदेह धरेंगे महाबलवान जिनको देवभीनजीत सकेंमनवांछित दानकेदेनेहारेकल्पवृक्षकेसमान और चक्रवर्तीसमान ऋद्धिजिनकी अपने रूपसे सुन्दर स्त्रियोंके मनहरणहारे अनेक शुभ लक्षणोंकर मंडित उतंग है वक्षस्थल जिनका जिनका नामही श्रवणमात्रसे महा बलवान बैरी भय मानेंगे तिनमें प्रथम पुत्र पाठवां प्रतिवासुदेव होयगा महासाहसी शत्रुओंके मुख रूप कमल मुद्रित करणको चन्द्रमा समान तीनों भाई ऐसे योधा होंगे कि युद्धका नाम सुनकर जिनके हर्षके रोमांच होवें बड़ा भाई कछू इक भयंकर होयगा जिस वस्तु की
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पुराण
॥१२॥
हठ पकड़ेगा उसकी न छोड़ेगा जिसको इन्द्र भी समझानेको समर्थ नहीं ऐसा पातका बचन सुनकर राणी परम हर्षको प्राप्त होय बिनय सहित भरतारको कहती भई । हे नाथ हम दोऊ जिनमार्ग रूप अमृतके स्वादी कोमल चित्त हमारे पुत्र क्रूरकर्मा कैसे होय । हमारे तो जिन बचनमें तत्पर कोमल परिणामी होना चाहिये अमृतकी बेलपर विष पुष्प कैसे लागे तब राजा कहते भए कि हे मुन्दर मुखी तू हमारे बचन सुन यह प्राणी अपने २ कर्मके अनुसार शरीर धरेहें इस लिये कही मूल कारण है हम मूल कारण नहीं हम निमित्त कारणहें तेग बडा पुत्र जिनधर्मी तो होयगा परंतु कुछ इक क्रूर परिणामी होयगा और उसके दो लघुवीर महाधीर जिनमार्गमें प्रवीण गुणमें पूर्ण भली चेष्टाके घारणहारे शील के सागर होवेंगे संसार भूमणका है भय जिनका धर्ममें अति दृष्टि महा दयावान सत्य बचनके अनु। रागी होवेंगे उन दोनोंके ऐमाही सोम्यकर्मका उदयहै, हे कोमल भाषिणी हे दयावती प्राणी जैसा कर्म करहै तैसाही शरीर धरहे ऐसा कहकर वे दोनों राजा और राणी जिनेन्द्रकी महा पूजा प्रवरते वे दोनों रात दिवस नियम धर्ममें सावधान हैं। ___ अथानन्तर प्रथमही गर्भमें रावमा अाए तब माताकी चेष्टा कुछ क्रूर होती भई यह बांछा भई कि बरियोंके सिरपर पांव धरूं राजा इंद्रके ऊपर आज्ञा चलाऊं बिना कारण भौहें टेढी करगी कठोर वाणी बोलना यह चेष्टा होती भई शरीरमें खेद नहीं दर्पख विद्यमानहे तोभी खड़गमें मुख देखना सखी जनसे खिक उठना किसीकी शंका न राखनी ऐसा उद्धत चेष्टा होती भई नवमें महीने रावणका जन्म भया जिस समय पुत्रजन्मा उससमय वेरियोंके श्रासन कम्पायमान भए मूर्य समानहै न्योति जिसकी ।
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पुराव
ऐसा पलक उसको देखकर परिवार के लोगोंके नेत्र थकित होय रहे देव दुन्दुभी बाजे बजाने लगे बैरियोंके घरमें अनेक उत्पात होने लगे माता पिताने पुत्र के जन्मका अति हर्ष किया प्रजाके सर्व भय मिटे पृथ्वीका पालक उत्पन्न भया मेजपर सूधा पड़े अपनी लीलाकर देवोंके समानहै दर्शन जिसका राजा रत्नश्रवाने बहुत दान दिया । आगे इनके बड़े ओ राजा मेघवाहन भए उनको राक्षसोंके इन्द्र भीमने हार दिवाथा जिसकी हजार नागकुमार देव रचा करें वह हार पास घराथा सो प्रथम दिवस हीके बालकने बैंच लिया बालककी मुट्ठीमें हार देस माता आश्चर्य को प्राप्त भई और महा स्नेहसे बालक को छातीसे लगाय लिया और सिर चूंबा और पिताने भी हार सहित बालकको देख मन में बिचारी कि यह कोई महा पुरुष है हजार नागकुमार जिसकी सेवा करें ऐसे हार से क्रीडा करता है यह सामान्य पुरुष नहीं इसकी शक्ति ऐसी होयगी जो सर्व मनुष्यों को उलंघे आगे चारण मुनि ने मुझे कहाथा कि तेरे पदवीधर पुत्र उत्पन्न होवेंगे सो आप प्रतिबामुदेव शलाका पुरुष प्रगट भए हैं । हारके योगसे दश बदन पिताको नजर आए तब इसका दशानन नाम धरा फिर कुछ कालमें कुम्भकर्ण भए सूर्य समान है। तेज जिसका फिर कुछ इक काल में पूर्णमाशी के चंद्रमा समान है बदन जिसका ऐसी चन्द्रनखा बहिन भई फिर विभीषण भए महा सौम्य धर्मात्मा पाप कर्म रहित मानों साक्षात् धर्मही देह धारी अवतग है । जिनके गुणोंकी कीर्ति जगत में गाइये है ऐसे दशाननकी बाल क्रीड़ा दुष्टोंको भय रूप होती भई । और दोनों भाइयोंकी क्रीड़ा सौम्य रूप होतीभई कुम्भकर्ण और विभीषण दोनोंके मध्य चन्द्रनखा चांद सूर्यके मध्य सन्ध्या समान शेमती भईरावरम बाल अवस्थाको उलंघ कर कुमार अवस्था में आया।
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११२॥
एक दिन रावण अपनी माताकी गोदमें तिष्ठेया अपने दांतोंकी कांतिसे दशों दिशा में उद्योत करता हुआ जिसके सिरपर चूड़ामाण रत्न धराहै उस समय वैश्रवण अाकाश मार्गसे जा रहाथा वह रावणके ऊपर होय निकला अपनी कांतिसे प्रकाश करता हुआ विद्याधरोंके समूहसे युक्त महा बलवान विभूतिका धनी मेघ समान अनेक हाथियोंकी घटा मदकी धारा बरसते जिनके विजली समान सांकल चमकै महा शब्द करते आकाश मार्गसे निकसे सो दशोंदिशा शब्दायमान होय गई श्राकाश सेनासे व्याप्त होगया गवणने ऊंची दृष्टिकर देखा तो बड़ा आडंबर देखकर माताको पूछा यह कौन है और अपने मानसे जगतको तृण समान गिनतामहा सेना सहित कहां जायेह । तब माता कहती भई कि सेरी मासीका बेटा हे सर्व विद्या इसको सिद्धह महा लक्ष्मीवानहै शत्रुओका भय उपजावता हुआ पृथ्वी पर विचरे हैं महा तेजवानहै मानो दूसरा सूर्यही है राजा इन्द्रका लोकपाल है इन्द्र ने तुम्हारे दासका बड़ा भाई माली युद्ध में मारा और तुम्हारे कुलमें चली आई जो लंकापुरी वहां से तुम्हारे दादेको निकालकर इसको रखा है यह लंकाके लिये तेरा पिता निरन्तर अनेक मनोरथ करे है रात दिन चैन नहीं पोहे और मेंमी इस चिन्तामें सूखगई हूं। हे पुत्र स्थान भ्रष्ट होनेसे मरण मला ऐसा दिन कब होय मोतू अपने कुलकी भूमिको प्राप्त होय और तेरी लक्ष्मी हम देखें तेरी विमति देसकर तेरे पिताका और मेरा मन प्रानन्दको प्राप्त होय ऐसा दिन कब होयगा जब तेरे यह दोनों भाइयोंकी विभूति सहित तेरी लार इस पृथिवीपर प्रताप युक्त हम देखेंगे तुम्हारे दुशमन में रहेंगे यह माता के दीनवचन सुन और अश्रूपात डारती देखकर विभीषण बोले प्रगट भयाहे क्रोधरूप
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पव
॥१२॥
विषका अंकूर जिनके,हे माता कहां यह रंक वश्रवण विद्याधर जो देव होय तोभी हमारी दृष्टिमें न यावे तुमने इसका इतना प्रभाव वरणन किया तू बीरप्रसवनीअर्थात् योधावोंकीमाताहे महाधीरहे औरजिन मार्ग में प्रवीणहै यह संसारकी क्षमाभंगुर माया तेरेसे बानी नहीं काहेको ऐसे दीन वचन कायर म्रियोंके समान तू कहेहे क्या तुझे इस रावणकी खबर नहींहै यह श्रीवत्सलक्षणकर मंडित अद्भुत पराक्रमका धारनहाग महाबली अपारहै चेष्टा जिसकी भस्मसे जैसे अग्नि देवी रहे तैसे मौन गह रहाहै यह समस्त शत्रुओं के भस्म करणको समर्थहै क्या तेरे विचारमें अबतक नहीं पायाहै यह रावण अपनी चालसे चितको भी जीतेहै और हायकी चपेटसे पर्वतोंको चूर डारे है इसकी दोनोंभुजा त्रिभुवनरूप मंदिरके स्तंभहें और प्रताप का राजमार्गहै पत्रवतीरूप वृत्तके अंकुर हैं सो तैंने क्या नहीं जाने इस भांति विभपिणने गवणके गुग्म वर्णन करे । तब रावण मातासे कहता भया हे माता गर्वके वचन कहने योग्य नहीं परंतु तेरे संदेह के निवारने अर्थमें सत्य वचन कहूंहू सो सुन जो यह सकल विद्याधर अनेक प्रकार विद्यासे गर्वित दोनों श्रेणियों के एकत्र होयकर मेरेसे युद्ध करें तोभी में सर्वको एक भुजासे जीतूं ।
रावण कहता भया कि हे माता यद्यपि में सर्व विद्याघरोंके जीतने को समर्थ हैं तथापि हमारे विद्या घरों के कुल में विद्या का साधन उचित है इसमें कुछ लाज नहीं जैसे मुनिराज तपका पाराधन करें तैसे विद्याधर विद्याका आराधन करें सो हमको करणा योग्य है ऐसा कहकर दोनों भाइयों के सहित माता
पिता को नमस्कार कर नवकार मन्त्रको उच्चारण कर रावण विद्या साधनेको चले माता पिताने मस्तक | चूमा और असीस दीनी, पाया है मङ्गल संस्कार जिन्होंने स्थिर भूत है चित्त जिनका घरसे निकस कर
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पद्म
॥ १२९ ॥
हर्षरूप हाये भीमनामा महाबनमें प्रवेश किया । उस बनमें सिंहादि कूर जीव नादकर पुरा रहेहें विकराल हैं दाढ़ और बदन जिनके और सूते हुवे अजगरों के निश्वाससे कंपायमानहें बड़े वृक्ष जहां और नाचे व्यन्तरोंके समूह जहां जिनके पायनसे कंपायमान है पृथ्वी तल जहां महा गंभीर गुफा में अन्धकारका समूह फैल रहा है मनुष्यों की तो क्या बात जहां देव भी गमन न कर सके हैं जिसकी भयंकरता पृथ्वी में प्रसिद्ध है जहां पर्वत दुर्गम महाश्रन्धकारको घरे गुफा और कंटकरूप वृत्त हैं मनुष्यों का संचार नहीं वहां ये तीनों भाई उज्ज्वल धोती दुपट्टा वारे शांति भावको ग्रहण कर सर्व आशा निकर विद्या अर्थ तप करणेको उद्यमी भए निशंक है चित्त जिनका पूर्ण चन्द्रमा समान है बदन जिनका विद्याधरों के शिरोमणि जुदे २ बनमें विराजे डेढ़ दिनमें अष्टाक्षर मंत्र के लव जाप किये सो सर्व काम प्रदा विद्या तीनों भाइयोंको सिद्ध भई मन बांछित अन्न इनको विद्या पहुंचावे
धाकी बाधा इनको न होती भई फिर यह स्थिर चितहोय सहस्त्रकोटि षोड़शातरमंत्र जपते भए उस समय जम्बूदीपक अधिपति श्रनात्रति नामा यक्ष स्त्रियों सहित क्रीडा करता आया उसकी देवांगना इन तीनों भाइयों को महारूपवान और नवयौवन तपमें सावधान देख कौतुक कर इनके समीप भाई कमल समान हैं मुख जिनके भूमा समान हैं श्याम सुन्दर केश जिनके कैएक आपसमें बोली हो यह राजकुमार प्रति कोमल शरीर कांतिधारी वस्त्राभरण सहित कौन अर्थ तप करेहैं इनके शरीरकी कांति भोगों बिना न सोहे कहां इनकी नवयोधन वय और कहां यह भयानक बनमें तप करना। फिर इनके तप केडगाव के अर्थ कहती मई हो अल्पबुद्धि तुम्हारा सुंदर रूपवान शरीर भोगका साधन योग
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पुराव
Prou
का साधन नहीं इस लिये काहेको तपका खेद करो हो उठो घर चलो अब भी कुछ नहा गया इत्याद अनेक वचन कहे परन्तु इनके मनमें एकभी न आई जैसे जलकी बून्द कमलके पत्रपर न ठहरे तब वे श्रापसमें कहती भई हे सखी ये काष्ट मई हैं सर्व अंग इसके निश्चल दीखेहै ऐसा कहकर क्रोधाय मान होप तत्काल समीप आईइनके विस्तीर्ण हृदयपर कुण्डल माग तौभी ये चलायमान न भये स्थिर भूतहै चित्त जिनका कायर पुरुष होय सोई प्रतिज्ञा से डिगे देवियों को कहते हुए देखने के अनावत यक्षने हंसकर कहा भो सत्पुरुषो काहे को दुर्धर तप करो हो और किस देवको आराघो हो ऐसा कहा तौभी ये नहीं बोले चित्रामसे होयरहे तब अनाव्रतने क्रोध किया कि जम्बूद्वीपका देव तो मैं हूं मुझको छोड़कर किसको ध्यावे हैं ये मन्दबुद्धिहें इनको उपद्रव करणेके अर्थ अपने किंकरोंको आज्ञा करी किंकर स्वभावहीसे करथे और स्वामीके कहेसे उन्होंने औरभी अधिक अनेक उपद्रव किए कैएकता पर्वत उठाय लाए और इनके समीप पटके तिनके भयंकर शब्द भये कैएक सर्प होय सर्व शरीरसे लिपटगए फैएक नाहर होय मुख फाडकर आये और कैएक शब्द कानमें ऐसे करते भए जिनको सुनकर लोक वहिरे होय जायें मायामई डांस बहुत किये सोइनके शरीरमें श्राय लागे और मायामई हस्ती दिखाय असराल पवन चलाई मायामई दावानल लगाई इस भांति अनेकउपद्रव किये तोभी यह ध्यानसे न डिगे निश्चल है अन्तःकरण जिनका तव देवोंने मायामई भीलोंकी सेना बनाई अन्धकार समान विकगल आयुधों को धरे इनको ऐसी माया दिखाई कि पुष्पांतक नगरमें महा युद्धमें रत्नश्रवाको कुटंब सहित बंधा हुआ दिखाया और यह दिखाया कि माता केकसी विलाप करे है कि हे पुत्रो इन चाण्डाल भीलों ।।
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पद्म पुरास ॥१३१"
ने तुम्हारे पिताके साथ महा उपद्रव कियाहै और यह चांडाल मुझे मारेहे पावोंमें बेदी डारी हैं माथेके केश खींचेहैं, हे पुत्रो तुम्हारे आगे मुझे यह म्लेच्छ भील पल्लीमें लिये जायहें तुम कहतेथे कि जो समस्त विद्या धर एकत्र होय मुझसे लड़ें तौभी नजीता जाऊं सो यह बार्ता तुम मिथ्याही कहतेथे अब तुम्हारे आगे म्लेच्छ चांडाल मुझे केश पकड़े खींचे लिये जाय, तुम तीनोंही भाई इन म्लेच्छोंसे युद्ध करने समर्थ नहीं मंद पराक्रमी हो हे दशग्रीव तेरा स्तोत्र विभीषण वृथाही करेथा तू तो एक ग्रीवाभी नहीं जो माताकी रक्षा न करे और यह कुंभकर्ण हमारी पुकार कानोंसे नहीं सुनेहै और यह विभीषण कहावेहै सो वृथाहै एक भीलसे लड़ने समर्थभी नहीं और यह म्लेछ तुम्हारी बाहिनचंद्रनखाको लिये जायहै सो तुमको लज्जा नहीं पाती विद्या जो साधिएहै सो मातापिताकी सेवा अर्थ सो यह विद्या किस काम
आवेगा मायामई देवोंने इस प्रकार चेष्टा दिखाई तौभी यह ध्यानसे न डिगे । तब देवोंने एक भयानक माया दिखाई अर्थात् रावणके निकट रत्नश्रवाका सिर कटा दिखाया और रावणके निकट भाइयोंके सिर काटे दिखाए और भाइयोंके निकट रावणका भी सिर कटा दिखायापरंतु रावण तो सुमेरु पर्वत समान अति निश्चलही रहे जो ऐसा ध्यान महा मुनितो अष्ट कर्मकोषको छेदे परंतु कुंभकर्ण विभीषण के कुछ इक ब्याकुलता भई परन्तु कुछ विशेष नहीं । ____ रावणको तो अनेक सहस्र विद्या सिद्धि भई जेते मंत्र जपनेके नेम कियेथे वह पूर्ण होनेसे पहिले ही विद्या सिद्ध भई । धर्मके निश्चयसे क्यान होय और ऐसा दृढ़ निश्चयभी वोपार्जित उज्ज्वल कर्मसे होयहै कर्मही संसारका मूल कारणहै कर्मानुसार यह जीव सुखदुख भोगेहै समयपरउत्तम पात्रोंको विधि।
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MY
से दानदेना और दयाभावसे सदा सबको देना और अन्त समय समाधिमरण करना और सम्यकज्ञानकी प्राति किसी उत्तम जीवहीको होय है कैएकोंके तो विद्या दस वर्षों में सिद्धि होयहै कैएकको एक मास में कैएकको क्षणमात्रमें यह सब कमीका प्रभाव जानोरातिदिन धरतीपर कोई भूमण करो अथवा जल में प्रवेश करो तथा पर्वतके मस्तकसे परोअनेक शरीरके कष्ट करो तथापि पुण्यके उदय बिना कार्य सिद्धि नहीं होता जे उत्तम कर्म नहीं करेहै वे वृथा शरीर खोवे हैं इसलिये सर्व आदरसे प्राचार्यों की सेवा करके पुरुषों को सदा पुण्यही करना योगहै पुण्य बिना कहांसे सिद्धि होय । पुण्य का प्रभाव देख कि थोड़े ही दिनोंमें और मन्त्र विधि पूर्ण होनेसे पहिले ही रावण को महा विद्या सिद्धि भई जेजे विद्या सिद्धि भई तिनके संक्षपता से नाम सुनो नभःसंचारिणी कामदायिनी कामगाभिनी दुर्निवारा जगतकंपा प्रगुप्ति भानुमालिनी प्राणमा लधिमा क्षोभा मनस्तंभकारिणी संवाहिनी सुरध्वंसीकौमारी वध्य कारणी मुविधाना तमोरूपा दहना विपलोदरीशुभप्रदा रजोरूपा दिनरात्रिविधायिनी बज्जोदरी समावृष्टि अदर्शिनीअजराअमरा अनवस्तीभनी तोयस्तंभिनीगिीरदारिणी अवलोकिनी ध्वंसी धीराघोरा भुजंगिनी वीरिनीएकभुवनाअवध्यादारुणा मदनासिनी भास्करी भयसंभूतिऐशानि विजियाजया बंधिनी मोचनी बाराही कुटिलाकृति चितोद्भवकरी शांति कौवेरी वशकारिणी योगेश्वरी वलोत्साही चंडा भीति प्रविषिणी इत्यादिअनेक महा विद्या रावणको थोड़े ही दिनोंमें सिद्ध भई तथा कुम्भकर्णको पांच विद्या सिद्ध भई उन के नाम सर्वहारिणी अतिसंवर्धिनीजू भिजीब्योमगामिनी निद्रानी तथा विभीषणको चार विद्या सिद्ध भई सिद्धार्था शत्रु दमनी व्याघाता आकाशगामिनी यह तीनोही भाई विद्याके ईश्वर होते भये और |
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। देवों के उपद्रव से मानों नए जन्म में आए तब यक्षों का पति अनावृत जम्बूद्वीप का स्वामी इनको पुराण ॥ १३३॥
विद्यायुक्त देखकर बहुत प्रस्तुति करताभया और दिव्य आभूषण पहराए रावणने विद्याके प्रभावसे स्वयंप्रभनगर वसाया वह नगर पर्वत के शिखर समान ऊंचे महलों की पंक्तिसे शोभायमान है और रत्नमई चैत्यालयों से अति प्रभाको धरे है जहां मोतियोंकी जाली से ऊंचे झरोखे शोभे हैं पद्मराग मणियों के स्तंभ हैं नानाप्रकार के रत्नोंके रङ्गके समूह से जहां इंद्र धनुष होय रहाहै रावण भाइयों सहित उस नगर में विराजे राज महलों के शिखर आकाश में लगरहे हैं विद्यावलकर मण्डित रावण सुख से तिष्ठे जम्ब द्वीप का अधिपति अनावृत देव रावण सो कहता भया कि हे महामते तेरे धीर्य से में बहुत प्रसन्नभयो
और में सर्व जम्बूद्रोप का अधिपति हूं तू यथेष्ट वैरियों को जीतताहुया सर्वत्र विहारकर हे पुत्र में प्रसन्न भया और तेरे स्मरणमात्र से निकट आऊंगा तबतुझे कोई भी न जीतसकेगा और बहुत काल भाइयों सहित सुखसो राजकर तेरे विभूति बहुत होवे इस भांति आशीर्वाद देय बारम्बार इसकी स्तुतिकर यक्ष परिवार सहित अपने स्थान को गया समस्त रोलवंशी विद्याधरों ने सुनी कि रत्नश्रवा का पत्र रावण महा विद्या संयुक्त भया सो सबको अानन्द भया सर्वही राक्षस बड़े उत्साह सहित रावण के पास पाए
एक सक्षस नृत्य करे हैं कैएक गान करें हैं कैएक शत्रु पक्षको भयकारी गाजें हैं कैएक ऐसे आनन्द से मरगये हैं कि आनन्द अंग में न समावें है केएक हंसे कैएक केलि कर रहे हैं सुमाली रावण का
दादा और उसका छोटा भाई माल्यवान तथा सूर्य रज रच ग्ज राजा वानरवंशी सबही सुजन आनन्द । सहित राक्पपे चले अनेक बाहनों पर चढ़े हर्ष से बाये हैं रत्नश्रवा रावसके पिता पुत्रके स्नेहसे भरगया।
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पद है मन जिसका ध्वजावों से आकाशको शोभित करताहुवा परम विभूति सहित महा मन्दिर समान रत्नन
के रथ पर चढ़ आया बन्दीजन विरद बाखाने हैं सर्वइकट्ठे होयकर पञ्च सङ्गमनामा परखतपर बाए रावण सन्मुख गया दादा पिता और सूर्यरज रक्ष रज बड़े हैं सो इनको प्रणाम कर पायन लगा और भाइयों को बगलगिरी कर मिला और सेवक लोगोंको स्नेहकी नजरसे देखा और अपने दादा पिता और सूर्यरज रचरज से बहुत विनयकर कुशलक्षेम पूछी फिर उन्होंने रावणसे पूछो रावणको देख गुरुजन ऐसे खुशी जो कहने में न आवे बारम्बार रावणसे सुखवार्ता पूवें और स्वयं प्रम नगरको देखकर आश्चर्य को प्राप्त भए देवलोक समान यह नगर उसको देख कर राक्षस वंशी और बानखंशी सवही अति प्रसन्न भए
और पिता रत्नश्रवा और माता केकसी पुत्र के गातको स्पर्शते हुये और इसको वारम्बार प्रणाम करता हुवा देखकर बहुत आनन्दको प्राप्त भए दुपहर के समय रावण ने बड़ोंको स्नान करावनेका उद्यमकिया तब सुमाली आदि रत्नों के सिंहासनपर स्नान के अर्थ विराजे सिंहासन पर इनके चरण पल्लव सारिखे कोमल और लाल ऐसे शोभते भए जैसे उदयाचल पर्वत पर सूर्य शोभे फिर स्वर्ण रत्नों के कलशों से स्नान कराया कलश कमल के पत्रों से प्राछादित हैं और मोतियों की माला से शोभे हैं और महा कांतिको धरे हैं और सुगन्ध जल से भरे हैं जिनकी सुगन्धसे दशों दिशा सुगन्धमई होयरहीहै और जिन पर भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं स्नान करोवते जब कलशों का जल डारिए है तब मेघ सारिखेगाजे हैं पहले सुगन्ध द्रव्यों से उबटना लगाया पीछे स्नान कराया स्नान के समय अनेक प्रकारके बादित बजे स्नान कराकर दिव्य वस्राभूषण पहराए और कुलवन्तनी राणियों मे अनेक मंगलाचरण कीए रावणादि तीनों
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पद्म
९३
भाई देवकुमार सारिखे गुरुवोंका अति विनय कर चरणोंकी बन्दना करते भए तब बड़ों ने बहुत श्राशीर्वादपुदी हे पुलो तुम बहुत काल जीवो और महा सम्पदा भोगो तुम्हारीसी विद्या और में नहीं गुपाली माल्य वान सूर्यरज रचरज और रत्नश्रवा इन्हों ने स्नेह से रावण कुम्भकरण विभीषण को उरसे लगाया फिर समस्त भाई और समस्त सेवक लोग भली विधि सों भोजन करतेभये रावण ने बड़ों की बहुत सेवा करी और सेवक लोगों का बहत सन्मान किया सबको वस्त्राभूषण दीए सुमाली यादि सर्बही गुरुजन फूल गए हैं नेत्र जिनके रावण से अति प्रसन्न होय पूछते भये हे पुत्रो ! तुम बहुत सुखसे हो तब नमस्कार कर यह कहते भये हे प्रभो हम आपके प्रसादसे सदा कुशल रूप हैं फिर बाबा माली की बात चली सो सुमाली शोक के भार से मूर्छा खाय गिरा तब रावण ने शीतोपचार से सचेत किये और समस्त शत्रुवों के समूहके घातरूप सामन्तताके वचन कहकर दादा को बहुत यानन्द रूप किया सुमाली कमलनेत्र Trust देखकर ति श्रानन्दरूप भए सुमाली रावणको कहते भए अहो पुत्र तेरा उदार पराक्रम जिसे देख देवता प्रसन्न होय अहो कांति तेरी सूर्यको जीतनेहारी गम्भीरता तेरी समुद्रसे अधिक पराक्रम तेरा सर्व सामन्तों को उलंघे अहो वत्स हमारे राक्षस कुलका तू तिलक प्रगट भ्रया है जैसे जम्बूदीपका भू
सुमेरु है और आकाश के आभूषण चांद सूर्य हैं तैसे हे पुत्र रावण अब हमारे कुलका तू मण्डन है। महा आश्चर्यकी करणहारी चेष्टा तेरी सकल मित्रोंको आनन्द उपजावे है जब तू प्रगटभया तब हमको क्या चिन्ता है आगे अपने वंश में राजा मेघवाहन आदि बड़े बड़े राजा भये वे लंकापुरीका राज करके पुत्रों को राजदेय मुनि होय मोक्ष गये अब हमारे पुण्य से तू भया सर्व राक्षसोंके कष्ट का हरणहारा शत्रुवर्ग
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पन का जीतनेहाय तू महा साहसी हम एक मुख से तेरी प्रशंसा कहांलों करें ते रे गुण देवभी न कह सक म यह राक्षसवंशी विद्याधर जीवनेकी आशा छोड़ बैठेथे सो अब सबकी अाशा वन्धी तू महापीर प्रगट भया
है एक दिन हम कैलाश पर्व गए थे वहां अवधिज्ञानी मुनिको हमने पूछा कि हे भी लंका में हमारा प्रवेश होयगा के नहीं तब मुनि ने कही कि तुम्हारे पुत्रका पुत्र होयगा उसके प्रभावकर तुम्हारा लंक | में प्रवेश होयगा वह पुरुषों में उत्तम होयगा तुम्हारा पुत्र रत्नश्रवा राजा ब्योमविन्दुकी पुत्री केकसी को | परणेगा उसकी कूति में वह पुरुषोत्तम प्रगट होयगा जो भरतक्षेत्रके तीन खण्ड का भोक्ता होगा महा बलवान विनयवान जिसकी कीर्ति दशों दिशामें विस्तरेगी वह बैंरियोंसे अपना बास छुड़ावैगा और वैरीयों
के वास दावैगा सो इसमें आश्चर्यनहीं तू महाउत्सवरूप कुलका मण्डन प्रगटाहै तेरासा रूप जगत्में और किसी | का नहीं तू अपने अनुपमरूपसे सबके नेत्र और मनको हरे है इत्यादिक शुभ बचनों से सुमाली ने रावण
की स्तुतिकरी तब रावण हाथ जोड़ नमस्कार कर सुमाली से कहता भया हे प्रभो तुम्हारे प्रसादसे ऐसाही होवे ऐसे कहकर नमोकार मन्त्र जप पञ्च परमेष्ठियों को नमस्कार किया सिद्धोंका स्मरण किया जिस से सर्व सिद्ध होय उस बालकके प्रभावसे वन्धुवर्ग सर्व राक्षस वंशी और वानरवंशी पने अपने अस्थानक प्राय बसे बैरियों का भय न किया इस भांति पूर्व भक्के पुण्य से पुरुष लक्ष्मी को प्राप्त होय है अपनी, कीर्तिसे ब्याप्तकरीहे दशों दिशा जिसने इस पृथिवीमें बड़ी उमरका अर्थात् बुढ़ाहोना तेजस्विता का कारण नहीं है जैसे अग्नि का कण छोटाही बड़े बनको भस्म करे है और सिंहका बालक छोटाही मस्त हाथियों | के कुम्भस्थल विदार है और चन्द्रमा उगता ही कुमदों को प्रफुल्लित करे है और जगत का संताप
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पद्म
दूर करे है और सूर्य उगताही काली घटा समान अन्धकारको दूर करे है इस प्रकार रावण अपनी पुराण छोटी उमर में हो अन्धकार रूपी वैरियों के दूर करने को सूर्य समान होता भया ।
॥१३७॥
दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नामा नगर तहां राजामय विद्याधर बड़े योधा विद्याधरों में दैत्य कहावें जैसे रावण के बड़े राक्षस कहावें इंद्रके कुलके देव कहावें ये सब विद्याधर मनुष्य हैं । राजामयकी रानी हैमवती पुत्री मन्दोदरी जिसके सर्व गोपांग सुन्दर बिशालनेत्र रूप और लावण्यता रूपी जलकी सरोवरी इसको नवयोवन पूर्ण देख पिताको परणावनेकी चिन्ता भई तब अपनी राणी हैमवती से पूछा
प्रिये अपनी पुत्री मन्दोदरी तरुण अवस्थाको प्राप्त भई सो हमको बड़ी चिन्ता है पुत्रियों के यौन के आरम्भसे जो संताप रूप अनि उपजे उसमें माता पिता कुटंब सहित ईंधन के भावको प्राप्त हो हैं इस लिये तुम कहो यह कन्या किसको परणावें गुण कुल कांतिमें इसके समान होय उस को देना व राणी कहती भई हे देव हम पुत्री के जनने और पालने में हैं परणावना तुम्हारे श्राश्रय है जहां तुम्हारा चित्त प्रसन्न होय तहां देवो जो उत्तम कुलकी बालिका हैं ते भरतार के अनुसार चाले हैं जब राणी ने यह कहा तब राजाने मंत्रियोंसे पूछा तब किसीने कोई बताया किसीने इंद्र बताया कि वह सब विद्याधरोंका पति है उसकी आज्ञा लोपते सर्व विद्याधरडरे हैं तब राजामयने कही मेरी रुचि यह है जो यह कन्या रावणको दें क्योंकि उसको थोड़ेही दिनों में सर्व विद्या सिद्ध भई हैं इस लिये यह कोई बड़ा पुरुषहै जगतको आश्चर्यका कारण है तब राजाके बचन मारीच आदि सर्व मंत्रियोंने प्रयास किये वह मंत्री राजाके साथ कार्य में प्रवीणहैं तब भले ग्रह लग्न देख क्रूर ग्रह टार मारीचको साथ लेय राजा
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मय कन्या परणवनेको कन्याको रावण पैलेचले रावण भीम नामा बनमें चन्द्रहास खड्ग साधने को आए और चन्द्रहासकी सिद्धिकर सुमेरुपर्वत के चैत्यालयोंकी बन्दना को गयेथे सो राजामय हलकारों के कहने से भीम नामा वन में श्राए वह बन मानों काली घटाका समूहही है जहां अति सघन और ऊंचे वृक्ष हैं बन के मध्य एक ऊंचा महल देखा मानों अपने शिखरसे स्वर्गको स्पर्शे है रावण ने जो स्वयंप्रभ नामा नवा नगर बसायाथा उसके समीपही यह नगर है राजामयने विमान से उतर कर महलके समीप डेरा किया और वादित्रादि सर्व चाडंबर छोड़कर कैयक निकटवर्ती लोकों सहित मन्दोदरी को लेय महल पर चढ़े सातवें खण में गए वहां रावणकी बहिन चन्द्रनखा बैठी थी चन्द्र नखा मानों साक्षात बन देवीही मूर्तिवन्ती है चन्द्रनखा ने राजामयको और उसकी पुत्री मन्दोदरी को देखकर बहुत आदर किया बड़े कुलके बालकों के यह लचणही हैं बहुत बिनय संयुक्त इनके निकट बैठी तब राजामय चन्द्रनाको पूछते भए कि हे पुत्री तू कौन है किस कारण बन में अकेली बसे है तब चन्द्रनखा बहुत विनयसे बोली मेरा बड़ा भाई रावण है बेला करके उसने चन्द्रहास खड्ग को सिद्ध किया है और अब मुझे खड्गकी रक्षा सौंप सुमेरुपर्वत के चैत्यालयों की बन्दना को गए हैं। मैं भगवान चन्द्रप्रभु के चैत्यालय में तिष्ठं हूं तुम बडे हित सम्बन्धी हो जो तुम रावणसे मिलने
हो तो चणइक यहां बिराजो इस भांति इनके बात होयही रही थीं कि रावण श्राकाश मार्ग से एतेजका समूह नजर आया तब चन्द्रनखाने राजामयसे कही कि अपने तेजसे सूर्य के तेज को हरता हुआ यह रावण आया है रावण को देख राजामय बहुत आदर से खड़े हुए और रावण से मिले
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पद्म
पुराण
॥१३॥
| और सिंहासनपर विराजे तब राजामयके मंत्री मारीच तथा बज्रमध्य और बजनेत्र और नभस्तड़ित
उग्रनक्र मरुध्वज मेधावी सारणशुक ये सवही रावणको देख बहुत प्रसन्न भए और राजामयसे कहते भए हे दैत्यश आपकी बुद्धि अति प्रवीणहै जो मनुष्योंमें महापदार्थ था सो तुम्हारे मनमें बसा इस भांतिमयस कहकर ये मयके मंत्री रावणसे कहते भए हे दशग्रीव हे महाभाग्य आपका अद्भुत रूप और महा पराक्रमहै और तुम अति विनयवान अतिशयके धारी अनुपम बस्तु हो यह राजामय दैत्यों का अधिपति दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नामा नगरका राजाहै पृथ्वीमें प्रसिद्धहै हे कुभार तुम्हारे निर्मल गुणोंमें अनुरागी हुआ आयाहै तब रावणने इनका बहुत श्रेष्ठाचार किया और पाहुण गति करी और बहुत मिष्ट बचन कहे सो यह बड़े पुरुषोंके घरकी रीतिही है कि जो अपने द्वार आवे उसका श्रादर करें रावणने मयके मंत्रियोंसे कहा कि दैत्यनाथने मुझे अपना जान बड़ा अनुग्रह कियाहै तब मयने कहीं कि हे कुमार तुमको यही योग्यहै जो तुम सारिखे साधु पुरुपहें उनको सज्जनताही मुख्य है फिर रावण श्री जिनेश्वरदेवकी पूजा करनेको जिन मंदिरमें गए राजामयको और इसके मंत्रियोंको भी ले गए रावणने बहुत भावसे पूजाकरी खूब भगवानके आगे स्तोत्रपढ़े बारम्बार हाथ जोड़ नमस्कार किये। रोमांच होय पाए अष्टांग दण्डवतकर जिन मंदिरसे बाहिर आए रावणका अधिक अधिकउदय और । महा सुन्दर चेष्टाहै चूडामणिसे शोभे है शिर जिसका चैत्यालयोंसे बाहिर प्राय राजामय सहित आप सिंहासन पर विराजे राजासे वैताडके विद्याधरोंकी बात पूछी और मन्दोदरी की ओर दृष्टि गई तो देखकर मन मोहित भया मन्दोदरी सुन्दर लक्षणोंकर पूर्ण सौभाग्य रूपरत्नों की भूमि कमल समान
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॥१०॥
पद्म है चर्ण जिसके स्निग्धहै तनु जिसका लावण्यता रूपी जलकी प्रवाहही है महा लज्जा के योग से
नीचीहै दृष्टि जिसकी पुष्पों से अधिक है सुगंधता और सकुमारता जिसकी और कोमल हैं दोऊभुज लता जिसकी और शंखके कण्ठ समानह ग्रीवा [ गरदन ] जिसकी पूर्णमाशीके चन्द्रमा समान है मुख जिसका शुक [ तोता ] हीसे आत सुन्दर है नासिका जिसकी मानों दोऊ नेत्रोंकी कांति रूपी नदीका यह सेत्त बन्धही है मूंगा और पल्लवस अधिक लाल, अधर (होंठ) जिसके और महाज्योति को धरे अति मनोहरहे कपोल जिसका और वीणका नाद भ्रमरका गुंजार और उन्मत्त कोयलका शब्द से अति सुंदरहै शब्द जिसका और कामकी दूतीसमान सुंदरहै दृष्टि जिसकी नीलकमल और रक्त कमल और कुमदकोभी जीते ऐसाश्यामताप्रारक्तता शुक्लताको घरे मानों दशोंदिशामें तीन रंगके कमलोंके समूह ही बिस्तार राखेहैं और अष्टमीके चन्द्रमा समान मनोहरहै ललाट जिसका और लंबे बांको काले मुगन्ध सघन सचीवन केश जिसके कमल समानहैं हाथ और पांव जिसके और हंसनीको और हस्तनी को जीते ऐसी है चाल जिसकी और सिंहनीसे भी अति क्षीणहै काट जिसकी मानों साक्षात लक्ष्मी ही कमलके निवास को तजकर रावण के निकट ईर्षा को धरती हुई आई है ईर्षा क्योंकि मेरे होते हुवे रावण के शरीर को विद्या क्यों स्पर्शे ऐसा अद्भुत रूप को धरण हारी मन्दोदरी रावण के मन
और नेत्रों को हरती भई सकल रूपवती स्त्रियों का रूप लावण्य एकत्र कर इस का शरीर शुभ कर्म के उदय से बना है अंग अंग में अद्भुत श्राभूषण पहरे महा मनोज्ञ मन्दोदरी को अवलोकन कर रावण का हृदय काम बाणसे बींधा गया महा माधुर्यताकर युक्त जो रावण की दृष्टि उसपर गई थी वह
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पुराण
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१४१ ।।
1
हटकर पीछे आई परन्तु मधुकर मक्षकी नाईं घूमने लग गई रावण चित्त में सोचे कि यह उत्तम नारी श्री धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी सरस्वती इनमें यह कौन है परणी है वा कुमारी है समस्त श्रेष्ठ स्त्रियों की यह शिरोभाग्य है यह मन इन्द्रियोंकी हरणहारी जो मैं परं तो मेरा नवयौवन सुफल है नहीं तो तृणवत् वृथा है ऐसा विचार रावणने किया तब राजामय मन्दोदरी के पिता बड़े प्रवीण इसका अभिप्राय जान मन्दोदरीको निकट बुलाय रावण से कही कि ( इसके तुम पतिहो ) यह वचन सुन रावण अति प्रसन्न भया मानो अमृतसे गात सींचा गया हर्ष के अंकुरसमान रोमांच होय या सर्व वस्तु की इनके सामग्री थीही उसी दिन मन्दोदरी का विवाह भया रावण मन्दोदरीको परकर प्रति प्रसन्न होय स्वयंप्रभ नगर में गए राजा मयभी पुत्री को परणाय निश्चित भए पुत्री के विछोड़ेसे शोक सहित अपने देशको गए रावणने हजारों रानी परणी उन सबकी शिरोमणी मन्दोदरी होती भई मन्दोदरी भरतार के गुणों में हरागया है मन जिसका पतिकी आज्ञा कारणी होती भई रावण उस सहित जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित रमे तैसे सुमेरु के नन्दन बनादि रमणीक स्थानों में रमते भए मन्दोदरी की सर्व चेष्टा मनोग्य हैं अनेक विद्या जो रावण ने सिद्ध करी हैं उनकी अनेक चेष्टा दिखावते भए एक रावण अनेक रूप घर अनेक स्त्रियों के महलों में कौतहल करे कभी सूर्य की न्याई तपै कभी चन्द्रमाकी नांई चांदनी विस्तार कभी अग्नी की नाई ज्वाला बरषे कभी मेघकी नाई जल धारा श्रवे कभी पवन की न्याई पहाड़ों को चलाये कभी इन्द्रकीसी लीला करे कभी वह समुद्र कीसी तरंग घरे कभी वह पर्वत समान अचल दशा गहे कभी मस्त हाथी समान चेष्टा करे कभी पवन से अधिक वेगवाला अश्व बनजाय क्षण में
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पुराया
॥१४२॥
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नजीक क्षण में अद्दश्य क्षण में दृश्य क्षण में सूक्ष्म क्षण में स्थूल क्षण में भयानक क्षण में मनोहर इस भान्ति रमता भया ॥
एक दिवस रावण मेघवर नामा पर्वत पर गया वहां एक बापिका देखी निर्मल हैं जल जिसका अनेक जाति के कमलों से रमणीक है और क्रौंच हंस चकवा सारिस इत्यादि अनेक पक्षियों के शब्द होय रहे हैं और मनोहर हैं तट जिसके सुन्दर सिवाणों से शोभित हैं जिसके समीप अर्जुन आदि बडे बड़े बृत्तोंकी छाया होयरहीहै जहां चंचल मीनकी कलोलसे जलके बांटे उछल रहे हैं वहां रावण आया और अति सुन्दर छ हजार राज कन्या क्रीड़ा करती देखीं कैएक तो जल केलिमें छांटे उछाले हैं एक कमलों के बन में घुसीहुई कमन बदनी कमलों की शोभा को जीते हैं भ्रमर कमलों की शोभाको छोड़ इनके मुखपर गुञ्जारकरें हैं कैएक मृदंग बजावें हैं कैएक बीण बजावै हैं यह समस्त कन्या रावण को देखकर जल क्रीड़ाको तज खड़ी होय रहीं रावणभी उनके बीच जाय जल क्रीड़ा करने लगे तब वे भी जल क्रीड़ा करने लगीं वे सर्व रावण का रूप देख कामवाण कर बींधीगई सबकी दृष्टि इसको ऐसी लगी कि अन्यत्र न जाय इस कै और उनके राग भाव भया प्रथम मिलापकी लज्जा और मदन का प्रगट "होना सो तिनका मनहिंडौले में झूलता भया ऊन कन्याओं में जो मुख्य हैं उनका नाम सुनो राजा सुरसुन्दर राणी सर्वश्री की पुत्री पद्मावती नीलकमल सारिखे हैं नेत्र जिसके राजा बुध रानी मनोवेगा उसकी कन्या अशोकलता मानो साक्षात् अशोककी लताही है और राजा कनक रानी संध्या की पुत्री विद्युतप्रभा जो अपनी प्रभाकर बिजुली की प्रभाको लज्जावंत करे है सुन्दर है दर्शन जिसका बड़े कुल
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पद्म पुराण
की बेटी सबही अनेक कलाकर प्रवीण उनमें ये मुख्य हैं मानों तीनलोक की सुन्दरताही मूर्ति घर कर १४३॥ विभूति सहित आई हैं सो रावण ने छैः हजार कन्या गन्धर्व विवाह कर परणी वेभी रावणसहित नाना प्रकारकी क्रीड़ा करती भई तब इनकी लारजे खोजे और सहेलीथीं इनके माता पिताओंसे सकलवृत्तांत आकर कहती भई तब उन राजाओं ने रावण के मारिएको क्रूरसामन्त भेजे ते भ्रकुटी चढ़ाए होठ स er नाना प्रकारके शस्त्रों की वर्षा करते भए ते सकल अकेले रावण ने क्षणमात्र में जीत लिये वह भागकर कांपते राजा सुरसुन्दर पै गए जायकर हथियार डार दिए और बीनती करते भये कि हे नाथ हमारी आजीवकाको दूर करो अथवा घर लूट लेवो अथवा हाथ पांव छेदो तथा प्राण हरो हम रत्नश्रवा का पुत्र जो रावण उससे लड़ने को समर्थ नहीं वे समस्त छै हजार राजकन्या उसने पर और उनके मध्य क्रीड़ा करे है इन्द्र सारिखा सुन्दर चन्द्रमा समान कांतिधारी जिसकी क्रूर दृष्टि देवभी न सहारसकें उसके सामने हम रंक कौन हमने घनेही देखे रथनूपुर का धनी राजा इन्द्र आदि इसकी तुल्य कोऊ नहीं यह परम सुन्दर महा शूरवीर है ऐसे वचन सुन राजा सुरनुन्दर महा क्रोधायमान होय राजा बुध और कनक सहित बड़ी सेना लेय किसे और भी अनेक राजा इनके संग भए सो आकाश में शस्त्रोंकी कांति से air करते आए इन सब राजावों को देख कर ये समस्त कन्या भयकर व्याकुल भई और हाथ जोड़ कर रावणसे कहती भईं कि हे नाथ हमारे कारण तुम अत्यन्त संशयको प्राप्त भए हम पुण्यहीन हैं आप उठकर कहीं शरण लेवो क्योंकि ये प्राण दुर्लभ हैं तिनकी रक्षा करो यह निकटही श्रीभगवन् का मन्दिर है तहां छिप रहो यह क्रूरखैरी तुमको न देख आपही उठ जावेंगे ऐसे दीन वचन स्त्रियों के सुन
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पुराण
॥१४४॥
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और शत्रु का कटक निकट आया देख रावण ने लाल नेत्र कीये और इनसे कहते भए तुम मेरा परा - क्रम नहीं जानी हो इसलिए ऐसे कहो हो काक अनेक भेले भए तो क्या गरुड़ को जीतेंगे एक सिंह का बालक अनेक मदनमत्त हाथियोंके मदको दूर करें है ऐसे रावणके वचन सुन स्त्री हर्षित भई और aaaaaaa प्रभो हमारे पिता और भाई और कुटम्बकी रक्षाकरो तब रावण कहते भये हे प्यारा होगा तुम भय मतकरो धीरता गहो यह बात परस्पर होय है इतनेमें राजाओं के कटक आए तब रावण विद्याके रचे विमानमें बैठ क्रोधसे उनके सन्मुख भया ते सकल राजा उनके योधाओंके समूह जैसे पर्वत पर मोटी धारा मेघकी बरसे तैसे बाणोंकी वर्षा करते भए रावण विद्याओं के सागरने शिलाओं से सर्व शस्त्र निवारे और कैयक को शिलासेही भयको प्राप्त कीए फिर मनमें विचारी कि इन रंकों के मारणेसे क्या इनमें जो मुख्य राजा हैं तिनहींको पकड़ लेवों तब इन राजावोंको तामस शस्त्रोंसे मूर्द्धित कर नाग पाश से बांधलिया तब इन छै हजार स्त्रियों ने बीनती कर छुड़ाए तब रावण ने तिन राजा
बहुत सुश्रूषा करी तुम हमारे परमहित सम्बन्धी हो तब वे रावणका शूरत्वगुण देख महा विनयवान रूपवान देख बहुत प्रसन्न भए अपनी अपनी पुत्रियोंका पाणिग्रहण कराया तीन दिन तक महा उत्सव प्रवरता वे राजा रावण की आज्ञा लेय अपने अपने स्थानको गए रावण मन्दोदरीके गुणोंकर मोहित है चित्त जिसका स्वयंप्रभ नगर में आए तब इसको स्त्रियों सहित या सुनकर कुम्भकरण विभोषण भी सन्मुख गए रावण बहुत उत्साह से स्वयंप्रभ नगरमें आए और सुरराजवत् रमते भए ।
कुंभपुरका राजा मन्दोदर ताके राणी स्वरूपा इसकी पुत्री तडिन्माला सां कुंभकर्ण जिसका प्रथम
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॥१४५०
पद्म नाम भानुकर्णया उसने परणी कैसेहें कुंभकर्ण धर्म विषे आसक्तहे बुद्धि जिनकी और महा योधा हैं पुराण | अनेक कला गुणमें प्रवीण, हे श्रेणिक अन्यमति लोक जो इनकी कीर्ति और भांति कहेहैं कि मांस
और लोहका भक्षण करतेथे छै महीना की निद्रा लेते थे सो नहीं इनका श्राहार बहुत पवित्र स्वाद रूप सुगन्ध था प्रथम मुनियों को आहार देय और आर्यादिक को श्राहार देय दुखित भुखित जीव को श्राहार देय कुटंब सहित योग्य आहार करतेथे मांसादिककी प्रवृति नहीं थी और निद्रा इन को अर्धरात्रि पीछे अलपथा सदा काल धर्ममें लवलीनथा चित्तजिनका । चर्म शरीर जो बड़े पुरुषोंको मूंग कलंक लगावे हैं ते महा पापका बंध करे, ऐसा करना योग्य नहीं।
दत्तिणश्रेणीमें ज्योतिप्रभ नामा नगर वहां राजा विशुद्धकमल राजामयका वड़ा मित्र उसके राणी नंदन माला पुत्री राजीव सरसी सो बिभीषणने परणी अति सुंदर उस राणी सहित विभीषण अति कौतूहल करते भए अनेक चेष्टा करते जिनको रतिकोले करते तृप्ति नहीं कैसे हैं विभीषण देवन समान परम सुंदर है प्राकार जिनका और राणी लक्ष्मी से भी अधिक सुंदर है लक्ष्मी तो पद्म कहिए कमल उस की निवासिनी है और यह राणी पद्मराग माणके महलकी निवासिनी है। . ____ अथानन्तर रावण की राणी मन्दोदरी गर्भवती भई सो इसको माता पिताके घर ले गए वहां इन्द्रजीत का जन्म भया इन्द्रजीत का नाम समस्त पृथ्वी विषे प्रसिद्ध हुआ अपने नानाके घर वृद्धि को प्राप्त भया सिंह के बालक की नाई साहसरूप उनमत्त क्रीडा करता भया रावण ने पुत्र सहित.. मन्दारी अपने निकद बुलाई सो आज्ञा प्रमाण आई मन्दोदरी के माता पिता को इनके विछोडेका ।
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पद्म
॥४॥
अति दुःख भया रावण पुत्र का मुख देखकर परम आनन्दको प्राप्त भया मुपुत्र समान और प्रीति का स्थान नहीं फिर मन्दोदरी को गर्भ रहा तब माता पिता के घर फेर ले गए तहां मेघनाद का जन्म भया फिर भरतारके पास श्राई भोगके सागरमें मग्न भईहै मन्दोदरीने अपने गुणोंसे पतिका चित्त वश किया अब ये दोनों बालक इंद्रजीत और मेघनाद सज्जनोंको श्रानंदके करणहारे मुंदर चरित्रवान तरुण अवस्थाको प्राप्त भए विस्तीर्णहें नेत्र जिनके जोवृषभसमान पृथ्वीका भार चलावनहारे हैं।
वैश्रवण जिन जिन पुरों में राज करे उन हजारों पुरों में कुंभकर्ण धावे करते भए जहां इन्द्रका और वैश्रवण का माल होय सो छीन कर अपनी स्वयंप्रभ नगर में ले आवे इस बातस वैश्रवण बहुत क्रोधायमान भए बालकोंकी चेष्टा जान मुमाली रावण के दादा के निकट दूत भेजे वैश्रवण इंद्रके जोर से अति गर्वित है सो वैश्रवणका दूत द्वारपालसे मिल सभा में पाया और मुमाली से कहता भया हे महाराज वैश्रवण नरेन्द्र ने जो कहा है सो तुम चित्त देय सुनों वैश्रवणने यह कहा है कि तुम पंडित हो कुलीन हो लोक रीति के ज्ञायक हो वडे हो याकार्यके संगसे भयभीत हो औरों को भले मार्गके उपदेशक हो ऐसे जो तुम सो तुम्हारे आगे यह बालक चपलता करें तो क्या तुम अपने पोतावों को मने न करो। तियच और मनुष्य में यही भेदहै कि मनुष्य तो योग्य अयोग्यको जाने है और तियच न जाने है यही विवेक की रीति है करने योग्य कार्य करिए न करने योग्य न करिये जो दृदिचित्त हैं वे पूर्व वृतान्तको नहीं भूलें हैं और बिजुली समान क्षण भंगूर विभूति के होते हुवे भी गर्वको नहीं धरे हैं आगे क्या राजा माली के मरणेस तुम्हारे कुलकी कुशल भई है |
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४१४७॥
पद्म | अब यह क्या दानाई है जो कुलके मूलनाश का उपाय करतेहो ऐसा जर तमें कोई नहीं जो अपने
कुलके मूलनाश को श्रादरे तुम क्या इन्द्रका प्रताप भूल गए जो ऐसे अनुचित काम करोहो इन्द्र विध्वंस कियेहें बैरी जिसने समुद्र समान अथाहहै सो तुम मींडकके समान सर्पके मुखमें क्रीड़ा करो हो सर्पका मुख दाढ़ रूपी कंटकसे भरा है और विष रूपी अग्निके कण जिसमें से निकसे हैं अपने पोते पड़ोतों को जो तुम शिक्षा देनेको समर्थ नहीं हो तो मुझे सौंपो में इनको तुरंत सीधे करूं और ऐसा न करोगे तो समस्त पुत्र पौत्रादि कुटंब को बेडियोंसे बंधा मलिन स्थानमें रुका देखोगे अनेक भांतिकी पीडा इनको होगी। पताल लंकास जरा जरा बाहिर निकसेहो अब फिर वहां ही प्रवेश किया चाहोहो इस प्रकार दूतके कठोर बचन रूपी पवन से स्पर्श है मन रूपी जल जिसका ऐसा रावण रूपी समुद्र अति क्षोभ को प्राप्त भया क्रोधसे शरीरमें पसेव आगया और आंखोंकी अारक्त ता से समस्त आकाश लाल हो गया और क्रोध रूपी स्वरके उच्चारमा से सर्व दिशा बधिर करते । हुवे और हाथियों का मद निवारते हुवे गाजकर ऐसा बोले कि कौन है वैश्रवण और कौन है इन्द्र जो हमारे गोत्रकी परिपाटीसे चलीबाई जो लंका उसको दाब रहे हैं जैसे कागअपने मन सियाना होय रहे और स्याल आपको अष्टापद माने तैसे वह रंक आप को इन्द्र मान रहा है यह निर्लज्ज है अधम पुरुष है अपने सेवकोंसे इन्द्र कहाया तो क्या इन्द्र हो गया । हे कुदुत हमारे निकट तू ऐसे कठोर बचन कहता हुआ कुछ भय नहीं करता ऐसा कहकर म्यान से खडग काढ़ा आकाश खडग के तेजसे ऐसा व्याप्त होगया जैसे नील कमलों के बन से महा सरोवर ब्याप्त होय । तब बिभीषण
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पद्म
॥१४॥
ने बहुत बिनय से रावण से बिनती करी और दूत को मारने न दिया और यह कहा कि हे महाराज यह पराया चाकर है इसका अपराध क्या जो वह कहावे सो यह कहे इसमें पुरुषार्थ नहीं अपनी देह आजीवका निमित्त पालने को बेंची है यह सूत्रा समानहै । ज्यों दूसराबुलावे त्यों बार्ले यह दूत लोग हैं इनके हिरदे में इनका स्वामी पिशाच रूप प्रवेश कर रहाहै उसके अनुसार बचन प्रवरते हैं जैसे वाजिंत्री जिस भांति बादित्र को बजावे उसी भांति वाजे तैसे इनकी देह पराधीन है स्वतंत्र नहीं इस लिये हे कृपानिधे प्रसन्न होवो और दुखी जीवोंपर दया करो हे निष्कपट महाधीर रंकके मारणेसे लोकमें बडी अपकीर्ति होयहै यह खडग तुम्हारा शत्रु लोगों के सिरपर पडेगा दीनके बध करने योग्य नहीं जैसे गरुड गिडोंयों को न मारे तैसे श्राप अनाथको न मारो इस भांति विभीषण ने उत्तम बचन रूपी जलसे रावणकी क्रोधाग्नि बुझाई बिभीषण महा सत्पुरुष हैं न्याय के वेताह रावणके पायन पड दूतको बचाया और सभाके लोकोंने दूत को बाहिर निकाला।
दूतने जायकर सर्व समाचार वैश्रवणसों कहे रावणके मुखकी अत्यंत कठोर वाणी रूपी इंधनसे वैश्रवण के क्रोधरूपी अग्नि उठी सो चित्तमें न समावे वह मानों सर्व सेवकोंके चित्तको बांटदीनी भावार्थसर्व क्रोधरूप भए रणसंग्रामके बाजे बजाए वैश्रवण सर्व सेनाले युद्धके अर्थ बाहिर निकसे इस वैश्रवणके बंशके विद्याधर यक्ष कहावें सो समस्त यक्षोंको साथ ले राक्षसों पर चले अति झलझलाट करते खडग सेल चक बाणादि अनेक आयुधों को धरेहैं अंजन गिरि समान मस्त हाथियों के मद मेरे हैं वे मानों नीझरनेही हैं तथा बडे रथ अनेक रत्नोंसे जड़े संध्याके बादलके रङ्ग समान मनोहर महा तेजबन्त अपने ।
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पद्म पुराण ॥१४॥
वेग से पवन को जीते हैं तैसेही तुरंग और पयादयों के समूह समुद्र समान गाजते युद्ध के अर्थ चले देवों के विमान समान सुन्दर विमानोंपर चढ़े विद्याधर राजा वैश्रवण के लार चले और रावण इनके पहिलेही कुम्भकरणादि भाइयों सहित बाहिर निकसे युद्धकी है अभिलाषा रखती हुई दोनों सेनाओं का संग्राम गुञ्ज नामा पर्वत के ऊपर हुवा शस्त्रों के पात से अग्निही अग्नि दिखाई देनेलगी षड़गोंके घात से घोडौं के हीसिने से पयादों के नादसे हाथियों के गरजिनेसे रथोंके परस्पर शब्द से वादित्रों के बाजने से तथा बाणों के उग्र शब्द से इत्यादि भयानक शब्दों से रणभूमि गाजती भई घरती श्राकाश शब्दायमान होय रहे हैं वीर रसका राग होय है योघाओं को मद चढ़ रहा है यमके बदन समान चक्र तीक्ष्ण है घारा जिनकी और यम की जीभ समान षड्ग रुधिरकी धारा वर्षावन हारी और यमके रोम समोन सेल और यमकी आंगुली समान शर (बाण) और यमकी भुजा समान परिध (कुहाड़ा) और यमको मुष्टि समान मुदगर इत्यादि अनेक शस्त्रों से परस्पर महा युद्ध प्रवरता कायरों को त्रास और योधानों को हर्ष उपजा सामन्त सिरके बदले यशरूप घनको लेवे हैं अनेक राक्षस और कपि जातिके विद्याधर और यक्ष जातिके विद्याधर परस्पर युद्धकर परलोकको प्राप्त भए कुछ इक यक्षोंके आगे राक्षस पीछे हटे तब रावण अपनी सेनाको दवी देख आप रण संग्राम को उद्यमी भए महामनोज्ञ सफेद छत्र रावणके सिरपर फिरै हैं काले मेघ समान चन्द्र मण्डलकी कांति का जीतनेवाला रावण धनुष वाण धारे इन्द्र धनुषसमान अनेक रंगका वकतर पहिरे शिरपर मुकट घरे नाना प्रकार के रत्नों के आभूषण संयुक्त अपनी दीप्ति से आकाश में उद्योत करता आया रावणको देखकर यक्ष जातिके विद्याधर क्षणमात्र में ।
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पद्म विलषे तेजदूर होगया रणका अभिलाष छोड़ पराङ्मुख भए त्राससे आकुलित भयाहै चित्त जिनका भ्रमर on की न्याई भ्रमते भए तब यक्षोंके अधिपति बड़े बडे याघा एकट्टे होकर रावणके सन्मुख आए रावण
सबके छेदनेको प्रवरता जेसे सिंह उछलकर मस्त हाथियोंके कुम्भस्ल विदारे तैसे रावण कोपरूपी पवन के प्रेरे अग्नि स्वरूप होकर शत्रुसेना रूपी बनको दाह उपजावते भए ऐसा कोई पुरुष नहीं कोई स्थ नहीं कोई अश्व नहीं कोई हाथी नहीं कोई विमान नहीं जो रावणके बापोंसे न बींधागया हो तव रावणको रणमें देख वैश्रवण भाईपनेका स्नेह जनावता भया और अपने मनमें पंछताया जैसे बाहूबल भरतसे लड़ाई कर पछताए थे तैसे वैश्रवण रावणसे विरोध कर पछताया हाय यह संसार दुःखका भाजन है जहां यह | पाणी नाना योनियों में भ्रमण करे है देखो में मूर्ख ऐश्वर्य से गर्वित होकर भाई के विध्वंश करने में प्रवरता यह विचारकर वैश्रवण रावणसे कहताभया हे दशानन यह राजलक्ष्मी क्षणभंगुरहे इसके निमित्त क्या पाप करें में तेरी बड़ी मौसी का पुत्रहूं इसलिये भाइयों से अयोग्य व्यवहार करना योग्य नहीं और यह जीव प्राणियोंकी हिंसा करके महा भयानक नरक को प्राप्त होयहे नरक महा दुखसे भराहै जगतके जीव विषयोंकी अभिलाषा में फंसे हैं आंखों की पलक मात्र क्षण जीवना क्या तू न जाने है भोगों के कारण पाप कर्म काहेको करै है तब रावण ने कहा हे वैश्रवण यह धर्म श्रवण का समय नहीं जो मस्त हाथियों पर चढ़े और खडग हाथ में घारें सो शत्रुवोंको मारें तथा श्राप मरें बहुत कहने से क्या तू तलवार के मार्ग में तिष्ठ अथवा मेरे पांव पड़ यदि तू धनपालहै तो हमारा भंडारीहो अपना कर्म करते पुरुष लज्जा न करै तब वैश्रवण बोले हे रावण तेरी आयु अल्पहै इसलिये ऐसे क्रूर वचन कहे है अपनी शक्ति प्रमाण |
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पद्म पुराण
# १५९ ।।
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हमारे ऊपर शस्त्रका प्रहार कर तब रावण ने कहा तुम बड़े हो प्रथमबार तुम करो तब रावणके ऊपर वैश्रवण ने बाण चलाये जैसे पहाड़ के ऊपर सूर्य किरण डारै वैश्रवण के बाण रावणने अपने बाणों से काटडारे और अपने बाणों से शर मण्डप कर द्वारा फिर वैश्रवणने अर्धचन्द्र बाणों से रावण का धनुष छेदा और रथ से रहित किया तब रावण ने मेघनादनामा रथपर चढ़कर वैश्रवण से युद्ध किया उल्कापात समान वज्र दण्डों से वैश्रवण का वगतर चूर डारा और वैश्रवणके सुकोमल हृदय में भिडिपाल मारी वह मूर्छा को प्राप्त भया तब उसकी सेना में अत्यन्त शोक भया और राक्षसों के कटक में बहुत हर्ष भया वैश्रवण के लोक वैश्रवण को उठाकर यक्षपुर लेगए और रावण शत्रुवों को जीतकर रणसे निवृते । सुभटका शत्रु के जीतने का प्रयोजन है धनादिक का प्रयोजन नहीं ।
अथानन्तर वैश्रवण का वैद्यों मे यतन किया सो अच्छा हुवा तब अपने चित्तमें विचारे है कि जैसे पुष्प रहित वृक्ष सींग टूटा बैल कमल विना सरोवर न सोहै तैसे मैं शूरवीरता विना न सोहूं जो सामन्त हैं और क्षत्री वृत्ती का विरद घारै हैं उनका जीतव्य सुभटत्वहीसे शोभे है और तिनको संसारमें पराक्रम ही से सुख है सो मेरे अब नहीं रहा इसलिये अब संसार का त्याग कर मुक्तिका यत्न करूं यह संसार असार है क्षणभंगुर है इसीसे सत्पुरुष विषय सुखकोनहीं चाहे हैं यह अन्तराय सहित हैं और अल्प हैं दुखी हैं ये प्राणी पूर्व भव में जो अपराध करे है उसका फल इस भवमें पराभव होय है सुख दुःख का मूल कारण कर्मही हैं और प्राणी निमित्त मात्र है इसलिये ज्ञानी तिनसे कोप न करै ज्ञानीसंसारके स्वरूपको भली भांति जाने हैं यह केकसी का पुत्र रावण मेरे कल्याणका निमित्त हुवा है जिसने मुझे गृह
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॥१५२०
पण वास रूप महा फांसी से छुड़ाया और कुम्भकरण मेरा परम मित्रहै जिसने यह संग्रामका कारण मेरे ज्ञान |
का निमित्त बनाया ऐसा विचार कर वैश्रवण ने दिगम्बरी दीक्षा श्रादरी परम तपको आराध कर परम घाम पधारे संसार भ्रमण से रहित भए। ____ रावण अपने कुलका अपमानरूप मैलधोकर सुख अवस्थाको प्राप्तभया समस्त भाइयोंने उसको राक्षसों का शिखर जाना बैश्रवण की असवारी का पुष्पक नामा विमान महा मनोग्य है रत्नों की ज्योति के अंकुरे छुटरहे हैं झरोखेही हैं नेत्र जिसके निर्मल कांतिके धारणहारे महा मुक्ताफलकी झालरोंसे मानों अपने स्वामीके वियोगसे अश्रुपात्रही डारे हैं और पद्मरोगमणियों की प्रभासेपारक्तताको धारे हैं मानो यह वैश्रवण का हृदयही रावण के किये घाव से लाल होरहा है और इन्द्र नील मणियोंकी प्रभा केसे अति श्याम सुन्दरता को धरै हैं मानो स्वामी के शोकसे सांउला होयरहा है चैत्यालय बन बापी सरोवर अनेक मन्दिरोंसे मण्डित मानों नगर का आकारही है रावण के हाथ के नाना प्रकारके घाव से मानों घायल होरहा है रावणके मन्दिर समान ऊंचा जो वह विमान उसको रावण के सेवक रावण के समीप लाए वह विमान आकाश का मण्डनहीं है इस विमान को बैरीके भंग का चिन्ह जान रावणने अादरा
और किसीका कुछभी न लिया रावण के किसी वस्तुकी कमी नहीं विद्यामई अनेक विमान हैं तथापि पुष्पक विमान में विशेष अनुराग से चढ़े रत्नश्रवा तथा केकसी माता और समस्त प्रधान सेनापति तथा भाई बेटों सहित आप पुष्पक विमान में प्रारूढ़ भया और पुरजन नाना प्रकारके बाहनों पर आरूढ़भए पुष्प के मध्य महा कमल बनहें तहां आप मन्दोदरी आदि समस्त राज लोकों सहित आप विराजे हैं
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रावण की गति अखण्डहै अपनी इच्छासे आश्चर्यकारी प्राभूषण पहरे है और श्रेष्ठ विद्याधरी चमर पद्म पुराण
ढोरे, मलयागिरिक चन्दनादि अनेक सुगन्ध अंगपर लगी, चन्द्रमाकी कांति समान उज्ज्वल छत्र ॥१५३॥
फिर है मानो शत्रुओंके भंगसे जो यश विस्तारा है उस यशसे शोभायमान है । धनुष त्रिशूल खडग सेल पाश इत्यादि अनेक हथियार जिनके हाथमें ऐसे जो सेवक तिनकर संयुक्तहै वे महा भक्ति युक्ति हैं और अद्भुत कर्म के करणहारे है तथा बड़े २ विद्याधर राजा सामन्त शत्रुओंके समूहके क्षय करण हारे अपने गुणों से स्वामी के मनके मोहने वाले महा विभवसे शोभित तिनसे दश मुख मंडित है परम उदार सूर्यका सा तेज धरता पूर्वोपार्जित पुण्यका फल भोगता हुआ दक्षिणके समुद्रकी तरफ जहां लंका है इसी ओर इंद्रकी सी विभूतिसे चला कुंभकर्ण भाई हस्तीपर चढ़े विभीषण रथपर चढ़े 'अपने लोगों सहित महा विभूतिसे मंडित रावण के पीछे चले राजामय मन्दोदरीके पिता दैत्यजाति के विद्याधरों के अधिपति भाइयों सहित अनेक सामन्तोंसे युक्त तथा मारीच अंवर विद्युतबज्रबचादर बुधवज्राक्षकर क्रूरनक्रसारनसुनय शुकइत्यादि मंत्रियों सहित महा विभूतिकर मंडित अनेक विद्याधरोंके राजा रावणके संग चले कैएक सिंहोंके रथ चड़े कैएक अष्टापदों के रथपर चढ़कर बन पर्वत समुद्र, की शोभा देखते पृथ्वी पर बिहार किया और समस्त दक्षिण दिशा बश करी ।
अथानन्तर एक दिन रास्ते में रावणने अपने दादा सुमालीसे पूछा हे प्रभो हे पूज्य इस पर्वत के मस्तकपर सरोवर नहीं सो कमलोंका बन कैसे फूल रहा है यह आश्चर्य है और कमलों का बन | चंचल होताहै यह निश्चलहै इस भांति सुमाली से पूछा कैसा है रावण बिनय करनमीभूत है शरीर ||
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प
जिसका तब सुमाली ननः सिद्धेभ्यः वह मन्त्र पढ़कर वाहते भए हे पुत्र यह कमलोंके बन नहीं इस पुराण
पर्वतके शिखर पर पदमरागमणि मई हरिषेण चक्रवर्तीके कराए हुए चैत्यालय, जिनपर निर्मलध्वजा ॥१५४
फरहरे हैं । और नाना प्रकार के तोरणोंसे शोभे हैं हरिषेण महा सज्जन पुरषोत्तम थे जिनके गुण कहनेमें न आहे पुत्र तू उतरकर पवित्र मन होकर नमस्कारकर तब रावणने बहुत बिनयसे जिन मंदिरों को नमस्कार किया और बहुत आश्चर्य को प्राप्त भया और सुमाली से हरिषेण चक्रवर्ति की कथा पूछी हे देव आपने जिसके गुण वर्णन किये उसकी कथा मुझ से कहो तब सुमाली कहे है हे दशानन तैं भली पूछी पाप नाश करनहारा हरिषेण का चरित्र सो सुन । कंपिल्या नगर में राजा सिंहध्वज उनके राणी वा जोमहा गुणवती सौभाग्यवती राजाके अनेक राणीथी परन्तु राणी वा उनमें तिलक थी उसके हरिषेण चक्रवर्ति पुत्र भए चौसठ शुभ लक्षणों से युक्त पाप कर्म के नाशने हारे | इनकी माता वप्रा महा धर्मवती सदा अष्टानिका के उत्सवमें रथ यात्रा किया कर इसकी सौकन रानी महालक्ष्मी सौभाग्यके मदसे कहती भई कि पहिले हमारा ब्रह्म रथ नगरमें भ्रमण हुश्रा करेगा पीछे तुम्हारा । यह बात सुन राणी वा हृदय में खेद भिन्न भई मानों बज्रपातसे पीड़ी गई उसने ऐसा प्रतिज्ञा करी कि हमारे वीतरागका रथ अाइयों में पहले न निकसेगा तो मैं आहार नहीं करूंगी ऐसा कहकर सर्व कार्य छोड़ दिया शेक से मुख मुरझाय गया अश्रुपात की बून्द श्रांखोंसे डालती हुईं माता को देखकर हरिषेण ने कहा हे माता अब तक तुमने स्वपने मात्र में भी रुदन न किया था अब यह अमंगल कार्य क्यों करो हो तब माता ने सर्व वृतान्त कहा सुनकर हरिषेण ने मनमें
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पद्म
पुराण
५१५५॥
| सोची कि क्या करूं एक ओर पिता एक ओर माता में बड़े संकटमें पड़ाहूं और मैं माताके अश्रुपात |
देखनेको समर्थ नहीं हूं सो उदासहा घरसे निकस बनको गए तहां मिष्ट फलोंको भक्षण करते और सरोवरों का निर्मल जल पीते निर्भय बिहार किया इनका सुंदर रूप देखकर निर्दयी पशुभी शांत हो गये ऐसे भव्य जीव किसको प्यारे न हों तहां बनमें भी जब माताका रुदन याद आवै तब इनको ऐसी वाधा उपजे कि बनकी रमणीकता का सुख भूल जावै सो हरिषेण बन में विहार करते शत मन्यु नामा तापसके अाश्रममें गए जहां बनके जीवोंका आश्रय है। ____ कालकल्प नामा राजा अति प्रबल जिसका बड़ा तेज और बड़ी फौज उसने अानकर चंपा नगरी घेरी जनमेजय वहांका राजा सो जनमेजय और कालकल्पमें युद्ध भया आगे जनमेजय ने महल में सुरंग बना राखी थी सो उस मार्ग होकर जनमेजयकी माता नागमती अपनी पुत्री मदनावली सहित निकसी और शतमन्युतापस के आश्रममें आई नागमतीकी पुत्री हरषेणका रूप देख कर काम के वाणोंसे बींधी गई । कामके बाण शरीरमें विकलता के करणेहारे हैं यह बात नागमती कहती भई हे पुत्री तू विनयवान होकर सुन कि मुनिने पहिलेही कहा था कि यह कन्या चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न होयगी सो यह चक्रवर्ति तेरे बर हैं यह सुनकर अति यासक्त भई तब तापसीने हरिपेगा को निकास दिया क्योंकि उसने बिचारी कि कदाचित् इनके संसर्ग होय तो इस बातसे हमारी अकीर्ति होयगी सो चक्रवर्ति इनके आश्रमसे और ठौर गए और तापसी को दीनजान युद्ध न किया परन्तु चित्तमें वह कन्या बसी रही सो इलको भोजनमें और शयनमें किसी प्रकार स्थिरता नहीं जैसे भामरी
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पुराण ११५६।।
पद्म विद्यासे कोऊ भूमै तैसे ये पृथ्वीमें भ्रमण करते भए । मान नगर बन उपवन लताओंके मंडपमें इन
को कहीं भी चैन नहीं कमलों के बन दावानल समान दीखें और चन्द्रमाकी किरण बजकी सुंई समान दीखै और केतकी बरछी की अणी समान दीखै पुष्पोंकी सुगन्ध मनको न हरे चित्तमें ऐसा चिंतवते भए जो में यह स्त्रीरत्न बरूं तो में जायकर माताका भी शोक संताप दूर करूं । नदियों के तटपर और बन में ग्राममें नगरमें पर्वतपर भगवानके चैत्यालय कराऊं यह चिंतवन करते हुवे अनेक देश भूमते सिंधुनंदन नगरके समीप पाए हरिषेण महा बलवान अति तेजस्वी हैं वहां नगरके बाहिर
अनेक स्त्री क्रीडाको आई थीं एक अंजनगिरि समान हाथी मद झरता स्त्रियोंके समीप पाया महा वतने हेला मारकर स्त्रियोंसे कही कि यह हाथी मेरे बश नहीं तुम शीघही भागो तब वह स्त्रियां हरिषेण के शरणे आई हरिषेण परमदयालुहै महायोधाहे वह स्त्रियोंको अपने पीछे करके आप हाथी के सन्मुखभएपौरमनमें विचारी किवहां तो वेतापसदीनथे इसलिये उनसे मैंने युद्धन किया वे मृगसमानथे परंतु यहां यह दुष्टहस्ती मेरे देखतेस्त्री बालादिकको हने और मैं सहायन करूं सो यह क्षत्रीवृत्ति नहीं यह हस्ती इन बालादिक दीनजनको पीड़ादेनको समर्थहै जैसवैलसींगोंसे बंमईको खोदे परंतु पर्वतकेखोदनेको समर्थ नहीं
औरकोई वाणसे केलेकेवृक्षको छेदेपरंतु शिलाकोनछेदसके तैसेहीयहहाथीयोधावोंको उड़ायवेसमर्थ नहींतब श्रापमहावतको कठोर बचनसेकहीकि हस्तीको यहांसे दूरकर तवमहावतनेकही तभीबड़ाढीठहैहाथीकोमनुष्य जानैहै हाथी आपही मस्त होय रहाहै तेरी मौत आईहै अथवा दुष्ट ग्रह लगाहै तू यहां से बेगभाग, तब आप हंसे और स्त्रियों को तो पीछे कर दिया और आप ऊपरको उछल हाथी के दांतोंपर पगदेय कुम्भस्थल
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पुराण
॥१५॥
पद्म पर चढ और हाथीसे बहुत क्रीडा करी कैसे हैं हरिषेण कमल सारिपे हैं नेत्र जिनके और उदार है
वक्षस्थल जिनका और दिग्गजों के कुम्भस्थल समानहें कांधे जिनके और स्तम्भ समान हैं जांघ जिन की तब यह वृत्तान्त सुन सब नगर के लोग देखनेको पाए राजा महल ऊपर चढ़ा देखरहाथा सो अाश्चय को प्राप्त भया अपने परिवारके लोग भेज इनको बुलाया यह हाथी पर चढ़े नगर में पाए नगर के नर नारी समस्त इनको देख २ मोहित होय रहे क्षणमात्रमें हाथी को निर्मद किया यह अपने रूपसे समस्त का मन हरते नगर में आए राजाकी सौ कन्या परणी सर्व लोक में हरिषेणकी कथा भई राजासे अधिकार सन्मान पाय सर्व बातों से सुखी है तौभी तपसियों के बनमें जो स्त्री देखी थी उस बिना एक रात्रि वर्षसमान बीते मनमें चितवते भये कि मुझ बिना वह मृगनयनी उस विषम वन में भृगी समान परम अाकुलताको प्राप्त होयगी इसलिये मैं उसके निकट शीघही जाऊं यह विचारते रात्रीको निद्रा न श्राती जो कदाचित अल्प निद्रा आई तौभी स्वप्न में उसीही को देखा कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके मानों इनके मनहीं में बस रही है।
विद्याधर राजा शक्रधनु उसकी पुत्रीजयचन्द्रा उसकीसखी वेगवती वह हरिषेणको रात्रि विषे उठाय कर आकाश में लेचली निद्राक्षय होनेपर आपको आकाश में जातो देख कोपकर उससे कहते भए हे पापिनी हमको कहां लेजाय है यद्यपि यह विद्यावल कर पूर्ण है तौभी इनको क्रोध रूपी मुष्टि बांधे होंठ डसते देखकर डर कर इनसे कहती भई कि हे प्रभु कोई मनुष्य जिस वृक्षकी शाखा पर बैठा हो उसही को का, तो क्या यह सयानपना है सो में तो तुम्हाररी हितकारिणी और तुम मुझे हतो यह उचित
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पुराण
पद्म | नहीं में तुमको उसकेपास लेजाऊहूं जो निरन्तर तुम्हारे मिलापकी अभिलाषिनीहै तब यह मनमें विचारते ॥१५८०
भए कि यह मिष्टभाषिणीपर पीड़ा कारिणी नहीं है इसकी प्राकृति मनोहर दीखे है और आज मेरी दाहिनी अांखभी फड़के है इसलिये यह हमारी प्रियाकी सङ्गम कारिणी है फिर इसको पूछा हे भद्रे तू अपने प्रावने का कारण कह तब वह कहै है कि सूर्योदय नगर में राजा शक्रधनु राणी घी और पुत्री जयचन्द्रा वह गुणरूपी से मदसे महा उनमत्त है कोई पुरुष उसकी दृष्टि में न आवे पिता जहांपरणाया चाहेसो यह माने नहीं मैंने जिस जिस राज पुत्रों के रूप जित्र पटपर लिख दिखाए उनमें कोइ भी उसके चित्त में न रुचे तब मैंने तुम्हारे रूपको चित्राम दिखाया तब वह मोहित भई और मुझको ऐसा कहती भई कि मेरा इस नर से संयोग न होय तो मैं मृत्यु को प्राप्त होऊंगी और अधम नरसे सम्बन्ध न करूंगी तब मैंने उसको धीर्य बन्धाया और ऐसी प्रतिज्ञा करी कि जहां तेरी रुचि है में उसे न लाऊं तो अग्नि में प्रवेश करूंगी अति शोकवन्त देख मैंने यह प्रतिज्ञाकरी उसके गुण से मेरा चित्त हरागया है सो पुण्यके प्रभावसे आप मिले मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण भई ऐसा कह सूर्योदय नगरमें लेगई राजाशक्रधनुसे ब्योरा कहा राजाने अपनी पुत्रीका इनसे पाणीग्रहण कराया और वेगवती का बहुत यशमाना इनका विवाह देख परिजन और पुरजन हर्षित भए बर कन्या अद्भुत रूप के निधान हैं इनके विवाह की वार्ता सुन कन्या के मामा के पुत्र गंगाधर महीधर क्रोधायमान भए कि कन्या ने हमको तजकर भूमिगोचरी वरा यह विचारकर युद्धको उद्यमीभए तब राजा शकधनु हरिषेण से कहता भया कि में युद्ध में जाऊं श्राप नगरमें तिष्ठो वे दुराचारी विद्याधर युद्धकरनेको पाए हैं तब हरिषेण सुसर से कहते भए कि जो पराए
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पद्म
१५ ।।
कार्यको उद्यमी होय वह अपने कार्यको कैसे उद्यम न करे इसलिये हे पूज्य मुझे आज्ञाकरो मैं युद्ध करूंगा पुराण तब सुसरने अनेक प्रकार निवारण किया पर यह न रहे नाना प्रकार हथियारों से पूर्ण ऐसे रथपर चढ़े जिसमें पवनगामी व जुरें और सूर्य बीर्य सारथी हां इनके पीछे बड़े बड़े विद्याधर चले कई हाथियों पर चढ़े कई अश्वोंपर चढ़े कई रथोंपर चढ़े परस्पर महा युद्ध भया कबुयक शक्रधनु की फौज हटी तब आप हरिषेण युद्ध करनेको उद्यमी भए सो जिस ओर रथचलाया उस ओर घोड़ा हस्ती मनुष्य रथ कोऊ टिकै नहीं सब बाणों कर बींधे गए सब कांपते युद्ध से भागे महा भयभीत कहते भये गंगाधर महीधर ने बुरा किया जो ऐसे पुरुषोत्तमसे युद्ध किया यह साक्षात् सूर्य समान हैं जैसे सूर्य अपनी किरण पसारे तैसे यह aria वर्षा करे है अपनी फौज हटी देख गंगाधर महीधरभी भाजे तब इनके क्षणमात्र में रत्नभी उत्पन्न भए दशवां चक्रवर्त्ति महा प्रतापको घरै पृथिवी पर प्रगट भया यद्यपि चक्रवर्त्ति की विभूति पाई परन्तु अपनी स्त्री रत्न जो मदनावली उसके परणवेकी इच्छासे द्वादश योजन परिमाण कटक साथलेराजाओं को निवारते तपस्वियों के बनके समीप आये तपस्वी बनफल लेकर प्राय मिले पहिले इनका निरादर किया था इससे शंकावान थे सो इनको अति विवेकी पुण्याधिकारी देख हर्षित भए शतमन्युका पुत्र जो जन्मेजय और मदनावलीकी माता नागमती उन्होंने मदनावली को चक्रवर्तिको विधिपूर्वक परणाई तब थाप चक्रवर्त्तिविभूति सहित कम्पिल्या नगरमें आए बत्तीस हजार मुकटबन्ध राजाओंने सङ्गआकर माता के चरणार विंदकोहाथजोड़नमस्कार किया माता वप्रा ऐसे पुत्रकोदेख ऐसी हर्षित भई जो गातमें न समावे हर्षके अश्रुपात करव्याप्त 'भएहैं लोचनजिसके तवचक्रवर्त्ति ने जब अष्टानिका आई तो भगवान का रथ सूर्य से भी महा
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पक्ष्य
पुराण ॥१६॥
मनोग्य काढ़ा अष्टानिकाकी यात्रा करी मुनि श्रावकों को परमानन्द भया बहुत जीव जिन धर्म को अंगीकार करते भये सो यह कथा सुमाली ने रावण सों कही हेपुत्र उस चक्रवर्ति ने भगवान के मन्दिर पृथिवी पर सर्वत्र पुर प्रामादि में तथा परवतोंपर तथा नदियोंके तटपर अनेक चैत्यालय रत्नमई स्वर्णमई कराए वे महापुरुष बहुत काल चक्रवर्ति की सम्पदा भोग मुनि होय महा तप कर लोक शिखर सिधारे यह हरिषेणका चरित्र रावण सुनकर हर्षित भया सुमालीकी वारम्वार स्तुति करी और जिन मन्दिरोंका दर्शन कर रावण डेरे में आया डेरा सम्मेद शिखर के समीप भया।
रावण को दिगविजय में उद्यमी देख मानो सूर्य भी भय से दृष्टिगोचर अस्त भया, सन्ध्या की ललाई समस्त भूमण्डल में व्याप्त भई मानो रावण के अनुराग से जगत् हर्षित भया फिर सन्ध्या मिटकर रात्रिका अन्धकार फैला मानो अन्धकार प्रकाश के भय से दशमुखके शरण आया पुनः रात्रि न्यतीत भई और प्रभात भया रावण प्रभातकी क्रियाकर सिंहासनपर विराजे अकस्मात एक ध्वनि सुनि मानो वर्षाकालका मेघही गाजा जिस से सकलसेना भयभीत भई कटक के हाथी जिनवृक्षों से बन्धे थे उनको भंग करते भये कनसेरे ऊंचे कर तुरंग हींसते भए तब रावण बोले यह क्या है यह मरणेको हमारे ऊपर कौन आया यह वैश्रवण श्राया अथवा इन्द्रका प्रेरासौम पाया अथवा हमको निश्चल तिष्ठे देख कोई और शत्रुाया तब रावणकी आज्ञा पाय प्रहस्त सेनापति उस ओर देखनेको गया और पर्वत के आकार मदोनमत्त अनेक लीलो करता हाथी देखा तब आयकर रावण से वीनती करी कि हे प्रभो मेघ की घटा समान हाथी है इसको इन्द्रभी पकड़नेको समर्थ न भया तब रावण हंसकर बोले
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पद्म
१९६१॥
हे प्रहस्त अपनी प्रशंसा करणी योग्य नहीं में इस हाथीको एक क्षणमात्रमें वश करूंगा यह कहकर पुष्पक विमानमें चढ़कर हाथी देखा भले २ लक्षणों से मंडित इन्द्रनीलमणि समान अति सुन्दर जिस का शरीरहे कमल समान आरक्त तालुवा है और महा मनोहर उज्ज्वल दीर्घगोल दांत हैं नेत्र कछु इक पीत हैं पीठ सुन्दर है अगला अंग उतंग है और लम्बी पछ है और बड़ी मूंड है अत्यन्त स्निग्ध मुन्दर नख हैं गोल कठोर महा सुन्दर कुम्भस्थलहै प्रबल चरणहें माधुर्यता को लिऐ महाधीर गंभीर है गर्जना जिसकी और झरते हुवे मदकी सुगन्धता से गुंजार करे हैं भमर जिसपर दुंदुभी बाजों की ध्वनि समान गम्भीर है नाद जिसका और ताड़ वृक्ष के पत्र समान कर्म उनको हलावता मन और नेत्रोंको हरनहारी सुन्दर लीलाको करता रावणने देखा देखकर बहुत प्रसन्न भया हर्पकर रोमांच होय आए तब पुष्पक नामा विमानसे उतर गाढ़ी कमर बांधकर उसके आगे जाय शंख पूरा जिसके शब्द से दशदिशा शब्द रूप भई तव शंखका शब्द सुन चितमें क्षोभको पाय हाथी गरजा और दशमुख के सन्मुख अाय वलकर गर्बित रावणने अपने उत्तरासनका गेंद बनाय शीघही हाथीकी ओर फेंका रावण गजकेलि में प्रवीण है सो हाथी तो गेंदके सूबने को लगा और रावसा ने झटसे ऊपर उछल कर दंगों की ध्वनिसे शोभित गजके कुम्भस्थल पर हस्ततल मारा हाथी सूंडसे पकडने का उद्यम करने लगा तब रावण अति शीघ्रताकर दोऊ दांतके बीचहोय निकस गए हाथीसे अनेक क्रीड़ाकरी दश मुख हाथीकी पीठपर चढ़ बैठे हाथी विनयवान शिष्यकी न्याई खड़ा होय रहा तब आकाशसे रावणपर पुष्पोंकी वर्षा भई और देवोंने जयजयकार शब्द किये और रावणकी सेना बहुत हर्षित भई रावणने हाथी ।
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॥१६॥
पद्म का त्रैलोक्य मंडन नाम धरा इसको पाय रावण बहुत हर्षित भया रावणरे हाथीके लाभका बहुत
उत्सव किया और सम्मेद शिखर पर्वतपर जाय यात्रा करी विद्याधरों ने नृत्य किया वह रात्रि वहांही रहे प्रभात हुवा सूर्य उगा सो मानोंदिवसने मंगलका कलश रावणको दिखाया कैसाहे दिवस सेवाकी विधि में प्रवीणहे तब रावण डेरामें प्राय सिंहासनपर विराजे हाथीकी कथा सभा में कहते भए । __ अयानंतर एक विद्याधर श्राकाशकमाग रावणके निकट पाया अत्यंत कंपायमान जिसके पसेवकी बूंद झरे हैं घायल हुआ बहुत खदखिन्न अश्रुपात डारता जर्जराहै तनु जिसका हाथ जोड़ नमस्कारकर विनती करता भया हे देव आज दशवां दिनहे राजासूर्यरज और रक्षरज बानरवंशी विद्याधर तुम्हारे बलसेहीहे बल जिनमें सो श्रापका प्रताप जान अपनी किहकू नगरलेनेकेश्रर्थ अलंकानगर जोपताललंका वहांसे उत्साह से निकसे वे दोनों भाई तुम्हारेबलसे महाअभिमान युक्तजगतको तृण समानमाने, सोउन्होंने किहकपुर जाय घेरा वहां इन्द्रका यम नामा दिग्पालथा सो उसके योधा युद्ध करनेको निकसे हाथमें हैं आयुध जिनके बानरबंशियोंके और यमके लोकोंमें महायुद्ध भया परस्पर बहुत लोक मारे गए तब युद्ध का कलकलाट सुन यम भापनिकसा कैसाहै यम महा क्रोधकर पूर्ण अतिभयंकर नसहा जायहै तेज जिसका सो यमके श्रावतेही बानर बंशियोंका बल भागा अनेक श्रायुधोंसे घायल भए यह कथा कहता २ वह विद्याधर मु को प्राप्त होगया तब रावणने शीतोपचार कर सावधान किया और पूछा कि आगे क्या भया तब वह विश्राम पाय हाथ जोड़ फिर कहता भया हे नाथ सूर्यरजका छोटा भाई रक्षरज अपने दलको ब्याकुल देख आप युद्ध करने लगे सो यमके साथ बहुत देरतक युद्ध किया यम अतिबली
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पुराण
१६३॥
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उसने चरजको पकड़ लिया तब सूर्यरज आप युद्ध करने लगे बहुत युद्ध भया यमने श्रायुध का प्रहार किया सो राजा घायल होय मुर्छित भए तब अपने पचके सामंतोंने राजाको उठाय मरेला बन में ले जाय शीतोपचार कर सावधान किये यम महा पापीने अपनी यमपना सत्य करते हुए एक बंदी गृह बनाया है उसका नरक नाम धरा है वहां वैतरनी आदि सर्व विधि बनाई हैं जो जो उसने जीते और पकड़े वे सर्वं उस नरकमें बंद किए हैं सो उस नरकमें कैयक तो मर गए कैयक दुःख भोगें हैं वहां उस नरक में सूर्यरज और रचरज येभी दोनों भाई हैं यह वृतान्त में देखकर बहुत व्याकुल होय आप के निकट आया हूं आप उनके रक्षक हो और जीवनमूल हो उनके श्रापही विश्रामहैं और मेरा नाम शाखावली है मेरा पिता रणदच माता सुश्रोणी में रचरजका प्यारा चाकर सो आपको यह वृतान्त कहने को आयाहूं मैं तो आपकोजतावादेय निश्चित भयाञ्चपने पक्षको दुःखश्रवस्थामैजान आपको जो कर्तव्य होय सो करो तब रावणाने उसे दिलासा दिया और इसके घावका यत्न कराया अब तत्काल सूर्यरज र चरजके छुड़ावनेको महाकोष कर यमपरचले और मुसकरायकर कहतेभए कहा यमरंक हमसे युद्ध कर सकै जो मनुष्य उसने वैतरणी आदि क्लेश के सागर में डार राखे हैं मैं श्राजही उनको छुडाऊंगा और उस पापीने जो नरक बनाय राखा है उसे विंध्वस करूंगा देखो दुर्जन की दुष्टता कि जीवों को ऐसे संताप देहे यह विचारकर आप ही चले प्रहस्त सेनापति श्रादि अनेक राजा बडी सेनासे आगे दौड़े नाना प्रकारके बाहनों पर चढ़े शस्त्रों के तेजसे श्राकाशमें उद्योत करते अनेक बादित्रों के नाद होते महा उत्साहसे चले विद्याधरों के अधिपति किहकुंपुर के समीप गए सो दूरसे नगरके घरों की शोभा देखकर आश्चर्यको प्राप्त भए किहकूंपुर की दल
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पना दिशामें यम विद्याघरका बनायाहुवा नरक देखाजहां एकऊडा खाडाखोद राखाहैऔर नरककी नकल बनाय
राखीहे अनेक नरोंके समूह नरकमें राखेहैं तब रावणने उस नरकके रखवारे जे यमके किंकरथे उनको ॥१६४॥
कूटकर काढ़ दिया और सर्व प्राणी मूर्यरज रक्षरज श्रादि दुख सागरसे निकासे रावण दीननके बंधु दुष्टाको दंड देनहारे हैं वह सर्व नरक स्थानही दूर किया यह वृतान्त परचक्रके प्रावनेका मुन यम बडे आडंवरसे सर्व सेना सहित युद्ध करनेको श्राया मानो समुद्रही क्षोभको प्राप्त भया पर्वत सारिखे अनेक गज मदधारा झरते भयानक शब्द करते अनेक श्राभूषण युक्त उनपर महा योधा चढ़े और तुरंग पवन सारिखे चंचल जिनकी पूंछ चमर समान हालती अनेक प्राभूषण पहिरे उनकी पीठ पर महा वाहू मुभट चढ़े और सूर्य के रथ समान अनेक ध्वजाओं की पंक्ति से शोभायमान जिन में बडे बडे सामन्त वगतर पहेंर शस्त्रों के समूह धोर बैठे इत्यादि महा सेना सहित यम आया तव विभी पण ने यमकी सर्व सेना अपने वाणों से हटाई विभीषण विषे प्रवीण रथ पर आरूढ़ हैं विभीषणके बाखों से यम किंकर पुकारते हुए भागे यम किंकरों के भागने और नारकियों के छुडाने से महा कूर होकर विभीषण रथ पर चढ़ धनुष को धारे आया ऊंची हे ध्वजा जिस की काले सर्प समान कुटिल केश जिन के भूकुटी चढ़ाए लाल हे नेत्र जिस के जगत रूप इंधन के भस्म करण को अग्नि समान आप तुल्य जो बड़े बड़े सामन्त उन कर मंडित युद्ध करणे को अपने तेज से
आकाश में उद्योत करता हुअा अाया तब रावण यमको देख विभीषण को निवार आप रण संग्राम | में उद्यमी भए यम के प्रताप से सर्व राक्षस सेना भयभीत होय रावण के पीछे आय गए यम
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९६५
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अनेक आडम्बर डारै हैं भयानक हैं मुख जिसका रावण भी स्थपर आरूढ़ होकर यम के सनमुख भए अपने बाघों के समूह यमपर चलाए इन दोनोंके बाणों से आकाश अवादित भया, कैसे हैं बाण भयोनक है शब्द जिनका जैसे मेघों के समूह से आकाश व्याप्त होय तैसे बाणों से भावादित होगया रावणने यमके सारथीको प्रहार किया सो सारथी भूमि में पड़ा और एक बाण यमको लगाया सोय भी रथ से गिरपड़ा तब यम रावणको महा बलवान देख दचि दिशा का दिग्पालपणा छोड़ भागा सारे कुटम्बको लेकर परिजन पुरजन सहित स्थुनूपुर में गया इन्द्र से नमस्कार कर बीनती करताभया हे देव आप कृपाकरो अथवा कोप करो आजीवका राखो तथा हरो तुम्हारी जो बांधा होय सो करो यह यम पणा मुझसे न होय मालीके भाई सुमालीका पोता दशानन महा योघा जिसने पहिले तो वैश्रवण जीता वह तो मुनि होगया और मुझे भी उसने जीता सो मैं भागकर तुम्हारे निकट आया हूं उसका शरीर वीर रस से बना है यह महात्मा है वह ज्येष्ठ के मध्यान्ह का सूर्य कभी भी न देखा जाय है यह वार्ता सुन कर रथनूपुर का राजा इन्द्र संग्राम को उद्यमी भया तब मन्त्रियों के समूह ने मने कीया मन्त्री वस्तुका यथार्थ रूप जाननेहारे हैं तब इन्द्र समझ कर बैठरहा इन्द्र यमको जमाई है उसने यमको दिलासा दिया कि तुम बड़े योधाहो तुम्हारे योधापनेमें कमीं नहीं परन्तु रावण प्रचण्ड पराक्रमी है इसलिये तुम चिंता न करो यहांही सुख से तिष्ठो ऐसा कहकर इनका बहुत सन्मानकर राजा इन्द्र राजलोक में गए और काम भोग के समुद्र में मग्न भए कैसे हैं इन्द्र बड़ा है विभूति का मद जिसको रावण के चरित्र के जो जो वृतान्त यमने कहे थे वैश्रवण का वैराग्य लेना और अपना भागना वह इन्द्रको ऐश्वर्य के मदमें भल
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पुराण
।।१६६।।
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गए जैसे अभ्यास बिना विद्या भूलजाय और यमभी इन्द्र का सत्कार पाय और असुर संगीत नगरका राज पाय मान भंगका दुःख भूल गया मनमें विचारने लगा कि मेरी पुत्री महा रूपवन्ती सो तो इन्द्र के प्राणोंसे भी प्यारी है और मेरा और इंद्रका बड़ा सम्बन्ध है सो मेरे क्या कमी है ।
रावण ने किकन्धपुर तो सूर्यरज को दीया और किहकुपुर रचरज को दीया दोनों को सदा के हितु जान बहुत आदर कीया रावण के प्रसाद से बानवंशी सुखसे तिष्ठे रावण सब राजों का राजा महा लक्ष्मी और कीर्त्ति को घरै दिग्विजय करे बड़े २ राजा दिनप्रति चाय चाय मिलें सो रावण का कटक रूप समुद्र अनेक राजावों की सेना रूपी नदी से पूरित होता भया और दिन दिन विभव अधिक होतीभई जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रमा दिन दिन कलाकर बढ़ता जाय तैसे रावण दिनदिन बढ़ताजाय पुष्पक नामा विमानपर आरूढ़ होय त्रिकूटाचल के शिखर पर चाय तिष्ठा कैसा है विमान रत्नों की माला से मण्डित है और ऊंचे शिखरोंकी पंक्तिसे विराजे है जो शीघ्र जहां चाहे वहां जाय ऐसे विमान का स्वामी रावण महा धीर्यता कर मण्डित पुण्यके फलका है उदय जिसके जब रावण त्रिकूटाचल के शिखर सिधारे सब बातों में प्रवीण तब राक्षसों के समूह नानाप्रकार के वस्त्राभूषण कर मण्डित परम ह को प्राप्त भये सर्व राक्षस रावण को ऐसे मङ्गल वचन गम्भीर शब्द कहते भये हे देव तुम जयवन्त होवो
नन्द को प्राप्त होवा चिरकाल जोवो वृद्धिको प्राप्त होवो उदयको प्राप्त होवो निरन्तर ऐसे मङ्गल वचन गम्भीर शब्द कर कहते, भए कई एक सिंह शारदूलोंपर चढ़े कई एक हाथी घोड़ों पर चढ़ े कई एक हंसों पर चढ़ प्रमोदकर फूल रहे हैं नेत्र जिनके देवों कैसा थाकार घरे जिनका तेज आकाश विषे फैल रहा
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पुराण
१६७
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हैन पर्वत अन्तरद्वीप के सर्व विद्याघर राक्षस आए समुद्रको देखकर विस्मयको प्राप्त भए कैसा है समुद्र नहीं दीखे है पार जिसका श्रति गम्भीर है महामत्स्यादि जलचरों कर भरा है तमाल बन समान श्याम है पर्वत समान ऊंची ऊंची उठे हैं लहर के समूह जिस विषे पाताल समान ऊंचा अनेक नाग नायकों कर भयानक नाना प्रकारके रत्नोंके समूह कर शोभायमान नाना प्रकारकी अद्भुत चेष्टाको घारे ।
यद्यपि लंकापुरी अति सुन्दर है तथापि रावणके आनेसे अधिक समारी गई है अति देदीप्यमान रत्नों का कोट है गम्भीर खाई से मण्डित है कुदके पुष्प समान यति उज्वल स्फटिक मणि के महल हैं जिन में इन्द्र नीलमणियों की जाली शोभे हैं और कहूं इक पद्मराग मणियोंके थरुण महत्तहैं कहीं एक पुष्पराग मणियों के महल हैं कहीं एक मरकत मणियों के महिल हैं इत्यादि अनेक मणियों के मन्दिरों से लङ्का स्वर्गपुरी समान है नगरी तो सदाही रमणीक है परन्तु घनी के आनेसे अधिक बनी है रावण ने अति हर्षसे लंका में प्रवेश किया रावणको किसी की शंका नहीं पहाड़ समान हाथी तिनकी अधिक शोभावनी है और मन्दिर समान रत्नमई रथ बहुत समारे गए हैं अश्वोंके समूह ह्रींसते चलायमान चमर समान है पूच्छ जिनकी और विमान अनेक प्रभा को घरे इत्यादि महा विभूति से रावण याया चन्द्रमा समान उज्वल सिरपर बत्र फिरते अनेक ध्वजा पताका फहरती बन्दीजन के समूह विरद बखानते महामंगल शब्दहोते वीण बांसुरी शंख इत्यादि अनेकवादित्र बाजते दशदिशा और आकाश शब्दायमान हो रहा है इस विधि लंका में पधारे तब लंका के लोग अपने स्वामी का आगमन देख दर्शनके लालसी हाथ में अर्ध लीए पत्रफल पुष्परत्न लीए अनेक सुन्दर वस्त्र आभूषण पहरे राग रंग सहित रावण के
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समीप आए वृद्धोंको आगे कर तिनके पीछे जाय नमस्कार कर कहते भए कि हे नाथ लङ्का के लोग Mr. अजितनाथ के समय से आपके घरके शुभ चिन्तक हैं सो स्वामीको अति प्रवल देख अति प्रसन्न भए
हैं इस प्रकार भांति भांति की प्रासीस दीनी तब रावणने बहुत दिलासा देकर सीख दीनी सो रावण के गुणगावते अपने अपने घरों को गये ॥
अथानन्तर रावणके महलमें कौतुकयुक्त नगरकी नरनारी अनेक श्राभूषण पहिरे रावणके देखने की इच्छासे सर्वघरके कार्य छोड़ २ पृथ्वीनाथ के देखनेको पाई रावण वैश्रवण के जीतनेहारे तथा यम विद्याधर के जीतनेहारे अपने महलमें राजलोक सहित सुखसों तिष्ठे, महल चूड़ामणि समान मनोहर है और भी विद्याधरोंके अधिपति यथायोग्य स्थामकमें अानन्द से तिष्ठे देवन समान हैं चरित्र जिनके॥ __ हे श्रेणिक!जो उज्ज्वलकर्मके करणहारे हैं तिनका निर्मलयश पृथिवी विषे होय है नाना प्रकार के रत्नादिक संपदा का समागम होय है और प्रबल शत्रुओंका निर्मूल होय है सकल त्रैलोक्यमें गुण विस्तरे है इस जीवके प्रचण्ड वैरी पाँच इंद्रियोंके विपयहें जो जीवकी बुद्धि हरें हैं और पापोंका बन्ध करें हैं यह । इन्द्रियोंके विषय धर्मके प्रसादसे वशीभूत होयह और राजाओंके बाहिरले बैरी प्रजाके बाधक ते भी प्राय पावोंमें पड़े हैं ऐसा मानकर जो धर्मके विरोधी विषयरूप बैरी हैं वे विवेकियोंको वश करनेयोग्य हैं तिनका सेवन सर्वथा न करना। जैसे सूर्यकी किरणोंसे उद्योत होते हुवे भली दृष्टिवाले पुरुष अन्धकारसे व्याप्त औंड़े खाड़ेमें नहीं पड़े हैं तैसेजे भगवान्के मार्ग में प्रवर्ते हैं तिनके पापबुद्धि की प्रवृति नहीं होय है।
किहकन्धपर में राजा सूर्यरज बानरवंशी तिनकी राणी चन्द्रमालिनी अनेक गुणोंमें पूर्ण तिसके बाली
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पद्म
पुराण
१६
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पुत्रभए जो सदा उपकरी शीलवान पण्डित प्रवीण धीर लक्ष्मीवान शूखीर ज्ञानी अनेक कला संयुक्त सम्यक दृष्टि महाबली राजनीति में प्रवीण धीर्यवान दया कर भीगा है चित्त जिनका विद्याके समूह कर मंडित कांतिवंत तेजवंत हैं। ऐसे पुरुष संसार में बिरले ही हैं वह समस्त अढाई दीपके जिनमंदिरों के दर्शन में उद्यमी हैं जिन मंदिर अति उत्कृष्ट प्रभा से मंडित हैं बाली तीनों काल अति श्रेष्ठ भक्ति युक्त संशय रहित श्रद्धावंत जम्बूद्वीप के सर्व चैत्यालयों के दर्शन कर या महापराक्रमी शत्रुपक्ष का जीत हारा नगर के लोगों के नेत्र रूपी कुमुद के प्रफुल्लित करने को चन्द्रमा समान जिसको किसी की शंका नहीं किहकन्धपुर में देवों की न्याई रमै किहकन्धपुर महा रमणीक नाना प्रकार के रत्नमई मंदिरों से मंडित गज तुरंग स्थादि से पूर्ण जहां नाना प्रकार का व्यापार है और अनेक सुन्दर हाटों की पंक्तियों से युक्त हैं जहां जैसे स्वर्ग विषे इन्द्र रमै तैसे रमे हैं । अनुक्रम से जिसके छोटा भाई सुग्रीव भयावह भी महावीर बीर मनोज्ञ रूप कर युक्त महा नीतिवान विनयवान हैं ये दोनों ही बीर कुल के आभूषण होते भए जिनका आभूषण बड़ों का विनय है सुग्रीव के पीछे श्री प्रभा बहिन भई जो साचात लक्ष्मी रूप में अतुल्य है और किहकन्धपुर में सूर्यरजका छोटा भाई रतरज उसकी राणी हरिकांता उसके पुत्र नल और नील होते भए सुजनों को आनन्द के उपजाने हारे महासामन्त रिपुकी शंका रहित मानों किहकंधपुरके मंडन ही हैं इन दोनों भाइयों के दो दो पुत्र महा गुणवन्त भए राजा सूर्यरज अपने पुत्रों को योवनवन्त देख मर्यादा के पालनहारे जान चाप विषयों को विषमिश्रित अन्न समान जान संसारसे विरक्त भए राजा सूर्यरज महाज्ञानवान हैं बालीको पृथ्वी के
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पुराण
पभोपासनेमि राम दिया और सुश्रीषको राजपद दिया अपने स्वजन परजन समान जाने चोर
यह चतुरगति रूप जगत महा दुखकर पीड़ित देख विहतमोह नामा मुनि के शिष्य भए जैसा भग॥१७॥
वानने भाषा तैसा चारित्र धारा मुनि सूर्यरजको शरीर से ममत्व नहीं है आकाश सारिखा निर्मल अन्तः करणहै समस्त परिग्रह रहित पवनकी न्याई पृथ्वी विष बिहार करते भए विषय कषाय रहित मुक्ति के अभिलाषी भए बाली के ध्रुवा नामास्त्री महा पतित्रता गुणों के उदय से सैकड़ों राणियोंमें मुख्य उस सहित अति ऐश्वर्यको घरै राजा बाली बानर बंशियों के मुकट विद्याधरों के अधिपति सुन्दर चरित्रवान देवों कैसे सुख भोगते हुए किहकन्धपुर में राज करें।
रावणकी बहिन चन्द्रनखा जिसके सर्वगात्र मनोहर राजा मेघप्रभका पुत्र खरदूषणने जिस दिन से इसको देखा उस दिनसे कामबाणकर पीड़ित भया इसको हरा चाहेहै । सो एक दिन रावण राजा प्रवर राणी अावली उनकी पुत्री तनुदरी उसके अर्थ एक दिन रावण गए सो खरदूषणने लंका रावण बिना खाली देख चिन्ताराहित होय चन्द्रनखा हरी खरदूषण अनेक विद्याका धारक मायाचारमें प्रवीण है दोनों भाई कुंभकर्ण विभीषण बड़े शूरबीर हैं परन्तु मौका पाकर मायाचार से इसने कन्याकोहरी तब वे क्या करें उसके पीछे सेना दौड़ने लगी तब कुंभकर्ण विभीषणने यह विचार कर मनह करी कि खरदूषण पकडा नहीं जावेगा और मारणा योग्य नहीं फिर रावण पाए तब यह बार्ता सुनकर
अति क्रोध किया यद्यपि मार्गके खेद से शरीर पर पसेव ाया हुआ था. तथापि तत्काल खरदूषण पर || जान को उद्यमी भए रावण महा मानी है एक खडगही का सहाय लिया और सेनाभी लार नलीनी
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पुराण
१११
प्रम यह विचागकि जो महावीर्यवान पराक्रमीहै उनके एक खडगहीका सहाराहे तवमन्दोदरीने हाथ जोड़ बिनती
करी हे प्रभू आप प्रगटलौकिकस्थिति ज्ञाताहो अपनेघरकी कन्या औरको देनी और औरोंकी श्राप लेनी इनकन्याओंकी उत्पत्ति ऐसीही है और खरदूषण चौदह हजार विद्याधरों का स्वामी है विद्याधर कभी भी युद्धसे पीछे न हटें बड़े बलवानहें और इस खरदूषणको अनेक सहस्रविद्या सिद्धहैं महागवंतहै आपसमान शूरवीर है यह बार्ता लोकोंसे क्या आपनेनहीं सुनी है आपके और उसके भयानक युद्ध प्रवरतेतबभी हारजीतका संदेह ही है और वह कन्याहर लेगयाहै हरणेकेकारण वह कन्या दूखितभई है सोखरदूषणकमारनेसे वह विधवाहोयह
और सूर्यरजको मुक्तिगए पीछे चंद्रोदर विद्याधर पाताललंका थानेथा उसे काढ़कर यह खरदूषण तुम्हारी बहिन सहित पाताललंका तिष्ठहै तुम्हागसंबंधीहै तबरावण बोले हे प्रिये में युद्धसे कभी नहीं डरूं परंतु तुम्हारे बचन नहीं उलंघने और बहिन विधवा नहीं करणी सो हमने क्षमाकरी तब मन्दोदरी प्रसन्न भई। __ कर्भके नियोगसे चंद्रोदर विद्याधर कालको प्राप्त भया तब उसकी स्त्री अनुराधा गर्भिणी विचारी भयानक बनमें हिरणीकी न्याई भ्रमै उसने मणिकांत पर्वतपर सुन्दर पुत्र जना शिला ऊपर पुत्र का जन्म भया शिला कोमल पल्लव और पुष्पोंके समूहसे संयुक्तहै अनुक्रमसे बालकवृद्धिको प्राप्त भया यह बन बासिनी माता उदास चित्त पुत्रकी अाशासे पुत्रको पाले जब यह पुत्र गर्भमें आया तबहीसे इनके माता पिताको बैरियों से विराधना उपजी इस लिये इसका नाम विराधित धरा यह विराधित राजसम्पदा वर्जित जहां जहां राजाओं के पास जाय वहां वहां इसका आदर न होय सो जैसे सिरका केश स्थानक से छूट अदा न पावे से जो निज स्थानकसे रहित होय उसका सनमान कहांते होय सो यह
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पत्र || राजा का पुत्र खरदूषण को जीतिबे समर्थ नहीं सो चित्त विष खरदूषण का उपाय चितवता हा
सावधान रहै और अनेक देशों में भूमण करै षट् कुलाचलपर और सुमेरु पर्वत पर तथा रमणीक ॥१२॥
बनें जोअतिशय स्थानक जहां देवोंका आगमन है वहां यह विहार करे और संग्राममें योधा लड़ें तिन के चरित्राकाश में देवोंके साथ देख संग्राम गज अश्व रथादिककर पूर्णहै और ध्वजाछत्रादिककर शोभित है इस भांति विराधित कालक्षेप करे और लंका विषे रावण इन्द्रकी न्याई सुख से तिष्ठे ।
सूर्यरजका पुत्र बाली रावणकी आज्ञा से विमुख भया बाली अद्भुत कर्मोकी करनहारी विद्या से मंडित है और महावली है तब रावण ने बाली पै दूत भेजा महा बुद्धिवान दुत किहकन्धपुरमें जाय कर बाली से कहता भया हे बानरधीश दशमुख ने तुमको आज्ञा करी है सो सुनो दशमुख महाबली महा तेजस्वी महा लक्ष्मीवान महा नीतिवान महा सेना युक्त प्रचण्डन को दण्ड देनहारा महा उदयवान है जिस समान भरत क्षेत्र में दूजा नहीं पृथ्वी के देव और शत्रुओं का मान मर्दन करने हारा है यह आज्ञा करी है कि तुम्हारे पिता सूर्य्यरज को मैंने राजायम बैरी को काढ़ कर किहकंध पुर में थापा था और तुम सदा के हमारे मित्र हो परन्तु आप अब सब उपकार भूलकर हमसों पराङ् मुख होगये हो यह योग्य नहींहै में तुम्हारे पितासेभी अधिक प्रीति तुमसे करूंगा तुम शीघ्रहीहमारे निकट श्रावो प्रणाम करो और अपनी बहिन श्रीप्रभा हमको परणावो हमारे सम्बन्ध से तुम को सब सुख होयगा दूतने कही यह रावणकी आज्ञा प्रमाण करो सो बालीके मनमें और बात तो आई परन्तु एक प्रणाम की न आई क्योंकि यह देव गुरु शास्त्र विना और को नमस्कार नहिं कर था यह प्रतिज्ञा
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पद्म
पुराण
७ ९७३ ।।
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थी तब दूत ने फेर कही कि हे कपिध्वज अधिक कहिने से क्या है मेरे वचन तुम निश्चय करो अल्प लक्ष्मी पाकर गर्व मतकरो यातो दोनों हाथ जोड़ प्रणाम करो या आयुध पकड़ो यातो सेवक होकर स्वामी पर चंवर दौरों या भागकर दशों दिशा में विचरो या सिर निवावो या खँचिकै धनुष निवावो या रावण की आज्ञा को कर्णका आभूषण करो या धनुषकी पिणच खेंचकर कानों तक लावो यातो मेरे चरणारविन्द की रज माथे चढ़ावो या रण संग्राम में सिरपर टोप घरो यातो बाण छोड़ो या धरती छोड़ो यात हाथ में वेत्र दण्ड लेकर सेवा करो या वरळी हाथमें पकड़ो यातो अंजली जोड़ो या सेना जोड़ो या तो मेरे चरणों के नख में मुख देखो या खड्ग रूप दर्पण में मुख देखो ये कठोर वचन रावणके दूतने वाली से कहे तब बाली का व्याघ्रविलंबी नामासुभट कहता भया रेकुदूत नीच पुरुष तू जैसे विवेक के वचन
है तू खोटे ग्रहकर ग्रह है समस्त पृथिवी पर प्रसिद्ध है पराक्रम और गुए जिसका ऐसा बाली देव तूने अबतक कर्णगोचर नहीं किया ऐसा कहकर सुभट ने महा क्रोधायमान होकर दूत के मारणे को खडग पर हाथ धरा तब बाली ने मने कीया कि इस रंक के मारणे से क्या यह तो अपने नाथके कहे प्रमाण वचन बोले है और रावण ऐसे वचन कहावे है सो उसीकी आयु अल्प है तब दूत डरकर शिताब राव पै गया रावणको सकल वृत्तान्त कहा रावण महा क्रोधको प्राप्त भया दुस्सह तेजवान रावणने बड़ी सेनाकर मण्डित वखतर पहर शीघ्रही कूच किया रावणका शरीर तेजोमय परमाणुवों से रचागयाहै रावण किहकन्धपुर पहुंचे बाली ने परदल का महा भयानक शब्द सुनकर युद्ध के अर्थ बाहिर निकसने का उद्यम किया तब महा बुद्धिमान नीतिवान जे सागर वृद्धादिक मन्त्री उन्हों ने वचनरूपी जलसे शांत
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पद्म
पुराण ॥१४॥
किया कि हे देव निष्कारण युद्ध करनेसे क्या क्षमाकरो आगे अनेक योधा मान करके क्षयभए रणही था प्रिय जिन को अष्टचन्द्र विद्याधर अर्ककीर्ति के भुज के आधार जिन के देव सहाई तौभी मेघेश्वर जयकुमारके बाणोंकर क्षय भए रावण की बड़ी सेना है जिसकी ओर कोई देखसके नहीं खड़ग गदो सेल बाण इत्यादि अनेक आयुधों कर भरी है अतुल्य है इसलिये आप संदेहकी तुला जो संग्राम उस के अर्थ न चढ़ो तब बाली ने कही अहो मन्त्री हो अपनी प्रशंसा करनी योग्य नहीं तथापि में तुमको यथार्थ कहूं हूं कि इस रावणको सेना सहित एक क्षणमात्र में बायें हाथकी हथेलीसे चूरडारने को समर्थ, हूं परन्तु यह भोग क्षणविनश्वर हैं इनके अर्थ ऐसा निर्दय कर्म कौन करै जब क्रोघरूपी अग्नि से मन प्रज्वलित होता है तब निरदय कर्म होता है यह जगत के भोग केलेके थंभ समान असार हैं तिन को पाकर मोहवन्त जीव नरकमें पड़े हैं नरक महादुःखों से भरा है सर्व जीवों को जीतव्य वल्लभ है सो जीवों के समूहको हतकर इन्द्रियोंके भोग सुख प्राप्त होसक्ते हैं ऐसे भोगों में गुण कहां इन्द्रीय सुख साक्षात दुखही हैं ये प्राणी संसार रूपी महाकूप में अरहटकी घड़ी के यन्त्र समान रीती भरी करते रहते हैं यह जीव विकल्प जाल से अत्यन्त दुःखी हैं श्री जिनेंद्रदेवके चरण युगल संसार से तारणे के कारण हैं उनको नमस्कार कर और को कैसे नमस्कार करूं मैंने पहिलसे ऐसी प्रतिज्ञा करी है कि देव गुरु शास्त्र के सिवाय और को प्रणाम न करूंगा इसलिये मैं अपनी प्रतिज्ञा भंगभी न करूंगा और युद्ध में अनेक प्राणियों का प्रलयभी न करूंगा बल्कि मुक्तिकी देनहारी सर्व संग रहित दिगम्बरी दीक्षा धरूंगा | मेरे जो हाथ श्री जिनराजकी पूजा में प्रवरतें दान में प्रवरतें और पृथिवी की रक्षा में प्रवरतें वे मेरे
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॥१७॥
पद्म हाथ कैसे किसीको प्रणाम करें और जो हस्त कमल जोड़कर पराया किंकर होवे उसका क्या ऐश्वर्य
और क्या जीतव्य वह तो दीन है ऐसा कहकर सुग्रीवको बुलाया अाज्ञा करते भये कि हे बालक सुनो तुम रावणको नमस्कार करो वान करो अपनी बहिन उसे देवोअथवा मतदेवो मेरे कछ प्रयोजन नहीं में संसारके मार्गसे निवृत भया तुमको रुचे सो करो असा कहकर सुग्रीवको राज्य देय श्राप गणनकर गरिष्ठ श्रीगगनचन्द्र मुनि पै परमेश्वरी दीक्षा श्रादरी परमार्थ में लगाया है चित्त जिनने और पायाहै परम उदय जिनने वे वाली योधा परम रिषि होय एक चिद्रप भाव में रत भए सम्यग्दर्शन है निमल जिनके सम्यक् ज्ञान कर यक्त है प्रात्मा जिनका सम्यक् चारित्रमें तत्पर बारा अनुप्रेक्षाओंका निरंतर | विचार करते भये प्रात्मानुभाव में मग्न मोह जाल रहित सगुणरूपी भूमिपर विहार करतेभये वह गुण || भूमि निर्मल आचारी जे मुनि उनकर सेवनीक है बाली मुनि पिता की न्याई सर्व जीवों पर दयालु वाह्याभ्यन्तर तपसे कर्मकी निर्जरा करते भये वे शान्तबुद्धि तपोनिधि महाऋद्धीके निवास होते भए सुन्दर है दर्शन जिनका ऊंचे ऊंचे गुणस्थान रूपी जे सिवाण तिनके चढ़ने में उद्यमीभये भेदी है अन्तरंग मिथ्या भाव रूपी ग्रन्थि ( गांठ) जिनने वाह्याभ्यन्तर परिग्रह रहित जिन सूत्रके द्वारा कृत्य अकृत्य सब जानते भये महा गुणवान महा संवर कर मण्डित कर्मों के समूह को खिपावते भये प्राणों की रक्षा मात्र सूत्र प्रमाण अहार लेय हैं और प्राणोंको धर्म के निमित्त धारे हैं और धर्मको मोक्षके अर्थ उपारज हैं भव्य लाकों का आनन्द के करनहार उत्तम हैं अाचरण जिन के असे बाली मुनि और मुनि योका उपमा पाग्य होते भये और सुग्रीव रावण को अपनी बहिन परणायकर रावणकी आज्ञा प्रमास किहकन्धपुरका राज्य करता भया।
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SEM
पृथिवी विषे जो जो विद्याधरों की कन्या रूपवन्ती थीं रावणने वे समस्त अपने पराक्रम से परणी पुरा नित्यालोक नगर में राजा नित्यालोक राणी श्रीदेवी तिनकी रत्नावली नामा पुत्री उसको परण कर
रावण लङ्का को प्रावते थे सो कैलाश पर्वत ऊपर आय निकसे तहां के जिनमन्दिरोंके और वाली मुनि के प्रभावसे पुष्पक विमान आगे चल न सका विमान मनके वेग समान चंचल है जैसे सुमेरुके तटको पाय कर वायु मण्डल थंभे तैसे विमान थंभा तब घण्टादिकका शब्द रहित भया मानो विलषा होय मौनको प्राप्तभया तब रावण विमानको अटका देख मारीच मन्त्री से पूछते भये कि यह विमान कौन कारणसे अटका तब मारीच सर्व वृत्तान्तमें प्रवीण कहताभया हे देव सुनो यह कैलाश पर्वतहै यहां कोई मुनि कायोत्सर्ग तिष्ठे है शिलाके ऊपर रत्नके थंभ समान सूर्य के सन्मुख ग्रीषममें आतापन योग घर तिष्ठे है अपनी कांति से सूर्यकी कांतिको जीतता हुवा विराजे है यह महामुनि धीरवीरहै महाघोर वीर तपको धरै है शीधही मुक्तिको प्राप्त हुवा चाहे है इसलिये उतरकर दर्शनकरो आगेचलो या विमान पीछे फेर कैलाश को छोड़कर और मार्ग होय चलो जो कदाचित हटकर कैलाशके ऊपर होय चलोगे तो विमान खण्ड खण्ड होजायगा यह मारीच के वचन सुनकर राजा यमका जीतनेहारा रावण अपने पराक्रम से गर्वित होकर कैलाश पर्वतको देखता भया पर्वत मानो व्याकरणही है क्योंकि नाना प्रकारके धातुवों से भरा है और सहस्रों गुणों से युक्त नाना प्रकारके सुवर्ण की रचना से रमणीक पद पंक्तियुक्त
नाना प्रकार के स्वरों कर पूर्ण है । ऊंचे तीखे शिखरोंके समूह कर शोभायमान है अाकाशसे लगा है | निसरते उछलते जे जलके नीझरने तिनकर प्रकट हंसे ही हैं कमल आदि अनेक पुष्पोंकी सुगन्ध सोई ।।
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॥१७॥
भई सुरा उससे मस्त जे भ्रमर तिनको गुजार से अति सुन्दर है नाना प्रकारके वृक्षोंकर भरा है बड़े बड़े । | शालके जे वृक्ष तिनकर मण्डित जहां छहों ऋतुवोंके फल फूल शोभै हैं अनेक जातिके जीव विचरें हैं
जहां ऐसी ऐसी औषध हैं जिनकी बासनासे सर्पोके समूह दूर रहें हैं मनोहर सुगन्धसे मानों वह पर्वत । सदा नव योवनहीको घरै है और मानो वह पर्वत पूर्व पुरुष समान ही है विस्तीर्ण जो शिला वेही है हृदय जिसका और शाल वृक्ष वेई महा भुजा और गम्भीर गुफा सोही वदन वह पर्वत शरद ऋतुके मेघ समान निर्मल तट से सुन्दर मानो दुग्घसमान अपनी उज्वल कांतिसे दशों दिशा को स्नानही करावै है कहीं इक गफाओं में सूते जे सिंह तिनकर भयानक है कहीं इक सूते जे अजगर तिनके स्वास रूपी पवन से हाले हैं वृक्ष जहां कहीं इक भ्रमते क्रीड़ा करते जे हिरणोंके समूह तिनकर शो है कहीं इक मस्त हाथियों के समूहसे मण्डित है बन जहां कहीं इक फलों के समूह से मानों रोमांच होय रहाहै और कहीं इक बनकी सघनतासे भयानक, कहीं इक कमलों के बनसे शोभितहें सरोवर जहां कहीं बानरों के समूह वृक्षोंकी शाखोंपर केलि कर रहेहैं और कहीं गेंडान के पगकर छेदेगये हैं जे चन्दनादि सुगंध बृक्ष तिनकर सुगन्ध होयरहा है कहीं विजली के उद्योत से मिला जो मेघमण्डल उस समान शोभाको घरै हैं कहीं दिवाकर समान जे ज्योति रूप शिखर तिनकर उद्योत रूप कियाहै आकाश जिसने ऐसा जो कैलाश पर्वत उसे देख रावण विमान से उतरा वहां ध्यान रूपी समुद्र में भग्न अपने शरीर के तेज से प्रकाश किया है दशोंदेशा जिनने ऐसे बाली महामुनि देखो दिग्गजकी सूण्ड समान दोऊ भुजा लम्बोए कायोत्सर्ग घर खडे लिपटि रहे हैं शरीर से सर्प जिनके मानों चन्दनके वृक्षही हैं आतापनि |
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ञ
पुख
॥१७८॥
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शिला पर निश्चल खड़े प्राणियों को ऐसे दीखें मानो पाषाणका थम्भही हैं रावण बाली मुनिको देख कर पूर्व बैर चितार पापी क्रोध रूपी अग्निसे प्रज्वलित भया भृकुटी चढ़ाय होंट डसता कठोर शब्द मुनि को कहाभया हो यह कहा तप तेरा जो अभी अभिमान न छूटा मेरा विमान चलता थांभा कहाँ उत्तम क्षमा रूप वीतराग का धर्म और कहां पापरूप क्रोध कहां तूं वृधा खेद करें है अमृत और विष को एक किया चाहे है इसलिये मैं तेरा गर्व दूर करूंगा तुझ सहित कैलाश पर्वतको उखाड़ समुद्रमें डार दूंगा ऐसे कठोर बचन कहकर रावणने विकराल रूप किया सर्व विद्या जे साधी हैं तिनकी अधिष्ठाता देवी चितवन मात्र प्राय ठाढ़ी भई सो विद्यावलकर रावण ने महारूप किया धरतीको भेद पातालमें पैठा महा पाप विषे उद्यमी प्रचण्ड क्रोडकर लाल हैं नेत्र जिसके और हुंकार शब्दकर वाचाल है मुख जिसका भुजाओंकर कैलाश पर्वत के उखाड़नेका उद्यम किया तब सिंह हस्ती सर्प हिरण इत्यादि अनेक जीव और अनेक जाति के पक्षी भयकर कोलाहल शब्द करते भये जलके नीझरने टूटगये जल गिरने लगे वृक्षों के समूह फटगये पर्वतकी शिला और पापा पड़ते भये तिनके विकराल शब्दकर दशदिशा पूरित भई कैलाश पर्वत चलायमान भया जो देव क्रीड़ा करते थे वह आश्चर्यको प्राप्त भए दशदिशा की ओर देखतेभये और जो अप्सरा लतावोंके मण्डप में केलि करतीथी वह लतावों को छोड़ आकाश में गमन करती भई भगवान बाली ने रावण का करतव्य जान आप धीरवीर कोषरहित कम भी खेद न माना जैसे निश्चल विराजतेथे तैसेही रहे चित्तमें ऐसा विचार किया कि इस पर्वत पर भगवानके चैत्यालयति उतंग महो सुन्दरताकर शोभित सर्व रत्नमई भरत चक्रवर्त्तीके कराये हुये हैं जहां निरन्तर भक्ति
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पद्म
पुराण
msn
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संयुक्त सुर असुर विद्याधर पूजाको यावे हैं कभी इस पर्वत के कम्पायमान होनेसे चैत्यालयों का भंग न होजाय ऐसा विचार अपने चरएका अङ्गुष्ठ ढीलासा दाबा रावण महाभाराक्रांत होय दवा बहुरूप बनाया था सो भंग भया महा दुःख कर व्याकुल नेत्रोंसे रक्त भरने लगा मुकट टूटगया और माथा भीग या पर्वत बैठगया रावण के गोड़े बिल गए जंघाभी बिलिगई तत्काल पसेवमें भीग गया और धरती पसेवकर गीली भई रावण के गात्र सकुच गए कछुवा समान होगया तब रोणे लगा इसही कारण से पृथिवी में राव कहा तक दशानन कहावे था इसके अत्यन्त दीन शब्द सुनकर इसकी राणी अत्यन्त विलाप करती भई और मन्त्री सेनापति लारके सर्व सुभट पहिले तो भ्रमकर बृथा युद्ध करणे को उद्यमी भयेथे पीछे मुनिका अतिशय जान सर्व श्रायुध डार दीए मुनिके काय बल ऋद्धिके प्रभाव से देव दुन्दुभी बजाने लगे और कल्पवृक्षों के फूलोंकी वर्षा भई उस पर भ्रमर गुञ्जार करते भये आकाश में देव देवी नृत्य करते भये गीतकी ध्वनि होती भई तब महा मुनि परम दयालु ने अंगुष्ठ ढीला किया। रावण ने पर्वत के तले से निकस बाली मुनिके समीप आय नमस्कार कर क्षमा कराई और जाना है। तपका बल । योगीश्वरकी वारम्बार स्तुति करता भया हे नाथ तुमने पहिलेही से यह प्रतिज्ञा करी हुई थी। कि जो मैं जिनेन्द्र मुनींद्र जिन शासन सिवाय किसीको भी प्रणाम न करूं सो यह सर्व उस सामर्थता का. फल है अहो धन्य है निश्चय तुम्हारा और धन्य यह तपका बल हे भगवान तुम योग शक्तिसे त्रैलोक्य। को अन्यथा करने को समर्थ हो परन्तु उत्तम क्षमा धर्मके योग से सबके दयालु हो किसीपर क्रोध नहीं हे प्रभो जैसी तपकर पूर्ण मुनि को विनाही यत्न परम सामर्थ होय है तैसी इन्द्रादिक के नहीं धन्य है।
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पन्न
पुराश ॥१८॥
|| गुण तुम्हारे धन्य है रूप तुम्हारा धन्य है कांति तुम्हारी धन्य है आश्चर्यकारी बल तुम्हारा श्रद्धत दीप्ति तिहारी पद्धत शील अङ्कत तप त्रैलोका में जे अद्भुत परमाणु हैं तिन से सुकृत का अाधार तुम्हारा शरीर बनाहें जन्महीसे महा बली सर्व सामर्थ के धरनहारे तुम नव यौवन में जगतकी माया को तज कर परम शान्त भाव रूप जो अरहंत की दीक्षा उराको प्राप्त भए हो सो यह अद्भुत कार्य तुम सारिषे सत्पुत्रपोंकर ही बने है मुझ पापी ने तुम सारिखे सत्पुरुषों से अविनय किया सो महो पाप का बन्ध लिया धिकार है मेरे मनाचन कायको मैं पापी मुनिद्रोह में प्रवरता जिन मन्दिरोंका अविनई भया आप सारिखे पुरुषरत्न और मुझ सारिखे दुखुद्धि सो सुमेरु और सरसोंकासा अन्तरहै मुझमरतेकोापनेबाज प्राण दोए आप दयालु हम सारिखे दुर्जन तिन ऊपर क्षमाकरो इस समान और क्या में जिनशासनको श्रवण करूं हूं जान हूं देख हूं कि यह संसार असार है अस्थिर है दुःख भाव है तथापि में पापी विषयनसे वैराग्य को नहीं प्राप्त भया धन्य हैं वे पुण्यवान महापुरुष अल्प संसारी मोक्षके पात्र जो तरुण अवस्थाही में विषयों को तजकर मोक्षका मार्ग मुनिव्रत आचरें हैं इस भांति मुनिकी प्रस्तुति कर तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर अपनी निन्दा कर बहुत लज्जावान होय मुनिके समीप जो जिन मन्दिर थे वहां बन्दना को प्रवेश किया चन्द्रहास खडगको पृथिवी पर रख कर अपनी राणियों कर मण्डित जिनवर का आरचन करता भया भुजा में से नस रूप तांत कोढ़ कर बीण समान बजाता भया।
भक्ति में पूर्ण है भाव जिसका स्तुतिकर जिनेन्द्र के गुणानुवाद गावता भया हे देवाधिदेव लोका| लोक के देखने हारे नमस्कार हो तुमको लोक को उलंघे असा हैं तेज तुम्हारा । हे कृतार्थ हे
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पद्म | महात्मा नमस्कारहो तुमको । तीन लोककर करी है पूजा जिनकी नष्ट किया है मोहका बेग पुराण। जिन्होंने बचनसे अगोचर गुणों के समूहके धारनेहारे महा ऐश्वर्यकर मंडित मोक्ष मार्ग के उपदेशक
सुखकी उत्कृष्टतामें पूर्ण समस्त कुमार्गसे दूर जीवनको भक्ति और मुक्तिके कारण महाकल्याणके मूल सर्व कर्म के साक्षी ध्यानकर भस्म किएहें पाप जिन्होंने जन्ममरणके दूर करनेहारे समस्तके गुरु श्राप के कोई गुरु नहीं आप किसीको नवे नहीं और सबकर नमस्कार करने योग्य आदि अन्त रहित समस्त परमार्थके जाननेहारे पापको केवली बिना और न जान सके सर्व रागादिक उपाधिसे शून्य सर्व के उपदेशक द्रब्यार्थके नयसे सव नित्यहै और परमार्थक नयसे सब अनित्यहें ऐसा कथन कग्नेहारे किसी एक नयसे द्रव्य गुणका भेद किसी एक नयसे द्रब्य गुणका अभेद ऐसा अनेकांत दिखावनेहारे जिने श्वर सर्व रूप एकरूप चिद्रूप अरूप जीवनको मुक्तिके देनेहारे ऐसे जो तुम तिनको हमारा बारम्बार नमस्कार हो । श्रीऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति पद्मप्रभ सुपार्श्व चंद्रप्रभ पुष्पदंत शीतल श्रयांस वासुपूज्य के ताई बारम्बार नमस्कार हो पाया है आत्म प्रकाश जिन्हों ने बिमल अनंत । धर्म शांतिके ताई नमस्कार हो निरंतर मुखोंके मूल सबको शांतिके करता कुन्थ जिनेन्द्रके ताई नमस्कार हो अरनाथके ताई नमस्कार हो मल्लि महेश्वरके ताई नमस्कार हो मुनि मुव्रतनाथके ताई जो महाव्रतोंके देनेहारे और अब जो हॉवेगे नाम नेम पार्श्व वर्द्धमान तिनके ताई नमस्कारहो और जो पद्म
नाभादिक अनागत होवेंगे तिनको नमस्कार और जे निर्माणादिक अतीत जिन भए तिनको नमस्कार || हो सदा सर्वदा साधुओंको नमस्कार और सर्व सिद्धोंको निरंतर नमस्कार । कैसे, सिद्ध केवल ज्ञानरूप ||
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पन
पराख ॥१२॥
केवल दर्शनरूप धायक सम्यक्तरूप इत्यादि अनन्त गुणरूप यह पवित्र अक्षर लंकाके स्वामीने गाए ।
रावण द्वारा जिनेन्द्रदेवकी महा स्तुति करनेसे धरणेंद्रका श्रासन कंपायमान भया । तब अवध ज्ञानसे रावणका वृतान्त जान हर्षसे फूलें हैं नेत्र जिसके सुन्दर, मुख जिसका देदीप्यमान मणियों के ऊपर जे मणि उनकी कांति से दूर किया है अन्धकार का समूह जिसने पातालसे शीघ्रही नामों के राजा कैलाश पर आए जिनेन्द्रको नमस्कारकर विधिपूर्वक समस्त मनोज्ञ द्रब्योंसे भगवानकी पूजा कर रावणसे कहते भए हे भव्य तैंने भगवानकी स्तुति बहुत करी और जिन भक्तिके बहुत सुन्दर गीत गाए । सो हमको बहुत हर्ष उपजा हर्ष करके हमारा शरीर श्रानन्दपरूपभया हे गक्षसेश्वर धन्यहै तू जो जिनराज की स्तुति करेहै । तेरे भावसे अवार हमारा आगमन भया है । में तेरेसे सन्तुष्ट भया तू बरमांग जो मन बांछित बस्तु तू मांगे सो दूं । जो बस्तु मनुष्योंको दुर्लभ है सो तुम्हें दूं तब रावण कहते भए हे नागराज जिन बन्दना तुल्य और क्या शुभ बस्तु है जो मैं आपसे मांगू श्राप सर्व बात समर्थ मनवांछित देनेलायक हैं। तब नागपति बोले हे रावण जिनेन्द्र की वन्दना के तुल्य
और कल्याण नहीं । यह जिन भक्ति श्राराधी हुई मुक्तिके सुख देवे है इस लिये इस तुल्य और कोई पदार्थ न हुश्रा न होयगा तब रावण ने कही हे महामते जो इससे अधिक और बस्तु नहीं तो में क्या याचूं । तब नागपति बोले तैंने जो कहासो सबसत्यहै जिनभक्तिसे सबकुछ सिद्धिहोयह इसको कुछ दुर्लभ नहीं तुम सारिखे मुझसारिखे और इंद्रसारिखे अनेकपद सर्व जिनभक्तिसेहीहोयहै औरयहतो संसारके सुख अल्पहें बिनाशीकहें इनकी क्याबातमोक्षके अविनाशीजो अतेन्द्री सुख वेभीजिनभक्तिसे होय, हेरावण
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पुराण
.१८३॥
! तुम यद्यपिअत्यन्तत्यागीहो महाविनयवान बलवानहो महाऐश्वर्यवानहो गुणकरशोभितहो तथापि मेरा | दर्शन तुमको वृथामतहोय में तेरेसे प्रार्थना करूंहूं तु कुछ मांगयह मैं जानूहूं कि तृ याचकनहीं परंतु मैं अमोघ विजियानामा शक्ति विद्या तुझे दूंहूं सो हे लंकेश तु ले हमारा स्नेह खंडन मतकर हे रावण किसीकी दशा एकसी कभी नहीं रहती संपतिके अनन्तर विपति और विपतिके अनन्तर संपति होतीहै जो कदा चित् मनुष्यशरीरहै और तुझपर विपति पड़े तो यह शक्ति तेरे शत्रुकी नाशनेहारी और तेरी रक्षा की करनेहारी होयगी मनुष्योंकी क्या बात इससे देवभी डेरें, यह शक्ति अग्नि ज्वालाकर मंडित विस्तीर्ण
शक्ति की धारनेहारीहै तब रावण धरणेंद्रकी प्राज्ञा लोपनेको असमर्थ होता हुआ शाक्त को ग्रहण | करताभया क्योंकि किसीसे कुछ लेना अत्यन्त लघुताहै सो इस बातसे रावण प्रसन्न नहीं भया रावण | अति उदारचित्त है तब घरणेंद्र से रावणने हाथ जोड़ नमस्कार किया धरणेंद्र श्राप अपने स्थानक गए। कैसेहैं धरमेंद्र प्रगट है हर्ष जिनके रावण एक मास कैलाशपर रहकर भगवानके चैत्यालयों की महाभक्तिसे पूजाकर और बाली मुनिकी स्तुतिकर अपने स्थानक गए। ___बाली मुनिने जो कछुइक मनके क्षोभसे पाप कर्म उपार्जाथा सो गुरुवोंके निकट जाय प्रायश्चित लिया शल्यदुरकर परम सुखी भए । जैसे विष्णुकुमार मानने मुनियोंकी रक्षानिमित्त वलिकापराभाव कियाथा और गुरुसे प्रायश्चित लेय परमसुखी भएथे तैसे बाली मुनिने चैत्यालयोंकी और अनेक जीवों की रक्षा निमित्त रावणका पराभव किया कैलाश थांबा फिर गुरुपे प्रायश्चित लेय शल्य मेट परमसुखी भए चारित्रसे गुप्तिसे धर्म से अनुप्रेचासे सुमातसे परीषहोंके सहनेसे महासंवरको पाय कर्मोंकी निर्जरा
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पळ करी बाली मुनि केवलज्ञानको प्राप्त भए अष्टकर्मसे रहित होय तीन लोकके शिखर अविनाशी स्थान पुराण में अविनाशी अनुपम मुखको प्राप्त भए और रावणने मनमें विचारा कि जोइन्द्रियों को जी तिन
को मैं जीतिबे समर्थ नहीं इस लिये राजाओंको साधुओंकी सेवाही करनी योग्यहै ऐसा जान साधुवों की सेवामें तत्पर होता भया सम्यकदर्शन से माण्डत जिनेश्वर में दृढ़ है भाक्ति जिसकी काम भोगमें अतृप्त यथेष्ट सुख से तिष्ठता भया। __ज्योतिपुर नामा नगर वहां राजा अग्निशिख राणी ही उनकी पुत्री सुताराजो सम्पूर्ण स्त्री गणों से पूर्व सर्व पृथ्वी में रूप गुण की शोभासे प्रसिद्ध मानों कमलोंका निवास तज साक्षात् लक्ष्मी ही
आईहै और राजा चक्रांक उसकी राणी अनुमति तिनका पुत्र साहसगतिमहादुष्ट एकदिन अपनी इच्छा से भ्रमणकरथा सो उसने सुताराको देखा देखकर काम शल्यसे अत्यंत दुखी होकर निरंतर सुताराको मन में धरता भया दशा जिसकी उनमत्तहे ऐसा दूत भेज सुताराको याचता भया और सुग्रीव भी बारम्बार याचता भया वह सुतारा महा मनोहर है । तब राजा अग्निशिख सुताराका पिता दुविधामें पड़ गया कि कन्या किसको देनी तब महाज्ञानी मुनिको पूछी मुनीन्द्रने कहा कि साहसगति की अल्प
आयुहै और सुग्रीव को दीर्घ आयु है तब अमृत समान मुनिके बचन सुनकर राजा अग्निशिख सुग्रीवको दीर्वायु वाला जानकर अपनी पुत्रीका पाणीग्रहण कराया सुग्रीवका पुण्य विशेष है जो सुताराकी प्राप्ति भई तदनतर मुग्रीव और सुताराके अंग और अंगद दोय पुत्र भए और वह पापी साहसगाते निर्लज्ज सुताराकी आशा छोड़े नहीं धिक्कारहै काम चेष्टा को वह कामारिन कर दग्ध
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पन चितविषेऐसा चिंतकिवह सुखदायनी कैसे पाऊं कबउसकामुखचन्द्रमासेअधिकमेंनिरखू कबउससहितनंदन TREA| बनविषे क्रीडा करूऐसा मिथ्याचितवनकरता सन्तारूपपवरातिनीसे मुखौनामा विद्याकेाराधनेको रिम
वतनामा पर्वतपर जायकर अत्यंत विषम गुफा विषेतिष्ठकर विद्याके आराधनेका आरम्भ करने लगा। जैसे दुखी जीव प्यारे मित्रको चितारे तैसे विद्याको चितारता भया। ___अथानन्तर रावण दिबिग्जय करनेको निकसा बन पर्वतादिकर शोभित पृथ्वी देखता और समस्त विद्याधरोंके अधिपति अंतर द्वीपोंके वासियोंको अपने वश करता भया । और तिनको आज्ञाकारीकर तिनहीके देशोंमें थापताभया उस रावणकी अाशा अखंडहै और विद्याधरोंमें सिंहसमान बडे २ राजा महापराक्रमी रावणने वश किये तिनको पुत्र समान जान बहुत प्रीति करता भया महंत पुरुषोंका यही धर्महे कि नमूतामात्रसे ही प्रसन्न होवें राक्षसोंके वंशमें अथवा कपिवंशमें जे प्रचंड राजाथे वे सर्व वश किये बड़ी सेनाकर संयुक्त आकाशके मार्ग गमन करता जो दशमुख पवन समानहै वेग जिसकाउस का तेज विद्याधर सहिवेको असमर्थ भए सन्ध्याकार मुवेल हेमा पूर्ण सुयोधन हंसदीप बारिहल्लादि इत्यादिद्वीपोंके गजाविद्याधर नमस्कारकर भेंट लेप्राय मिले सो रावणने मधुर बचनकह बहुत सन्तोपे और बहुत सम्पदाके स्वामी किये । जे विद्याधर बरे २ गढ़ोंके निवासीथे वे रावणके चरणारविन्द को नमीभत होय श्राय मिले जो सार वस्तु थी सो भेंट करी हे श्रेणिक ! समस्त बलों विष पुरोपा जिंत पुण्यका बल प्रक्ल है उसके उदयकर कौन वश न होय सवही बश होयहैं। . अथानन्तर रथनूपुर का राजा जो इन्द्र उसके जीलिबे को रावण गमन को प्रवरता सो जहां
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पाण १८६॥
पा | पाताला लंका में खरबूषण बहलेकाहे वहां जाय डेरा कियाः पाताललंका के समीपाटेरा भया रात्रिका
समयथा खरखूपणशयन करेया सो चन्द्रमखा रावणकी बहिनने जगाला पाताललंकासे निकसकर रावण के निकर पाया रत्नोंके अर्घ देय महा भक्तिसे परम उत्साहकर रावामकी पूजा करी । राषपने भी वाजपना के स्नेहकर खरदूपण का बहुत सत्कार किया. जगतमें पहिन पाहणे समान और कोऊ स्नेहका पात्र नहीं ।। बरदूषणने चौदह हजार विद्याधर मनवांछित नाना रूपके पारनहारे सवय को दिखाए रावण खरदूषणकी सेना देख बहुत प्रसन्नभए श्राप समान सेनापति किया केसाह वरदूषमा महा शूरवीरहे उसने अपने गुणों से सर्व सामन्तोंका चित्त बश कियाहै हिंडं देहिडिंब, विकट, बिजवाय माकोट, सुजट, टंक, किहकन्धाधिपति, सुग्रीव, तथा त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल, वसुन्दर इत्यादिक अनेक राजा नाना प्रकार के वाहनों पर चढ़े नाना प्रकार शस्त्र विद्या विषे प्रवीण अनेक शस्वन के अभ्यासी तिनकर युक्त पाताल लंका से खरदूषण रावमा के कटक में पाया जैसे पाताल लोक से असुर कुमारों के समूहकर युक्त चमरेन्द्र श्रावे इस भांति अनेक विद्याधर गजात्रोंके समूहकर राक्ण का कटक पूर्ण होताभया जैसे बिजली और इंद्रधनुषकर युक्त मेघमालायोंके समूह तिनकर-श्रावणमास पूर्ण होया ऐसे एक हजार ऊपर अधिक प्रक्षोहिणी दल रावणके होय चुका पौरदिन दिन बढ़ता जाय है और हजार हजार देवोंकर सेवा योग्य रत्न नानाप्रकार गुणों के समूहके धारणारे उनकर युक्त और चन्द्राकरण समान उज्ज्वल चमर जिसपर दुरे हैं उज्ज्वल छत्र सिरपर फिरे हैं जिसका रूप सुंदर हे महाबाहु महाबली पुष्पक नामाबिमानपर चढ़ा सुमेरु समान स्थिर मूर्यसमान ज्योति अपने विमानादि
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पन्न बाहन संपदाकर सूर्यमंडल को आछादित करता हुवा इन्द्रका विध्वंस मभमैं विचारकर रावण ने ।
प्रयाण किया। कैसाह रावणं प्रबलहे पराक्रम जिसका मानो अाकाशको समुद्र समान करताभया देदीप मानजे शस्त्रर्वई भई कलोक और हाथी घोड़े प्यादे येही भए जलचर जीव और छत्र भवरभए और कमर तुरंग भर नानाप्रकारके रत्नोंकीज्योतिफैल रहीहै और चमरोंके दंडमीन भएहे श्रेणिकरावणकी विस्तीण सेनाका वरणन कहांलगकरिये जिसको देखकर देवभी डरें तो मनुष्योंकी क्या बातइन्द्रजीत मेघनादकुंभकर्ण विभी पण खरदूषण इत्यादि बहुत सुजन रममें प्रवीण सिद्धहविद्याजिनकोमहाप्रकाशवंत शस्त्रशास्त्रविद्या प्रयास हैं जिनकी कीर्ति बड़ीहै महासेनाकर युक्तदेवाताओंकी शोभाको जीनते हुए रावणके संगरले विन्ध्या चल पर्वतके समीप सूर्य अस्त भया मानों रावणके तेजकर विलषा होय तेज रहित भया वहाँ सेना का निवास भया मानों विध्यांचल ने सेना सिंरपर धारी है विद्याके बलसे नाना प्रकारके श्राश्रयकर लिये फिर अपनी किरणों कर अन्धकार के समूह को दूर करता हुश्रा चन्द्रमा उदय मया मानों रावण के भयकर रात्री रत्नका दीपक लाई है और मानों निशा स्त्री मई चांदनी कर निर्मल जो श्रा काश सोई बस्त्र उसको धरै तारात्रीके जे समूह तेई सिर विषे फूल गूंथे हैं चंद्रमाहीहै बदन जिसका नाना प्रकारकी कथाकर तथा निद्राकर सेनाके लोकोंने रात्री पूर्ण करी किर 'प्रभातके वादिन वाजे मंगल पाठकर रावण जागे । प्रभात क्रिया करी सूर्यका उचय भया मानों मूर्य भुवन विष भ्रमणार किसी ठोर शरण ने पाया तब रावण ही के शरने आया। - श्रयानन्तर गवण नर्मदाको देखते भए नर्मदाका जल युद्ध स्फटिकमयी समानहे और उसके तीर
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अनेक बनके हाथी रहेहैं सो जलमें केलि करे, उसकर शोभायमान हैं और नाना प्रकार के पवियों के समूह मधुर गानकरे हैं सो मानों परस्पर संभाषणंही करे हैं फेन कहिए झागके पटल उनकर मंडित है तरंगरूप जे भौंह उनके विलासकर पूर्ण हैं भंवरही हैं नाभि जिसके और चंचल जे मीन वई नेत्र जिसके और मुन्दर जे पुलिन वेई हैं कटिजिसके नाना प्रकारके पुष्पोंकर संयुक्त निर्मल जली बस जिसका मानों साक्षात सुन्दर स्त्रीही है उसे देखकर रावणा बहुत प्रसन्न भए प्रबल जे जलचर उनके समूहकरमंडित है गंभीरहै कहूं एक वेग रूप बहे है कहूं एक मंदरूप बहेहै कहीं एक कुंडलाकार बहे है नाना चेष्टाकर पूर्ण ऐसी नर्मदा को देखकर कौतुक रूप हुआ है मन जिसका सो रावण नदी के तीर उतरा नदी भयानक भी है और सुन्दर भी है। ___अथानन्तर माहिष्मती नगरी का राजा सहमरश्मि पृथ्वी में महा बलवान मानों सहमरश्मि कहिए सूर्य ही है उसके हजारों स्त्री नर्मदा विषे रावण के कटक के ऊपर सहस्ररश्मिने जल यंत्रकर नदी का जल थांभा और नदी के पुलिन विषे नाना प्रकार की क्रीड़ा करी कोई स्री मानकर रही थी उसको बहुत शुश्रुषाकर प्रसन्नकरा दर्शन स्पर्शनमान फिर और मानमोचन प्रणाम परस्पर जल केलि हास्य नानाप्रकार पुष्पोंके भूषणोंके शृंगार इत्यादि अनेक स्वरूप क्रीड़ा करी मनोहरहे रूप जिसका जैसे देबियासहित इंद्र क्रीड़ाकरे तैसे राजासहमूरश्मिने क्रीड़ा करी जे पुलिनके बालूरेत विषे रत्नके मोतियों के आभूषण टूटकर पड़ें सोन उठाये जैसे मुरझाई पुष्पोंकी मालाको कोई न उठावे कैयक राणी चंदन के लेपकर संयुक्त जल विषे केल करती भई सो जल धवल हो गया कैयक केसर के कीच
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पद्म
.१
कर जलको गालेहये सुवण के समान पीत करती भई कैयक ताम्बूलकै रङ्गकरलाल जे अधर तिनके प्रक्षालन कर नीरको अरुण करती भई कैयक आंखों के अंजन घोवनेकर श्याम करती भई सो क्रीडा करती जे स्त्री उनके आभूषणोंके सुन्दर शब्द और तीर विषे जे पक्षी उनके मुन्दर शब्द राजाके मनको मोहित करते भये और नदीके निवासकी ओर रापण का कटकथा सो रावण स्नानकर पवित्र वस्र पहिर नाना प्रकारके आभूषणोंसे युक्त नदी के रमणीक पुलिन में बालूका चौतरा बँधाय उसके ऊपर वैड्य मणियों के दंड जिसके ऐसा मोतियोंकी झालरी संयुक्त चन्दोवाताण श्रीभगवान अरिहंत देवकी नाना प्रकार पूजा करेथा बहुत भक्ति से पवित्र स्तोतों कर स्तुति करेथा सो उपरास का जलका प्रवाह पाया सो पूजा में विघ्न भया नानप्रकारकी कलुषता सहित प्रवाह वेग दे आया तब रावण प्रतिमा जीको लेय खड भये और क्रोधकर कहते भये जो यह क्या है सो सेवकने खबर दीनी कि हे नाथ यह कोई महा क्रीडावन्त पुरुष सुन्दर स्त्रियोंके बीच परम उदयको घरे नाना प्रकारकी खीलाकरे है और सामन्त लोक शास्त्रोंको घरे दूर दूर खड़े हैं नानाप्रकार जलके यन्त्र वांधेथे उनसे यह चेष्ठा भई है राजाओं के सेना चाहिये इसलिये उसके सेना तो शोभा मात्रहै और उसके पुरुषार्थ ऐसाहै जो और ठौर दुर्लभहै बड़ेर सामंतों से उसका तेज न सहा जाय और स्वर्गविषे इन्द्र हैं परन्तु यहतो प्रत्यचही इन्द्र देखा यह वार्ता सुनकर रावण क्रोधको प्राप्त भये भौंह चढ़गई प्रांस साल होगई ढोल वाजने लगे वीररस का राग होने लगा नानाप्रकार के शब्द होप हैं घोड़े हीसे हैं गज गाजे हैं रावण ने अनेक राजाओंको आज्ञा करी कि यह सहस्ररश्मि दुष्टात्माहे इसे पकड़ लावो ऐसी मानाकर आप नदीके तटपर पूजा करनेलगे रत्न सुवष के
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पुराण
पन्न । पुष्प उमको आदि देय श्रमेक सुन्दर जे द्रव्य उनसे पूजकिरी धीरे अनेक विद्याधरोंके राजा रावणकी icon प्रज्ञा श्रीशिषांकी न्याई माथे चढाय युखको चले राना संहसरश्मिने परदलको प्रावतादेन स्त्रियोंको कहा
कि तुम डरो मत, घीर्य वैधाय पाप अलसें निकसे कलकसाठ शब्द सुन परदल पाया जान माहिष्मती नमर्स के योषां सजकर हाथी घोड़े रथों पर चढ़े नानाप्रकारके आयुध बरे स्वामी धर्मके अत्यन्त अनुराग से राजाके ढिगाये जैसे सम्मेद शिखर पर्वतको एकहीकाल बहीं ऋतु आश्रयकरें जैसे समस्तयोधा तत्काल राजापै पाए विद्याधरोंकी फौज श्रावती देखकर सहसूरश्मिके सामन्त जीतव्यकी आशा छोड़कर घनव्यूह रचकर धनीकी आज्ञा विनाही लड़नेको उद्यमी भये जब रावण के योधा युद्ध करनेलगे तब श्राकाशमें देवनकी वाणी भई कि अहो (यह बड़ी अनीतिहै ये भूमिगोचरी अल्पबली विद्या बलकर रहित माया युद्ध को कहां जाने इनसे विद्याधर मायायुद्ध करें यह क्या योग्यहै) और विद्याधर घने यह थोड़े ऐसे अाकाश विषे देवन के शब्द सुनकर जे विद्याधर सत्पुरुष थे वह खज्जोवान होय भूमि में उतरे दोनों सेना में परस्पर युद्ध भया रथोंके, हाथियोंके, घोड़ों के, असंवार तथा पियादे तलवार, बाण, गदा, सेल इत्यादि आयुधों कर परस्पर युद्ध करनेलगे सो बहुत युद्ध भया परस्पर अनेक मारेगये न्याय युद्धभया शस्त्रों के प्रहार कर अग्नि उठी सहसरश्मि की सेना रावण की सेना कर कळूइक हटी तब सहस्ररश्मि स्थपर चढकर यद्धको उद्यमी भए माथे मकट घरे वक्तर पहरे धनषको धारें अति तेजको धरे विद्याधरोंके बलको देखकर तुच्छमात्रभी भय न किया तब स्वामीको तेजवन्त देख सेनाके लोग जे हटेथे वे आगे प्रायकर युद्ध करनेलगे दैदीप्यमानहें शस्त्र जिनके और जे भूलगये.हे घावोंकी वेदना ये रणधीर भूमि
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पन्न गोचरी राचसोंकी सेना में ऐसे पड़े जैसे माते हाथी समुद्रमें प्रवेशकरें और सहसरश्मि अतिक्रोधको करते, पुरात हुये वाणोंके समूह से जैसे पवन मेघको हटावे तैसे शत्रुवों को हटावतेभये तब द्वारपालने रावणसे कही
हे देव देखो इसने तुम्हारी सेना हठाई है यह धनुषका घारी स्थपर चढ़ा जगत्को तृणवत देखे है इस के बापोंकर तुम्हारी सेना एक योजनपीछे हटी है तबरावण सहसरश्मि को देख आप त्रैलोक्य मण्डण हाथी पर सवार चढे रावणको देखकर शत्रुभी डरें वह बाणोंकी वर्षा करते भए सहसरश्मिको स्थसे रहितकिया तब सहसूरश्मि हाथीपर चढ़कर रावणके सन्मुख आए और वाण छोड़े सो रावणके वक्तरको भेद अंगविषे चुभे] तब रावणमे बाण देहसे काढ़डारे सहलरिश्मने हंसकर रावणसे कहा अहो रावण तू बड़ा धनुषधारी कहावे है ऐसी विद्या कहांसे सीखा तुझे कौन गुरु मिला पहिले धनुष विद्यासीख फिर हमसे युद्ध करियो ऐसे कठोर शब्दों से रावण क्रोधको प्राप्त भए सहखरिश्मके वशमें सेल की दीनी तब सहस्ररश्मि के रुधिरकी मारा वसी जिससे नेत्र घूमने लगे पहिले अचेत होगया पीछे सचेत होय आयुध पकड़ने लगा तब रावण उबलकर सहसरश्मि पर माय पड़े और जीवता पकड़लिया बांधकर अपने अस्थान लेआए तब सबविद्या-1 घर आश्चर्यको मासमये कि सहस्ररश्मि जैसे योषाको रावण पकड़े कैसे हैं रावण धनपति बचके जीतनेहारे । यमके मालमन कस्लेहारे कैलाशके कंपाक्नहारे सहसूरश्मि का यह वृतांतदेख सहसूरश्मि जो सूर्यसो
भी मामो भयकर अस्तापखको भाप्तभया अन्मकार फेलगया भावार्थ रात्रीका समपभया भला कुरा दृष्टिमें | माये तब पलमा का विम्ब उदय भया सो अन्धकार के हरपेको प्रवीण मानों रावण का निर्मलयश
ही प्रगम है युद्धतिले जे जोषा चापलभये बेतिनका वैद्योंसे यत्न कराया और जो मयेथे तिनको अपने
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|| अपने बन्धुवर्ग रणखेत से लेनाए उनकी क्रियाकरी रात्रि न्यतीतभई प्रभातके वादिन बाजनेल गे फिर
सूर्य रावणकी वार्ता जानने के अर्थ राग कहिये ललाई को धारताहुवा कम्पायमान उदयभया सहसूरश्मिकाका पिताराजाशतबाहुजो मुनिराज भयेथे जिनको जंघाचारण ऋद्धिथी वे महा तपस्वी चन्द्रमा के समान क्रांत सूर्य समान दीप्तिमान मेरुसमान स्थिर समुद्र सारिने गम्भीर सहमूरश्मिको पकड़ा सुनकर जीवन की दयाकेकरणहार परमदयालु शांतिचित्त जिनधर्मी जान रावण भाए। रावण मुनिको प्रावते देख उठ सामनेजाय पायनपड़े भूमिमें लगगयाहै मस्तकतिनका मुनिको काष्ठके सिंहासनपर विराजमानकर रावण हाथजोड नम्रीभूत होय भूमिविषे वठे। अति विनयवान होय मुनिसेकहते भए हे भगवन कृपानिधान तुमकृत कृत्व तुम्हारा दर्शन इन्द्रादिक देवोंको दुर्लभ है तुम्हारा आगमन मेरे पवित्र होनेके अर्थ है तब मुनि इसको शलाकापुरुष जान प्रशंसाकर कहतेभयेहे दशमुखतू बड़ाकुलवान् वलवान विभूतिवान पराभवदेव गुरुधर्मविषे भक्तिभाव युक्त है। हेदीर्घायु शुरखीर क्षत्रियोंकी यही रीतिहै जो आपसेलडे उसका पराभव कर उसेवश करें। सो तुम महावाहु परम खत्री हो तुम से लड़ने को कौन समर्थ है अब दयाकर सहस्ररश्मि को छोड़ो तब रावण मन्त्रयों सहित मुनि को नमस्कार कहते भये। हे नाथामें विद्याधर राजाके वश करने को उद्यमी भया हूं लक्ष्मी कर उन्मत रथुनूपर का राजा इन्द्र उसने मेरे दादे का बड़ा भाई राजा माली युद्धमें मारा है उससे हमारा द्वेष है सो में इन्द्र ऊपर जाऊंथा मार्गमें रेखा कहिए नर्मदा उसपर डेराभया सो पुलिन पर बालूके चौतरे पर पूजा करूंथा सोइसने उपरास की और जल यंत्रों की केलिकरीसो जलका वेग निवास को आया।सो मेरी पूजामें विघ्न भया इसलिये यह कार्य कियाहै विनाअपराधमेंदेषन करूंऔर में इनके
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ऊपरगया तब भी इननेचमा न कराई कि प्रमादकर विनाजाने मेंनेयह कार्य किया है तुम चमो करो उलटा मानके उदयकर मेरेसे युद्धकरनेलगाऔरकुबचन कहेइस लियेएसाहुबाजोमें भूमिगोचरी मनुष्यों कोजीतने समर्थ नभया तोविद्याधरोंको कैसे जीत गा कैसे, विद्याधरनानाप्रकार की विद्याकर महापराक्रम क्न्तहें इसलिये जोभूमिगोचरी मानीहें तिनकोप्रथम वसकरूं पीछे विद्यावरों को बस करूं अनुक्रम से जैसे सिवानचढ़ मन्दिरमें आइयेहै इसलिये इनको बसकिया अबछोड़ना न्यायही है फिर आप की आज्ञा समान और क्या । कैसेहो पाप महापुण्यके उदयसे होवेहे दर्शन जिनका ऐसे बचन रावणके मुन इंद्र जीतने कही हे नाथ ! आपने बहुत योग्य वचन कहे । ऐसे बचन श्राप बिना कौन कहे तब रावणने मारीच मंत्रीको आज्ञा करी कि सहस्ररश्मिको छुड़ाय महाराजके निकट लावो । तब मारीचने अधिकारीको श्राज्ञाकरी । सो प्रापप्रमाण जो नांगी तलवारों के हवालेथा सो लेभाये सहमरश्मि अपने पिता जो मुनितिनको नमस्कारकर प्रायबैठे रावणने सहमूरश्मिका बहुत सत्कारकर बहुत प्रसन्न होय कहा हे महाबल जैसे हम तीनों भाई तैसे चौथा 'तू। तेरेसहायकर स्थनूपुरका राजा इंद्र भ्रमते कहावेहे, उसे जीतूंगा और मेरी राणीमन्दोदरी उसकी बहुरी बहिन स्वयंप्रभा सो तुझे परणाऊंगा । तब सहमूरश्मि बोले धिक्कारहे इस राज्यको यहइन्द्र धनुषसमान क्षणभंगुरहै और इन विषयोंको धिक्कारहै ये देखने मात्र मनोहै महादुखरूपहै और स्वर्गको धिक्कार अबत असंयमरूपहे । और मरणके भाजन इस दहको भी धिक्कार और मोको धिक्कार जो एते काल विषयासक होय इतने काल कामादिकरियों से उगाया अवमें ऐसा करूं जिससे फिर संसारबन विष भ्रमण न होय । मैं अत्यंत दुःखरूप जो चार ।
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पद्म गति तिनमें भूमणाकरता बहुत थका । अव भवसागरमें जिससे पतन न होय सो करूंगा। दव रावण | पुराण
कहते भए यह मुनिका धर्म वृद्धोंको शोभेहै । हे भव्य तूतो नवयौवन है तब सहमूरश्मिने कहा कालके यह विवेचना नहीं नो वृद्धहीको ग्रसे नरुणको न पसे । काल सर्वभाह बाल वृद्धयुवा सबहीको ग्रसे ॥ है जैसे शरदका मेघक्षणमात्रमें विलायजाय बैसे बह देह तत्कालविनसेहे हे रावण जो इन भोगोंहीके तिपे सार होय तो महापुरुषकाहेको तजें उत्तमहै बुद्धिजिनकी ऐसेमेरे यहपिता इन्होंने भोगछोड़ योगादग सो योगहीसार है यह कहकर अपने पुत्रको राज्यदेय रावणसे धमाकराय पिताके निकट जिन दीचा प्रादरी और राजाअरण्य अयोध्याका धनी सहसरश्मिका परममित्रहै सो उनसे पूर्व बचनथा जो हम पहिलेदीचा धरेंगे तोतुम्हें खबरकरेंगे औरउनने कहीथीहमदीचाधरेंगे तो तुम्हें खबरकरेंगे सोउन वैराग्य के समाचारभेजे भले मनुष्यों ने राजा सहसरश्मिका वैराग्यहोनेका वृतांत राजाअरण्यसे कहासो सुन कर पहिलेतो सहसूरश्मिके गुणस्मरणकर श्रांमूभर बिलापकिया फिर विषादको मंदकर अपने समीप लोगों से महा बुद्धिमान कहते भए जो रावण बैरीका भेषकर उनका परममित्र भया जो ऐश्वर्यके पिंजरेमें राजा रुकरहे थे विषयोंकर मोहितथा चित जिनका सो पिंजरेसे छुडाय यह मनुष्यरूप पक्षी मायाजाल रूप पिंजरेमें पड़ा है सो परम हितूही छुड़ावेहे माहिषमती नगरीका धनी राजासहसूरश्मि धन्य है जो रावण रूप जहाजको पायकर संसाररूप समुद्रको तिरेगा कृतार्थभया अत्यंत दुखका देनहारा जो राजकाज महापाप उसे तजकर जिनराजका ब्रत लेनेको उद्यमी भया और मित्र की प्रशंसाकर आप भीलघु पुत्रको राज्य देय बडे पुत्र सहित राजा अरण्य मुनिभए । हे श्रेणिक कोई यक उत्कृष्टपुण्यका उदय ।
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'पुराख
पद्म श्रावे तब शत्रुका तथा मित्रका कारण पाय जीवको कल्याणकी बुद्धि उपजे और पापकर्मके उदयकर । ४१५॥
दुर्बुद्धि उपजे जो कोई प्राणीको धर्मके मार्गमें लगावे सोई परममित्रहै और जो भोग सामग्री में प्रेरे सो परमबैरीहै अस्पृश्यहै हे श्रेणिक जो भब्यजीव यह राजा सहस्ररश्मिंकी कथा भावधर सुनेसो मुनिव्रत रूप संपदाको प्राप्त होकर परम निर्मल होंय, जैसा सूर्यके प्रकाशकर तिमिरजाय तैसे जिन बाणी के प्रकाशकर मोह तिमर जाय । अश्वानन्तर रावणने जेजे पृथ्वी विष मानी राजा सुने तेते सर्व निवाए अपने वश किए और जो आप मिले तिनपर बहुत कृपा करी अनेक राजाओं से मंडित सुभृत चक्र वर्तकी न्याई पृथ्वी में बिहार किया नाना देशके उपजे नाना भेषके धरणहारे नाना प्रकार आभूषण के पहरनेहारे नाना प्रकारकी भाषाके बोलनहारे नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़े नानाप्रकारके मनुष्योंकर मंडित अनेकराजा उनसहित दिग्विजयकरता भया ठौर२ रत्नमईसुवर्णमई अनेकजिनमंदिर कगये औरजर्णि चैत्यालयोंके जीर्णोद्धार कगयादेवाधिदेव जिनेंद्रदेवकीभावसहित पूजाकरीठौर :२ पूजाकराई जो जैनधर्म। के देषीदुष्ट मनुष्य हिंसकथेतिनको शिक्षादीनी और दरिद्रीयोंको दयाकर धनसे पूर्ण किया और सम्यकदृष्टी श्रावकोंका बहुत अादर किया साधर्मियोंपरहै बहुत वात्सल्यभाव जिसका रिजलं मुनि सुने वहां जाय भक्तिकर प्रणामकरे जे सम्यक्त रहित द्रव्यलिंगी मुनि और श्रावकथे तिनकी भी शुश्रूषा करी जैनी मात्रका अनुरागी उत्तरदिशाको दुस्सह प्रतापप्रगट करता विहार करता भया जैसे उत्तरायणके मूर्यका अधिक प्रताप होय तैसे पुण्यकर्म के प्रभावसे रावणका दिन दिन अधिक तेज होता भया। 'अयानंतर रावणने सुना किराजपुरका राजा बहुत बलवान है अतिवाभिमानको धरता हुवा किसीको
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॥१६॥
प्रणाम नहीं करहै और जन्मसे ही दुष्टवित्तहे मिथ्या मार्गकर मोहित है औरजीवहिंसा रूप यज्ञ मार्ग विषे प्रवर्ती है । तब यज्ञका काम मुन राजा श्रेस्किने गौतम स्वामी से कहा । हे प्रभो रावण का कथन तो पीछे कहिये पहले यज्ञकी उस्पति कही यह कौन वृतान्त है जिसमें प्राणी जीव घात रूप घोर कर्ममें प्रवरते हैं । तब गणधर ने कहा हे श्रेणिक अयोध्या विषे ईक्ष्वाकु वंशीराजा ययाति उसकी राणी सुरकांता और पुत्र बसु था सो जब पढ़ने योग्य भया तब क्षीस्कदम्ब ब्राह्मणपै पढ्नेको सौंपा क्षीरकदम्बकी बहू स्वस्तिमती और एक नारद नाम ब्राह्मण देशान्तरी धर्मात्मासो क्षीरकदम्ब पे पढ़े और क्षीरकदम्बका पुत्र पर्वत महापापी सो भी पढ़े क्षीरकदम्ब अति धर्मात्मा सर्व शास्रों में प्रवीण शिष्योंको सिद्धान्त तयाक्रियारूप ग्रंथ तथा मन्त्रशास्त्र व्याकरणादि अनेकग्रन्थ पढ़ावें एक दिन नारद बसु और पर्वत इन तीनों सहित क्षीरकहम्ब बनविषे गए वहां चारण मुनि शिष्यों सहित विराजे थे सो एक मुनिन कही चार जीवहैं एक गुरु तीन शिष्य तिनमें एक गुरु एक शिष्य यह दो मुद्धिहैं और दो शिष्य कुबुद्धीहैं ऐसे शब्द सुनकर तीरकदम्ब संसारसे अत्यंत भयभीत भए शिष्योंकोतो सीप करीना सो अपने २ घर गए मानों गायके बछडे बंधनसे छुट और तीरकदम्बने दमानीचा धरा ज शिष्य घर आए तब क्षीरकदम्बकी स्त्री स्वस्तिमती पर्वतको पूछती भई तेराापता कहांतू अकेलाही घर क्यी श्रआया तब पर्वतने कही हमकोतो सीख दीनी और कहाइम पीछेसेश्रावेहें यह बचन सुन स्वस्तिमती बावकलप उपजा पातके आगमनकी है बांछा जिसके दिन अस्तभयातोभी न पाएतब स्वस्तिमती | महाशंकवतीहोय पृथ्वीपर पड़ी और रात्रि विषे' चकवीकी न्याई दुखकर पीडित विलाप करती भई।
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१६
हाय हायमें मंदभागिनी प्राणनाथ बिना हैतागेइ कसा पापीने उनको मारा अथवा किसा कारणकर देशांतरको उठगए अथवा सर्वशास्त्रविषे प्रवीणथे सो सर्वपरिग्रहका त्यागकर वैराग्यपायमुनिहोगए इस भांत विलापकरते रात्रि पूर्वभई जवप्रभातर्भई तबपर्वत पिताको ढूंढने गया उद्यानमें नदीके तटपर मुनियों के संघसहित श्रीगुरु विराजे हुएथे उनके समीप विनयसहित पिता बैठादेखातबपीछे जायकरमातानेकहीकि हे मात हमारापिता मुनियों नेमोहाहैसो नग्नहोगयाहै तब स्वस्तिमतीनिश्चयजानकरपतिकेवियोगसेअति दुखीभई हाथोंकर उरस्थलको कूटतीभई और पुकारकर रोवतीभई सो नारद महा धर्मात्मा यह वृत्तान्त सुन कर स्वस्तिमती पै शोकका भरा पाया उसे देखकर अत्यन्त रोक्नेलगी और सिर कूटती भई शोक विषे अपनेको देखकर शोक अतीव बढ़े है तब नारदने कही हे माता काहेको वृथा शोक करोहो वे धर्मात्मा जीव पुण्याधिकारी सुन्दरहै चेष्टा जिनकी जीतव्यको अस्थिर जान तपकरनेको उद्यमी भएहें सो निर्मल है बुद्धि जिनकी अयशोक किएसे पीछे घर न आवें या भांति नारदने सम्बोधी तब किंचित शोक मन्दभया घरमें तिष्ठी महा दुखित भरतार की स्तुति भी करे और निन्दा भी करे यह दार कदम्बके बेराग्य का वृत्तान्त सुन राजा ययाति तत्व के वेत्ता वसु पुत्रको राज देय महा मुनिभए वसुका राज्य पृथिवी विषे प्रसिद्ध भया आकाश तुल्य स्फटिक मपि उस के सिंहासन के पावे बनाए उस सिंहासन पर तिठे सो लोक जाने कि राना सत्यके प्रताप कर आकाश विष निराधार तिष्ठे है॥
अथानन्तर हे श्रेलिक एक दिन नारद के मोर पस्त के चर्चाभई तब नारदने कही कि भगवान वीतराग देवने धर्म दोय प्रकार प्ररूपा है एक मुनिका दूसरा गृहस्थी का मुनिका महव्रतरूप हे गृहस्थी।
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॥१८॥
| का अणुव्रतस्प है जोवहिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनका सर्वथा त्याग सो पञ्च महाव्रततिनकी पच्चीस भावना यह मुनिका धर्म है और इन हिंसादिक पापों का किंचित् त्याग सो श्रावक का व्रत है श्रावक के व्रतों में पूजा दोन शास्त्र विषे मुख्य कहाहै पूजाका नाम यज्ञ है (अजैर्यष्टव्यं) इस शब्द का अर्थ मुनोंने इसभान्तिकहाहै जो बोनेसे न उगें जिनमें अंकर शक्ति नहीं ऐसे शालिय तिनका विवाहादिक क्रिया विषे होम करिये यहभी आरम्भी श्रावककी रीतिहे ऐसे नारदके वचन सुन पापी पर्वत बोला अज कहिये छेला (बकरा) तिनका आलम्भन कहिये हिंसन उसका नाम यज्ञ है तब नारद कोपकर पर्वत दुष्टसे कहतेभये हे पर्वत ! ऐसे मत कहे महा भयंकर है बेदना जिस विषे ऐसे नरक में तू पड़ेगा दयाही धर्म है हिंसा पाप है तब पर्वत कहने लगा मेरा तेरा न्याय राजा वसु पै होयगा जो झूठा होयगा उसकी जिहाछेदी जायगी इस भांति कहकर पर्वत मातापै गया नास्दके और याके जो विवाद भया सो सर्व वृत्तान्त माता से कहा तब माताने कहा कि तू झूठा है तेरा पिता हमने व्याख्यान करता अनेक वार सुना है जो अज बोईहुई न उगे ऐसी पुरानी शालिय तथा पुराने यव तिनका नाम है छेलेका नहीं जीवोंका भी कभी होम किया है तू देशान्तर जाय मांस भक्षणका लोलुपी भया है तैं मानके उदयसे झूठ कहा सो तुझे दुःखका कारण होयगा हेपुत्र निश्चयसेती तेरी जिट्टा छेदी जायगी में पुण्यहीन अभागिनी पति और पुत्र रहित क्या करूंगी इस भांति पुत्रसे कह कर वह पापिन चितारती भई कि राजा वसुके गुरु दक्षिणा हमारी धरोर है असा जान अति अाकुल भई वसुके समीप गई राजाने स्वति मतिको देख बहुत विनय किया सुखासन वैटाई हाथ जोड़पूछताभया हे माता तुम दुखित दीखोहो जो तुम अाज्ञाकरो सोही करूं
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पुराण ॥१
तब स्वस्तिमति कहती भई हे पुत्र में महादुःखिनी हूं जो स्री अपने पति से रहित होय उसको काहेका सुख संसार में पुत्र दो भांति के हैं एक पेटका जाया एक शास्त्रका पढ़ाया सो इनमें पढ़ाया विशेष है एक समल है दूसरा निर्मल है मेरे धनीके तुम शिष्यहो सो तुम पुत्रसे अधिक हो तुम्हारी लक्ष्मी देखकर में धीर्य धरूं हूं तुम कहीथी माता दक्षिणा लेवो मैं कही समय पायलंगी वह वचन याद करो जे राजा पृथिवी के पालने में उद्यमी हैं वे सत्यही कहे हैं और जे ऋषि जीव दयाके पालनेमें तिष्ठे हैं वेभी सत्यही कहे हैं तू सत्यकर प्रसिद्ध है मोको दक्षिणा देवो इस भांति स्वास्ति मतिने कहा तब राजा विनय कर नीभत होय कहतेभये हे माता तुम्हारीआज्ञासे जेन करने योग्य कामहें सोभीमें करूं जो तुम्हारे चित्त में होय सो कहो तब पापिनी ब्राह्मणीने नारद और पर्वत के विवादका सर्व वृत्तान्त कहो और कहा मेरा पुत्र सर्वथा झूठा है परन्तु इसके झूठको तुम सत्य करो मेरे कारण उसका मान भंग न होय तब राजा यह अयोज्ञ जानतेहुएभी ताकी बात दुर्गतिका कारण प्रमाण करी तब बह राजा को आशीर्वाद देयघरआई बहुत हर्षित भई दूजे दिन प्रभातही नारंद पर्वत राजा के समीप आए अनेक लोक कोतुहल देखनेको आए सामन्त मन्त्री देशके लोग बहुत आय भेलेभए तब सभाके मध्य नारद पर्वत दोनों में बहुत विवाद भया नारद तो कहे अज शब्दका अर्थ अंकुर शक्ति रहित शालियहै और पर्वत कहे पशु है तब राजा वसुको पूछा तुम सत्यवादियों में प्रसिद्ध हो जो क्षीर कदम्ब अध्यापक कहते थे सों कहो तब राजाकुगतिको जानेवाला कहताभया जो पर्वत कहहै सोई चीर कदम्ब कहतेथे ऐसा कहतेही सिंहासनके स्फटिकके पाए टूटगये सिंहासन भूमिमें गिरपड़ा तब नारदने कही हे वसु ! असत्यके प्रभाव
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पुच
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से तेरा सिंहासन डिगा अबभी तुझे सांच कहना योग्य है तब मोहके मदकर उन्मत्त भया यहही कहता या जो पर्वत कहे सो सत्य है तब महा षापके भारकर हिंसामार्ग के अवरतनसे तत्काल सिंहासन समेत | बरतीपर में मढ़गया राजा मरकर सातवें नरक गया कसा है नरक अत्यन्त भयानक है वेदना जहां त राजा बसुको मूवादेख सभाके लोग वसू और पर्वतको विकार धिकार कहते भये और महा कलकलाट शब्द भया दया धर्म के उपदेश सेज़ार की बहुत प्रशंसामई और सर्व कहते भये (यतोधर्मस्तत्तोभयः) पापी पर्वत हिंसा के उपदेश से धिक्कार धिक्कार दण्डको प्राप्तभया पापी पर्बत देशान्तरों में भ्रमण करता संताहिंसामई शास्त्र की प्रकृति करताभया आप पढ़े भौरोंको पढ़ाने जैसे पतंग दीपकमें पड़े तैसे कईएक बहिरमुख जीव कुमार्ग में पड़े अभवका भक्षण और न करनेयोग्य कामकरना ऐसा लोकनको उपदेशदिया और कहता भया कि यज्ञही
ये पशु बनाये हैं यज्ञ स्वर्ग का कारण है इसलिये जो यज्ञमें हिंसा है सो हिंसा नहीं और सौत्रामणि नाम यज्ञ के विधान कर सुरापान (शरावपीने) का भीदूषणनहीं औरगौ शब्द नामयज्ञ में अगम्यागम्य (परस्त्री सेवन करे हैं जैसा पवंतने लोकों को हिंसादि मार्गका उपदेशदीया सुरमायाकर जीव स्वर्गजाते दिखाये एक क्रूरजीव कुकर्ममें प्रवर्त कुगति के अधिकारी भये हे श्रेणिक यह हिंसायज्ञ कीउत्पति काकारण कहा अब रावणको वृतांत सुनो। रावण राजपुरगए जहां राजा मरुत हिंसा कर्म में प्रवीण यज्ञ शाला विषे तिष्ठे था संवर्तनामा ब्राह्मण यज्ञ करावे था वहांपुत्र दारादि सहित अनेक बिप्र धनके अर्थी आये थे और अनेक पशु होम निमित्त लाये थे उससमय अष्टम नारद पदवीधर बड़े पुरुष आकाश मार्ग आय निकसे बहुत लोकन का समूह देख आश्चर्य पायचितमेंचितवते मए कि यहनगर किसका है औरयहदर सेना किसकीपड़ी है
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पन
पुराव ॥२०१०
और नगरकसमीप एते लोग किसकारण एकत्र भरहें ऐसा मनमें विचार आकाशसे भूमि पर उतरे ।।
अथानन्तर यह बातमुन राजाश्रेणिक गौतमस्वामीसे पूछने लगे हे भगवान! यह नारद कौनहै और इसकी उत्पत्तिकिस भांतिहे तब गणधरदेव कहते भए हे श्रेणिक !एक ब्रह्मरुचि नामाब्राह्मणया ताके कुरमी नागा स्त्री सो ब्राह्मण तापसके ब्रतधर बनमें जाय कंदमूल फल भक्षण करे ब्राह्मणी भी संग रहे उस को गर्भ रहा वहां एक दिन मार्गके बशसे कुछ संयमी महामुनि पाए क्षण एक विराजे ब्राह्मणी और ब्राह्मण समीप पाय बैठे ब्राह्मणी गर्भिणी पांडुरहै शरीर जिसका गर्भके भारकर दुखित स्वासलेती मानों सर्पणीही है उसको देखकर मुनिको दया उपजी तिन से बड़े मुनि बोले देखो यह प्राणी कर्म के बशकर जगत विषे भ्रमेहै धर्मही बुद्धिकर कुटंबको तजकर संसार सागरके तरणके अर्थ तो वन विषेश्राया सो हे तापस लेने क्या दुष्ट कर्म किया स्त्री गर्भवती करी तेरे में और गृहस्थीमें क्या भेदहै जैसे वमन किया जो आहार उसे मनुष्य न भवे तैसे विवेकी पुरुष तजे कामादिकोंको फिर नादरेजो कोई भेषधर और श्रीका सेवन करे सो भयानक वनमें ल्याली होय अनेक कुजन्म पावे नरक निगोदमें पडेहे जो कोई कुशील सेवता सर्व प्रारंभोंमें प्रवरततामदोनमत श्रापको तपसी मानेहै सो अत्यन्त अज्ञानी है यह काम सेवन । ताकर दग्ध दुष्टचित्त जो दुरात्मा आरंभविषे प्रवर्ते उसके तप काहेको कुदृष्टिकरगर्वित भेषधारी विषिया भिलाषी जो कहे मैं तपसीहूं सो मिथ्यावादी है काहेको बती मुखसों बैठना सुखसू सोवना सुखसू अाहार
मुखमं बिहार ओढ़ना विछावना और आपको साधु माने सो मुर्ख आपको ठगेहै वलता जो घर तहा। | ते निकसे फिर उसमें कैसे प्रवेश करे और जैसे छिद्र पाय पिंजरेसे निकसा पक्षी फिर श्रापको कैसे।
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पद्म पुक्षव
॥२२२॥
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पिंजरे में डारेतैसे विरक्त होय फिर कौन इंद्रियोंके बश परंजो इंद्रियों के वश होय सो लोक विषे निंदा योग्य है. आत्मकल्याण को न पावेह सर्व परिग्रह के त्यागी मुनियोंको एकाग्रचित्तकरएक श्रात्माही ध्याने योग्य है सो तुम सारिखे आरंभी तिनकर आत्मा कैसे ज्याया जाय प्राणीयों के परिग्रह के प्रसंगकर रागद्वेष उपजे राग से काम उपजे है देबसे जीव हिंसा होय है कामकोधकर पीड़ित जो जीव उसके मनको मोहे. पी है मूर्ख कृत्य कृत्य में विवेक रूप बुद्धि न होय जो अविवेकसे अशुभ कर्म उपारजे है सो घोर संसार में भ्रम है यह संसंग के दोष जानकर जे पंडित हैं वे शीघ्रही वैरागी होय हैं आप को जान विषे बासना से निवृत होय परमधामको पावे हैं इस भांति परमार्थ रूप उपदेशों के वचनों से महा मुाने मे संबोधा तब ब्राह्मण ब्रह्मरुचि निरमोही होय मुनि भया कुरमी नामा स्त्रीका त्यागकर गुरुके संगही विहार किया गुरुमें है धर्मराग जिस के और वह ब्राह्मणी कुरमी शुद्ध है बुद्धि जिसकी पाप कर्म से निवृत होय श्रावकके व्रत आदरे जाना है रागादिकके बश से संसारका परिभ्रमण जिसने कुमार्ग का संग छोडा जिनराज की भक्ति में तत्पर होये भरतार राहत केली महा सती सिंहनी की न्याई महा बन विषे भूमै दसवें महीने पुत्रका जन्म हुआ तब इसको देखकर वह महासती ज्ञान क्रियाकी धरणहारौ चित्त विषे चितवती भई यह पुत्र परिवार का सम्बन्ध महा अनर्थका मूल मुनिराजने कहा था सो सत्य है इस लिये मैं अब पुत्रके प्रसंग का परित्यागकर आत्म कल्याण करूं और यह पुत्र महा भाग्य है इसके रक्षक देव हैं इसने जे कर्म उपारजे हैं तिनका फल अवश्य भोगेगा बनमें तथा समुद्र अथवा वैरियों के बरा में पडाजो प्राणी उसके पूर्वोपार्जित कर्मही रक्षा करेहैं और कोऊ नहीं और
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पुराण
॥२०३
जिसकी आयु क्षीण होयह सो माताको गोदमें बैठाही मृत्युके वश होयहै ये सर्व संसारी जीव कों । के आधीन, भगवान सिद्ध परमात्मा कर्म कलंक रहित हैं ऐसा जानाहै तत्वज्ञान जिसने महा निर्मल बुद्धिकर बालकको बनमें तजकर यह ब्राह्मणी विकल्प रूप जो जड़ता उसकर रहित अलोक नगरमें आई जहां इन्द्रमालिनी नामा आर्या अनेक आयाओंकी गुरुनी थी तिनके समीप आर्या भई सुंदर है चेष्टा जिसकी और आकाशके मार्ग जंभनामा देव जातेथे सो पुण्याधिकारी रुदनादिरहित उन्हों ने । वह बालकदेखा दयावानहोय उठायलिया बहुत आदरसे पाला अनेक आगम अध्यात्मशास्त्र पढ़ाये सिद्धांत का रहस्य जाननेलगामहापंडितहुआ आकाशगामिनी विद्या सिद्धभई यौवनको प्राप्तभयाश्रावकके व्रतधारे । शीलबत विषेप्रत्यंतदृढ़ अपने माता पिताजे पार्यिका मुनि भएथे तिनकी बन्दना करे कैसाहै नारद सम्यक दर्शनविषे तत्पर ग्यारमी प्रतिमाके कुल्लुक श्रावकके व्रतलेय बिहार किया परंतु कर्मके उदयसेतीत्र वैराग्य ।। नहीं न गृहस्थी न संयमीधर्म प्रियहे ओर कलहमी प्रियह वाचालपनेमें प्रीतिहे गायन विद्या प्रवीण | और राग सुननेमें विशेष अनुराग वालाहै मन जिसका महा प्रभावकर युक्त राजाओंकर प्रजित जिस की आज्ञा कोई लोप न सके पुरुष त्रियोंमें सदा जिसका सन्मानहै अढाई द्वीप विष मुनि जिन चैत्या। लयोंका दर्शन करे सदा धरती आकाश विषे भूमता ही रहे कौतृहल में लगीहै दृष्टि जिसकी देवन कर वृद्धि पाई और देवन समाम है माहमा जिसकी विद्याके प्रभाव कर किया है अद्भुत उद्योत जिसने सो पृथ्वी विषे देव ऋषि कहावे सदा सर्वत्र बिहार करे ।
अथानन्तर नाम्द विहार करते हुए अकस्मात मरुत के यज्ञकी भूमि ऊपर पाय निकसेसो बहुत
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पद्म लोकनकी भीड़ देखी और पशु बन्धे देखे तब दया भाव कर संयुक्त होय यज्ञ भूमिमें उतरे वहां जाय पुराण करमरुतसे कहनेलगे हे राजा!जीवनकी हिंसागितकाही बारहै तैंने यह महापापका कार्यक्यों रचा है ॥२०४॥
तव मरुत कहताभया यह सम्बर्त ब्राह्मण सर्व शास्त्रोंके अर्थ विषे प्रवीण यज्ञका अधिकारीहै यह सब जानेहै इससे धर्मचर्चा करों यज्ञकर उत्तम फल पाइयेहै तब नारद यज्ञ करावनवारेसे कहते भए अहो मानव तैंने यह क्या कर्म प्रारम्भाहै यह कर्म सर्वज्ञ जो बीतराग तिन्होंने दुःखका कारण कहाहै तब संवर्तब्राह्मण कोप कर कहताभया अहो अत्यंत मूढता तेरी तू सर्वथा अमिलती बात कहेहै तैंने कोई सर्वज्ञ रागवर्जित बीत राग कहा सो जो सर्वज्ञ बीतराग होय सोवक्ता नहीं और जो वक्ताहै सो सर्वज्ञ बीतराम नहीं और अशुद्ध मलिनजे जीव उनका कहा बचनप्रमाण नहीं और जो अनुपम सर्वज्ञहै सो कोई देखनेमें नहीं आताइस लिये वेद अकृत्रिमहै वेदोक्त मार्ग प्रमाणहै वेद विषेशूद्र बिना तीन वर्णों को यज्ञ कहाहै यह यज्ञ अर्व धर्म है स्वर्गके अनुपम सुख देवे है वेदीके मध्य पशुओंका बध पापका कारण नहीं शास्त्रोंमें कहाजो मार्गसो कल्याणही का कारण है और यह पशुओंकी मृष्टि विधाता ने यज्ञ हीके अर्थ रची है इस लिये यज्ञमें पशुके बधका दोष नहीं ऐसे संवर्त ब्राह्मण के विपरीत बचन सुन नारद कहनेलगे हे विप्र! तैंने यह सर्व अयोग्य रूपही कहाहै कैसा है तू हिंसा मार्गकर दूषित है अात्मा तेरा अब तू ग्रन्यार्थ का यथार्थ भेद सुन तू कहे सर्वज्ञ नहीं सो यदि सर्वथा सर्वज्ञ न होय तो शब्द सर्वज्ञ अर्थसर्वज्ञ बुद्धि सर्वज्ञ यह तीन
भेद काहे को कहे जो सर्वज्ञ पदार्य है तो कहने में आवे है जैसे सिंह है तो चित्राम में लिखिये ।। है इस लिये सर्व का देखने हारा सर्व का जानने हारा सर्वज्ञ है सर्बज्ञ न होय तो अमूर्तीक अतेंद्रीय
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पद्म पुराण .२०५
पदार्य को कौन जाने इस लिये सर्वज्ञका बचन प्रमाणहै और तैंने कही जो यज्ञमें पशु का वध दोषकारी नहीं सो पशुको बध समय दुःखहोयहै कि नहीं जो दुःखहोय है तो पाप होय है जैसे पारधी हिंसा करे है सोजीवन को दुःख होय है और उस को पाप होय है और तैने कही कि विधाता सर्व लोकका कर्ता है
और यह पशयज्ञ के अर्थ बनाए हैं सो यह कथनप्रमाणनहीं भगवान कृतार्थ उनकोसृष्टि बनाने से क्या प्रयोजन और कहोगे ऐसी क्रीड़ा है सो क्रीड़ा तो कृतार्थ नहीं बालक समान जानिए और जो सृष्टि रचे तो आप सारखी रचे वह सुखपिण्ड और यह सृष्टि दुःखरूप है, जो कृतार्थ होय सो करतानहीं और कर्ता है सो कृतार्थनहीं जिसके कछू इच्छाहै सो करे जिन के इच्छा है वे ईश्वर नहीं और ईश्वर विनासमर्थ नहीं | इसलिये यह निश्चय भया जिसके इच्छाहै सोकरने समर्थनहीं और जोकरनेसमर्थ है उसके इच्छा नहीं इस लिये जिसको तुम विधाता कर्त्ता मानो होसो कर्मों कर पराधीन तुम सारखाही है और ईश्वरहै सोअम्तीक है जिस केशरीर नहीं सो शरीर बिना कैसे सृष्टि रचे। और यज्ञ के निमित्त पशु बनाये सो बाहनादि कर्मविषे क्यों प्रबर्ते इसलिये यह निश्चयभया किइस भवसागर में अनादिकालसेइनजीवों ने रागादिभाव कर कर्म उपार्जे हैं तिन कर नाना योनि में भ्रमण करे हैं यह जगत अनादि निधन है किसी का किया नहींसंसारीजीव कर्माधीन हैं और जो तुम यह कहोगे कि कर्म पहले हैं याशरीर पहिले है ? सोजैसेबीज और वृक्ष तैसे कर्म और शरीर जानने बीज से वृक्ष है और वृक्ष से बीज है जिनके कर्म रूप बीज दग्ध भया तिन केशरीररूपवृक्षनहीं और शरीरवृक्षविना सुखदुखादिफल नहीं इसलिये यहात्मा मोक्ष अवस्थामें कमरहित मन इन्द्रियों से अगोचर अद्भुत परमानन्दको भोगे है निराकार स्वरूप अविनाशीहै सो वह अविनाशी
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॥२०६३
पद्म पद दवा धर्मसे पाइये है तू कोई पुण्यके उदय कर मनुष्य हुवा ब्राह्मणका कुलपाया इसलिये पारधियोंके पुराणा कर्मसे निवृत्तिहो और जो जीव हिंसासे यह मानव स्वर्ग पावे है तो हिंसा के अनुमोदन से राजा वसु
नरक में क्यों पड़े जो कोई चूनका पशु बनायकर भी घात करेहै सोभी नरकका अधिकारी होय है तो सासात् पशु घातकी क्या बात अबभी यन्त्र के करण हारे ऐसा शब्द कहे हैं हो वसू उठ स्वग विषे जावो यह कहकर अग्नि में आहुति डारे हैं इस से सिद्ध हुवा कि वसु नरक में गया और स्वर्ग न गया इसलिये। हे संवर्तयज्ञ कल्पनासे कछु प्रयोजन नहीं और जो तू यज्ञद्दी करे तो जैसे हमकहें सोकर यह चिदानंद श्रात्मा सोतो जजमान नाम कहिये यज्ञका करणहारा और यह शरीरहे सो विनयकुण्ड कहिये होमकुण्ड और संतोष है सो पुरोडास कहियेयज्ञकी सामग्री और जो सर्वपरिग्रह सो हवि कहिये होमने योग्य वस्तु और मूर्धज कहिये केश वेई दर्भ कहिये डाभ तिनका उपारना लोंचकरना और जो सर्व जीवोंकी दया सोई दक्षिणा और जिसकाफल सिद्धपद ऐसा जो शुक्लध्यानसोई प्राणायाम और जो सत्यमहाव्रत सोई यूपकहिये यज्ञविषे काष्ठका स्थंभ जिससे पशुको बांधे हैं और यह चंचल मन सोई पशु और तप रूप अग्नि और पांच इन्द्रिय वेई समाधि कहिये ईंधन यह यज्ञ धर्मयज्ञ कहिये है और तुम कहोहो कि यज्ञकर देवोंको तृप्ति कीजियेहै सो देवनकैतो मनसा आहार है तिनका शरीर सुगंध है अन्नादिकहीका आहार नहीं तो मांसादिककी कहा बात कैसा है मांस महादुर्गघ जो देखा न जाय पिताका वीर्य माता का लहू उसकर उपजा कृमी की है उत्पत्ति जिसमें महा अभन सो मांस देव कैसे भरखें और तीन अग्नि या शरीरविषे | हैं एक ज्ञानाग्नि दूसरी दर्शनाग्नि तीसरी उदाराग्निसो इन्हींको आचार्य दक्षिणाग्नि गार्हपत्यश्राहवनीय
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पद्म पुराख
कहे हैं और स्वर्गलोकके निवासी देव हाड मांसका भक्षणकरें तो देव काहेके जैसे स्वान स्याल काक तैसे 2091 वेभी भये ये वचन नारदनेकहे कैंसे हैं नारद देवऋषिहैं अनेकान्तरूप जिनमार्ग के प्रकाशिबेको सूर्यसमान
महा तेजस्वी देदीप्यमान है शरीर जिनका शास्त्रार्थ ज्ञान के निधान तिनको मन्दबुद्धि संवर्त कहां जीते सो पराभवको प्राप्तभया तब निर्दई क्रोध के भारकर कम्पायमान श्राशीविष सर्पसमान लाल हैं नेत्रजि सके | महा कलकलाटकर अनेक विप्रभेले होय लड़नेको कालकछ हस्तपादादिकर नारदके मारनेको उद्यमी हुए जैसे दिन का घूघू परचावें सो नारहभी कैयकोंको मुकासे कैयकोंको मुदगरसे कैयकों को कोहनी से मारतेहुये भ्रमण करते हुए अपने शरीररूप शस्त्रकर अनेकों को हता बहुत युद्धभया निदान यह बहुत
नारद केले सो सर्व गात्रमें अत्यन्त आकुलताको प्राप्तभये पक्षीकीन्याई बघकोंने घेरा श्राकाशमें उड़ने को असमर्थ भए प्राण संदेहको प्राप्तभए उससमय रावणकादूत राजा मरुतपै यायाथा सो नारदको घेरा देख पीछे जाय रावणसे कही हे महाराज जिसके निकट मुझे भेजाथा सो महा दुरजन हैं उसके देखते दिजोंने अकेले नारदको घेरा है और मारे हैं जैसे कीड़ीदल सर्पको घेरेसो में यहबात देख न सका सो आपको कहिनेको आयाहूं रावण यह बृतान्त सुन क्रोध को प्राप्तभया पवनसे भी शीघ्रगामी जे वाहन उनपर चढ़ चलनेको उद्यमी हुवा और नंगी तलवारों के धारक से सामन्त वे अगाऊ दौड़ाएँ सो एक पलकमें यज्ञशालामें जा पहुंचे सो तत्काल नारदको शत्रुवोंके घेरेसे छुड़ाया और निरदई मनुष्य जो पशु ओंको घेर रहेथे सो सकल पशु तत्काल बुड़ाये यज्ञके यूप कहिये स्तंभ तोड़ डारे और यज्ञके करावनहारे विप्र बहुत कूटे यज्ञशाला बखेरेडारी राजा को भी पकड़ लिया रावणने द्विजों से बहुत कोपकिया कि मेरे
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पुराण
पन राजमें जीव घातकरें यह क्या बात सो असे कूटे जो अचेत होय धरतीपर गिरपड़े तब सुभटलोक इनको ।
कहतेभये अहो जैसा दुख तुमको पुरालगे है और सुख भला लगे है तैसा पशुवोंकोभी जानो ओर जैसा ॥२०॥
जीतन्य तुमको बल्लभहै तैसासकल जीयोंको जानों तुमको कूटते कष्टोपहै तो पशुवोंको विनाशनेसे क्यों न होय तुम पापकाफल सहोगे नरकमें दुखभोगोगे सो घोड़ोंके सवारहाथी स्थोंके सवार तथा खेचर भूचर सबही पुरुष हिंसकोंको मारने लगे तब वे विलाप करनेसगे हमको छोड़ो फिरसा काम न करेंगे ऐसे दीन वचन कह विलाप करते भये और रावणका तिनपर अत्यन्तक्रोधसो छोड़ेंनहीं तब नारद महा दयावान सवणसे कहनेलगे हे राजन् ! तेराकल्याण होवे तेंने इन दुष्टोंसे मुझेछुड़ाया अब इनकीभी दयाकर जिनशासन में काहूंको पीड़ा देनी लिखी नहीं सर्व जीवोंको जीतव्य प्रियहे तैने सिद्धांतमें क्या यह बात न सुनी है किजो हुंडा सर्पणी काल विष पाखण्डियोंकी प्रवृति होयहै जबके चौथेकालके आदिमें भगवान ऋषभ प्रगटे तीन जगत्में उच्च जिनको जन्मतेही देव सुमेरुपरवत पर लेगये क्षीर सागरके जल से स्नान कराया वे महाकांतिके धारी ऋषभ जिनका दिव्य चरित्र पापोंका नाशकरनेहारा तीनलोकमें प्रसिद्धहै सो तँने क्या न सुना वेभगवान जीवोंके दयालु जिनके गुण इन्द्रभी कहनेको समर्थ नहीं वे वीतराग निर्वाण के अधिकारी इस पृथिवीरूप स्त्रीको तजकर जगत्के कल्याण निमित्त मुनिपदको आदरते भये कैसे हैं प्रभु निर्मल | है आत्मा जिनका कैसीहै पृथिवीरूप स्त्री जो विन्ध्याचल पर्वत और हिमाचल पर्वततेई हैं उतंगकुच जिसके
और प्रार्यक्षेत्रहै मुख जिसका सुन्दर नगर वेई चूडे तिनकरयुक्त है और समुद्र है कटिमेखला जिसकी | और जे नीलवन तेई हैं सिरके केशजिसके नाना प्रकारके जेरत्न वेई भाभषण हैं ऋषभदेवने मुनिहोयकर
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पुराण .२० ॥
पद्म , हजारवर्ष तक महा तप किया अचलहै योगजिनका लंबायमानहें बाहु जिनकीस्वामीके अनुरागकर कच्छादि
चारहजार राजावोंने मुनि के धर्म जाने बिना दीक्षाधरी सो परीषह सह न सके तब फलादिक का भक्षण वक्कलादिकका धारणकर तापसी भये ऋषभदेवने हजारवषंतक तपकर वटवृक्षके तले केवलज्ञान उपजाया तब इन्द्रादिक देवोंने केवलज्ञान कल्याणकिया समोशरणकी रचनाभई भगवानकी दिव्यध्वनिकर अनेकजीव कृतार्थभए जे कच्छादिक राजाचारित्र भ्रष्ट हुएथे ते धर्ममें दृढ़ होगए मारीचके दीर्घ संसारके योगसे मिथ्या भाव न छूटा और जिस स्थानकमें भगवानको केवलज्ञान उपजा उस स्थानकों देवोंकर चैत्यालयों की स्थापना भई ऋषभदेवकी प्रतिमा पधगई औरभरत चक्रवर्तीने विप्रवर्ण थापा सो वह जल विषे तेलकी बून्दवत विस्तारको प्राप्त भया उन्होंनेयह जगत मिथ्याचारकरमोहित किया लोक अति कुकर्म विषे प्रवर्ते सुकृतका प्रकाश नष्टहोगया जीव साधुओंके अनादरमें वस्परभए आगे सुभूम चक्रवर्तीने नाश
को प्राप्त कियेथे तोभी इनका अभाव न हुआ हे दशानन तो तुझकर कैसे प्रभावको प्राप्त होवेंगे इस लिये तू प्राणियोंकी हिंसासे निवृत होहु काहूकी कभीभी हिंसा कर्तव्य नहीं और जब भगवानके उप देशसे जगत मिथ्या मार्गसे रहित न होय कोई यक जीव सुलटे तो हम सारिखे तुम सारिखोंकर सकल जगत्का मिथ्यात्व कैसे जाय कैसेहें भगवान सर्वके देखनेहारे सर्वके जाननेहारे इसभांति देवापिजे नारद तिनके बचन सुनकर केकसी माताको कुचमें उपजा ओ रावणसो पुराण कथा सुनकर अति प्रसन्न हुआ और बारम्बार जिनेश्वरदेवको नमस्कार किया नारद और रावण महा पुरुषमकी मनोजजे कथा उनके कथनकर चणएक सुखसे तिष्ठे महा पुरुषोंकी कथामें नानाप्रकारका रस भरा है ।
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पद्म
॥२९॥
म
अयानन्तर राजा मरतन लाथ जोड़ धरती से मस्तक लगाय रावणको नमस्कारकर बिनती करता भया हे देव हे लंकेश ! मैं आपका सेवक हूं आप प्रसन्न होवो मैं अज्ञानी ने अज्ञानियों के उपदेश कर हिंसा मार्ग रूप खोटी चेष्टा करी सो श्राप क्षमा करो जीवों से अज्ञान कर खोटी चेष्टा होयहै अन मुझे धर्मके मार्ग मे लेवो और मेरी पुत्री कनकप्रभा आप परमो जे संसारमें उनम पार्थ हैं तिनके आपही पात्रहो तब रावण प्रसन्न भए कैसे हैं रावण नोनमी भूत होय उसमें दयावान, तब रावण ने उसकी पुत्री परणी और तिसको अपना किया सो कनकप्रभा रावणकी अतिबल्लभाभई मरुतमे रावणके सामंतलोक बहुतपूजे नानाप्रकारके वस्त्राभूषण हाथी घोड़े स्म दिये कनकप्रभा सहित रावण रमताभया उसके एकवर्ष पर्यंत कृतचित्रनामा पुत्रीभई सो देखनहारे लोकनको रूपफर आश्चर्यकी उपजा. । वनहारीमानों मूर्तिवंती शोभाहीहै रावणके सामंतमहा शूरवीर तेजस्वी जीखकर उपजाहै उत्साह जिन के | संपूर्ण पृथ्वी तलमें भूमतभए तीन खंडमें जोराजाप्रसिद्ध होताथा और बलवान होताथा सो रावण के | योधाओंके आगे दीनताको प्राप्त भया सबही राजा बश भए कैसेहें राजा राज्यके भंगका है भय | जिनको विद्याघर लोग भरतक्षेत्रका मध्य भाग देख आश्चर्यको प्राप्त भए मनोज्ञ नदी ममोग पहाड़ | मनोज्ञ बन तिनको देख लोक कहते भए अहो स्वर्ग भी यहांसे अधिक रमणीक नहीं चित्तमें ऐसे उपजे है यहांही वास करिये समुद्र समान विस्तीर्ण सेना जिसकी ऐसा रावण जिससमान और नहीं हो अद्भुत धीर्य अद्भुत उदारता इस रावणकी यह समस्त विद्याधरोंमें श्रेष्ठ नजर श्रावेहे इस भांति समस्त लोक प्रशंसा करे हैं जिस देशमें रावण गया तहां तहां लोक सनमुख प्राय मिलते भए जेजे पृथ्वीमें
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राजाओंकी सुन्दर पुत्री थी ते रावणने परणी जिस नगरके समीप राषण जाय निकसे उस नगरकेनर नारी देखकर आश्चर्यको प्राप्त हो स्त्री सकल काम छोड़ देखनेको दौड़ी केयक झरोखोंमें बैठी ऊपर से असीस देय फूल डारें कैसा है रावण मेघसमान श्यामसुंदर कंदूरी समान लाल, अधर जिसके और मुकट विवे नानाप्रकारकी जे मणि उनकर शोभहै सास जिसका मुक्ताफलोंकी ज्योति सोई भया जल उसकर पखाला है चन्द्रमा समान बदन जिसका इंद्रनील मणिसमान श्याम सपन जे केश और सहस्र पत्र कमल समान नेत्र तत्काल बैंचा नमी भूत हुआ जो धनुष उसके समान वक्र स्याम चिकने भौंह युगल जिसकर शोभित शंखसमान ग्रीवा गरदन] जिसकी और वृषभसमानकंध जिसके पुष्ट विस्तीर्णवक्ष स्थल जाके दिग्मजकी मुंड समान भुजा जिसके केहरी समान कटि जिसके और कदलीके समान सुंदर जंघाजिसकी कमल समान चरण सम चतुर संस्थानको धरै महा मनोहर शरीर जिसका न अधिक लंबा न अधिक छोटा न करा न स्थूल श्री वत्स लक्षणको श्रादि देय तीस लक्षणोंकर युक्त और अनेकप्रकार रत्नोंकी किरणोंकर देदीप्यमानहै मुकट जिसका और नानाप्रकारकी मणियोंकर मंडित मनोहर, कुंडल जिसके बाजूबंदकी दीप्तिकर देदीप्यमान हैं भुजा जिसकी और मोलियों के हारसे शोभे हैं उर जिस का अर्ध चक्रवर्तीकी विभूतिका भोगनहारा । उसे देख प्रजाके लोक बहुत प्रसन्न भए परस्पर बात करे हैं कि यह दशमुख मक्षा बलवान जीता है वैश्रवण जिसने और जीता है रामामय जिसने कैलाश के उठाने को उद्यमी हुग और प्राप्त किया है राजा सहस्ररश्मि को वैराग्य जिसने मरुत के यज्ञ का विध्वन्स करनहार महा शूरवीर साहसका भारी हमारे मुकृतके उदयकर इस दिशाको श्राया यह
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केकसी माता का पुत्र इसके रूपका गुण कौन वणन करसकै इसका दशक लानां को परम उत्सव
का कारणहै वहस्त्री पुण्यवती धन्यहै जिसके गर्भसे यह उत्पन्नहुवा और वह पिता धन्यहै जिससे इसमे ॥२१॥
जन्म पाया और वे बन्धु लोक धन्य हैं जिनके कुलमें यह प्रगटा और जे सी इनकी राणी भई तिनके भाग्य कौन कहे इस भांति स्त्री झरोखावों में बेटी बात करे है और रावणकी असवारी चली जायहै जब रावण पाय निकसे तब एक महूर्त गांवकी रानी चित्रामकीसी होय रहें उसके रूप सौभाग्यकर हरागया चित्त जिनका स्त्रियोंको और पुरुषोंको रावणकी कथाके सिवाय और कथा न रही, देशों में तथा नगर ग्राम तथा गांव के बाड़े तिनमें जे प्रधान पुरुष हैं वे नाना प्रकास्की भेठ लेकर आय मिले और हाथ जोड़ नमस्कार कर विनती करते भये है देव महा विभवके पात्र तुम तुम्हारे घरमें सकल वस्तु विद्यमान हैं हे राजावों के राजा नन्दनादि बनमें जे मनोज्ञ वस्तु पाइये हैं वेभी सकस वस्तु चितवन मात्रसेही तुमको सुलभ हे असी अपूर्व वस्तु क्या हो जो तुम्हारी भेंट करें तथापि यह न्याय है किरीते हाओं से राजावोंसे न मिलिये इसलिये कछु हम अपनी माफ़िक भेट करे हैं जैसे भगवान जिनेन्द्र देवकी देव सुवर्णके कमलोंकर पूजा करे हे तिनकोच्या मनुष्य आप योग्य सामग्री कर न पूजे हैं इस भांति नाना प्रकारके देशोंके सामन्त बड़ी ऋद्धिके धारी रावणको पूजतेभये रावण तिनका मिष्ठ वचन सुनकर बहुत सन्मान करताभका रावण पृथिवीको बहुत सुखी देख प्रसन्न भया जैसे कोई अपनी स्त्रीको नाना प्रकार के रत्न
आभषण कर मण्डित देख सुखीहोय जहां रावण मार्गके वश जाय निकसे उस देशमें विना बाहे धान | स्वमेव उत्पन्न भए पृथिवी अप्ति शोभायमान भई प्रजाके लोक परम प्रानन्दको धरते संते अनुरागरूपी
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पद्मा
पुराण २१३॥
जलकर इसकी कीर्तिरूपी बेलको सींचतेभये कैसीहै कीर्ति निर्मलहै स्वरूप जिसका कृसान लोग ऐसे कहतेभये कि बड़े भाग हमारे जो हमारे देश में रत्नश्रवोका पुत्र रावण आया हम रंकलोग कृषिकर्ममें आसक्त रूखे अंगखोटे वस्त्र हाथ पग करकश क्लेशसे हमारा सुख स्वादरहित एता कालगया अब इसके प्रभावसे हम सम्पदादिकर पूर्ण भए पुण्यका उदय आया सर्व दुःखोंको दूर करणहारा रावणाया जिनजिन देशोंमें यह कल्याण का भरा विचरे वे देश सर्व सम्पदाकर पूर्ण होवें दशमुख दलिदियोंका दलिद्र देख न सके जिनको दुःख मेटनेकी शक्ति नहीं तिन भाइयोंकर क्या सिद्धि होय है यहतो सर्व प्राणियोंका बड़ा भाई होताभया यह रावण अपने गुणोंकर लोगोंका अनुराग बढ़ावताभया जिसके राज में शीत और उष्णभी प्रजाको बाधा न कर सकें तो चोर चुगल बठपरे तथा सिंह गजादिकों की बाधा कहांसे होय जिसके राज्यमें पवनपानी अग्निकी भी प्रजाको बाधा न होय सर्व वात सुखदाईही होती भई ॥ ___ अथानन्तर रावणकी दिग्विजय विषे वर्षाऋतु आई मानो रावणसे आय मिली मानों इन्द्रने श्याम घटारूपी गज भेट भेजी कैसे हैं गज काले मेघ महा नीलाचल समान विजुरी रूप स्वर्ण की सांकल घरे और बुगुलोंकी पंक्ति भई ध्वजा तिनकर शोभितहैं शरीर जिनके इन्द्र धनुषरूप अभूषण पहरे जब वर्षाऋतु आई तब दशोंदिशा में अन्धकार होगया सत्रिदिवस का भेद जाना न पड़े सो यह युक्तही है श्याम होय सो श्मामताही प्रगटकरे मेघभी श्याम और अंधकार भी श्याम पृथिवी विषे मेषकी मोटी धारा अखण्ड बरसतीभई जो माननी नायकाके मनविषे मानका भास्था सो मेघके गर्जजनकर वक्षमात्र में विलयगया और मेघकी ध्वनि कर भयको पाई जे मानिनी भामिनी वे स्वयमेवही भरतार से स्नेह
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पा
॥२९॥
करतीभई जे शीतल कोमल मेक्की धारा वे पंथीन को बाण भावको प्राण भई मर्म की विदारनारी धाराओं के समूह कर भेदागया है हृदय जिनका ऐसे पंथी महान्याकुल हुये मानों तीक्षण चक्र, कर विदारे गये हैं नवीन नो वर्षाका जब उसकर जब्ताको प्राप्तभए पंथी क्षणमात्र में चित्राम कैसे होगये
और जानिये कि चीर सागर के भरे मेघसो गायन के उदर विषेपेठे हैं इसलिये निरन्तरही दुग्यधारा वर्षे हैं वर्षा के समय किसान कृषिकर्मको प्रवर्ते हैं रावण के प्रभावकर महा धमके धनी होतेभये रापण सबही प्राषियोंको महा उत्साहका कारण होता भयो गौतम स्वामी राजा श्रेषिकसे कहे हैं कि हे श्रेषिक जे पुण्याधिकारी हैं तिनके सौभाग्य का वर्णन कहाँ तक करिये इन्द्रीवर कमल सारिखा श्याम रावण स्त्रियों के चित्तको अभिलाषी करतासंता मानों साक्षात् वर्षा कालका स्वरूपही है गम्भीरहै ध्वनि जिस की जैसा मेघ गाजे तैसा रावण गाजे सो रावणकी आज्ञासे सर्व नरेद्र प्राय मिले हाथ जोड़ नमस्कार करते भये जो राजावों की कन्या महा मनोहरथी सो रावणको स्वयमेव बरतीभई वे स्त्री रावण को बरकर अत्यन्त क्रीड़ा करती भई जैसे वर्षा पहाड़को पायकर अति वरसे कैसी है वर्षा पयोधर जे मेघ तिनके समूहकर संयुक्त है और कैसी है स्त्री पयोधर जे कुच तिनकर मण्डित है कैसा है रावण पृथिवी के पालनेको समर्थ है वैश्रवण यक्षका मानमर्दन करनहारा दिग्विजयको चढ़ा समस्त पृथिवीको जीते सो उसे देखकर मानो सूर्य लज्जा और भयकर ब्याकुल होय दवगया भावार्थ वर्षाकाल में सूर्य मेघ पटल कर अच्छादित हुआ और रावणके मुख समान चन्द्रमाभी नाही सो मानों लज्जा कर चन्द्रमाभी दब गयो क्योंकि वर्षाकाल में चन्द्रमाभी मेघमालाकर श्राच्छादित होयहै और तारेभी नजर नहीं आवे हैं
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पद्म
॥२१॥
सो मानो अपना पति जो चन्द्रमा उसे रावण के मुखकर जीता जान भागगए और रावणकी हथेली
और पमथली अत्यन्त लाल और रावणकी स्त्रियों को अत्यन्त लाल जानकर लज्जावान होय कमलों के समूह भी छिप गए मानो यह वर्षा ऋतु स्त्री समान है विजुरी तेई कटिमेखला जो इन्द्र धनुष वह वस्त्राभूषण पयोधर जे मेघ वेही पयोधर कहिये कुच और गवण महा मनोहर केतकी वास तथापद्मनी स्त्रियों के शरीर की सुगन्ध इत्यादि सर्व सुगन्ध अपने शरीर की सुगन्धता कर जीतता भया जिस के सुगन्थ श्वासरूप पवन के खेंचे भ्रमरों के समूह मुंज्जार करते भए गंगाका तट जो अतिमनोहर है वहां डेरा कर राक्णने वर्षाऋतु पुर्ण करी कैसा है गंगाका तट जहां हरित तृण शोभे हैं नाना प्रकार के पुष्पों की सुगन्धता फैल रही है बड़े बड़े वृक्ष सोभे हैं कैसा है रावण जगत् का बन्धु कहिये हितु है। अति सुखसे चातुरमास्य पुर्णकिया । हे श्रेणिक!जे पुण्याधिकारी मनुष्य हैं तिनकानामश्रवणकर सर्वलोक नमस्कार करे हैं। और सुन्दर स्त्रिों के समुह स्वयमेव ओय वरें हैं और अश्वर्य के निवास परम प्रगटहोय हैं। उन के तेजकर सुर्य भी शीतल होय है। मैसा जान कर आज्ञामान संशय बोह पुणय के प्रवन्ध में यत्न करो। इति पत्नपुराण भाषा ववनिका में एकादश ११ पर्व समाप्तम् ॥ ___अथानन्तर रावण मंत्रियोंसे विचार करनेलगा। अहो मंत्रियो! यह अपनी कन्या कृतचित्रा कौन को परनावें इंद्र से संग्राम में जीतनेका निश्चय नहीं इस लिये पुत्री का पाणिग्रहण मंगल कार्य प्रथम करना योग्य है । तब रावण को पुत्री के विवाह की चिंता में तत्पर जाम कर राजा हरिवाहन ने अपना पुत्र निकट बुलाया सो हारिवाहन के पुत्र को अति मुन्दगकार विनयवान् देख कर पुत्रीके
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॥१६॥
परणायवेका मनोरथ किया रावण अपने मन में चितवता भया कि सर्वनीतशास्त्र विषे प्रवीण अहो मयुरा नगरीका नाथराजाहारिवाहन निरन्तर हमारे गुणकी कीर्ति विषेपामक्त है मन जिसका इसका प्राणों से भी प्यारा मधु नामा पुत्र प्रशंसा योग्य है। महाविनयवान प्रीति पात्र महारूप वान अति गुणवान् मेरे निकठ पाया तय मंत्री रावण से कहते भए हे देव यह मधु कुमार महापराक्रमी इस के गुण वर्णन में न आवे तथापि कछुयक कहें हैं इस के शरीर में अत्यन्त सुगन्यता है जो सर्वलोक के मनको हरे ऐसा है रूप जिस का इस का मधुनाम गथार्थ है मधु नाम मिष्टान्ह को है सो यह मिष्टवादी है और मधु नाम मकरंदका है सो यह मकरंदसे भी अतिसुगन्ध है और इसके एतेही गुण आपमतजानोंअसुरन का इन्द्र जो चमरेन्द्र उस ने इस को महा गुणरूप त्रिशूल रत्न दिया है वह त्रिशुलरत्न वैरियों पर डारा वृथा न जावे अत्यन्त देदीप्यमान है आप इस के करतुत कर इस के गुण जानोहीगे वचनोसे कहांलग कहें इसलिये हेदेव इस से सम्बन्ध करने काबुद्धि करो यह श्राप से सम्बन्ध कर कृतार्थ होयगा, ऐसा जब मंत्रियोंने कहातबरावणने इसको अपनाजमाईनिश्चयकिया और जमाईयोग्यजो सामिग्रीसोउसको दीनी बडी विभूतिसे रावण ने अपनी पुत्री परणाई सर्वलोक हर्षित भए यह रावण की पुत्री साक्षात् लक्ष्मी महा सुन्दर शरीर पतिके मन और नेत्रोंकी हरनहारी जगत् में जो सुगन्ध नहीं ऐसी सुगन्ध शरीर की धारनहारी इस को पाय कर मधु अति प्रसन्न भया ॥ __ अथानन्तर राजा श्रेणिक जिनको कोतुहल उपजा वह गोतम स्वामीसे पूछते भए हे नाथ श्रसुरेन्द्र ने मधुको कौन कारण त्रिशूल रत्र दिया दर्लभ है संगम जिस का तब गौतमस्वामी जिनधर्मा
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पुरावा
पन योंसे है वात्सल्य जिनके त्रिशूल स्व की प्राप्ति का कारण कहनेलगे। हे श्रेणिक धातकी खण्ड नामा
द्वीप वहां अरावत् क्षेत्र शतद्वारा नगर वहां दो मित्र होते भए महा प्रेमका है बन्ध जिन के एककानाम सुमित्र दूसरेका नाम प्रभव सो यह दोनों एक चटशाला में पढ़कर पण्डित भए कईएक दिनों में सुमित्र राजा भयो सर्व सामन्तों करसेवित पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से परम उदय को प्राप्त भया और दूजा मित्र प्रभव सो दलिद्र कुलमें उपजा महादरिद्री सौ सुमित्र ने महास्नेह से अपनी बराबर करलिया एक दिनराजा सुमित्र को दुष्ट घोडा हरकर वनमें लेगया वहां दुरित दृष्टिनाम भीलोंका राजा सो इस को अपने घर लेगया उसको बनमाला पुत्री परणाई सो वह बनमाला साक्षात् बन लक्ष्मी उसको पायराजासुमित्र अति प्रसन्न हुवा एकमास वहांरहा फिर भीलों की सेनालेकर स्त्रीसहित शतद्वार नगर में
आवेथा और प्रभव ढूंढने कोनिकसा सोमार्ग में स्त्री सहित मित्र को देखा कैसी है वह स्त्री मानों काम की पताका ही है । सोदेखकर यहपापी प्रभव मित्र की भार्या विषे मोहित भया अशुभ कर्म के उदय से नष्ट भई है कृत्य अकृत्य की बुद्धि जिस के प्रभव काम के वाणों कर वींधा हवा अति प्राकुलता को प्राप्त भया आहार निद्रादिक सर्व से विस्मरण भया संसार में जेती व्याधी हैं तिन में मदन बड़ी व्याधि है जिस कर परम दुःख पाइये है जैसे सर्व देवन में सूर्य प्रधान है तैसे सर्व रोगों के मध्य मदन प्रधान है तब सुमित्र प्रभव को खेद खिन्न देखपूछते भऐ हे मित्र तू खेदखिन्न क्यों है तब यह मित्र को कहनेलगा जो तुम बनमाला परणी उस को देख कर चित्त व्याकुल भया है । यह बात सुन कर राजा सुमित्र मित्र में है अति स्नेह जिस का अपने श्रीपाण समान मित को अपनी स्त्री के निमित्त दुखी जान स्त्री को मित के घर
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१२१८॥
पण पावता भया । और आपापा छिपाय मित्र के झरोखे में जाय बैठा और देखे कि यह क्या करे जो
मेरी स्त्री इस की आज्ञा प्रमाण न करे, तो मैं स्त्री का निग्रह करूं और जो इस की आज्ञा प्रमाण करे तो। सहस्रग्राम दूं । बनमाला रात्रि के समय प्रभव के समीप जाय बैठी तब प्रभव पूछता भया हे भदे तू कौन है तब इस ने विवाह पर्यन्त सर्व वृतान्त कहा सुन कर प्रभव प्रभारहित हो गया चित्तविष अतिउदास झ्या विचारे है हाय हाय में यह क्या अशुभ भावनाकरी मित्र की स्त्री माता समान कोन वांछ है मेरी बुद्धि भ्रष्ट भई इस पाप से में कब छुढे बने तो अपना सिर काट डार्क कलंक युक्त जीने कर क्या ऐसा विचार मस्तक काटने के अर्थ म्यान से खडग काढ़ा खडग की कान्ति कर दशों दिशा विषे प्रकाश हो गया तब सलवार को कराठ के समीप लाया और सुमित्र झरोखे में बैठा था सो कूद कर आप हाथ पकड़ लिया मरते को बचाय लीया छाती से लगाय कर कहनेलगा हे मितं! आत्मघात का दोषत नजाने है जे अपने शरीर का प्रविधि से निपात करे हैं वे शुद्र मर कर नरक में जाय पहें हैं अनेक भव अल्प
आयु के घारक होय हैं यह प्रात्मघात निगोद का कारण है । इस भान्ति कहकर मिल के हाथसे खड्ग छीन लीना और मनोहर बचनकर बहुत सन्तोषा और कहनेलगा कि हे मित् अव आपसमें परस्पर परममित्रता है सो यह मित्रता परभव में रहे है कि न रहे । यह संसार प्रसार है यह जीव अपने कर्म के उदय कर भिन्न भिन्न गति को प्राप्त होय हैं. इस संसार में कौन किसी का मित्र और कौन किसी का शत्रु है सदा एक देशा न रहे है, ग्रह कहकर दूसरे दिन राजासुमित्र महामुनि भए, पर्याय पूर्णकर दूजे स्वर्गईशान इन्द्र भए वहां से चर कर मथुरापुरी में राजा हरिबाहन जिस केराणी माधवी तिन के मधुनामा पुत्र मए
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पत्न
पुराण
२९
हरिवंश रूप आकाश विषे चन्द्रमा समान भए और प्रभव सम्यक्त बिना अनेक योनियों में भ्रमणकर विश्वाक्सुकी ज्योतिषमती जो स्त्री उसकैशिखी नामा पुत्रभया,सोदव्यलिंगी मुनि होय महा तपकर निदान के योगसे असुरों के अधिपति चमरेंद्र भए तब अवधिज्ञान कर अपने पूर्व भव विचार सुमित्रनामा मित्र के गुण अति निर्मल अपने मनमें घारे, सुमित्र राजा को अतिमनोज्ञ चरित्र चितार कर असुरेंद्र का इद प्रीती कर मोहित भया मन में विचारों किराजासुमित्र महा गुणवान मेरा परम मित्र थासर्व कार्यों में सहाई था उस सहित में चटशाला में विद्यापढ़ा में दरिद्री था सोउसने श्राप समानविभतिवान किया
और में पापी दुष्टचित्तने उसकी स्त्री में खोटे भाव किए तो भी उस ने द्वेष न किया स्त्री मेरे घर पठाई में मित्रकी स्त्री को माता समान जान अति उदास होय अपना शिर खड्ग से काटने लगा तब-उसहीने थाभ लिया और मैंने जिनशासनकी श्रद्धाविना मरकर अनेक दुःख भोगे और जे मोक्षमार्गके प्रवरतन हारेसाधु पुरुष उनकी निन्दा करी सो कुयोनिमें दुःख भोगे और वह मित्र मुनिव्रत अंगीकार कर दूजे स्वर्ग इन्द्रभया वासे चयकर मथुरापुरीमें राजा हरिखोहनका पुत्र मधुबाहनहुवाहै और में विश्वावसु का पुत्र शिखीनाम द्रव्य लिंभी मुनी होय असुरेंद्र भया यह विचार उपकारका खैचा परम प्रेमकर भीमा है मन जिसका अपचे भवन से निकस कर मध्यलोकमें आया मधुवाहन मित्रसे मिला महारत्नोंसे मित्र का पूजन किया सहस्रांत नामा त्रिशूल रत्न दिया गधुवाहन चमरेंदको देख बहुतप्रसन्नहुवा फिर चम रेन्द्र अपने स्थामकको गया हे श्रेणिक शस्त्र विद्याका अधिपति सिंहोंकाहे वाहन जिसके ऐसा मधुकुवर
हरिवंशका तिलक रावण है श्वसुर जिसका सुखसों तिष्ठे यह मधुका चरित्र जो पुरुप पढ़ें सुनें सो कॉति | को प्राप्त होय और उसके सर्व श्रथ सिद्ध होय।
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॥२२
॥
अथानन्तर मरुत के यज्ञ का नाश करणहारा जोरावण सो लोक विषे अपनाप्रभाव विस्तारताहुवा शत्रुवों को वश करता हुवा अठारहवर्ष विहारकर जैसे स्वर्ग में इन्द्र हर्ष उपजावे तैसे उपजावता भया पृथिवीका पति कैलाश पर्वतके समीप आय ठहरा वहां निर्मल हैजल जिसका ऐसी मन्दाकिनी कहिये गङ्गा समुद्र की पटराणी कमलन के मकरन्द कर पीत है जल जिसका ऐसी गंगाके तीर कटफके डेरे कराए और आप कैलाश के कच्छ में. क्रीडा करता भया गंगाका स्फटिक समान जल निर्मल उसमें खेचर भूचर जलचर क्रीड़ा करते भये जे घोड़े रजमें लोटकर मलिन शरीर भएथे वे गंगामें निहलायजल पान कराय फिर ठिकाने लाय बांधे हाथी सपराए रावण बालीका वृत्तान्त चितार चैत्यालयोंको नमस्कार कर धर्मरूप चेष्टा करता तिष्ठा ।। ___ अथानन्तर इन्द्रने दुलंधिपुर नामा नगरमें नलकूवर नामा लोकपाल थापा था सो रावणको हलकारों के मुख से नजीक पाया जान इन्द्र के निकट शीघगामी सेवक भेजे और सर्व वृत्तान्त लिखा कि रावण जगतको जीतता समुद्र रूप सेना को लिए हमारी जगह जीतने के अर्थ निकट श्राय पड़ा है इस तरफके सर्बलोक कम्पायमान भए हैं सो यह समाचार लेकर नलकूवरके इतवारी मनुष्य इन्द्र के निकट आए इन्द्र भगवानके चैत्यालयोंकी बन्दनाको जाते थे सो मार्गमें इन्द्रको जाय पल दिया इन्द्रने बाँचकर सर्व रहस्य जानकर पीछे जवाब लिखा कि में पांडुकबन के चैत्यालयों की बन्दना कर पाऊहूं इतने तुम बहुत यत्न से रहना तुम अमोघास्त्र कहिये खाली न पड़े ऐसा जो शस्त्र उसके धारक हो और मेंभी शीघही आऊहूं ऐसी लिखकर बन्दनामें आसक्तहै मन जिसका वैरियोंकी सेनाको न गिनताहुवा ।
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पुराण
• २२१ ।।
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पांडुकबन गया और नलकूवर लोकपाल ने अपने निज वर्गसे मन्त्रकर नगरकी रक्षामें तसर विद्यामय सौ योजन ऊंचा वज्रशाल नामाकोट बनाया प्रदक्षिणाकर तिगुना रावण ने नलकूबर का नगर जानने के हस्त नामा सेनापति भेजा सो जायकर पीछे आय रावणसे कहताभया हे देव मायामई कोट कर मण्डित वह नगरहै सौ लिया न जाय देखो प्रत्यक्ष दीखे है सर्व दिशाओं में भयानक विकराल दाढ़ को घरे सर्पसमान शिखर जिसके और बलता जो सघन बांसन का बन उस समान देखा न जाय ऐसा ज्वाला समूह कर संयुक्त उठे हैं स्फुलिंगों की राशि जिसमें और इसके यंत्र बैताल का रूप घरे विकराल हैं दाद जिनकीएक योजनके मध्यजो मनुष्य यावे उसको निगले हैं तिन यंत्रविषे प्राप्तभए जे प्राणियों के समूह तिनका यह शरीर न रहे जन्मांतर में और शरीर घरे ऐसाजानकर आप दीर्घदर्शी हो सो इसनगर के लेनेका उपाय विचारो तब रावण मन्त्रियों से उपाय पूछने लगे सो मन्त्री मायामई कोटके दूर करने का उपाय चितवते भये कैसे हैं मन्त्री नीति शास्त्र में अति प्रवीण हैं ।
अथानन्तरनलकूवरकी स्त्री उपरम्भा इन्द्रकी अपसरा जो रम्भा उस सपान है गुण और रूप जिसका पृथिवीपर प्रसिद्ध सो रावण को निकट याया सुन प्रति अभिलाषा करती भई आगे रावण के रूप गुण श्रवणकर अनुरागवती श्रीही सो रात्रि के विषे अपनी सखी विचित्रमाला को एकांत में ऐसे कहती भई कि हे सुन्दरी मेरे तू प्राण समान सखीहै तुझसमान और नहीं अपना और जिस का एक मन होय उसको सखी कहियेमे रे में और तेरे में भेदनहीं इसलिये हे चतुरे निश्चय से मेरे कार्यका साधन तू करे तो तुझे अपने जीकी बात कहूं जे सखी हैं वे निश्चयसेती जीतव्य का अवलम्बन होय हैं जब ऐसे राणी
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पद्म
॥२२२॥
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उपरम्भाने कहा तब सखी विचित्रमाला कहतीभई हे देवी एती बात क्या कहो हमतो तुम्हारे आज्ञाकारी जो मन वांछित कार्य को सोही करें मैं अपने सुखसे अपनी स्तुति क्या करूं अपनी स्तुतिकरना लोक में अति निन्द्य है बहुत क्या कहूं मोहि तुम मूर्त्तिवती साक्षात् कार्यकी सिद्धि जानो मेरा विश्वास कर तुम्हारे मनमें जो हो सो कहो हे स्वामिनी हमारे होते तोहिखेद, कहा तब उपरम्भा निश्वास लेकर कपोल विषेकर घर मुखमेंसे न निकसते जो वचन उसे बारम्बार प्रेरणा कर बाहिर निकासी भई हे सखी बाल पनेही से लेकर मेरामन रावण में अनुरागी है में लोक विषे प्रसिद्ध महा सुन्दर उसके गुण अनेक बार सुने हैं सो मैं अन्तरायके उदय कर अबतक राक्य के संगमको प्राप्त न भई चितमें परम प्रीति धरूंहूं और
प्राधिका मेरे निरन्तर पछतावा रहे है है रूपिणी में जानूहूं यह कार्य प्रशंसा योग्य नहीं नारी दूजे नरके संयोग से नरक में पड़े है तथापि में मरणा को सहिवें समर्थ नहीं इसलिये हे मिष्ट भाषिणी मेस उपाय शीघ्र कर अब वह मेर मन का हरणहारा चिकट आया है किसी भांति प्रसन्न होय मेरा उस से संयोग करले मैं तेरे पायन पडूंहूं ऐसा कहकर वह भामिनी पाय पस्ने लगी तब सखीने सिरयांभ लिया. और यह कही कि हे स्वामिनी तुम्हारा कार्य चणमात्र में सिद्ध करूं यह कहकर दूती घरसे निकस जाने है सकल इन बातनकी रीति अति सूक्ष्म श्याम वस्त्र पहरकर आकाश के मार्ग रावण के डेरे में श्रई राज लोकमें गई द्वारपालोंसे अपने आगमनका वृतान्त कहकर रावणके निकट नाय प्रणाम किया आशा पास बैठकर विनती करती भई हे देव दोषके प्रसंगाते रहित तुम्हारे सकल गुणोंकर यह सकल लोक व्याप्त हो रहा है तुमको यही योग्य प्रति उदारहे विभव तुम्हारा इस पृथ्वीमेंस बढीको तुम करोडो तुम सब
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पुराव
के आनन्द निमित्त प्रगटभरहो तुम्हास आकार देखकर यह जानिये कि तुम किसीकी प्रार्थना भंग म I "करोहो तुम बड़े दातार सबके अर्थ पूर्ण करोहो तुम सारिखे महंत पुरुषों की जो विभूतिहै सो परउपकारही के हो आप सबको बिदा देकर एकक्षण एकांत बिराजकर चितलगाय मेरी बात सुनो तो मैं कहूं तब रावणने ऐसाही किया सब उसने उपरंभाका सकल वृतांत कान में कहातव रावण दोनों हाथकानन पर घर सिर धुन नेत्र संकोच केकसी माताके पुत्र पुरुषों में उत्तम सदाचाचार परायण कहते भए । हे भद्रे क्या कहीं यह काम पापके बंधका कारण कैसे करनेमें आवे में परनारियों को अंगदान करनेमें दरिद्री हूँ ऐसे कर्मोंको धिक्कार होवे तैंने अभिमान तजकर यहबात कही परंतु जिनशासनकी यह आज्ञा है कि farairwear बनी सग्री अथवा कुंवारी तथा वेश्या सर्वही परनाने सदा काल सर्वथा रजनी । नारी रूपवती है तो क्या यह कार्य इस लोक और परलोकका बिरोधी विवेकी न करें जो दोनों लोक भ्रष्ट करे सो काहेकी मनुष्य, है भने पर पुरुषकर जिसका अंग मर्दित भया ऐसी जो परदारासो उदिष्ट वीजनसमान ताहि कौन नर अंगीकार करे । वह बात सुन विभीषण महा मंत्री सकलनय के जानने
राजविद्या श्रे बुद्धि जिनकी रावणको एकांतमें कहतेभए हे देव राजाओं के अनेक चरित्र हैं किसी समय किसी प्रयोजन के अर्थ किंचितमात्र अलीक भी प्रतिपावन करे हैं इस लिये श्राप इससे ..स्व रूखी बात मसकहो वह उपरभावशभई संतीककुढ़के लेनेका उपाय कहेगी ऐस बचन विभीषण के सुनकर रावण राजविद्या में निपुणमायाचारी विचित्रमाला सखीसे कहते भए हे भद्रे वह मेरे में मन है और मेरे बिना अत्यंत दुखी है इस लिये उसके माणों की रचा मुझे करनी योग्य है सो प्रायों
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पुराव ॥२२४॥
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से न छूटे इसप्रकार पहले उसको लेभावो जीवोंके प्राणोंकी रचा यहीधर्म है ऐसा कहकर सनीको सीख दीनी सो जायकर उपरंभाको तत्काल ले भाई रावणने इसका बहुत सनमान किया तब वह मदन सेवनकी प्रार्थना करती भई रावणने कही हे देवी दुर्लध नगर में मेरी रमणेकी इच्छा है यहां उद्यान में कहां सुख ऐसा करो जो मगर विषे तुम सहित रमूं तब वह कामातुर उसकी कुटिलता को न जान कर स्त्रियोंका मूढ स्वभाव होयहै उसने नगरके मायामई कोट भंजनका उपाय श्रसाल नाम विद्या दीनी । और बहुत श्रादरसे नानाप्रकारके दिव्यशस्त्र दिये देवोंकर करिये रक्षा जिनकी तब विद्या के लाभसे तत्काल मायामई कोट जाता रहा जो सदाका कोटथा सोही रहगया तब रावण बड़ी सेनाकर नगर के निकट गया और नगर में कोलाहल शब्द सुनकर राजा नलको वर चोभको भातभया मायामई कोट को न देखकर विषादमानभया और जाना कि रावण ने नगर लिया तथापि महापुरुषार्थको धरताहुआ युद्ध करने को बाहिर निकसा अनेक सामंतों सहित परस्पर शस्त्रन के समूहसे महा संग्रामप्रवरता जहां सूर्य के किरण भी नजरं न आवे क्रूर हैं शब्द जहां विभीषणने शीघ्र हीलातकी दे नलकुवरका रथ तोड़ डाला श्रीर नलकुंवरको पकड लिया जैसे रावणने सहस्रकिरणको पकड़ा था तैसे विभीषणने नलकुंवरको पकडा रावण की आयुशाला में सुर्दशनचक्र उपजा उपरंभाको रावणने एकांतमें कही जो तुम विद्यादानं से मेरे गुरु हो और तुमको यह योग्य नहीं जो अपने पतिको छोड़ दूजा पुरुष सेवा और मुझेभी अन्यायमार्ग सेवना योग्य नहीं इस भांति इसको दिलासा करी नलकुंवरको इसके अर्थ छोडा कैसा है नलकूंवर शस्त्रों से बिदारा गया है बकतर जिसका नहीं लगा है शरीर के घाव जिसके रावणने उपरंभासे कही इस भर
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५२२५॥
तार सहित मन बांछित भोगकर काम सेवनमें पुरुषमें क्या भेदहै और अयोग्य कार्य करने से मेरी अकीर्ति होय और में ऐसे करूं तो और लोगभी इस मार्गमें प्रवर्ते पृथ्वी विषे अन्यायकी प्रवृति होय
औरतू राजा अाकाशध्वजकी बेटी तेरी माता मृदकांतासो तू विमलकुल विषे उपजीशीलके राखने योग्य हैं इस भाति रावमने कहा तब उपरंभा लज्जायमानभई अपने भरतारमें संतोष किया और नलकूवरभी स्त्रीका ब्यभिचार न जान स्त्री सहित रमताभया और रावणसे बहुत सनमानपाया रावणकी यही रोति है के जोत्राज्ञा न मानेउसका पराभवकरे और जो आज्ञा माने उसका सनमानकरे और युद्ध में मारा जाप सोमाराजावो और पकड़ा आवे ताको छोड़ दे गवण ने संग्राममें शत्रुवों के जीतने से बड़ा यश पायाधड़ी है लक्ष्मी जिस के महासेना कर संयुक्त बैताड परबत के समीप जाय पड़ा। ___ अथानन्तर तब राजा इन्द्र रावण को समीप आया सुन कर अपने उमराव जे विद्याधर देव कहावे तिन समस्त ही से कहता भया हो विश्वसी श्रादि देव हो युद्धकी तैय्यारी करो क्यों विश्राम कररहे हो राक्षसोंका अधपति अाया यह कह कर इन्द्र अपने पिता जो श्री सहश्रार तिनके समीप सलाह करने को गया नमस्कारकर बहुत बिनय संयुक्त पृथिवी पर बैठ बापसे पूछी हे देव बैरी प्रबल अनेक शवों का जतिनहारा निकट आया है सो क्या कर्तव्य है हे तात मैंने काम बहुत बिरुद्ध किया जो यह होताही प्रलय को न प्राप्त किया कांटा उगलाही होउन से हटे और कठोर परे पीछे चुभे रोग होता ही मेटे तो सुख उपजे और रोग की जड बधे तो कटना कठिनहे तैसे तत्री शत्रुकी वृद्धि होने न दे इस नियात का अनेक बेर उद्यम किया परन्तुआपने वृथा मने किया तब मैं क्षमा करी हे प्रभो मैं राज
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॥२२॥
राम नीति के मार्ग से विनती करुहूं इसक मारने में असमर्थ नहीं हूं ऐसे गर्भ और क्रोध के भरे पुत्रके,
वचन सुनकर सहसार ने कहाकिहे पुत्र तूशीघ्रता मतकर अपने जेश्रेठमंत्री हैं जिनसे मन्त्र विचारजेविना बिचारे कार्य करें हैं तिनके कार्य विफल होय हैं अर्थकी सिद्धिका निमित्त केवल पुरुसार्थ नहीं है ।जैसे कृषिकर्म का है प्रयोजन जिसके ऐसा जो किसान उसके मेघकी वृष्टि विना क्या कार्य सिद्धहोय और जैसे चटशाला में शिष्य पढ़े हैं सबही विद्याको चाहे हैं परन्तु कर्म के वश से किसी को विद्या सिद्धि होयहै किसीको सिद्धि न होय है इसलिये केवलपुरुषार्थसेही सिद्धि न होय अबभी रावणसे मिलापकर जब वह अपना भया तब तू पृथिवीका निःकंट राज्य करेगा और अपनी पुत्री रूपवती नामा महा रूपवती रावणको परणाय इसमें दोष नहीं यह राजावोंकी रीतिही है पवित्र है बुद्धि जिनकी ऐसे पिताने इन्द्र कोन्याय रूप वार्ता कही परन्तु इन्द्रके मनमें न आई क्षणमात्रमें रोसकर लाल नेत्र होगये क्रोधकर पसेव
प्राय गया महा क्रोधरूप बाणी कहताभया हे तात मारने योग्य वह शत्रु उसे कन्या कैसे दीजे ज्यों२ | उमर अधिक होय त्यों त्यों बुद्धि क्षय होयहै इसलिये तुम योग्य बात न कही में कहो किससे घाटहूं मेरे कौन वस्तुकी कमी है जिससे तुमने असे कायर वचन कहे, जिस सुमेरुके पायन चांद सूर्य लग रहे सो उतंग सुमे रु कैसे और कौन नवे जो वह रावण पुरुषार्थकर अधिक है तो में भी उससे अत्यन्त अधिक हूं और देव उसकेअनुकूल हैं तो यह वात निश्चय तुम कैसे जानी और जो कहोगे उसने बहुत बैरी जीते हैं तो अनेक मृगन को हतनेहारो जो सिंह उसे क्या अष्टापद न हने हे पिता शस्त्रन के सम्पात कर उपजा है अग्निका समूह जहां असे संग्राममें प्राण त्यागना भलाहै परन्तु काहूं से नम्रीभूत होना बड़े पुरुषों को
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पद्म
पुराण
॥२२॥
योग्य नहीं पृथिवी पर मेरी हास्य होय कि यह इन्द्र रावण से नम्रीभूत हुवा पुत्री देकर मिला सो तुमने यहतो विचाराही नहीं और विद्याधर पनेकर हम और वह बरावरहैं परन्तु बुद्धि पराक्रममें वह मेरी बराबर नहीं जेसे सिंह और स्याल दोऊ बनके निवासी हैं परन्तु पराक्रम में सिंह तुल्य स्याल नहीं असे पिता से गर्वके वचन कहे पिताकी बात मानी नहीं पिता से विदा होयकर आयुधशालामेंगये क्षत्रियोंको हथियार बांटे और वक्तर बांटे और सिंधुराग होनेलगे अनेक प्रकारके वादित्र बाजने लगे और सेना में यह शब्द हुवा कि हाथियोंको सजावो घोड़ोंके पलान कसो रथोंके घोड़े जोड़ो खडगवांधो वक्तर पहरो धनुषबाण लो सिर टोप धरो शीघही खंजर लावो इत्यादिक शब्द देवजातिके विद्याधरोंके होतेभये ।
अथानन्तर योधा कोपको प्राप्तभये ढोल बाजनेलगे हाथी गाजलेलगे घोड़ेहींसने लगे और धनुषके टंकोर होनेलगे योधावोंके गुञ्जार होनेलगे और बन्दीजन विरद बखानने लमे जगत् शब्दमई होयगया सर्वदिशा तरवार तथा तोमर जातिके शस्त्रकर तथा पांसिन कर ध्वजावोंकर शस्त्रों कर और धनुषों कर आच्छादित भई और सूर्यभी आच्छादित होयगया राजा इन्द्रकी सेनाके जे विद्याधर देव कहावें थे समस्त स्थन पुरसे निकसे सर्वसामग्री घरे युद्धके अनुरागी दरवाजे प्राय भेले भये परस्पर कहेहे रथ आगेकर माता हाथी आया है हे महावत हाथी को इस स्थान से परेकर हो घोड़े के सवार कहां खडा होरहा है घोड़े को आगे लेा इस भांति के वचनालाप होते हुवे शीघहीं देव बाहिर निकसे गाजते
आये तामें शामिल भये और राक्षसों के सन्मुख आय रावण के और इन्द्र के युद्ध होनेलगा देवोंने राक्षसोंकी सेना कळू इक हटाई शत्रों के जे समूह तिनके प्रहारकर आकाश आादित होगया त
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२२॥
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रावणके योधा बज्रवेग हस्त, प्रहस्त, मारीच, उदभव, वजू, वक्र, सुक्र, घोर, सारन, गणनोज्वल, महा अठर, मध्याअक्रूर इत्यादि विद्याघर बड़े योधा रातसवंशी नामा प्रकार के वाहनोंपर चढ़े अनेक आयुधों के धारक देवोंसे लड़ने लगे तिनके प्रभावसे क्षणमात्र में देवोंकी सेना हटी तब इन्द्र के बड़े योघा कोपकर भरेयुद्ध को सन्मुख भए तिनके नाम मेघमाली, तडसंग, ज्वलिताच, अरि, संचर, पाचकसिंदन इत्यादि बड़े २ देवोंने शस्त्रों के समूह चलावतेहुए राक्षसों को दबाया सो कछुइक राक्षसोंकी सेना हटी ज्यों समुद्र में भँवर भ्रमें त्यों राक्षशलोक अपनी सेनामें भूमते भए कछु इक शिथिल होगये तब और बड़े बड़े राक्षस इनको घीर्य बँधावते भए महा सामन्त राक्षसवंशी विद्याघर प्राण तजते भये परन्तु शस्त्र न डारते भये राजा महेन्द्रसेन बानरवन्शी राक्षसोंके बड़े मित्र उनका पुत्र प्रसन्नकीर्त्तिने बाणोंके प्रहारकर देवन की सेना हटाई राक्षसों के बलको बड़ा धीर्य बँधा तब अनेकदेव प्रसन्नकीर्तिपर खाए सो प्रसन्नकीर्त्तिने अपने बाणोंसे बिदारे जैसे खोटे तापसियों का मन मन्मथ (काम) विदारे तव और बड़े २ देव आए कपि राक्षस और देवोंके खडग कनक गदा शक्ति धनुष मुद्गर इनकर अंति युद्धभया तब माल्यवान्का बेटा श्रीमाली रावणका काका महा प्रसिद्धपुरुष अपनी सेनाकी मददके अर्थ देवोंपर आया सूर्यसमान है. कांति जिसकी सो उसके बाणोंकी वर्षा से देवोंकी सेना हटाई जैसे महाग्राह समुद्रको झकोले तैसे देवनकी सेना श्रीमाकोली तब इंद्रके योधा अपनेवलकी रक्षानिमत्त महाक्रोधकेभरे अनेक आयुधों के धारक शिखिके सरदंडाग्र कनक प्रवर इत्यादि इन्द्रके भानजे बास वर्षाकर आकाशको यात्रादते हुए श्रीमालीपर श्राए सो श्री मालीने अर्धचन्द्र बाणसे उनके शिररूप कमलोंकर पृथिवी याचादितकरी तब इन्द्रने विचारा कि यह श्रीमा
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पद्म
॥२२॥
ली मनुष्यों में महायोषा राक्षसशियोंका अधिपति माल्यकानका पुत्र है उसने बड़े २ देव मारे हैं औरये ।
मेर भानजे मारे इस राक्षसके सन्मुख मेर देवोंमें कौन आवे यह अतिवीर्यवान महातेजस्वी देखा न जाय | इसलिये में युद्धकर इसे हटाऊंनातर यह मेरे अमेरदेवोंको होगा असा विचार अपने जे देवजातिके विद्याधर
श्रीमाली से कम्पायमान भये थे तिनको धीर्य याय यात युद्ध करनेको उद्यमीभया तब इन्द्र का पुत्र जयंत बापके पायन पर बिनती करनेलगाहे वे मेरे होते. संते श्राप युद्धको तब हमारा जन्म निरर्थक है हमको श्रापने बाल अवस्थामें प्रति जडार अब तुम्हारे दिग शवों को युद्ध कर हटाऊं यहपुत्रका धर्म है श्राप निराकुल विराजिषे जो अंकूर नखले छेवाजाब उसपर फरसी उठवना क्या, ऐसाकहकरपिता कीबाजालेय मानों अपने शरीरकर आकाशको प्रसेगा पेसाको पायमान होय युद्धके अर्थ श्रीमालीपराया श्रीमाली इसको युद्ध योग्यजान खुशी हुया इसके सम्मुख गमे ये दोनोंही कुमार परस्पर युद्ध करने लगे धनुष खेंच बाण चलावतेभए इन दोनों कुवरों का बड़ा शुद्ध भया दोनोंही सेनाके लोक इनका युद्ध देखो भए सो इनका युद्ध देख आश्चर्यको प्राप्त भए श्रीमानीने सनक नामा इथियारकर जयंतकारथ तोड़ा.
और उसको घायल किया सो मूछा खाय पड़ा फिर सावेत होय लड़ने लगा श्रीमालीके भिंडमालकी दीनी रथ तोडा और मूर्छितकिया तब देवोमी सेमा प्रतिवर्ष मया और राक्षसोंको शोच भया फिर श्रीमाली समेत भया जयंतके सन्मुख गया होमों में मुखश्या झेनों सुभट राजकुमार युद्ध करते शोभते भए मानों सिंहके बालकहीहें बड़ीबेरमें इंद्रके पुत्र असंतनेमाश्यपानका पुत्र जो श्रीमालीउसके ग्रहाकी बातीमें रीनी सो पृथ्वीपर पड़ा बदनकर अधिर पडने समा तत्काल जैसे सूर्य अस्त होजाय तैसे मा
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पद्म
पुसख
॥२३०॥
णांत होगया श्रीमालीको मारकर इंद्रका पुत्र जयंत शंखनाद करता भया तब राचसोंकी सेना भयभीत मई और पीछेहटी माल्यवानके पुत्र श्रीमालीको प्राण रहित देख और जयंतको उद्यत देख रावण के पुत्र इंद्रजीतने अपनी सेनाको धीर्य बंधाया और कोपकर जयंतकेसन्मुख आया सो इंद्रजीतने जयंत का बक्तर तोर डारा और अपने बाणोंकर जयंतको जर्जरा किया तब इंद्र जयतको घायलदेख छेदागया | हे वक्तर जिसका रुधिरकर लालहोगयाहै शरीर जिसका ऐसा देखकर आप युद्धको उद्यमी भया आकाश ! को अपने प्रायुधोंकर श्राछादित करता हुवा अपने पुत्रकी मददके अर्थ रावणके पुत्रपर पाया तब रावण को सुमतिनामा सारथीनेकहा हे देव यह इंद्राया ऐसवतहाथीपर चढ़ालोकपालोंकर मंडितहाथमें चक्रधरे मुकटके रत्नोंकी प्रभाकर उद्यौत करता हुवा उज्वलछत्रकर मूर्यको प्राछादित करताहुवा चोभको प्राप्त भया ऐसा जो समुद्र उस समान सेनाकर संयुक्त यह इंद्र महाबलवानहै इंद्रजीत कुमार यासू युद्ध करने समर्थ नहीं इस लिये आप उद्यमी होकर अहंकार युक्त जो यह शत्रु इसे निराकरण करो तब रावण इंद्र को सन्मुख अाया देख भागे मालीका मरण यादकर और हाल श्रीमालीके वध कर महा क्रोध रूप भया
और शत्रुओं कर अपने पुत् को बेढ़ा देख श्राप दौडा पवन समानहे वेग जिसकाऐसे रथमें चढ़ादोनोंसेना के योघाओंमें परस्पर विषम युद्ध होताभया सुमटोंके रोमांच होयाए परस्पर शस्तों के निपात कर अन्धकार होगयारुधिरकी नदी बहने लगी योधा परस्पर पिछानेनपरें केवल ऊंचेशब्द कर पिलाने परें अपने अपने स्वामी के परेयोधा अति युद्ध करते भये गदाशक्ति बरछी मूसल खडग बाण परिघ जाति के शत्र कनक जातिके शस्त्रचक्र कहिये सामान्यचक्र बरछी तथा त्रिशूल पाशमुखन्डी जाति केशस्त्र कुहाडा मुदगर
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पुराण
॥२३१६
वज्र पाषाण हल दंड कोण जातिके शस्त्र बांसनके वाण और नाना प्रकार के शस्त्र तिन कर परस्पर अति युद्ध भया परस्पर उनके शस्त्र उनोंने काटेउनके उनोंने काटे अतिबिकराल युद्ध होतेपरस्पर शस्त्रोंके घात से अग्नि प्रज्वलित भई रणमें नाना प्रकारके शब्द होय रहे हैं कहीं मारलो मारलो यह शब्द होय रहे हैं कहीं यक रण २ कहीं किंण २ त्रय २ दम दम छम छम पट पट छस छस दृढ़ २ तथा तट २ चट चट घघ घध इत्यादि शत्रुवों कर उपजे अनेक प्रकारके जेशब्द उनसे रणमन्डल शब्द रूप होगया हाथियों कर हाथी मारेगये घोड़ोंकर घोड़े मारेगये रथों कर रथ तोडेगये पियादयाँ कर पियादे हतगए हाथियों की रंडकर उछलेजेजलके छांटेकर तिन शस्त्र सम्पातकर उपजीथीजो अग्नि सो शान्त भई परस्पर गज युद्धकर हाथियों के दांत टूटपडे गज मोती बिखरगए योधावोंमें परस्परयह आलाप भए हो शूर बीर शस्त्र चला कहां कायर होय रहा है हो भटसिंह हमारेखडगका प्रहारसम्हार हमारेसे युद्ध करयह मूवातू अबकहा जाय है और कोई सूं कोई कहे है तू यह युद्धकला कहां सीखा तरवार का भी सम्हारना न जाने है और कोई कहे है तु इस रणसे जा आपनी रक्षाकर तुक्या यूद्ध करना जाने तेरा शस्त्र मेरेलगा सो मेरी साजभी न मिटी तें वृथा ही धनीकी अजीवका अब तक खाई अब तक तें युद्ध कहीं देखा नहीं कोई ऐसेकहे हैं तू क्यों कांपे है तू थिरताभज मुष्टि दृढ़ राख तेरे हाथ से खड्ग गिरेगा इत्यादि योधावों में परस्पर पालाप होते भए कैसे हैं योधा महा उत्साह रूपहें जिनको मरनेका भय नहीं अपने अपने स्वामी के आगे सुभट भले दिखाए किसी की एक भुजा शत्रुकी गदाके प्रहार कर टूट गईं तोभी एकही हायसे युद्धकररहाहै किसी का सिर टूट पड़ा तो धड़हाँलडे है योधावों के बाणों से बक्षस्थल बिंदारे गए परन्तु मन न चिगे
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॥२३२॥
सामताके सिर पडे परंतु मान बोडा शुरवीर्यको युद्ध में मस्त प्रियह स्कर नीमा त्रिय नहीं वे चतुर महा धोरवीर महा पराक्रमी महा मुमः यशको स्वो करते हुए शौक धारक प्राण त्याग करत भए परन्तु कायर होकर अपयश न लिया कोई इक सुभट मस्ता हुचाभी रीके मारपेकी अभिलाषा कर कोषका भय रीयो ऊपर जाय पडा उसको मार आप पप किसीक हायसे शत्र शत्रुके शत्रपात कर निपति भए तरह सामन्त मुष्टिरूप जो मुद्गरे उसके पतिकर शत्रुको प्राण रहित करता मया कोई एक महा मैंट शत्रुनी को भुजाओंसे मित्रवत आलिंगन कर मसल भरता भया कोइएक सामंत परे चक्रके योधायकी पक्तिको रणता हुवा अपने पक्षक योधाओंका मार्गसुख करता भया कोईयक जो रणभूमि में परते सन्तमी परियाको पीट न दिखावते भए सूधे पडे रावण और इन्द्रके युद्धमें हाथी थोड़े स्थ योपा हजारौं पड़े पहिले जो रज उठी थी सो मदोन्मस हाथियों के मदझरनेकर तथा सामन्तोंके रुधिर प्रवाहकर दंबगई सामन्तोंके आभूषणोंके रत्नोंकी ज्योतिकर श्राकाशमें इंद्र धनुष होगया | कोई एक योधा बायें हाथकर अपनी प्रोता थाभकर खडग का वैरी ऊपर गया महाभयंकर कोईयक योधा अपनी प्रान्तही कर गाडी कमर बांधहोंठ डसता शत्रु अपरगया कोई एक आयुध रहित होय । गया तोभी रुधिरका रंगा रोस विषे तत्पर बैंग के माथेमें हस्तका प्रहार करताभया कोई एक रणथी महाशुरबीर युद्ध का अभिलाषी पाशकर बैरीको बांध कर छोड देता भया रणकर उपजाहै हर्ष जित
कै कोई एक न्याय संग्राम में तत्पर बैरी को श्रायुधरहित देखकर आपभी श्रायुध डार खडे लेय | रहे कोई एक अन्तसमय सन्यास धार नमोकार मन्त्रका उच्चारण कर स्वर्गप्राप्त भए कोई एक योषा
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पुराण
२३३
प्राशी विष सर्प समान भयंकर पड़ता २ भीप्रतिपची को मारकर मरा कोई एक अर्धसिर छेदा गया उसे बामें हाथमें दाव महा पराक्रमी दौड़करशत्रूका सिर फाड़ा कोई एक सुभट पृथिवीकी प्रोगल समान जो अपनी भुजा तिनहीकर युद्ध करतेभए कोई एक परम क्षत्रिय धर्मज्ञ शत्रुको मूर्छितभया देख श्राप पवन झोल सचेत करतेभये इसभांति कायरोंको भयका उपजावन हारा और योधावों को आनन्द का । उपजावनहारा महासंग्राम प्रवरता अनेक गज अनेक तुरङ्ग अनेक योधा शस्रोकर हते गए अनेक स्थ
चूर्ण होगये अनेक हाथियों की सूड कटगई घोड़ावों के पांव टूटगए पूछ कटगई पियादे काम आयगये रुधिरके प्रवाह कर सर्व दिशा पारक्त होगई एता रण भया सो रावण किंचित्मात्र भी न गिना रण विषे है कौतूहल जिसके ऐसे सुमट भाषका धारक रावण सुमति. नाम सारथी को कहताभया हे सारथी इस इन्द्रके सन्मुख रथ चलाय और सामान्य मनुष्यों के मारणे कर क्या ये तृण समान सामान्य मनुष्य तिनपर मेरा शस्त्र न चले मेरा मन महा योघावों के ग्रहण में बत्पर है रह चुद्र मनुष्य अभिमानसे इन्द्र कहावे है इसे आज मारूं अथवा पकडू यह बिडम्बनाका करनहारा पासण्ड कररहा है सो तत्काल दूरकरूं देखो इसकी दीठता आपको इन्द्र कहाँहें और कल्पनाकरलोकपाल थापे हैं और इन मनुष्योंने विद्याघरों की देव संज्ञा घरी है देखो अल्पसी विभूति पाय मूहमति भया है लोक हास्य का भय नहीं जैसे नट सांग धरे तैसे सांग धरा है दुखुद्धि प्रापको अलगयो पिताके वीर्य माताके रुधिरकर मांस होइमई शरीर माता के उदर से उपजा वृथा श्रापको देवेन्द्र माने है विद्याके पलकर इसने यह कल्पमा करी है असे काग आपको गरुड़ कहावेहे तैसे यह इन्द्र कहावेहे इसभांति जब रावणने कहा तब सुमति सास्थी
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पन
| ने रावधाका स्थ इन्द्र के सन्मुख किया रावणका देख इन्द्र के सब सुभट भागे सवपसे युद्धकरने को कोई ॥ uRM
समर्थ नहीं रावण सर्वको दयालु दृष्टिकार कीठसमान देखे रावणके सन्मुख सह इन्द्रही किा और सष । कृत्रिम देव इसका छत्र देख भाज गये जैसे चन्द्रमाके उदयसे अन्धकारजातारहे कैसाहै रावण येरियोंकर । झेला न जाय जैसे जलका प्रवाह दाहोकर थांभा न जाय और जैसे क्रोष सहित चित्तका वेग मिभ्या दृष्टि तापसियोंकर थांभा न जाय तैसे सामन्तोंकर रावण थांभा न जायइन्द्रभी कैलाशपर्वच समान हाथी पर चढ़ा धनुषको घरे तरकश से तीर काढ़ता रावण के सन्मुख भागा कानतक धनुषकोखेंच रावण पर बाणचलाये जैसे पहाइपर मेघ मोटी घारा वर्षे तसे रावणपर इन्द्रने बापोंकीवर्षाकरी रावणने इन्द्रकेवाष श्रावते २ काट डारे और अपने बाणोंफरशर मण्डप किया सूर्यको किरणबाणोंसे दृष्टि न भावे ऐसायुद्ध देख नारद आकाशमें नृत्य करताभया कलहदेख उपजे है हर्ष जिसकोजब इन्द ने जाना कि यह रावण सामान्य शस्त्रकर असाध्यहै तब इन्द्रने अग्निबाण रावणपर चलाया उससे रावणकी सेनाविषेत्राकुलला उपजी जैसे बोसोंका बन जले और इसकी तड़तड़ात ध्वनिहोय अग्निकी ज्वाला उठे तैसे अग्निबाण प्रज्वलित पाया तब रावणने अपनी सेनाको ब्याकुल देखकर तत्काल जलवाण चलाया सो मेघमाला उठी पर्वत समान जलकी मोटी धारा बरसनेलगी क्षणमात्रमें अग्नि बाण बुझगया तब इन्दने रावणपर तामस बाण चलाया उसकर दसोंदिशा में अन्धकार होगया रावण के कटक विषे किसीको कुछभी न सूझे तब रावणने प्रभास्त कहियें प्रकाश बाणचलाया उसकर क्षणमात्रमें सकल अंधकार विलय होगया जैसे जिन शासनके प्रभावकर मिथ्यात्वका मार्ग विलयजाय फिर रावण ने कोपकर इन्द्रपै नागवाण चलाया
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पुरात
२३५
सो महा काले नाग चलाये मानो भयंकरहे जिहा जिनकी इन्द्रकै और सकल सेनाकै लिपटगये तिन ससोकर वेदा इन्द्र प्रति व्याकुल भया जैसे भवसागरमें जीव कर्मजालकर बेढ़ा व्याकुल होयहै तब इंद्र ने गरुड़वाण चितारा सो सुवर्ण समान पीत पंखों के समूह कर आकाश पीत होगया और पंखों की पवन कर रावणका कटक हालनेलगा मानो हिंडोलेही में झूले हैं गरुडके प्रभावकर नाग ऐसे विलाय | गए जैसे शुक्र ध्यान के प्रभावकर कर्मों के बन्ध विलय हो जाय तब इन्ध नागवाण से छूटकर जेठ के। सूर्य समान आत दारुण तप तपताभया तब रावणने त्रैलोक्य मण्डन हाथीको इन्द्र के ऐरावत हाथी । पर प्रेरा कैसा है त्रलोक्य मण्डन सदा मद झरे है और वैरियों का जीतनहारा है इन्दने भी ऐरावतको । त्रैलोक्य मण्डनपर धकाया दोनों गज महा गर्यके भरे लड़ने लगे झरे हैं मद जिनके रहें नेत्र जिनके हाले हैं कर्ण जिनके देदीप्यमान हैं विजुरी समान स्वर्ण की सांकल जिनके हाथी|शरदके मेघ समान अति गाजते परस्पर प्रति भयङ्कर जो दांत तिनके घातोंकर पृथिवीको शब्दायमान करते चपलहे शरीर जिनका परस्पर सूड़ों से अद्भुत संग्राम करते भए । ____ अथानन्तर तब रावणने उछलकर इन्द्र के हाथी के मस्तकपर पगधर अति शीघताकर गज सारथी को पाद प्रहार ते सारा और इन्द्रको वस्रसे बांधा और बहुत दिलासा देकर पकड़ अपने गजपर लेअाया और रावणके पुत्र इन्द्रजीत ने इन्द्रका पुत्र जयन्त पकड़ा अपने सुभटों को सौंपा और आप इन्द्र के सुभटॉपर दौड़ा तब रावण ने मने किया हे पुत्र अब रणसे निवृत्त होवो क्योंकि समस्त विजिया के जे | निवासी तिनका सिर पकड लिया है अब समस्त अपने अपने प्रस्थानक लावो सुखसे जीवोशालिसे
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चावल लिया तब परालका क्या काम जय रावणने ऐसा कहा तब इन्द्रजीत पिताकी मात्रा से पीछे बाहुडा और सर्व देवों की सेना शरदके मेघसमान भागगई जैसे पपनकर शरदके मेघ विलयजाय रावण की सेना में जीतके वादिव बाजे ढोल नगारे शंख झांस इत्यादि अनेक वादितों का शब्द भया इंद्र को पकडा देख रावणका सेना प्रति हर्षितभई रावण लंका में चलनेको उद्यमी भया सूयके स्थ समान रय ध्वजावों से शोभित और चंचल तुरज नृत्य करते हुए और मद झरते हुए नाद करते हाथी तिन पर भ्रमर गुंजार करे हैं इत्यादि महासेना से मंडित राक्षसों का अधिपति रावण लंका के समीप आया तब समस्त बन्ध जन और नगरके रक्षक तथा पुरजन सपही दर्शनके अभिलाषी भेट लेले सन्मुख आए और रावण की पूजा करते भए, जे बड़े हैं तिनकी रावण ने पूजा करी रावण को सकल नमस्कार करते भए
और बड़ों को रावण नमस्कार करता भया कैयकों को कृपा दृष्टि से कैयकों को मंदहास्य से कैयकों को वचनों से रावण प्रसन्न करता भया बुद्धिके बल से जाना है सबका अभिप्राय जिसनेलंका तो सदाही मनोहर है परन्तु रावण बड़ी बिजय कर पाया इसलिये अधिक समारीहै ऊंचे रत्नों के तोरण निरमापे मंद मंद पवन कर अनेक वर्ण की ध्वजा फरहरे हैं कुंकुमादि सुगंध मनोज्ञ जल कर सींचा है समस्त पृथिवीतल जहां और सब ऋतु के फूलों से पूरित है राजमार्ग जहांऔर पंचवर्ण रत्नोंके चूर्ण कर रचे हैं मंगलके मंडन जहां और दरवाजयों पर थांभे है पूर्ण कलश कमलोंके पत्र और पल्लब सेढ़के, संपूर्ण नगरी वस्त्राभरण कर शोभित है जैसे देवों में मंडित इंद्र अमरावती में श्राबे तैसे विद्याधरों कर वेढा रावण लंका में आया पुष्पक विमान में बैठा देदीप्यमानहै मुकट जिसको महारत्नोंके बाजूबंदपहिरे निर्मल प्रभाकर युक्त मोतियों
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॥२३॥
का हार वक्षस्थल पर धारे अनेक पुष्पों के समूह कर विराजित मानों वसंतहीकारूप है सो उसको हर्षसे पूर्ण नगरके नरनारी देखते देखते तृप्त न हुवे असीस देय हैं नाना प्रकार के वादित्रों के शब्द होरहे हैं जय जयकार शब्दहोयहें अानंद से नृत्यकारिणीनृत्य करे, इत्यादिहर्षसंयुक्त रावणने लंकामें प्रवेशकिया, महा उत्साह की भरी लंका उसे देख रावण प्रसन्न भए बंधुजन सेवकजन संबही पान्द को प्राप्त भए रावण राजमहल में आए देखो भव्यजीवहोकि रथन-पुरकेघनी राजा इन्द्रनेपूर्व पुण्यकेउदयसेसमस्तवैरियोंके समूह जीतकर सर्व सामग्री पूर्ण तिनको तृणवत् जान सर्व को जीतकर दोनों श्रेणी का राजबहुतवर्ष किया
और इन्द्र के तुल्य विभूति को प्राप्त भया और जब पुण्य क्षीण भया तव सकल विभूति विलय होगई रावण उसको पकड़कर लंका लेपाया इसलिये हे श्रेणिकममुंष्य केचपल सुख को धिकारहोवे यद्यपि स्वर्गलोकके देवों का विनाशीक सुख है तथापि आयुपर्यन्त और रूप नहोय और जबदूसरीपर्याय पावेतब और रूप होय और मनुष्य तो एकही पर्याय में अनेक दशाभोगे इसखिये मनुष्य होय जे मायाका गर्ष करे हें वे मूर्ख हैं
और यह रावण पूर्व पुण्य से प्रपल वैरियों कोजीत कर अति वृद्धिको प्राप्त भया । यह जानकर भव्यजीव सकल पाप कर्म का त्याग कर केवल शुभ कर्म ही को अंगीकार करें॥ इति बादश पर्व सम्पूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर इन्द्र के सामन्त धनी के दुख से व्याकुल भए तब इन्द्र का पिता सहसार जो उदासीन श्रावक है इससे बीनती कर इन्द्र के छुड़ावने के अर्थ सहवार को लेकर खंका में रावण के समीप जाप बारपार से पीनती कर इनके सकल वृतान्त कहकर रावण के दिगगए, रावण ने सहसार को उदासीन श्रावक जानकर बहुत विनयकिया, इनको भासन दिया भाप सिंहासन से उतर बैठ, सहस्रार रावण को ||
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पद्म पुराच
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विवेकी जान कहता भया हे दशानन ! तुम जगजीत हो सो इन्द्रको भी जीता तुमहारी भुजावों की सामर्थ सबने देखा जे बडे राजा वेगवंतोंका गर्वं दूरकर फिर कृपा करें, इस लिये अब इन्द्रको घोड़ो यहसहखारने कही और जे चारों लोकपाल तिन के मुह से भी यही शब्द निकसा मानो सहस्रार का प्रतिशब्द ही कहते भए तब रावण सहस्वार को तो हाथ जोड़ यही कही जो चाप कहोगे सोई होगा और लोकपालों से हंस कर क्रीड़ा रूप कही तुम चारों लोकपाल नगरी में बुहारी देवो कमलों का मकरन्द और तृष्णा कंटक रहित पुरी करो और इंद्रसुगंध जलकर पृथ्वीको सींचे और पांच वर्णके सुगंध मनोहर जो पुष्प तिनसे 'नगरीको शोभित करो यह बात जब रावणने कही तब लोकपाल तो लज्जावानहोय नीचे होगए और सहस्रार श्रमृतरूप बचन बाले हे धीर ! तुम जिसको जो आज्ञाकरो सोही वह करे तुम्हारी प्राज्ञा सर्वोपरि है यदितुम सारिखे गुरुजन पृथ्वीके शिक्षादायक नहीं तो पृथ्वीके लोक अन्यायमार्ग में प्रवरंत यह बचन सुनकर रावण अति प्रसन्नभए और कही हे पूज्य तुम हमारे तात तुल्यहो और इंद्र मेरा चौथा भाई इस को पायकर में सकल पृथ्वी कंटकरहित करूंगा इसको इंद्रपद वैसा ही है और यह लोकपाल ज्योंके त्यों
और दोनों श्रेणी राज्यसे और अधिक चाहोसो लेह मोमें और इसमें कछू भेदनहीं और श्रापबड़े हो गुरुजन हो जैसे इंद्रको शिक्षादेवो तैसे मुझे देवो तुम्हारी शिक्षा अलंकाररूपहै और आप रथनपुरमें बिराजो अथवा यहां बिराजो दोऊ यापही की भूमिहैं ऐसे प्रिय बचनोंसे सहस्रारका मन बहुत संतोषा तब सहस्रार कहने लगा हे भव्य तुम सारिखे सज्जन पुरुषोंकी उत्पत्ति सर्वलोकको आनंद कारण है है चिरंजीव तुम्हारे शूरबीरपनेका आभूषण यह उत्तम बिनय समस्त पृथ्वी में प्रशंसाको प्राश भया है तुम्हारे
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पद्म
पुराण
॥ २३८९।।
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देखने से हमोर नेत्र सफल भए धन्य तुम्हारे माता पिता जिनसे तुम्हारी उत्पति भई कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल तुम्हारी कीर्ति तुम समर्थ और चमावान दातार और निगर्व ज्ञानी और गुणप्रिय तुम जिन शासन के अधिकारीहो तुमने हमको जो कही यह तुम्हारा घरहे और जैसे इंद्र पुत्र तैसे मैं सो तुम इन बातोंके लायकहो तुम्हारे मुखसे ऐसेही बचन दरें तुम महाबाहु दिग्गजकी सूंड समान भुजा तुम्हारी तुम सारिखे पुरुष इस संसार में विरले हैं परंतु जन्मभूमि माता समान है सो बाडी न जाय जन्मभूमि का वियोग चित्तको कुल करे है तुम सर्व पृथ्वी के पतिहो परंतु तुमको भी लंका प्रिय मित्र बांधव और समस्त प्रजा हमारे देखने के अभिलाषी वनेका मार्ग देखे है इस लिये हम स्थनपुरही आंगे और चित्त सदा तुम्हारे समीपही है है देवनके प्यारे तुम बहुतकाल पृथ्वीकी निर्विघ्नरचा करो तब रावण ने उस ही समय इन्द्रको बुलाया और सहमारके लार किया और आप रावण कितनीक दूर तक सहस्रारको हुंचाने गये और बहुत विनयकर सीख दीनी सहस्रार इन्द्रको लेकर लोकपालों सहित विजयागिरि में आए सर्वराज ज्योंका त्योंही हे लोकपाल आयकर अपने २ स्थानक बैठे परन्तु मानभंगसे असता को प्राप्त भए १ विजया के खोक इन्द्र के लोकपाल को और देवोंको देखें त्यों २यह लज्ना कर नीचे होजांय और इंद्रभी न तो रथनुपुरमें प्रीति न राखियों में प्रीति न उपवनादिमें प्रीति न लोक पालोंमें प्रीति न कमलोंके मकरंद पीत होरहा है जल जिनका ऐसे जे मनोहर सरोवर तिनमें प्रीति और न किसीकी क्रीड़ा विषे प्रीति यहांतक के अपने शरीर से भी प्रीति नहीं लज्जाकर पूर्ण है चित्त जिस का सो उसको उदास जान लोक अनेक विधिकर प्रसन्न किया चाहें और कथाके प्रसंगसे वह बात भुलाया
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चाहें परंतु यह भूले नहीं सर्व लीला विलास जे अपने राजमहलके मध्य गंधमादन पर्वतके शिखर । HC समान ऊंचा जो जिनमन्दिर उसके एक भके माथेमें रहे कांति गहित होगगाहे सरीर जिसकापंडितों
कर मंडित यह विचार करे हेकि विमारहै इस विद्यावर पदके ऐश्वर्यकोजो एक चणमात्र विलाय गया | जैसे शाद ऋतुके मेधोके समूह अत्यन्त ऊंचे होने परन्तु क्षणमा विलय जायतैसे वेशन वेहाथीवे योगा
वे तुरंग सेमस्त तृण समान होगए पूर्व अनेक बेर अदभुत कार्य के करणारे अथवा कमों की यह | विचित्रताहै कौन पुरुष अन्यथा करनके समर्थ हे इस लिये जगतमें कर्म प्रबलहें में पूर्व नाना विधि | भोग सामग्रीयों के निपजावनहारे कर्म उपार्जेथे तो अपनाफल देकर खिरि गए जिससे यह दशा वरते हे रण संग्राममें शूरवीर सामंतों का भरण होय तो भला जिसकर पृथ्वी में अपयश न होय में जन्म से लेकर शत्रुओंके सिरपर चरण देकर जिया सो में इंद्र शत्रु का अनुचर होयकर कैसे राज्य लक्ष्मी मोगू इस लिए अब संसारके इन्द्रियजनित सुखोंकी अभिलाषा तजकर मोक्षपद की प्राप्ति के कारण ले मुनिव्रत विनको अंगीकार करूं रावण शत्रुका भेष घर मेरा महामित्र पाया जिसने मुझे प्रतिबोध दिया में प्रसार सुख के श्रास्वादों में श्रासक था ऐसा विचार इन्द्र ने किया उसही समय निरवाण संगम नामी चरण मुनि विहार करतेहुचे त्राकाश मार्गसे जातेथे सो चैत्यालयोंके प्रभावकर उनका श्रागे गमन न हो सका तब वह चैत्यालय जान नीचे उत्तरे भगवानके प्रतिबिंबका दर्शन किया मुनिचारज्ञान के धारकये सो उनको राजा ने उठकर नमस्कारकिया मुनिकेसमीपजावेग बहुत देरतक अपनी निन्दा करीसर्व संतारका वृतांत जाननेहारे मुनिने परम अमृतरूप परमासे इंद्रको समाधान किया कि हे इन्द्र
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पत्र
जैसे अरहटकी घड़ी भरी रीती होयहै और रीती भरी होयहै । तैसे यह संसारकी मायाक्षणभंगुर है इस पुराण के और प्रकार होनेकाआश्चर्य नहीं मुनिकेमुखसे धर्मोपदेश सुन इंद्रने अपने पूर्वभवपूछे तब मुनिकहेहें कैसे
हैं मुनि अनेक गुणोंके समूहसे शोभायमान, हे राजा अनादिकालका यह जीव चतुरगति में भ्रमण करे हैं जो अनन्तभव घरे सो केवलज्ञान गम्यहै कैएक भव कहिये हैं सो सुनों शिखापद नामा नगरमें एक मानुषी महा दलिद्रनी जिसका नाम कुलवन्ती सो चीपड़ी अमनोग्य नेत्र नाक चिपटी अनेक व्याधिकी भरी पापकर्म के उदयसे लोगों की जूठखायकर जीवे खोटे बस्त्राभागिनी फाटा अङ्ग महा रूक्ष खोटे केश जहां जाय वहां लोक अनादरें हैं जिसको कहीं सुख नहीं अन्तकाल में शुभमति होय एक महूर्त का अनशन लिया प्राण त्याग कर किंपुरुष देव के शील घरा नामा किन्नरी भई वहां से चय कर रत्न नगर में गोमुखनामा कलुंबी उसके घरिनी नामा स्त्री उसके सहस्रभाग नामा पुत्र भया सो परम सम्यक्त को पाय कर श्रावक के व्रत श्रादरे शुक्रनामां नवमा स्वर्ग वहां उत्तम देव भया वहां से चयकर महा विदेह क्षेत्रके रत्न संचयनगर में मणिनामा मन्त्री उसके गुणाबली नामा स्त्री उसके सामन्तवर्ध नामा पुत्र भयो सो पिता के साथ वैराग्य अंगीकार किया अति तीव्र तप किये तत्वार्थ में लगो है चित्त जिसका निर्मल सम्यक्त का धारी कषाय रहित बाईस परीषह सहकर शरीर त्याग नवप्रीवक गया अहमिन्द्रके बहुतकाल सुख भोगकर राजा सहसार विद्याधरके राणी हृदया सुन्दरी उनके तू इन्द्रनामा पुत्रभया रथनूपुर नगरमें जन्मलियापूर्वले अभ्यासकर इन्द्रके सुखविषे मनाशक्तभया सो तू विद्याधरोंका अधिपति इन्द्र कहोयो अब तू वृथा मनमें खेद करे है जो में विद्यामें अधिकथा सौशा
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॥२४२॥
पद्म | वोंसे जोतागया सो ह इन्द्र कोई निबुद्धी कद्द बोयकर वृथा शालिकी प्रार्थना करै है ये पाणी जैसे कर्म
करें हैं वैसे फलभोगे हैं तेंने भोग का साधन शुभकर्म पूर्व कियाथा सो क्षीणभया कारण विना काय की उत्पत्ति न होय इस बातका आश्चर्य क्या तूने इसी जन्म में अशुभ कर्म किये विनसे यह अपमान रूष फल पाया और रावणतो निमित्तमात्र है तेने जा आज्ञान चेष्टाकरी सो क्यानहीं जाने है तू ऐश्वर्य मदकर भ्रष्टभया बहुत दिनभये इसलिये तुझे याद नहीं आवे है अब एकाग्रचित्त कर सुन अरिचयपुर में वहिवेग नामा विद्याधर राजा उसके राणी वेगवती पुत्री अहिल्या उसका स्वयम्बर मण्डप रचाथा वहां दोनों श्रेणी के विद्याधर अति अभिलाषी होय विभवसे शोभायमान गए और तभी बड़ी सम्पदा सहित गया और एक चन्द्रावर्तनामा नगरका धनी राजा आनन्दमाल सो भी वहां आया अहिल्याने सवको तजकर उसके कण्ठमें बरमाला डाली कैसीहै अहिल्या सुन्दरहै सर्व अङ्ग जिसका सो आनंदमाल अहिल्याको परणकर जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित स्वर्गलोकमें सुख भोगेतैसे मन बांछित भोगभोगताभया सो जिस दिनसे वह अहिल्या परणा उसदिन से तेरे इससे ईर्षा बढ़ी तैने उसको अपना बड़ा बैरी जाना कैएक दिन वह घरमें रहा फिर उसको ऐसी बुद्धि उपजी कि यह देह विनाशीकहै इससे मुझे कछु प्रयोजन नहीं अब में तपकरूं जिसकर संसारका दुःख दूर होय ये इन्द्रियों के भोग महाठग तिन विषे सुखकी आशा कहां ऐसा मनमें विचारकर वह ज्ञानी अन्तरात्मा सर्व परिग्रह को तजकर परम तप अोचरता भया एकदिन हंसावलीनदीके तीर कायोत्सर्गधर तिष्ठेथा सो तैने देखा ताके देखनेमात्रसेही इन्धनकरबढी है | क्रोधरूप अग्नि जिसके सो तैं मूर्खने गर्बकर हांसीकरी अहो आनन्दमालतू कामभोगमें अति आसक्त
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पुराण
था अहिल्याका रमण अब कहा विरक्त होय पहाड़ सारिखा निश्चल तिष्ठा है तत्वार्थ के चितवनमें लगा है अत्यन्त स्थिर मन जिसका इस भांति परम मुनिकी तैने अवज्ञा करी सो वहतो अात्मसुखविषे मग्न तेरी बात कुछ हृदयमें न घरी उनके निकट उनका भाई कल्याणनामा मुनि तिष्ठेथा उसने तुझे कही यह महामुनि निरपराध तेंने इनकी हांसीकरी सो तेराभी पराभव होगा तब तेरी स्त्री सर्वश्री सम्यग्दृष्टि साधवोंकी पूजा करनहारी उसने नमस्कारकर कल्याण स्वामीको उपशांतकिया जो वह शांत न करती तो तू तत्काल साधुबोंकी कोपाग्नि से भस्म हो जाता तीन लोक में तप समान कोई बलवान् नहीं जैसी साधुवोंकी शक्ति है तैसी इन्द्रादिक देवोंकी शक्किभी नहीं जो पुरुष साधु लोगोंका निरादर करे हैं वे इस भवमें अत्यन्त दुखपाय नरक निगोदमें पड़े हैं मनकर भी साधुवों का अपमान न करिये जे मुनि जनको अपमान करे हैं सो इस भव और परभव में दुःखी होय हैं जो करचित्त मुनियों को मारें अथवा पीड़ा करें हैं सो अनन्तकाल दुःख भोगे हैं मुनि अवज्ञा समान और पाप नहीं मन वचन कायकर यह प्राणी जैसे कर्म करे हैं तैसाही फल पावे हैं इस भांति पुण्य पाप कर्मों के फल भले बुरे जीव भोगे हैं ऐसा जानकर धर्ममें बुद्धिकर अपने आत्माको संसार के दुःख से निवृत करो, महा मुनि के मुखसे राजा इन्द्र पूर्व भव सुन आश्चर्यको प्राप्तभया नमस्कारकर मुनि से कहताभया हे भगवान ! तुम्हारे प्रसादसे मैंने उत्तम ज्ञान पाया अब सकल पाप क्षणमात्रमें विलयगये साधुवों के संगसे जगत् में कुछ दुर्लभ नहीं तिनके प्रसादकर अनन्त जन्म विषे न पाया जो आत्म ज्ञान सो पाइये है यह कह | कर मुनिको बारम्बार बन्दना करी मुनि आकाशमार्ग विहारकर गये इन्द्र गृहस्थाश्रम से परम बैराग्य
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पुराण
॥२४४॥
को प्राप्त भया जलके बुदबुदा समान शरीरको असार जान घम में निश्चय बुद्धि कर अपनी अज्ञान चेष्टोको निंदताहुवा वह महापुरुष अपनी राज विभूति पुत्रको देकर अपने बहुत पुत्रों सहित और लोकपालों सहित तथा अनेक राजावोंसाहत सर्व कर्मका नाश करनहारी जिनेश्वरी दीक्षा पादरी सर्व परिग्रह का त्याग किया निरमलहै चित्त जिसका प्रथम अवस्था में जैसा शरीर भोगों कर लगाया था तैसाही तपके समूहमें लगाया ऐसा तप औरों से न बने बडे पुरुषों की बड़ी शक्ति है जैसी भोगों में प्रवरते तैसे विशुद्धभाव विषे प्रवर्ते हैं राजा इन्द्रबहुतकाल तपकर लुक्लध्यानके प्रताप से कर्मोका क्षय करनिर्वाण पधारे गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं देखो बड़े पुरुषों के चरित्र आश्चर्यकारी हैं प्रबल पराक्रमके धारक बहुत काल भोगकर वैराग्य लेय अविनाशी सुखको भोगावेहैं इसम कुछ आश्चर्य नहीं समस्त परिग्रहका त्यागकर क्षणमात्रमें ध्यानके बलसे मोटे पापोंका क्षयकरे हैं जैसे बहुत काल से ईंधन की राशि संचय करी सो क्षणमात्र में अग्निके संयोगसे भस्म होयहै जैसा जान कर हे प्राणी श्रात्मकल्याण का यत्न करो अन्तःकरण विशुद्ध करो मृत्युके दिन का कुछ निश्चय नहीं ज्ञान रूप सूर्य के प्रताप से अज्ञान तिमिर को हरो। इति तेरहवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ __ अथानन्तररावण विभव और देवेन्द्र सामान भोगोंकर मूढहै मन जिसका मनवांछित अनेक लीला विलास करता भया यह राजा इन्द्रका पकड़नहारा एकदिन सुमेरु पर्वतके चैत्यालयोंकी वन्दनाकर पीछे श्रावता था सप्तक्षेत्र षट् कुलाचल तिनकी शोभा देखता नाना प्रकारके वृक्ष नदी सरोवर स्फटिकमणि हूं से निर्मल महा मनोहर अवलोकन करता हुवा सूर्य के भवन समान विमाम में विराजमान महा
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पन्न पुराण .२४
विभूति से संयुक्त लंका विषे प्रावनेका है मन जिसका तत्काल मनोहर उतंगनाद सुनताभया तब महा हर्षवान होय मारीच मंत्रीको पूंछता भया हे मारीच ! यह सुंदर महानाद किसकाहै और दशोंदिशा काहेसे लाल होरही तब मारीचने कही हे देव यह केवलीकी गंधकुटीहै और अनेक देव दर्शन को
आवेहैं तिनके मनोहर शब्द होय रहेहैं और. देवोंके मुकटादि किरणोंकर यह दोदिशा रंगरूप होय रहीहैं इस स्वर्णके पर्वतविषे अनंतवीर्य मुनि तिनकोकेवल ज्ञानउपजाहै ये वचन सुनकर रावण बहुत श्रानंदको प्राप्त भया सम्यक दर्शनकर संयुक्तहै और इंद्रका बश करनहाराहे महाकांतिका धारी भाकाशसे केवलीकी बंदना के अर्थ पृथ्वी पर उतरा बंदनाकर स्तुति करी इन्द्रादिक अनेक देव केवली के समीप बैठेथे रावणभी हाय जोड़ नमस्कारकर अनेक विद्याघरों सहित उचित स्थानकमें तिष्ठा चतुरनिकाय के देव तथा तिर्यंच और अनेक मनुष्य केवलोक सभीप तिष्ठेथे उस समय किसी शिष्य ने पूछा हेदेव हे प्रभो अनेकपाणी धर्म और अधर्मके स्वरूप जाननेकी तथाीतनके फल जाननेकी अभिलापाराखे है और मुक्तिके कारण जाननाचाहें हैं सो तुम सही कहने योग्यहो सो कृपाकर कहो तब भगवानकेवल ज्ञानी अनन्तवार्यमर्यादि रूप अक्षर जिनमें विस्तर्णि अर्थ प्रतिनिपुण शुद्ध संदेह रहितसर्वके हितकारीप्रिय बचन कहतेभए अहो भव्य जीवहो यह जीवचेतनालक्षण अनादिकालका निरंतर प्रष्ट कर्मोंकर बंधा आछादितहै श्रात्मशक्ति जिसकी सोचतुरगतिमें भ्रमणकरेहे चौरासी लक्ष योनियोंमें नानाप्रकार इंद्रियोंकर उपजी जो वेदना उसे भोगताहुवा सदाकाल दुःखीहोय रागीदेषी मोही हुआ कर्मोके तीब्रमंद मध्य विपाकसे कुम्हारके चक्रवत पायाहे चतुरगतिका भ्रमण जिसने ज्ञानावर्णी |
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पद्म
॥२४६।
कर्मकर पाबादितहे ज्ञान जिसका अतिदुर्लभ मनुष्यदेह पाई तोभी आत्महितको नहींजानेहै रसना का लोलुपीस्पर्श इंद्रीका विषयी पांचही इंद्रीयोंके बशभया अति निन्य पापकर्मकर नरकविषे पड़े हैं जैसे पाषाण पानीमें डूबेहै । कैसाहे नरक अनेक प्रकारकर उपजे जे महा दुख तिनका सागरहै महा । दुखकारीहे जे पापी क्रूर कर्माघनके लोभीमातापिता भाईपुत्र खीमित्र इत्यादि सुजन तिनको हनेहें जगत | में निन्छह चित्त जिनका वे नरकमें पड़े तथा जे गर्भ पातकरे हैं तथा बालक हंल्याकरें, वृद्धको हणे] हैं अवलास्त्रियों की हत्या करे हैं मनुष्योंको पकड़े हैं रोके हैं बांधे हैं मारे हैं पची तथा मृगनको हने । हैं जे कुबुद्धि स्थलचर जलचर जीवोंकी हिंसा करे हैंधर्म रहितहें परिणाम जिनका वे महा वेदनारूप जो नरक उस विषे पड़े और जे पापी शहदके अर्थ मधु मासीयोंका छाता तोडे हैं तथा मास अहारी मद्यपानी शहदके भक्षण करनेहारे बनके भस्म करनेहारे तथा ग्रामोंके बालनहारे बन्दीके करणहारे । गायनके घेरनहारे पशुघाती मझ हिंसक भील अहेड़ी वागरा पारधी इत्यादि पापी महा नरकमें पड़े। हैं और जे मिथ्यावादी परदोषके भाषणहारे अभचके भक्षण करनेहारे परधनके हरनहारे परदारा के । रमनेहारे वेश्यायोंके मित्रहैं वे घोरनरकमें पडे हैं जहां किसीकी शरण नहीं जे पापी मांसका भतण करें । हैं वे नरकमें प्राप्त होयहें वहां तिनहीका शरीर काट २ तिनके मुखविषे दीजिये, और ताते लोहे के। गोले तिनके मुखमें दीजिये हैं और मद्यपान करनेवालोंके मुखमें सीसा गाल २ ढारिएहै और परदारा लंपटियोंको तातीलोहेकी प्रतलियोंसे आलिंगन करावेहैं जे महापरिग्रहके धारी महाश्रारम्भी कूर है | : चित्त जिनका प्रचंड कर्मके करनहारेहें वे सागरां पर्यन्त नरकमें बसेहें साधुनोंके द्वेषी पापी मित्थ्यादृष्टि
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पुराण
म
पा कुटिल कुबुद्धिरोबध्यानी मरकर नरकमें प्राप्त होयहें जहां विक्रीयामई कुहाडे तथा खडग चक्र करोंत !
और नानाप्रकारके विक्रयामई शस्त्र तिनसे खरड २ कीजिएहै फिर शरीर मिल जायहै श्रायु पर्यन्त दुस भोगेहें तीचंण हैं जौंच जिनकी ऐसे मायामई पीते तन विदारे हैं तथा मायामई सिंह व्याघ्र स्वानसर्प अष्टापद ल्याली वीळू तथा और प्राणियोसे नानाप्रकारके दुख पावे हैं नरकके दुःखको कहां लग बरणन करिए और जे मापाचारी प्रपंची विषियाभिलाषी हैं वे प्राणी तियंचगत को प्राप्त होय. वहां परस्पर बध और नानाप्रकारके शम्रन की घातसे महा दुःख पावेहें तथा बाहन तथा प्रति भार का लादना शीत उष्ण क्षुधा तृषदिकर अनेक दुख भोगवहें यह जीवभव संकटविषेभ्रमता स्थल विषेजल विषगिरिविषे तरुविष औरगहनवनविषेभनेक गैरसूताएकेंद्रीवेइंद्री तेइंदी चौइंद्रीपचंदीअनेक पर्यायमें अनेक जन्ममरण किये जीव अनादि निधनहे इसको श्रादिअन्त नहीं तिलमात्रभी लोकाकाश विषे ऐसा प्रदेश नहीं जहां संसार भवनविषे इस जीवने जन्ममरण न किएहों औरजेप्राणी निगर्व हैं कपटरहितहैं स्वभाव ही कर संतोषी हैं वे मनुष्य देहको पावेहें सो यह नरदेह परम निर्वाण सुखका कारण उसे पायकर भी जे मोहमदकर उन्मत्तकल्याणमार्गको तजकर षणमात्रमें सुखके अर्थ पाप करे हैं ते मूर्ख हैं मनुष्यभी पूर्वकर्मके उदयसे कोई आर्यखंड विषे उपजे हैं कोई म्लेचखण्ड विष उपजे हैं तथा कोई धनाढ्य कोई अत्यन्त दरिद्री होय हैं केई कर्मके प्रेरे अनेक मनोरथ पूर्ण करे हैं केई करसे पराए घरोंमें प्राण पोषण करे हैं केई कुरूप केई रूपवान केई दीर्घ श्रायु कई अल्प श्रायु केई लोकोंको बल्लभ केई अभानने केई सभाग केई अभाग केई औरोंको प्राज्ञा देवें केई औरनके श्राज्ञाकारी केई यशस्वी केई अपयशी केई शूर केई ।
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पत्र
॥४८॥
कायर केई जल विषे प्रवेश करें केई रणमें प्रवेश करें केई देशांतरमें गमन करें केई कृषि कम करें ।। केईव्यापारकरें, कई सेवा करें। इसभान्ति मनुष्य गति में भी सुख दुःख की विचित्रता है,निश्चय विचारिये तो सर्वमति में दुःखहीहै दःखही को कल्पना करसुखमानेहें और मुनिव्रत तथा श्रावक के व्रतों से तथा अव्रत सम्यक्त से तथा अकाम निर्जस से, तथा अज्ञान तप से देवगति पावे हैं तिनमें कई बड़ी ऋद्धि के धारी केई अल्प ऋद्धि के धारी वायुकांतिप्रभाव बुद्धि सुखलेश्याकर ऊपरले देव चढ़ते और शरीर के अभिमान कर परिग्रह से घटते देवगति में भी हर्ष विषाद कर कर्म का संग्रह करे हैं । चतुरगति में यह जीव सदा अरहटकी पड़ीके यंत्रसमानभ्रमणकरे है अशुभ संकल्पसेदुःखको पावे हैं ।और शुभसंकल्प से सुख को । पाये हैं, और दान के प्रभाव से भोग भूमि विषे भोगों को पावे है, जे सर्व परिग्रह रहित मुनिव्रत केधारक हैं सो उत्तम पात्र कहिये और जे अघुबत के धारक श्रावक हैं, तथा श्राविका, तथा आर्यिका सो मध्यमपात्र कहिये है और व्रत रहित सम्यक दृष्टि हैं सो जघन्यपात्र कहिये हैं इन पात्रों को विनय भक्तिकर आहार देना सो पात्रका दान कहिये और वाल वृद्ध अंघ पंगु रोगी दुर्बल दुःखित भुखित इनको करुणा कर अन्न जल औषधि वस्त्रादिक दीजिये सो करुणादान कहिये, उत्कृष्ट पात्र के दान कर उत्कृष्ट भोगभूमि और मध्यमपात्र के दान कर मध्य भोगभूमि और जघन्य पात्र केदान कर जघन्यभोग भूमि होयहै, जो नरक निगोदादि दुःखसे रक्षाकरेसो पात्र कहिये । सो सम्यकदृष्टि मुनिराजहें वे जीवों की रक्षाकरे हैं जे सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र कर निर्मल हैं वे परमपात्र कहियेजिन के मान अपमान सुखदुःख तृण कांचन दोनों बराबर हैं तिनको उत्तम पात्र कहिए जिनके राग द्वेष नहीं जे सर्व परिग्रह रहित महा
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॥२५॥
विबेकी शुभोपयोग रूपहे चित्त जिनका वे ऐसा विचार कर हैं जगृहस्थ स्त्रासंयुक्त आरंभी परिमाही हिंसक काम क्रोधादि कर संयुक्त गबवन्त धनाढ्य और पापको पूज्य माने उनको भक्तिसे बहुत धन देना उस विखे क्या फल है और उनसे आप क्या ज्ञान पावें अहो यह बड़ा अज्ञान है कुमारग से ठगे जीव उसे पात्र दान कहे हैं और दुखी जीवोंको करुणादान न करे हैं दुष्ट धनाढ्योंको सर्व अवस्थामें धनदेय हैं सो वृथा धनका नाश करे ह धनवन्तोंको देनेसे क्या प्रयोजन दुःखियों को देना कार्यकारी है धिक्कारहै उन दुष्टोंको जो लोभके उदयसे खोटे ग्रन्थ बनाय मढ़ जीवोंको ठगे हैं जे मृषावादके प्रभावसे मांसहूं का भक्षण ठहरावें हैं पापी पाखण्डी मांसकाभी त्याग न करें तो और क्या करगे जेकर मांसका भक्षण करे हैं तथा जा मांसकादान करे हैं वे घोर वेदनायुक्त जो नरक उसमें पड़े हैं और जे हिंसाके उपकरण शस्त्रादिक तथा जे बन्धनके उपाय फांसी इत्यादि तिनका दान करे हैं तथा पंचेंद्रिय पशवोंका दान करे हैं और ज इन दानोंकी निरूपणा करे हैं वे सर्वथा निंद्य हैं जो कोई पशुका दान करे और वह पशु बांधने कर मारनेकर ताडिनेकर दुःखो होय तो देनहारेको दोष लागे और भूमिदानभी हिंसाका कारणहै जहां हिंसा वहां घम नहीं श्रीचैत्यालय के निमित्त भूमिका देवा युक्त है और प्रकार नहीं जो जीव घातकर पुण्य चाहे हैं सो पाषाण से दुग्ध चाहे हैं इसलिये इकइन्दी प्रादि पञ्चेन्दी पर्यन्त सर्व जीवोंको अभय दोनदेना
और विवेकियोंको ज्ञान दान दना पुस्तकादि देना और औषध अन्न जल वस्त्रादि सबको देना पशुवों को सूखे तृण दन और जैसे समुद्रमें सीप मेघका जल पिया सो मोती होय परणवे है तैसे संसार विषे द्रव्यके योग से सुपात्रांको यव आदि अन्नभी दिये महा फलको फले हैं और जो धनवान होय सुपात्रों
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पद्म।
॥२४।।
तपस्वी प्रात्मध्यान में नत्परते मुनि उत्तम पात्र कहिये, तिनको भाव कर अपनीशक्ति प्रमाण अन्न जल औषध देनी तथा वन में तिनके रहनेकेनिमित्त वस्तिका करावनी तथा आर्यावों को अन्न जल वस्त्र औषधी देनी श्रावक श्राविका सम्यकदृष्टियों को अन्न जल बस्त्र औषधि इत्यादि सर्वसामग्री देनी बहुत विनय से सो पात्रदान की विधि है, दीन अंधादि दुःखित जीवों को अन्न वस्रादि देनाबंदी से छुड़ावना यह करुणादान की राति है यद्यपि यह पात्रदान तुल्य नहीं तथापि योग्य है, पुण्य का कारण है पर उपकार सोही पुण्य है और जैसे भले क्षेत्र में बोया वीज बहुत गुणा होय फले है तैसे शुद्ध चित्त कर पात्रों को दिया दान अधिक फल को पले है, और जे पापी मिथ्या दृष्टि राग द्वेषादि युक्त व्रत क्रिया रहित महामानी वे पात्र नहीं और दीन भा नहीं तिनको देना निष्फल है नरकादिक का कारण है जैसे ऊप्सर (कल्लर) खेत विषे बाया बीज वृथा जाय है और जैसे एक कूप काजल ईष विषेप्राप्त हुआ मधुरता को लहे है और नोंव विखे गया कटुकता को मजे है तथा एक सरोवर को जल गाय ने पिया सो दूध रूप होय परणवे है और सर्प ने पिया विष होय परणवे है तैसे सम्यक दृष्टि पात्रोंको भक्ति कर दिया जो दानसो शुभ फल को फले है और पापी पाखंडीमिथ्यादृष्टिअभिमानीपरिग्रही तिनको भक्ति से दियादान अशुभ फल को फले है जे मसिमहारी मद्यपानी कुशील पापको पूज्य माने तिनका सत्कार न करना जिनधमियों की सेवा करनी दुःखियों को देख दया करनी और विपरीतियों से मध्यस्थ रहना दया सर्व जीवों परससनी किसीको लशन उपजावना औरजे जिन धर्म से पराड़मुख हैं परवादी हैं ते भी घम का करना ऐसा कहे हैं परन्तु धमका स्वरूप जाने नहीं इसलिये जे विवेकी हैं वे परखकर अङ्गीकार करे हैं कैसे हैं।
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॥२५॥
| को श्रेष्ठ वस्तुका दान नहीं करेह सो निंद्य हैं दान बड़ा धम है सो विधि पूर्वक करना और पुण्य पाप || पुराण विषे भावही प्रधान है जो बिना भाव दोन करे हैं सो गिरिक सिरपर बरसे जल समानहें सो कायकारी
नहीं क्षेत्रमें बरसे है सो कार्यकारी है जो कोई सवज्ञ वीतरागको ध्यावे है और सदा विधिपूर्वक दानकर है उस के फलको कौन कहसके इसलिये भगवान के प्रतिबिंब तथा जिन मन्दिर जिन पूजा जिन प्रतिष्ठा सिद्ध क्षेत्रोंकी यात्रा चतुरविध संघकी भक्ति शास्त्रों का सर्व देशोंमें प्रचार करना यह धन खर्चनेके सप्त महा क्षेत्र हैं तिन विषे जो धन लगावे सो सफल है तथा करुणादान परोपकार विष लगे सो सफल है और जे आयुधका ग्रहण करे हैं वे द्वेष संयुक्त जानने तिनके राग द्वेषहँ तिनके मोहभी है और जे कामिनीके संगसे आभूषणों का धारणकरे हैं वे रागी जानने और मोह बिना राग दोष होयनहीं सकल दोषोंका मोह कारण है जिनके रागादि कलंकहें ते संसारी जीवहें जिनके ये नहीं वे भगवान हैं जे देश काल कामादि के सेवनहारे हैं ते मनुष्य तुल्यहें तिनम देवत्त्व नहीं तिनकी सेवा शिवपुरको कारण नहीं और किसीके पर पुण्य के उदय से शभ मनोहर फल होय है सो कुदेव सेवाका फल नहीं कदेवनकी सेवा से संसारिक सुख भी न होय तो शिवसुख कहांसे होय इसलिये कुदेवोंका सेवना बालूको पेल तेलका काढ़ना है और अग्नि के सेवन ते तृषाका बुझावना है जैसे कोई पंगु को पंगु देशान्तर न लेजायसके तैसे कुदेवों के अाराधन से परम पदकी प्राप्ति कदाचित न होय भगवान विना और देवोंके सेवनका क्लेशकर सो बृथाहै कुदेवन में देवत्व नहीं और जे कुदेवों के भक्तहें वे पात्र नहीं लोभकर प्रेरे प्राणी हिंसाकर्म विषे प्रवरते हैं. हिंसा का भय नहीं अनेक उपायकर लोकोंसे धन लेयह संसारी लोकभी लोभी सो लोभियों प ठगावें हैं इस
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पद्म
॥२५२
लिये सबदोष रहित जिन आज्ञा प्रमाण जा महा दान करे सो महा फल पावे वाणिज्य समान धर्म हेकभी किसी बणजविषे अधिक नफा होय कभी अल्प होय कदापि टोटा होय कदे मूलही जातारहे अल्पसे बहुत फल होजोय बहुतसे अल्प होजाय और जैसे विषका कणसरोवरीमें प्राप्तभयां सरोवरी को विषरूप न करे तैसे चैत्यालयादि निमित्त अल्प हिंसा सो धर्मका विघ्न न करे इसलिये गृहस्थी भगवानके मन्दिर करावें कैसे हैं गृहस्थी जिनेन्द्रकी भक्ति विषे तत्पर हैं और व्रत क्रिया प्रवीण हैं अपनी विभूति प्रमाण जिन मन्दिरकर जल चन्दन धूप दीपादिकर पूजा करनी जे जिन मन्दिरादिमें धन खरचेहें वे स्वर्गलोक में | तथा मनुष्यलोक में अत्यन्त ऊंचे भोग भोग परम पद पावे हैं और जे चतुरविध संघ को भक्तिपूर्वक दान करे हैं वे गुणोंके भाजन हैं इन्दादि पद के भोगों को पावे हैं इसलिये जे अपनी शक्ति समान सम्यक्दृष्टिपालों को भक्ति स दान करे हैं तथा दुखियोंको दयाभावकर दान करे हैं सो धन सफल है
और कुमारग में लगा जो धन सो चोरों से लूटा जानो और श्रात्यध्यानके योगसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होयहै जिनको केवलज्ञान उपजा तिनको निर्वाण पदहे सिद्ध सर्बलोक के शिखर तिष्ठे हैं सर्ववाघा रहित अष्टकर्म से रहित अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख अनन्तवीयसे संयुक्त शरीर से रहित अमूर्तिक पुरुषाकार जन्म मरणसे रहित अघिचल विराजे हैं जिनका संसारविषेत्रागमन नहीं मन इन्द्रीसे अमोचरहे ऐसा सिद्धपद धर्मात्मा जीव पावे हैं और पापीजीव लोभरूप पवन से वृद्धिको प्राप्त भई जो दुखरूप अग्नि उसमें बलते सुकृतरूप जल बिना सदा क्लेशको पावे हैं पापरूप अंधकारकेमध्य तिष्ठे मिथ्यादर्शनके वशीभूत हैं कोई यक भव्यजीव धर्मरूप सूर्यकी किरणोंसे पाप तिमिरको हर केवलज्ञानकोपावे हैं और ये जीव अशुभरूप
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पुराण
॥२५३॥
पद्म लोहके पांजरमें पड़ेश्रामाप पाशकर वेढे धर्मरूपांपाकर छूटे हैं व्याकरणसे धर्म शब्दका यही अर्थ हुवा
है जो धर्म अाचारता हुवा दुर्मतिमें पड़ातेप्राणियोंको थामे सो धर्म कहिये । उस धर्मका जो लामसो लाभ कहिये। जिनशासन विषे जो धर्मका स्वरूप को सो संचपसे तुमको कहे हैं धर्मके भेद और धर्मके फलके भेद एकाप्रमन कर सुनो । हिंसासे असत्यसे चोरीसे कुशीलसे धन और परिग्रह के संग्रह से विरक्त होना इन पापोंका त्याग करना सो महानत कहिये । विवेकियोंको उसका धारण करना और भापि निरखकर चलना हितामित सन्देहरहित बोलमा निदोंप आहार लेना यत्नस पुस्तकादि उबवना मेलना मिजंतुभूमि विषे शरीरका मल बारमा ये पांच सुमति कहिये । तिनका पालना बनकर और || मन बचन कायकी जो वृत्ति उसका प्रभाव उसका नाम तीन गुति कहिले सो परम भादरसे साधुवों को अंगीकार करनी । कोषमान मायालोभ ये काय जीवके महाशत्रु सो घमासे कोषकोजीतना और मार्दव कहिये निगर्वपरिणाम उससे मानको जीतना और चार्जव कहिये सरल परिणाम निकपटभाव उससे मायाचारको जीतना और संतोषसे लोभको जीतना शास्त्रोक धर्मके करनहारे जे मुनि उनको कषायोंका निग्रह करना योग्यई ये पंच महाबत पंच सुमात तीन गुप्ति कषाय निग्रहसोमुनि राजका धर्म है और मुमिका मुख्य धर्म त्यागहै जोसर्व त्यागी होय सोही मुनीहै और रसनास्पर्शन प्राण चतुः श्रोत्र ये प्रसिद्ध पांच इन्द्री तिनका वश करना सो धर्म है और अनशन कहिये उपवास
श्रामोदर्य कहिये अल्पाहार व्रत परिसंख्या कहिये विषम प्रतिज्ञाका घारना अटपटी बात विचारनी || कि इस विधि आहार मिलेगा तो लेवेंगे नाता नहीं और रस परित्याग कहिये रसोंका त्याग विविक्त।
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पद्म
॥२५४॥
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शय्यासनकहिये एकांत बनविबेरहना स्त्री तथा बालक तथानपुंसुकतथा ग्राम्यपशु इनकी संगतिसाधुवों को न करन तथा और भी संसारी जीवोंकी संगति नकरनी मुनिको मुनिद्दीकी संगतियोग्य है और कायक्लेश कहिये श्रीषम गिरिके शिखर शीतमें नदी के तीर वर्षामें वृक्ष के तले तीनों कालके तप करने तथा विषमभूमि रहना मासोपवासादि अनेक तप करना ये पटवाह्य तप कहे और श्राभ्यन्तरषटतप सुनो प्रायश्चित कहिये जो कोई मनसे तथावचनसेतथाकाय से दोषलगासो सरलपरिणामकर श्रीगुरसे प्रकाशकर तपादि दंड लेना औरबिनय कहिये देवगुरुशास्त्र साधर्मियोंका बिनयकरना तथा दर्शन ज्ञान चारित्रका आचरण सोही इनका विनय और इनके जे धारक तिनका आदर करना आपसे जो गुणाधिकहो उसे देखकर उठ खड़ा होना सन्मुख जाना आप नीचे बैठना उनको ऊंचे बिठाना मिष्ट वचन बोलने दुःखपीडा मेटनी और वैयात्रत कहिये जे तपसे तप्तायमान हैं रोगसे युक्त है गात्रजिनका वृद्ध हैं अथवा नव वर्षके जेबालक है तिनका नानाप्रकार यत्न करना औषधपथ्य देना उपसर्ग मेटना और स्वाध्याय कहिये जिनशासनका बचना श्राम्नायकहिये परिपाटी अनुप्रेक्षा कहिए बारंबारचितारना धर्मोपदेशकहिये धर्म का उपदेश देना और व्यतसर्ग कहिये शरीरका ममत्व तजना तथा एक दिवस आदि वर्ष पर्यंत कायोत्सर्ग धरना और ध्यान कहिए
रौद्र ध्यानका त्यागकर धर्मध्यान शुक्लध्यानका ध्यावना ये छह प्रकारके अभ्यंतर तप कहे गये वाह्या भ्यन्तर द्वादश तप सबही धर्म हैं इस घर्मके प्रभावसे भव्यजीव कर्मका नाश करे हैं और तपके प्रभाव से अद्भुत शक्ति होय सर्व मनुष्य और देवोंको जीतने के समर्थ होय है विक्रिया शक्तिकर जो चाहे सो करे विक्रियाष्टभेद अणिमा, महिमा लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य ईशत्व वशित्वसो महामुनितपो
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पुराव २०५५
निधि परम शातहें सकल इच्छासे रहितहें और ऐसीसामर्थ है चाहें तो मूर्यका आताप निवारें चंद्रमा । की शीतलता निवारें चाहें तो जलवृष्टिकर चणमात्रमें जगतको पूर्ण करें चाहें तो भस्म करें कूरदृष्टि कर देखें तो प्राण हरे कृपादृष्टि कर देखें तो रंकसे राजा करें चाहें तो रस्न स्वर्ण की वर्षा करें चाहेंतो पाषणकी वर्षा करें इत्यादि सामर्थ है परन्तु करें नहीं करें तो चारित्र का नाश होय उन मुनियों के चरमारज कर सर्व रोग जांय मनुष्योंको अद्भुत विभवके कारण तिनके चरण कमलहें जीव धर्म कर अनन्त शक्तिको प्राप्त होयहें धर्मकर कर्मनको हरे हैं और कदाचित कोऊ जन्म लेयतो सौधर्म स्वर्गादि सर्वार्थ सिद्ध पर्यंत जाय स्वर्गविवे इन्द्रपद पावें तथा इन्द्र समान विभूतिके धारक देव होंय जिनके अनेक खणके मंदिर स्वपके स्फटिक मागके वैडूर्य मणिके यंभ भोर रत्नमई भीति देदीप्यमान और सुंदर झरोखोसेशोभायमान पद्मरागमणि आदि नानाप्रकारकी ममिक शिस्वरहैं जिनके और मोतियों की झालरोंसेशोभित और जिनमहलों में अनेक चित्राम सिंहोंकेगजोंके हंसोंके स्वानों के हिरणोंकेमयूर कोकि लादिकों के दोनों भीत विषे रत्नमई विनाम शोभायमान हैं चन्द्रशालादि से युक्त ध्वजाओं की पंक्तिकर शोभित अत्यन्त मनके हरणहारे मंदिर सजे हैं श्रासनादि से संयुक्त जहां नाना प्रकार के वास्त्रि बाजे हैं आज्ञाकारी सेवक देव और महा मनोहर देवांगना अद्भुत देव लोक के मुख महा संदर सरोवर कमलादिकर संयुक्त कल्पवृत्तोंके बन बिमान आदि विभूतियें यह सभी जीव धर्मके प्रभाव करपावे हैं और कैसे हैं स्वनिवासी देव अपनी कांतिकर और दीप्ति कर चांद सूर्यको जीते हैं स्वर्गलोकविषेरात्रि आरे दिवस नहीं षटऋतु नहीं निद्रा नहीं और देवोंकाशरीर माता पितासे उत्पन्ननहीं होता
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पद्म
जब अगला देवखिर जाब तबनयीं देवउतपादिकशय्याविषे उपज है जैसे कोई मृता मनुष्यसेज से जान उठे तैसें चणमात्रमें देवउत्पादिक शय्या बिषे प्रकट होय हैं नवयोवनको प्राप्तभया कैसा है तिनका शरीर सात ।। २५६ ॥ उपधातु रहित निर्मल रजपसेव चौररोगों सेरहित सुगंध पवित्र कोमल परमशोभा युक्त नेत्रोंको प्यारा
पुराण
ऐसा उत्पादिक शुभवैन्कियक देवोंका शररि होमहे ये प्राणी धर्म से पावे हैं जिनके श्राभूषणमहा देदीप्यमान • तिनकी कांतिके समूहकर दशदिशा विषे उद्योत होरहा है औरतन देवनकेदेवांगना महासुन्दर हैं कमलों के पत्र समान सुन्दर हेंचरण जिनके और केले के थंभ समान हैं जंघा जिनकी कांचीदाम [तागडी]करथोमित सुन्दर कटि और नितंबजिनके जैसे गमों के घटोका शब्दहोय तैसे कांचीदाम की सुनघटिकाका शब्द होय है उगते चन्द्रमा से अधिक कांतिधरे है मनोहर हैं स्तनमंडल जिनका रखों के समूह से ज्योति को जीते और चांदमी को जीते ऐसी है प्रभा जिनकी मालतीफी जो माला उससे याति कोमल भुजलता है जिनकी महा अमोलिक बाचाल मशिवई चूट उनकर शोभित हैं हाथ जिनके और अशोकवृक्ष की कुंपल समान कोमल अरुण हैं हथेली जिनकी अति सुन्दर कश्की अंगुली शंख समान ग्रीवा कोकिल भीति मनोहर कर अति खोल अति सुन्दर रसके भरे घर उनकर श्राखादित कुन्दके पुष्प समान दन्त और निर्मल दपण समान सुन्दर हैं कपाल जिनके लावस्थता कर लिप्त भई हैं सर्वदिशा और अति सुन्दर तीक्षण कामके बाण समान नेत्र सो क्षेत्रों की कटाक्ष करण परयन्त प्राप्त भई हैं सोई मानो कर्णाभरण भए और पद्मराग मचि यादि अनेक गलियोंके आभूषण और मोतियोंके हार उनसे मंडित और अमर समान श्याम अति सूक्ष्म अति निम्मल प्रति चिकने अति सघन वक्रता घरे लम्बे केश
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पद्म
॥२५॥
कोमल शरीर अति मधुर स्वर अत्यन्त चतुर सर्वउपचारकी जाननहारी महा सौभाग्यवती रूपवती गुणवती मनोहर क्रीड़ाकीकरणहारीनंदनादि वनों से उपजी जो सुगन्ध उससे अति सुगन्ध हैं श्वास जिनकेपराये मनका अभिप्राय चेष्टामें जान जाय ऐसी प्रवीण पंचेन्द्रियों के सुखकी उपजावनहारी मनवांछित रूपकी धरणहारी ऐसी स्वर्ग में जे अप्सरा वह धर्म के फल से पाइये हैं और जोइच्छा करें सो चितवत मात्र सर्व सिद्धि होंय इच्छा करेंसोही उपकरणप्राप्त होंय जोचाहें सो सदा संग ही हैं देवांगनावों कर देव मनवांछित सुख भोगे हैं जो देवलोक में सुख हैं तथा मनुष्य लोक में चक्रवर्त्यादिक के सुख हैं सो सर्वधर्म का फल जिनेश्वर देव ने कहा है, और तीन लोक में जो सुख ऐसा नाम धरावे है सो सर्वधर्म से उत्पन्न होय है जे तीर्थंकर तथा चक्रवर्ति बलभद्र कामदेवादि दाता भोक्ता मर्यादाके कर्ता निरन्तर हज़ारोंराजावों तथा देवों कर सेइये हैं सो सर्व धर्म को फल है। और जो इन्द्र स्वर्ग लोकका रोज्य हज़ारों जे देव मनोहर श्राभूषण के धरणहारे तिनका प्रभुत्व धरे हैं सो सर्वधर्म का फल है, यह तो सकल शुभोपयोगरूपव्यबहारधर्म के फल कहे औरजे महामुनि निश्चयसे रत्नत्रयके धरणहारे मोहरिपुका नाशकर सिद्धपदपाये हैं सोशुद्धोपयोगरूप आत्मीक धर्मका फल है सो मुनिकाधर्म मनुष्य जन्मबिना नहींपाइये है, इसलियेमनुष्यदेहसर्वजन्मविषे श्रेष्ठ है, जैसेमृगकहियेवनकेजीव तिनमेंसिंहौरपक्षियोंमेंगरुड़ और मनुष्योमेंराजा, देवोंमेंइन्द्र तृणोंमेंशालि बृक्षों में चन्दन और पाषाणों में रत्न श्रेष्ठ हैं तैसे सकल योनियों में मनुष्यजन्म श्रेष्ठ है तीनलोकमें धर्म सार है
और धर्म में मुनि का धर्म सार है। सो मुनि का धर्म मनुष्यदेह से ही होय है इसलिये मनुष्य समान और नहीं। अनन्तकाल यह नीव परिभ्रमण करे है उस में मनुष्यजन्म कब ही पावे है यह देह महादुर्लभ है । ऐसे
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पद्म
पुराण
H२५८
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दुर्लभमनुष्यदेह को पाय जो मूढप्राणी समस्त क्लेश से रहित करनहारा जो मुनिका धर्म अथवा श्रावक का धर्म नहीं करे है सो बारम्बार दुर्गति विषे भ्रमण करे है । जैसे समुद्रमें गिरा महा गुणों का धरणहारा जो रत्न फिर हाथ आावना दुर्लभ है तैसे भव समुद्र के विषे नष्ट हुआ नरदेह फिर पावना दुर्लभ है. इस मनुष्य देह में शास्त्रोक्त धर्म का साधन कर कोई मुनिबत घर सिद्ध होय हैं और कई स्वर्ग निवासी देव तथा अहिमिन्द्र पद पावे हैं परमपरा मोक्ष पावे हैं । इसी भान्ति धर्म अधर्म के फल केवली के मुख से सुनकर सब ही हर्ष को प्राप्त भए । उस समय कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके ऐसा कुम्भकरण हाथ जोड़ नमस्कार करताभया । उपजा है प्रतिमानन्द जिसके । हे भगवान् ! मेरे अब भी तृप्ति न भई इसलिये विस्तार कर धर्मका व्याख्यान विधि पूर्वक मोहे कहो तब भगवान् अनन्तवीर्य कहते भए । हे भव्य ! धर्म का विशेष वर्णन सुनो जिससे यह प्राणी संसारके बन्धन से छूटे सो धर्म दो प्रकारका है एक महात्रत रूप दूजा अणुव्रत रूप सो महात्रतरूप यति का धर्म है अणुत्रतरूप श्रावक का धर्म है । यति घरके त्यागी हैं श्रावक गृहवासी हैं तुम प्रथम ही सर्व पापों का नाश करनहारा सर्व परिग्रह के त्यागी जे महामुनि तिनको धर्म सुनो । इस अवसर्पणी काल में अबतक ऋषभदेव से मुनिसुव्रत पर्यन्त बीस तीर्थंकर हो चुके हैं अब चार और होवेंगे इस भान्ति अनन्त भए और अनन्त होवेंगे सो सब का एक मत है यह श्रीमुनिसुव्रतनाथ का समय है । सो अनेक महापुरुष जन्म मरण के दुःख से महा भयभीत भए इस शरीर को एरण्ड की लकड़ी समान असार जान सर्व परिग्रह को त्याग कर मुनित्रत को प्राप्त भए वे साधु अहिंसा, असत्य, अचौर्य,ब्रह्मचर्य परिग्रहत्यागरूप पञ्चमहात्रत तिनमें रत तत्वज्ञानविषे तत्परपञ्चसमिति के पालनहारे,
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पद्म पुराण ॥२५॥
तीन गुप्ति के धरनहारे, निर्मलचित्त महापुरुष परमदयालु निजदेह मेंभी निर्ममत्व रागभाव रहित जहां सूर्य अस्त होय वहां ही बैठ रहें कोई आश्रय नहीं तिनके कहापरिग्रह होय पाप का उपजावनहारा जो परिग्रह सो तिनके वालके अग्रभाग मात्रभी नहीं, वे महाधीर महामुनिसिंह समान साहसी समस्त प्रबन्ध रहित पवनसारिखे असंगी तिनके रुञ्चमात्र भी संग नहीं पृथिवी समान क्षमा, जल
सारिखे विमल अग्नि सारिखे कर्मको भस्म कर आकाश सारिखे अलिप्त सर्व सम्बन्ध रहित प्रशंसा योग्य | है चेष्टा जिनकी चन्द्र सारिखे सौम्य सूर्य सारिखे तिमिर हरता समुद्र सारिखे गम्भीर पर्वत सारिखे अचल कछुवा समान इन्द्रीयों के संकोचनहारे कषायोंकी तीव्रता रहित अठाईस मूलगुण चौरासीलाख उत्तर गुणों के धारणहारे अठारह हजार शीलके भेद तिनके घारक तपोनिधि मोक्षगामी जिन धर्ममें लवलीन जिन शास्त्रोंके पारगामी और सांख्य पातञ्जल बौद्ध मीमांसक नैयायिक वैशेषिक वेदान्ती इत्यादि पर शास्त्रोंके भी वेत्ता महा बुद्धिमान सम्यग्दृष्टि यावज्जीव पोप के त्यागी यम नियम के धारनहारे परम संयमी परम शान्त परम त्यागी निगर्व अनेक ऋद्धि संयुक्त महामङ्गलमूर्ति जगत्के मण्डन महागुणवान् केईएक तो उसही भवमें कर्मकाट सिद्धहोय कईएक उत्तम देव होय दो तीन भवमें ध्यानाग्निकर समस्त कर्म काष्ठ बाल अविनाशी सुखको प्राप्त होय हैं यह यतीका धर्म कहो अब स्नेहरूपी पीजरे में पड़े जे गृहस्थी तिनका द्वादशत्रत रूप जो धर्म सो सुनो पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाबत और अपनीशक्ति प्रमाण हजारों नियम त्रस घात का त्याग और मृपावादका परिहार परधन का त्याग परदारा परित्याग और परिग्रह का परिणाम तृष्णाका त्याग ये पांच अणुव्रत और हिंसाका प्रमाण देशोंका प्रमाण जहां जिनधर्म का उद्योत
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पद्म
॥२६॥
नहीं तिन देशनका त्याग अनर्थ दण्ड का त्याग ये तीनगुणव्रत और सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि संविभाग भोगोपभोग परिणाम ये चारशिक्षाबत ये बारहवतहें अबइन ब्रतोंके भेदसुनोजैसे अपना शरीर आप को प्याराहै तैसा सबको प्याराहै असा जान सर्वजीवोंकी दयाकरनी उत्कृष्ट धर्म जीव दयाही भगवान ने कहाहैजे निर्दई जीव. तिनके रंचमात्रभी धर्म नहीं और जिसमें परजीवको पीड़ा होय सो वचन न कहना पर वाधाकारी वचन सोई मिथ्या और परउपकाररूप वचन सोई सत्य और जे पापी चोरीकरें पराया धन हरें हैं वे इस भवमें बध बन्धनादि दुखपाबे हैं कुमरण से मरे हैं और परभव नरक में पड़े हैं नानाप्रकार के दुःख पावे चोरी दुःखका मूलहै इसलिये बुद्धिमान सर्वथा पराया धन नहीं हरेहैं सो जिसकर दोनोंलोक बिगडें उसे कैसे करें और सर्पणी समान परनारीको जान दूरही से तजो यह पापनी परनारी काम लोभ के वशीभूत पुरुषकी नाश करनहारी है सर्पणी तो एक भवही प्राण हरे हैं और पर नारी अनन्त भव प्राण हरॆ हैं कुशील के पाप से निगोद में जाय हैं सो अनन्त जन्म मरण करे हैं और इसही भव में मारना ताडनादि अनेक दुःख पावे हैं यह परदारा संगम नरक निगोद के दुस्सह दुःख का देनहारा है जैसे कोई पर पुरुष अपनी स्त्री का पराभव करे तो आप को बहुत बुरा लगे अति दुःख उपजे तैसेही सकल की व्यवस्था जाननी और परिग्रह का पर माण करना बहुत तृष्णा न करनी जो यह जीव इच्छाको न रोके तो महा दुखी होय यह तृष्णाही दुःखका मूल है तुष्पा समान और ब्याधि नहीं ॥ इसके ऊपर एक कथा है सो सुनो एक भट्ट दूजा कंचन ये दोय पुरुषथे तिनमें भद्रफलादिक का बेचनहारा सो एक दीनार मात्र परिग्रहका प्रमाण करता भया एक दिवसमार्ग में दीनारोंका बटवा पड़ा ||
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देखा उसमें से एक दीनार कौतूहलकर लीनी और दूजा कांचन है नाम जिसका ताने सर्व बटुवाही उठाय पुराण | लिया सो दीनार को स्वामी राजा उसने बटवा उठवावतादेख कांचन को पिटाया और गाम में से क ढ़ाया और भद्रने एक दीनार लीनीथी सो राजाको बिना मांगे स्वमेव सौंप दीनी राजा ने भद्रका बहुत सन्मान किया ऐसा जानकर बहुत तृष्णा न करनी संतोष धरना ये पांच अणुव्रत कहे और चार दिशा चार विदिशा एक घः एक ऊर्ध इन दश दिशाका परमाण करना कि इसदिशाको एतीदूर जाऊंगा । आगे न जाऊं फिर अफ्यान कहिये खोटा चितवन पापोपदेश कहिये अशुभ कार्य का उपदेश हिंसा दान कहिये विष फांसी लोहा सीसा खडगादि शस्त्र तथा चाबुक इत्यादि जीवनके मारने के उपकरण तथा जे जाल रस्सा इत्यादि बन्धनके उपाय तिनका व्यापार और श्वान मार्जार चीतादिकका पालना और कुश्रुतिश्रवण कहिये कुशास्त्रका श्रवण प्रमादचर्या कहिये प्रमादसे वृथा छै कायके जीवों की बाधा करनी ये पांचप्रकारके अनर्थ दण्ड तजने और भोगकहिये श्राहारादिक उपभोग कहिये स्त्री वस्त्राभूषणादिक तिन का प्रमाण करना अर्थात् उसमें यह विचार जे अभक्ष्य भक्ष्यणादि परदारा सेवनादि अयोग्य विषयहैं तिन का तो सर्वथा त्याग और जे योग्याहार तथा स्वदारासेवनादि तिनका नियमरूप प्रमाण यह भोगोपभोम परिसंख्या कहिये ये तीन गुणव्रत कहे और समायिक कहिये समताभाव पंचपरमेष्ठी और जिनधर्म जिनवचन जिनप्रतिमा जिनमन्दिर तिनका स्तंबन और सर्व जीवोंसे क्षमाभावसो प्रभात मध्यान्ह सायंकाल छैछै घड़ी तथा चार २ घड़ी तथा दोदो घड़ी अवश्य करना और प्रोषधोपवास कहिये दो आठे दो चौदस एकमासमें चार उपवास षोड़श पहर के पोसे संयुक्त अवश्य करने सोलह पहरतक संसारके कार्यका त्यागकरना आत्मचिंतन
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पद्म
॥२६२॥
तथा जिन भजन करना और अतिथि संविभाग कहिये अतिथि जे परिग्रह रहित मुनि जिन के तिथिवारका पुरा विचार नहीं सो आहारके निमित्त आवें महागुणोंके धारक तिनका विधिपूर्वक अपने वित्तानुसार बहुत आदर से योग्य आहार देना और मायके अन्त में अनशन ब्रतघर समाधिमरण करना सो संलेषनात्रत कहिये ये चार शिक्षात कहे पांच अणुव्रत तीनगुप् व्रत चार शिक्षात्रत ये बारहबत जानने जे जिनधर्मी हैं तिनके मद्यमांस मधु माषण उदवरादि अयोग्य फल रात्री भोजन बींधा अन्न अनवानाजल परदारा तथा दासी वेश्यासंगम इत्यादि अयोग्य क्रियाका सर्वथा त्याग है यह श्रावकके धर्म पालकर समाधि मरणकर उत्तम देव होय फिर उत्तम मनुष्य होय सिद्ध पदपावे है और जे शास्त्रोक्त आचारण करने को असमर्थ हैं न श्रावक पालें न यतिकेपरंतु जिनभाषित की दृढ़ श्रद्धा है तेभीनिकटसंसारी हैं सम्यक्त के प्रसाद से व्रतको धारणकर शिवपुरको प्राप्त होय हैं सर्वलाभमें श्रेष्ठजो सम्यकदर्शनका लाभ उससे ये जीव दुर्गतिक त्रास से छूटे हैं जो प्राणीभावसे भीजिनेंद्रदेवको नमस्कार करे हैं सो पुण्याधिकारी पापोंके क्लेश से निवृत होय हैं और जो प्राणभाव कर सर्वज्ञदेवको सुमरे हैं उस भव्यजीवके अशुभकर्म कोटभव के उपारजे तत्काल चय होय हैं और जो महाभाग्य त्रैलोक्य में सार जो अरिहंतदेव तिनको हृदयमें धारें हैं सो भव कूप में नहीं परे हैं उसके निरन्तर सर्व भाव प्रशस्त हैं और उसको अशुभ स्वप्न न आवें शुभ स्वप्नही
और शुभ शकुनही होयहैं और जो उत्तम जन " अर्हतेनमः,, यह बचन भावसे कहे हैं उस के शीघ्र ही मलिन कर्मका नाश होय है इस में संदेह नहीं मुक्ति योग्य प्राणीका चित्त रूप कुमद परम निर्मल वीतराग जिनचन्द्र की कथारूप जो किरण तिनके प्रसंगसे प्रफुल्लित होय है और जो विवेकी
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॥२६३॥
अरिहन्त सिद्ध साधुवोंके ताई नमस्कारकरे हैं सो सर्व जिन धर्मियोंका प्याराहै उसे अल्प संसारी जानना पुराण और जो उदारचित्त श्रीभगवानके चैत्यालय कराके जिनबिम्ब पधरावे हैं जिनपूजा करे हैं जिनस्तुति
करे हैं उसके इस जगतहीमें कुछ दुर्लभनहीं नरनाथकहिये राजा हो अथवा कुटम्बी कहिये किसान || होवे धनाम्यहोवे तथा दलिदीहोवे जो मनुष्य धर्मसे युक्तहै सो सर्व त्रैलोक्यमें पूज्यहै । जे नर महा विनयवान, और कृत्य अकृत्यके विचारमें प्रवीणहें कियह कार्यकरना यह नकरना ऐसा विवेक धरे हैं वे विवेकी धर्मके संयोगसे गृहस्थियोंमें मुख्यहें जेजन मधुमांस मद्यप्रादि अभक्ष्यका संसर्ग नहीं करे हैं तिनहीका जीवन सफल है । और शंका कहिये जिन बचनमें संदेह कांक्षा कहिये इस भवमें और परभवमें भोगोंकी बांछा विचिकित्सा कहिये रोगी वा दुखीको देख घृणा करणी आदर नहीं करना और आत्मज्ञानसे दूर जे परदृष्टि कहिये जिन धर्म से पराङ्मुख मिथ्यामार्गी तिनकी प्रशंसा करनी और अन्यशासन कहिये हिंसामार्ग उसके सेवन हारे जे निर्दयी मिथ्या दृष्टि उनके निकट जाय स्तुति करना ये पंच सम्यक दर्शन के अतीचार, तिनके त्यागी जे जन्तु कहिये प्राणी वे गृहस्थियोंमें मुख्य हैं और जो प्रियदर्शन कहिये प्यारा है दर्शन जिलको मुन्दर वस्त्राभरण पहिरे सुगन्ध शरीर पयादा धरतीको देखता निर्विकार जिनमंदिरमें जायहै शुभ कार्यों में उद्यमी उसके पुण्यका पार नहीं और जो पराए द्रव्यको तृण समान देखे हैं और परजीवको श्राप समान देखे हैं और परनारीको मातासमान देखे हैं सो धन्य धन्य धन्य हैं और जिसके ये भावहैं कि ऐसा दिन कब होयगा जोमै जिनेंद्री दीक्षा | लेकर महामुनि होय पृथ्वीविषे निर्द्वन्द्व बिहार करूंगा ये कर्म शत्रु अनादिके लगे हैं तिनका क्षयकर
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पद्म
१२६४॥
कव शिवपदको प्राप्त होऊगा इस भांति निरन्तर ध्यानकर निर्मल भयाहै चित्त जिसका उसके कर्म कैसे रहें भयकर भागजाय कैयक विवेकी सात अाठ भवमें मुक्ति जायहें कैयक दोतीन भवमें संसार समुद्र के पार होयह कैयक चरमशरीरी उग्रतपकर शुद्धोपयोगके प्रसादसे तदभव मोक्ष होप हैं जैसे कोई मार्ग का जाननहारा पुरुषशीघ्र चले तो शीघ्रही स्थानकको जाय पहुंचे और कोई धीरेधीरे चले तो घने दिन में जाय पहुंचे परंतुमार्गचले सो पहुंचेही और जो मार्गहीन आने और सोसो योजन चले तोभी भ्रमता ही रहे स्थानकको न पहुंचे तैसे मिथ्यादृष्टि उग्रतपकरें लोभी जन्ममरण वर्जित जो अविनाशीपद उसे न प्राप्त होयं संसार बनहीमें भ्रमे नहीं पायाहै मुक्किा मार्ग जिन्होंने कैसा है संसारबन मोहरूप अंध कारकर पाछादितहे और कषायरूप सोकर भराहै जिस जीवके शील नहीं ब्रत नहीं सम्यक्तनहीं स्याम नहीं वैराग्य नहीं सो संसार समुद्रको कैसे तिरे जैस विन्ध्याचल पर्वतसे चला जो नदीका प्रवाह उस कर पर्वत समान ऊंचे हाथी वहजांय तहां एक सुस्साक्यों न बहे तैसे जन्म जरा मरणरूप भूमणको धरे संसाररूप जो प्रवाह उसविषे जे कुतीर्थी कहिये मिथ्यामार्गी अज्ञान तापसहै वेई डूबे हैं फिर उनके भक्तोंका क्या कहना जैसे शिलाजल विषे तिरणे शक्त नहीं तैसे परिग्रह के धारी कुदृष्टि शरणागतों को तारने समर्थ नहीं औरजे तत्वज्ञानी तपकर पापोंके भस्म करणहारे हलवे होयगएहैं कर्म जिनके वे उपदेश थकी प्राणियोंको तारने समर्थ हैं यह संसार सागर महा भयानक है इसमें यह मनुष्य क्षेत्र रत्नदीप समानहै सो महा कष्टसे पाइये है इस लिये बुद्धिवन्तोंको इस रत्नदीप विषे नेमरूप रत्नग्रहणे अवश्य योग्यहै यह प्राणी इस देहको तजकर परभव विषे जायगा और जैसे कोई मूर्ख तागाके अर्थ
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॥२६॥
| महा मणि को चूर्ण करे तैसे यह जड़बुद्धि विषेके अर्थ धर्मरत्न को चूर्ण करे है और ज्ञानी जीवोंको,
सदा द्वादश अनुप्रेक्षाका चिन्तवन करणा कि ये शरीरादि सर्व अनित्यहै श्रात्मा नित्यहै इस संसार में । कोई शरणनहीं आपको श्रापही शरणहै तथा पंच परमेष्ठी का शरणहैं और संसार महा दुख रूप है चतुरगतिविषे किसीठौर सुख नहीं एक सुखका धाम सिद्धपदहै यह जीव सदा अकेलाहै इसका कोई संगी नहीं और सर्व द्रव्य जुदे २ हैं कोई किसी से मिले नहीं और यह शरीर महाअशुचि है मल मूत्र का भरा भाजन हैात्मा निर्मल है और मिस्थात्व अव्रत कषाययोग प्रमादों कर कर्म का आश्रबहोय है और व्रत सुमति गुप्ति दस लक्षण धर्म अनुप्रेक्षा चिन्तवन परीपहजय चारित्र से संबर होय हैाश्रव कारोकना सो संबर और तप कर पूर्वोपार्जित कर्म की निर्जग होयहै और यह लोक षटद्रव्यात्मक अनादि अकृतिम शास्वत है लोक के शिखर में सिद्धिलोक है लोकालोक का ज्ञायकात्मा है और जो आत्मस्वभाव सोही धर्म है जीवदयाधर्म है और जगत विषे शुद्धोपयोग दुर्लभहै सोई निर्वाणका कारण है येद्वादश अनुप्रेक्षा विवेकी सदाचिंतवे इसभांत मुनि और श्रावकके धर्म कहे अपनीशक्तिप्रमाण जोधर्म सेवे उत्कृष्ट मध्यमतथा जघन्य सोसुरलोकादिविषेतैसाहीफल पावें इसभांति केवली ने जब कही तब भानुकर्ण कहिये कुम्भकर्ण ने केवली से पूछा हेनाथ भेदसहित नियम का स्वरूप जानना चाहूं हूं तब भगवान ने कही हेकुम्भकर्ण नियम में औरतपमें भेद नहीं नियम करयुक्त जो प्राणी सो तपस्वी कहिये । इसलिये बुद्धिमान नियम विषे सर्वथायत्न करे जेताअधिक नियम करे सोही भला और जो बहुत न | | बने तो अल्पही नियम करना परन्तुनियम बिना न रहना जैसे बने सुकृतका उपार्जन करना, जैसे मेघ ।
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पुराण ॥२६॥
की वून्द परे हैं तिन बुन्दों कर महानदी का प्रवाह होय जाय है सो समुद्र विष जाय मिले है तैसे जो पुरुष दिन विपे एक महूर्त मात्र भी अाहार का त्याग करे सो एक मास में एक उपवास के फल को प्राप्त होय उस कर स्वर्गविषे बहुतकाल सुख भोगे मनवांछितभोग प्राप्तहोय जो कोई जिनमार्ग की श्रद्धा करता संता यथाशक्ति तपनियम करे तो उस महात्मा के दीर्घकाल स्वर्गविषमुखहोय औरस्वर्गसेचयकर मनुष्यभव विषे उत्तमभोगपावे है एकप्रज्ञान तापसी की पुत्रीबनविषेरहे सो महादुःखवंती बदरीफल (बेर) आदि करअजीविका पूर्णकरे उसने सत्संगसे एकमहूर्त मात्रभोजन का नियमलिया उसके प्रभावसेएकदिन राजाने देखी श्रादरसे परणी बहुतसंपदा पाई औरधर्मविषे बहुतसावधान भईअनेकनियम अादरे सो जो प्राणी कपटरहितहोय जिनवचन कोधारण करे सो निरंतरसुखीहोयपरलोक बिषेउत्तमगति पावैऔरजो दोमुहूर्तदिवस प्रतिभोजन का त्यागकरे उसकेएकमासमेंदोउपवासकाफलहोयतीसमुहूर्तका एकअहो रात्र गिनों औरतीन महूर्तप्रतिदिन अन्न जल का त्याग करे तो एकमास में तीन उपवास का फलहोयइसी भांति जेता अधिक नियम तेताही अधिक फल नियमके प्रसादसे ये प्राणी स्वर्गमे अद्भुत सुखभोगे हैं और स्वर्ग से चय कर अद्भुत चेष्टा के धारन हारे मनुष्य होय हैं महा कुलवन्ती महा रूपवन्ती महोगुणवन्ती महालावण्य कर लिप्त मोतियों के हार पहरे और मन केहरनहारे जे हाव भाव विलास विभ्रम तिन को धरेंजे शीलवन्ती स्त्रीतिन के पति होयह ौ स्त्री स्वर्ग से चय कर बडे कुल में उपजबडे राजावों की राणी होय हैं, लक्ष्मीसमान है स्वरूप जिनका और जोप्राणी रात्रि भोजनका त्याग करे हैं और जलमात्र नहीं रहे हैं उसके अति पुण्य उपजे हैं पुण्य कर अधिक प्रताप होय है और जो सम्यकदृष्टि |
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॥२६॥
व्रतधारे उसके फलका क्या कहना विशेष फल पावें स्वर्ग विवे रत्नमई विमान वहां अप्सरावों के समूह पुराण केमध्यमें बहुत काल धर्मके प्रभावकर तिष्ठे हैं फिर दुर्लभ मनुष्य देही पावें इस लिये सदा धर्मरूप रहना | और सदा जिनराजकी उपासना करनी जे धर्म परायण हैं उनको जिनेन्द्रकी आराधनाही परम श्रेष्ठ है
कैसे हैं जिनेन्द्रदेव जिनके समोसरणकी भूमि रत्न कंचन निरमापित देव मनुष्य तिर्यचों कर वन्दनीक हैं जिनेन्द्र देव जिनके पाठ प्रातिहार्य चौंतीस अतिशय महाअद्भूत हजारां सूर्य समान तेज महासुन्दर | रूप नेत्रोंकोसुखदाता, जो भव्यजीव भगवान को भावकर प्रणामकरें सो विचक्षण थोड़ेहीकाल में संसार | समुद्र को तिर श्रीवीतरागदेव के सिवाय कोई दूसरा जीवोंको कल्याण की प्राप्तिका उपाय नहीं इसलिये जिनेन्द्रचन्द्रहीका सेवन योग्य है और अन्य हजारों मिथ्यामार्ग उवट मार्ग हैं तिनमें प्रमादी जीव भूल कर पड़े हैं तिनके सम्यक्त नहीं और मद्य मांसादिक के सेवन से दया नहीं और जैन विषे परम दयाहै रंचमात्र भी दोपकी प्ररूपणा नहीं और अज्ञानी जीवों के यह बड़ी जड़ता है जो दिवस में आहार का त्याग करें और रात्री में भोजन कर पाप उपार्जे चार पहर दिन अनशन व्रत किया उसका फल रात्री भोजन से जाता रहे महा पापका बन्ध होय रात्रीका भोजन महा अधर्म जिन पापियों ने धर्म कह कल्पा कठोर है चित्त जिनका उनको प्रति बोधना बहुत कठिन है जब सूर्य अस्त होय जीव जन्तु दृष्टि न पावें तब जो पापी विषयों का लालची भोचन करे है सो दुरगति के दुःखको प्राप्ति होय हैं योग्य अयोग्य को नहीं जाने हैं सो अविवेकी पाप बुद्धि अन्धकार के पटल कर आच्छादित भए हैं नेत्र जिसके रात्री को भोजन करे हैं सो मक्षिका कीट केशादिक का भक्षण करे हैं जो रात्री भोजन
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पुरास
॥६८०
करे हैं सा डाकनि राक्षस स्वास मार्जार मूसा आदिक मलिन प्राणियों का उच्छिष्ट आहार कर हैं। बहुत प्रपंच कर क्या सर्वथा यह ब्याख्यानहै कि जो रात्री को भोजन करे हैं सो सर्व अशुचिका भोजन करे है सूर्य के अस्त भए पीछे कछु दृष्टि न आवे इसलिये दोय महूर्त दिवस वाकी रहे तवसे लेकर दो महूर्त दिन चढ़े तक विवेकियों को चौविधि आहार न करना प्रशन पान खाद स्वाद ये चार प्रकार के आहार तजने जे रात्री भोजन करे हैं वे मनुष्य नहीं पशु हैं जो जिन शासनसे विमुख व्रत नियम से रहित रात्री दिवस भखवेही करे, सो परलोकमें कैसे सुखी होंय जो दया रहित जीव जिनेन्द्रकी जिन धर्म की और धर्मात्मावों की निंदा करे हैं सो परभव में महा नरकमें जाय हैं और नरक से निकस कर तिर्यंच तथा मनुष्य होय सो दुरगन्धमुख होय, मांस मद्य मधु निशिभोजन चोरी और परनारी जो सेवे हैं सो दोनों जन्म खोवे हैं जो रात्री भोजन करे हैं सो अल्प आयु हीन ब्याधि पीड़ित सुख रहित महाँ दुखी होय हैं रात्री भोजन के पाप से बहुतकाल जन्म मरण के दुख पावें हैं गर्भवास विषे बसे हैं रात्री भोजी अनाचारी शूकर कूकर गरदभ, मार्जार, स्याली, काग, वन, नरकनिगोद स्थावर त्रस अनेक योनियोमें बहुतकाल भ्रमण करे हैं हजारों अवसर्पणीकाल और हजारों उत्सर्पणी काल योनियोंमें दुःख भोगे हैं जो कुवुद्धि निशि भोजन करे हैं सो निशाचर कहिये राक्षस समानहें और जो भव्यजीव जिनधर्मको पायकर नियमोंमें तिष्ठे हैं सो समस्त पापोंको भस्मकर मोक्ष पदको पावे हे जे अणुव्रतोंमें परायण रत्नत्रय के धारक श्रावक हैं वे दिवसमेंही भोजन करेंदोषरहित योग्य आहार करें जे दयावान रात्रीभोजन न करें वे स्वर्ग में सुख भोगकर वहांसे चयकर चक्रवर्त्तादिक के सुख भोगे हैं शुभ है चेष्टा जिनकी उत्तमव्रत चेष्टा ।
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पद्म
पुराण
॥२६॥
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के धरनहारे सौधर्मादि स्वर्गविषे ऐसे भोग पावे जो मनुष्यों को दुरलभ हैं और देवोंसे मनुष्य होय सिद्ध पद पावें हैं कैसे मनुष्यहोंयचक्रवर्ति कामदेव, बलदेव, महा मण्डलीक महाराजाधिराज महा विभूति के धनी, महागुणवान उदारचित्त दीरघायु सुन्दररूप जिनधर्म के मर्मी जगत्के हितु अनेक नगर ग्रामादिकों के अधिपति नाना प्रकारके वाहनोंकर मण्डित सर्व लोक के वल्लभ अनेक सामन्तों के स्वामी दुस्सह तेज के धारनहारे ऐसे राजा होय हैं अथवा राजावों के मन्त्री पुरोहित सेनापति राजश्रेष्ठी तथा श्रेष्ठ बड़े उमराव महा सामन्त मनुष्यों में यह पद रात्री भोजन के त्यागी पावे हैं देवोंके इन्द्र भवन वासियों के इन्द्र चक्रके धनी मनुष्यों के इन्द्र महालक्षणों कर सम्पूर्ण दिन भोजी होय हैं सूर्य सारिखे प्रतापी चन्द्रमा सारिखे सौम्यदर्शन अस्त को प्राप्त न होय प्रताप जिनका देवों समान भोग जिनके ऐसे तेई होवेंगे जो सूर्य अस्त भए पीछे भोजन न करें और स्त्री रात्री भोजनके पाप से माता पिता भाई कुटम्बरहित अनाथ कहिये पति रहित भागिनी शोक दलिद कर पूर्ण रूक्षे फटे धर हस्त पादादि सुका शरीर चिपटी नासिका जो देखे सो ग्लानि करे दुष्ट लक्षण बुरी, मांजरी, यांधी, लूली, गूंगी, बहरी, बावरी, कानी, चीपड़ी दुरगंध स्थूल घर खोटे कणं भूरे ऊंचे बुरे सिरके केश तूंबड़ी के बीज समान दांत कुवरण कुलक्षण कांति रहित कठोर अंग अनेक रोगों की भरी मलिन फटे वस्त्र उच्छिष्ट की भक्षणहारी पराई मंजूरी करणहारी नारी होय है रात्रि भोजनकी करणहारी नारी जो पति पावे तो कुरूप कुशील कोढ़ी बुरे कान बुरा नाक बुरी आंखें चिंतावान घन कुटंब रहित ऐसा पावें रात्री भोजन से विवा बालविधवा महादुखवन्ती जल काष्ठादिक भार के बहनहारी देख कर भरे है उदर जिसका सर्व
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लोग करे हैं अपमान जिसका वचनरूप बसोलोंकर छीला है चित्त जिसका अनेक फोड़ा फुनसी की पुराधरणहारी ऐसी नारी होय हैं और जे नारी शीलवन्ती शान्त है चित्त जिनका दयावन्ती रात्रि भोजन का त्याग करे हैं वे स्वर्ग में मन फांछित भोग पावे हैं उनकी आज्ञा अनेक देव देवी सिरपर धारे हैं हाथ जोड़ सिर निवाय सेवा करे हैं स्वर्गमें मन बांछित भोग कर और महा लक्ष्मीवान ऊंचकुलमें जन्मपावे हैं शुभ लक्षण संपूरण सब गुण मण्डित सर्वकला प्रवीण देखनहारों के मन और नेत्रोंकी हर हारी अमृत समान वचन बोलें श्रानन्दकी उपजावनहारी जिनके परिणवेकी अभिलाषा चक्रवर्त्त बलदेव बासुदेव तथा विद्याधरोंके अधिपति राखें विजुरी समान है कांति जिनकी कमल समान है बदन जिनका सुन्दर कुंडल आदि आभूषणकी घरणहारी सुन्दर वस्त्रोंकी पहरनेवाली नरेन्द्रकी राणी दिन भोजनसे होय हैं जिन के मन बांधित अन्न न होयहैं और अनेक सेवक नाना प्रकारकी सेवा करें जे दयावन्ती रात्रिमें भोजन न करें वे श्रीकांता सुप्रभा सुभद्रा लक्ष्मी तुल्य होवें इसलिये नर अथवा नारी नियमविषे है चित्त जिनका निशिभोजनका त्याग करें यह रात्रिभोजन अनेक कष्टका देनहारा है रात्री भोजनके त्यागमें अति अल्प कष्ट है परन्तु इसके फलसे सुख अति उत्कृष्ट होय है इसलिये विबेकी यह व्रत आदरें अपने कल्याण को कौन न बांबे धर्म तो सुखकी उत्पत्ति का मूल है और अधर्म दुखका मूल है ऐसा जानकर धर्मको भजो अधर्मको तजो यह वार्ता लोकमें समस्त बालगोपाल जाने हैं कि धर्म से सुख होय है और अधर्म से दुःखहोय है धर्मका महात्म्य देखो जिससे देवलोकके चए उत्तममनुष्य होय हैं जलस्थल के उपजे जे रत्न तिनके स्वामी और जगतकी मायासे उदास परंतु कैएक दिनतक महाविभूति के धनी होय गृहवास भोगे
॥२७०॥
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हैं जिनकस्वर्ण रत्नबस्नधान्योंकेअनेकभंडारहैं जिनकेविभवकी बड़े २ सामंत नानाप्रकारके आयुधोंकेधारक ४ २०१।। रक्षा करें तिनके बहुत हाथी घोड़े रथ पयादे बहुत गाय भैंस अनेक देश ग्रामनगर मनके हरनहारे पांच
इंद्रियों के विषय और हंसनीकीसी चाल चलें अति सुन्दरशुभलक्षण मधुर शब्द नेत्रोंको प्रिय मनोहर चेष्टाकी धरणहारी नानाप्रकार आभूषणकी धरणहारी स्त्री होयहैं । सकल सुखका मूल जो धर्महै उसे कैयक मूर्ख जानेही नहीं इसलिये तिनके धर्मका यत्ननहीं और कैएकमनुष्य सुनकर जाने हैं कि धर्म भलाहै परंतु पापकर्म के बशसे अकार्य में प्रवरते हैं सुखका उपाय जो धर्म उसे नहीं सेवे हैं और कैएक अशुभ कर्मके उपशांत होते उत्तम चेष्टा के धरणहारे श्रीगुरु के निकट जाय धर्म का स्वरूप उद्यमी होय पूछे हैं वे श्रीगुरु के बचन के प्रभाव से बस्तुका रहस्य जानकर श्रेष्ठ प्राचरणको आचरे हैं यह नियम जे धर्मात्मा बुद्धिमान पापक्रिया से रहित होयकर करें हैं वे महा गुणवन्त स्वर्गों के अद्भुत सुख भोगे हैं परंपराय माच पावे हैं जे मुनिराजों को निरंतर पाहार देय हैं और जिनके ऐसा नियम है कि मुनिके आहार का समय टार भोजन करें पहिले न करें वे धन्यहें उनके दर्शन की अभिलाषा देवभी राखे हैं दानके प्रभावसे यह ममुष्य इंद्रका पद पावें अथवा मन बांछित सुखका भोक्ता इंद्रके बराबरके देव होयहैं जैसे बटा बीज अल्प है सो बड़ा वृक्ष होय परणवे है तैसे दान तप अल्प भी महा फलके दाताहैं एकसहमभट सुभटने यह व्रतलियाथा कि मुनिके आहारकी बेला उलंघकर भोजन करूंगा सो एक दिन ऋद्धि के धारी मुनि आहार को आए सो निरंतराय श्राहार भया तबरत्नवृष्टि | आदि पंचाश्चर्य सुभट के घर भए वह सहमभट धर्मके प्रसाद से कुवेरकांत सेठ भया सब के नेत्रोंको
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पद्म
॥२२॥
प्रिय धर्म में जिसकी बुद्धि सदा आसक्तहै पृथ्वी में विख्यात है नाम जिसका उदार पराक्रमी महा पुराण || धनवान जिसके अनेक सेवक जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा तैसा कांतिधारी परम भोगों का भोक्ता
सर्व शास्त्र प्रवीण पूर्व धर्म के प्रभावसे ऐसा भया फिर संसारसे विरक्त होय जिन दीक्षा प्रादरी संसार को पार भया इसलिये जे साधुके थाहारके समयसे पहिले अाहार न करनेका नियम धारे हैं वे हरिषेणी चक्रवर्तीकी न्याई महा उत्सव को प्राप्त होय, हरिषेणी चक्रवर्ती भी इसही व्रतके प्रभावसे महा पुण्य । को उपार्जन कर अत्यन्त लक्ष्मी का नाथ भया ऐसेंही जे सम्यक दृष्टि समाधानके धारी भव्य जीव मुनिके निकट जायकर एकबार भोजनका नियमकरे हैं वे एक भुक्तिके प्रभावकर स्वर्गविमानविषयउपजे । हैं जहां सदा प्रकाशहै और रात्रिदिवस नहीं निदानहीं वहां सागरांपर्यंत अप्सराओंकेमध्य रमें हैं मोतियों के हार रत्नोंके कड़े कटिसूत्र मुकुट बाजूबन्द इत्यादि आभूषण पहरें जिनपर छत्र फिरें चमर ढुरें ऐसे देवलोकके सुखभोग चक्रवर्त्यादि पद पावे हैं उत्तमब्रतोंमें आसक्त जे अणुव्रतके धारक श्रावग शरीरको बिनाशीक जानकर शांत भयाहै हृदय जिनका अष्टमी चतुर्दशीका उपवास मन शुद्ध होय पोषह संयुक्त धारे हैं वे सौधर्मादि सोल्हवें स्वर्ग में उपजे हैं फिर मनुष्य होय भवबनको तजे हैं मुनिव्रतके प्रभाव | से अहिमिन्द्रपद तथा मुक्तिपद पावे हैं जे ब्रत गुणशील तपकर मंडितहैं वे साधु जिनशासनके प्रसाद | से सर्व कर्म रहितहोय सिद्धोंका पद पावे हैं । जे तीनोंकालमें जिनेंद्रदेवकी स्तुतिकर मन बचन काय ! कर नमस्कार करे हैं और सुमेरुपर्वत सारिखे अचल मिथ्या स्वरूप पवनकर नहीं चले हैं गुण रूप गहने पहरें शीलरूप सुगंध लगाएहैं सो कईएक भव उत्तमदेव उत्तम मनुष्यके सुख भोगकर परम स्थानको
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॥२३॥
पद्म प्राप्त होयहें जे इंद्रियों के विषय इस जीवने जगत्में अनंतकाल भोगे तिन विषयोंसे मोहित भया विरक्त पुराण
भावको नहीं भजे है यह बड़ा आश्चर्य है जो इन विषयों को विषमिश्रित अन्न समान जानकर पुरुषोतम काहये चक्रवर्ती श्रादि उत्तम पुरुष भी सेवे] । संसारमें भूमते हुवे इस जीवके जो सम्यक्त उपजे
और एकभी नियम प्रत साधे तो यह मुक्ति का बीज है और जिन प्राणधारियों के एक भी नियम नहीं वे पशु हैं.अयवा फूटे कलशहँ गुण रहित हैं । और जे भव्य जीव संसार समुद्रको तिराचाहे हैं वे प्रमाद रहित होय गुण और ब्रतोंसे पूर्ण सदा नियमरूप रहें जे मनुष्य कुबुद्धि खोटे कर्म नहीं तजे हैं
और व्रत नियमको नहीं भजे हैं वे जन्मके अन्धे की न्याई अनंतकाल भवबनमें भटके हैं इस भांति जे श्रीअनन्तवार्य केवली वेई भए तीनलोकके चन्द्रमा तिनके बचनरूप किरणके प्रभावसे देव विद्याघर भूमि गोचरी मनुष्य तथा तियच सर्वही श्रानंदको प्राप्त भए कई एक उत्तम मानवी मुनि भए तया श्रावग भए सम्यक्त को प्राप्त भए और कईएक उत्तम तिर्यंच भी सम्यक दृष्ट श्रावग अणुव्रत धारी भए और चतुरनिकायके देवोंमें कईएक सम्यक दृष्टि भए क्योंकि देवों के व्रत नहीं। ___अथानन्तर एक धर्मरथ नामा मुनि रावणको कहते भए हे भद्र कहिये भव्यजीव तृभी अपनी शक्ति प्रमाण कछु नियम धारणकर यह धर्मरत्नका दीप है और भगवान केवली महा महेश्वर हैं इस रत्न दीपसे कछु नियम नामा रत्न ग्रहणकर क्यों चिन्ताके भारके बश होय रहाहै महा पुरुषों के त्याग खद का कारण नहीं जैसे कोई रत्न द्वीपमें प्रवेश करे और उसका मन भ्रमेजो में कैसा रत्न लूं तैसे इस का | मन आकलित भया जोमें कैसावत लं यह रावण भोगासक्त सो इस के चित्त में यह चिन्ता उपजी।
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पुराण
॥२१४॥
कि मेरे खान पान तो सहजही पवित्र, सुगन्ध मनोहर पुष्टक शुभ स्वाद मांसादि मलिन बस्तु क प्रसंग से रहित आहारहै और अहिंसा व्रतादि श्रावगका एकभी व्रत करिवेसमर्थ नहीं मैं अणुवत भी धारवेसमर्थनहीं तो महाबतकैसे धारूं माते हाथीसमान चित्तमेरा सर्ववस्तुवों में भ्रमता फिरे है मैं आत्म भाव रूपअंकुस से इस को वसकरवे समर्थ नहीं जे निग्रन्थका वृत धरे हैं वे अमि की ज्वाला पीवे हैं और पवन को बस्त्रमें बांधनाचाहें हैं और पहाड़को उठावनाचाहें हैं मैं महा शूरवीरभी तपबतधरने समर्थ नहींअहो धन्यहवेनरोत्तम जो मुनिव्रत धरे हैं में एकयह नियम धरूं जो परस्त्री अत्यन्त रूपवतीभी होय तो भी उसे बलात्कार से न छुवू अथवा सर्वलोक में ऐसी कौन रूपवती नारी है जो मुझे देखकर मनमथ की पीड़ी विकल न होय अथवा ऐसी कौन परस्त्री है जो विवेकी जीवों के मनको बशकरे कैसी है पर स्त्री परपुरुष के संयोग से दुखित है अंग जिसका स्वभाव ही से दुर्गंध विष्टा की राशि में कहां राग उपजे ऐसा मनमे विचार भाव सहित अनन्त बीर्य केवली कोप्रणाम करदेवमनुष्य असुरोंकी साचितामें प्रगट ऐसा बचन कहता भया ,हे भगवान इच्छा रहित जो परनारी उसे मैंनसेवं यहमेरेनियम है और कुम्भकर्ण अर्हन्त सिद्ध साधु केवली भाषित धर्म का शरण अंगीकार कर सुमेरुपर्वत सारिखा है अचल चित्त जिसका सो यह नियम करता भया कि मैं प्रातही उठकर प्रति दिन जिनेंद्र की अभिषेक पूजा स्तुति कर मुनिको विधिपूर्वक आहार देयकर आहार करूंगा अन्यथा नहीं मुनि के अाहारकी बेला पहिले सर्वथा भोजन न करूंगा और सर्वसाधुओंकोनमस्कारकर और भी घने नियमलिये और देवकहियेकल्पवासी | असुर कहिये भवनत्रिक और विद्याधर मनुष्य हर्ष से प्रफुल्लितहैं नेत्रजिनके। सर्व केवली को नमस्कार कर
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पुराण
अपने अपने स्थानक गए रावणभी इन्द्रकीसी लीला धरेप्रबल पराक्रमी लंकाकीओर पयान करता भया
और आकाश के मार्ग शीघ्रही लंका में प्रवेश किया कैसाहै रावण समस्त नरनारियों के समूह से किया है गुण वरणन जिसका और कैसी है लंका वस्त्रादि कर बहुत समारी है रावण राजमहल में प्रवेश कर सुखसे तिष्ठतेभए राजमन्दिर सर्व सुखका भराहै। हेश्रेणिक पुण्याधिकारी जीवोंके जबशुभकर्मका उदयहोय है तब नानाप्रकारकी सामग्रीका विस्तार होयहै गुरुके मुखसे धर्मका उपदेश पाय परमपदके अधिकारी होय हैं ऐसा जान कर जिन श्रुति में उद्यमी है मन जिन का वे वारंवार निजपरका विचारकरधर्मका सेवन करें विनयकर जिन शास्त्र सुनने वालोंके जोज्ञानहै सो रविसमान प्रकाशको धरे है मोहतिमिर का नाश करे है
इति चौदहवां पर्व सम्पूर्णम्।। अथानन्तर उसही केवली के निकट हनुमान ने श्रावक के व्रत लिये और विभीषण ने भी बत | लिए भाव श्रुद्ध होय व्रत नियम आदरे जैसा सुमेरु पर्वत का स्थिरपना होय उससे अधिक हनूमान् का || शोल और सम्यक्त परम निश्चल प्रशंसा योग्य है जब गौतम स्वामी ने हनुमान का अत्यंय सौभाग्य
आदि वर्णन किया तब मगध देशके राजा श्रेणिक हर्षित होय गौतम स्वामी से पूछते भए।हे गणाधीश हनुमान कैसे लक्षणोंका धरणहारा कौन का पुत्र कहां उपजा में निश्चिय कर उसका चरित्र सुनना चाहूं
हूं तव सत्पुरुषों की कथा से जपजा है प्रमोद जिन को ऐसे इन्द्रभत कहिए गौतम स्वामी अल्हादकारी | बचनों से कहते भए हे नृप विजियाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी पृथिवीसे दस योजन ऊंची तहां श्रादित्य
पुर नामा मनोहर नगर वहां राजा प्रहलाद राणी केतुमती तिन के पुत्र बायुकुमार जिस का विस्तीर्ण
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बक्षस्थल लक्ष्मी का निवास सा वायकुमार को संपूर्ण यौवन घरे देख कर पिता के चित्तमें इनके विवाह पुराण की चिन्ता उपजी कैसा है पिता परंपराय संतान के बढ़ावने की है बांछा जिसके अब यह जहां वायुकुमार
परणेगा सो कहिएहै । भरतक्षेत्रमें समुद्रसे पुर्व दक्षिण दिशाके मध्यदन्तीनामा पर्वत जिसके ऊंचे शिखर
आकाशलगरहे हैं नानाप्रकार वृक्ष औषधि तिन संयुक्त और जलके नीझरनेझरे हैं जहांतहां इंद्र तुल्य राजामहेंद्रविद्याधरउसने महेंद्रपुरनगरबसाया इसराजाकेहृदयवेगा राणीउसके अरिरिदमादिसौपुत्रमहागुण वानऔर अंजनीसुंदरीपुत्रीसोमानौत्रैलोक्यकी सुंदरीजेस्त्री तिनकेरूप एकत्रकरबनाईहै नीलकमल सारिखे हैं नेत्र जिसकेकामके वाणसमान तीक्ष्णदुरदर्शी कर्णान्तक कटाक्ष और प्रशंसा योग्यकर पल्लवरक्तकमल समान चर्ण हस्तीके कुम्भस्थल समान कुच और केहरीसमान कटि सुन्दर नितंब कदलीस्तंभ समान कोमलजंघा शुभलक्षण प्रफुल्लित मालती समान मृदु बाहुयुगल गंधर्वादि सर्व कलाकी जाननहारी मानों साक्षात् सरस्वतीही है और रूपकर लक्ष्मीसमान सर्वगुण मंडित एक दिवस नव यौवनमें कंदुक क्रीड़ा करती भ्रमण करती सखियों सहित रमती पिताने देखी सो जैसे सुलोचनाको देखकर राजा अकंपनको चिन्ता उपजी थी तैसे अंजनीको देख राजा महेन्द्रको चिन्ता उपजी तब इसके बर ढूंढनेमें उद्यमी हुए संसारविषे माता पितावों को कन्या दुखका कारणहै जे बड़े कुलके पुरुषहैं उनको कन्या की ऐसी चिन्ता रहे है यह मेरी कन्या प्रशंसा योग्यपति को प्राप्तहोय और बहुत काल इनका सौभाग्य रहे और कन्या निर्दुषण रहे राजामेंहदने अपने मंत्रियों से कहा जो तुम सर्व बस्तु में प्रवीणहो कन्या | योग्य श्रेष्ठ बर मुझे बतावो तब अमरसागर मन्त्री ने कहा यह कन्या राक्षसोंका अधीश जो रावण !
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पद्म पुराण
४ २७9 ।।
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उसे देव सर्व विद्याधारोंका अधिपति उसका संबंध पाय तुम्हारा प्रभाव समुद्रांत पृथ्वीपर होगा अथवा इंद्रजीत तथा मेघनादको देवो और यह भी तुम्हारे मन में न यावे तो कन्याका स्वयंवर रचो ऐसा कहकर अमरसागर मंत्री तो चुप रहा तब सुमतिनामा मंत्री महा पंडित बोला रावण के तो स्त्री अनेक
महा अहंकारी इसे पहनावें तोभी अपने अधिक प्रीति न होय और कन्याकी वय छोटी और raata धिक सो बने नहीं इंद्रजीत तथा मेघनाद को परणव तो उन दोनों में परस्पर विरोध होय गे राजा श्रीषेणके पुत्रों में विरोध भया इस लिये यह न करना तब ताराधरायण मंत्री कहने लगा दक्षिणश्रेणि विषे कनकपुरनामा नगर है वहां राजा हिरण्यप्रभ उसके राणी सुमना पुत्र सौदामिनीप्रभ सो महा यशवन्त कांति धारी नव यौवन नववय अति सुंदररूप सर्व विद्याकलाका पार गामी लोकों को आनन्दकारी अनुपम गुण अपनी चेष्टासे हर्षित किया है सकल मंडल जिसने और ऐसा पराक्रमी है जो सर्व विद्याधर एकत्रहोय उससे लेंडे तो भी उसे न जीतें मानों शक्तिके समूह से निरमाया है । सो यह कन्या उसे दो जैसी कन्या तैसा बर योग्य सम्बन्ध है यह वार्ता सुन कर संदेहपरागनामा मंत्री माया धुनें आंख मीचकर कहता भया वह सौदामिनीप्रभ महा भव्य है उस के निरंतर यह विचार है कि यह संसार अनित्यै सो संसारका स्वरूप जान बरस अठारहमें वैराग्य धारेगा विषयाभिलाषी नहीं भोगरूप गज बन्धन तुड़ाय गृहस्थका त्याग करेगा वाह्याभ्यंतर परिग्रह परिहार कर केवलज्ञानको पायमोच जायगा सो उसेपरणावे तो कन्यापति बिना शोभा न पावे जैसे चंद्रमा बिना रात्री नीकी न दीखे कैसा है चंद्रमा जगतमें प्रकाश करनहारा है इस लिये तुम इंद्रके नगर समान
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पद्म
॥२७
॥
| श्रादित्यपुरनगरहै रत्नोकर सूर्यसमान देदीप्यमानहै । वहां राजा प्रल्हाद महाभागी पुरुष चंद्रमा समान
कांति का धारी उसके गणी केतुमती कामकी ध्वजा उनकं वायुकुमार कहिये पवनंजय नामा पुत्र पराक्रम का समूह रूपवान शीलवान गुणनिधान सर्व कलाका पाग्गामी शुभशरीर महावीर खोटी चेष्टा से रहित उसके समस्तगुण सर्व लोकों के चित्त में व्याप रहे हैं हम सौ वर्ष में भी न कहसकें इसलिये आप ही उसे देख लो पवनंजय के ऐसे गुण सुन सर्वही हर्षको प्राप्त भए कैसा है पवनंजय देवों के समान है द्युति जिसकी जैसेनिशाकरकीकिरणोंकर कुमुदनी प्रफुल्लित होय तैसे कन्याभी यहवार्ता सुनकर प्रफुल्लितभई ॥ ___ अथानन्तरवसन्तऋतु आई स्त्रियोंके मुख कमल की लावण्यताकी हरणहारी शीतऋतु गई कमलिनी प्रफुल्लित भई नवीन कमलोंके समूह की सुगंध से दशों दिशा सुगंध भई कमलों परभ्रमर गुंजार करते भए कैसे हैंभ्रमर मकरन्द कहिए पुष्प की सुगन्धरज उसके अभिलाषी हैं वृक्षां के पल्लव पत्र पुष्पादि नवीन प्रगट भए मानों वसंत के लक्ष्मी के मिलाप से हर्ष के अंकुरे उपजे हैं और ग्राम मौल आए तिन पर भ्रमर भ्रमें हैं लोकौ के मन को कामवाण वींधते भए कोकिलावों के शब्द मानिनी नायिकावों के मान को मोचन करते भए बसंतसमयपरस्पर नर नारियों के स्नेह बढ़ताभया हिरण जो हैं सो दूबके अंकुरे उखाड़ हिरणी के मुख में देना भया सो उस को अमृत समान लगे अधिक प्रीती होती भई और वेल वृक्षों से लपटी, कैसी हैं बेलभ्रमर ही हैं नेत्र जिनके, दक्षिण दिशा की पवन चली सो सवही को सुहावनी लगी पवन के
प्रसंगसे केसर के समूह पड़े सो मानो वसंतरूपी सिंह के केशों के समूह ही हैं, महा सघन कौर वे जातिके |' जेवृक्ष तिनपर भ्रमरोंके समूह शब्दकरे हैं मानों वियोगिनी नायिकावोंके मनको खेद उपजावनेको बसंतो
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पद्म
पुराण
॥२८॥
ने भेजे हैं, और अशोक जाति के वृक्षों की नवीन कौंपल लहलहाट करें हैं सो मानों सौभाग्यवती स्त्रियों के रागकी राशि ही शोभे हैं । और वनों में केस अत्यंत फूलरहे हैं सोमानों वियोगनी नायिका के मन के दाह उपजावनेको अग्निसमान हैं दशोंदिशा में फूलोंकी सुगंध रज जिस को मकरन्द कहिये सो पराग कर ऐसी फैलिरही हैं मानों बसंत जो है सो पटवास कहिए सुगंधचूर्ण और वीरता कहिए महोत्सव करे है एक क्षण भी स्त्री पुरुष परस्पर वियोग को नहीं सहार सके हैं इस ऋतु में विदेश गमन कैसे रुचे ऐसी राग रूप वसंत ऋतु प्रगट भई उस समय फागुण शुदि अष्टमि से लेकर पूर्णमासी तक अष्टान्हिका के दिन महा मंगल रूप हैं, सो इन्द्रादिक देव शची श्रादि देवी पूजा के अर्थ नन्दीश्वर द्वीप गये और विद्याधर पूजा की सामग्री लेकर कैलाश गए श्री ऋषभदेव के निर्वाण कल्याणक से वह पर्वत पूजनीक है सो समस्त परिवार सहित अंजनी के पिता राजा महेन्द्र भी गए वहां भगवान की पूजा कर स्तुति कर
और भाव सहित नमस्कार कर सुवर्ण की शिलापर सुखसे विराजे और राजा प्रल्हाद पवनंजय के पिता भी भरत चक्रवर्ती के कराएजे जिन मंदिर तिनकी बंदना के अर्थ कैलाश पर्वत पर गए सो बंदना कर पर्वत पर विहार करते हुए राजा महेन्द्र की दृष्टि में पाए । सो महेंद्र को देखकरप्रीति रूप है चित्त जिन का प्रफुल्लितभए हैं नेत्र जिनके ऐसे जे प्रल्हाद वे निकट पाए तब महेन्द्र उठकर सन्मुख आयकर मिले एक मनोग्य शिलापर दोनों हितसे तिष्ठे परस्पर शरीरादि कुशल पूछनेलगे तब राजा महेन्द्र ने कही।
हे मित्र मेरे कुशल काहेकी क्योंकि कन्या वरभोग्यभई उसके परणावनेकी चिन्तासे चित्त व्याकुल रहे है। | जैसी कन्या है तैसा बर चाहिये ओर बड़ा घर चाहिये कौन को दें यह मन भ्रमें है रावण को परणाइये।
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पुराण ॥२८॥
तो उसके स्त्री बहुत हैं और आयु अधिक है और जो उसके पुत्रोंमेंदें तो उनमें परस्पर विरोध होय और हेमपुरका राजा कनकधुति उसका पुत्र सौदामिनीप्रभ कहिये विद्युतप्रभ सो थोड़ेही दिनमें मुक्तिको प्राप्त || होयगा यह वार्ता सर्व पृथिवीपर प्रसिद्ध है ज्ञानी मुनोंने कहा है हमनेभी अपने मन्त्रियोंके मुखसे सुना
है अब हमारे यह निश्चय भया है कि आपका पुत्र पवनंजय कन्या के बरिने योग्य है यही मनोरथकर हम यहां पाए हैं सो आपके दर्शनकर अति आनन्दभया जिससे कछु विकल्प मिया तब प्रल्हाद बोले मेरे भी चिंता पुत्रके परणावनकी है इसलिये मेंभी आपका दर्शनकर और वचन सुन वचनसे अगोचर सुखको प्राप्तभया जो आप आज्ञाकरो सोही प्रमाण मेरे पुत्रको बड़ा भाग्य जो आपने कृपा करी बर कन्याका विवाह मानसरोवरके तटपर ठहरा दोनों सेनामें श्रानन्दके शब्दभए ज्योतिषियोंने तीनदिनका लग्न थापा ___अथानन्तर पवनंजयकुमार अंजनी के रूपकी अद्भुतता सुनकर तत्काल देखनेको उद्यमी भया तीन दिन रह न सका संगमकी अभिलाषाकर यह कुमार कामके वशहुवा वेगोंकर पूरितभया प्रथमवेग विषयकी चिंतासे व्याकुलभयाऔर दूजेवेग देखनेकी अभिलाषा उपजी तीजे वेगदीर्घउच्छ्वास नाखनेलगा चौथे वेग कामज्वर उपजा मानो चन्दनके अग्नि लगी पांचवेंवेगअङ्ग खेदरूपभया सुगंध पुष्पादिसे अरुचि उपजी छठे वेग भोजन विषसमान बुरा लगा सातवें बेग उसकी कथा की आसक्तता कर विलोप उपजा आठवें बेग उन्मत्त हुवा विभ्रमरूप सर्प कर डसा गीत नृत्यादि अनेक चेष्टा करनेलगा नवमें वेग महामूर्छा उपजी दसवें वेग दुःख के भारसे पीड़ितभया यद्यपि यह पवनञ्जय विवेकीथा तथादि अञ्जनी के प्रभावकर विहल | भया हे श्रेणिक कामको धिकरहो कैसा है काम मोक्षमार्गका विरोधी है कामके बेगकर पवनञ्जय धीरज |
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पद्म
रहित भया कपोलों में हाथ लगाय शोकवान् बैठा पसेबसे टपके हैं कपोल जिसके उष्ण निश्वास कर पुराणमुरझाये हैं होंठ जिसके और शरीर कम्पायमान भया वारम्वार जंभाई लेने लगा और अत्यन्त अभिलाषा २८१ रूप शल्यसे चिन्तावान भया स्त्री के ध्यान से इन्द्रिय व्याकुल भए मनोग्य स्थानभी इसको रुचिकारी लगे चित्त शून्यता धारताभया तजी है समस्त शृंगारादि क्रिया जिसने क्षणमात्र में आभूषण पहिरे क्षणमात्रमें खोलडारे लज्जा रहित भया क्षीण होगया है समस्त अङ्ग जिसका ऐसी चिन्ता धारताभया कि वह समय कब होय जो मैं उस सुन्दरी को अपने पास बैठी देखूं और उसके कमल तुल्य गोत्रको स्पर्श करूं वा कामनी के रसकी वार्ता करूं उसकी बातही सुन कर मेरी यह दशा भई है न जानिये और क्या होय वह कल्याणरूपिणी जिस हृदय में बसे है उस हृदय में दुःख रूप अग्नि का दाह क्यों हो स्त्री तो निश्चय सेती स्वभावही से कोमल चित्त होय हैं मुझे दुःख देने अर्थ चित्त कठोर क्यों भया यह काम पृथिवी में अनंग कहावे हैं तिसके अङ्ग नहीं सो अंग बिनाही मुझे अंग रहित करे है मारे डाले है जो इसके अंग होय तो न जाने क्या करे मेरी देह में घाव नहीं परन्तु वेदना बहुत है मैं एक जगह बैाहूं और मन अनेक जगह भूमे है ये तीन दिन उसे देखेविना मुझे कुशलसे न जाय इसलिये उसके देखनेका उपाय करूं जिससे मेरे शांतिहोय सो सर्व कार्यों में मित्र समानजगतमें और आनन्द ar कारण कोई नहीं मित्रसे सर्व कार्य सिद्ध होंय ऐसा विचार अपना जो प्रहस्त नामा, मित्र सर्व विश्वास का भाजन उसे पवनंजय गद गद बाणी कर कहता भया कैसा है मित्र कनारे हो बैठा है छायाकी मूर्ति ही है पनाही शरीर मानो विक्रियाकर दूजा होरहा है उससे इस भान्ति कहीं हे मित्र त मेरासर्व अभिप्राय
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पुराण ॥२२॥
पश्न | जाने है तुझे क्या कहूं परन्तु यह मेरी दुःख अवस्था मुझ वाचाल कर है ह सब तुन बिना यह बात
कौनसे कही जाय तु समस्त जगतकी रीतिको जाने है जैसे किसान अपनो दुःख राजासे कहे और शिष्य गुरुसे कहे और स्त्री पतिसों कहै और रोगी वैद्यसों कहे बालक माता सों कहें सो दुःख से छूटे तैसे बुद्धि मान अपने मित्रसे कहैं इसलिये मैं तुझे कहूंहूं वह राजा महेन्द्र की पुत्री उसके श्रवणही कर कामवाण कर मेरी विकल दशाभई है सो उसके देखे विना में तीनदिन निवाहिवे समर्थ नहीं इसलिये कोई ऐसा यत्न कर जो में उसे देख उसे देखेविना मेरे स्थिरता न आवे और मेरी स्थिरतासे तुझे प्रसन्नता होय प्राणियों को सर्वकार्य से जीतव्य वल्लभ है क्योंकि जीतव्य के होतेहुए प्रात्मलाभ होय है इसभान्ति पवनञ्जय ने कही तब प्रहस्त मित्र हँसे मानों मित्रके मनका अभिप्राय पायकर कार्य सिद्ध का उपाय करते भये हे मित्र बहुत कहनेकर क्या अपनेमांहि भेद नहीं जो करनाहो उसमें ढीलमतकरो इसभांति उनदोनोंके वचनालाप होयह इतनेमेसर्य मानोंइनके उपकारनिमित्त प्रस्तभया तबसूर्यके वियोगसे दिशाकाली पड़गई अंधकार फैलगया क्षणमात्रमें नीलवस्त्र पहिरे निशा प्रकटभई तब रात्रिके समयोत्साह सहित मित्र को पवनंजय कहते भए । हेमित्र उठो श्रावो वहांचलें जहां वह मनकी हरणहारी प्राणवल्लभातिष्ठे है, तवये दोनोमित्रविमान में बैठप्रकाशके मार्ग चले मानों अाकाशरूप समुद्रके मच्छही हैं क्षणमात्रमें जाय अंजनीके सत खणे महल पर चढ़ झरोपों में मोतियों की झालरोके आश्रय छिपकर बैठे, अञ्जनी सुन्दरीको पवनंजय कुमार ने देखा कि पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है मुख जिसका मुखकी ज्योतिसे दीपक मंद ज्योति होय रहे हैं और श्याम श्वेत अरुण त्रिविध रंग को लिये नेत्र महा सुन्दर हैं मानों काम के वाण ही हैं और कुच ऊंचेमहा।
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पद्म
पुगरा
॥२८३"
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मनोहर शृङ्गार रस के भरे कलश ही हैं, नवीन कोंपल समान लाल सुन्दर सुलक्षण हैं हस्त और पांव जिसके चार नखों की कांति कर मानों लावण्यता को प्रकट करती शोभे है और शरीर महासुन्दर है अतिदाजुक क्षीण कटि कुचों के भार से मत कदाचित् भग्न हो जाय ऐसी शंका से मानों लिवली रूप डोरी से प्रतिवद्ध है । और जिस की जंघा लावण्यता को घरे हैं सो केले से भी प्रति कोमल मानों काम के मंदिर के स्तंभ ही हैं । सो मानो वह कन्या चांदनी रात्री ही है । मुक्ताफल रूप नत्र युक्त इंद्रवीर कमल समान हे रूपजिसका । सो पवनंजय कुमार एकाग्र लगे हैं नेत्र जिसके अंजनी को भले प्रकार देख मुखकी भूमिको प्राप्त भया उसही समय वसंततिलका सखी महाबुद्धिवती जना सुन्दरी कहती भई कि हे मुरूपे तू धन्य है जो तेरे पिताने तु वायुकुमारको दीनी वे वायुकुमार महा प्रतापी है तिनके गुण चन्द्रमा की किरण समान उज्ज्वल हैं तिन से समस्त जगत व्याप्त होय रहा है जिनके गुणने अन्य पुरुषों के गुण मंद भासे हैं जैसे समुद्र में लहर तिष्ठे तैसे उस योधा के अंग विषेतृ तिष्ठेगी कैसी है तू महा मिष्टभाणि चन्द्र कांति रत्नोंकी प्रभाको जीते ऐसी कांति तेरी तू रत्नकी धारा रत्ना चल पर्वत में पडी तुम्हारा सम्बन्ध प्रशंसा के योग्य भया इससे सर्वही कुटंबके जन प्रसन्न भए इस भांति जब पतिके गुण सखीने गाए तब वह लाजकी भरी चरणों के नखकी ओर नीचे देखती भई आनंद जल रूप जलकर हृदय भर गया और पवनंजय कुमार भी हर्षसे फूल गए ।
अथानन्तर उस समय एक मिश्रकेशी नामा दूजी सखी होंठ चावकर चोटी हलायकर बोली हो परम अज्ञान तेरा यह कहां पवनंजयका सम्बन्ध सगहा जो विद्युतप्रभ कुंदरसे सम्बन्ध होता तो श्रेष्ठ
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पुराख
था जो पुण्यके योगसे कन्याका विद्युतप्रभ पति होता तो इसका जन्म सफल होता हे बसंतमाला विद्युतप्रभ और पवनंजयमें इतना भेदहै जितना समुद्र और गोष्पदमें भेदहै विद्युतप्रभ की कथा बडे बड़े पुरुषोंके मुखसे सुनी है जैसे मेघके बृन्द की संख्या नहीं तैसे उसके गुणों का पार नहीं वह नव यौवन है । महासौम्य विनयवान देदीप्यमान विद्यावान बुद्धिवानबलवान सर्व जगत चाहे दर्शन जिस का सब यही कहें हैं कि यह कन्या उसे देनी थी सो कन्याके बापने मुनी वह थोड़े ही दिनोंमें मुनि होयगा इसलिये संबंधन किया सो भलान किया विद्युत्प्रमका संयोग एक तणमात्रही भला और क्षुद्र पुरुषकासंयोग बहुतकालभी किस अर्थ यहवार्तामुनकर पवनंजयक्रोध रूपअग्नि करप्रज्वलितभएक्षणमात्र में औरही छायाहोगई रससबिरसागए लालआंखे होगई होंठडसकर तलवार म्यानसे काढ़ीऔरप्रहस्तमिव से कहतेभए इसेहमारीनिन्दा सुहावे है औरयहदासी ऐसेनिंद्यवचन कहे और यहसने सोइन दोनोंकासिरकाट डारूं विद्युत्प्रभ इनके हृदयकाप्यारा है सो कैसेसहाय करेगा यहवचन पवनंजयके सुन प्रहस्तमित्र रोषकर क हता भया हेसखे हेमित्र ऐसे अयोग्य वचन कहनेकर क्या तुम्हारी तलवार बड़ेसामंतोंके सीसपरपडलीअबला अवध्यहैइनपर कैसे पडे यहदुष्टदासी इनके अभिप्राय बिना ऐस कहे हे तुमअाज्ञाकरोतो इसदासी को एकदंड कीचोटसे मारडालूं परन्तुस्त्रीहत्या बालहत्या पशुहत्या दुर्बलमनुष्यकीहत्या इत्यादि शास्त्रमेंबर्जनीयकहीहै ये वचन मित्र के सुनकर पवनंजय क्रोधको भूलगये और भित्रको दासीपरक्रूर देखकर कहते भए । हे मित्र तुमअनेक संग्राम के जीतनेहारे यशके अधिकारी माते हाथियों के कुंभस्थल बिदारनेहारे तुमको दयाही करनी योग्य है और सामान्य पुरुष भी स्त्रीहत्या न करें तो तुम कैसे करो जे बड़े कुल में उपजे |
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पुराण
॥२८॥
पुरुषहें और गुणोंसे प्रसिद्धहें शूरवीर हैं तिन का यश अयोग्य क्रियासे मलिनहोयहै इसलियेउठो जिस ! मार्गाए उसही मार्ग चलो जैसे छाने आए थे तैसे ही चले पवनंजय के मन में यह भ्रांति पड़ी कि इस कन्याको विद्युतप्रभही प्रियहै इस लिये उसकी प्रशंसा सुने है हमारी निन्दा मुने है जो इसे न भावे । तो दासी कहेको कहै यहरोसधर अपनेकहे स्यानकपहुंचे पवनंजयकुमार अंजनीसे प्रतिफीके पड़गए चित्त । में ऐसे चितवतेभए कि दूजे पुरुषकाहै अनुराग जिसको ऐसी अंजनीसो विकराल नदीकी न्याई दूरही । से तजनी कैसीहै वह अंजनीरूप नदी संदेहरूपजे विषम भ्रमण तिनको धरे है और खोटे भावरूप जे ग्राह तिनसे भरी है और वह नारी बनीसमानहै अज्ञानरूप अंधकारसे भरी इंद्रियरूप जे सर्प तिनको । घरे है पंडितोंको कदाचित नसेवनी । खोटे राजाकी सेवा और शत्रुके आश्रय जाना और शिथिल मित्र
और अनासक्त स्त्री इनसे मुख कहां देखो जे विवेकी हैं वे इष्टबन्धु तथा सुपुत्र और पतिव्रता नारी इनका भी त्यागकर महाव्रत धरे हैं और शुद्र पुरुष कुसंगभी नहीं तजे हैं मद्यपानी वैद्य और शिक्षा रहित हाथी और निःकार्ण वैरी क्रूरजन और हिंसारूप धर्म और मूखों वे चर्चा और मर्यादाका उनंघना निर्दई देश बालक राजा स्त्रीपर पुरुष अनुरागिनी इनको विवेकी तो इसभांति चितवन करता जो पवनं जयकुमार उसके जैसे दुलहिनसे प्रीति गई तैसे रात्रिगई और पूर्व दिशामें संध्या प्रकट भई मानों पकबंजयने अंजनीका राग छोडा सो भूमता फिरे है । (भावार्थ) गगका स्वरूप लालहै और इनसेजोगम मिटा सो उसने संध्याके मिसकर पूर्वदिशामें प्रवेश किया और सूर्यधारक्त ऐसाउगाजैसा स्त्रीके कोपसे पवनंजयकुमार कोपा कैसाहै सूर्यतरुण बिम्बको धरे है और जगतकी चेष्टाका कारणहै तब पवनंजयकुमार
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॥२८६
प्रहस्त मित्रको कहतेभए अत्यंत अरुचिको धेरै अंजनीसे बिमुखहै मनजिनका हे मित्र यहां अपने डेरे हैं। पुराण सो यहांसे उसका स्थानकसमीपहै सो यहां सर्वथा नरहना उसको स्पर्शकर पवनश्रावे सो मुझे न मुहावे इस
लिये उठो अपने नगरचलें ढील करनी उचित नहीं तब मित्रकुमारकी आज्ञा प्रमाण सेनाके लोगों को पयानेकी आज्ञा करताभयासमुद्रसमान सेनास्थ घोडे हाथी पयादे इनका बहुतशब्दभया कन्याकानिवास नजीकही है सो सेनाके पयानके शब्दकन्याके कानमें पडे तब कुमारका कूचजानकर कन्या अतिदुखित भई वे शब्द कानको ऐसे बुरे लगे जैसे बजकी शिला कानमें प्रवेशकरे और ऊपरसे मुद्गरकी घात पडे मनमें विचारती भई हायहाय मुझे पूर्वोपार्जित कर्मने महानिधान दियाथा सो छिनायलिया क्या करूं अब क्याहोय मेरेयह मनोरथथा कि इस नरेंद्रके साथक्रीडा करूंगी परंतु औरही भांति दृष्टिश्रावे है तो अपराध कछु न जान पडे है परंतु यहमेरी वैरिन मिश्रकेशी इसने निन्द्य बचनकहेथे सो कभी कुमार कुमारको यहखबर पहुंची हाये और मेरेमें कुमाया करीहोय यह विवेकरहित पापिनी कटुभाषिणी धिक्कार इसे जिसने मेरा प्राणवल्लभ मुझसे कृपारहित किया अब जो मेरे भाग्य होय और मेरा पिता मुझपर कृपा कर प्राणनाथ को पीछा बहोडे और उनकी सुदृष्टि होय तो मेरा जीतव्य है और जो नाथ मेरा परित्याग करे तो मैं आहार को त्याग कर शरीर को तजूंगी ऐसा चिन्तवन करती वह सती मूळ खाय धरती पर पड़ी जैसे बलि की जड उपाड़ी जाय और वह श्राश्रय से रहित होय कुमलाय जाय तैसे कुमलाय गई तब सर्व सखीजन यह क्या भया ऐसे कहकर अति संभूमको प्राप्तभई शीतल क्रियासे इसे सचेत किया तब इससे मूर्याका कारण पूछा सो यह लज्जासे कह न सके निश्चल लोचन होय रही।
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पुराण
__ अथानन्तर पवनंजयकी सेना के लोक मन में प्राकुल भए और विचार करते भए कि निःकारणच १२८७॥ | काहे का यह कुमार विवाह करने आया था सो दुलहिन को परण कर क्योंन चले, इसको कोष काइसे भया
इसको कौन ने क्या कहा, सर्व वस्तु की सामग्री है काहु वस्तुकी कमी नहीं इसका सुसरा बड़ा राजा कन्या अति सुन्दरी यह पराङ्मुख क्यों भया तब कैयक हंस से कहते भए इसका नाम पवनंजय है सो अपनी चंचलता से पवनहूं को जीते है और कैयक कहते भए अभी स्त्री का सुख नहीं जाने है इसलिये ऐसी कन्या को छोड़ कर जाने को उद्यमी भयाहै,जो इसके रतिकेलि का राग होय तो जैसे वनहस्ती प्रेम के बंधन से बंधे है तैसे यह बंध जाय, इस भांति सेना के सामंत कहे हैं और पवनंजय शीघ्र गामी वहानपर चढ़ चलने को उद्यमी भए तब कन्या का पिता राजा महेंद्रकुमार का कूच सुन कर अति श्राकुल भया समस्त भाईयों सहित राजा प्रल्हाद पैाया प्रल्हाद और महेन्द्र दोनों प्राय कुमार को कहते भए हे कल्याण रूपहमको शोक का करणहारा यह कूच काहे को करियेहै अहो कौनने आपको क्या कहा है शोभायमान तुम कौनको अप्रियहो जो तुमको न रुचे सो सबही कोन रुचे तुम्हारे पिताका और हमारा बचन जोसदोप होय । तो भीतुमको मानना योग्य है सो तो हम समस्तदोष रहितकहे हैं तुम को अवश्य धारना योग्इहै हेशूरवीर कूच से पीछे फिरोहमारे दोनों के मनवांछित सिद्ध करो। हम तुम्हारे गुरु जन हैं सो तुम सारिखे सत् पुरुषों को गुरुजनों की आज्ञा आनंद का कारण है ऐसा जब राजा महेन्द्र ने और प्रल्हाद ने कहा तब यह कुमार धीरवीर विनय कर नम्री भूत भयाहै मस्तक जिसका जब तातने और ससुरने बहुत अादरसे हाथ पकड़े तब यह कुमार गुरुजनोंकीजो गुरुतासो उलंघनेको असमर्थ भया उनकी आज्ञा सेपीये बाहुडा और
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॥२८॥
मनमें विचारी कि इसे परणकर तजदूंगा ताकि दुःखसे जन्म पुराकरे और परकाभी इसेसंयोगन होय सके ।
अथानन्तर कन्या प्राणवल्लभ को पीछे आया सुन कर हर्षित भई रोमांच होय आए लग्न के समय इनका विवाहमंगल भया जब दलहे को दुलहिन का करत्रहण कराया सो अशोक के परसवसमान आरक्त अति कोमल कन्या के करसो इस विरक्त चित्तके अग्निकी ज्वाला समान लगे विना इच्छा कुमार की दृष्टि कन्या के तनुपर काहू भांति गई सो क्षणमात्र भी न सह सका जैसे कोई विद्युत्पात को न सह सके। कन्याके प्रीति बरके अप्रीति यह इसके भावको न जाने ऐसा जान मानोंअग्निहंस्ती भई और शब्द करती भई, बडे विधान से इनका विवाह कर सर्वबंधू जन आनन्द को प्राप्त भए पान सरोवर के तट विवाह भया नानाप्रकार वृक्षलता फल पुष्प विराजित जो सुंदर वन वहां परम उत्सवकर एक मास रहे परस्पर दोनों समधियों ने अति हित के वचन आलाप कहे परस्पर स्तुति महिमा करी सन्मान किए पुत्री के पिता ने बहुत दान दिया अपने अपने स्थान को गए।
हे श्रेणिकजे वस्तुका स्वरूप नहीं जाने हैं और विना समझे परायेदोष ग्रहे हैं वे मूर्ख हैं और पराए दोष कर आप ऊपर दोष आयपड़े हैं सो सब पाप कर्म का फल है॥ इति पन्द्रहवां पर्व सम्पूर्णम
अथानन्तर पवनञ्जयकुमार ने अञ्जनी सुन्दरी को परण कर ऐसी तजी जो कभी बात न बझे सो वह सुन्दरी पती के असंभाषण से और कृपा दृष्टि कर न देखने से परम दुःख करती भई रात्री में भी निद्रा न लेय निरन्तर अश्रुपातही झरा करें शरीर मलिन होगया पतिसे अति स्नेह धनीका नाम अति सुहावे पवन जावे सोभी अति प्रिय लगे पतिका रूप नो विवाह की वेदी में अवलोकन कियाथा उस
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पुरास
२८
का मन में ध्यान कर करे और निश्चल लोचन सर्व चेष्टा रहित बटी रहे अन्तरङ्ग ध्यानमें पति का रूप निरूपण कर वाह्यभी दर्शन किया चाहे सो न होय तब शोक कर बैठ रहे चित्र पटमें पतिका चित्राम लिखने का उद्यम करे तब हाथ कांप कर कलम गिरपड़े दुखल होयगया है समस्त अंग जिसका ढीले होयकर गिर पड़े हैं सर्व आभूषण जिसके दीर्घ उष्ण जे उच्छवास उनकर मुरझायगये हैं कपोल जिस के अंग में वस्रके भी भारकर खेदको धरती संती अपने अशुभ कर्मको निंदती माता पिताको बारंबार याद करती संती शून्य भया है हृदय जिसका दुःखकर क्षीण शरीर मूर्खा में आजाय चेष्टा रहित होय जाय अश्रुपात से रुक गया है कण्ठ जिसका दुखकर निकसे हैं वचन जिसके विभ्रमभई संती दैव कहिये पूर्वोपार्जित कर्म उसे उलाहनादेय चन्द्रमाकी किरणोंसे भी जिको अति दाह उपजे और मन्दिरमें गमन करती माखाय गिरपड़े और विकल्पकी मारी ऐसे विचार करे अपने मनही में पतिसे बतलावे है नाथ तुम्हारे मनोग्य अंग मेरे हृदयमें निरन्तर शिष्ठे मुझे अाताप क्यो करें हैं और मैं अापका कछु अपराध नहीं किया निःकारण मेरे पर कोप क्यों करो अब प्रसन्न होवो मैं तुम्हारी भक्तहूं मेरेचितके विषाद को हरो जैसे अन्तरंग दर्शन देवो हो तैसे बहिरंग देवो यह मैं हाथजोड़ बीनती करूं हूं जैसे सूर्यविना दिनकी शोभा नहीं और चन्द्रमा बिना रात्रीकी शोभा नहीं और दया क्षमाशील संतोषादि गुणबिना विद्याशोभे नहीं तैसे तुम्हारी कृपा बिना मेरी शोभा नहीं इसभांति चित्तविषे बसे जो पति उसे उलाहना देय और बड़ मोतियों समान नेत्रों से आंसुवों की बंद झरे महा कोमल सेज और अनेक सामग्री सखीजन करें परन्तु उसे कछ न सुहावे चक्रारूढ समान मनमें उपजा है वियोगसे भ्रम जिसको स्नानादि संसकार रहिव
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पद्म पुराण ॥२९॥
कभीभी केश समारे गये नहीं केशभी रूपे पड़गये सर्व क्रिया में जड मानों पृथिवीहीका रूप होहीरही है
और निरन्तर प्रांसुवों के प्रवाहसे मानो जलरूपही होयरही है हृदयके दाहके योगसे मानो अग्निरूपही होयरही है और निश्चल चित्तके योगसे मानोवाय रूपही होय रही है और शन्यताके योगसे मानो गगन रूपही होयरही है मोहके योगसे आछादित होय रहा है ज्ञान जिसका भूमिपर डार दिये हैं सर्व अंग जिसने बैठन सके और वैठे तो उठ न सके और उठे तो देहीको थांभ नसके सोसखी जनका हाथपकड़ विहारकरे सो पग डिगजाय और चतुर जे सखीजन तिनसे बोलनेकी इच्छा करे परन्तु बोल न सके और हंसनी कबूतरीश्रादि गृह पक्षी तिनसे क्रीडाकिया चाहे पर कर न सके यह बिचारी सबोंसे न्यारी बैठीरहे पतिम लग रहाहै मन और नेत्र जिसकोंनिःकारण पतिसे अपमान पाया सो एकदिन वरस बराबरजाय यह इसकी अवस्था देख सकल परिवार ब्याकुल हुवा सवही चितवतेभए कि इता दुख इसको विना कारण क्यों भया है यह कोई पूर्वोपार्जित पाप कर्म का उदय है पिछले जन्म में इसने किसीके सुख विषे अन्तराय कियाहै सो इसकेभी सुखका अन्तरायभया वायुकुमारतो निमित्त मात्रहै यह बारी भोरी निरदोष इसे परणकर क्यों तजी ऐसी दुलहिन सहित देवों समान भोग क्यों न करे इसने पिताके घर कभी रंचमात्र भी दुख न देखा सो यह कर्मानुभाव कर दुखके भारको प्राप्त भई इसकी सखीजन विचारे हैं कि क्या उपाय करें हम भाग्य रहित हमारे यत्नसाध्य यह कार्य नहीं यह कोई अशुभकर्मकी चालहै अब ऐसा दिन कबहोयगा वह शुभमुहूर्त शुभ बेला कब होयगा जो वह प्रीतम इस प्रियाको समीप ले बैठेगा और कृपा दृष्टिकर देखेगा मिष्ट बचन बोलेगा यह सबके अभिलाषा लग रही है ।
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पन्न पुराण ॥२९॥
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अथानंतर राजा बरुण उसके रावणसे विरोध पड़ा वरुण महा गर्भवान रावणकी सेवा न करेसो / रावण ने दूत भेजा दुतजाय बरुणसे कहताभया दृतधनी की शक्तिकर महाकांति को धरे है अहो विद्याधराधिपते बरुण सर्वका स्वामी जो रावण उसने यह श्राज्ञा करी है कि आप मुझे प्रणाम करो अथवा युद्धकी तैयारी करो तब वरुणने हंसकर कहीहो दूत कौनहै रावण कहां रहेहै जो मुझे दवावेहै सो में इंद्र नहीं हूं वह वृथा गर्वित लोकनिन्द्य था मैं वैश्रवण नहीं मैं यमनहीं में सहसूरश्मि नहीं में मरुत नहीं रावणके देवाधिष्ठित रत्नोंसे महा गर्व उपजाहै उसकी सामर्थ है तो आयो में उसे गवरहित करूंगा औरतेरी मृत्युनजीकहै जो हमसे ऐसीबात कहे है तब दूतने जायकर रावणसे वृतांतकहा रावण ने कोपकर समुद्रतुल्य सेनासहित जाय वरुणका नगरघेरा और यह प्रतिज्ञाकरी कि मैं इसे देवाधिष्ठित रत्नों बिनाही बश करूंगा मारूं अथवा बांधू तब वरुणके पुत्र राजीव पुण्डरादिक क्रोधायमान होय रावणके कटकपर आए रावणकी सेनाके और इनके बड़ा युद्ध भया परस्पर शस्त्रोंका समूह छेद डारे हाथी हाथियोंसे घोडे घोड़ोंसे रथ रथोंसे भट भटोंसे महायुद्ध करतेभए बड़े २ सामंतहोंठ डसडसकर लाल नेत्रहें जिनके वे महा भयानक शब्द करतेभए बडी बेरतक संग्राम भयासो वरुणकी सेना रावणकी सेनासे कछु इक पीछे हटी तब अपनी सेनाको हटी देख वरुणराक्षसोंकी सेनापर आप चलाायाकालाग्नि समान भयानक तब गवण वरुणको दुर्निवारण भूमिमें सन्मुख आवता देखकर आप युद्ध करनेको उद्यमी भए बरुणके और गवणके आपसमें युद्ध होनेलगा और वरुणके पुत्र खरदुषणसे युद्ध करतेभए कैसे हैं वरुण के पुत्र महाभटोंक प्रलय करनेहारे और अनेक माते हाथियोंके कुम्भस्थल विदारनहारेसो रावण क्रोध
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पद्म कर दीप्तहै मन जिसका महाकूर जो भृकुटी तिनसे भयानकहै मुख जिसका कुटिलहै केश जिसके जब पुराण र लग धनुषके बाण तान बरुणपर चलावे तब लग वरुणके पुत्रोंने रावणके बहनेऊ खरदूषणको पकड़
लिया तब रावणने मनमें विचारी जो हम वरुणसे युद्धकरें और खरदूषणका मरणहोय तो उचित नहीं इसलिये संग्राम मने किया जे बुद्धिवानहें वे मंत्रमें चूके नहीं तब मंत्रियोंसे मंत्रकर सब देशोंकेराजा बुलाए शीघ्रगामी पुरुष भेजे सवनको लिखा बड़ी सेनासहित शीघ्रही श्रावो और राजा प्रल्हादपर भी पत्रलय मनुष्य आया सो राजा प्रल्हादने स्वामीकी भक्तिकर रावणके सेवकका बहुत सन्मान किया और उठ कर बहुत अादरसे पत्र माथे चढ़ाया और बांचा सो पत्रमें इस भांति लिखाथा कि पातालपुरक समीप कल्याणरूप स्थानक तिष्ठता महाक्षम रूप विद्याधरोंके अधिपतियोंका पति सुमाली का पुत्र जो रत्नश्रवा उसका पुत्र राक्षस बंशरूप अाकाश में चन्द्रमा ऐसा जो रावण सो आदित्य नगरके राजा प्रल्हादको आज्ञा करे है कैसाहै प्रल्हाद कल्याण रूप है । न्याय का वेत्ता है देश काल विधान का ज्ञायकहै हमारा बहुत बल्लभहै प्रथमतो तुम्हारे शरीरकी कुशल पूछे है फिरयह समाचारहैकि हमकोसर्व खेचर भचर प्रणामकर हैं हाथोंकी अंगुली तिनके नखकी ज्योतिकर सो ज्योतिरूप किएहैं निज सिर के केश जिनने और एक अति दुर्बुद्धि वरुण पाताल नगरमें निवास करे है सो आज्ञासे पराङ्मुखहोय लड़नेको उद्यमी भया है हृदयकी व्यथाकारी विद्याधरोंके समूहसे युक्तहै समुद्रके मध्यद्वीप को पाय कर बहुत दुरात्मा गर्वको प्राप्त भयाहै सो हम उसके ऊपर चढ़कर पाएहैं बड़ा युद्धभयावरुणकेपुवोंने खरदूषणको जीवता पकड़ाहै सो मंत्रियों ने मंत्र कर खरदूषणके मरणकी शंका से युद्ध मने कियाहै |
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पद्म पुराण ॥२३॥
इसलिये खरदपन को छुड़ावना और वरुण को जीतनासो तुम अवश्याइया ढोल करो मत तुम सारिखे । पुरुष कर्तव्य में न चूक अब सब विचार तुम्हारे प्रावने पर है यद्यपि सूर्य तेजका पुंज है तथापि अरुण सारिखा सारथी चाहिए तब राजा प्रल्हाद पत्र के समाचार जान मंत्रियों सों मंत्र कर रावण के समीप । चलने का उद्यमी भए तब प्रल्हाद को चलता सुनकर पवनंजय कुमार ने हाथ जोड़ गोड़ों से धरती स्पश। नमस्कार कर विनती करी । हे नाथ ! मुझ पुत्र के होते संते तुमको गमन युक्त नहीं पिता जो पुत्र को। पाले है सो पुत्र का यही धर्म है कि पिता की सेवा कर जो सेवा न करे तो जानिये पुत्र भया ही नहीं इसलिये ।
आप कच न करें मुझे आज्ञा करें तब पिता कहते भए हे पुत्र तुम कुमार हो अबतक तुमने कोई खेत देखा । नहीं इसलिये तुम यहां रहो मैं जाऊंगा तब पवनंजयकुमार कनकाचल के तट समान जो वक्षस्थल उसे । ऊंचा कर तेज केधरणहारे वचन कहते भए हे तात! मेरी शक्ति का लक्षण तुमने देखा नहीं जगत् केदाह । में अग्नि के स्फुलिंगेकाक्या बीय परखना तुम्हारी आज्ञारूप आशिषा कर पवित्र भया है मस्तक मेरा ऐसा । जो मैं सो इंद्र को भी जीतने को समथ हूं इसमें संदेह नहीं। ऐसा कह कर पिता को नमस्कार कर महाहर्ष , संयुक्त उठकर स्नान भोजनादि शरीर की क्रिया करी, और आदर सहित जे कल में बृद्ध हैं तिन्हों ने | असीस दीनी भाव सहित अरिहंत सिद्धको नमस्कार कर परम कांति को धरताहुवा महामगल रूप पिता से विदा होने आया सो पिता ने और माता ने मंगल के भय से आंसू न काढ़े आशीर्वाद दिया हे पुत्र ! | तेरी विजय होय छाती से लगाय मस्तक चंबा पवनंजयकुमार श्री भगवान का ध्यान घर मात पिता को प्रणाम कर जे परिवार के लोग पायन पड़े तिनको बहुत धीय बंधाय सब से अतिस्नेह कर विदा ।
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पद्म
१२
भए पहले अपना दाहना पांव आगे धरचले फरके है दाहिनी भजा जिनकी और पूर्ण कलश जिनके । मुखपर लाल पल्लव तिनपर प्रथमही दृष्टिपड़ी और थम्भसे लगीहुई दारेखड़ी जो अञ्जनी सुन्दरी प्रांसुवों से भीज रहे हैं नेत्र जिसके तांबूलादिरहित धूसरे होय रहे हैं अधर जिसके मानो थंभमें उकरी पूतलीही है कुमारकी दृष्टि सुन्दरीपर पड़ी सो क्षणमात्र में दृष्टि संकोच कोपकर बोले हे दुरीक्षणे कहिये दुःखकारी है दर्शन जिसका इस स्थानक से जावो तेरी दृष्टि उलकापात समान है सो में सहारन सकूँ अहो बड़े कुल | की पुत्री कुलवन्ती तिनमें यह ढीटपणा कि मने किए भी निर्लज्ज उभी रहैं ये पतिके अतिक्रूर वचन सुनें तौभी इसे अति प्रिय लगें जैसे घने दिनके तिसाए पपैये को मेंघकी बूंद प्यारी लगे सो पतिके वचन मनकर अमृत समान पीवती भई हाथ जोड़ चरणारविन्द की ओर दृष्टि धर गदगद वाणी कर डिगते डिगते वचन नीठि नीठि कहती भई हे नाथ जब तुम यहां विराजते थे तबभी में वियोगिनीही थी परन्तु श्राप निकट हैं सो इस अाशाकर प्राण कष्टसे ठिक रहे ह अब आप दूर पधारे हैं मैं कैसे जीवंगी मैं तुम्हारे वचनरूप अमृत के प्रास्वादने की अति आतुर तुम परदेशको गमन करते स्नेहसे दयालुचित्त होयकर वस्ती के पशु पक्षियों कोभी दिलासा करी मनुष्यों की तो क्या बात सबसे अमृत समान वचन कहे मेरा चित्त तुमरे चरणारविन्द में है मैं तुम्हारी अप्राप्तिकर अति दुखी औरोंकी श्रीमुखसे एती दिलासा करी मेरी औरोंके मुखसेष्टी दिलासा कराई होती जब मुझे आपने तजी तब जगत्में शरणनहीं मरणही | है तब कुमारने मुख संकोचकर कोपसे कहीमर। तब यह सती खेद खिन्न होय घरतीपर गिरपड़ी पवन | कुमार इससे कुमायाही में चले बड़ी ऋद्धि सहित हाथीपर असवार होय सामन्तो सहित पयान किया।
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पद्म
पहिलेही दिनमें मान सरोवर जाय डेरे भए पुष्ट हैं बाहन जिनके सो विद्याघरों की सेना देवोंकी सेना समान आकाश से उतरतीहुई अति शोभामान दीखतीभई कैसीहै सेना नानाप्रकाके जे वाहन और शस्त्र वेई हैं आभषण जिसके अपने २ वाहनों के यथायोग्य यत्न कराए स्नान कराए खानपानका यत्न कराया __ अथानन्तर विद्याके प्रभावसे मनोहर एक बहुषणा महल बनाया चौड़ा और ऊंचा सो आप मित्र सहित महल ऊपर विराजे संग्रामका उपजाहै अति हर्ष जिनकै झरोखावों की जाली के छिद्रोंसे सरोवर के तट के वृक्षों को देखते थे शीतल मन्द सुगन्ध पवन से वृक्ष मन्द मन्द हालते थे और सरोवर में लहर उठतीथी सरोवर के जीव कछुवा, मीन, मगर, और भनेकप्रकारके जलचर गर्बके घरण होरे तिन की भजावों से किलोल होय रही है उज्ज्वल स्फटिक मणिसमान निर्मल जलहै जिसमें नानाप्रकार के कमल फूलरहे हैं हंस कारंड, क्रौंच, सारस इत्यादि पक्षी सुन्दर शब्दकर रहे हैं जिनके सुनेसे मन और कर्ण हर्ष पावें और भ्रमर गुञ्जार कररहें हैं वहां एक चकवी चकवे बिना अकेली वियोगरूप अग्नि से तप्तायमान अति प्राकल नानाप्रकार चेष्टाकी करनेहारी अस्ताचल की ओर सूर्यगया सो उसतरफ लग रहे हैं नेत्र जिके और कमलिनीके पत्रों के छिद्रों में बारम्बार देखे है पांखों को हलावती उठे है और पड़े है और मृणाल कहिये कमलकी नाल का तार उसका स्वाद विष समान लगे है अपना प्रतिविम्व जलमें देखकर जाने है कि यह मेरा पीतम है सो उसे बुलावे है सो प्रतिविम्ब कहां आवे तब अप्राप्ति से परम शोकको प्राप्तभई है कटक अाय उतराहै सो नाना देशोंके मनुष्योंके शब्द और हाथी घोड़ा आदि नानाप्रकारके पशुवों के शब्द सुनकर अपने वल्लभ चकवाकी अाशाकर भ्रमे है चित्त जिसका अश्रुपात
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पद्म
पुराण
॥२६॥
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सहित हैं, लोचन जिसके तटके वृक्ष पर चढ़कर दशदिशा की ओर देखे है पीतमको न देखकर अतिशीघ्र ही भूमि पर आय पड़े हैं पांख हलाय हलाय कमलिनी की जो रज शरीर के लगी है सो दूर करे है सो कुमार ने घनी बेर तक दृष्टिधर चकवी की दशा देखी, दयाकर भीज गया है चित्त जिसका चित्तमें ऐसा विचारा कि पीतम के बियोगकर यह शोक रूपअग्निमेंबले है यह मनोग्य मानसरोवर और चन्द्रमाकी चांदनी चन्दन समान शीतल सो इस बियोगिनी चकवी को दावानल समान है पति बिना इसको कोमल पल्लवभी खड्ग समान भासे हैं चन्द्रमा की किरण भी बज्रसमान भासे है स्वर्ग भी नरकरूप होय आचरे है ॥ ऐसा चितवन करते इसका मन प्रिया विषे गया और इस मानसरोवर पर ही विवाह भया था सो वे विवाह के स्थानक दृष्टि में पडे सो इस को अतिशोक के कारण भये मर्म के भेदन हारे दु:सह करौंत समान बगे । चित्त में विचारता भया हायहाय मैक्रूरचित्त पापी वह निर्दोष वृषा तजी एक रात्रि का वियोग चकवी न सहार सके तो बाईस वर्ष का बियोग वह महासुन्दरी कैसे सहारे कटुक वचन उस की सखी
कहे थे उससे तो न कहे थे में पराएदोष से काहे को उसका परित्याग किया धिक्कार है मो सारिखे मूर्ख को जो बिना बिचारे काम करे ऐसे निःकपट प्राणी कोने कारण दुखश्रवस्थाकरी मैं पापचिस हूं वज्रसमान है हृदय मेराजो मैंने एते वर्ष ऐसी प्राणवल्लभा को वियोग दिया अब क्या करूं पितासेविदा होकर घर से निकसा कैसे पीले जाऊं बडासंकट पड़ाजो में उससे मिले बिना संग्राम में जाऊं तो वहजीवे नहीं उसके प्रभाव भएमेरा भी अभावहोगा जगतमें जीतव्य समान कोई पदार्थ नहीं इसलिएससंदेह का निवारणहारा मेरापरममित्र प्रहस्त विद्यमान हैं उससे सर्वभेद पृहुंवह सर्वप्रीति की रीति में
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पद्म
॥२६॥
प्रवीण हैजे विचार कर कार्यकरें हैं वे प्राणी सुखपावें हैं ऐसा पवनकुमारको बिचारउपजा सो प्रहस्त. मित्र उसके सुख में सुखी दुख में दुखी इसको चिन्तावान देख पूछता भया कि हे मित्र ! तुम रावण की मदतकरनेको बरुण सारिखेयोधासे लडने कोजावोहो सोअतिप्रसन्नता चाहिये तबकार्यकी सिद्धि होय
आजतुम्हारा बदनरूपकमल क्यों मुरझायादीखे है लजाको तजकरमुझे कहो तुमको चिन्तावान देखकर मेराव्याकुलभावभयाहै तवपवंनजयनेकहीहेमित्र! यह बााकिसी औरसे कहनी नहीं परन्तु तु मेरे सर्वरहस्य का भाजन है तुझसे अंतरनहीं यहबात कहते परमलजा उपजे है तब प्रहस्त कहते भए जो तुम्हारे चित्तमें होयसो कहो जो तुम आज्ञाकरोगे सो बात और कोई न जानेगा जैसे ताते लोहेपर पड़ीजल की बून्द विलाय जाय प्रगट न दीखे तैसे मुझे कही बात प्रगट न होय तबपवनकुमार बोले हे मित्र! सुनो में कदापिअंजनी सुन्दरी से प्रीति न करी सो अब मेरामनप्रति ब्याकुल है मेरी कूरतादेखो एते वर्षपरणे भए सो अबतक बियोग रहा निःकारण अप्रीतिभई सदावहशाककी भरी रही अश्रुपात झरते रहे और चलते समयद्वारेखडी बिरह रूपदाहसे मुरझाया गया है मुखरूप कमल जिसका सर्व लावण्य संपदारहित मैने देखी अबउसके दीर्ष नेत्र नीलकमल समान मेरेहृदयको वाणवतभेदे हैं इसलिएऐसा उपायकर जिससे मेरा उससेमिलाप होय हे सज्जन!जो मिलापन होयगा तो हमदोनोंहीका मरणहोगा तब प्रहस्तक्षणएक विचारकर बोले तुम माता पिता से प्राज्ञामांग शत्रुके जीतबेको निकसेहो सो पीछे चलना उचित नहीं ,और अब तक कदापि अंजनी सुन्दरी यादकरी नहीं और यहां बुलावे तो लज्जाउपजे है इसलिये गोप्यचलना और गोप्यही भावना वहां रहनानहीं उनका अवलोकनकर मुख
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पुराण
॥२८॥
पद्म संभाषण कर श्रानन्द रूप शीघ्र ही भावना तब आपका वित्त निश्चल होगा परमउत्साहरूपचलनाशत्रु
के जीतने का निश्चय यह ही उपाय है तब मुद्गरनामा सेनापति को कटक रक्षा सौंप कर मेरू की बंदना का । मिस कर प्रहस्त मित्र सहित गुप्त ही सुगंधादि सामग्री लेकर आकाश के मार्ग से चले । सूर्य भी अस्त होगया और सांझ का प्रकाश भी हो गया, निशा प्रकट भई अंजनी सुन्दरी के महल पर जाय पहुंचे पवनकुमोर तोबाहिर खडे रहे प्रहस्त खबर देने को भीतर गये दीप का मंद प्रकाश था अंजनी कहती भई कौन है बसंतमाला निकट ही सोती थी सो जगाई वह सब बातों में निपुण उठकर अंजनी का भय निवारण करती भई प्रहस्त ने नमस्कार कर जब पवनंजय के ओगम का वृत्तांत कहा, तब सुन्दरी ने प्राणनाथ का समागम स्वप्न समान जाना प्रहस्त को गदगद बाणी कर कहती भई हे प्रहस्त ! मैं पुण्यहीन पति की कृपाकर वर्जित मेरे ऐसा ही पाप कर्म का उदय आया तू हमसे क्या हंसे है पति से जिसकानिरादर होय उसकी कौन अवज्ञा न करें में अभागिनी दुःख अवस्था को प्राप्त भई कहांसे सुख अवस्था होय । तब प्रहस्त ने हाथ जोड़ नमस्कार कर विनती करी हे कल्याणरूपिणी हे पलिते हमारा अपराध क्षमा करो अब सब अशुभ कर्म गए तुम्हारे प्रेम रूप गुण को प्रेरा तेरा प्राणनाथ आया तुमसे अति प्रसन्नभया तिन की प्रसन्नता कर क्यों क्या अानन्द न होय जैसे चन्द्रमा के योग कर रात्रि की प्रतिमनोग्यताहोय तब अंजनी सुन्दरी क्षण एक नीची होय रही और बसंतमोला ने प्रहस्त सों कही हे भद्र ! मेघ वरसे जब हा भला इसलिये प्राणनाथ इसके महल पधारेंसो इनका बड़ाभाग्य और हमारा पुण्यरूप वृक्ष फला यह बात होय ही रहा थी आनन्द के अश्रुपातों कर व्याप्त हो गए हैं नेत्र जिनके सो कुमार पधारे ही मानों करुणारूप सखी
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॥२
॥
पद्म ही पीतम को प्रियाके ढिग लेग्राई, तब भयभीत हिरणीकेनेत्र समान सुन्दरहनेत जिसकेऐसी प्रिया पति पुराण को देख सन्मुख जाय हाथ जोड़ सीस निवाय पायन पड़ी, तब प्राणवल्लभने अपने करसे सीए उठाया
खड़ी करी अमृत समान वचन कहे कि हे देवी!क्लेश का सकल खेद निवृत्त होवे सुन्दरी हाथ जोड़ पति के निकट खडी थी पतिने अपने करसे कर पकड़ कर सेज पर बैठाई, तब नमस्कार कर प्रहस्त तोबाहिर गए और वसन्तमाला भी अपने स्थानक जाय बैठी पवनंजय कुमार ने अपने अज्ञान से लज्जावान हो सुन्दरी से बारम्बार कुशल पूछी और कही हे मिए ! मैं ने अशुभ कर्म के उदय से जोतुम्हारा वृथा निरादर किया सो क्षमाकरो तब सुन्दरी नीचो मुखकर मन्दमन्द वचन कहतीभई हे नाथ !अापनेपराभव कछ न किया कर्म का ऐसाही उदय था अब आपने कृपाकरी अति स्नेह जताया सो मेरे सर्वमनोरथ सिद्धकिये आपके ध्यान कर संयुक्त हृदय मेरा सो श्राप सदा हृदयहीमें विराजते श्रापका अनादर भी आदर समान भासा इस भांति अञ्जनी सुन्हरी ने कहा तब पवनंजयकुमार हाथ जोड़ कहतेभए कि हे प्राणप्रिये ! में वृथा अपराध किया पराए दोषसे तुमको दोष दिया सो तुम सब अपराध हमारा विस्मरण करो में अपना अपराध
क्षमावने निमित्त तुम्हारे पायन परुंहूं तुम हमपर अति प्रसन्नहोवो ऐसा कहकर पवनञ्जयकुमारने अधिक । स्नेह जनाया तब अंजनी सुन्दरी महासती पति का एता स्नेह देखकर बहुत प्रसन्न भई और पति
को प्रियवचन कहती भई, हे नाथ मैं अति प्रसन्न भईहम तुम्हारे चरणारविंद की रज हैं हमारा इतना विनम | तुम को उचित नहीं ऐसा कहकर सुखसे सेजपर विराजमान किये, प्राणनाथकी कृपासे प्रियाका मन अतिप्रसन्न | भया और शरीर अतिकांति को धरता भया, दोनों परस्पर प्रतिस्नेह के भरे एक चित्त भये । सुख रूप ।
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॥३०॥
जाग्रत रहे निद्रा न लाना पिचल पाहेर अल्पनिद्रा भाई प्रभातका समय हो आया तब यह पतिव्रता सेज | से उतर पति के पाय पलोटने लगी रात्रि व्यतीत भई सो सुख में जानी नहीं प्रातः समय चन्द्रमा की किरण फीकी पड़ गई कुमार आनन्द के भार में भर गए और स्वामी की आज्ञा भूल गए, तब मित्र प्रहस्त ने कुमार के हित विषे है चित्त जिसका ऊंचाशब्द कर बसन्त माला को जगा कर भीतर पठाई और मन्द मन्द श्राप भी सुगन्ध महल में मित्र के समीप गए और कहते भए हे सुन्दर उठो कहां सोवो हो अब चन्द्रमा भी तुम्हारे मुख की कांति से कांति रहित होगया है यह वचन सुन कर पवनंजय प्रबोध को प्राप्त भए शिथिल है शरीर जिनका जंभाई लेते निदा के आवेश कर लाल हें नेत्र जिन के कानों को बांए हाथ की तर्जनी अंगुली से खुजावते खुले हैं नेत्र जिनके दाहिनी भुजा संकोचकर अरिहंत का नाम लेकर सेजसे उठे प्राणप्यारी आपके जागने से पहिले हीसेजसे उठ उतर कर भूमि विषे विराजती थी लज्जाकर नम्रीभूत हैं नेत्र जिसके उठते ही पीतम की दृष्टि प्रिया पर पड़ी फि प्रहस्त को देख कर, आवोमित्र ऐसा शब्द कहकर सेजसे उठे प्रहस्तने मित्रसे रात्रिकी कुशल पूछी निकटबैठे मित्रनीतिशास्त्र के वेत्ता कुमार से कहते भर हे मित्र अब उठो प्रियाजी का सन्मानफिर श्रोयकर करियो कोई न जाने इस भान्ति कटक में जाय पहुंच अन्यथा लज्जा है स्थनूपुर का धनी किन्नरगीतनगरकाधनी रावणके निकट गया चाहे है सो तुम्हारी ओर देखे है जो बे आगेश्रावें तो हम मिल कर चलें और रावण निरंतर मंत्रियों से पूछे है कि पवनंजयकुमार के डेरे कहां हैं और कब आयेंगे इस लिये अब आप शीघ्र हीरावन के निकट पधारो प्रियाजी से विदा मांगो तुमको पिताकी और रावण की आज्ञो अवश्य करनीहै कुशल ।
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पद्म, क्षेम से कार्य कर शिताबही श्रावेंगे तब प्राणप्रिया से अधिक से अधिक प्रीति करियो तब पवनंजयनैकही। ४३०॥ हे मित्र ऐसे ही करना ऐसा कहकर मित्रकोतोबाहिर पठाया औरापप्राणवल्लभासे अतिस्नेहकरउरसोलगा
य कहते भए हे प्रिये अब हम जाय हैं तुम उद्वेग मत करियो थोड़े ही दिनों में स्वामी को कामकर हम अावेंगे तुम अानन्दसे रहियो तब अंजनी सुन्दरी हाथ जोड़कर कहती भई हे महाराजकुमार मेरा ऋतुसमयहै सो गर्भ मुझकोअवश्य रहेगा और अब तक आपकी कृपा नहीं थी यह सर्व जाने हैं सो माता पिता मेरे कल्याण के निमित्त गर्भ का वृत्तान्त कह श्रावो तुम दीर्घदर्शी सब प्राणियों में प्रसिद्ध हो ऐसे जब प्रिया ने कहा तब प्राणबल्लभा को कहते भए हे प्यारी में माता पितासे बिदा होय निकसा सो अब उनके निकटजानाबने नहीं लज्जा उपजे है लोकमेरी चेष्टाजान सगे इसलिये जब तग तुम्हारागर्भ प्रकाशन पावे उसकेपहिले ही में आईं हूं तुम चित्त प्रसन्नराखो और कोई कहे तो ये मेरे नाम की मुद्रिका राखो हाथों के कड़े रासा तुमको सवशतिहोयगी ऐसाकहकर मुद्रिकादई औरषसंतमालाको प्राज्ञादईइनकीसेवाबहुतनीकेकरियो श्राप सेजसेउठे प्रियाविषे लगरहोहे प्रेम जिनका कैसी है सेजसंयोगके योगसे बिखररहे हैं हारके मुक्ता फल जहां और पुरुषों की सुगन्ध मकरंदसे भमे हैं भूमर जहां क्षीरसागरकी तरंग समान अति उज्ज्वल बिछे हैं पट जहां आप उठकर मित्रके सहित बिमानपर बैठ आकाशके मारग से चले अंजना सुन्दरी ने अमंगलके कारण आंसूनकादे हे श्रेणिक कदाचित इसलोक विषे उत्तम बस्तुके संयोगसे किंचित मुख होयहै सो क्षणभंगुरहै और देहधारियोंके पापके उदयसे दुख होयहै सुख दुख दोनों विनश्वर हैं इस लिये हर्ष विषाद न करना हो प्राणी हो जीवोंको निरन्तर सुखका देनेहाग दुख रूप अंधकारका दूर
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पद्म
पुराण
करणहारा जिनवर भाषित धर्म सोई भया सूर्य उसके प्रतापकर मोहतिमिरहरो । इति सोलहवांपर्व संपूर्णम् अथानन्तर कैयक दिनोंमें महेंद्रकी पुत्री जो अंजनी के गर्भके चिन्ह प्रकट भए कछु इक मुख ३०२ पांडु वर्ण होगया मानों हनुमान गर्भमें आए सो उनका यशही प्रकट भयो है मन्द चाल चलने लगी जैसा मदोन्मत दिग्गज विचरे स्तनयुगल अति उन्नतिको प्राप्त भए श्यामलीभूत हैं अग्रभाग जिनके आलससे वचन मन्द मन्द निसरे भौहों का कंप होता भया इन लक्षणों कर उसे सामू गर्भिणी जान कर पूछती भई तैंने यह कर्म किससे किया तब यह हाथ जोड प्रणाम कर पतिके आवनेका समस्त बृतांत कहती भई तब केतुमती सासू क्रोधायमान भई महा निठुर बागी रूप पाषाण कर पीडती भई है। पापिनी मेरा पुत्र तेरेसे प्रति विरक्त तेरा आकार भी न देखाचाहे तेरे शब्दको श्रवण विषेधारे नहीं मातापिता से विदा होकर रण संग्रामको बाहिर निकसा वह धीर कैसे तेरे मंदिरमें आवे हे निर्लज्जे धिक्कार है तु पापिनीको चंद्रमा की किरण समान उज्ज्वलबंशको दूषण लगावनहारी यह दोनों लोक
निन्द्य अशुभ क्रिया तैंने आचारी और तेरी यह सखी बसंतमाला इसने तुझे ऐसी बुद्धिदीनी कुलटा के पास | वैश्या रहे तब काहेकी कुशल मुद्रिका और कडे दिखाए तो भी उसने नमानी अत्यन्त कोप कियाएक क्रूर नामा किंकर बुलाया वह नमस्कारकर प्राय ठाढ़ा तब क्रोध कर केतुमतीने लाल ने कर कहा हे क्रूर सखीसहित इसे गाडी में बैठाय महेंद्रके नगर के निकट छोड़ा तब वह क्रूर केतुमतीकी श्राज्ञा से सखीसहित जनीको गाडीमें बैठाकर महेंद्रके नगरकी ओर लेचला कैसी है अंजनी सुन्दरी प्रति Aaj है शरीर जिसका महा पवनकर उपडी जो बेल उससमान निराश्चय प्रति श्राकुल कांतिरहित दुख
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पुराण
१३०३०
रूप अग्निकर जलगयाहै हृदय जिसका भयकर सासूको कर्वी उत्तर न दिया सखीके और धरे हैं नेत्र जिसने मनकर अपने अशुभ कर्मको बारंबार निन्दती अश्रुधारा नाखती निश्चल नहीं है चित्त जिस का क्रूर इनको लेचला वह क्रूर कर्म में अति प्रवीणहै दिवसके अंतमें महेंद्रनगरके समीप पहुंचायकर नमस्कार कर मधुर बचन कहता भया हे देवी में अपनी स्वामिनी की आज्ञासे तुमको दुखका कारण कार्य किया सो क्षमा करो ऐसा कहकर सखीसहित सुन्दरी को गाडी से उतार बिदा होय गाडी लेय स्वामिनी पैजायकर बिनती करी कि आपकी आज्ञा प्रमाण तिनको वहां पहुंचाय आया हूं।
अथानंतर महापतिव्रता जो अंजनी सुन्दरी उसे दुखके भारसे पीडितदेख सूर्यभी मानो चिन्ताकर मंद होय गई हैप्रभा जिसकी अस्त होगया और रुदनकर अत्यन्त लाल हो गएहैं नेत्र जिसके ऐसीअंजनी सो मानों इसके नेत्रकी अरुणताकर पश्चिम दिशा रक्त होगई अन्कार फैल गया रात्रि भई अंजनी के दुःख से निकसे जो आंसू वेई भए मेघ तिन कर मानों दशों दिशा श्याम होय गई और पंछी कोलाहल शब्द करतेभये सो मानो अञ्जनी के दुःखसे दुःखीभए पुकारें हैं वह अञ्जनी अपवादरूप महा दुःखका जो सागर उसमें डूबी क्षुधादिक दुख भूलगई अत्यन्त भयभीत अश्रुपात नाखे रुदनकरे सो बसंतमालासी धीर्य बंधावे रात्रीको पल्लवका साथरा बिछाय दिया सो इसको निद्रा रंचभी न आई निरन्तर उष्ण अश्रुपात पड़ें सो मानो दाहके भय निद्रा भागगई बसंतमालाने पांव दावे खेद दूरकिया दिलासो करी दुःखके योगकर एक रात्री वर्ष वरावर बीती प्रभातमें साथरेको तजकर शंका कर अति विठ्ठल पिता के घर की ओर चली सखी छाया समान संग चली पिता के मन्दिर के द्वार जाय पहची
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पुरास
॥३०४
भीतर प्रवेश करती द्वारपालने रोकी दुःखके योगकर औरही रूप होगया सो जानी न पड़ी तब सखी ने सर्व वृत्तान्त कहा सो जानकर शिलाकवाट नामा द्वारपाल ने एक और मनुष्य को द्वारे मेल श्राप राजा के निकट जाय विनती करी हे महाराज श्रापकी पुत्री आई है तब राजा के निकट सलन्नकीर्ति नामा पुत्र बैठाथा सो राजा ने पुत्रको आज्ञाकरी तुम सन्मुख जाय उसका शीघ्रही प्रवेश करावो और नगरकी शोभा करावो तुमतो पहिले जावो और हमारी असवारी तयार करावो हमभी पीछे से पावें हैं तब द्वारपालने हाथ जोड़ नमस्कार कर यथार्थ विनती करी तब राजा महेन्द्र लज्जा का कारण सुन कर महा कोषवान भए और पुत्रको प्राज्ञा करी कि पापिनी को नगर मेंसे काढ़ देवो जिसकी वार्ता सुनकर मेरे कान मानो वज्रकर हतेगए हैं तब एक महोत्साह नामा बड़ा सामन्त राजाका अति वल्लभ सो कहताभया हे नाथ ऐसी आज्ञा करनी उचित नहीं बसन्तमालासे सब ठीक पाडलेवो सासूके तुमती अति कर है और जिनधर्मसे पराङ्मुख है लौकिक सूत्र जो नास्तिक मत उस विषे प्रवीण है इसलिये विना विचारे इसको झूठा दोष लगाया यह धर्मात्मा श्रावक के व्रतकी धारणहारी कल्याण आचार विषे तत्पर उस पापिनी सासू ने निकासी है और तुमभी निकासो तो यह कौनके शरण जाय जैसे व्याघकी दृष्टिसे मृगी त्रासको प्राप्तभई सन्ती महागहन बनका शरणलेय तेसे यह भोली निःकपट सासू से शंकित भई तुम्हारे शरणे आई है मानो जेठके सूर्य की किरणके सन्ताप से दुखित भई महावृक्ष रूप जो तुम सो तुम्हारे पाश्रय पाई है यह गरीबिनी विहलहै आत्मा जिसका अपवादरूप जो भाताप उसकर पीड़ित तुम्हारे आश्रय भी साता न पावे तो कहां पावे मानो स्वर्ग से लक्ष्मीही आई है द्वारपाल ने रोकी सो
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पुराण
॥३०॥
अत्यन्त लज्जा को प्राप्त भई विलखी होय वस्त्र से माथा ढाक द्वारे खड़ी है आपके स्नेहकर सदालाडला है सो तुम दया करो यह निरदोष है मन्दिर माहि प्रवेश करावो और केतुमतीकी क्रूरता पृथिवी विषे प्रसिद्ध है ऐसे न्याय वचन महोत्साह सामन्त ने कहे सो राजाने कान न धरे जैसे कमलों के पत्रों में जल की बंद न ठहरे तैसे राजाके चित्तमें यह बात न ठहरी राजा सामन्त से कहतेभए यह सखी वसन्तमाला सदा इसके पास रहे और इसीके स्नेह के योगसे कदाचित सत्य न कहे तो हमको निश्चय कैसे आवे इसलिये इसके शीलविषे संदेह है सो इसको नगरसे निकास देवो जब यह बात प्रसिद्ध होयगी तो हमारे निर्मल कुल विषे कलंक आवेगा जे बडे कुलकी बालिका निर्मल हैं और महा विनयवन्ती उत्तम चेष्टा की धारणहारी हैं वे पीहर सासरे सर्वत्र स्तुति करने योग्य, जे पुण्याधिकारी बडे पुरुष जन्महीसे निर्मल शील पालें हैं ब्रह्मचर्यको धारण करे हैं और सर्व दोषको मूल जो स्त्री तिनको अंगीकार नहीं करें हैं वे धन्य हैं ब्रह्मचर्यसमान और कोई व्रत नहीं और स्त्री के अङ्गीकारमें यह फल होयहै जो कुपूत बेटा बेटी होंय और उनके अवगुण पृथिवी विषे प्रसिद्ध होंय तो पिता कर धरती में गड जाना होय है सबही कुलको लज्जा उपजे है मेरा मन श्राज अति दुःखित होयगया है में यह बात पूर्व अनेकबार सुनीथी कियह भरतारके अप्रिय है और वह इसे आंखोंसे नहीं देखे है सो उसकर गर्भकी उत्पतिकैसे भई इसलिये यह निश्चयसेती सदोषहै जो कोई इसे मेरे राज्यमें राखेगा सो मेरा शत्रु है ऐसे बचन कहकर राजाने कोपकर जैसे कोई जानेनहीं इसभांति इसको द्वारसे काढ़ दीनी सखीसहित दुखकी भरी अंजना राजाके निजवर्गके जहां २ श्राश्रयके अर्थ गई उन्होंने श्राने न दीनी कपाटदिए क्योंकि जहां बापही क्रोधायमान होय निग
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पद्म पराम ॥३०॥
करण करे वहां कुटम्बकी कैसी पाशा वे तो सब राजाके आधीनहें ऐसा निश्चयकर सबसे उदास होय | सखीसे कहती भई आंसूत्रों के समूह कर भीज गया है अंग जिसका हे प्रिये ! यहां सर्व पाषाण चित्त हैं यहां कैसावास इसलिये बनमें चलें अपमानसे तो मरना भला ऐसाकहकर सखीसहित बनको चली मानो मृगराजते भयभीत मृगीही है शीतउष्णोरवातके खेदसे महा दुखकर पीडित बनमें बैठ महा रुदन करती भई हायहाय में,मन्दभागिनी दुखदाई जो पूर्वोपार्जित कर्म उससे महा कष्टको प्राप्त भई कौनके शरणे जाऊं कौन मेरी रक्षा कर मैं दुर्भाग्यसागरके मध्य कौन कर्मसे पड़ी नाथ मेरा अशुभ कर्मका प्रेग कहांसे आया काहेको गर्भ रहा मेरा दोनोंही ठौर निरादर भया मातानेभी मेरी रक्षान करी सो वह क्याकरे अपनेधनी की अाज्ञाकारिणी पतिव्रतावोंका यही धर्म है और नाय मेरा यह वचन कहगयाथा पितेरे गर्भकी वृद्धि से पहिले मैं अाऊंगा सो हाय नाथदयावान होय वह बचन क्योंभूले और सासूने बिना परखे मेरात्याग क्यों किया जिनके शीलमें संदेह होय तिनके परखनके अनेक उपायहें और पिताको में बाल अवस्थामें अति लाडिलीथी निरन्तर गोदमें खिलावते थे सो विना परखे मेरा निरादर किया उनकी ऐसी बुद्धि उपजी और माताने मुझे गर्भधारी प्रतिपालन किया अब एकवातभी मुखसे न निकाली कि इसके गुण दोषका निश्चयकर लेवें और भाई जो एक माताके उदरसे उत्पन्न भयाथा वहभी मुझे दुखिनी को न राख सका सबही कठौर चित्त हो गये जहां माता पिता भ्रातही की यह दशा वहां काका बाबाके दूर भाई तथा प्रधान सामन्त क्या करें और उन सबहीपर क्यादोष मेरा जो कर्म रूप वृक्ष फलासोअवश्य भोगना। इस भांति अंजनी विलाप करे सो सखी भी इसके लार विलाप करें मनसे धीर्य जाता रहा |
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५३०७॥
पन | अत्यन्त दीन मन होय यह ऊंचे स्वर रुदन करे सो मृगी भी इसकी दशा देख प्रांसू डालने लगी। पुराण
बहुतदेरतक रोनेसे लाल होयगए हैं नेत्र जिसके तब सखीवसंतमाला महाविचक्षण इसे छातीसे लगायकर । कहतीभई कि हे स्वामिनी बहुत रोनेसे क्या जो कर्म तैंने उपार्जाहै सो अवश्य भोगनाहै सबही जावोंके कर्भ अागेपीछे लगरहे हैं सोकर्मके उदयमें शोक क्या हेदेवी जे स्वर्गलोकके देव सैकड़ों अप्सरावोंक नेत्रों कर निरन्तर अवलोकिये हैं वेभी सुकृतके अन्त होते परम दुःख पावे हैं मनमें चिंतिये कळू और होय जाय कछु और जगतके लोकं उद्यममें प्रवरते हैं तिनको पूर्वोपार्जित कर्मका उदयही कारण है जो हितकारी बस्तु आय प्राप्त भई सो अशुभकर्म के उदयसे विघटजाय और जो बस्तु मनसे अगोचरहै सोभी पाय ! मिले हैं कर्मोंकी गति विचित्रहै इस लिये बाई तू गर्भके खेद से पीडित है वृथा क्लेश मतकरे तू अपना मन दृढकर जो तेंने पूर्व जन्ममें कर्म उपारजे हैं तिनके फल टारे न टरें और तूतो महा बुद्धिमती है | तुझे क्या शिक्षादू जो तू न जानती होय तो मैं कहूं ऐसा कहकर इस के नेत्रोंके अपने बस्त्रसे अांसु पूछे और कहतीभई हेदेवी यह स्थानक श्राश्रय रहितहैं इस लिये उठो आगेचलें इस पहाडके निकट कोईगुफाहोयजहांदुष्टजीवोंका प्रवेश न होय तेरेप्रसूतिका समय आयाहै सो कैएकदिनयत्नसे रहना तब यह गर्भके भारसे आकाशके मार्ग चलनमें असमर्थहै भूमिपर सखी के संग गमन करती महा कसे पांव धरती भई कैसा है बनी अनेक अजगरों से भरी दुष्ट जीवों के नाद से अत्यन्त भयानक अतिशयन नाना प्रकार के वृक्षों से सूर्य की किरण का भी सञ्चार जहां नहीं सूई के अग्रभाग समान डाभ कापणी अतितीक्ष्ण जहां कंकर बहुत और माते हाथियों के समूह और भीलों के समूह बहुत हैं और वनीका बार
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पुराण ॥३०॥
मातंगमालिनी है जहां मन की भी गम्यतानहीं तोमनुष्यकी क्या गम्यता सखी श्राकाशमार्ग सेजानेको समर्थ है और यह गर्भ के भार से समर्थ नहीं इस लिये सखी इसके प्रेमके बंधन से बंधी शरीरकीछायासमान लारलार चले है अंजनीबनी को अतिभयानक देखकर कांपे है दिशाभूल गई तब बसन्तमाला इसकोअति ब्याकुल जानकर हाथ पकड़कर कहती भई हे स्वामिनीतु डरेमत मेरे पीछे २ चलीा । तब यह सखी के कांधे पर हाथ रख चली जाय ज्यों २ डाभ की अणी चुभे त्यों २ अति खेदखिन्न विलाप करती देह को कष्टसे धारती जल के निझरने जे अति तीव्र वेग संयुक्त बहैं तिनको अति कष्ट से उतरती अपने जे सब स्वजन अति निर्दई तिनको अति चितारती अपने अशुभ कर्म को वारंवार निन्दती वेलों को पकड़ भयभीत हिरणी कैसे हैं नेत्र जिसके अंग विषे पसेव कोघरती काटों से वस्त्र लग लग जांय सो छुड़ावती। लहूसे लाल होगए हैं चरण जिसके शोक रूप अग्नि के दाहसे श्यामता को घरती, पत्र भी हाले तो त्रास को प्राप्तहोती चलायमान है शरीर जिसका बारंबार विश्राम लेती उसे सखी निरंतर प्रियवाक्य कर धीर्य बंधावे सो धीरेधीरे अंजनी पहाड़ की तलहटी तक आई वहां प्रांसभर बैठगई सखी से कहती भई अब मुझमें एकपग धरने की शाक्त नहीं यहांही रहूंगी मरण होय तो होय तब सखी अत्यन्त प्रेम की भरी महा प्रवीण मनोहर वचनों से उसको शांति उपजाय नमस्कार कर कहती भई हे देवी देख यह गुफा नजदीक ही है कृपाकर यहांसे-उठकर वहां सुखते तिष्ठो यहां कूर जीव बिचरे हैं तुझे गर्भकी रक्षाकरनी है इसलिए हठ मतकर एसाकहा तबवह अाताप की भरी सखी के बचनों से और सघनबन के भय से चलने को उठी तब सखी हस्तालंबन देकर उसको विषमभूमि से निकास कर गफा के द्वारपरलेगई। बिना विचारे गुफा में |
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पुराण
॥३०॥
पद्म बैठने का भय होयसो ये दोनों बाहिर खड़ी विषमपाषाण केउलंघवेकर उपजाहैखेदजिनको इसलिये बैठ गई
वहां दृष्टि धर देखा कैसीहै दृष्टि श्याम श्वेत कमल समान प्रभाको धरे सो एक पवित्र शिला पर विराजे चारणमुनि देखे जोपल्यंकासन धरे अनेक ऋद्धिसंयुक्त निश्चलहें श्वासोच्छ्वास जिनके नासिकाके अग्रभाग परधरी है दृष्टिजिन्होंने शरीर स्तंभ समान निश्चलहै गोद पर घरा है जो बामा हाथ उसके ऊपर दाहना हाथ समुद्रसमान गंभीर अनेक उपमावों से विराजमान आत्मस्वरूप का जो पर्यायस्वभाव जैसा जिनशासन में गाया है तैसा ध्यान करते, समस्त परिग्रह रहित, पवनजैसे असंगीअाकाश जैसे निर्मल मानों पहाड़ केशिखर ही हैं सो इन दोनों ने देखे कैसे हैं वे साधु महापरोक्रम के धारी महाशान्ति ज्योति रूप है शरीर जिनका । ये दोनों मुनिके समीप गई सर्व दुःख विस्मरण भया तीन प्रदक्षिणा देय हाथ जोड़ नमस्कार किया, मुनि परमबांधव पाए फल गए हैं नेत्र जिनके जिससमय जो प्राप्ति होनीहोय सो होय तब ये दोनों हाथ जोड़ बिनती करती भई मुनिके चरणारविन्द की ओर घरे हैं अश्रुपातरहित स्थिर नेत्र जिनके हे भगवन् हे कल्यान रूप हे उत्तम चेष्टा के घरणहारे तुम्हारे शरीर में कुशल है कैसा है तुम्हारा देह सर्व तप बत आदि साधनों का मूल कारण है, हे गुणों के सागर ऊपरां ऊपर तप की है बृद्धि जिनके हे महा क्षमावान् शान्ति भाव के धारी मन इन्द्रियों के जीतनेहारे तुम्हारा जो विहार है सो जीवन के कल्याण निमित्तहै तुम सारिखे पुरुष सकल पुरुषोंकोकुशलके कारणहें सो तुम्हारी कुशल क्या पूछनी परन्तु यह पूछने का आचार है इस लिए पूछिये है ऐसा कह कर विनय से नम्री भूत भया है शरीर जिनका सो चप होय रहीं और मुनि के दर्शन से सर्वभयरहित भई ॥
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अथानन्तर मुनि अमृततुल्य परम शांति वचन कहतेभए हे कल्याणरूपिणी हेपुत्री हमारे कर्मानुपण सार सब कुशल है ये सर्वही जीव अपने अपने कर्मोका फल भोगे हैं देखो कर्मोंकी विचित्रता यह गजा
महेन्द्रकी पुत्री अपराध रहित कुटुम्ब के लोगों ने काढ़ी है सो मुनि बड़े ज्ञानी विना कहे सर्व वृत्तान्त के जाननहारे तिनको नमस्कार कर बसंतमाला पूछती भई हे नाथ कौन कारण से भरतार इस से बहुत दिन उदास रहे फिर कौन कारण अनुरागी भए और यह महासुख योग्य वनमें कौन कारणसे दखको प्राप्त भई कौन मन्दभागी इसके गर्भ में आया जिसे इसको जीवनका शंसय भया तव स्वामी अमित गति तीनज्ञान के धारक सर्ववृत्तान्त यथार्थ कहते भए, यही महापुरुषों की वृति है जो परायाउपकार करें मुनि बसंतमाला से कहे हैं हे पत्री इसके गर्भ विषे उत्तम पुरुष पाया है सो प्रथम तो जिस कारण से यह अंजनी ऐसे दुःख को प्राप्त भई जो पूर्व भव में पापका आचरणकिया सो सुन । जंबुद्धीप मे भरथ नामा क्षत्र वहां मन्दिर नमा नगर वहां प्रियनंदी नाम गृहस्थी उसकेजाया नाम स्त्रीऔर दमयन्त नाम पुत्र था सो महासौभाग्य संयुक्त कल्याण रूप जे दया क्षमा शील संपादिगुण बेई हैं आभूषण जिसके एक समय बसन्तऋतुमें नन्दनवन तुल्य जो बन वहां नगर के लोग क्रीडाको गए दमयन्त ने भी अपने मित्रों सहित बहुत क्रीढ़ा करी, अबीरादि सुगंधोंसे सुगन्धितहैशरीर जिसका और कुण्डलादि श्राभूषणों से शोभायमान सो उसने उसही समयमें महामुनि देखे कैसे हैं मुनि अम्बर कहिये आकाश सोई है अंबर कहिये वस्त्र जिनके तपही है धन जिनका और ध्यान स्वाध्याय श्रादि जे क्रिया उनमें उद्यमी सो यह दमयंत महा देदीप्यमान क्रीड़ा करते जे अपने मित्र तिनको छोड़ मुनियोंकी मण्डलीमें गया बन्दनाकर ।
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पद्म पुराण ॥३११॥
धर्मका व्याख्यान सुन सम्यक्दर्शन ग्रहणकिया श्रावक के व्रत मारे नानाप्रकारके नियम अङ्गीकारकिए। एकदिन जे सप्तगुण दाता के और नवधा भक्ति तिन संयुक्त होय सोधुवोंको आहार दिया कैएक दिनों | में समाधि मरणकर स्वर्ग लोकको प्राप्तभया नियमके और दानके प्रभावसे अद्भुत भोगभोगताभया सैकड़ों देवांगना के नेत्रोंकी कांतिही भई नील कमल तिनकी माला से अर्चित चिरकाल स्वर्गके सुख भोग यह फिर स्वर्गसे चयकर जम्बूद्वीप में मृगांकनामा नगरमें हरिचन्द नाम राजा उसकी प्रियंगुलक्ष्मी राणी उसके सिंहचन्द नामा पुत्र भए अनेक कलागुणोंमें प्रवीण अनेक विवेकियोंके हृदय में बसे वहां भी देवों कैसे भोग किये साधुवोंकी सेवा करी फिर समाधि मरणकर देवलोक गये वहाँ मन बांछित अति उत्कृष्ट सुख पाए कैसा है वह देव देवियों के जे वदन वेई भए कमल उनके जोबन उनके प्रफुल्लित करभेको सूर्य समान है फिर वहाँ से चयकर इस भरतक्षेत्र में विजिया गिरि पर अहनपुर नगरमें राजा सुकसठ राणी कनकोदरी उलके सिंह वाहन नाम पुत्र भए अपने गुणों से खेंचा है समस्त प्राणियों का मन जिसने वहां देवों कैसे भोग भोगे अप्सरा समान स्त्री तिनके मनके चोर भावार्थ अति रूपवान अतिगणवान सो बहुत दिन राज्यकिया श्रीविमलनाथजी के समोशरणमें उपजा है आत्मज्ञान और संसारसे वैराग्य जिन को सो लक्ष्मी वाहन नामा पुत्रका राज्य देकर संसारको असार जान लक्ष्मीतिलकमुनि के शिष्य भए श्रीवीतराग देवका भाषा महाव्रतरूप यतिका धर्मअंगीकार किया अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाका चिंतबन कर ज्ञान चेतनारूप भए जो तप किसी पुरुष से न बने सो तपकिया रत्नत्रयरूप अपने निज भावों में निशचिन्तभए परम तत्त्व ज्ञानरूप श्रात्मा के अनुभवमें मग्नभए तपके प्रभावसे अनेक ऋद्धि उपजी सर्व
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॥३१॥
पद्म वात समर्थ जिनके शरीरको स्पर्श पवन पावे सो प्राणियोंके अनेकरोग दुःखहरे परन्तु आपकर्म निर्जरा ।
के कारण बाईस परीषह सहतेभये फिर आयु पूरणकर धर्मध्यानके प्रसादसे ज्योतिष चक्रको उलंघ सातवां लांतव नामा जो स्वर्ग वहां बड़ी ऋद्धिके धारी देव भए चाहे जैसा रूप करें चाहे जहां जांय वचनों से कहने में न श्रावे ऐसे अद्भुत सुख भोगे परन्तु स्वर्गके सुखमें मग्न न भए परमधामकी है इच्छाजिन को वहांसे चयकर इस अंजनी की कुक्षि विषे अाए हैं सो महा मरम सुख के भाजन हैं फिर देह न घारेंगे अविनाशी सुखकोप्राप्त होवेंगे वरमशरीरी हैं यह तो पुत्र के गर्भ में प्रावनेका वृतान्त कहा अब हे कल्याण चेष्टिनी इसने जिस कारणसे पतिका विरह और कुटुम्बसे निरादर पाया सो वृतान्त सुन इस अंजनो मुन्दरी ने पूर्व भवमें देवाधिदेव श्री जिनेन्द्र देवकी प्रतिमा पटराणी पदके अभिमानसे सौकन के ऊपर क्रोधकरमंदिरसे बाहिर निकासी उसीसमय एकसमयश्री आर्यिका इसकेघराहारको आईथीतपकर पृथ्वीपर प्रसिद्धथी सो इसके श्रीजीकी मूर्तिका अविनय देख पारणान कियापीछे चली और इसको श्रज्ञान रूपजान महादयावतीहोय उपदेश देतीभई क्योंकि जे साधु जनहैं वे सबका भलाही चाहे हैं जीवोंके समझार्ने के निमित विनापूछेहीसाधुजन श्रीगुरुकी आज्ञासे धर्मोपदेश देनेको प्रवरते हैं.ऐसा जानकर वह संयमश्रीशील संयम रूपाभूपणकी धरणहारी पटराणीको महामाधुर्य अनुपम बचन कहती भई,हे भोरी सुन तू राजाकी पटराणी है और महारूपवती है राजाका बहुत सन्मान है भोगों का स्थानक है शरीर तेरा सो पूर्वोपार्जित पुण्य का फल है इस चतुर्गति में जीव भ्रमे है महा दुःख भोगे है कबहूक अनन्तकाल में पुण्य के योग से मनुष्य देह पावे है हे शोभने यह मनुष्य देह किसी पुण्य के योग से पाई है इसलिये यह निन्द्य
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पुराण
आचरण तू मतकर योग्य क्रिया करने के योग्यहै यह मनुष्यदेह पाय जो सुकृत न करे हे सो हाथसे रत्न .३१३३ खोयें हैं मन तथा वचन तथा काय से जो शुभक्रियाकासाधन है सोई श्रेष्ठहै और अशुभ क्रियाकासाधनहै
सो दुःख का मूल है जे अपने कल्याण के अर्थ सुकृत विषे प्रवरते हैं वेई उत्तम हैं यह लोक महानिंद्य अनाचार | का भरा है जे संत संसार सागरसे आप तिरे हैं औरों को तारे हैं भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देय हैं उन समान और उत्तम नाहीं वे कृतार्थ हैं उन मुनियों के नाथ सर्व जगत् के नोथधर्म चक्री श्रीअरिहंत देव तिनके प्रतिबिंब का जे अविनय करे हैं वे अज्ञानी अनेक भव में कुगति के महादुःख पावे हैं सो उन दुःखों को कौन बरणन कर सके, यद्यपि श्रीवीतराग देव रागद्वेष रहित हैं जे सेवाकरेंउनसेप्रसन्न नहीं औरजे निंदा करें तिनसे द्वेष नहीं महामध्यम भाव को धरें हैं परन्तु जेजीव सेवा करें वे स्वर्ग मोक्ष पावे हैं जेनिन्दा करेंवे नरक निगोद जावें क्योंकि जीवों के शुभ अशुभ परणामों से सुख दुःख की उत्पत्ति होय है जैसे अग्नि के सेवन से शीत का निवारण होय है और खान पान से क्षुधा तृषा की पीड़ा मिटे है तैसे जिनराज के अर्चन से स्वयमेव ही सुख होय है और अविनय से परमदुःख होय है, हे शोभने जे संसार में दुःख दीखे हैं वे सब पाप के फल हैं औरजे सुख हैं वेधर्म के फल हैं सोतू पूर्वपुण्य के प्रभाव से महाराजा की पटराणी || भई और महासंपतिवती भई और अद्भुत कार्य का करणहारा तेरा पुत्र है अब तू ऐसा कर जो फिर सुख पावे अपना कल्याण कर मेरे बचन से । हे भव्य ! सूर्य के औरनेत्र के होते संतेत कूप में मतपड़ें जो ऐसे
कर्म करेगी तो घोर नरक में पड़ेगी देवगुरु शास्त्र का अविनय करना अनंत दुःख का कारण है और ऐसे || दोषदेख जो में तुझेन संबो तो मुझो प्रमाद का दोष लगे है, इसलिये तेरे कल्याण निमित्त धार्मोपदेश
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पुराण
॥३१४॥
पदा | दिया हैजर श्रीपार्थ का जीने ऐसा कहा तब यह नरककेदुःख से डरी सम्यक्दशन धारण किया श्रादिकाके
बतादरे श्रीजी की प्रतिमा मन्दिर में पधराई बहुत विधानसे अष्ट प्रकारकी पूजा कराई इस भान्ति राणी कनकोदरी को आर्यिका धर्म का उपदेश देय अपने स्थानक को गई और वह कनकोदरीश्रीसर्वज्ञ देव का धर्म आराध कर समाधिमरणकर स्वर्गलोक में गई, वहांमहासुख भोगे स्वर्ग से चयकर राजामहेन्द्रकीराणीजो मनोवेगा उस के अञ्जनी सुन्दरीनामा तू पुत्री भई सो पुण्यके प्रभावसे राजकुल में उपजी उत्तमबर पाया और जो जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को एक क्षण मन्दिरके बाहिर राखा था उस के पाप से धनी का वियोग और कुटुम्ब से पराभव पाया विवाह के तीन दिन पहिले पवनञ्जय प्रछन्न रूप आए रात्री में तुम्हारे झरोखे में प्रहस्त भित्रकसहित बैठ थे सो उस समय मिश्रकशी सखीने विद्युत्प्रभ की स्तुति करी, और पवनञ्जय की निन्दा करी उस कारण पवनञ्जय देष को प्राप्त भए फिर युद्ध के अर्थ घर चले मानसरोवर पर डेरा किया वहां चकवीका बिरह देखकर करुणाउपजी सो करुणाही मानो सखीका रूप होय कुमारको सुन्दरी केसमीप लाई तब उससे गर्भ रहा फिर कुमार प्रछन्नही पिताकी आज्ञाके साधिवेके अर्थ रावणके निकट गए ऐसा कहकर फिर मुनि अंजनी से कहते भए महा करुणाभाव कर अमृत रूप वचन गिरते भए हे वालके तू कर्मके उदस से ऐसे दुःखको प्राप्तभई इसलिये फिर ऐसा निद्यकर्म मत करना संसार समुद्र के | तारणहारे जे जिनेन्द्रदेव तिनकी भक्तिकर क्योंकि इस पृथिवी विवे जे सुख हैं वे सब जिन भक्ति के
प्रताप से होय हैं ऐसे अपने भव सुनकर अंजनी विस्मय को प्रासमई और अपने किये जे कर्म तिनको निन्द्यती अति पश्चाताप करतीभई तब मुनिने कही हे पुत्री अब तू अपनी शक्ति प्रमाण नियगले और
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पद्म
पुरवा
३१५०
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जिनधर्मका सेवनकर यतिव्रतियोंकी उपासनाकर ने ऐसे कर्म कियेथे जो अधोगतिको जाती परंतु संयम श्री आर्याने कृपाकर धर्मका उपदेशदिया सो हस्तालम्बनदे कुगतिके पतनसे तू परम सुख पावेगी तेग पुत्र अखंडवीर्य है देवोंसेभी जीता न जाय अब थोड़े ही दिनमें तेरा तेरे भरतार से मिलाप होगा इसलिये हे भव्य तू अपने चित्त में खेद मतकरे प्रमादरहित जो शुभक्रिया उसमें उद्यमी हो यह मुनिके वचन सुन अञ्जनी सुन्दरी र वसन्तमाला बहुत प्रसन्न भई और बारम्बार मुनिको नमस्कार किया फूलगये हैं नेत्र कमल जिनके मुनिराज ने इनको धरमोपदेश देय श्राकाशमार्ग विहारकिया सो निर्मल है चित्तजिनका ऐसे संयमियोंको यही उचित है कि जो निर्जन स्थानकहो वहां निवास करें सोभी अल्पही रहें इसप्रकार निज भव सुन अञ्जनी पाप कर्मसे यति डरी और धर्मविषे सावधान भई वह गुफा मुनिके विराजवेसे पवित्र भई सो वहां अञ्जनी बसन्तमाला सहित पुत्रकी प्रसूति समय देखकर रही ।
गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि हे श्रेणिक अब वह महेन्द्रकी पुत्री गुफामें रहे बसन्तमाला विद्याबलसे पूर्ण विद्या के प्रभावसे खान पान आदि इसके मनवांछित सर्व सामग्री करे यह अञ्जनी पतिव्रता पियारहित बनमे केली सो मानो सूर्य इसका दुःख देख न सका सो अस्त होनेलगा मानों इसके दुःख से सूर्य की किरण भी मन्द होगई सूर्य अस्त होगया पहाड़ के शिखर और वृक्षोंके अप्रभागमें जो किरणों का उद्योत रहाथा सोभी संकोचलिया सन्ध्याकर क्षण एक आकाश मण्डल लाल होगया सो मानों अब taar at सिंह श्रावेगा उसके लाल नेत्रोंकी ललाई फैली है फिर होनहार जो उपसग उसकीप्रेरी शीघ्रही अन्धकारका स्वरूप रात्रि प्रकटभई मानों राक्षसनीही रसातलसे निसरी है पक्षी सन्ध्या समय चिगचगाट कर
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पद्म
॥३१६॥
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गहनवनमें शब्द रहित वृक्षोंके अग्रभागपर तिष्ठे मानों रात्रिको श्याम स्वरूप डरावनी देख भयकर चुप होय रहे शिवा कहिये स्यालिनी तिनके भयानक शब्द प्रवरते सो मानो होनहार उपसर्ग के ढोलही बाजे हैं ।
यानंतर गुफा मुख सिंहाया कैसा है सिंह बिदारे है हाथियों के जे कुम्भस्थल तिनके रुधिरकर लाल हो रहे हैं केश जिसके और कालसमान क्रूर भृकुटीको घरे और महाविषम शब्द करता जिसके शब्द कर बन गुंजा ररहाहै और प्रलयकालकी अग्निकीज्वालासमानजीभ को मुखरूप गुफा से काढ़ता कैसी है जीभम हा कुटिल है अनेक प्राणियोंकी नाशकरनहारी और जीवों के खैंचने को जिसकी अंकुशसमान तीक्षण दाढ़ रोद्र सबको भयंकर है और जिसके नेत्र अतित्रासके कारण उगता जो प्रलयकालका सूर्य उस समान तेज को धरें दिशाओंके समूहको रंग रूपकर वह सिंह पूंछकी श्रेणीका मस्तक ऊपर घरे नखकी अणी से विदारी है धरती जिसने पहाड़ के तटसमान उरस्थल और प्रबल है जांघ जिसकी मानों वह सिंह मृत्युका स्वरूप दैत्यसमान अनेक प्राणियों का क्षयकरनहारा अन्तकको भी अन्तकसमान अग्निसे भी अधिक प्रज्वलित ऐसे डरावने सिंहको देखकर बनके सब जीव डरे उसके नादकर गुफा गाज उठी सो मानों भयकर पहाड़ रोवने लगा और इसका निठुर शब्द बनके जीवों के कानों को ऐसा बुरा लगा मानों भयानक मुद्गरका घातही है जिसके चरम समान लाल नेत्र सो उसके भय से हिरण चित्राम कैसे हो रहे और मदोन्मत्त हाथियों का मद जाता रहा वही पशुगण अपने २ ताई बचाने के लिये भयकर कंपायमान वृक्षोंके आसरे होय रहे नाहरकी ध्वनि सुन अंजनीने ऐसे प्रतिज्ञा करी कि जो उपसर्ग से मेरा शरीरजाय तोमेरे अनशन ब्रत है उप सर्ग टरे भोजन लेना और सखीवसंतमाला खड्ग है हायमें जिसके कबहूं तो आकाश में जाय कबहूं भूगिपर
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॥३१॥
पन्न || श्रावे प्रति व्याकुल भई पक्षियों की न्याई भूमे ये दोनों महा भयवान कंपायमानहै हृदय जिनका तव ।
गुफाका निवासी जो मणिचूल नामा गंधर्वदेव उससे उसकी रत्नचुल नामास्त्रीमहादयावन्ती कहतीभई हे देव देखो ये दोनों स्त्री सिंहसे महा भयभीतहैं और अति बिह्वलहें तुम इनकी रक्षाकरो तव गंधर्वदेव को | दया उपजी तत्काल विक्रियाकर अष्टापदका स्वरूप रचासो सिंहका और अष्टापदका महा भयंकर शब्द होता भया सो अंजनी हृदयमें भगवानका ध्यान धरती भई और बसंतमाला सारसकी न्याई विलाप करे हाय अंजनी पहिले तो तूधनीके दुर्भागिनी भई फिर किसी इक प्रकार धनीका आगमन भया सो तुझे गर्भ रहासो सासने बिना समझे घरसे निकासी फिर माता पिताने भी न गखी सो महा भया नक बनमें आई वहां पुण्यके योगसे मुनिका दर्शन भया मुनिने धीर्य बंधाय पूर्वभव कहे धर्मोपदेश देय आकाशके मार्ग गए और तू प्रसूति के अर्थ गुफामें रही सो अब इस सिंहके मुखमें प्रवेश करेगी हाय हाय राजपुत्री निर्जनवनमें मरण प्राप्त होयहै अब इस बनके देवता दयाकर रक्षाकरो मुनीने कहीथी कि तेरा सकलदुःखगया सो क्या मुनियोंके बचन अन्यथा होयह इसभांति विलाप करती वसंतमाला हिंडोले झूलनेकी न्याई एकस्थल न रहे क्षणमें मुन्दरीके समीप आवे क्षणमें बाहिर जावे । __ अथानंतर वह गुफाकागंधर्वदेव जो अष्टापदका स्वरूपधर आयाथा उसने सिंहके पंजोंकीदीनीतसिंह भागा और अष्टापदभी सिंहको भगायकर निजस्थानक को गयायह स्वप्नसमान सिंह और अष्टापद के युद्धका चरित्र देख बसंतमाला गुफामें अंजनीसुन्दरी के समीप आई पल्लवों से भी अति कोमल जो हाथ तिन से विश्वासती भई मानों नवा जन्म पाया हित का संभाषण करती भई सो एक वर्षबराबर ||
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पद्म पुराक ॥३१८०
जाय है रात्री जिनको ऐसी यह दोनों कभी तो कुटुम्बके निर्दईपने की कथा करें कभी धर्म कशाकरें अष्टापदने सिंहको ऐसे भगाया जैसे हाथी को सिंहभगावे | और सर्पको गरुड़ भगावे औरवहगंधर्वदेव बहुत आन्दरुप होय गावने लगासो एसागावता भया किजोदेवों के भीमनको मोहे तो मनुष्यों की क्या बात अर्धरात्री के समयशब्द रहित होय गए तब यह गावता भया और बारंबार वीण को अतिराग से बजावता भया और भी सारबाजे बजावता भया और मंजीरादिक बजावता भया मृदंगादिक बजारताभया बांसुरी प्रादिक छकक बाजे बजावता भया और सप्त स्वगें में गायातिनके नाम निषाद १,ऋषभर,गांधार३, षड़ज४,मध्यम५, धैवत ६, पञ्चम७, इनसप्त स्वरों के तीन ग्राम शीघ्र मध्य विलंबित और इक्कीस मुर्छना हैं सो गंधर्षों में जे बड़े देव हे तिनके समानगान किया इसगानविद्या में गंधवदेव प्रसिद्धहें उनंच्चास स्थानक रागकेहें सो सवहीगंधर्व देवजाने हैं सो भगवान श्री जिनेंद्रदेव के गुणसुन्दर अक्षरों मेंगाएकि में श्रीअरिहंत देवकोभक्तिकरवंदूहूं कैसे हैं भगवान देव और दैत्योंकर पूजनीकहें देवकहिये स्वर्गबासी दैत्यकहिए ज्योतिषी वितर और भवनवासी ये चतुरनिकाय के देव हैं सो भगवान सब देवों के देव हैं, जिनको सुरनर विद्या | घर अष्ट द्रव्यों से पूजे हैं फिर कैसे हैं तीन भवन में अति प्रवीन हैं और पवित्र हैं अतिशयजिनके ऐसे जे श्रीमुनिसुव्रतनाथ तिन के चरण युगलमें भक्तिपूर्वक नमस्कार करूं हूं जिनके चरणारबिंद के नखोंकी कांतिइन्द्रके मुकुटकी रत्नोंकी ज्योतिकोप्रकाश करे है, ऐसे गानगंधर्वदेवने गाएसो वसंतमाला अतिप्रसन्न | भई ऐसे राग कभीसुने नहीं थे सो विस्मयकर ब्याप्त भया है मन जिसका उसमीतकी प्रतिप्रशंसाकरती भई धन्य यह गीत धन्य यह गीत काहूने अतिमनोहरगाए मेरा हृदय अमृतकरमाछादितकियाअंजनी |
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को वसंतमाला कहती भई यहकोई दयावान् देव है जिसने अष्टापद का रूपकर सिंहको भगाया और हमारी रक्षा करी और यह मनोहर राग इसी ने अपने आनन्द के अर्थ गाए हैं हे देवी हे शोभन हे शीलवंती तेरी दया सबही करें जें भव्य जीवहैं तिनके महाभयंकर बनमें देव मित्र होयहैं इस उपसर्ग के विनाश से निश्चय तेरा पति से मिलाप होगा और तेरे पुत्र अद्भुत पराक्रमी होयगा, मुनिके वचन अन्यथा न होंय, सोसुनि के ध्यान कर जो पवित्र गुफा उस में श्री मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा पघराय दोनो सुगंध द्रव्योंसे पूजा करती भई दोनों के चित्तमें यह विचार कि प्रसूति सुखसे होय । वसंतमाला नानाभांति अंजनीके चित्तको प्रसन्न
और कहती भई कि हे देवी मानो यह वन और गिरि मुम्हारे पधारने से परम हर्षको प्राप्त भया है सो नीझरने के प्रवाहकरयह पर्वत मानों हंसेही है, और यह वनके वृक्ष फलोंके भार से नम्रीभूत लहलहाटकरे हैं कोमल हैं पल्लव जिनके बिखर रहे हैं फूल जिनके सो मानों हर्ष को प्राप्तभए हैं और जे मयूर सूवा मैना कोकिलादिक मिष्ट शब्दकर रहे हैं सो मानो बन पहाड़ से बचनालाप करे हैं पर्बत नानाप्रकार की जे धातु तिनकी है खान जहां और सघनवृच्चों के जे समूह सोई इस पर्वतरूप राजाके सुन्दर वस्त्र हैं और यहां नानाप्रकार के रत्न हैं सोई इस गिरिके आभूषण भए और इसपर्वत में भली २ गुफा हैं और यहां अनेक जातिके सुगन्धपुष्प हैं और इस पर्वत ऊपर बडेवडे सरोवर हैं जिनमें सुगन्ध कमल फूल रहे हैं। तेरा मुख महासुन्दर अनुपम सो चन्द्रमा की और कमल की उपमा को जीते है कल्याणरुपी चिंता हो धीवर इस वन में सर्वकल्याण होयगा देवसेवा करेंगे हे पुण्याधिकारी तेरा शरीरविश्याप है हर्षसे पची शब्द करे हैं सो मानों तेरी प्रशन्साही करे हैं यहवृच शीतल मन्दसुगन्ध मेरे पत्रों
के
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पत्र || के लहलहाट से मानों तेरे विराजने से महाहर्ष को प्राप्त भएनृत्य ही करे हैं अब प्रभातका समय भयाहे पहिले s, तो आरक्त सन्ध्या भई सो मानों सूर्य ने तेरी सेवा निमित्त पठाई और अब सूर्य भी तेरा दर्शन करने के अर्थ
| मानों उदय होने को उद्यमी भयाहै यह प्रसन्न करने की बात बसन्तमालाने जब कही तव अंजनी सुन्दरी | कहती भई हे सखीतेरे होते सन्तेमे रे निकटसर्बकुटुम्ब है और यह बन ही तेरे प्रसाद से नगर है जो इसप्राणीको
आपदामें सहाय करे है सोही बांधव है और जो वांघव दुःखदाताहै सोही परम शत्रुहै इस भान्ति परस्पर मिष्ट संभाषण करती ये दोनों गुफा में रहें श्रीमुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा का पूजन करें विद्या के प्रभाव से बसंतमाला खान पान आदि भली विधि सेती सब सामग्री करे वह गंधर्व देव सर्व प्रकार इनकी द्रुष्ट जीवों से रक्षा करे और निरन्तर भक्ति से भगवान् के अनेक गुण नानाप्रकार के रोग रचना से गावे॥
अथानन्तर अंजनी के प्रसूतिका समय आया तब बसंतमालाको कहती भई हे सखी आज मेरे कछु ब्याकुलता है तब बसंतमाला बोली हे शोभने तेरे प्रसूति का समय है तू आनन्द को प्राप्त हो तब इसके लिये कोमल पल्लवों की सेज रची उस पर इसके पुत्रका जन्मभया जैसेपूर्वदिशासूर्यकोप्रकटकरेतैस यह हनूमान् को प्रकट करती भई पुत्र के जन्म से गुफा का अंधकार जाता रहा प्रकाशरूप होय गई मानोंसुवर्णमई ही भई तब अंजनी पुत्रको उरसे लगाय दीनता के वचन कहती भई कि हे पुत्र तूगहनबनमें उत्पन्न भयो तेरे जन्मका उत्सव कैसे करूं जो तेरादादे के तथा नानेके घर जन्म होतातो जन्मका बड़ा उत्सव होता, तेरा मुखरूप चन्द्रमा देख कौनको आनन्द न होय में क्याकरूं मन्दभागिनीसर्ववस्तु रहित हूं देव कहिये पूर्वोपार्जित कर्म ने मुझऐसी दुःखदायिनी दशाको प्राप्त करी जो में कछुकरनेको समर्थ नहीं हूं।
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पुराण
| परन्तु प्राणियों को सर्ववस्तु से दीर्घायु होना दुर्लभ है सो हे पुत्र!तू चिरञ्जीवहो तूहै तो मेरे सर्वहे यह
प्रोणोंका हरणहारा महागहन बन है इसमें जोमें जीवं हूं सो ते रेही पुण्यके प्रभावसे ऐसेदीनताके बचन ॥३२१".
अञ्जनी के मुख से सुनकर बसंतमाला कहतीभई कि हे देवी तूकल्याणपूर्ण है ऐसा पुत्रपाया यह सुन्दर लक्षण शुभरूप दीखे है बड़ी ऋद्धिका घारीहोगा तेरे पुत्रके उत्सवसे मानो यह वेलरूप बनितानृत्यकरें हैं चलायमान हैं कोमलपल्लव जिनके औरजोभ्रमर गुंजार करें हैं सो मानो संगीतकरें हैं यह बालक पूर्ण तेज है सोइसके प्रभाव से ते रे सकल कल्याण होगातूवृथा चिन्तावतीमतहो इसभान्ति इनदोनोंकेवचनालाप होतेभए ___ अथानन्तर बसन्तमालाने आकाशमें सूर्यके तेज समान प्रकाश रूप एक ऊंचा विमान देखा सो देख कर स्वामिनी से कहा तब वह शंकाकर विलाप करतीभई यह कोई निःकारण बैरी मेरे पुत्र को लेजाय | अथवा मेरा कोई भाई है तिनके विलाप सुन विद्याधर ने विमान थांभा दयासंयुक्त आकाशसे उतरा गुफाकेदार पर विमानको थांभ महा नीतिवान महा विनयवान शंका को घरता हुवा स्त्री सहित भीतर प्रवेश किया तब बसन्तमालाने देखकर भादरकिया यह शुभ मन विनयसे बैठा और चपएक बैठ कर महामिष्ट और गम्भीरवाणी कहकर बसन्तमालाको पूछताभया ऐसे गम्भीरवचन कहताभया मानो मयूरों को हर्षितकरता मेघही गरजा है सुमर्यादा कहिये मर्यादा की घरणहारी यह बाई किसकी बेटी किस से परथी किसकारण से महाबन में रहे है यह बड़ घरकी पुत्री है किसकारण से सर्वकुटुम्ब से रहित भई है | अथवा इस लोकमें रागदेष रहितजे उत्तमजीव हैं तिनके पूर्व कर्मों के प्रेरेनिःकारपबैरी होयहें तब वसन्त || माला दुःखके भारसे रुकगयाहै कण्ठ जिसका आंसू डारती नीची है दृष्टि जिसकी कष्टकर वचन कहतीभई
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॥३२॥
पहा | ह महासुभाव तुम्हारे बचनही से तुम्हारे मनकी शुद्धता जानी जाय है जै दाह के नाशका मूल जो
चन्दनका वृक्ष उसकी छायाभी सुन्दर लगे है तुम सारिखे जे गुणवान पुरुषहें सो शुद्धभाव प्रकट करने के स्थानक हैं आप बड़े हो दयालहो यदि तुम्हारे इसके दुःख मुनने की इच्छा है तो सुनो मैं कहूंहूं तुम सारिखे बड़े पुरुषों से कहाहुवा दुःख निवृत्त होयहे तुम दुःखहारी पुरुषहो तुम्हारा यह स्वभावही है कि श्रोपदा विर्षे महायकरो सो सुनो यह अंजनी सुन्दरी राजा महेन्द्रकी पुत्री है वह राजा पृथिवीपर प्रसिद्ध .महा यशवान नीतिवान निर्मल स्वभाव है और राजा प्रल्हादका पुत्रपवनंजय गुणोंका सागर उसकी । प्राणहूसे प्यारी यह स्त्री है सो पवनंजयएक समय बापकी प्राज्ञासे आपतोरावणके निकट वरुणासे युद्धके अर्थ विदाहोय चले थे सो मानसरोवरसे रात्रिकोइसकेमहलमेंबाए और इसकोगर्भरहा सोइसकी सासूकाङ्करस्वभाव दयारहित महामूर्खथाही उसके चित्तमें गर्भका भर्म उपजा तबउसने इसको पिताके घर पठाई यह सर्वदोषरहित महासतीशीलवंती निर्विकारहै सोपिताने भी अकीर्तिके भयसेन राखी जे सज्जनपुरुषहें वे झूठेभी दोषसे डरें हैं यह बड़े कुलकी वालिका सर्वश्रालंबनरहित इस बनमें मृगीसमान रहे है मैं इसकी सेवा करूंहूं इनके कुल क्रमसे हम आज्ञाकारी सेवकहें इतबारी हैं और कृपापात्रहें सो यह श्राज इस बनमें प्रसूतभई है यह बन नाना उपसर्गका निवासहै न जानिए कैसे इसको सुख होयगा। हे राजन ! यह इसका बृतांत संक्षेपसे तुमसे कहा और संपूर्ण दुःख कहांतक कहूं इस भांति स्नेहसे पूरित जो वसंतमालाके हृदयका गगसी अंजनी के तापरूप अग्निसे पिगला और अंग में न समाया सो मानों बसंतमाला के बचन द्वारकर बाहिर । निकसा तब वह राजा प्रतिसूर्य हनूरुहनाम द्वीपका स्वामी बसंतमालासे कहताभया हे भव्य मैं राजा |
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पुराण
३२३॥
चित्रभानु और राणी सुन्दरमालिनाका पुत्रहूं अंजनी मेरीभानजी है मैंने बहुत दिनमें देखी सो पिछानी नहीं ऐसा कहकर अंजनीको बालावस्थासे लेकर सकल वृतांत कहकर गद्गद बाणीकर बचनालाप कर। आंसू डालता भया तब पूर्ण वृतान्त कहनेसे अंजनीने इसको मामा जान गले लग बहुत रुदन किया सो मानों सकल दुःख रुदनसहित निकस गया क्योंकि यह जगतकी रीतिहै कि हितु देखेसे अश्रुपात पड़े हैं वह गजाभी रुदन करने लगा और उसकी रानीभी रोवने लगी बसंतमालाने भी अति रुदन किया इन सबके रुदनसे गुफा गुंजार करती भई सो मानों पर्वतने भी रुदन किया जलके जे नीझरने वेई भए अश्रुपात उनसे सब बन शब्दमई होयगया बनके जीव जे मृगादि सोभी रुदन करते भए तब राजा प्रतिसूर्यने जलसे अंजनी का मुख प्रक्षालन कराया और आपभी जलसे मुख प्रक्षाला । बन भी शब्द रहित होगया मानों इनकीबार्ता मुनना चाहे है अंजनी प्रतिसूर्यकी स्त्रीसे क्षेमकुशल पूछती भई सो बड़ोंकी यही गतिहै कि जो दुःखमें भी कर्तब्यसे चुकें और अंजनी मामा से कहती भई हे पूज्य मेरे पुत्रका समस्त शुभाशुभ वृतांत ज्योतिषियोंसे पूछो तब सांवतसरनामा ज्योतिषी लास्याउस
को पूछा तब ज्योतिषीबोला बालकके जन्मकी वेलाबतावोतव वसंतमालाने कहाकियाजअर्धरात्रिगए | जन्म भयो है तबलग्नथापकर बालकके शुभलक्षणजान ज्योतिषी कहताभयाकि यहबालकमुक्तिकाभाजन
है फिर जन्म नधरेगा जो तुम्हारे मनमें संदेहहे तोमैं संक्षेपतासे कहूंहूं सो सुनो (१) चैत्रशुदी अष्टमी की (१) नोट-मूलनन्थ में मात्रादि दूसरीप्रकार वर्णन किए हैं परन्तु हम नहीं जा सक्त कि यह ग्रह ठीक हैं या मूल ग्रन्थ के
ठीक हैं इसकार का हमने भाषाग्रन्थ के मूजनही रक्खा है। मूल ग्रम्प के माफिक ग्रहादिक को भी ग्रन्छ के अन्त में हम लिखो, बुद्धिनाम विचार लेवें।
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पुराज
Ran
तिथि है और श्रवण नक्षत्रहे और मुयमेषका उच्चस्थानक विषेबैठाहै और चन्द्रमाहपका और मकरका मंगलहै और बुधमीनकाहै और वृहस्पति कर्ककाहै सो उच्चहै शुक्र तथा शनैश्चर दोनों मीनके हैं सूर्य । पूर्ण दृष्टिकर शनिको देखे है और मंगल दश विश्वा सूर्यको देखेहै और बृहस्पति पन्द्रह विश्वासूर्य । को देखे है और सूर्य दशविश्वा वृहस्पतिको देखेहै और चन्द्रमाको पूर्ण दृष्टि वृहस्पति देखे है और वृहस्पतिको चन्द्रमा देखे है और बृहस्पति शनिश्चरको पन्द्रह विश्वा देखे है और शनिश्चरबृहस्पति को दस विश्वा देखेहै और बृहस्पति शुक्रको पन्द्रहविश्वा देखे है और शुक्र वृहस्पतिकोपंद्रहविश्वादेखे है इसके सबहीग्रह बलवान बैठे हैं सूर्य और मंगजदोनों इसका अद्भुतराज्यनिरूपणकरे हे औरबृहस्पति
और शनिमुक्तिका देनहारा जो योगीन्द्रपद निर्णयकरे हैं जोएकवृहस्पतिही उच्चस्थान बैठाहोयतो सर्व कल्याणके प्राप्तिका कारणहै और ब्रह्मनामा योगहै और मुहूर्तशुभहै सो अविनाशीसुखकासमागम इसके होयगा इसभांति सबहीग्रह अतिबलवान बैठे हैं सोसर्वदोषरहित यह होयगा ऐसा ज्योतिषीनेजबकहा तब प्रतिसूर्य ने उसको बहुत दानदिया और भानिजीको अतिहर्ष उपजाया और कहाकि हे बत्से! अबहमसब हनूरुहद्वीपकोचलें वहां बालक का जन्मोत्सव भली भान्ति होयगा, तब अंजनी भगवान को बन्दनाकर पुत्र को गोदी में लेय गुफा का अधिपति जो वह गंधर्वदेव उससे बारम्बार क्षमा कराय प्रतिसूर्य के परिवार सहित गुफा से निकली और विमानके पास आई उभी रही मानों साक्षात् बनलक्ष्मी ही है कैसा है विमान मोतीयोंके
जेहार सोई मानों नीझरने हैं और पवन की प्रेरी क्षुद्रघण्टिका बाजरही,और लहलहाट करती जे रत्नों की | झालरी तिन से शोभायमान और केलि केवनों से शोभायमान है सूर्य के किरण के स्पर्श कर ज्योतिरूप
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पद्म | होय रहा है और नाना प्रकार के रत्नों की प्रभाकर ज्योति का मण्डल पड़ रहा है सो मानों इन्द्रधनुष पुराण
ही चढ़ा रहा है और नानाप्रकार के वर्णों की सैकड़ों ध्वजाफर हरे हैं और वह विमान कल्पवृक्ष समान | मनोहर है नानाप्रकार के रत्नों से निर्मापित नाना रूप को धरे मानो स्वर्ग लोकसे आया है, सो उस | विमान में पुत्रसहित अंजनी वसन्तमाला तथा राजा प्रतिसूर्य का परिवार सब बैठकर आकाश के मार्ग
चले,सोबालक कौतुककर मुलकता सन्तामाताकी गोद में से उछलकर पर्वत ऊपरजापड़ा माता हाहाकार | करनेलगी और सर्व लोक राजा प्रतिसूर्यके हाहाकार करते भए और राजा प्रतिसूर्य बालक के ढूंढने को
आकाश से पृथिवी पर आया, अंजनी अतिदीन भई विलाप करे है ऐसे विलाप करे है उस को सुन कर तिर्यञ्चोंका मन भी करुणा कर कोमल होयगया हायपुत्र यह क्या भया दैव कहिए पूर्वोपार्जित कर्मने क्या किया मुझे रत्न सम्पूर्ण निधान दिसायकर फिर हरलिया पतिके वियोगके दुःखसे व्याकुल जो मैसो मेरे जीवनका पालम्बन जो पालक भयाथो सोभी पूखोपार्जित कर्मने छिनायलिया सो माता तो यह विलाप करे है और पुत्र पत्थरपर पड़ा सो पत्थरके हजारों खंड होगए और महाशब्द भया प्रति सूर्य देखे तो बालक एक शिलाऊपर सुख से विराजे है अपने अंगूठे प्रापही चूसे है क्रीड़ा करे है और मुलके है अतिशोभाय मान सूधे पड़े हैं लहलहाट करे हैं कर चरण कमल जिनके सुन्दर है शरीर जिनका वे कामदेव पद के धारक उनको कौनकी उपमा दीजे मन्द मन्द जो पवन उससे लहलहाट करता जो रक्त कमलोंका बन उस समान है प्रभा जिनकी अपने तेजसे पहाड़के खंड खंड किए ऐसे बालकको दूरसे देखकर राजाप्रति सूर्य प्रति आश्चर्यको प्राप्तभया कैसाहे बालक निःपाप है शरीर जिसका धर्मका स्वरूप तेज का पुंज
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पुराण
।३२६॥
ऐसे पुत्रको देख माता बहुत विसमयको प्राप्त भई उठोय सिर चूमा और छाती से लगा लिया तब प्रति | सूर्य अंजनी से कहताभया हे बालके यह बालक तेरा सम चतुर संस्थान वज्र बृषभ नाराच संहनन का धारनहारा महा वजूका स्वरूप है जिसके पड़नेकर पहाड़ चूर्ण होयगया जब इस बालककीही देवों से अधिक अद्भुत शक्ति है तो यौवन अवस्था की शक्ति का क्यो कहना यह निश्चय सेती चरमशरीरी है। तद्भव मोक्षगामी है फिर देह न धारेगा इसकी यही पर्याय सिद्ध पदका कारण है ऐसा जानकर तीन प्रदक्षिणा देय हाथ जोड़ सिर नवाय अपनी स्त्रियों के समूह सहित बालकको नमस्कार करताभया यह बालक उसकी जे स्त्री तिनके जे नेत्र तेई भए श्यामश्वेत अरुण कमल तिनकी जे माला तिनसे पूजनीक अति रमणीक मन्दमन्द मुलकनका करणहारा सबही नरनारियोंका मनहरे राजाप्रति सूर्य पुत्रसहित अञ्जनी भानजीको विमान में बैठाय अपनेस्थानमें सेाया कैसाहै नगर ध्वजा तोरणों से शोभायमा है राजा । आया सुन सर्व नगर के लोक नाना प्रकार के मङ्गल द्रब्यों सहित सन्मुख पाए राजा प्रति सूर्य ने राजमहलमें प्रवेश किया वादित्रों के नादसे व्याप्त भई हैं दशों दिशा जा बालकके जन्मका बड़ा उत्सव विद्याधरों ने किया जैसा स्वर्गलोक विषे इन्द्रकी उत्पत्तिका उत्सव देख करे हैं पबतविषे जन्म पाया और विमान से पड़कर पर्वतको चूर्णकिया इससिये बालकका नाम माता और बालक के मामाप्रति सूर्यने श्री
शैल ठहराया और हनूरुहदीप विषे जन्मोत्सवभया इसलिये हनूमान यह नाम पृथिवीविषे प्रसिद्धभया बह श्रीशैल (हनूमान) हनूरुहपुरमें रमें कैसाहै कुमार देवों समानहे प्रभा जिसकी महाकान्तिवान सबको महा उत्सवरूपहै शरीरकी क्रिया जिसकी सर्बलोकके मन और नेत्रोंका हरनेहारा प्रतिसूर्यके पुर विषे विराजे है।
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॥३२॥
अथानन्तर गणघरदेव राजा श्रेणिकसे कहेह हे नृप !प्राणियोंकेपूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावसे गिरोंका पुराण
चूरण करनहारा महाकठोर जो वसोभी पुष्पसमान कोमलहोय परणवे हैं और महा आतापकी करनहारी | जोअग्नि सोभी चन्द्रमा की किरण समान तथा विस्तीर्ण कमलनीके बन समोन शीतल होयहै और महा तीक्षण खड्गकी धारा सो महामनोहर कोमल लता समान होयहे ऐसा जानकर जे विवेकी जीवहें वे पापसे विरक्त होयह कैसा है पाप महा दुख देनेमें प्रवीणहै तुम श्रीजिनराजके चरित्रविषेअनुरागी होवो कैसाहै जिन
राजका चरित्र सारभूत जो मोक्षका सुख उसके देनेविषे चतुरहे यह समस्त जगत् निरन्तर जन्मजरा मरण | रूप सूर्यके आतापसे तप्तोयमानहै उसमें हजारोंजे व्याधिहें सोइकिरणों का समूहहै। इति सतरखापर्व संपूर्णम् ___अथानन्तर गौतमस्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हे हे मगधदेश के मण्डन यह श्रीहनूमानजी के जन्म को वृत्तांत तो तुझे कहा अब हनूमानके पिता पवनंजय का वृत्तान्त सुन पवनंजय पवनकी न्याई शीघ्रही रावणपै गयो और रावणकी आज्ञा पाय वरुणसे युद्ध करता भया सो बहुत देरतक नाना प्रकारके शस्त्रों
से वरुण के और पवनंजय के युद्ध भया सो युद्ध विषे.वरुण को पवनंजय ने बांध लिया तब उसने | जो खरदूषणको बांधाथा सो छुड़ाया और वरुणको रावण के समीप लाया, वरुणने रावणकी सेवाअंगीकार करी रावण पवनंजय से अति प्रसन्न भए तब पवनंजय रावणसे विदा होय अंजनी के स्नेहसे शीघ्र ही घरको चले राजा प्रल्हाद ने सुनी कि पुत्र विजय कराया तब ध्वजा तोरणमालादिकों से नगर शोभित किया तव सवही परिजन पुरजन लोग सनमुख प्राय नगर के सर्वनर नारी इनके कर्तव्यकी प्रशंसाकरें राजमहल के द्वारे अर्घादिक कर बहुत सन्मान कर भीतर प्रवेश कराया सारभूत मंगलीकवचनों से कुंवर की
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पद्म
पराश
।।३२८॥
सबही ने प्रशंसा करी कुँवर माता पिता को प्रणाम कर सब का मुजरा लेय क्षण एक सभा विषे सबन की शुश्रुषा कर आप अंजनी के महल पपारे, प्रहस्त मित्र लार सो वह महल जैसा जीव रहित शरीर सुन्दर न लागे तैसे अंजनीविना मनोहरन लागे तब मन अप्रसन्न होय गया प्रहस्त से कहते भए हे मित्र यहां वह प्राणप्रिया कमलनयनी नहीं दीखे है सो कहां है यह मन्दिरग्स बिना मुझे उद्यान समान भासे है अथवा श्राकाश समान शून्य भासे है इसलिये तुम वार्ता पूछो वह कहां है तब प्रहस्त बाहिरले लोगों से निश्चय कर सकल वृतान्त कहता भया,तब इनके हृदयको क्षोभ उपजा माता पितासे विना पूछे । मित्रसहित महेन्द्र के नगर में गए, चित्त में उदास जब राजा महेन्द्र के नगर के समीप जाय पहुंचे तब मन में ऐसा जानाजोआजप्रिया का मिलोप होयगा तब मित्र से प्रसन्नहोय कहते भएकिहेमित्रदेखोयह नगर मनोहर दीखे है जहां वह सुन्दर कटाक्ष की घरन हारी सुन्दरी विराजेहै, जैसे कैलाश पर्वत के शिखर शोभायमान दीखे हैं तैसे ये महलके शिखर रमणीक दीखेहैं और बनवृत्त ऐसे सुन्दरहें मानों वर्षांकालकी सघनघटा ही हैं ऐसीबार्ता मित्रसे करते हुए नगरकेपास जाय पहुंचे मित्रभी बहुत प्रसन्न करता आया राजा महेंद्रने सुनी कि पवनञ्जय कुमार विजयकर पितासों मिल यहांआएहें तब नगरकी बडीशोभाकराई औरापअर्घादिकउपचारलेयसन्मुखायाबहुतश्रादरसे ऊँचर को नगर में लाएनगरकेलोगोंनेबहुतश्रादर से गुण वरणन किए कुँवरराज मन्दिर में पाए एक महूर्त ससुरके निकटबिराजे सबहीका सनमानकियाऔर यथायोग्यबार्ता करी फिर राजासे आज्ञा लेकर सासूका मुजराकरा फिरप्रियाके महल पधारे। कैसे हैं कुमार कांताके देखने की है अभिलाषा जिन के वहांभीस्त्री को न देखातब अति बिरहातुरहोय काहूकोपूछा हे बाल-||
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पुराण
३२९॥
पद्म के यहांहमारी प्रिया कहां है तत्रवह वोली हेदेव यहां तुम्हारी प्रिया नहीं तव उसके वचनरूप वज्र से हृदय चूर्ण होगया और कान मानों ताते खारेपानी से सींचेगए जैसा जीवरहित मृतक शरीर होय तैसा होय गया शोकरूप दाहकर मुरझाया गया है मुखकमल जिसका यह सुसरार के नगरसे निकलकर पृथिवी विषे स्त्री की वार्ता के निमित्त भ्रमता भया मानो वायुकुमार को वायलगी तबप्रहस्त मित्र इसको अति आतुर देख कर इसके दुख से अतिदुखी भया और इससे कहता भया हे मित्र क्यों खेद खिन्न होय है अपना चित्तनिराकुल कर यह पृथिवी केतीक है जहां होयगी वहां ठीककर लेवेंगे तबकुमार ने मित्रसे कही तुम श्रादित्यपुर मेरे पिता पै जावो और सकल वृतान्त कहो जो मुझे प्रियाकी प्राप्ति न होयगी तो मेराजीवना नहींहोयगा मैं सकल पृथिवी पर भ्रमण करूहूं और तुम भी ठीक करो तब मित्र यह वृतान्त कहने को आदित्य नगर में आया पिताको सर्व वृतान्त कहा और पवनकुमार अम्बरगोचर हाथी पर चढ़कर पृथिवी विषे बिचरता भया और मन में यह चिन्ता करी कि वह सुन्दरी कमलसमान कोमल शरीर शोक के ताप से संताप को प्राप्त भई कहां गई मेरा ही है हृदयमें ध्यान जिसके वह गरीविनी बिरहरूप अग्नि से प्रज्वलित विषमवन
दिशा को गई वह सत्यवादनी निःकपट धर्म की धरनहारी गर्भका है भारजिसके मत कदापि बसन्त मालासे रहित होयगई होय वह पतिव्रता श्रावक के व्रत पालनहारी राजकुमारी शोककर अन्धहो गएहैं दो
नेत्र जिसके और विकटवन विहार करती तुघासे पीड़ित अजगर कर युक्तजो अन्धकूप उसमें ही पडीहो अथवा वह गर्भवती दुष्टपशुवों के भयंकर शब्द सुन प्राणरहित ही होयगई होय वह प्राणों से भी अधिक प्यारी इस भयन्कर अरण्य विषे जल बिनाप्यास कर सूक गए हैं कण्ठ तालु जिसके
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॥३३०
पद्म
सोप्राणों से रहितहोय गई होय, वहभोरी कदाचित् गंगा में उतरीहोय वहां नानाप्रकारके ग्राह सो पानी में बहगई होय, अथवा वह अतिकोमल तनु डाभ की अणी कर विदारेगये होंय चरणजिसकेसो एकपेंड भी पग | धरने कीशक्ति नहीं थी सो न जानिये क्या दशा भई अथवा दुःख से गर्भपात भया होय औरकदाचित् वह जिन
धर्म की सेवनहारी महाविरक्तभाव होय आर्याभई ऐसा चितवन करते पवनञ्जयकुमार ने पृथवी में भ्रमण किया सो वह प्राणवल्लभा न देखी तब विरह कर पीड़ितसर्व जगत् को शून्य देखता भया, मरण का निश्चय किया, न पर्वत विषे न मनोहर वृक्षों विषे न नदी के तटपर किसी ठौर ही प्राणप्रिया विना इसका मन न रमता भया, ऐसा विवेकवर्जित भया जो सुन्दरीकी वार्ता वृक्षों को पूछे भ्रमता भ्रमता भूतरवर नाना बन में अाया वहां हाथी से उतरा औरजैसेमुनि आत्मा का ध्यान करें तैसेप्रिया काध्यान करे फिर हथयार और वक्तर पृथिवी पर डार दिए औरगजेन्द्र से कहतेभए हेगजराज अब तुम वनस्वच्छन्दविहारी होवो हाथी विनयकर निकट खड़ा है आप कहें हैं हे गजेन्द्र इस नदी के तीरमें शल्लकी वन है उस के जो पल्लव सो चरतेविचरो
औरयहां हथनियोंके समूह हैं सोतुमनायक होय विचरो कुंवरने ऐसाकहा परन्तु वह कृतज्ञ धनी के स्नेह विषे प्रवीण कुंवरका संग नहीं छोड़ताभयाजैसे भला भाई भाईका संग न छोड़े कुंवर अतिशोकवन्त ऐसे विकल्प करेकिअति मनोहर जोवह स्त्रीउसे यदि न पाऊं तो इसबन विषे प्राणत्यागकरूं, प्रियाहीमें लगाहै मन जिसका ऐसा जो पवनञ्जय उसे बनविषे रात्री भई सो रात्री के चार पहरचार वर्ष समान बीते नाना प्रकार के विकल्पकर ब्याकुल भया ॥ यहां की तो यहकथा और मित्रपिता पै गया सो पिताको सर्व बृतान्त कहा पिता सुनकर परमशोकको प्राप्तभया सबको शोक उपजा और केतुमती माता पुत्रके शोकसे अति
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पद्म
॥३३१॥
पीड़ित होय रोवती हुई प्रहस्तसे कहती भई कि जो तू मेरे पुत्रको अकेला छोड़ाया सो भला न किया तब प्रहस्त ने कही मुझे अति आग्रहकर तुम्हारे निकट भेजा सो पाया अब वहां जाऊंगा सो माताने कही वह कहां है तब प्रहस्तने कही जहां अंजनी है वहां होयगा तब इसने कही अंजनी कहां है उसने कही में नजानं । हे माता जो बिना विचारे शीघही कामकरें तिनको पश्चाताप होय तुम्हारे पुत्रने ऐसो निश्चय किया कि जोमें प्रियाको न देखू तो प्राण त्यागकरूं यह सुनकर माता अति विलाप करतीभई अन्तहपुरकी सकल स्त्रीरुदन करती भई माता विलाप करे है हाय में पापनीने क्या किया जो महासतीको कलंक लगाया जिससे मेरापुत्र जीवनेके शंसय को प्राप्तभया में क्रूरभावकी घरनहारी महावक्र मन्द भागिनीने बिनाविचारे कामकिया यह नगर यह कुल और विजिया पर्वत और रावण का कटक पवनंजय विना शोभे नहीं मेरे पुत्र समान और कौन जिसने वरुण जो रोवण सेभी असाध्य उसे रणविषे क्षणमात्रमें बांधलिया हाय वत्स विनयके अाधार गुरुपूजनमें तत्पर जगत सुन्दर विख्यातगुण तू कहां गया तेरे दुख रूप अग्नि से तप्तायमान जो में सो हे पुत्र मातासे वचनालापकर मेरा शोक निवार ऐसे विलाप करती अपना उरस्थल और सिर कूटती जो केतुमती सो उसने सब कुटम्ब शोकरूप किया प्रल्हादभी आंसू डारते भए सर्व परिवारको साथले प्रहस्त को अगवानी कर अपने नगरसे पुत्र को ढूंढने चले दोनों श्रेणियों के सर्वविद्याधर प्रीति सों बुलाए सो परिवार सहित पाए सवही आकाश के मार्ग कुंवर को ढूँढे हैं पृथिवी में देखेंहैं और गम्भीर बन और लतावोंमें देखे हैं पर्वतों में देखेहैं और प्रतिसूर्यके पासभी प्रल्हादका दूत || गया सोसुनकर महा शोकवानभया और अञ्जनीसे कहा सो अंजनी प्रथम दुःखसेभी अधिक दुःखको प्राप्त
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परा
भई अश्रुधारासे वदन पखालती रुदन करतीभई कि हाय नाथमेरे प्राणों के आधार मुझमें बांधाहै मन जिन्हों ३२२॥ || ने सोमुझे जन्मदुखारीको छोड़कर कहांगए क्या मुझसे कोप न छोड़ोहो जोसर्व विद्याघरोंसे अदृश्यहोय
रहेहो एकबार एकभी अमृत समान वचन मुझसे बोलो एतेदिन ये प्राण तुम्हारे दर्शनकी बांछाकर राखें हैं अब जो तुम न दीखो तो ये प्राण मेरे किस कामके हैं मेरे यह मनोरथथा कि पतिका समागम होगा सो देवने मनोरथ भग्न किया मुझ मन्द भागिनीके अर्थ श्राप कष्ट अवस्थाको प्राप्त भए सो तुम्हारे. कष्टकी दशा सुनकर मेरे प्राण पापी क्यों न विनश जाय ऐसेबिलाप करती अंजनीको देखकर बसन्तमाला कहती भई हे देवी ऐसे अमंगल वचन मत कहो तुम्हारा धनीसे अवश्य मिलाप होयगा और प्रति सूर्य बहुत दिलासा करताभया कि ते रेपतिको शीघही लावे हैं ऐसा कहकर राजाप्रतिसूर्यने मनसेभी उतावला जो विमान उसमें चढ़कर आकाशसे उतरकर पृथिवी विषे ढूंढा प्रतिसूर्यके लार दोनों श्रेणियोंके विद्याघर और लंकाके लोग यत्नकर दूंडे हैं देखते देखते भूतरवर नामा अटवी विषे आए वहाँ अम्बरगोचर नामाहाथी देखा वर्षाकालके सघन मेघ समान है आकार जिसका तब हाथीको देखकर सर्व विद्याधर प्रसन्नभए कि जहां यह हाथी है वहां पवनंजय है पूर्वे हमने यह हाथी अनेक बार देखा है यह हाथी अञ्जनगिरि समान हैं रंग जिसका और कुंदके फूल समान श्वेतहैं दांत जिसके और जैसीचाहिये तैसी सुन्दरहै सूंड जिसकीजबहाथीकेसमीप विद्याधराए तबउसने निरंकुशदेख डरे और हाथीविद्याधरोंके कटककाशब्द सुन महाचोभको प्राप्तभया हाथी महाभयंकर दुर्निवारशीघ्रहै वेगजिसका मदकर भीजरहे हैं कपोल जिसके और हाले हैं और गाजे हैं कान जिसके जिस दिशाको हाथी दौड़े उस दिशासे विद्याधर हटजावें यह हाथी लोगों ||
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प
पुरात
३३॥
का समूह देख स्वामीकी रचाविषे तत्पर मूंडसे बंधी है तलवार जिसके महाभयंकर पवनंजयका समापन | तजे सो विद्याधर त्रासपाय इसके समीपन पावें तब विद्याधरोंने हथनियोंके समूहसे इसे वश किया क्योंकि जेते बशीकरणके उपायहे तिनमें स्त्री समान और कोई उपाय नहीं तबये आगे श्राय पवनकुमारको देखते । भए मानो काठकाहे मोनसे बैठाहे वे यथायोग्य इसका उपचार करतेभए पर यह चिन्तामें लीन सो किसीसों न बोले जैसे ध्यानारूद मुनि किसीसे न बोलें तब पवनंजयके मातापिता आंसू डारते इस । के मस्तकको चूमते भए और छातीसे लगाक्ते भए और कहते भए कि हे पुत्र तू ऐसा विनयवान हम, को छोडकर कहां पाया महाकोमल सेजपर सोवनहारा तेरा शरीर इस भीम बनविषे कैसे रात्री व्यतीत । करी ऐसे बक्न कहे तोभी न बोले तब इसे नमीभूत और मौनव्रत धरे मरणका निश्चय जिसके ऐसा जानकर समस्त विद्याधर शोकको प्राप्त भए पिता सहित सब विलाप करते भए। ___ अयानंतर तब प्रतिसूर्य अंजनीका मामा सब विद्याधरोंसे कहताभया कि में वायुकुमारसे बचना लाप करूमा वब वह पवनंजयको छातीसे लगायकर कहता भया हे कुमार में समस्त वृतांत कहूंई सो । सुनो एक महारमणीक संध्याघ्रनामा पर्वत वहां अनंगवीचि नामा मुनिको केवलज्ञान उपजाया सो इन्द्रादिकदेव दर्शनको पाएथे और मैंभी गयाथा सो बन्दनाकर पावताथा सो मार्ममें एक पर्वत की गुफाथी उसके उपर मेरा विमान पाया सो मैंनेसीके न्दनको पनि सुनी मानों बीन बाजे है तबमें वहां मया मुफामें अंजनी देखी मैंने बनके निवासका कारण पूछा तब वसंतमालाने सर्व वृतांत कहा। अंजनी शोककरविव्हल रहनकरे सो में पीर्य बंधाया और गुफामें उसके पुत्रका जन्मभया सो गुफा पुत्र
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॥३३४.
पम || के शरीरकी कांतिकर प्रकाशरूप होयगई मानो मुवर्णकी रची है यह बात सुनकर पवनंजय परमहर्ष
को प्राप्त भए और प्रतिसूर्यको पूछतेभए बालक मुखसे है तब प्रतिसूर्यने कही बालकको में बिमानमें थापकर हनूरुहद्वीपको जाऊंथा सो मार्गमें बालक एक पर्वतपर पड़ा सो पर्वतके पड़नेका नाम सुन कर पवनंजयने हायहाय ऐसा शब्द कहा तवप्रतिसूर्यने कही सोच मतकरो जो वृतांत भया सो सुनो जिस से सर्व दुखसे निवृति होय वालकको पडा देख में विमानसे नीचे उतरा तव क्या देखा पर्वतके खंड २ । हो गए और एक शिलापर बालक पड़ाहै और उसकी ज्योति कर दशों दिशा प्रकाशरूप होय रही हैं तब मैंने तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर बालकको उठाय लिया और माताको सौंपा सो माता अति विस्मय को प्राप्त भई पुत्रका श्रीशैलनाम धरा बसंतमाला और पुत्र सहित अंजनीको हनुरुहद्वीप ले गया वहां पुत्रका जन्मोत्सव भया सो बालकका दूजा नाम हनुमान भी है यह तुमको मैंने सकल वृतांतकहा हमारेनगरमें वह पतिव्रता पुत्रसहित आनन्दसे तिष्ठे हैं यह वृतांत सुनकर पवनंजय तत्काल अंजनीके अवलोकनके अभिलाषी हनुरुहद्दीपको चले और सर्वविद्याधरभी इनके संगचलेहनूरुहद्वीपमेंगए
सो दोय महीना सबको प्रतिसूर्यने बहुत अादरसे राखा फिर सब प्रसन्नहोय अपने २ स्थानकको गए बहुत | | दिनों में पाया है स्त्रीका संयोग जिसने सो ऐसा पवनंजय यहांही रहे कैसाहै पवनंजय सुंदर है चेष्टा जिसकी और पुत्रकी चेष्टासे अति सुन्दररूप हनूरुहद्वीपमें देवनकी न्याई रमते भए हनूमान् नव यौवनको प्राप्त भए मेरुके सिखर समान सुन्दर है सीस जिनका सर्वजीवोंके मनके हरण हारे होते भए सिद्ध भई है अनेक विद्या जिनको और महा प्रभावरूप विनयवान् बुद्धिमान् महाबली सर्व शास्त्र के अर्थ विषे प्रवीन
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पण | परोपकार करनेको चतुर पूर्वभव स्वर्गमें सुख भोग पाए अब यहां हनुरुह द्वीप विषेदेवों की न्याई रमें हैं। | E. हेश्रेणिकगुरु पूजा में तत्पर श्रीहनूमान् के जन्मका वर्णन और पवनंजय काअंजनीसे मिलाप यह अद्भुत
कथा नाना रसकी भरी है, जे प्राणी भावधर यह कथा पढें पढ़ावें सुने सुनावें उनकी अशुभ कर्ममें प्रवृत्ति न होय || शुभक्रिया के उद्यमी होय और जो यह कथा भावधर पढ़ें पढ़ावें उनकी परभव में शुभगती विधि दीर्घ आयु
होय, और शरीर निरोग सुन्दर होय महापराक्रमी होंय और उनकी बुद्धि करने योग्य कार्यके पारको प्राप्त होय और चन्द्रमा समान निर्मलकीर्ति होय और जिस से स्वर्ग मुक्तिके सुख पाइये ऐसे धर्म की बढ़वारी होय जो लोक में दुर्लभ वस्तु हैं सो सब सुलभ होंय सूर्य समान प्रताप के घारक होय। इति अठारखां पर्व सपूर्णम्।
अथानंतर राजा वरुण फिर आज्ञालोप भया तब कोप कर उसपर रावण फेर चढ़ा सर्व मूभि गोचरी विद्याधरों को अपने समीप बुलवाया सबके निकट आज्ञा पत्र लेय दूतगए कैसाहै रावण राज्य कार्यों में निपुण है किहकंधापुर के धनी और अलंकारी के धनी रथनू पुर और चक्रबालपुर केधनी तथा वैताब्य की दोनोंश्रेणी के विद्याघर तथा भूमिगोचरी सबही आज्ञा प्रमाण रावणके समीपाए हनूरूह द्वीप में भी प्रतिसूर्य तथा पवनंजय के नाम प्रोज्ञा पत्र लेय दूत आए सो ये दोनों आज्ञा पत्रको माथे चढ़ाय दूत का बहुत सन्मान कर प्राज्ञा प्रमाण गमनके उद्यमी भए तव हनुमान को राज्याभिषेक देने लगे बादित्रादिक के समूह बाजनेलगे और कलश हैं जिनके हाथमें ऐसे मनुष्य आगे आय ठाढ़े भए || तब हनुमान ने प्रतिसूर्य और पवनंजय से पूछा यह क्या है तब उन्होंने कही हे वत्स हनुरूहद्वीप का । प्रतिपालन कर हमदोनों को रावण बुलावें है सो जांय हैं रावण की मदद के अर्थरावण वरुण पर जाय
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॥३
॥
।। है वरुण ने फिर माथा उठाया है महासामंत है उसके बड़ी सेनाहे पुत्र बलवान हैं।और गढ़ का बल है
तब हनूमानविनयकर कहते भए कि मेरे होते तुमको जाना उचितनहीं, तुम मेरे गुरुजनहो तबउन्होंनेकही हे वत्स तू बालकहै अबतक रण देखानहीं तब हनुमान् बोले अनादिकालसे जीवचतुर्गतिविषेभ्रमणकरे है पंचमगति जो मुक्त सो जब तक अज्ञान का उदय है तब तक जीवने पाई नहीं परन्तु भव्य जीव पावेही हे तेंसे हमने अबतक युद्ध कियानहींपरन्तु अवयुद्धकर वरुणकोजीतेहींगे औरविजयकरतुम्हारेपासावें सो जब उनोंने राखने का घनाही यत्ल किया परन्तु ये न रहते जाने तब उन्होंने प्राज्ञा दई यह स्नान भोजन कर पहिले पहिरही मलीक द्रव्यों कर भगवान की पूजा कर अरिहंत सिद्ध को नमस्कार कर माता पिता और मामाकी माज्ञा लेय बड़ों का विनयकर यथा योग्य संभाषण कर सूर्य तुल्य उद्योतरूपजो विमान उसमें चढ़कर शास्रके समूह कर संयुक्त जे सामंत उन सहित दशों दिशा में ब्याप रहा है यश जिस का लंका की ओर चला सो त्रिकूटाचल के सन्मुख विमान में बैठा जाता ऐसा सोभता भया जैसा मंदराचल के सन्मुखजाता ईशान इन्द्र शोभे है तब बीचिनामा पर्वत पर सूर्य अस्त भथा कैसा है पर्वत समुद्रकी लहरों के समूहकर शीतल हैं तट जिसके वहां रात्रि सुखसे पूर्ण करी और करीहै महायोघावोंसे बीस्रसकी कथा जिसने महा उत्साह से नाना प्रकार के देश द्वीप पर्वतोंको उलंघता समुद्र के तरंगोंसे शीतल जे स्थानक तिनको अवलोकन करता समुद्र में बड जलचरों को देखता रावण के कटक में पोहचा हनूमान् की सेना देख कर बड़े बड़े. राक्षस विद्याधर बिस्मय को प्राप्त भए परस्पर वार्ता करे हैं यह बली श्रीशैल हनूमान् भव्य जीवों विष उत्तम जिसने बाल अवस्था में गिरि को चूर्णकिया ऐसे अपने यश |
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पन
पुराण
॥३३॥
श्रवण करता हनूमान् रावणके निकट गया रावण हनुमानकोदेखकर सिंहासन से उठे और बिनयकिया | कैसा है सिंहासन पारिजातादिक कहिये कल्पवृक्षों के फूलों से पूरित है जिसकी सुगंध से भ्रमर गुंजार करे हैं जिसके स्नोंकी ज्योतिकर आकाश विषे उद्योतहोय रहा है जिसके चारों ही तरफ बड़े सामंत हैं ऐसे सिंहासन से उठकर सवणने हनूमान को उर से लगाया कैसाहै हनूमान रावणके विनयकर नमभूत हो | गया है शरीर जिसका सवय हनूमान को निकट ले बैदा प्रीति कर प्रसन्नहै मुख जिसका परस्पर कुशल | पूछी परस्पर रूप सम्पदा देख हर्षित भए दोनों महाभाग्य ऐसेमिले मानो दोय इन्द्र मिले रावण अति स्नेह से पूर्ण है मन जिसका सो कहताभया पवनकुमास्ने हमसे बहुत स्नेह बढ़ायाजो ऐसा गुणोंकासागरपुत्रहमपर पाया ऐसे महाबली को पायकर मेरे सर्व मनोरथ सिद्ध दोवेंगे ऐसा रूपवान ऐसा तेजस्वी और नहीं जैसा यह योषा सुनाथा तैसाही है इसमें संदेह नहीं यह अनेक शुभ लक्षणोंका भराहै इसके शरीर का प्राकारही मुसीक्ये प्रकटकरे है सबपने जब हनुमान के गुण वर्णन कियेतव हनूमान नीचा होयरहा लज्जा
कन्त पुरुषकी न्याई नमीभूत है शरीर जिसका-सो संतोंकी-यही रीतिहै अबरोवणका वरुणसे संग्राम होयगा । सो मानों सूर्य भयकर अस्तहोने को उधमीभया मन्दहोगई है किरण जिसकी सूर्य अस्त भएपीछे संध्या
प्रकरभई फिरगई सो मानों प्राणनाथकी घिनक्वन्ती पतिमा श्रीही है और चन्द्रमा रूप तिलक को परे रात्री रूप स्त्री शोभतीभई फिर ममातभया साकी किरणीले पृषिधीपरप्रकाशमया तब रावणसमस्त सेना को लेय युद्धका उद्यमी भयाः हनमान विद्या कर समुद्र को भेद वरुण के नगर में गया वरुण पर जाता हनुमान ऐसी कातिको घरता भया जैसा सुभूम चक्रवर्ती परशुरामके ऊपर जाता शामे है रावणको कटक
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पद्म
पुरात
॥३३॥
सहित पाया जानकर वरुणकी प्रजा भयभीतभई पातल पुण्डरीकनगरका वह भनी सो नगरमें गोघावों के महा शब्द होतेभए योषा नगर से निकसे मानो वह योधा असुरकुमार देवों के समान हैं और वरुण चमरेन्द्र तुल्य है महा शूरवीर पने में गर्वित और वरुण के सौ पुत्र महा उद्धतयुद्ध करनेको पाए नाना प्रकार के शस्त्रों के समूह से रोका है सूर्य का दर्शन जिन्होंने सो वरुण के पुत्रों ने आवतेही रावणका कटक ऐसा न्याकुल किया जैसें,असुरकुमार देव चुद्रदेवोंको कम्पायमोनकरें वक्र, धनुष, वन, सेल, बरछी इत्यादि शत्रों के समूह राक्षसों के हाथ से गिरपड़े और वरुण के सौ पुत्रों के आगे राक्षसों का कटक ऐसे भूमताभया जैसे वृषमणि का समूह निपातके भय से भमे तब अपने कटकको व्याकुल देख रावण वरुण के पुत्रों पर गया जैसे गजेन्द्र वृक्षोंको उपाड़े तैसे बड़े बड़े योधावों को उपाड़े एक तरफ रावण अकेला एकतरफ वरुण के सौ पुत्र सो यद्यपि उनके बाणों से रावणका शरीर भेदागया तथापि रावण महा योषा ने कछु न गिना जैसे मेघके पटल गाजते वर्ष ते सूर्य मण्डल को पालादित करें तैसे वरुण के पत्रोंने रावणको बेढ़ा और कुम्भकरण इन्द्रजीतसे वरुण लड़ने लगा जब हनूमानने रावण को वरुण केपुत्रोंकर' वेध्या के सूला के रंग समान रक्त शरीर देखा तब रथमें असवार होयं वरुणके पुत्रों पर दौड़ा कैसा है हनूमान रावणसे प्रीतियुक्त है चित्त जिसका और शत्रुरूप अन्धकार के हरिबे को सूर्य समान. है पवनके बेग सेभी शीघ्र वरुणके पुत्रोंपर गया सो हनूमान से वरुण के पुत्र सोही कम्पायमान भए जैसे मेघ के समूह पवन से कम्पायमान होंय और हनूमान वरुण के कटक पर ऐसा पड़ा जैसा माता हाथी कदली के बनमें प्रवेश करे कईयोंको विद्यामई लांगूल पाशकर बांधलिया और कईयोंको मुद्गरके
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पद्म
॥ ३३९॥
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घातक घायल किया वरुणका समस्त कटक हनूमान से हारा जैसे जिनमार्गी के अनेकांतनयसे मिथ्या दृष्टिहारे हनूमानको अपने कटक में रण क्रीड़ा देख राजा वरुण ने कोपकर रक्तनेत्र किये और हनुमान घर आया तब रावण वरुण का हनूमान पर आवता देख आप जाय रोका जैसे नदीके प्रवाहको पर्वत रोके वरुण के और रावणके महा युद्धभया तब उसही समय में वरुण के सा पुत्र हनुमानने बान्ध लिए सो पुत्रों को बान्धे सुनकर वरुण शोककर विद्दूलभया विद्याका स्मरण न रहा तव रावणने इसको पकड़ लिया सो मानो वरुण सूर्य और इसके पुत्र किरणतिनके रोकनेसे रावण राहु का रूप धारता भया वरुणको कुम्भकरणके हवाले किया और ग्राप डेरा भवनोन्माद नाम बनमें किया कैसा है वह वन समुद्रकी शीतल पवनसे महाशीतल है सो उसके निवास कर सेनाका रण जनित खेदरहित भया और वरुण को पकड़ा सुन उसकी सेना भाजी पुण्डरीकपुरमें जाय प्रवेश किया देखो पुण्यका प्रभाव जो एक नायकके हारने में सबही हारे और एक नायक के जीतनेसे सबही जीते कुम्भकरण ने कोप कर वरुण के नगर लूटने का विचार किया तब रावण ने मने किया यह राजावों का धर्म नहीं कैसे हैं रावण वरुण कर कोमल है चित्त जिनका सो कुम्भकरण को कहते भए हे बालक तैंने यह क्या दुराचारकी बातकही जो अपराघथा सोतो वरुण काथा प्रजाका क्या अपराध दुर्बलको दुःखदेना दुरगति का कारण हैं और महा अन्याय है ऐसा कहकर कुम्भकरणको प्रशान्त किया और वरुणको बुलाया कैसा है वरुण नीचा है मुख जिसका तब रावष्प वरुणको कहतेभये हे प्रवीण तुम शोक मत करो कि में युद्ध में पकड़ा गया योघावोंकी दोय ही रीति हैं मारे जांय अथवा पकड़े जांय और रणसे भागना यह कायरका कामहै इसलिये तुम हमसे
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पुराण
चमाकरा और अपने स्थानक जायकर मित्रबान्धव सहित सकल उपद्रव रहित अपना राज्य सुखसे करो ३४० मिष्ट वचन रावण के सुनकर वरुण हाथ जाड़ रोक्य से कहताभया हे बीराधिवीर हेमहाघीर तुम इस
लोक में महापुण्याधिकारी हो तुम से जो वैरभावकरे सो मूल हो स्वामित्र यह तुम्हारा परम वीर्य हजारों • स्तोत्रोंसे स्तुति कर योग्य है तुमने देवाविति रत्न बिना, मुझे सामान्य शखोंसे जीवा कैसेहो तुम अद्भुत है प्रताप जिसका और इस पवन के पुत्र हनूमानके अद्भुत प्रभावकी क्या महिमा कहूँ तुम्हारे पुण्य के प्रभाव से ऐसे ऐसे सत्पुरुषं तुम्हारी सेवा करें हैं- हे प्रभो यह पृथ्वी काहूके गोत्र में अनुकमकर नहीं चली
है यह केवल पराक्रमके वश है शुस्वीरही इसके भो का है सो खाप सर्व योघावों के शिरोमणिहो सो भूमिका प्रतिपालन करो हे उदारकीर्ति हमारे स्वामी आपही हो हमारे अपराध क्षमा करो । हे नाथ आप जैसी उत्तम चमा कहूं न देखी इसलिये आप सारिखे उदार चित्त पुरुषसे सम्बन्ध कर मैं कृतार्थ होऊंगा इसलिये मेरी सत्यवती नामा पुत्री आप परणों इसके परिणयोग्य आपही हो इसभांति बिनती कर अति उत्साह पुत्री परपाई कैसी है वह सत्यवती सर्वरूप वंतियोंका तिलक है कमलसमान है मुख जिसका वरुणने रावणका बहुत सत्कार किया और कईएक प्रयास रावणके लार मया रावणाने श्रति स्नेहसे सीख दीनी तब रावण अपनी राजधानी में आया पुत्री के वियोग से व्याकुल है चित्त जिसका कैलास कंप जो रावण उसने हनुमानका अति सम्मानकर अपनी बहिन जो चन्द्रनखा उसकी पुत्री अनंग कसुमा महा रूपवती सो हनुमान को परणाई सो हनुमान उसको परणकर अति प्रसन्न भए कैसी है अनंगकसुमा सर्वलोक में जो प्रसिद्ध गुण तिनकी राजधानी है और कैसी हैं कामके आयुधहें नेत्र जिस
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पद्म
पुराख
॥३४१॥
के और अतिसम्पदा दीनी और कर्ण कुण्डलपुर का राज्य दिया अभिषेक कराया उस नगरमें हनुमान सुखसे विराजे जैसे स्वर्गलोकमें इन्द्रविराजे तथा किहकूपुरनगरका राजा नल उसकी पुत्री हरमालिनी नामा रूपसम्पदाकर लक्ष्मीकी जीतनेहारी सो महा विभूतिसे हनुमानको परणाई तथा किन्नरगीत नगरविषे जे किन्नरजातिके विद्याधर तिनकी सौ पुत्री परणी इसभांतिएक सहमराणी परमीटवी विषे हनुमानकाश्रीशैल नाम प्रसिद्धभया क्योंकि पर्वतकी मुफामें जन्म भयाथासोपहाड़पर हनुमानायनिकसे सो देख अतिप्रसन्नभए रमणीक तलहटी जिसकी वह पर्वतभी पृथ्वी विषे प्रसिद्ध भया ।
अयानंतर किहकंधनगर विषेराजासुग्रीव उसके राणी सुतारा चन्द्रमासमान कांतिको घरे है मुख जिसका श्रोर रातिसमानहै रूप जिसका तिनके पुत्री पद्मराग नवीनकमल समानहे रंग जिसका और अनेक गुणांस मंडित पृथ्वीपर प्रसिद्ध लक्ष्मी समान सुन्दरी ने जिसके ज्योति मग्लसे मंडितहै मुखकमल जिसका और महा गजराजके कुम्भस्थल समान ऊंचे कठोरहें स्तन जिसके और सिंह समानहै काटि जिसकी महा विस्तीर्ण और लावण्यता रूप सरोवरमें मग्न है मूर्ति जिसकी जिसे देख चिस प्रसन्न | होय शोभायमानहै चेष्टा जिसकी ऐसी पुत्रीको नवयोवन देख माता पिताको इसके परणायवेकी चिंता । भई इसे योग्य वर चाहिये सो माता पिताको सतदिन निद्रा न आवे और दिनमें भोजनकी सचिगई चिन्ता रूप है चित्त जिनका तब रावण के पत्र इन्द्रजीत आदि अनेक राजकुमार कुलवान शीलवान तिनके चित्रपट लिखे रूप लिखाय सखियोंके हाथ पुत्री को दिखाए सुन्दरहै कांति जिनकी सो। | कन्याकी दृष्टिमें कोई न आया अपनी दृष्टि संकोच लीनी और हनुमानका चित्रपट देखा सो उसे देख
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॥३४२०
कर शोषण, सन्तापन, उच्चाटन, माहेन, वरीकरण कामके यह पंचवाणोंसे बेघी गई तब उसे हनु मान विष अनुरागिनी जान सखीजन उसके गुण बरणन करती भई हे कन्या यह पवनंजयका पुत्र
जो हनुमान इसके अपारगुण कहां लो कहें और रूप सोभाग्य तो इस के चित्रपट में तैंने देखे इस लिये इसको बर, माता पिता की चिन्ता निवार कन्या तो चित्रपटको देख मोहित भई थी और सखी जनों ने गुण वरणन किया ही है तब लजाकर नीची हो गई और हाथ में क्रीड़ा करने का कमल था उस की चित्रपटकी दी तबसब ने जाना कि यह हनुमान से प्रीतिवन्ती भई तब इस के पिता सुग्रीव ने इस का चित्रपट लिखाय भले मनुष्य के हाथ वायु पुत्र पै भेजा सो सुग्रीव का सेवक श्रीनगर में गया और कन्या का चित्रपट हनुमानको दिखायो सोअंजनी का पुत्र सुताराकी पुत्रीके रूप का चित्रपट देखमोहित भया यह बात सत्यहै के काम के पांच ही बाण हैं परन्तु कन्याके प्रेरेपवनपुत्र के मानो सौ याण होय लगे वित्तमें चिंतवता भया मैं सहस्र विवाह किए और बड़ीबड़ी ठौर परणा खरदूषण की पुत्री रावणकी भाषजी परणी तथापि जवलग यह पद्मरागा न पर) तौलग परणाही नहीं ऐसा विचार महाऋद्धिसंयुक्त एकक्षणमें सुप्रीवके पुर में गया सुग्रीव ने सुना जो हनुमान् पधारे तव सुग्रीव अतिहर्षित होय सन्मुखाए बडेउत्साह से नगरमें लेगए सो राजमहल की स्त्री झरोखों की जाली से इन का अद्भुत रूप देख सकल चेष्टा तजश्राश्र्य रूप होय गई
और सुग्रीव की पुत्री पद्मराग इन के रूपको देखकर थकित हो गई कैसी है कन्या अति सकुमार है शरीर | जिस का बड़ी विभूति से पवनपुत्र से पद्मरागा का विवाह भया, जैसा बर तैसी दुलहन सो दोनों अतिहर्ष को प्राप्तभए स्त्रीसहित हनुमान् अपने नगरमें आए राजा सुग्रीव और राणीतारापुत्री के वियोग से कैएक
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पद्म पुसम ॥३३॥
दिन शौक सहित रहे और हनुमान महा लक्ष्मीवान् समस्त पृथिवी पर प्रसिद्ध है कीर्ति जिस की सो ऐसे पुत्र को देख पवनञ्जय और अञ्जनी महासुखरूप समुद्रमें मग्न भए सवण तीन खण्ड का नाप और सुग्रीव जैसे पराक्रमी और हनुमान सारिखे महाभट विद्याधरों के अधिपति तिन का नायक लंका नगरी में सुख से रमे समस्त लोक को सुखदाई जैसे स्वर्ग लोक विषे इन्द्र में हैं तैसे में विस्तीर्ण है कान्ति जिस की महा सुन्दर अठारह हजार राणी तिन के मुखकमल तिन का भ्रमर भया घायु व्यतीत होती न. जानी जिसके एक स्त्री कुरूप और प्राज्ञा रहित होय सो पुरुष उन्मत्त होय रहे हैं जिसके अष्टादश सहस्र पद्मनी पतिव्रता आज्ञा कारणी लक्ष्मी समान होंय उसकेप्रभाव का क्या कहना तीनखण्ड का अधिपति अनुपम है कान्ति जिसकी समस्त विद्याधर और भूमिगोचरी सिर पर पारे हैं श्राज्ञा जिस की सो सर्व राजाओं ने अर्धचक्री पद का अभिषेक कराया और अपना स्वामीजाना विद्याधरों के अधिपति तिन से पूजनीक हैं चरण कमल जिसके, लक्ष्मी कीर्ति कान्ति परिवार जिस समान और के नहीं मानोयोग्यहैदेहजिस का वह दशमुख राजा चन्द्रामा समान बड़े बड़े पुरुषरूप जे ग्रह तिनसे मण्डित पाल्हाद का उपजावन हारा कौनके चित्त को न हरे जिसकेसुदर्शन चक्र सर्व कार्यकी सिद्धि करण हारा देवाधिष्ठितमध्यान्हके सर्पकी किरणोंकेसमानहै किरणोंका समूह जिसमें जबजे उद्धत प्रचंडनृपवर्गाज्ञा न मानें तिनका विध्वंसक अतिदेदीप्यमान नाना प्रकार के रत्नोंकर मंडित शोभता भया और दंडरत्न दुष्टजीवोंको कालसमान भयंकर देदीप्यमान है उग्रतेज जिसका मानों उल्कापात का समूहहीहे सोप्रचंड जिस की आयुध शाला विषे प्रकाश करता भया सो रावण आठमा प्रतिवासुदेव सुन्दर हैकीर्ति जिसकी पूर्वोपार्जित कर्मकेवशसे
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पन
।।३४.
कुलकी परिपाटी कर चली आई जो लंकापुरी उस विषे संसार के अद्भुत सुख भोगता भया कैसा है रावस राक्षस कहावें ऐसे जे विद्याधर तिनके कल का तिलक है और कैसी है लंका किसीप्रकारका प्रजा को नहीं है दुख जहाँ श्री मुनिसुव्रतनाथ के मुक्किगएपीछे और नामनाथ के उपजने से पहिले रावणभयासो बहुत पुरुषजेपरमार्थ रहित मूह सोक तिन्होंने उनका कथन और से औरकिया मांस भक्षी ठहराये सो वे मांसाहारी नहीं थे अनके माहारी एक सीताके हरखका अपराधी बनाउसकर मारेगये और परलोक विषे कष्टपाया केसेभीमुनि मुक्तनाथ का समय सम्यकदर्शन सानवारित्र की उत्पति का कारण है सो वह समय बीवे बहुसवर्षभर इसलिये सत्वरमान रहित विपवींजीवोंने बड़े पुरुषों कावन मौर से और किया। पापाचारी शीलवत रहितजे मनुष्य खोतिनकी कल्पना जालकप फांसीकर अविवेकी मन्दभाग्य जमनुष्य वेई भए मगसो बांधे गौतमस्थामी कहे हैं ऐसाजान कर हे मोणक त इन्द्र घरमोद चकवादि करबन्दनीकजो जिनराजका शाम्रसोईस्वभया उसे अंगीकार कर कैसा है जिनराजका शास्त्र सूर्यसे अधिक है तेज जिसका
और कैसा है तू जिन शास्रके श्रवणकर जानाहे वस्तुका सम्प जिसने और धोया है मिथ्यात्वरूपकर्दम का कलंक जिसने॥ इति उन्नीसवां पर्वपूर्णभया॥
अयानंतर राजा श्वेषिक महा विनयवान् निर्मल है बुद्धि जिसकी सो विद्माघरों का सकल वृत्तान्त सुन कर गौतमगमघर के चरणारविन्दको नमस्कार कर आश्चर्य को प्राप्त होता संता कहता
भया हे नाथ तुम्हारे प्रसाद से पाठवां प्रतिनारायण जो रावण उसकी उत्पत्ति और सकल बृतांत मैने | जाना, तथा सक्षसवंशी औरवानखंशीजे विद्यामर तिनके कुलकाभेद भलीभान्ति जाना अबमें तीर्थंकरों ।
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॥३४॥
के पूर्व भव सहित सकल चरित्रसुना चाहूं हूं कैसा है तिन का चरित्र बुद्धि की निर्मलता का कारण | है और आठवें बलभदजे श्रीरामचन्द्र, सकल पृथिवी विषे प्रसिद्ध सो कौन बंश विषे उपजे तिन का चरित्र ।
कहो और तीर्थंकरोंकेनाम और उनके माता पितादिक के नाम सब सुनने की मेरी इच्छा है सो तुम कहने योग्यहो इस भान्ति जब श्रेणिक ने प्रार्थनाकरी तब गौतम गणधर भगवन्त चरित्रके प्रश्नकरबहुतहर्षित भए कैसे, गणधर महाबुद्धिवान् परमार्थ विषेप्रवीण सो कहे हैं कि हे श्रोणिक चौवीस तीर्थंकरोंके पूर्वभव का कथन पापके विध्वंस का कारण इन्द्रादिक कर नमस्कार करने योग्य तू सुन, ऋषभ १ अजित २ संभव३ अभिनन्दन सुमति ५ पदमप्रभ६सुपार्श्व७ चन्द्रप्रभ ८ पुष्पदन्त जिसका दूजानाम सुविधिनाथ भी कहीए ६ शीतल १० श्रेयांस ११ वासुपूज्य १२ बिमल १३अनन्त १४ धर्म १५ शान्ति १६ कुन्थ १७ अर १८ मल्लि १६ मुनिसुव्रत २० नमि २१ नेमि २२पार्व २३ महावीर २४ जिन का अब शासन प्रवरते है ये चौबीस तीर्थंकरों के नाम कहे अब इनकी पूर्वभव को नगरीयों के नाम मुनो।पुण्डरीकनी १ सुसीमार क्षेमा ३ रन्तसंचयपुर ४ ऋषभदेवादिबासुपूज्य पर्यंत को ये चार नगरीपूर्वभव के निबासकी जाननी और महानगर १३ अरिष्टपुर १४ मुमद्रिका १५ पुण्डरीकनी १६ सुसीमा १७ क्षेमा १८ वीतशोका १६ चम्पा २० कौशांबी २१ नागपुर २२ साकेता २३ छत्राकार २४ये चौबीस तीर्थंकरोंकी इसमवके पहिले जो देवलोक उस भव पहिले जो मनुष्य भव उसकी स्वर्गपुरी समानराजधानी कहीं। अब उस भवके नामसुनो बज्रनाभि ? बिमलबाहन रविपुलख्याति ६ विपुलबाहन ४महाबल ५ अतिबल ६ अपराजित ७ नन्दिपेमा ८ पद्म । || महापद्म १० पदमोत्तर ११पंकजगुल्म १२कमल समानहै मुख जिसका ऐसा बलिनगुल्म १३ पदमासन १४
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पद्म पुराण
पदमस्थ १५ दृढ़रथ १६ मेघरथ १७ सिंहस्य १८ वैश्रवण १६ श्रीधर्मा २० सुरश्रेठ २१ सिद्धार्थ २२ श्रानन्द २३ ३४४६ सुनन्द २४ ये तीर्थंकरों के इस भव पहिले तीजे भवके नाम कहे अब इनके पूर्वभव के पितावों के नाम सुनो, बज्रसेन १ महातेज २ रिपदम ३ स्वयंप्रभ ४ बिमलवाहन ५ सीमंदर ६ पिहताश्रव ७ अरिदम युगन्धर सर्वजनानन्द १० अभयानन्द ११ वज्रदन्त- १२ बज्रनाभि १३ सर्वगुप्ति १४ गुतिमान् १५ चिन्तारच १६ बिमलवाहन १७ घनख १८ धीर १६ संबर २० त्रिलोकीरराव २१ मुनन्द २२ वीतशोक २३ प्रोष्ठि २४ पूर्वभव के पिताओं के नाम कहे। चौबीसो तीर्थंकर जिस देवलोक से आये तिनंदव लोकों के नाम सुनो। सर्वार्थसिद्ध वैजयन्त २ मैवेयक ३ वैजयन्त ४ ऊर्धप्रैवेयक ५ वैजयन्त ६ मध्ययैवेक ७ वजयन्त अपराजित रणस्वर्ग १० पुष्पोत्तरविमाण ११ कापिष्टस्वर्ग १२ शुक्रस्वर्ग १३ सहस्रारस्वर्ग १४ पुष्पोत्तर १५पुष्पोत्तर १६ पुष्पोत्तर १७ सर्वार्थसिद्धि १८ विजय १६ अपराजित २० प्राणत २१ वैजयन्त २२ थान २३ पुष्पोत्तर २४ ये चौवीस तीर्थंकरोंके आवने के स्वर्ग कहे। अब यागे चौवीस तीर्थंकरों की जन्मपुरियें जन्म नक्ष
माता पिता और वैराग्य के वृक्ष और मोक्ष के स्थानक मैं कहूं हूं सो सुनो। अयोध्यानगरी पिता नाभिराजा माता मरुदेवी राणी उत्तराषाढ नक्षत्र वटवृक्ष, कैलाश पर्वत प्रथमजिन हे मगधदेश के भूपति ! तुझे प्रतीन्द्रि सुख की प्राप्ति करें ? अयोध्यानगरी जितशत्रु पिता विजिया माता रोहिणी नक्षत्र सप्तदवृक्ष सम्मेदशिखरं अजितनाथ हे श्रेणिक तुझे मंगल के कारण होवें २ श्रावस्ती नगरी जितारि पिता सैना माता पूर्वाषाड़ नक्षत्र शालवृक्ष सम्मेदशिखर संभवनाथ ते रे भव बन्धन हरे ३ अयोध्यापुरी नगरी संवर पिता, सिद्धार्था माता पुनर्वसु नक्षत्र, सालवृक्ष सम्मेदशिखर अभिनन्दन तुझे कल्याणके कारण होवें ४ । आायोध्यापुरी नगरी मेघप्रभ पिता
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पुराण
॥३४॥
पद्म सुमङ्गला माता मघा नक्षत प्रियंगुवृक्ष सम्मेदशिखर सुमतिनाथ जगतमें महामंगलरूप तेरे सर्वविघ्न हरें५ ।
कौशांबीनगरीधारणपिता सुसीमामाता, चित्रा नक्षत प्रियंगु वृक्ष सम्मेदशिखर पद्मप्रभ ते रे काम क्रोधादि अमंगल हरें ६ काशीपुरी नगरी सुप्रतिष्ठ पिता पृथिवीमाता विशाखा नक्षत्र शिरीपवृक्ष सम्मेदशिखर सुपार्श्व नाथ हे राजन् ते रेजन्मजरामृत्यु हरे ७ चन्द्रपुरी नगरी महासेनं पिता लक्ष्मणा माता अनुराधा नक्षत नागवृक्ष सम्मेदशिखर चन्द्रप्रभ तुझे शान्तिभाव के दाता होवें, ८काकन्दीनगरी सुग्रीवपिता रामामाता मूलनक्षत शालवृक्ष सम्मेदशिखर पुष्पदन्त ते रेचित्तको पवित्र करें। भद्रिकापुरी नगरी दृढ़रथ पिता सुनन्दा माता पूर्वाषाढ़ नक्षत प्लक्षवृक्ष सम्मेदशिखर शीतलनाथतेरे तिविधताप हरें १० सिंहपुरी नगरी विष्णु पिता विष्णु
श्री देवी माता श्रवणनक्षत् तिन्दुक वृक्ष सम्मेदशिखर श्रेयांसनाथ तेरे विषय कषाय हरें ११ चंपापुरी नगरी वासुपूज्य पिता विजया माता शतभिषा नक्षत् पाठल वृक्षनिर्वाणक्षेतचम्पापुरीका बनश्रीवासुपूज्यतुझेनिर्वा णप्राप्त करें १२कपिलानगरी कृतवर्मापिता सुरम्यामाता उत्तगपादनक्षत्र जंबूवृक्ष सम्मेदशिखर विमलनाथ तुझे रागादि मल रहित करें १३ अयोध्यानगरी सिंहसेनपिता सर्वयशामाता रेवती नक्षत्र पीपलवृक्ष सम्मेदशिखर अनंतनाथ तुझेअन्तररहित करें१४रत्नपुरी नगरी भानुपिता सुत्रतामातापुष्प नक्षत्र दधिपर्णवृक्षसम्मेदशिखर खर धमनाथतुझे धर्मरूपकरें १५हस्तनागपुरनगर विश्वसेनपिता ऐरामाता भरणीनक्षत्रनन्दीवृक्ष सम्मेदशि शान्तिनाथ तुझे सदा शान्ति करें १६ हस्तनागपुर नगर सूर्य पिता श्रीदेवी माता कृतिका नक्षत्र तिलक बृक्ष सम्मेदशिखर कुंथुनाथ हे राजेन्द्र तेर पाप हरणके कारण होवें १७ हस्तिनागपुर नगर सुदर्शन पिता मित्रामाता रोहिणी नक्षत्र आमवृक्ष सम्मेद शिखर अरनाथ हे श्रेणिक तेरे कर्मरज हरें १८ मिथिलापुरी
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नगरा कुंभपिता रक्षतामाता अश्वनी नक्षत्र अशोकवृक्ष सम्मेदशिखर मल्लिनाथ हे राजा तुझे मन शोक ॥३४॥ रहितकरें १६ कुशाग्रनगर सुमित्रपिता पद्मावतीमाता श्रवणनक्षत्र चम्पकवृक्ष सम्मेदशिखर मुनिसुव्रतनाथ
पद्म पुराख
सदा तेर मन विषे बसें २० मिथिलापुरी नगरी विजयपिता वप्रा माता अश्वनी नक्षत्र मौलश्रीवृक्ष सम्मेद शिखर नमिनाथ तुझे धर्मका समागम करें २१ सौरीपुर नगर समुद्रविजय पिता शिवादेवीमाता चित्रानक्षत्र मेषशृंग वृक्ष गिरिनार पर्वत नेमिनाथ तुझे शिवसुखदाता होवें २२ कांशीपुरी नगरी अश्मसेनपिता वामा मातविशाखानक्षत्रघबलवृक्ष सम्मेदशिखर पार्श्वनाथतेरे मनको धीर्य देव २३ कुण्डलपुरनगर सिद्धार्थ पिता प्रियकारिणी माता हस्तनक्षत्र शालवृक्ष पावांपुर महावीरतुके परम मंगलकरें श्रापसमानकरें २४ ऋषभदेव का निर्वाण कल्याण कैलाश १ बासपूज्यका चंपापुर २: नेमिनाथ गिरिनार३ महावीरका पावापुर ४ भौरोंका सम्मेदशिखरहैं शांतिकुंथु अर ये तीनततीर्थंकर चक्रवर्तीभीभए और कामदेवभीभए राज्यछोड़ वैराग्यलिया और वासू पूज्य मल्लिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ महाबीर ये पांच तीर्थंकर कुमार अवस्थामें वैरागी भए राज भी किया और विहाह भी न किया अन्य तीर्थंकर महामंडलीक राजा भए राजछोड़ वैराग्य लिया और चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त ये दोयश्वेत वर्ण भए और श्रीसुपार्श्वनाथ प्रियंगुपञ्जरी के रंग समान हरित वर्ण भए और पार्श्वनाथ का वर्ण कच्ची शालि समान हरितभया पद्मप्रभका वर्ण कमल समान आरक्त और वासपूज्य का वर्ण केसू के फूलसमानञ्चारक्त और मुनिसुव्रतनाथका वर्ण अञ्जनीगिरिसमान श्याम और नेमिनाथका वर्णं मोरके कंठसमान श्याम और सोलह तीर्थंकरोंके ताता सोनेके समान वर्णभया है ये सबही तीर्थंकर इन्द्र घरन्द्र चक्रवर्त्यादिकों से पूजने योग्य और स्तुति करने योग्य भएहें और सबहीका सुमेरुके शिखर पांडुकशिला
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पद्म पुराण ॥३४॥
पर जन्माभिषेकमया सबहीके पंचकल्याणक प्रकटभये सम्पूरण कल्याणकी प्राप्तिकी कारणहै सेवा जिनकी वे जिनेन्द्र तेरी अविद्या हरें इसभांति गणधर देवने वर्णन किया। ___ अथानन्तर राजाश्रेणिक नमस्कारकर विनती करतेभए कि हे प्रभू छहों काल की वर्तमान श्रायु का प्रमाण कहो और पापकी निबृत्तिका कारण परम तत्व जो अात्मस्वरूप उसका वर्णन बारम्बारकरो और जिस जिनेंद्र के अन्तराल में श्रीरामचन्द्र प्रकटभए सो आपके प्रसादसे में सर्व वर्णन सुना चाहूं हूं ऐसा जब श्रेणिक ने प्रश्न किया तब गणधरदेव कहतेभए कैसे हैं गणधरदेव क्षीरसागरके जल समान निर्मल है चित्त जिनका हे श्रेणिक कालनामा द्रव्यहै सो अनन्त समयहै उसकी प्रादि अन्तनहीं उसकी संख्या कल्पनारूप दृष्टांतसे पल्यसागरादि रूप महामुनि कहेहैं एक महायोजन प्रमाण लंबाचौड़ा गामोलगर्त (गढ़ा ) उत्कृष्टि भौगभूमि का तत्कालका जन्माहुवा भेड़काबच्चा उसके रोमके अग्रभागसे भरिए सोगत || घनागाढ़ा भरिये और सौ वर्षगए एक रोम काढे सो ब्योहारपल्य कहिये सोयह कल्पना दृष्टांतमात्रहै किसी ने ऐसा कियानहीं इससे असंख्यात गुणी उद्धारपल्यहै इससेसंख्यातगुणीअर्धापल्यहै ऐसी दसकोटा कोरि पल्य जांय तब एक सागरकहिये और दस कोटाकोटि सागरजाय तब एक अवसर्पिणी कहिये और दस । कोटाकोटि सागरकीएक उत्सर्पिणी और बीसकोटयकोटि सागरका कल्पकाल कहिये जैसेएक मासमें शुक्लपक्ष।
औरकृष्णपक्ष ये दोय वर्ते तैसे एक कल्पकाल विषे एक अवसर्पणी और एक उत्सर्पणी ये दोय वर्ते इनके प्रत्येक प्रत्येक छहछह कालहें तिनमें प्रथम सुखमासुखमाकाल चार कोटाकोटि सागरकाहै दूजा सुखमाकाल | तीन कोटाकोटि सागरका है तीजासुसमा दुखमादो कोटयकोटि सामरकाहै और चौथा दुखमासुखमाकाल ।
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वयालीसहजार वर्षघाट एक कोटाकोटि सागरका है पंचमा दुःखमा काल इक्कीस हजार वर्ष का है छठा | Hymदुःखमा दुःखमा काल सोभी इक्कीस हजार वर्षका है यह अवसर्पणी कालकी रीति कही प्रथमकाल से
लेय छठे काल पर्यंत आयुअादि सर्व घटतीभई और इससे उलटी जो उत्सर्पणी उसमें फिर छठेसे लेकर पहिले पर्यन्त आयु काय बल प्राक्रम बढ़ते गये यह कालचक्र की रचना जाननी ॥ ___अथानन्तर जव तीजेकाल में पत्यका आठवांभाग वाकीरहा तब चौदहकुलकरभये तिनका कथनपूर्व कर आये हैं चौदहवें नाभिराजा तिनके आदि तीर्थंकर ऋषभदेव पुत्रभये तिनको मोक्षगयेपीछे पचासलाख कोटिसागरगयेश्रीअजितनाथद्वितीयतीर्थकरभये उनकेपीछेतीसलाखकोटिसागरगयेश्रीसंभवनाथभयेउनपीछे दसलाख कोटि सागर गये श्रीअभिनन्दनभए उन पीछे नवलाख कोटिसागर गये श्रीसुमतिनाथभए उन के पीछे नब्बे हजार कोड़िसागर गए श्रीपद्मप्रभ भए उन पीछे नव हजार कोटिसागर गए श्रीसुपार्श्वनाथ भए उन पीछे नौसौ कोटिसागर गए श्रीचन्द्रप्रभ भए उन पीछे नव्वे कोटिसागर गए श्रीपुष्पदन्त भए उन पीछे नव कोटिसागर गए श्री शीतलनाथ भए उसके पीछे सौसागर घाट कोटिसागर गए श्रेयांस नाथ भए उन पीछे चव्वन सागर गए श्रीवासुपूज्य भए उन पीछे तीस सागर गए श्रीविमलनाथ भये उनके पीछे नव सागर गये श्रीअनन्तनाथ भये उनके पीछे चारसागर गये श्रीधर्मनाथ भये उनके पीछे पौन पल्य घाठ तीन सागर गए श्रीशांतिनाथ भए उनके पीछे अाध पल्य गए श्रीकुन्थुनाथ भए
उनके पीछे छै हजार कोटि वर्ष घाठ पाव पल्य गए श्रीअरनाथ भए उनके पीछे पैंसठलाख चौरासी | हजार वर्ष घाट हजार कोटि वर्ष गए श्रीमल्लिनाथ भए उनके पीछे चौवन लाख वर्ष गए श्रीमुनि
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पद्म
॥३५१।
सुब्रतनाथ भए उनके पीछे छहलाख वर्ष गए श्रीनमिनाथ भए उनके पीछे पांच लाख वर्ष गए श्री नेमिनाथ भए उनके पीछे पौने चौरासी हजार वर्ष गए श्री पार्श्वनाथ भए उनके पीछे अढ़ाईसौ वर्ष गए श्री वर्द्धमान भए जब वर्द्धमानस्वामी मोतको प्राप्त हावेंगे तब चौथे कालके तीन वर्ष साढ़े पाठ महीना बाकी रहेंगे और इतनेही तीजे कालके बाकी रहे थे तब श्री ऋषभदेव मुक्ति पधारे थे। ___ अथानंतर धर्मचक्रके अधिपति श्रीवर्द्धमान इन्द्रके मुकटके रत्नोंकी जो ज्योति सोई भयाजल उससे घोएहेंचरणयुगल जिनके सो तिनको मोक्षपधारे पीछे पांचवांकाल लगेगा जिसमें देवोंका आगम नहीं
और अतिशयके धारक मुनि नहीं केवलज्ञानकी उत्पति नहीं चक्रवर्ती बलभद्र और नारायणकी उत्पति नहीं तुम सारिखे न्यायवान राजानहीं अनीतिकारी राजा होवेंगे और प्रजाके लोक दुष्ट महाढीठ परधनहरने को उद्यमी होवेंगे शील रहित व्रतरहित महा क्लेश व्याधिके भरे मिथ्यादृष्टि घोरकर्मी हावेंगे और अति वृष्टि अनादृष्टि टिड्डी सूवामूषकअपनीसेनाऔरपराई सेनाये जो सप्त ईतिये तिनका भय सदाहीहोयगा मोह रूपमदिराके माते रागद्वेषके भरे भौंहको टेढ़ी करनहारैऋरदृष्टिपापी महामानी कुटिलजीवहावेंगे कुवचन : के बोलनहारे क्रूरजीव धनके लोभी पृथ्वीपर ऐसे विचरेंगेजैसे रात्री विषे घूध विचरें और जैसे पट वीजना चमत्कारकरे तैसे थोड़ेही दिन चमत्कार करेंगे वे मूर्खदुर्जन जिनधर्मसे पराङ्मुख कुधर्म विषे श्राप प्रवरतेंगे। औसको प्रवरतावेंगे परोपकार रहित पराए कार्यों में निरुद्यमी पाप डूबेंगे औरों को डबोवेंगे वे दुर्गति गामी श्रापको महन्त मानेगे के क्रूर कर्म मदोन्मत्त अनयंकर मानाहे हर्ष जिन्होंने मोहरूप अंधकारसे | अंधे कलिकालके प्रभावसे हिंसारूप जे कुशास्त्रवेई भए कुठार तिनसे अज्ञानी जीवरूप वृत्तोंको काटेंगे |
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पंचमें कालके आदिमें मनुष्योंका सात हाथका शरीर ऊंचा होयगा और एकसौ बीस वर्षकी उत्कृष्ट | || श्रायु होयगी फिर पंचम कालके अन्त दोय हाथका शरीर और बीस वर्षकी आयु उस्कृष्ट रहेगी फिर
छठे के अन्त एक हाथका शरीर उत्कृष्ट सोला वर्षकी आयु रहेगी वे छठे काल के मनुष्य महा विरूप मांसाहारी महा दुस्खी पाप क्रियारत महा रोगी तिर्यच समान अज्ञानी होवेंगे न कोई सम्बन्ध न कोई व्यवहार न कोई ठाकुर न कोई चाकर न राजान प्रजा नधन न घर न सुख महादुखी होवेंगे अन्याय काम के सेवनहारे धर्म के प्राचार से शून्य महा पापके स्वरूप होवेंगे जैसे कृष्णपक्ष चन्द्रमा की कला घटे और शुक्लपक्ष में बढ़े तैसे अवसपणी कालमें घटे उत्सर्पणी में बढ़े और जैसे दक्षिणायण में दिन घटे और उत्तरायणमें बढे तैसे अबसर्पणी दोनों में हानि वृद्धि जाननी।
अथानन्तर हे! श्रेणिक अवतू तीर्थंकरोंके शरीरकी ऊंचाईका कथन सुन प्रथम तीर्थंकरका शरीर पांचसोधनुष ५०० दूजेका साढ़े चारसै धनुष ४५० तीजेका चारसै धनुष ४००, चौथे का साढ़ेतीनसै धनुष ३५० पांचवेंका तीनसै धनुष ३०० छठेका ढाईलो धनुष २५० सातवेंका दो सो धनुष २०० आठवेंका डेढ़सो धनुष १५० नौवे कासो धनुष १०० दसवेंका नबे धनुष ६० ग्यारवेंका अस्सी धनुष८० वाखें का सत्तर धनुष ७० तेरहवें का साठ धनुष६०चौदवेंका पच्चास धनुष५० पन्द्रवेंका पैंतालीस धनुष ४५ सोलवेंको चालीसधनुष४० सत्र का पेंतीस धनुष ३५ अठारवेंका तीस धनुष ३० उन्नीसवेंका पच्चीस धनुष २५ बीसवेंकावीसधनुष | २० इक्कीसवें का पन्द्रह धनुष १५ बाईसवें का दस धनुष १० तेइसवेंका नौ हाथ चौबीसवें का सातहाथ ७ | अब आगे इन चौवीस तीर्थंकरों की आयु का प्रमाण कहिये हैं, प्रथमका चौरासी लाखपूर्व ( चौरासी |
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५३५३५
लाख वर्षका एकपूर्वागऔर चौरासी लाख पूर्वागका एकपूर्व होयहै ) औरदूजेकावहत्तरलाख पूर्व तीजे का साठलाख पूर्व चौथेको पचास लाखपूर्व पांचवेंका चालीस लाखपूर्व छठेका तीसलाख पूर्व सातवेंका बीसलाख पूर्व आठवें का दसलोखपूर्व नवमेंका दोयलाख पूर्व दसवेंका लाखपूर्व ग्यारवेंका चौरासी लाख वर्ष वारवें का बहत्तर लाखवर्ष, तेरखें का साठलाख वर्ष चौदवेंका तीस लाखवर्ष पन्द्रवे का दस लाख वर्ष सोलका लाखवर्ष, सत्रवेंका पचानवें हजार वर्ष, अठार का चौरासी हजार वर्षे, उन्नीसवें का पचावन ५५ हजार वर्ष. बीसवें का तीस हजार वर्ष इक्कीसवेंका दस हजार वर्ष वाईसवें का हजार वर्ष तेईसवें का सौ वर्ष चौबीस का बहत्तर वर्ष को आयु प्रमान जानना ॥ ___ अथानन्तर ऋषभदेवके पहिलेजेचौदह कुलकरभए तिनके श्रायुकायका वर्णन करिएहे प्रथम कुलकर की काय अठारहसौ थनुष दूसरे की तेरासो धनुष तोसरेकी आठसो धनुषचौथे की सातसो पिछत्तर धनुष पांच की साढे सातसो धनुष छठे की सवासात सो धनुष सातवें की सातसो धनुष आठवें की पौने सातसो धनुष नवमें को साढे छैसो धनुष दसोंकी सवाछेसो धनुष ग्यारवेंकी छैसो घनुप बारवें की पौने छैसो धनष तेकी साढे पाँचसो धनुष जौदहीं की सवापांचसो धनुष अब इनकुलकरोंकी आयुका वर्णन करें हैं पहिले की आयु पल्य का दसमा भागदूजेकी पल्य का सौवा भाग तीजे कीपल्यका हजारखा भाग चोथे की पल्य का दस हजारवां भाग पांचमेंकी पल्यका लाखो भाग छठे की पल्य का दसलाखवांभाग
सात की पल्य का कोड़वां भाग पाठवें की पल्यका दस कोड़वां भाग नौवमें की पल्यका सोकोड़वांभाग || दसवें की पल्य का हजार कोड़वां भाग ग्यारवें की पल्य का दस हजार कोड़वाँ भाग बारबें की पल्य
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॥३५॥
पन || का लाख कोड़वां भाग तेरखें की पल्य का दस लाख कोड़वां भाग चौदहवें की कोटि पूर्व की आयुभई ॥
अथानन्तर हे श्रेणिक अब तू बारह जे चक्रवर्ती तिन की वार्ता सुन, प्रथम चक्रवर्ती इस भरत क्षेत्र का अति भरत १ श्री ऋषभदेव के यशावती राणी उनको नन्दाभी कहे हैं उसके पुत्र भया पूर्वभव विषे पुंडरीकनी नगरी विषे पीठ नाम राजकुमार थे वे कुशसेन स्वामी के शिष्य होय मुनिव्रत धर सर्वार्थ सिद्धि गए वहां से चयकर षट् खण्ड का राज्य कर फिर मुनि होय अन्तर्महूर्तमें। केवल उपजाय निर्वाण को प्राप्त भए फिर पृथिवीपुर नामा नगर विषे राजा विजय तेज यशोधर नामा मुनि के निकट जिनदीक्षा घर विजयनाम विमान गए, वहां से चयकर अयोध्या विषे राजा विजय राणी सुमंगला तिनके पुत्र सगर नाम दीतिय चक्रवर्ती भए, वे महा भोगकर इन्द्र समान देव विद्याघरों से धारीये है आज्ञाजिन की वे पुत्रों के शोक से राज्यका त्यागकर अजितनाथके समोशरण में मुनिहोय केवल उपजाय सिद्ध भए और पुन्डरीकनी नामा नगरी विषे एकराजाशशिप्रभ वह विमल.स्वामीका शिष्य होय बेयकगया वहांसेचयकर श्रावस्ती नगरी में राजा सुमित्राणी भद्रवती तिनके पुत्र मघवानाम तृतीय, चक्रवर्तीभए. लक्ष्मीरूप बेलके लिपटने को बृक्ष वे श्रीधर्मनाथके पीछे शान्तिनाथ के उपजनेसे पहिलेभए समाधान रूप जिनमुद्राधार सौधर्म स्वर्ग मए फिरचौथे चक्रवर्तीजो श्रीसनत्कुमारभए तिनकी गौतमस्वामी ने बहुतबड़ाई करी तब राजो श्रेणिक पूछते भए हे प्रभो ! वे किस पुण्यसे ऐसे रूपवान् भए तब उनका चरित्र संक्षेपता कर गणधर कहतेभए कैसाहै सनत्कुमार का चरित्र जो सौवर्ष में भी कोऊ कहिनेको समर्थनहीं । यह जीव जवलग जैनधर्म को नहीं प्राप्त होयहै तबलग तर्यश्च नारकी कुमानुष कुदेव गतिमेंदुःख भोगे |
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॥३५॥
पद्म
| है जीवों ने अनन्त भवकिये सो कहांलोकहिए परन्तु एकै एक भव कहिएहें। एक गोवधन नामा ग्राम वहां पुराण
भले भले मनुष्यवसे वहां एक जिनदत्त नामा श्रावक बड़ागृहस्थी जैसे सर्वजलस्थानकोंसे सागर शिरोमणि है और सर्व गिरों में सुमेरु और सर्व ग्रहों विषे सूर्य्य तृणों में इत्तु, वेलों में नागरवेल वृक्षों मे हरिचन्दन प्रशंसा योग्यहै तैसे कुलों में श्रावग का कुलसर्वोत्कृष्ट पाचोरकर पुजनीकहैसुगतिकाकारणहै. सो जिनदत्त नामा श्रावक गुणरूप आभूषणों से मण्डित श्रावगवतपाल उत्तम गतिकोगया. औरउसकी स्त्री विनयवती महापतिव्रता श्रावकाके व्रत पालन हारी सो अपने घरकी जगह में भगवानकाचैत्यालय बनाया। सकल द्रव्य वहां लगाये और आर्या होय महातप कर स्वर्गमें प्राप्तभई और उसी ग्राम विषेएक और हेमवाहु । नामा गृहस्थी आस्तिकदुराचार से रहित सो विनयवती का कराया जो जिनमन्दिर उसकी भक्ति से यक्ष । देवभया सोचतुर्विधि संघ की सेवा में सावधान सम्यक्दृष्टि जिनबन्दना में तत्पर, सो चयकर मनुष्य भया । फिर देव फिर मनुष्य इस भांति भव धर महापुरी नगरी में सुप्रभनामा राजा उसके तिलक सुन्दरी रानी गुण रूप आभूषण की मंजूषा उसके धर्मरुचि नामा पुत्र भया, सो राज्य तज सुप्रभनामा पिता जोमुनि उसका शिष्य होय मुनिबत अंगीकार करताभया पंच महाव्रत पंच सुमति तीन गुप्त का प्रति पालन प्रात्म। ध्यानी गुरु सेवा में अत्यंत तत्पर अपनी देहीविषे अत्यंत निस्पृह जीव दयाका धारक, मन इन्द्रियों काजीतनेहाराशील के सुमेरु शंकाआदि जे दोष तिनसे अति दूर साधुवोंका वैयाव.करनहारा सोसमाधि
मरणकर चौथेदेवलोकमें गया वहां सुख भोगता भया वहांसे चयकर नागपुरमें राजा विजयराणी सहदेवी , | तिनके सनत्कुमार नामापुत्र चौथेचक्रवर्तीभए छहखण्ड पृथिवीविषे जिसकी आज्ञाप्रवस्ती सो महारूपवान् ।
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चन
परास
.३५६
एक दिन सौधर्म इन्द्रने इनके रूपकी अति प्रशंसा करी सो रूप देखने को देव आये सो प्रछन्न आय कर चक्रवर्तीका रूप देखा उस समय चक्रववर्ति ने कुस्तीका अभ्यास कियाथा सो शरीर रजकर घूसरा होयरहाथा और सुगन्ध उबटना लगाथा और स्नानकी एक धोतीही पहने नानाप्रकारके जे सुगन्धजल तिनसे पूर्ण नानाप्रकार स्नानलिये रत्नोंके कलश तिनके मध्य रत्नोंके श्रासनपर विराजैथे सो देवरूप को देख आश्चर्यको प्राप्तभए परस्पर कहतेभए जैसा इन्द्रने वर्णनकिया तैसाही है यह मनुष्यकारूप देवों के चित्त को मोहित करनहारा है फिर चक्रवर्ती स्नान कर वस्त्राभरण पहर सिंहासन पर आय विराजे रत्नाचलके शिखर समान है ज्योति जिसकी और वह देव प्रकट होकर दारे आय ठाढ़ रहे और द्वारपाल से हाथजोड़ चक्रवर्त्तिको कहलाया कि स्वर्गलोकके देव तिहारा रूप देखने आए हैं सो चक्रवर्ति अद्भुत शृङ्गार किये विराजेंहीथे तब देवोंके आनेकर विशेष शोभाकरी तिनको बुलाया वे आये चक्रवर्तिकारूप देख माथा धुनतेभए और कहतेभये एकक्षण पहिले हमने स्नान के समय जैसा देखाथा तैसा अब नहीं मनुष्योंके शरीरकी शोभा क्षणभंगुर है धिक्कारहै इस असार जगत्की मायाको प्रथम दर्शनमें जो रूप यौवनकी अद्भुतताथी सो क्षणमात्रमें ऐसे विलायगई जैसे विजुली चमत्कार कर क्षणमात्र विलायजाय है येदेवों के वचन सनत्कुमार, सुन रूप और लक्ष्मी को क्षणभंगुर जान वीतराग भावधर महामुनि होय महातप करतेभये महा ऋद्धि उपजी तौभी कर्मनिर्जरा निमित्त महारोग की परीषह सहतेभए महा ध्यानारूढ़ होय समाधिमरणकर सनत्कुमार स्वर्ग सिधारे वे शान्तिनाथके पहिले और मघवा तीजा चक्र- | वत्ति उसके पीछेभये और पुण्डरीकनी नगरीमें राजा मेघरथ वह अपने पिता धनरथके शिष्य मुनिहोय ।
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पुराग
सर्वार्थ सिद्धको पधारे वहांसे चयकर हस्तनागपुर में राजा विश्वसेन राणी ऐरा तिनके शान्तिनाथ नामा॥३५७०
सोलवें तीर्थंकर और पंचम चकूवत्ति भये जगत्कोशान्तिके करणहारे जिनका जन्म कल्याणक सुमेरु पर्वत पर इन्द्रने किण फिर पट्खण्डके भोक्ताभए तृणसमान रज्यको जान तजा मुनिव्रतधर मोक्षगये फिरकुंथुनाथ छठेचक्रवतों सतरवें तीर्थंकर और अरनाथ सातवेंचक्रवर्ती अाठावं तीर्थंकर वे मुनिहोय निर्वाण पधारे सो इनकावर्णन तीर्थंकरोंके कथनमें पहिले कहाही है और ध्यानपुर नगरमें राजा जनकप्रभ सो विचित्रगुप्त स्वामी के शिष्य मुनिहोय स्वर्ग गये वहांसे चयकर अयोध्यानगरी में राजाकीर्तिवीर्य राणी तारा तिनके सुभमि नामा अष्टम चक्रवर्ति भये जिस से यह भूमि शोभायमान भई तिनके पिता का मारणहारा जो परशराम उसने क्षत्री मारे थे और तिनके सिर थंभनमें चिनायेथे सोसभमि अतिथिका। भेषकर परशुराम के भोजनको आये परशुरामने निमित्त ज्ञानी के वचनसे दांतपात्र में मेल सुभूमिको । दिखाये तब दांत क्षीर का रूप होय परणाये और भोजन का पात्र चक्र होय गया उस कर परशराम, को मारा परशुराम नेक्षती मार पृथिवी निक्षत्री करी सो सुभूमि परशुराम को मार दिज वर्ग से। द्वेष किया पृथ्वी अब्राह्मण करी जैसे परशुरामके राज्यमें चत्रीकुल छिपाए हुएथे तैसे इस राज्यमें विप्र । अपने कुल छिपाए रहे सो स्वामी अरनाथके मुक्ति गए पीछे और माल्लनाथके होय वे पहिले सुभूमिमए । अतिभोमासक निर्दयपरिणामी अबती मरकर सातवें नरक गये और बीतशोका नगरीमें राजाचिंत सो। मुप्रभस्वामीके शिष्य मुनि होय ब्रह्मस्वर्ग गए वहांसे चयकर हस्तिनागपुर विषेराजा पद्मरथ राणी मयूरी || तिनके महापद्म नामा नाम चक्रवर्ती भए षटखंड पृथ्वीके भोक्ता तिनके पाठ पुत्री महा रूपवती ।
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॥ ३५८॥
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सो रूपके अतिशय गर्वित तिनके बिवाहकी इच्छा नहीं सो विद्याधर तिनको हर लेगये सो चक्रवर्ती छुड़ाय मंगाई ही कन्या आर्यिका के व्रतधर समाधि मरणकर देवलोक में प्राप्त भई और अ विद्यावर इनको लेगएथे वेभी विरक्त होय मुनिन्त घर आत्मकल्याण करते भए यह वृतांत देख महा पद्म चक्रवर्ती पद्मनामा पुत्रको राज्य देय विष्णु नामा पुत्र सहित वैरागी भए महा तपकर केवल उप जाय मोचको प्राप्त भए यह अरनाथ स्वामी के मुक्तिगए पीछे और मल्लिनाथके उपजने से पहिले मुभूाम के पीछे भए और विजयनामा नगर विषे राजा महेंद्रदत वह अभिनन्दन स्वामी के शिष्य मुनि होय महेंद्र स्वर्गकोगए वहांसे चयकर कपिल नगर में राजा हरिकेतु उसके राणी वप्रा तिनके हरिषेण नामा दसवें चक्रवर्ती भए तिनने सर्व भरतक्षेत्र की पृथ्वी चैत्यालयों कर मंडित करी और मुनि सुव्रतनाथ स्वामी के तीर्थ में मुनि होय सिद्धपदको प्राप्त भये और राजपुरनामा नगर में राजा जो सीकांत थे वह सुधर्म मित्र स्वामी के शिष्य मुनि होय ब्रह्मस्वर्ग गये वहांसे चयकर राजा विजय राणी यशोवती तिनके जयसेननामा ग्याखें चक्रवर्ती भए वे राज्य तज दिगम्बरी दी चाधर रत्नत्रय का आराधनकर सिद्ध पदको प्राप्त भये । यह श्रीमुनिसुव्रतनाथ स्वामी को मुक्ति गए पीछे नमिनाथ स्वामी के अन्तराल में भवे और काशीपुरी में राजा सम्भूत वे स्वतन्त्रलिंगस्वामी के शिष्य मुनि होय पद्मयुगल नामा विमान में देव भये वहां से चयकर कपिलनगर में राजा ब्रह्मरथ राणी चूला तिनके ब्रह्मदत्तनामा बाखें चक्र भये खंड पृथ्वीका राज्यकर मुनित्रत बिना रौद्रध्यानकर सातवें नरकगये यह श्रीनेमनाथ स्वामीको मुक्ति गये पीछे पार्श्वनाथ स्वामी के अन्तराल में भये ये बारह चक्रवर्ती बड़े पुरुषहैं वै खंड
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पृथ्वीनाथ जिनकी प्रज्ञादेव विद्याधर सबही माने हैं है कि यह तुझे पुण्य पापका फल प्रत्यक्ष ॥३५॥कहा सोयह कथन सुनकर योग्य कार्य करना अयोग्य काम न करना जैसे बटसारी बिना कोई मार्ग में चले तो मुखसे स्थानक नहीं पहुंचे तैसे सुकृत बिना परलोक में सुख न पावे कैलाश के शिखरसमान जे ऊंच महल तिनमें जो निवास करे है सो सर्व पुण्यरूप वृक्षका फल है और जहां शीत उष्णपवन पानीकी बाघ ऐसी कुटियों में बसे हैं दद्रिरूप कीच में फंसे हैं सो सर्व धर्मरूप वृत्तका फल है और विन्ध्याचल पर्वतके शिखरसमान ऊंचे जे गजराज उनपर चढ़कर सेना सहितचले हैं चंवर दुरे हैं सो सब पुण्यरूप वृक्ष का फल है जे महातुरंगों पर चमर दुरते और अनेक असवार पियादे जिनके चौगिर चले हैं सो सव पुण्य रूप राजाका चरित्र है और देवोंके विमानसमान मनोग्य जे रथ तिनपर चढ़कर जे मनुष्य गमन करे हैं। सो पुण्यरूप पर्वतके मीठे नीकरने हैं और जो फटे पग और फाटे मैले कपड़े और पियादे फिरे हैं सो सब पाप रूप वृचका फल है और जो अमृत सारिखाश्रन्न स्वर्णके पात्र में भोजन करे हैं सो सब धर्म रसायन काफल मुनियोंने कहा है और जो देवोंका अधिपति इन्द्र और मनुष्यों का अधिपति चक्रवर्ती तिनका पद भव्यजीव पावे हैं सो सब जीवदयारूप बेलका फलहे कैसे हैं भव्यजीवकर्मरूप कंजरको शार्दूलसमान हैं और राम कहिये बलभद्र केशव कहिये नारायण तिन के पद जो भव्य जीव पावें हैं सो सब धर्म काफल है
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teriतर हे श्रेणिक गे बासुदेवों का वर्णन करिये है सो सुनो इस अवसर्पकाल के भरत क्षेत्र के नववासुदेव हैं प्रथम ही इनके पूर्वभव की नगरियों के नामसुनो हस्तनागपुर १ अयोध्या २ श्रावस्ती ३ कोशांबी ४ पोदनापुर ५ शैलनगर ६ सिंहपुर ७ कौशांबी- हस्तनागपुर ध्ये नवही नगर कैसे हैं सर्वही
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पुराण ॥३६॥
द्रव्यके भरे हैं और ईतिभीति रहित हैं अब बासुदेवों के पूर्वभव के नामसुनों विश्वानन्दी १ पर्वत २ | धनमित्र ३ सागरदत्त ४ विकट ५ प्रियमित्र ६मानचेष्टित ७ पुनर्वसु - मंगादेव जिसे निर्णामिकभी कहे हैं स्येनव ही बासुदेवोंके जीव पूर्व भव विषे विरूप दौर्भाग्य राज्यभ्रष्ट होय हैं फिर मुनि होय महातप करे । फिरनिदान के योग से स्वर्ग विषे देव होय वहांसे चयकर बलभद्र के लघुभ्राता बासुदेव होयहें इसलिये तपसे निदान करना ज्ञानियों को बरजित है निदान नाम भोगाभिलाष का है सो महाभयानक दुख देने को प्रवीण है, आगे वासुदेवोंके पूर्वभव के गुरुवोंके नाम सुनो, जिन पै इन्होंने मुनिव्रत श्रादरेसंभूत १ सुभद्र। २ वसुदर्शन ३ श्रेयांस ४ भूतिसंग ५ वसुभूति ६ घोषसेन ७ परांभोधि द्रुमसेन अव जिस जिस स्वर्ग से
आय वासुदेव भए तिन के नाम सुनो, महाशुक्र १ प्राणत २ लांतक ३ सहस्रार ४ ब्रह्म ५ महेंद्र ६ सौधर्म ७ सनत्कुमार = महाशुक्र ा ागे वासुदेवों की जन्मपुरियों के नाम सुनो. पोदनापुर १ दापुर २ हस्तनापुर ३ फिर हस्तनागपुर ४ चकपुर ५ कुशाग्रपुर ६ मिथिलापुर७ आयोध्या -मथुराध्ये वासुदेवों के उत्पत्ति के नगर में कैसे हैं नगर समस्त धनधान्य कर पुर्ण महाउत्सव के भरे हैं, आगे वासुदेवों के पिताकेनाम सुनो प्रजापति १ ब्रह्मभूत २रौद्नन्द ३सोम ४ प्रख्यात ५ शिवाकर ६ अग्निनाथ ७ दशरथ ८ वासुदेव और इन नववासुदेवों की मातावोंके नाम सुनों मृगावती १ माधवी २ पृथिवी ३ सीता अंविका५ लक्ष्मी ६ केशिनीसुमित्रा देवकी : ये नवों ही वासुदेवों की नव माता कैसी हैं अतिरूपगुणोंकर मण्डित महा सौभाग्यवती जिनमती हैं आगे नव वासुदेवोंके नाम सुनो त्रिप्रष्ट दिप्रष्ट २ स्वयम्भू ३ पुरुषोत्तम ४ | पुरुषसिंह ५ पुण्डरीक ६ दत्त७ लक्ष्मण ८ कृष्ण ६ आगे नव ही वासुदेवों कीमुख्य पदराणीयों के नाम सुनो।
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पुराण
सुप्रभा १ रूपिणी २ प्रभवा ३ मनोहरा ४ सुनेत्रा ५ विमलसुन्दरी ६ अनन्दवती७ प्रभावती ८ रुक्मणी ॥३६१० ये वासुदेवों की मुख्यपटराणी कैसी हैं महोगुण कलानिपुण धर्मबती ब्रतवती हैं |
अथानन्तर नव बलभद्रोंका वर्णन सुनो सो पहिले नवही बलभद्रों की पूर्वजन्मकी पुरियों के नाम सुनों पुण्डरीकनी १ पृथिवी २ आनन्दपुरी ३ नन्दपुरी ४ वीतशोका.५ विजयपुर ६ सुसीसा ७ तेमा
हस्तनागपुर और बलभद्रों के पूर्वजन्म के नाम सुनो बाल १ मारुतदेव २ नन्दिमित्र३ महाबल ४ परुषपर्भ ५ सुदर्शन ६ वसुधर ७ श्रीचन्द्र ८ शंख ६ अब इनके पूर्व भवके गुरुवोंके नाम सुनो जिनपै इन्होंने जिनदीक्षा श्रादरी अमृतार १महासुत्रत २सुब्रत ३ वृषभ ४ प्रजापाल ५ दम्बर ६ सुधर्मार्णव ८ विद्रुम : अबनव वलदेव जिन २देवलोकोंसे पाए तिनके नाममुनों तीनबलभद्रतो अनुत्तरविमानसेवाए
और तीन सहस्रार स्वर्गसे पाए दो ब्रह्मस्वर्गसे पाए एक महाशुक्रसे आया अवइन नव वलभद्रों कीमातावों के नाम सुनों क्योंकि पिता तो इन बलभद्रों के और नारायणों के एकही होय हैं भद्राभोजा १सुभद्रा २ सुवेषा ३ सुदर्शना ४ सुप्रभा ५ विजया ६ वैजयन्ती ७ अपराजिलाजिसे कौशिल्या भी कहे हैं रोहिणी । नववलभद्र नवनारायण तिनमें पांच बलभद्र पांच नारायण तो श्रेयांसनाथ स्वामी के समय आदि
धर्मनाथ स्वामी के समय पर्यन्त भए और कठे अरनाथ स्वामीको मुक्तिगए मल्लिनाथ स्वामी के पहिले || भए और नवमें श्री नेमिनाथ के काकाके बेटे भाई महाजिनभक्त अद्भुत क्रियाके धारणहारे भए अबइनके नाम सुनों १ अचल २ विजय ३ भद्र ४सुप्रभ ५ मुदरशन इनन्दिमित्रानन्द]७नन्दिषेण(नन्दन) रामचन्द्र [ह्म] राम [बलभद्र भागे जिनमहामुनियों पै वलभद्रों ने दीक्षा धरी तिनके नामकहिये
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पद्म
पुराण
३६२॥
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है सुबकुम्भ १ सत्यकीर्ति २ सुधर्म ३ मृगांक ४ श्रुतिकीर्ति ५ सुमित्र६ भवनश्रुतः सुव्रत ८ सिद्धार्थ ६ यह बलभद्रों के गुरुवों के नाम कहे महातपके भार कर कर्मनिर्जरा के करणहारे तीन लोक में प्रकट है कीर्ति जिनकी नवबलभद्रों के आठ तो कर्मरूप बन को भस्म कर मोच प्राप्त भए कैसा है सन्सार वन आकुलता को प्राप्त भए हैं नाना प्रकार की व्याधि कर पीड़ित प्राणी जहां और वह वन काल रूप जो व्याघ्र उससे अति भयानक है और कैसा है यहबन अनन्त जन्मरूप जे कंटक वृक्ष तिनका है समूह जहां विजय बलभद्र आदि श्री रामचन्द्र पर्यन्त आठ तो सिद्ध भए और रामनामा जो नवम बलभद्र वह ब्रह्मस्वर्ग में महाऋद्धि के धारी देव भए ।
अथानन्तर नारायणों के शत्रुजे प्रति नारायण तिनकेनाम सुनो अश्वग्रीव १ तारक २ मेरक ३ मधुकैटभ ४ निशुंभ ५ बाले ६ प्रल्हाद ७ रावण जरासिन्ध अब इन प्रतिनारायणों की राजधानियों के नाम सुनो, अलका १ विजयपुर २ नन्दनपुर ३ पृथ्वीपुर ४ हरिपुर ५ सूर्यपुर ६ सिंहपुर ७ लंका ८ राजगृही ये नौही नगर कैसे हैं महारत्न जड़ित अति देदीप्यमान स्वर्ग लोक समान हैं ।
हे श्रेणिक प्रथमही श्री जिनेंद्रदेवका चरित्र तुझे कहा फिर भरत आदि चक्रवर्तियों का कथन कहा और नारायण बलभद्र तिनका कथन कहा इनके पूर्व जन्म सकल वृतांत कहे और नवही प्रतिनारायण तिनके नाम कहे ये त्रैसठ शलाकाके पुरुषहै तिनमें कैयक पुरुष तो जिन भाषित तपसे उसही भवमें मोक्षको प्राप्त होय हैं कैयक स्वर्ग प्राप्त होय हैं पीछे मोक्ष पावे हैं और कैयक जे वैराग्य नहीं घरे हैं चक्री तथा हरि प्रतिहरिते कैयक भवधर फिर तपकर मोचको प्राप्त होय हैं ये संसार के प्राणी नानाप्रकार के जे पाप
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पद्म पुराण
॥३६३१
तिनसे मलीन मोहरूप सागरके भ्रमणमें मग्न महा दुःखरूप चारगति तिनमें भ्रमणकर तप्तायमान | सदा व्याकुल होयह ऐसाजानकर जे निकट संसारी भव्यजीवहैं वे संसारका भूमण नहीं चाहे हैं मोह । तिमिरका अन्तकर सूर्य समान केवलज्ञानका प्रकाश करे हैं ॥ इति बीसवां पर्व संपूणम् ।
अयानंतर आगे हरिवंशकी उत्पतिका कथन सुनो भगवान दशमतीयकर जे श्रीशीतलनाथ स्वामी तिन के मोक्षगए पीछे कौशांवीनगरी में एक राजासुमुख भया और उसही नगरमें एक श्रेष्ठीवीर उसकी स्त्री बन मालासोअज्ञानके उदयसे राजा सुमुखने घरमें राखीफिर विवेकको प्राप्तहोय मुनियोंकोदान दिया सो मस्कर विद्याधर और वह बनमाला विद्याधारी भई सो उस विद्याधरने परणी एक दिवस ये दोनों क्रीड़ा करनेको हरि क्षेत्र गये और वह श्रेष्ठीबार बनमालाका पति विरहरूप अग्निकरदग्धायमान सो तपकर देवलोककोप्राप्त भया एक दिवस अवधिकर वहदेव अपने बैरी सुमुखको हरितेवमें क्रीड़ा करता जानक्रोधकर वहांसे भार्या सहित उठाय लाया सो वह इस क्षेत्रमें हरि नामसे प्रसिद्ध भया इसी कारणसे इसका कुलहरिबंश कहलाया उस हारके महागिरि नाम पुत्र भया उसके हिमगिरि उसके बमुगिरि उसके इन्द्रगिरि उस के । रत्नमाल उसके संभूत उसके भूतदेव इत्यादि सैंकड़ों राजा हरिबंशमें भए ।
अथानन्तर हरिवंशमें कुशाग्रनाम नगर विषे एक राजा सुमित्र जगत विषे प्रसिद्ध भया कैसे हैंगजा सुमित्रभोगोंकर इन्द्र समान कांतिसे जीताहै चन्द्रमा जिसने और दीप्तकर जीताहै सूर्य और प्रताप कर नवाए हैं शत्रु जिसने उसके राणी पद्मावती कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके शुभ लक्षणोंसे सम्पूर्ण और पूर्ण भएहें सकल मनोरथ जिसके सो रात्रि में मनोहर महल में सुखरूप सेजपर सूती थी सो |
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॥३६४॥
पिछले पहिर सोलह स्वप्न देखे गजराज १ कृपभ र सिंह३ लक्ष्मी स्नान करती ४ दोय पुष्पमाल ५ चन्द्रमा ६ सूर्य ७ दो मछ जलमें केलि करते ८ जलका भरा कलश कमल समूहसे मूंहढका सरोवर कमल पूर्ण १० समुद्र ११ सिंहासनरत्न जड़ित १२ स्वर्गलोकसे विमान आकाशसे श्रावतेदेखे १३और नाग कुमारके बिमान पातालसे निकसते देंखे१४ रत्नोंकी राशि १५ निधूम अग्नि १६ तब गणी पद्मावती सुबुद्धिवंती जागकर आश्चर्यरूप भया है चित्त जिसका प्रभात कियाकर बिनय रूप भग्तारके निकट
आई पातके सिंहासनपर विराजी फुल रहाहै मुख कमल जिसका महान्यायकी वेत्ता पतिव्रताहाथ जोड नमस्कारकर पतिसे स्वप्नों का फल पूछती भई तब राजा मुमित्र स्वप्नोका फल यथार्थ कहते भए तबही रत्नोंकी वर्षा आकाशसे वरसतीभई साढ़े तीनकोटि रत्न एक सन्ध्यामें वरसे सो त्रिकाल संध्या वर्षा होतीभई पन्द्रह महीनों लग राजाके घर में रत्नपारा वर्षे और जे षट कुमारिका वे समस्त परिवार ! सहित माताकी सेवा करतीभई और जन्म होतेही भगवान को क्षीर सागर के जल से इन्द्र लोकपालों सहित सुमेरु पर्वत पर स्नान करावते भए और इन्द्रने भक्तिसे पूजा और प्रस्तुतिकर नमस्कार करी फिर सुमेरुसे ल्याय माताकी गोदमें पधराए जबसे भगवान माता के गर्भ में पाए तबहीसे लोक अणुव्रत रूप महाव्रतमें विशेष प्रवरते और माता व्रतरूप होती भई इसलिये पृथिवी पर मुनिसुत्रत कहाए अञ्जन | गिरि समान है वर्ण जिनका परन्तु शरीरके तेजसे सूर्यको जीतते भए.और कांति से चन्द्रमाको जीतते ।
भए सर्वभोग सामग्री इन्द्रलोक से कुवेर लावे और जैसा आपको मनुष्य भवमें सुख है तैसा अहमिन्द्रोंको। | नहीं और हाहा हह तंवर नारद विश्वावसु इत्यादि गन्धर्वो की जाति हैं वे सदा निकट गान कग्रहीकरें।
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॥३६॥
। पद्म और किन्नरी जातिकी देवांगना तथा स्वर्गकी अप्सरा नृत्य कियाही करें और वीणा वांसुरी मृदंगादि ,
वादित्र नानाविधि के देव बजायाही करें और इन्द्र सदा सेवाकरें और आप महासुन्दर यौवन अवस्था विषे विवाह भी करते भए सो जिनके राणी अद्भुत प्रावती भई अनेक गुणकला चातुर्यता कर पूर्ण हाव भाव विलास विभ्रम की धरणहारी सो कैयकवर्ष श्राप राज्यकिया मनवांछित भोग भोगे एकदिवस शरद के मेघ विलय होते देख आप प्रतिबोधको प्राप्तभए तब लोकान्तिकदेवने आय स्तुतिकरी तब सुब्रत नाम पुत्रको राज्यदेय वैरागी भए कैसे हैं भगवान नहीं है किसीभी वस्तु की वांछा जिनके पाप वीतरागभाव । घर दिव्य स्त्री रूप जो कमलोंका बन वहां से निकसे कैसा है वह सुन्दर स्त्रीरूप कमलोंका बन सुगन्थ से व्याप्त किया है दसों दिशाका समूह जिसने फिर महा दिव्य जे सुगन्धादिक वेई हेमकरन्द जिसमें और सुगन्धताकर भ्रमें हैं भ्रमरोंके समूह जिसमें और हरित मणि को जे प्रभा तिनके जो पुञ्ज सोई है पत्रों का समूह जिसमें और दन्तों की जो पंक्ति तिनकी जो उज्ज्वल प्रभा सोई है कमल तंतु जिसमें और । नानाप्रकार आभूषणों के जे नाद वेई भए पक्षी उनके शब्दों से पूरितहै और स्तनरूप जे चकवे नित से शोभित हैं और उज्ज्वल कीर्तिरूप जोराजहंस तिनसे मण्डितहें सो ऐसे अद्भुत विलास तजकर वैराग्य के अर्थ देवों पुनीत पालिकीमें चढ़कर विपुल नाम उद्यान में गए कैसेहैं भगवान मुनिव्रत सर्व राजावों के मुकटमणि हैं सो बन में पालकी से उतर कर अनेक राजावों सहित जिनेश्वरी दीक्षा धरतेभए वेले पारणा करना यह प्रतिज्ञा प्रादरी राजगृह नगर में कृपभदत्त महा भक्ति कर श्रेष्ठ अन्न कर धारणा करावतो भया आप भगवान महा शक्ति से पूर्ण कुछवधा की बाधा से पीड़ित नहीं परन्तु आचारांग।
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सूत्र की आज्ञा प्रमाण अन्तराय रहित भोजन करतेभये वृषभदत्त भगवान को अहार देय कृतार्थ भया भगवान के एक महीना तप कर चम्पा के वृक्ष के तले शुक्ल ध्यान के प्रताप कर घातिया कर्मोका नाशकर केवल को प्राप्त भए तब इन्द्र सहित देव आयकर प्रणाम और स्तुति कर धर्म श्रवण करते भए
आपने यति श्रावक का धर्म विधिपूर्वक वर्णनकिया धर्म श्रवण कर कई मनुष्य मुनि भए कई मनुष्य श्रावक भए कई तिर्यंच श्रावक के व्रत धरते भये और देवको बर नहीं सो कई देव सम्यक्तको प्राप्तहोते भए श्रीमुनिसुव्रतनाथ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर सुर असुर मनुष्यों से स्तुति करने योग्य अनेक साधुवों सहित पृथिवी पर विहार करतेभए सम्मेदशिखर पर्वत से लोक शिखर को प्राप्तभए यह श्री मुनिसुव्रत नाथ का चरित्र जे प्राणी भाव धर सुनें तिनके समस्त पाप नाश को प्राप्त होंय और ज्ञान सहित तप से परम स्थानको पावें जहां से फेरे आगमन न होय ॥ __अथानन्तर मुनिसुव्रतनाथके पुत्र राजा सुव्रत बहुतकाल राज्यकर दत्त पुत्रको राज्यदेय जिनदीक्षा घर मोक्षको प्राप्तभये और दत्त के एलावर्धन पुत्रभया उसके श्रीवर्धन उसके श्रीबृक्ष उसके संजययंत उसके कुणिम उसके महारथ उसके पुलोमई इत्यादि अनेक राजा हरिवंश कुलमेंभये तिनमें कैयक मुक्ति को गये कैयक स्वर्गलोक गये इस भांति अनेक राजा भये फिर इसी कुलमें एक राजा वासवकेतु भया मिथिला नगरी का पति उसके विपुला नामा पटराणी सुन्दर हैं नेत्र जिसके सो वह राणी परम लक्ष्मी का स्वरूप उसके जनक नामा पुत्र होतेभये समस्त नयों में प्रवीण वे राज्यपाय प्रजाको ऐसे पालतेभये जैसे पिता पुत्रको पाले गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक ! यह जनककी उत्पत्ति तुझे कहीजनक हरिवंशी हैं
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॥३६॥
अथानन्तर श्रीऋषभदेवके कुल में राजा वज्रवाह भए तिन का वर्णन सुन इक्ष्वाकुवंश में श्री ऋषभदेव | पुराण निर्वाण पधारे फिर तिन के पुत्र भरत भी निर्वाण पधारे सो ऋषभदेव के समय से लेकर मुनिसुव्रतनाथ के
समय पर्यन्त बहुत काल बीता उस में असंख्य राजा भए । कैयक तो महा दुर्द्धर तप कर निर्वाण को प्राप्त भए कैयक अहमिंद्र भए, कैयक इन्द्रादिक बडी ऋद्धिके घारी देव भए कैयक पाप के उदय कर नरक में गए हे श्रेणिक इस संसार में अज्ञानी जीव चक्र की न्याई भ्रमण करे हैं, कभी स्वर्ग में भोग पावे हैं तिन में मग्न होय क्रीड़ा करें हैं कैयक पापी जीव नरक निगोद में क्लेश भोगे हैं ये प्राणी पुण्य पाप के उदय से अनादि काल के भ्रमण करे हैं कभी कष्ट उत्सव यदि विचार करके देखिये तो दुःख मेरु
समान सुख राई समान है कैयक द्रव्यरहित क्लेश भोगवे हैं कैयक वाल अवस्था में मरण करे हैं । | कैयक शोक करे हैं, कैयक रुदन कर हैं कैयक विवाद करे हैं कैयक पढे हैं कईएक पराई रक्षा कर
हैं कईएक पापी बाधा करें हैं कैयक गरजे हैं कैयक गान करे हैं कैयक पराई सेवा करे हैं कैयक भार । बहे हैं कैयक शयन करे हैं कैयक पराई निन्दा करे हैं कैयक केलि करे हैं कईएक युद्ध से शत्रुओं को || जीते हैं, कईएक शत्रु को पकड़ छोड़ देय हे कईएक कायर युद्ध को देख भागेहें कईएक शूरवीर पृथिवी का
राज्य करे हैं बिलास करे हैं फिर राज्य तज बैराग्य घारे हैं कईएक पापी हिंसा करे हैं परद्रव्यकी बांछा करे हेपर द्रव्यको हरे हैं दौड़े हैं काट कपट करे हैं वे नरक में पड़े हैं और जे कैयक लज्जा धारे हैं शील पाले हैं कर पाभाव धारे हैं पर द्रव्य तजे हैं वीतराग को भजे हे संतोष धारे हे प्राणियों को साता उपजावे हैं वे स्वर्ग पाय परंपराय मोक्ष पाबें हैं जे दान करे हैं तप करे हैं अशुभ क्रिया का त्याग करे हैं जिनेन्द्र की
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पद्म
॥३६
अर्चा करे हैं जैनशास्त्र की चर्चा करे हैं सब जीवों से मित्रता करे हैं विवेकियों का बिनय करे हैं वे सभ्य उत्तम पद को पावे हैं कईएक क्रोध करे हैं कामसेवे हैं, राग देष मोह के वशी भूत हैं पर जीवों को लगे हैं.वे भव सागर में डूबे हैं, नाना विन नावे हैं जगत् में राचे हैं खेदखिन्न हें दीर्घशोक करे हैं झगम करे हे संताप करे हैं असि मसि कृषि बाणिज्यादि व्यापार करें हैं ज्योतिष् वैद्यक यंत्रादि करे हैं शारादि शास्त्र रचे हैं वे वृथा पच पच कर मरे हैं इत्यादि शुभाशुभ कर्म से श्रात्म धर्म को भूल रहे हैं संसारी जीव चतुर्गति में भ्रमण करे हैं, इस अवसर्पणी काल विषे आयु काय घटती जाय है, श्री मल्लिनाथ के मुक्ति गये पीछे मुनि सुबतनाथ के अंतराल में इस क्षेत्र में अयोध्या नगरी विषे एक | विजय नामा राजा भया महा शूर बीर प्रताप से संयुक्त प्रजा पालने में प्रवीण जीते हैं समस्त शत्रु जिसने इसके हेमचूलनी नामा पटराणी इस के महा गुणवान सुरेन्द्रमन्यु नामा पुत्र भए, उसके कीर्ति समा नामा राणी उसके दोय पुत्र भए एक बज्रवाहु दूजा पुरंदर चन्द्रसूर्यसमान है कान्ति जिनकी महा गुणवान् अर्थसंयुक्त हैं नाम जिनके वे दोनों भाई पृथिवी पर सुखसे रमते भए । - अथानन्तर हस्तिनागपुर में एक राजा इन्द्रबोहन उसके राणी चूढ़ामणी उसके पुत्री मनोदया अति सुन्दरी सो वज्रबाहु कुमारने परणी सो कन्या का भाई उदय सुन्दर बहिन के लेने को आया सो बज्रबाहु कुमार का स्त्री से अति प्रेम था स्त्री अति सुन्दरी सो कुमार स्त्री के लार सासरे चले मार्ग में वसंत का समयथा और बसंतगिरि पर्वत के समीपजाय निकसे ज्योज्यों वह पहाड़ निकट अावे त्योंत्यों उसकी | परम शोभा देख कुमार अति हर्ष को प्राप्त भए पुष्पों की जो मकरन्दता उससे मिली सुगंध पवन सो
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पुरान
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कुमार के शरीर से स्पर्शी उससे ऐसा सुख भया जैसा बहुत दिन बिबुरे मित्र सों मिले सुख होय कोकिलावों के मिष्ट शब्दों से श्रति हर्षित भया जैसे जीत का धब्द सुने हर्ष होय बवन से हाले हैं। वृक्षों के अग्र भाग सो मानोंपर्वत बज्रबाहु का सनमान ही करें हैं और भ्रमर गुंजार करें हैं सो मानवीय का नाद ही होय है बज्रबाहु का मन प्रसन्न भया बज्रबाहु पहाड़ की शोभा देखे हैं कि यह वृक्षयह कर्णकार जाति का वृक्ष यह रौद्र जातिका वृक्ष फलों से मंडित यह प्रयालवृक्ष यह पलाश का वृक्षअग्नि समान देदीप्यमान हैं पुष्प जिसके वृक्षों की शोभा देखते देखते राजकुमार की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी देख कर विचारता भगा यह थंभ है अथवा पर्वत का शिखर है अथवा मुनि हैं कायोत्सर्ग घर खड़े जो मुनि तिन में बज्रबाहु का ऐसा विचार भया कैसे हैं मुनि जिनको टुंड जान कर जिन के शरीर से मृग खाज खुजावे हैं जब नृप निकट गया तब निश्चय भया कि जो ये महा योगीश्वर विदेह अवस्थाको घरे कायोत्सर्ग ध्यान घरे स्थिर रूप खड़े हैं सूर्य की किरणों से स्पर्शा है मुख कमल जिनका और महासर्प के फण समान देदीप्यमान भुजावों को लंबाय ऊभे हैं सुमेरु का जोतट उस समान सुन्दर है बास्थल जिनका और दिग्गजों के बांघने के थंभ तिन समान अचल हैं जंघा जिनकी तप से क्षीण शरीर हैं परन्तु कांति से पष्ट दीखें हैं नासिका के अग्रभाग में लगाए हैं निश्चल सौम्य नेत्र जिन्होंने आत्मा को एकाग्र ध्यावैं हैं ऐसे मुनि को देख कर राजकुमार चितवता भया अहो धन्य हैं ये मुनिमहा शान्ति भाव के धारक जो समस्त परिग्रह को तजक़र मोचाभिलाषी होय तप करें हैं इनको निर्वाण निकट है, निज कल्याण में लगी है बुद्धि जिनकी पर जीवन को पीड़ा देने से निवृत भया है आत्मा जिनका
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AIM और मुनि पद की क्रिया से मंडित हैं जिनके शत्रु मित्र समानहें। और रन और तण समान हें.मान और मत्सर ।
से रहित हे मन जिनका । वश करी हे पांचों इंद्रियें जिन्होंने निश्चल पर्वत समान वीतराग भावहें जिनकले। | दखे जीवों का कल्याण होय इस मनुष्य देह का फल इन्होंने ही पाया यह विषय कषायों से न ठगाए। कैसे हैं विषय कषाय महा कर हैं और मलिनता के कारण हैं में पापी कर्म पाश कर निरन्तर बंधा। जैसे चन्दन का वृक्ष सों से वेष्टित होयहै तैसे में पापी आसावधानचित्त अचेत समान होयरहा धिक्कार है। मुझे में भोगादि रूप नो महा पवत उसके शिखर पर निद्रा करूं हूँ सो नीचेही पडंगाजो इस योगीन्द्र की सी अवस्था घर तो मेरा जन्म कृतार्थ होय ऐसा चितवन करते बजबाहुकी दृष्टि मुनिनाथ में अत्यन्त निश्चल भई मानों थंभ से बांधीगई तब उसका उदयसुन्दर साला इस को निश्चल देख मुलकता हुवा इसे हाखके बचन कहतो भया मुनिकी ओर अत्यन्त निश्चल होय निरखोहो सो क्या दिगम्बरीदीक्षा घरोगे तब बजबाहु बोले जो हमारा भावथा सो तुमने प्रकट किया अब तुम इसही भावकी वार्ता कहो तब वह इसको रागी जान हास्य रूप बोलाकि तुम दीक्षा घरोगेतो मेंभी धरूंगा परन्तु इस दीक्षासेतुम अत्यन्त उदास होवोगे, तब बमबाहु वोलें यह तो ऐसे ही भई यहकह कर विवाह के आभूषण उतारडार ओर हाथी से उतरे तब मृगनयनी स्त्री रोवने लगी। स्कूल मोती समान अश्रुपात डारती भई तब उदय सुन्दर आंसू डारता भया हे देव यह हास्य में कहां विपरीत करो हो तब बजवाहु अति मधुरबचन से ! उसको शान्तता उपजावते हुए कहते भए हे कल्याणरूप तुम समान उपकारी कौन में कूपमें पडू या सो तुमने राखा तुमसमान मेरा-तीनलोकमें मित्रनहीं। हेउदयसुन्दर जो जन्मा है सो अवश्यमरेगा और जो मूभा
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चुरात
॥३१९॥
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हैं सा अवश्य जन्मगा, ये जन्म और मरण मरहट का घड़ी समान हैं तिनमें संसारी जीव निरन्तर भ्रमे हैं यह जीतव्य बिजली के चमत्कार समान है तथाजलकी तरंग समान तथादुष्टसपका जिव्हा समानचंचल है यह जगत् के जीव दुःखसागर में डुब रहे हैं। यहसंसार के भोग स्वप्न के भोग समान असारहें जल के बुवा समान काया है सांझके रंग समान यह जगत्का स्नेह है औरयह यौवन फूलसमान कुमलाय जाय है यह तुम्हारा हंसनाभी हमको अमृतसमान कल्याणरूपः भया क्या हास्यसे जो औषधिको पीएता संगको न हरे अवश्य हरेही हर तुम हमको मोक्षमार्ग के उद्यमके सहाई भए तुम समान हमारे और हितु नहीं मैं संसारके श्राचारविषे आसक्त होयरहाथा सो वीतराग भावको प्राप्त भयो अब में जिनदाचाधरू हूँ तुम्हारा जा इच्छा होय सो तुम करो ऐसा कहकर सर्व परिवार से क्षमा कराय वह गुणसागर नामा मुनि तपड़ी है घन जिनके तिनके निकट जाय चरणारविन्दको नमस्कार विनयवान हाय कहता भया है स्वामी तुम्हारे प्रसाद से मेरा मन पवित्रभया अब में संसार रूप कीच से निकसा चाहूं हूं तब इसके 'वचन सुन गुरुने थाज्ञा बई तुमको भवसागर से पार करणहारी यह भगवती दीक्षा है कैसे हैं गरु सप्तम
स्थान से गुणस्थान आएहैं यह गुरुकी आज्ञा उर में धार वस्त्राभषण का त्याग कर पल्लव समान जे अपने कर तिनसे केशों का लौंचकर पल्यकासन धरता भया इस देहको विनश्वर जान देह • से स्नेह तजकर राजपुत्री को और राग अवस्थाको तज मोक्षकी देनहारी जा जिन दीक्षा सो अङ्गीकार करता भया और उदय सुन्दरको आदिदे बीस राजकुमार जिन दीक्षा घरतेभये कैसे हैं वे कुमार कामदेव समान है रूप जिनका तजे हैं राग द्वेष मद मत्सर जिम्होंने उपजा है वराग्यका अनुराग जिन
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प के परम उत्साह के भरे नग्न मुद्रा घरतेभए ओर वृत्तान्त देख ववाहुकी स्त्री मनादेवी पति के और भाई ॥३२॥ के स्नेह से मोहित हुई मोह तज आर्यिका के व्रत धरती भई सर्व वस्त्राभूषण तज कर एक सफेद साढ़ी
घारती भई महा तप व्रत आदरे यह वज्रवाहुकी कथा इसका दादा जो राजा विजय उसने सुनी सभा के मध्य बैठाथा सो शोक से पीड़ित होय ऐसे कहता भया यह अश्चर्य देखो कि मेरा पोता नवयौवन विषय विष जान विरक्त होय मुनिभ्या और मो सारिखा मूर्ख विषयों का लोलुपी बृद्ध अवस्थामें भी भोगोंको न तजताभया सो कुमारने कैसे तजे अथवा वह महाभाग्य जो भोगोंको तृणवत् तजकर मोक्ष के निमित्त शान्त भावों में तिष्ठा में मन्दभाग्य जराकर पीड़ितहूं सो इन पापी विषयोंने मुझे चिरकाल उगा कैसे हैं यह विषय देखनेमें तो अति सुन्दर हैं परन्तु फल इनके प्रति कटुक हैं मेरे इन्द्रनील मणि समान श्याम जे केशोंकेसमूहथे सो कफकी राशि समान श्वेत होगए जे यौवन अवस्थामें मेरेनेत्र श्या. मता श्वेतता अरुणतालिये अति मनोहरथे सो अब ऊंडे पड़गये और मेरा जो शरीर अति देदीप्यमान शोभायमान महाबलवान स्वरूपवानथासोअब बृद्धअवस्था विषे वर्षासेहता जो चिताम उससमानहोगया जे धर्म अर्थ काम तरुण अवस्था विषे भलीभांति सधे हैं सो जराकर मण्डित जे प्राणी तिनसे सघने विषम हैं धिक्कारहै मो पापी दुराचारी प्रमादीको जो में चेतन थका अचेतन दशाादरी यह झूठाघर झूठी माया झूठी काया ये झूठे बान्धव झूठा परिवार तिनके स्नेहसे भवसागरके भ्रमपमें भूमा ऐसा कहकर सर्वपरिवार से क्षमा कराय छोटा पोता जो पुरन्दर उसे राज्य देय अपने पुत्र सुरेन्द्रमन्यु सहित राजा विजयने वृद्ध | अवस्थामें निर्वाणघोष स्वामी के समीप जिनदीक्षा पादरी कैसा है राजा महा उदार है मन जिसका ॥
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पुराण
अथानन्तर पुरन्दर राज्य करहे उसके पृथिवीमती राणी कीर्तिधरनामा पुत्रभया सोगुणोंका सागर पृथिवी विषे विख्यात वह विनयवान अनुक्रमकर यौवनको प्राप्तभया सर्व कुटुम्बको आनन्दबढ़ावताहुवा अपनी सुन्दर चेश से सबको प्रियभया तब राजा पुरन्दरने अपने पुत्रको राजा कौशलकी पुत्री परणाई
और इसको राज्यदेय राजा पुरन्दरने गुणही हे भाभपण जिसके चेमकर मुनिके समीप मुनिबतघरे कर्म निर्जरा का कारण महा तप प्रारम्भा ।
अथानन्तर राजा कीर्तिधर कुल क्रम से चला आया जो राज्य उसे पाय जीते सब शन जिसने । देवोंसमान उत्तम भोग भोमतावा रमताभया एक दिवस राजाकीर्तिघर प्रजाका बन्धु जे प्रजाके वाधक शत्रु तिनको भयंकर सिंहासन विषेजैसे इन्द्र विराजे तैसे विगजें थेसो सूर्यग्रहण देख चित्तमें चितवले भए कि देखो यह सूर्य जो ज्योतिका मंडलहै सो राहुके विमानके योगसे श्याम होयगया यह सूर्य प्रताप का स्वामी अंधकारको मेट प्रकाश करे है और जिसके प्रतापसे चन्द्रमाका बिम्ब कांति रहित भासे हैं और कमलोंके बनको प्रफुल्लित करे है सो राहुके बिमानसे मन्दकांति भास है उदय होताही मूर्य ज्योति रहित हो गया इसलिये संसारकी दशा अनित्यहै यह जगतके जीव विषयाभिलाषी रंक समान मोह पाश से बन्धे अवश्य कालके मुख में पड़ेंगे ऐसा विचार कर यह महा भाग्य संसार की अवस्था को क्षणभंगुर जान मन्त्री पुरोहित सेनापनि सामन्तोंसे कहता भया कि यह समुद्र पर्यन्त पृथ्वीके गज्य की
तुम भली भांति रक्षा करियो मैं मुनिके ब्रत धरूंहूं तब सवही बिनती करते भए हे प्रभो तुम बिन यह । पृथ्वी हमसे दबे नहीं तुम शत्रुवोंके जीतनहारे हो लोकोंके रक्षकहो तुम्हारी वयभी नवयौवन है इसलिये ।
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AA
पर यह इंद्र तुल्य राज्य कैयक दिन करो इस राज्यके पति अद्वितीय तुमही हो यह पृथ्वी तुमहीसे शोभा ।
यमानहै तब राजा बोले यह संसार अटवी अतिर्षि है इसे देख मुझे अतिभय उपजे है कैसी है यह भवरूप बन अनेक जे दु:ख वेई हैं फल जिनके ऐसे कर्मरूप वृक्षोंसे भरी है और जन्म जरामरण रोग शोक रति अरति इष्टवियोम अनिष्टसंयोगरूप अग्निते प्रज्वतिहै तब मंत्रीजनों ने रानाके परिणाम विरक्त आन बुझे अंमारों के समूह श्राय धरे और तिनके मध्य एक वैडूर्यमाण ज्योतिका पुंज अति अमोलिक लाय धरा सो मागके प्रतापसे कोयला प्रकाशरूप होगए फिर वह मणि उठाय लई तक वह कोइला नीके नलागे तब मंत्रियों ने रामआसे बिनती करी हे देव जैसे यह काष्ठके कोयलारनों बिना न शोभे हैं तैसे तुम बिन हम सबही न शोमोहे नाथ तुम विन प्रजाके लोक अनाथ मारे जायेंगे और ल्टे जायेंगे और प्रजाके नष्ट होते धर्मका प्रभाव होगा इस लिये जैसे तुम्हारा पिता तुम को राज्य देय मुनि भयाथा तेसे तुमभी अपने पुत्रको सज्य देय जिन दीचा परियो इसभांति प्रधान पुरुषों ने बिनती करी तब राजाने यह नियम किया कि जो मैं पुत्रका जन्म सुनूं उसही दिन मुनि त थरूं यह प्रतिज्ञाकर इन्द्र समान भोग भोगता भया प्रजाको साता उपजाय राज्य किया जिसके राज्य में किसी भांतिका भी प्रजाको भय न उपजा कैसाहै गजा समाधान रूपहै चित्त जिसका एक समय राणी सहदेवी राजा सहित शयन करती थी सो उसको गर्भ रहा कैसा पुत्र गर्भ में पाया सम्पूर्ण मुणोंका पात्र
और पृथिवी के प्रतिपालनकोसमर्थ सोजब पुनका जन्मभया तव राणीने पति के बैरागी होनेके मयसे पुत्रका | जन्म प्रकट न किया कैयक दिवस वार्ता गोप राखीजैसे सूर्यके उदयको कोई छिपाय नसके तैसे राजपुत्रका
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पत्र
पुरात
॥३an
जन्म कैसे छिपे किसी मनुष्य दरिद्रीने व्यके अर्थके लोभसे रानासे प्रकट किया तब राजाने मुकट अादिसर्व आभूषण उसको अंगसे उतार दिये और घोषशाखा नामा नगर महा रमणीक अविधनकी उत्पतिका स्थामक सौ गांव सहित दिया और पुत्रपंदरह दिनका माताकी गोदमें तिष्ठताथा सो तिलककर उसको राज पद दिया जिससे अयोध्या अति रमणीक होती भई और अयोध्याका नाम कौशलभीहै इस लिये उसका सुकौशल नाम प्रसिद्ध भया केसाहै सुकौशल सुन्दर है चेष्टा जिसकी सुकौशल को राज्य देय सजा कीर्तिपर घर रूप बन्दीगृहसे निकसकर तपोवनको गये मुनि प्रत भादरे तपसे उपजा जो तेज उससे जैसे मेवपटल से रहित सूर्य शोभे तैसे शोभते भये । इति इक्कीसवां पर्व सम्पूर्णम् । - प्रधानन्तर कयक वर्ष में कीर्तिधर मुनि पृथिवी समान है क्षमा जिनकेदरभया है मानमत्सर जिनका और पदारहे चित्त जिनका, तपकर शोखा है सर्वमंग जिन्होंने और लोचन ही हैं सर्व आभूषण जिनके प्रलंक्ति हैं महाबाहु और जुड़े प्रमाण धरती देव अधोदृष्टि गमन करे हैं जैसे मत्तगजेन्द्र मन्द मन्द गमन करें तैसे जीवदया के अर्थधीराधीरा गमन करे हैं, सर्व विकार रहित महा सावधानी ज्ञानीमहा विनयवान् लोभ रहित पंच आंचार के पालनहारे जीवदयासे विमल है वित्त जिनका स्नेह रूप कर्दम से रहित स्नानादि | शरीरसंस्कार से रहित मुनिपदकी शोभा से मंडित सो माहार के निमित्त बहुत दिनों के उपवासे नगर में प्रवेश करते भए तिनको देख कर पापनी सहदेवी उनकी स्त्री मन में विचार करती भई कि कभी इनको देख मेरा पुत्र भी बैराग्य को प्राप्त नहोय तब महाक्रोध करलाल होय गया है मुख जिसका दुष्टचित्त द्वारपालों से कहती भई, यह यति नग्न महामलिन घर का खोऊ है इसे नगर से बाहिर निकास देवो फिर नगर में
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"३०
पन नावने पावे मेरा पुत्र सुकुमार है भोला है कोमलचित है सो उसे देखने न पाये, इसके सिवाय और
भी यति हमारे दारे प्रावने न पावें, रेद्वारपालहो इसबातमें चूकपड़ी तो में तुम्हारा निग्रह करूंगी जब से ! यह दया रहित बालक पुत्रको तज कर मुनि भया तप से इस भेष का मेरेादर नहीं, यह राज्यलक्ष्मी। 'निन्दे है और लोगों को वैराग्यप्राप्तकरे हे भोगछुड़ाय योगसिखावे है, जब राणी ने ऐसे वचन कहे तब वे | ऋर द्वारपाल वैत की छड़ी है जिनके हाथ में मुनिको मुख से दुखचन कह कर नगर से निकास दिए।
और आहार को चौर भी साधु नगर में आए थेवे भी निकास दिवे मत कदाचित् मेरा पुत्र धर्म श्रवणकरे इस भांति कीर्तिपरका अविनय देख राजा सुकौशलकी पाय महाशोक कर रुदन करती भई तब राजा, सुकौशल घाय को रोवती देख कहते भए हे माता तेरा अपमान करे ऐसा कौन माता तो मेरी गर्य! धारण मात्रहै और तेरे दुग्ध से मेरा शरीर वृद्धिको प्राप्त भया सो मेरे तू माता से भी अधिक है जो! मृत्यु के मुख में प्रवेश किया चाहे सो तोहि दुखावे जो मेरी माता ने भी तेरा अनादर किया होय तो में उसका भी अविनय करूं औरों की क्या बात, सब वसंतलता पाय कहती भई, हे राजन तेरा पिता तुझे बालअवस्था में राज्यदेय संसाररूप कष्टके पीजरेसे भयभीत होय तपोवनकोगये सावह आज इसनगर । में आहार को पाए थे सोतुम्हारीमाताने द्वारपालोंसे श्राज्ञा कर नगर से कढाये हेपुत्र वे हमारे सबकस्वामी सो उनका प्रविनय में देख न सकी इस लिये रुदन करहूं और तुम्हारी कृपा कर मेराअपमान कौन करे।
और साधुवों को देखकर मेरा पुत्रज्ञान को प्राप्तहोय एसाजान मुनोंका प्रवेश नगरसे निकारा सो तुम्हारे । | गोत्र विषे यह धर्म परम्पराय से चलाभाया है किजो पुत्र को राज्य देय पिता वैरामी होय हैं और
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॥३991
तुम्हारे घरसे आहार बिना कभी भी साधपीछे न गए यह बृतान्त सुन राजा सुकौसल मुनिके दर्शन को महलसे उतर चमरछत्र बाहन इत्यादि राज चिन्ह तज कर कमल से भी अति कोमल जो चरण सो उबाणे ही मुनिके दर्शनको दौड़े और लोकों को पूछतेजावें तुमने मुनिको देखेतुमनेमुनिदेखेइसभांतिपरम अभिलाषा संयुक्त अपने पिता जो कीर्तिधर मुनि तिनके समीप गये और इनके पीछे छत्रचमर वारे सब दोंडेही गए महामुनि उद्यान विषे शिला परविराजे थे तैसे राजा सुकौसल अश्रुपात कर पुर्ण है नेत्र जिसके शुभ है भावना जिसकी हाथजोड़ नमस्कारकर बहुत बिनय से मुनिके आगे खडे जिन द्वार पार्लोने बारसेनिकासे थे सो उनसे तिलज्जावन्त होय महामुनिसों बिनती करते भए हेनाथजैसेकोई पुरुष अग्निप्रज्वलित घरमें सूता होवे उसे कोई मेघके नादसमान ऊंचा शब्द कर जगावे तैसे संसार रूप ग्रहजन्म मृत्युरूप अग्निसे प्रज्वलित उस विषेमें मोहनिद्रामें बुकशयन करूंथा सो मुझे आपने जगाया अब कृपाकर यह तुम्हारी दिगम्बरीदीक्षा मुझे देवो यह कष्ट का सागर इससे मुझे उधागेजव श्रेसे बचन मुनि से राजामकोशलने कहे तवहीसमस्त सामन्त लोक पाए और राणी विचित्र माला | गर्भवती थी सो भी अति कष्ट से विषाद सहितसमस्त राजलोक सहित पाई इनको दीचाके उद्यमी मुन सवही अन्तःपुरके और प्रजाके शोक उपजा तब राजासुकौशल कहते भये इसराणी बिचित्रमाला के गर्भ विषे पुत्रहे उसे मैंने राज्यादयात्रैसा कहकर निस्सह भए आश रूप फांसिको छेद स्नेहरूमजो। पीजरा उसेतोड़ खीरूप बन्धन से छूट जीर्ण तणवत पजको जानतजा और वस्त्राभूषण समहीतने | वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर के केशोंका लोंच किया और पद्मासनधारतिष्ठे कीर्तिधर मुनींद्रइन के ।
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पुराण
।३८॥
परम पिता तिनके निकट जिनदीक्षावरी पञ्चमहाबत पांचसमति तीनगुप्तिअंगीकारकर मुकौशलमुनिनेगुरुकेसंग।
बिहार किया कमल समान आरक्तजो चरण तिनसे पृथिवी को शोभायमान करते हुए बिहार करते भए और इन की माता सहदेवी अार्तध्यानकर मर के तिर्यञ्च योनि में नाहरीभई और ए पितापुत्रदोनों मुनि महाबिरक्त जिनको एकस्यानकरहना पिछले पहरादिनसे निर्जन प्रासुक स्थान देख बैठ रहें क्यों कि चतुर्मासिक में साधुवों को बिहार न करना इस लिए चतुर्मासिक जान एक स्थान वैठरहे तवदशों दिशा को श्याम करता सन्ता चातुरमासिक पृथिवी विषेप्रवरता आकाश मेघमालाके समुहसे ऐसाशोभे मानों काजलसे लिपा और कहूं एक बगुलावोंकी पंक्ति उड़ती ऐसी सो है मानों कुमुद फूल रहे हैं और ठौर ठौर कमल फूल रहे हैं जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं मानो वर्षा कालरूप राजा के यशही गावे हैं अंजनगिरि समान महा नील अन्धकार से जगत व्याप्त हो गया मेघके गाजने से मानो चांद मूर्य डर कर छिप गए अखण्ड जलकी धारा से पृथिवी सजल हो गई और तृण उग उठे सो मानों पृथिवी हर्ष के अंकूरे घरे है और जलके प्रवाह से पृथ्वी में नीचा ऊंचा स्थल नजर न आवे और पृथ्वी विषे जल के समूह गाजे हैं और श्राकाश विषे मेघ गाजे हैं सो मानों ज्येष्ठ का समय जो बैरी उसे जीतकर गाज रहे हैं और धरती नीझरनों से शोभित भई भांति भांति की बनस्पति पृथ्वी विषे उगी उनसे पृथिवी ऐसी शोभे है मानों हरित मणिक विछोना कर राखे हैं पृथिवी विषे सर्वत्र जलही जल हो रहाहै मानों मेघही जलके भार से टुट पड़े हैं और ठौर २ इन्द्रगोप अर्थात् बीर बहुटी दीखे हैं सो मानों वैराग्य रूप बज से चूर्ण भए रागके खण्डही पूथिवी विष फैल रहे हैं और
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॥३१॥
बिजलीका तेज सर्व दिशा विषेविचरे हैं मेघ नेत्रकर जलपूरित तथा नू पूरित स्थानकको देखे है और । नानाप्रकारके रंगको घरी हुई इन्द्रधनुषसे मंडित श्राकाश ऐसा शोभता भया मानों अति ऊंचे तोरणों। कर युक्तहै और दोनों पालि ढाहती महाभयानक भ्रमणको घर अतिवेगकर युक्त कलुषतासंयुक्त नदी बहे हैं सो मानों मर्यादा राहत स्वछन्द स्त्रीके स्वरूपको अाचरे हैं और मेघके शब्दकर त्रासको प्राप्त भई मृगनयनी विरहिणी वे स्तम्भन स्पर्श करे हैं और महाविव्हल हे पति के प्रावने की आशा विष लगाएहैं नेत्र जिन्होंने ऐसे वर्षाकाल विषे जीवदयाके पालनहारे महाशांत अनेक निग्रंथ मुनिप्राशुक स्थानकविषे चौमासालेय तिष्ठे और जे गृहस्थी श्रावक साधुसेवा विष तत्पर वेभी चार महीना गमनका त्याग कर नानाप्रकारके नियमधर तिष्ठे ऐसे मेघकर व्याप्त वर्षाकाल विषे वे पिता पुत्र यथार्थ प्राचारके आचरने हारे प्रेतवन अर्थात् मसानविषे चार महीना उपवास धर वृक्षके तले विराजे कभी पद्मासन कभी कायो त्सर्ग कभी बीरासन आदि अनेक आसनधर चातुर्मास पूर्ण किया वह प्रेतवन वृक्षोंके अन्धकार कर महागह है और सिंह ब्याघ्र रीछ स्याल सर्प इत्यादि अनेक दुष्ट जीवोंसे भराहै भयंकर जीवोंको भी भयकारी महा विषमहै गीध सिचाना चील इत्यादि जीवोंकर पूर्ण हो रहाहै अर्धदग्ध मृतकोंका स्थानक महा भयानक विषम भूमि मनुष्योंके सिरके कपाल के समूहकर जहां पृथिवी श्वेत हो रही है और दुष्ट शब्द करते पिशाचों के समूह विचरे हैं और जहां तृणजाल कंटक बहुत हैं सो ये पिता पुत्र दोनों धीरबीर पवित्र मन चार महीना वहां पूर्ण करते भए। __अथानन्तर वर्षा ऋतु गई शरद ऋतु आई सो मानों रात्रि पूर्ण भई प्रभात भया कैसाहै प्रभात
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॥३com
जगत के प्रकाश करने में प्रवीण है शरद के समय आकास में बादल श्वेत प्रकट भए और मूर्य पुरान
मेघ पटल रहित कांति से प्रकाश मान भया जैसे उत्सर्पणी काल के जो दुःखम काल उस के अन्त में दुखमा सुखमा के आदि ी श्री जिनेन्द्र देव प्रकट होंय और चन्द्रमा रात्री विषे तारावोंके समूह के मध्य शेभता भया जैसे सरोवर के मध्य तरुण राजहंस शोभे और रात्रि में चन्द्रमा की चांदनी कर पृथिवी उज्ज्वल भई सो मानों चीर सागर ही पूथिवी में विस्तर रहा है और नदी निर्मल भई कुरिच सारस चकवा आदि पक्षी मुन्दर शब्द करने लगे और सरोवरों में कमल फूले जिन पर भूमण गुंजार करे हैं और उडे हैं सो मानों भव्य जीवों ने मिथ्यात्व परिणाम तजे हे सो उडते फिरे हैं (भावार्थ) मिथ्यात्व का स्वरूप श्याम और भूमर का भी स्वरूप श्याम अनेक प्रकार सुगन्ध का है । प्रचार जहाँ ऐसे जे ऊंचे महल तिनके निवासमें रात्रि के समय लोक निज प्रियाओं सहित क्रीड़ा करें हैं || शरद् ऋतु में मनुष्यों के समूह महा उत्सव कर प्रवरते हैं सनमान किया है मित्र बान्धवों का जहां
और जो स्त्री पीहर गई तिनका सासरे श्रागमन होय है कातिक शुदी पूर्णमासी के व्यतीत भए पीछे । तपोधन जे मुनि वे तीर्थों में विहार करते भए तब ये पिता और पुत्र कीर्ति घर सुकौशल मुनि समाप्त भया है नियम जिनका शास्त्रोक्त ईर्ष्या समति सहित पारणा के निमित्त नगर की ओर विहार करते भए और वह सहदेवी सुकौशल की माता मरकर नाहरी भई थी सो पापिनी महा क्रोध से भरी लोडू
कर लाल हैं केशों के समूह जिस के विकराल है वदन जिसका तीक्षण हैं दंत जिसके कषाय रूपपीतहें | नेत्र जिसके सिरपर घरा है पूंछ जिसने नखों कर विदार, अनेक जीव जिसने और किएहें भयंकर शब्द
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पुराण
॥३८१५
जिसने मानों मरी ही शरीर धर आई है लहलहाट करे है लाल जीभ का अग्रभाव जिसका मध्यान्हके सूर्य समान आतापकारी सो पापिनी सुकौशल स्वामी को देख कर महावेग से उछल कर आई उसे प्रावती देख वे दोनों मुनि सुन्दर हैं चरित्र जिनके सर्व प्रालंब रहित कायोत्सर्ग घर तिष्ठे सो पापिनी सिंहनी सुकौशल स्वामी का शरीर नखों कर विदारती भई गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे राजन् ! देख संसार का चरित्र जहां माता पुत्र के शरीर का भक्षण का उद्यम करे है इस उपरान्त और कष्ट कहां जन्मान्तर के स्नेही बांधव कर्मके उदय से बैरी होय परिणमें तब सुमेरु से भी अधिक स्थिर सुकौशल मुनि शुक्ल ध्यान के धरन हारे तिनको केवलज्ञान उपजा अन्तकृत केवली भए तव इन्दादिक देवों ने पाय इन के देह की कल्पवृक्षादिक पुष्पों से अर्चा करी चतुरनिकाय के सब ही देव आए और नाहरी को कीर्तिधर मुनि धर्मोपदेश बचनों से संबोधते भए हे पापिनी त सुकौशल की माता सहदेवी थी और पुत्र से तेरा अधिक स्नेह था उस का शरीर तेंने नखों से विदारा तब वह जाति स्मरण होय श्रावग के ब्रत घर सन्यास धारण कर शरीर तज स्वर्ग लोक में गई फिर कीर्तिधर मुनि को भी केवल । ज्ञान उपजा तब इन के केवल की सुर असुर पूजा कर अपने अपने स्थान को गए यह सुकौशव मुनि का महातम जो कोई पुरुष पढ़े सुर्ने सो सर्व उपसर्व से रहित होय सुख से चिरकाल जी
अथानन्तर सुकौशल की राणी विचित्र माला उसके सम्पूर्ण समय पर सुन्दर लक्षणों से मंडित पुत्र होता मया जब पुत्र गर्भ में पायो तबही से माता सुवर्ण की कान्ति को घरती भई इस लिये पुत्रा नाम हिरण्यगर्भ पृथिवी पर प्रसिद्ध भया सो हिरण्यगर्भ ऐसा राजा भया मानों अपने गुणों से पिट
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ऋषभदेव का समय प्रकट किया सो राजा हरि की पुत्री अमृतवती महा मनोहर उस ने परणी राजा अपने मित्र बांधवों से संयुक्त पूर्णद्रव्य के स्वामी मानों स्वर्ग के पर्वत ही हैं सर्वशास्त्र के पारगामी देवोंसमान उत्कृष्ट भोग भोगते भए, एक समय राजा उदार है चित्त जिन का दर्पण में मुख देखते थे सो भ्रमर समान/ श्याम केशों के मध्य एक सुफ़ेद केश देखा, तब चित्त में विचारते भए कि यह काल का दूत आया बलात्कार ! यह जरा शक्ति कांति की नाश करणहारी इस से मेरे प्रांगोपांग शिथिल होवेंगे यह चन्दन के वृक्ष समान मेरी काया अब जरारूप अग्नि से, जलकर अंगार तुल्य होयगी यह जरा छिद्र हेरे ही है सो समय पाय ! पिशायनीकी नयाई मेरे शरीरमें प्रवेश कर, बाघा करेगी और कालरूप सिंह चिरकाल से मेरे भक्षणका ! अभिलाषीथा सो अब मेर देहकोबलात्कारसे भरेगा, धन्यहै वह पुरुषजोकर्म भूमिको पाय कर तरुण अवस्था। में बत रूप जहान विषे चढ़ कर भवसागर को तिरें, ऐसा चितवन कर राणी अमृतवती का पुत्र जो नघोष । उसे ही राज पर थाप कर विमल मुलि के निकट दिगंवरी दिक्षा घरी, यहनघोषजबसे माता के गर्भ में पाया। तब ही से कोई पाप का वचन न कहे इसलिये नघोष कहाए पृथिवी पर प्रसिद्ध हैं गुण जिनके तिन गुणों के पुंज तिनके सिंहिका नाम राणी उसे अयोध्या विषे राख उत्तर दिशा के सामंतों को जीतने चढ़े, तब राजा को दूर गया जान दक्षिनदिशा के राजा बड़ी सेना के स्वामी अयोध्या लेने को आए, तब राणी सिंहिका महाप्रतापिनी बड़ी फ़ौज से चढ़ी, सो सर्व वैरियों को रण में जीत कर अयोध्या दृढ़ थाना राख
आप अपने सामंतों को ले दक्षिण दिशा जीतने को गई कैसी है राणी शास्त्र विद्या और शस्त्र विद्या का किया है अभ्यास जिसने प्रताप कर दक्षिण दिशा के सामंतों को जीत कर जय शब्द कर पूरित ।
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पद्म
पीछे अयोध्या आई, और राजा नघोष उत्तरदिशा को जीतकर पाए सो स्त्री का पराक्रम सुन कोप को प्राप्त भए, मन में विचारी जे कुलवन्ती स्त्री अखण्डित शील की पालनहारी हैं तिन में एती धीठता न चाहिये, एसा निश्चय कर राणी सिंहिका से उदासचित्त भए, यह पतिव्रता महाशीलवन्ती पवित्र है चेष्टा जिसकी पटरोणी के पद से दूर करी सो महादरिद्रता को प्राप्त भई ॥ - अथानन्तर राजाके महादाहज्वरका विकार उपजा सो सर्वबद्य यत्नकरें पर तिनकी औषधि न लागे तब राणी सिंहिका राजा कोरोगग्रस्त जोन कर ब्याकुलचित्त भई और अपनी शुद्धताके अर्थ यह पतिव्रता पुरोहित मंत्री सामन्त सबन को बुलाय कर पुरोहितके हाथ अपने हाथका जलदिया, औरकहीकि यदि मैं मन वचन काय कर पतिव्रता हूं तो इस जलसे सींचा राजा दाहज्वर कर रहित होवे, तब जल सेसींचतेही राजा को ज्वर मिटगया और हिमविषे मग्न जैसा शीतल होय तैसा शीतल होगया मुख से ऐसे मनोहर शब्द कहता भया जैसे वीणा के शब्द होवें और आकाश में यह शब्द होते भए कि यह राणी सिंहिका पतिव्रता महाशीलवन्तीधन्यहै धन्यहै और आकाशस्ने पुष्पवर्षाभई तब राजाने राणीको महाशीलवन्तीजान फिर पट राणी का पद दिया और बहुत दिन निःकण्टक राज कियो फिर अपने बड़ों के चरित्र चिस विषे घर संसार | की माया से निस्पृह होय सिंहका राणीका पुन जो सौदास उसे राज्य देय पाप धीर वीर मुनिव्रत घरे, जो कार्य परम्पराय इनके बड़े करते आये हैं सो किया सोदास राज करे सो पापी मांसाहारी भया इनके वन्शमें किसी ने यह आहार न किया यह दुराचारी अष्टान्हकाके दिवसमें भी अभक्ष्य पाहार मतजता गया एक दिन रसोईदारसे कहताभया कि मेरे मांस भक्षणका अभिलाष उपजाहै तब तिसने कही हे महाराज !
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पुराव ३८
ये अशान्हिका के दिन है सब लोक भगवान की पूजा और व्रत नियम में तत्पर हैं पृथिवी पर धर्म, का उद्योत होय रहा है इन दिनोंमें ये वस्तु अलभ्य है तब राजा ने कही इस वस्तु बिना मेरा मन मे नहीं इसलिये जिस उपाय से यह वस्तु मिले सो कर तब रसोईदार यह राजा की दशा देख नमर के बाहिर गया एक युवा हुवा बालक देखा उसी दिन वह मवाया सो उसे वसमें लपेट बह पापी लेनाया स्वादु बस्तुवों से उसे मिलाय पकाय राजा को भोजन दिया सो राजा महादुराचारी अभक्ष्यका बसण कर प्रसन्न भया और रसोईदार से एकान्त में पूछता मया कि हे भद्र यह मांस तू कहां से लाया भव तक ऐसा मांस मैने भक्षण न कियाथा तब रसोईदार अभयदान मांग यथावत् कहता भया तब राजा कहता भया ऐसाही मांस सदा खायाकर तब यह रसोईदार बालकों को लाडू बांटता भयो तिन लाडवों के लालच से बालक निरन्तर भावें सो बालक लाडू लेकर जावें तब जो पीछे रहजाय उसे यह रसोईदार मार राजाको भक्षण करावे निरन्तर बालक नगर में बीजने लगे तब यह बृत्तान्त लोकों ने जान रसोईदार सहित राजाको देश से निकाल दिया और इसकी राणी कनकप्रभा उसका पुत्र सिंहस्थ उसे राज्य दिया तब यह पापी सर्वत्र अनादर हुवा महादुखी पृथिवी पर भ्रमण कियाकरे जे मृतक बालक मसान विषे लोक डार पावें तिनको भषे जैसे सिंह मनुष्यों का भक्षणकरे तैसे यह भक्षणकरे इसलिये इसका नाम सिंहसौदास पृथिवी विर्षे प्रसिद्धभया फिर यह दक्षिण दिशा को गया वहां मुदिका दर्शन कर धर्म श्रवणकर श्रावकके व्रत घरताभया फिरएक महापुर नगर वहां का राजा मूवा उसके पुत्रनहीं था तब सबने यह विचार किया कि जिसे पाटबन्ध हस्तीजाय कांधे चढायलावे सो राजा होवे तब इसे कांधे
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पुराणा ३८५
चढाय हस्ती लेगया तब इसको राज्यदिया यह न्याय संयुक्त राज्यकरे औरपुत्रके निकट दूत भेजा कितू पद्म मेरी आज्ञा मान तब उसने लिखा कि तू महा निन्धहै में तुझे नमस्कार न करूं तब यह पुत्रपर चढ़ कर | गया इसे श्रावता सुन लोग भागनेलगे कि यह मनुष्योंको खायगा पुत्र और इसके महायुद्ध भया सो पुत्र को युद्ध में जीत दोनों औरका राज्य पुत्रको देकर आप महा वैराग्य को प्राप्त होय तपके अर्थ बनमें गया।
_ अथानन्तर इसके पुत्र सिंहरथके ब्रह्म रथ पुत्र भया उसके चतुर्मुख उसके हेमरथ उसके सत्यरथ उसके पृथरथ उस के पयोरथ उसके दृढ़रथ उसके सूर्यरथ उसके मानधाता उसके बीरसेन उसके पृथ्वीमन्यु उनके कमलबन्धु दाप्ति से मानो सूर्यही है समस्त मर्यादा में प्रवीण उसके रविमन्यु उसके वसन्ततिलक उनके कुवेपत्त उनके कुंथु भक्त सो महाकीर्तिकाघारी उसकेशतरथ उसके द्विरदरथ उसके सिंहदमन उसके हिरण्यकशिपु उसके पुअस्थल उसके ककूस्थल उसके रघु महापराक्रमी यह इक्ष्वाक वंश श्री ऋषभदेवसे
प्रवरता सो वंशकी महिमा हे श्रेणिक तुझेकही ऋषभदेवके वंशमें श्रीराम पर्यंत अनेक बड़े बड़े राजा भए । वे मुनित्रत धार मोक्ष गए कै एक अहमिन्द्र भए के एक स्वर्ग में प्राप्त भए इस वंश में पापो विरले भए ।
_ अथानन्तर अयोध्यानगर में राजा रघु के अरण्य पुत्र भया जिसके प्रताप से उद्यान में वस्ती। होतीभई उके पृथिवीमती राणी महा गुणवन्ती महा कांतिं की धरण हारी महा रूपवती महा पतिव्रता । || उसके दो पुत्र होतेभये महा शुभ लक्षण एक अनन्तरथ दूसरा दशरथ सो राजा सहस्त्ररश्मि माहिष्मती | नगरीका पति उसकी और राजा अरण्य की परम मित्रता होतीभई मानों ये दोनों सौधर्म और ईशानइन्द्र
ही हैं जब रावण ने यछमें संहसरश्मिको जीत और उसने मुनिव्रत धरे सो सहसरश्मिके और अरण्यके यह
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पद्म पराव १॥३६॥
वचनथा कि जो तुम वैराग्य पारो तब मुझे जतावना और में वैराग्य जागा तो तुम्हेजताऊंगा सो उसने जब वैराग्य धारा तब अरण्यको जतावादिया तब राजा अरण्यने सहस्ररश्मिको मुनिहुवा जानकर दशरथपुत्र को राज्य देय श्राप अनन्तस्थ पुत्र सहित अभयसेन मुनि के समीप जिन दीक्षा धारी महातप से कमी का नाश कर मोक्षको प्राप्त भए और अनन्तरथ मुनि सर्व परिग्रह रहित पृथिवी पर विहार करतेभए बाईस परीषह के सहन हारे किसी प्रकार उद्वेग को न प्राप्त भए तब इन का अनन्तवीर्य नाम पृथिवी पर प्रसिद्ध भया और राजा दशरथ राज्य करे सो महा सुन्दर शरीर नवयौवन विषे अतिशोभायमान होताभया अनेक प्रकार पुष्पों से शोभित मानों पर्वत का उतंग शिखर ही है।
अथानन्तर दर्भस्थल नगर का राजा कौशल प्रशंसा योग्य गुणों का घरण हारा उस के राणी अमृतप्रभाकी पुत्री कौशल्या जिसकोअपराजिताभी कहे हैं काहे सेकियह स्त्रीके गुणसे शोभायमान कामकी स्त्री रति समान महासुन्दर किसीसे नजीती जाय महारूपवन्ती सो राजादशरथनेपरणी फिर एक कमल संकुल नामा बड़ा नगर वहांका राजा सुबन्धुतिलक उसकेराणी मित्रा उसके पुत्री सुमित्रा सर्वगुणोस मंडित महारूपवती जिसको नेत्ररूप कमलोंसे देखे मन हर्षितहोय पृथ्वीपर प्रसिद्ध सोभी दशरथने परणी
और एक महाराज नाम राजा उसकी पुत्री सुप्रभा रूप लावण्यकी खान जिसे लख लक्ष्मी लजा वान होय सोभी राजा दशरथने परणी और राजा दशरथ सम्यक दर्शनको प्राप्त होते भए और राज्य
का परम उदय पाय सो सम्यक दर्शनको रत्नों समान जानते भए और राज्यको तृण समान मानते | भए कि जो राज्य न तजे तो यह जीव नरकमें प्राप्त होय राज्य तजेतो स्वर्ग मुक्ति पावे और सम्यक
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पुरावा ॥३८॥
दर्शनके योगसे निस्संदेह ऊर्धगतिहीहे सो ऐंसा जान राजाके सम्यक दर्शनको दृढ़ता होती भई औरजे भगवानके चैत्यालय प्रशंसा योग्य आगे भरत चक्रवर्त्यादिकने कराएथे तिनमें कैयक ठोरं कैयक भंग भावको प्राप्त भएथे सोराजा दशरथने तिनकी मरम्मत कराय ऐसे किए मानों नवीनही हैं और इन्द्रोंसे नमस्कार करने योग्य महा रमणीक जे तीर्थकरोंके कल्याणक स्थानक तिनकी रत्नोंके समूहसे यह राजा पूजा करता भया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे भव्यजीव ! दशरथ सारिखे जीवपर भवमें महा धर्मको उपार्जकर अति मनोग्य देवलोककी लक्ष्मी पायकर इसलोकमें नरेन्द्र भएहैं महाराज द्धिके भाक्ता सूर्य समान दों दिश विष है प्रकाश जिनका ॥ इति बाईसवां पर्व संपूर्णम् ।।
अथानन्तर एक दिन राजा दशरथ महो तेज प्रताप संयुक्त सभा में विराजते थे कैसे हैं राजा जिनेन्द्र की कथा में आसक्त है मन जिनका और सुरेन्द्र समान है विभव जिनका उस समय अपने शरीर के तेज से आकाश से उद्योत करते नारद आए तव दूर ही से नारद को देखकर राजा उठ कर सनमुख गए बड़े आदर से नारद को न्याय सिंहासन पर विराजमान किये राजा ने नारद की कुशल पूछी नारद ने कही जिनेंद्रदेव के प्रसादकर कुशलहै फिरनारद ने राजा को कुशल पछी राजा ने कही देव गुरुधर्म के प्रसाद से कुशल है फिर राजानेपछी हे प्रभो आपकौन स्थानक से आए इन दिनों में कहा २ बिहार किया क्यादेखा क्यासुना तुमसे अढाई दीप में कोई स्थानक अगोचर नहीं तव नारद कहतेभए कैसे हैं नारद जिनेंद्रचन्द्र के चरित्र देख कर उपजा है परमहर्ष जिनके हे राजन !मैं महा विदेह क्षेत्र विषे | गयाया कैसा है वह क्षेत्र उत्तम जीवों से भरा है जहां और २ श्रीजनराज के मन्दिर और और २महामुनि |
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पद्य
पुराण
॥३८॥
विराजे हैं जहांधर्मका बड़ा उद्योत है श्री तीर्थकर देव चक्रवर्ती वलदेव बासुदेवप्रति वासुदेवादि उपजे हैं वहां श्रीसीमंधर स्वामीका मैंने पुण्डरीकनी नगरी में तपकल्याणक देखा कैसीह पुण्डरीकनी नगरी नानाप्रकारके रत्नों के ने महल तिनके तेजसे प्रकाशरूप है और सीमंधर स्वामकितप कल्याणक विषे नानाप्रकार के देवोंका श्रागमन भया तिनके भांति २ के विमानध्वजाऔर छत्रादि से महाशोभितऔर नानाप्रकारके जेबाहन तिनसे नगरी पूर्ण देखी और जैसा श्रीमुनिसुव्रतनाथका सुमेरुविषे जन्माभिशेष का उत्सव हम सुनें हैं तैसा श्रीसीमंधरस्वामीके जन्माभिशेष का उतसव मैंने सुना और तप कल्याणक तो मैंने प्रतक्षही देखा और नानाप्रकार के रत्नों से जडित जिनमंदिर देखे जहां.महामनोहर भगवानके वड़बड़े बिम्ब बिराजे हैं और विधि पूर्वक निरंतर पूजा होय है और महा विदेह से मैं सुमेरु पर्वत पाया सुमेरु की प्रदक्षिणाकर सुमेरु के वन वहांभगवान के जे अकृत्रिम चैत्यालय तिन का दर्शन किया हे राजन नन्दनबन के चैल्यालय नाना प्रकार के रत्नों से जड़े अति रमणीक मैंने देखे जहांस्वर्णके पीत अति देदीप्यमान हैं सुन्दर हैं मोतियों के हार और तोरण जहां जिनमन्दिरवे देखते सूर्यका मन्दिर क्या और चैत्यालयोंकी वैडूर्य माणिमई भीति देखी जिनके गज सिंहादिरूप अनेक चित्राम मढ़े हैं और जहां देव देवी संगीत शास्त्ररूप नृत्यकर रहे हैं और देवारण्यवनमें चैत्यालय तहां मैंने जिन प्रतिमा का दर्शन किया और कुलाचलोंके शिखर विषे जिनेंद्रके चैत्यालय मैंने बंदेदेखे इस भांति नारदन कही तब राजा दशरथ देवेभ्यानमः ऐसा शब्द कहकर हाथ जोड़ सिर निवाय नमस्कार करता भया । अथानंतर नारदने राजाको सैनकरी तब राजाने दरबानको कहकर सबको हटाए और एकांत विराजे तब
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पद्म नारदने कही हे सुकौशल देशके अधिपति चित्तलगाए सुनतेरे कल्याणाकी बात कहूं हूं में भगवानका भक्त । पुराण | जहां जिनमंदिर होय वहां बंदना करूंहूं सो मैं लंकामें गयाथा वहां महा मनोहर श्रीशांतिनाथ का
चैत्यालय बन्दा सो एक बाती विभीषणादिके मुखसे सुनी कि रावणने बुधिसार निमित्त ज्ञानीको पूछा। कि मेरीमृत्यु कौननिमित्तसे है तब निमित्तज्ञानी ने कही दशरथका पुत्र और जनक की पुत्री इनके निमित्त से तेरीमृत्यु है सुनकर रावण सचिन्त भया तव विभीषणने कही आप चिन्ता न करें दोनों को पुत्रपुत्री नहोय उस पहिले दोनोंकोमें मारूंगासो तुम्हारे ठीक करने को विभीषननेहलकारे पठाएथेसो वे तुम्हारास्थान निरूपादि सब ठीक करगए हैं और मेरा विश्वास जान मुझे विभीषणने पूछी कि क्या तुम दशरथ और जनक का स्वरूप नीके जानोहो तब मैने कही मुझे उनको देखे बहुत दिन हुऐहैं अब उन को देख तुमको कहूंगा सो उनका अभिप्राय खोटा देखकर तुमपे आया सोजबतक वह विभीषण तुम्हारे मारनेका उपाय करे उस से पहिले तुम श्रापा छिपाय कहीं बैठरहो जे सम्यक् दृष्टि जिनधर्मी देव गुरु धर्म के भक्त हैं तिन सब से मेरी प्रीति है तुम सारखों से विशेष है सो तुम योग्य होय सो करो तुम्हारा कल्याण होय । अबमैं राजा जनकसे यह बृत्तान्त कहने को जाऊं हूं तब राजा ने उठ नारद का सत्कार किया नारद
आकाशके मार्ग होय मिथिरालपुरी की अोर गए जनक को समस्त वृत्तान्त कहा नारदको भव्यजीव जिनधर्मी प्राण से भी प्यारे, नारद तो वृत्तान्त कह देशांतर को गर और दोनोंही राजाबों कोमरणकी शंका उपजी राजा दशरथ ने अपने मंत्री समुद्रहृदय को बुलाय एकांत में नारद का कहा सकलवृतांत कहा तब राजा के मुख से मंत्री ये महाभय के समाचार सुन कर स्वामी की भक्ति में परायणऔर मंत्र
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१३९००
%3
शक्ति में महा श्रेष्ठ राजा को कहता भया हे नाथ!जीतन्य के अर्थ सकल करियेहै जो त्रिलोकीकाराज्य
भावे और जीव जाय तो कौन अर्थ, इसलिये जब लग में तुम्हारे बैरियों का उपाय करूं तब लगतुम अपना || रूप छिपाय कर पृथिवी पर विहार करो ऐसा मंत्रीने कहा तव राजा देश भंडार नगर इसको सौंपकर नगर
से बाहिर निकसे राजा के गए पीछे मंत्री ने राजा दशरथ के रूप का पुतला बनाया एक चेतना नहीं और सब राजा ही के चिन्ह बनाए लाखादि रस केयोग कर उसविषे रुधिर निरमापा और शरीर की कोमलता जैसी प्राणधारी की होय तैसी ही बनाई सो महिल के सातवें खण में सिंहासन विषे विराजमान किया सो समस्त लोकों का नीचे से मुजरा होय ऊपर कोई जाने न पावे, रोजा के शरीर में रोग है पृथिवी पर ऐसा प्रसिद्ध किया। एक मंत्री और दूजा पूतलाबनाने वाला यह भेद जाने, इनको भी देख कर ऐसा भ्रम उपजे जो राजा हीहै और यही वृतान्त राजा जनक के भया जे कोई पण्डित हैं तिनके बुद्धि एक सी ही है मंत्रियों की बुद्धि सब के ऊपर होय विचरे है । यह दोनों राजा लोकस्थिति के वेत्ता पृथिवी में भागे फिरें आपदाकाल विषे जे रीति बताई हैं उस भांति करें जैसे वर्षा काल में चांद सूर्यमेघ के जोर से छिप रहें तैसे जनक और दशरथ दोनों लिप रहे ॥ यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे मगघदेश के अधिपति वे दोनों बड़े राजा महा सुन्दर हैं राजमन्दिर जिनके और महामनोहर देवांगना सारिखी स्री जिनके महा भोगों के भोक्ता सो पायन पियादे दलिदी लोकन की न्याई कोई नहीं संग जिनके अकेले भ्रमते भए, धिक्कार है संसार के स्वरूप को ऐसा निश्चय कर जो पाषी स्थावर जंगम सर्व जीवों को अभयदान दें सो आप भी भय से कंपायमान न होय, इस अभयदान समान कोई दान ।
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पद्म
| नहीं जिस ने अभयदान दिया उसने सब ही दिया अभय दान का दाता सत्पुरुषों में मुख्य है ॥
अथानन्तर विभीषण ने दशस्थ और जनक के मारनेको सुभट विदाकिये और हलकारे जिनके संग में वे सुभट शस्त्रहें हाथों में जिनके महा कर छिपे बिपे रातदिन नगरीमें फिरें राजाके महिल अति ऊंचे सो प्रवेश न करसकें इनको दिन बहुत लगे तब विभीषण स्वयमेव माय महिलमें गीत नाद सुन महिल में प्रवेशकिया रोजा दशरथ अन्तःपुस्केराम रावन कस्ता देखा विभीषण तो दूरस्टाढ़े रहे ओरएकविद्युदिलसित नामा विद्यापर हैं उसको पठाया कि इसका मस्तक ले पायो सोमाय मस्तक काट विभीषणको दिया सी राजलोक रोय उठे विभीषण इनका औरजनक का सिर समुद्र विषे डार आप रावण के निकट गया रावण को हर्षित किया इन दोनों राजनकी गणी विलापकरें फिर यह जानकर कि कृत्रिम पूतला था तब यह संतोष कर बैठरही और विभीषण लंकाजाय अशुभकर्म के शान्तिके निमित्त दान पूजादि शुभ क्रिया करता भया और विभीषण के चित्त में ऐसा पश्चाताप उपजा जो देखो मेरे कौन कर्म उदय प्राया जो भाई के मोहसे वृथा भय मान वापरे रंक भूमिगोचरी मृत्युको प्राप्तकिए जो कदाचित् आशी विष (पाशीविष सर्प कहिये जिसेदेखे विष चढ़े ) जातिका सर्प होय तोभी क्या गरुड़को प्रहार करसके कहां बह अल्प ऐश्वर्यके स्वामी भूमिगोचरी और कहां इन्द्र समान शूर वीरताका घरणहारा रावण और कहां मूसा कहां केसरी सिंह जिसके अवलोकन से माते गजराजों का मद उतर जाय कैसा है केसरी सिंह पवन समान हे वेग जिसका अथवा जिस प्राणी को जिस स्थानक में जिस कारण से जेता दुःख भोर सुख होना हे उसको पाकर उस स्थानक में कर्मों के वशसे अवश्य होय हैं और यह
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पद्म
३२॥
निमित्तज्ञानी जो कोई यथाथ जाने तो अपना कल्याणही क्यों न करें जिस से मोन के अविनाशी सुख पाइये निमित्त ज्ञानी पराई मृत्यु का निश्चय जान तो अपना मत्यु से निश्चयसे मृत्यु के पहिले
आत्मकल्याण क्यों न करें निमित्तज्ञानी के कहिने से मैं मर्ख भया खोटे मनुष्यों को शिक्षासे जे मन्द बुद्धि हैं वे अकार्य विषे प्रवरते हैं यह लंकापुरी पाताल है जेल जिस का ऐसा जो समुद्र उसके मध्य तिठे जो देवनहूं को अमम्य वहां विचारें भमिगोचरियों की कहांसे गम्य होय में यह अत्यन्त अयोग्य किया फिर ऐसा काम कबहूं न करूं ऐसी धारणाधार उत्तम दीप्ति से युक्त जैसे सूर्य प्रकाश रूप विचरे. तैसे मनुष्यलोक में रमते भए । इति तेईसा पर्य पूर्ण भया ।
अथानन्तर गौतम स्वामी कहे हैं हे पिक अरण्यके पुत्र दशरथने पृथिवीपर भ्रमण करते केकईको परशा सो कथों महा आश्चर्य का कारण त सुन उत्तर दिशा विषे एक कौतुकमंगल नामा नगर उसके पर्वत समान ऊंचाकोट वहां रामाशममति राजकरेसो बहशुभमति नाममात्रनहीं यथार्थशुभमतिहींहै उसकी राणी पृथुभी गुण रूप प्राभरणोंसे मंडित उसके केकई पुत्रीद्रोणमेघपुत्रभए जिनके गुणदशादिशामें व्यापरहे केकई अंतिसुन्दर सर्वअंग मनोहर अद्भुत लक्षणों की धरणहारी सर्वकलावों की पारगामिनी अति शोभती भई सम्यक्दर्शन से संयुक्त श्राविका के व्रत पालन हारी जिन शासन की वेत्ता महा श्रद्धावन्ती तथा सांख्यं पातजल वैशेषिक वेदांत न्याय मीमांसा चादिक पर शास्त्ररहस्यकी ज्ञाता तथा लौकिक शास्त्र शृंगार्गदिक तिनका रहस्य जाने नृत्यकलामें अतिनिपुण सर्व भेदोंसे मंडित जो संगीत उसे भली भान्ति जाने उर कंठ सिर इन तीन स्थानकसे स्वर निकसे हैं स्वरोंके सात भेदहैं षडज १ ऋषभ
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पराया ॥३३॥
गांधार ३ मध्यम ४ पंचम ५ धैवत ६ निषाद ७ सो केकईको सर्वगम्य और तीन प्रकार लय शीघ्र १ मध्य २ विलंबित ३ और चार प्रकारका ताल स्थायी १ संचारी २ श्रारोहक ३ अबरोहक ४ और तीन प्रकारकी भाषा संस्कृत १ प्राकृत २ःशौरसेनी ३ स्थायितालके भूषण चार प्रसंगादि १ प्रसन्नान्त २ मध्य प्रसाद ३ प्रसन्नायवसान और संचारी के छह भूषण निवृत १ प्रस्थिल २ बिंदु ३ प्रखोलित ४ तमोमंद ५ प्रसन्न ६ आरोहण का एक प्रसन्नादि भूषण और अबरोहण के वो भूषण प्रसन्नान्त १ कुहर २ येतेरह अलंकार और चारप्रकार वादिन वे ताररूप सोतांत १और चामके मढेवे शानद्धर और बांसुरी
आदि फकके बाजे वेशुक्रि और क्रांसीकेबाने वेघनश्येचारप्रकारकेवादिनजैसे केकई बजावे तैसे और त बजावे गीत नृत्भवादित्र येतीन भेदहें सोनृत्योंतीनों पाए औरस्सकभेद नव शृंगार १ हास्य २ करुणा ३ । वीर ४ अद्भुत ५ भयानक ६ रौन ७ बीमत्स शांत तिनके भेद जैसे केकई जाने तैसे और कोई म जाने अधर मात्रा और मणितशास्रमें निपुण गधपच सर्व में प्रवीण व्याकरण छन्द अलंकार नाम माल लक्षण शास्त्रतर्क इतिहास और चित्रकला प्रति प्रवीण तथा रत्नपरीक्षा अश्वपरीचा नर परीक्षा शस्त्र । परीक्षा गज परीक्षा वृषपरीचा वस्त्रपरीक्षा सुगन्धपरीक्षा मुगन्धादिक द्रव्यका निपजायना इत्यादि |
सब बातोंमें प्रवीण ज्योतिष विद्या निपुण बालवृद्ध तरुण मनुष्य तथा घोड़ेहाथी इत्यादि सर्वके इलाज | जाने मंत्र औषधादि सर्वमें तत्पर वैद्य विद्यानिकाल सर्वकलामें सावधान महाशीलवन्ती महामनोहर युद्ध
कलामें अतिप्रवीण शुमारादि कलामें अतिनिपुगा विनयही प्रामुषमा जिसके कला और गुण और रूप | में ऐसी कन्या और नहीं मौसमस्यामी कहे हे हे श्रेणिक बहुत कहनेसे क्या केकईके गुणों का वर्णन कहाँ
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पुराण ॥३४॥
तक करिए तब उसके पिताने विचारा कि ऐसी कन्याके याग्ये बर कौन,स्वयंवरमंडप करिए वहां यह श्राप ही बरे उसने हरिवाहन आदि अनेक राजा स्वयंवरमंडपमें बुलाए सो विभवकर संयुक्त पाए वहां भ्रमते संते जनकसहित दशरथभी आए सो यद्यपि इनकेनिकट रायका विभव नहीं तथापि रूप और गुणों से सर्व राजाओंसे अधिकहै सर्वराजा सिंहासनपर बैठे और केकईको द्वारपाली सबनके नाम ग्राम गण कहे हैं सो वह विवकिनी साधुरूपणी मनुष्योंके लक्षण जाननेवारी प्रथमतो दशरथकी ओर नेत्ररूप नीलकमलकी मालाडारी फिर वह सुंदर बुद्धिकी धरनहारी जैसे राजहंसनी बुगलोंके मध्य बैठेजोराजहंस उसकी ओर जाय तैसे अनेक राजाओं के मध्यबैठाजो दशरथ उसकीओर गई सो भावमालातो पहिलेहीडारी थी और द्रव्यरूप जोरत्नमाला सोभी लोकाचारके अर्थ दशरथके गलेमें डारी तबकै एक नृपजे न्यायवंत बैठेथे वे प्रसन्नभए और कहतेभए कि जैसी कन्याथी वैसाही योग्यवर पाया और कैएक विलषे होय अपने देश उठगए और कैएक जे अति धीठथे वे क्रोधायमान होय युद्धको उद्यमी भए और कहते भए जे बड़े २ बंशके उपजे और महा ऋद्धिके मंडित ऐसे नृप उनको तजकर यह कन्या नहीं जानिये कुल शील जिसका ऐसा यह विदेशी उसे कैसे बरे खोटा है अभिप्राय जिसका ऐसी कन्याहै इसलिये इस विदेशी को यहांसे काढ़कर कन्याके केश पकड़ बलाकार हरलो ऐसा कहकर वे दुष्ट कैएक युद्धको उद्यमीभए तब राजा शुभमति अतिव्याकुलहोय दशरथको कहताभया हे भव्य मैं इन दुष्टोकी निवारूंह तुम इस कन्याको रथमें चढ़ाय अन्यत्र जावो जैसा समय देखिये तैसा करिए सर्व राजनीतिमें यह बात मुख्य || है इसभांति जब सुसुरने कही तब राजादशरथ अत्यन्त धीरबुधि जिनकी हंसकर कहते भए हे महाराज ||
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पुराण
३९
पद्म आप निश्चितरहो देखो इनसबनको दर्शदिशाको भगाऊं ऐसा कहकर श्राप स्थमें चढ़े और
केकईको चढ़ाय लीनी कैसाहे स्थ जिसके महा मनोहर अश्वजुड़े हैं कैसेहें दशरथ माना स्थपर चढ़े . शरद ऋतुके सूर्यही हैं और केकई घोड़ोंकी बाघ समारती भई कई कैसीहै केकई महापुरुषार्थकेस्वरूप । कोधरे युद्धकी मूर्तिही है पतिसे विनती करती भई हे नाथ! आपकी आज्ञाहोय और जिसकी मृत्यु उदय ।
आईहोय उसहीकी तरफ़ रथ चलाऊं तब राजा कहते भए कि हे प्रिये। गरीयोंके मारनेकर क्याजो इस सर्व सेनाका अधिपति हेमप्रभहै जिसके सिरपर चन्द्रमा सारिखा सुफेदछत्र फिरे है उसीतरफ़ रथ चला। हे रणपण्डिते! अाज में इस अधिपतिहीको मारूंगा जब दशरथने ऐसाकहा तववह पतिकी आज्ञा प्रमाण । उसी की तरफरथ चलावती भई कैसा है रथ ऊंचाहै सुफेदछत्र जिसके और रूपहै महाध्वजा जिसकी रथ। में ये दोनों दम्पती देवरूप विराजे हैं इनका रथ अग्निसमानहै जै इस स्थकी ओर आए वे हजारों पतंग की न्याई भस्म भए दशरथ के चलाये जेबाण तिनसे अनेक राजाबींधेगए सो क्षणमात्र में भागेतवहेमप्रभजो सबोंका अधिपति था उसके प्रेरे और लजावान होय दशरथ से लड़नेको हाथी घोड़ास्थ पयादों से मण्डित
आए कियाहे वरपनेका महाशब्द जिन्होंने तोमरजाति के हथियार बाण चक्र कनकइत्यादि अनेक जाति के शस्त्र अकेले दशरथ पर डारते भए सो बडा आश्चर्य है दशरथ राजा एकरथ कास्वामी था सोयुद्धसमय मानों असंख्यातस्थ हो गए अपने बाणो से समस्त वरियोंके बाण काटडाले और आप जेवाणचलाए
वे किसी की दृष्टि न आए और शत्रुवों के लगे सो राजा दशरथने हेमप्रभको क्षणमात्र में जीत लियाउस । की ध्वजा छेदी छत्र उडाया और रथके अश्व घायल किए स्थतोडडालारथसे नीचे डारदिया तब वह ।
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पद्म
पुराम
राजा हेमप्रभ और रथ पर चढ कर भव कर कंपायमान होय अपना यश काला कर शीघ्रही भागा। दशरथने आपको बचाया स्त्री वचाई अपनेअरव बचाए वैरियोंके शस्त्र दे और फरियोंको भगायाएक दशरथ अनन्तरथ जैसे काम करता भया एक दशरथ सिंहसमान उसको देख सर्वयोधा सदिशा को हिरण सनानहो भागे अहो धन्य शक्ति इस कन्याकी ऐसा शब्द मुसुरकी सेना में और शत्रुवों की सेवा में सर्वत्रभया और बंदीजन बिरदवलानत भए राजा दशरथ महाप्रतापकोंधरे कौतुकमंगल नगरमें केवाईसे. पाणिग्रहण किया महामङ्गलाचार भयाराजा केकीको परणकाअयोध्याप्राए और जनक भी मिथिलापुर गए किरइनका जन्मोत्सव और राज्याभिषेक विभूति भया और समस्त भय रहित इन्द्रसमान रमतेभए.
अथानन्तर सर्व राणियों के मध्य राजा दशरथ केवळ से कहते भए-हे चन्द्रवदनी ते रे मनमें जिस वस्तुकी अभिलाषा होयं सो मांग जो तू मांगे सोई देऊ हे प्रामप्यारी तेरे से में अति प्रसन्न भया हूं जो तू अतिविज्ञान से उस युद्ध में स्थको न प्रेरती तो एकसाथ एते बैरी पाएथे तिनको में कैसे जीतता जब रात्री को अन्धकार जगत् में व्यापरहाहै जो अरुण सारिखा सारथी न होय तो उसे सूर्य कैसे जीते इसी भान्ति केकईके गुण वर्णन राजा ने किए तब वह पतिव्रता लज्जा के भार कर अधोमुख होगई राजा ने फिर कही तव केकई ने वीनती करी हे नाथ मेंरा वर आपके धरोहर रहे जिस समय मेरी इच्छा होयगी उस समय लंगी तब राजा अति प्रसन्न होय कहतेभये है कमलक्दनी मृगनयनी श्वेतता श्योमता पारक्तता ये तीन वर्ण को घरे अद्भुत हैं नेत्र जिसको अद्भुत बुद्धि तेरी हे महा नरपतिकी पुत्री अति नयकी वेत्ता सर्वकालकी पारगामिनी सर्व भोगोपभोग की निधि तेरा वर में धरोहरराखा त् जब ||
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॥३
॥
| जो भांगेगी सोहीमें दूंगा और सर्बही राजलोक केकई को देख हर्षको प्राप्त भए और चित्तमें चितवते,
भए यह अद्भुत बुद्धिनिधान है सो कोई अपूर्ण वस्तु मांगेगी अल्पवस्तु क्या मांगे॥ ___ अथानन्तर गौतमस्वामी श्रेणिक से कहे हे हे श्रेणिक लोक का चरित्र में तुझे संक्षेपताकर कहा जो पापी दुराचारी हैं वे नरक निगोद के परम दुःख पावे हैं और जे धर्मात्या साघु जनहें वे स्वर्गमोक्ष में महा सुख पावे हैं भगवानकी आज्ञा के अनुसार बडे सत्पुरुषोंके चरित्र तुझे कहे अब श्रीरामचन्द्रजी की उत्पत्तिसुन कैसे हैं श्रीरामचन्द्रजी महा उदार प्रजाके दुखहरणहारे महा न्यायवन्त महाधर्मवन्त महा विवेकी महा शूरवीर महाज्ञानी इक्ष्वाकु वंशकाउद्योत करणहारेबढ़े सत्त्ररुषहें। इति चौवीसवां पर्व संपूर्णम् ___अथानन्तर जिसे पराजिता कहे हैं ऐसी जो कौशल्या सो रत्नेजड़ित महिल विषे महासुन्दर सेज पर सूती थी सो रात्री के पिछले पहिर अतिसय से अद्भुतः स्वप्न देखती भई उज्ज्वल हस्ती इन्द्र के ऐशक्त हस्ती समान १ और महा केसरी सिंह २ः और सूर्य ३. तथा सर्वकला पूर्ण चन्द्रमा ४ ये पुराण पुरुषों के गर्भ में आवमे के अद्भुत स्पष्ट देख आश्पर्य को प्राप्त भई फिर प्रभालके बादित्रऔर मंगल शब्द सुनकर सेजसे उठी प्रभात क्रियासे हर्षको प्रतिभया है मन जिसका महा विनयक्ती सखी जनमण्डित भरतार के समीप जाय सिंहासन पर बैवी कैसी हैं सपी सिंहासन को शोभित करणहारी हाथ जोड़ नमीभूत होय पमोहर स्वप्ने जे देखे तितका वृत्तान्त स्वामी से कहाती भई तव समस्त विज्ञान के पारगामी राजा स्वप्नों का फल कहतेभए हे कांते ! परम भारवर्यका कारण तेरोमोचगामी पुत्र अन्तरः || वाख शत्रुषों का जीतनारः महाः पराक्रमी होणार सगो मोहादिक अन्तरंग के शत्रु कहिये और
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पद्म
प्रजाके बाधक दुष्ट भूपति वहिरंगशत्रु कहिये इसभान्ति राजाने कही तब राणी अति हर्षित होय अपने स्थानक गई मन्द मुलकन रूप जो केश उनसे संयुक्त है मुख कमल जिसका और गणी केकई पति सहित श्री जिनेन्द्र के जे चैत्यालय तिनमें भाव सयुक्त महा पूजा करावतीभई सो भगवानकी पूजाके -प्रभाव से राजाका सर्व उद्वेग मिटा चित्तमें महा शान्ति होतीभई। .
____ अथानन्तर राणी कौशल्या के श्रीरामका जन्म भया राजा दशस्य ने महा उत्सव किया छत्र। चमर सिंहासन टार बहुत द्रव्य यात्रकों को दिये उगते सूर्य समान है वर्ण रोम का कमल समान हैं नेत्र
और लक्ष्मी से आलिंगित है वक्षस्थल जिसका इसलिये माता पिता सर्व कुटम्बने इनका नाम पद्मपरा 1 फिर राणी सुमित्रा अति सुन्दर है रूप जिसका सो महा शुभ स्वप्न अवलोकन कर आश्चर्यको प्राप्त । होती भई वे स्वप्न कैसे सो सुनो एक बड़ा केहरी सिंहदेखा लक्ष्मी और कीर्ति बहुत आदरसे सुन्दरजल | के भरे कलश कमलसे ढके उनसे स्नान करावे हैं और श्राप सुमित्रा बड़े पहाड़ के मस्तक पर बैठी। है और समुद्र परयन्त पृथिवी को देखे है और देदीप्यमानहें किरणोंके समूह जिसके ऐसा जो सूर्य सो देखा और नाना प्रकारके रत्नों से मण्डित चक्र देखा ये स्वप्न देख प्रभातके मंगलीक शब्दभए तबसेजसे उठकर प्रातक्रियाकर बहुत बिनय संयुक्त पतिके समीपजाय मिष्टबानीसे स्वप्नोंका वृत्तान्तकहती भई तब राजाने कही हे वरानने कहिये सुन्दर है वदन जिसका तेरे पृथिवीपर प्रसिद्धपुत्रहोयगा शत्रुवोंके समूह
का नाश करनहारा महातेजस्वी आश्चर्यकारी है चेष्टा जिसकी ऐसा पतिने कहा तब वह पतिव्रता हर्षसे | भराहै चित्त जिसका अपने अस्थानकको गई सर्वलोकोंको अपने सेवक जानतीभई फिरइसके परमज्योति
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पुराण
पन का घारी पुत्र होताभया मानों स्नोंकी खानमें रत्नही उपजासोजैसा श्रीराम के जन्मका उत्सव किया था।
तैसा ही उत्सव भया जिस दिन सुमित्रा के पुत्र काजन्म भया उसी ही दिन रावण के नगर में हज़ारों उत्पोत ॥३॥
होते भए, और हितुवों के नगर में शुभशकुन भए इन्दीवर कमल समान श्यामसुन्दर और कांति रूप जल को प्रवाह भले लक्षणों का धरणहारा इस लिये माता पिता ने लक्ष्मण नाम धरा । रोम लक्ष्मण दोनों ही बालक महामनोहररूप मंगा समानहें लाल होंठ जिनके और लाल कमल समानहें कर और चरण जिनके माखन से भी अतिकोमल है शरीर का पेश जिनका, और महासुगंध शरीर ये दोनों भाई बाल लीला करते कौन के चित्त को न हरें चन्दन से लिप्त है शरीर जिनका केसर का तिलक किये अति सोहें मानों विजियागिरि और अंजनगिरि ही स्वर्ण के रस से लिप्त हैं, अनेक जन्म का बढ़ा जो स्नेह उससे परेम स्नेह रूप चन्द्र सूर्य समानही हैं महलमांही जावें तब तो सर्व स्रीजनको अतिप्रिय लगें और बाहिर पावें तब सर्ब जनों को प्यारे लगें जब ये वचन बोलें तवमानों जगत् को अमृत कर सीचे हैं, और नेत्रों कर अवलोकन करेंतब सब को हर्ष से पूर्ण करें सवन के दरिद्र हरणहारे सबकेहितु सब के अन्तःकरण पोषण हार मानों ये दोनों हर्ष की और शूर वीरताकी मूर्तिही हैं, अयोध्यापुरी में सुख से रमते भए कैसे हैं दोनों कुमार अनेक सुभटकरे हैं सेवा जिनकी जैसे पहिले वलभद्रविजय और वासुदेव त्रिपृष्ठ होते भए तिन समान है चेष्टा जिनकी फिर केकई के दिव्यरूपका घरणहारा महाभाग्य पृथिवी पर प्रसिद्ध भरत नामा पुत्र भया फिर सुप्रभा के सर्व लोक में सुन्दर शत्रुवों का जीतन हारा शत्रुधन ऐसा नाम पुत्र भयो, और रामचन्द्र का नाम पद्म तथा बलदेव और लक्ष्मण का नाम हरि और वासुदेव और अर्धचक्री भी कहे हैं,
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Nyoon
दशरथ की जो चार राणी सोमानों चारदिशा ही हे तिन के चारही पुन समुद्र समान गंभीरपर्वत समान | अचल जगत् के प्यारे, इन चारों ही कुमारों को पिता विद्या पढ़ने के अर्थ योग्य पाठक को सौंपते भएका __अथानन्तर एक अपिल्य जामा नगर अतिसुन्दर कहां एक शिवी मामाबामण उसकी इषुनामस्त्री उसकै परि नामा पुत्र सो महा-अविवेकी अविनई माता पिता ने लड़ाया सोमा कुचेष्टा का घरपारा हज़ारों उलहनों का पात्र होताभया, यद्यपि द्रव्यका उपार्जन धर्म का संग्रह, विद्या का ग्रहण, उस नगर में ये सब ही बातें सुलभ हैं परन्तु इसको विद्यासिद्ध नभई, तब मातापिता ने विचारी विदेशमें इसे सिद्धि होय तो होय, यह विचार खेद खिन्न होय घर से निकास दिया, सो महादुखी होय केवल बस्त्र याके पास
सो यह राजगृह नगरमें गया वहां एक वैवस्वत नामा धनुर्वेद का पाठी महापंडित जिस के हजारों शिष्य | विद्या का अभ्यास करें उसके निकड ये अरि यथार्थ धनुष विद्या का अभ्यास करता भया सो हज़ारों शिष्यों में यह महाप्रवीन होता भया उस नगर का राजा कुशाग्र सो उसके पुत्रभी चैवस्वत के निकट बाणविद्या पढ़ें सो राजा ने सुनी कि एक विदेशी ब्राह्मण का पुत्र आया है जो राजपुत्रोंसेभी अधिक बाणविद्या का अभ्यासी भया तव राजाने मनमें रोष कियो जब यह बात वैवस्वतने सुनो तब अरि को समझाया कि तू राजाके निकट मूर्खहोजा विद्यामत प्रकाशेसो राजानेधनुष् विद्याके गुरुको बुलाया कि में तेरेसर्व शिष्यों की विद्या देखूगा तब सव शिष्यों को लेकर यह गया सबही शिष्योंने यथायोग्य अपनी अपनी वाणविद्या दिखाई निशाने बींघे ब्राह्मण का जोपुत्र उसने ऐसे बाण चलाए कि विद्या रहित जानागया तब राजाने जानी इसकी प्रशंसा किसीने झूठीकही तब देवस्वतको सव शिष्योंसहित ।
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पुराण
M४०१
रुखसतकिया तब अपने अपने घरमाए वैवस्वतने अपनी पुत्रीअरिको परणाय विदाकियासोरात्रिहीपयाण || कर अयोध्या पाया राजा दशरथसे मिला अपनी बाणविद्या दिखाई तब राजा प्रसन्न होय अपने चारों पुत्र बाणविद्या सीखनेको इसके निकट राखेवे बाणविद्या विषे अति प्रवीण भए जैसे निर्मल सरोवर में चन्द्रमा की कांति विस्तार को प्राप्त होय तैसे इन में वाणविद्या विस्तार को प्राप्त भई और और भी अनेक विद्या गुरुसंयोग से तिनको सिद्ध भई जैसे किसी और रत्न मेले होवें और ढकने से ढकेहोवेंसो दकना उघाड़े प्रकटहोंय तैसे सर्वविद्या प्रकटभई तब राजा अपने पुत्रों की सर्व शास्त्रों में अति प्रवीणता देख और पुत्रोंका विनय उदार चेष्टा अवलोकन कर अतिप्रसन्न भया इनके सर्वविद्यावोंके गुरुवोंकीबहुत सनमानता करी राजा दशरथ गुणोंके समूहसे युक्त महाज्ञानी ने जो उनकी वांछाथी उससे भी अधिक संपदा दीनी दानविषे विख्यात है कीर्ति जिनकी केतेक जीव शास्रज्ञान को पायकर परम उत्कृष्टताको प्राप्त होय हैं और कैयक जैसे के तैसेही रहे हैं और कैयक विषम कर्मके योगसे मदसे प्रांघेहोंयहें जैसे
सूर्यको किरण स्फटिकगिरि के तट विषेष अति प्रकाश को घरे है और स्थानक विषे यथास्थित प्रकाम || को घरे है और उल्लुवोंके समूह में अतितिमिर रूपहोय परणवे ॥ इति पच्चीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ - अथानन्तरगौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हैोषिक! अबभामंडल और सीताको कथनसुनोरामा जनक की स्त्री विदेहा उसे गर्भ रहा सो एक देव के यह अभिलाषा हुई कि जो इसके बालक होय सो में
लेजाऊं। तव श्रेणिक ने पूछी हे नाथ उसदेवके ऐसी अभिलाषा काहे से उपजी सो में सुना चाहू हूं || तब गौतमस्वामी कहते भए हे राजन् ! एक चक्रपुर नामा नमर है वहां चक्रध्वज नामा राजा उसकेगणी ||
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पद्म
४०२॥
मनस्विनी उनके पुत्री चित्तोत्सवा सो कुंवारी चटशालामेंपढ़े और राजाका पुरोहित धूम्रकेश उसके स्वाहा नामा स्त्री उसका पुत्र पिंगल सोभी चटशालामें पढ़े सो चित्तोत्सवाका और पिंगलका चित्त मिलगया सो इनको विद्या की सिद्धि न भई जिनका मन काम वाणसे वेधा जाय तिनको विद्या और धर्मकी प्राप्ति न होयहै प्रथम स्त्री पुरुष का संसर्ग होय फिर प्रीति उपजे प्रीति से परस्पर अनुराग वढ़े फिर विश्वासउपजे उससे विकार उपजे जैसेहिंसादिकपंच पापोंसे अशुभ कर्म बन्धे तैसे स्रीसंग से काम उपजेहै ।।
अथानन्तर वह पापी पिंगल चित्तोत्सवा को हर लेगया जैसे कीर्ति को अपयश हर लेजाय जब वह दूर देशों में हर लेगया तब सब कुटम्ब के लोकों ने जानी अपने प्रमाद के दोष से उसने वह हरी है जैसे अज्ञान सुगतिको हरे तैसे वह पिंगल कन्याको चुरा लेगया परन्तु धनरहित शोभेनहींजैसे लोभी धर्मवर्जित तृष्णासे नसोहे सो यह विदग्ध नगरमें गया वहां अन्य राजावों की गम्यतानहीं सो निधन नगरके बाहिर कुटि बनाय कर रहा उस कुटि को किवाड़नहीं और यह ज्ञान विज्ञान रहित तृण काष्ठादिकका विक्रय कर उदर भरे दलिद्र के सागरमें मग्न सो स्त्रीका और आपका उदर महाकठिनता से मेरे तिस नगरमेंराजा प्रकाशसिंह और राणी प्रवरावली का पुत्र जोराजा कुण्डलमंडित सो इस स्त्री को देख शोषण सन्तापन उच्चाटन वशीकरण मोहन ये काम के पंच बाण इन से वेध्या गया उस ने रात्रि को दूती पाई सो चित्तोत्सवा को राजमन्दिर में लेगई जैसे राजा सुमुख के मन्दिर में दूती बन माला को लेगई थी सो कुण्डलमण्डित सुखसे रमें ॥
अथानन्तर वह पिंगल काष्ठ का भार लेकर घर आया सो सुन्दरी को न देखकर अतिकष्ट के
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पुराख
॥४०३॥
समुद्र में ड्वा विरहसे महा दुखित भया किसी जगह सुख को न पावे चक्र विषे प्रारूढ़ समान इस का चित्त व्याकुल भया हरी गई है भार्या जिस की ऐसा जो यह दीन ब्राह्मण सो राजा पै गया और कहता भया हे राजा ! मेरी स्त्री तेरे राज में चोरी गई जे दरिद्री अार्तिवन्त भयभीत स्त्री वो पुरुष उनको राजाहीशरण हैं, तब राजा धर्त और उस के मन्त्री भी धूत्त सो राजा ने मंत्री को बुलाय झठमठ कहा इसकी स्त्री चोरीगई है उसे पैदा करो ढील मत करो तब एक सेवकने नेत्रोंकी सैन मार कर मत कहो। हे देव ! में इस ब्राह्मणकी स्त्री पोदनापुर के मार्ग में मुशाफिरोंके साथ जाती देखी सो आर्यिकाओं के मध्य तप करणे को उद्यमी है इसलिये हे ब्राह्मण ! तू उसे लाया चाहे तोशीघ्र ही जा, ढील काहे को करे उसका अवार दीक्षाघरने का समय कहां तरुण है शरीर जिसका और महाश्रेष्ठ स्त्री के गुणों से पूर्ण हैं ऐसा जब झठकहा तब ब्राह्मणगाढ़ी कमरखांध शीघ्र उसकी ओर दौड़ा, जैसे तेजघोड़ा दौड़े सो पोदनापुर में चैत्यालय तथा उपधनादि बन में सर्वत्र ढूंडी कहूं ठौर न देखी तब पीछे विदग्धनगर में आया सो राजा की श्राज्ञा से ऋरमनुष्यों ने गलहटा देय लष्टमुष्टि प्रहार कर दूर किया, ब्राह्मण स्थान भ्रष्टभया क्लेश भीगा अपमान लहा मार खाई एते दुःख भोग कर दूर देशांतर उठ गया, सो प्रिया विना इस को किसी और सुख नहीं जैसे अग्नि में पडा सर्ष सँसै तैसे यह रात दिन संसता भया विस्तीर्ण कमलों का बन इसे दावामल समान दीखे और सरोवर अवगाह कस्ता विरहरूप अग्नि से वले इसभान्ति यह महा दुखी पृथिवी पर भ्रमण करे एक दिन नगर से दूर बम में मुनि देखे मुनि जिनकानाम आर्यगुप्ति बड़े या चाय तिनके निकट जॉय हाथ जोड़ नमस्कार कर धर्म श्रवण करता भया, धर्म श्रवण कर इसको वैराग्य
Late
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पा
. Hạt
उपजा महासान्तचित्त होय जिनेंद्र के मार्ग की प्रशंसा करता थया मन में विचारे हैअहो यह जिनराज का मार्ग परम उत्कृष्ट है मैं अन्धकार में पड़ा था सो यह जिनधर्म का उपदेश मेरे घट में सूर्य समान प्रकाश करता भया में अब पापों का नाश करनहारा जो जिन शासन उसका शरण लेऊ, मेरा मन और तनु विरहरूप अग्नि में जरे है सो में शीतल करूं, तब गुरु की आज्ञा से वैराग्य को पाय परिग्रह का त्याग कर दिगम्बरी दीक्षा घरता भया, पृथिवी पर विहार करता सर्व संग का परित्यागी नदी पर्वत मसान बन उपवनों में निवास करता तपकर शरीर का शोषण करता भया जिसके मनको वर्षाकाल में प्रति वर्षा भई तोभी खेद न उपजा और शीतकालमें शीत वायु से जिस का शरीर न कांपा और ग्रीषम ऋतु में सूर्यकी किरणों से व्याकुल न भया इसका मन विरह रूप अग्निकर जला था सो जिनवचन रूप जल की तरंगों से शीतल भया तपकर शरीर अर्धदग्ध वृक्ष के समान होगया अब विदग्धपुर का राजा जो कुंडल मण्डित उसकी कथा सुनो राजा दशरथका पिता अरण्य अयोध्या में राज करे है सो यह कुण्डल मण्डित पापी गढ़के बलकर अरण्यके देश को विराधे जैसे कुशील पुरुष मर्यादा लोप करे तैसे यह उस की प्रजाको बाधा करे राजा अरण्य बड़ाराजा उसके वहुत देश सो इसने कैएक देश उजाड़े जैसे दुर्जन गुणों को उजाड़े और राजा के बहुत सामन्त विराधे जैसे कषाई जीवके परिणाम विराधे और योगी कषायों का निग्रह करे तैसे इसने राजासे विरोध कर अपने नाशका उपाय किया सो यद्यपि यह राजा अरण्य के आगे रङ्क है तथापि गढ़ के बल से पकड़ा न जाय जैसे मसा पहाड़ के नीचे जो विल उस में बैठ जाय तब नाहर क्या करे सो रोजा अरण्यको इस चिन्ता से रात दिन चैन न पड़े आहारादिक
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पद्म पुरा HYou
शरीर की क्रिया अनादर से करे तब राजा का बालचन्द्र नामा सेनापति सो राजा को विन्तावान देख । पूछता भया कि हे नाथ ! आपको ब्याकुलता का कारण क्या है जब राजाने कुण्डल मंडितका वृत्तांत कहा तब बालचन्द्रने राजा से कही आप निश्चिन्त होवो उस पापी कुण्डल मण्डितको बांधकर आपके निकट ले अाऊं तब राजा ने प्रसन्न होय बालचन्द्रको विदा किया चतुरंग सेना से बालचन्द्र सेनापति चढ़ा सो कुंडलमंडित मूर्ख चित्तोत्सवा से आसक्त चित्त सर्व राजचेष्टा रहित महा प्रमाद में लीन था नहीं जाना है लोक का वृत्तान्त जिसने वह कुंडलमंडित नष्ट मया है उद्यम जिसका जो बालचन्द ने जाय कर क्रीडामात्र में जैसे मृग को बांधे तैसे बांध लिया और उसके सर्व राज्य में राजा अरण्य | का अमल किया और कुंडलमंडित को राजा अरण्य के समीप लाया बालचन्द सेनापति ने राजा अरण्यका सर्व देश बाधा रहित कियो राजा सेनापतिसे बहुत हर्षित भया और बहुत बघारा और पारितोषिक दिये और कुंडल मंडित अन्यायमार्ग से राज्यसे भ्रष्टभया हाथी घोड़े स्थ पयादे सब मए शरीर । मात्र रहगया पयादा फिरे सो महा दुस्खी पृथिवी पर भ्रमण करता खेद खिन्न भया मनमें बहुत पछताव जो में अन्याय मार्गीने बड़ों से विरोध कर बुरा किया एकदिन यह मुनियों के आश्रम जाय आचार्य । को नमस्कार कर नाव सहित धर्म का भेद पूछताभवा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे राजन् ! | दुखी दरिद्री कुटुम्ब सों रहिव ब्याघिसे पीड़ित तिनमें किसी एक भव्यजीवके धर्म बुद्धि उपजे है उसने
आचार्य से पूछा हे भगवन ! जिसकी मुनि होनेकी शक्ति न होय सो गृहस्थाश्रममें केसेधर्मका सायन करे आहार भय मैथुन परिग्रह यह चार संज्ञा तिन में तत्पर यह जीव कसे पापों कर छूटे सो में सुना।
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॥४०६॥
-
चाहूं लूं आप कृपाकर कहो तब गुरु कहते भए धर्म जीव दयाा है सव प्राणी अपनी निन्दाकर और गुरुवोंके पास आलोचना कर वापसे छुटे हैं त अपना कल्याण चाहे है और शुद्ध धर्म की अभिलाषा करें है जो हिंसा का कारण महा घोर कर्म लहूं और वीर्य से उपजा ऐसा जो मांस उसका भक्षण सर्वया तज सर्वही संसारी जीव मरण से डरे हैं तिम को मांस कर जे अपने शरीर को पोषे हैं वे पापी निस्संदेह मरक में मड़ेंगे जे मांस का भक्षण करे हैं और निस्यस्नान करें हैं तिनका स्नान वृथा है
और मूंड पडाय भेष लिया सो भेष भी वृथा है और तीर्थ यात्रा और अनेक प्रकार के दान उपवासादिक यह मांसाहारी को नरक से नहीं बचासक्ते हैं इस जगत् में ये संबही जाति के जीव पूर्व जन्ममें इस जीवके बांधव भएहैं इस लिये जो पापी मांसका भक्षण करे है उसने तो सर्व बांधव भषे जो दुष्ट निर्दई मच्छ मृग पक्षियोंको हने हैं और मिथ्यामार्गमें प्रवरते हैं सो मधु मांसके भक्षण से महा कुगतिमें जावें हैं यह मांस बृक्षों से नहीं उपजे है भूमि से नहीं उपजे है और कमलकी न्याई जल से नहीं निपजे है अथवा अनेक बस्तुओं के योग से जैसे औषधि बने है तैसे मांसकी उत्पति नहीं होय है दुष्ट जीव निर्दयी वा गरीब बड़ा वल्लभहै जीतब्य जिनको ऐसे पची मृग मत्स्यादिक तिनको हनकर मांस उपजावे हैं सो उत्तम जीव दयावान नहीं भषे हैं और जिनके दुग्धसे शरीर वृद्धि को प्राप्त होय ऐसी गाय भैंस छेली तिनके मृतक शरीरको भषे हैं अथवा मार मार कर भषे हैं तथा तिनके पुत्र पोत्रादिकको भषे हैं वे अधर्मी महानीच नरक निगोदके अधिकारी हैं जो दुराचारी मांस भषे हैं उसने माता पिता पुत्र मित्र सहोदर सबही भषे।इस पृथ्वीके तले भवनवासी और ब्यन्तर देवोंके ||
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पुराण
पद्म निवास हैं और मध्य लोकमें भी हैं वे दुष्ट कर्म के करनहारे नीच देवहे जे जीव कषाय सहित तापस |
होय हैं वे नीच देवों में निपजे हैं पाताल में प्रथमही रत्नप्रभा पृथ्वी ताके छै भाग और पंक || भागमें तो भवनवासी और व्यन्तर देवोंके निवास हैं और बहल भागमें पहिला नरक उस के नीचे छह नरक और हैं । ये सातों नरक छह रात में हैं और सातवें नरकके नीचे एक राजूमें निगोदादि । स्थावर ही हैं स जीव नहीं हैं और निगोदसे तीनों लोक भरे हैं।
अथानंतर नरकका व्याख्यान सुनो कैसे हैं नारकी जीवमहाकूर महाकुशब्दकेबोलनहारे अतिकठोरहै स्पर्श जिनका महादुरगन्ध अन्धकाररूप नरकमें पड़े हैं उपमारहित जे दुख तिनका भोगनहाराहै शरीर जिनका महाभयंकर नरक जिसे कुम्भीपाक कहिए जहां वेतरणी नदी है और तीक्ष्ण कंटकयुक्त शाल्मली वृत जहां असिपत्रवन तीक्षणखडगकी धारासमानह पत्रजिनके और जहां देदीप्यमान अग्निसे ततायमान तीखे लोहे। के कीले निरन्स हैं उन नरकोंमें मधु मांसके भषणहारे और जीवोंके मारणहारे निरन्तर दुख भोगेहें जहां एक बाघ अंगुल मात्रमी क्षेत्र सुखका कारण नहीं और एक पलकभी नारकियोंको विश्राम महीं जो चाहें किकहूं भाजकर छिप रहें तो जहा आय तहाही नारकी मारें और असुरकुमार पापी देव बताय देय महा प्रज्वलित अंगार तुल्य जो मरककी भूमि उसमें पड़े ऐसे विलाप करेंजेसे अग्नि में मत्स्य व्याकुल हुया विलाप करे और भयसे व्यास किसी प्रकार निकसकर अन्य ठौर गया चाहे तो तिमको शीतलता निमिच और नारकी वैतरणी नदी के जलसे छांटे देय सो वेतरणी महा दुर्गन्ध चारजलकी भरी उससे अधिकवाहको प्राप्त होस फिर विश्रामके अर्थ असिपञ्चवममें जाय सो असिपनासिर
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॥४०॥
| पर पड़ें मानों चक्रसङग गदादिकहें तिनसे विदोरे जावे छिद गएँ नासिका कर्ण कंघ जंघा मादि
शरीरके अंग जिनके नरकमें महाविकराल महादुखाई पवनहे और रुधिरके करण बरसे हैं जहांघानी में पेलिये हैं और क्रूर शब्द होयहें तीक्ष्याथूलोंसे भेदिये हैं महा विलापके शब्द करे हैं औरशाल्मली || वृत्तोंसे घसीटिरहें और महामुद्गरोंके पातसे कुटिएहें मोर जब तिसाए होवहें तब जलकी प्रार्थना
करे हैं तब उन्हें तांबा मलाकर प्यावें हें इससे वेहमहादग्धायमानहोयहे उसकर महादुखी होयहें और कहे | है कि हमें तृष्णानहींबोफिरजबरदस्तीसे इनकोपवीपर पहारकर उपरपग देय संडासियोंसे मुखफाडताता | तांबा प्यावे हैं उससे कंठ मी वग्ध होयहै और हृदयभी दग्ध होयहै नारकियों को नारकियों का अनेक प्रकारका परस्पर दुख तथा भवनबासी देवजे असुरकुमार तिनसे करवाया दुख सो कौन बरणन करसके नरक में मधमांस के भक्षण से उपजाजो दुख उसे जानकर मधमांस का भक्षण सर्वथा तजना ऐसे मुनि के वचन । मुन नरक के दुख से डरा है मन जिसका ऐसाजोकुण्डलमण्डित सोयोलानाथ! पापी जीव तो नरकही के || पात्र हैं और जे विवेकी सम्यकदृष्टि श्रावक के प्रत पाले हैं तिनकी क्यागति है तब मुनि कहते भए जे दृढ़बत सम्यक दृष्टि श्रावक के व्रत पाले हे वे स्वर्ग मोच के पात्र होय हैं और भी जे जीव मद्यमांस शहत का त्याग करे, वे भी कुगति से बचे हैं जे अभक्ष्यका त्याग करे हैं सो शुभगति पावे हैं जो उपवासादिक रहित हैं और दानादिक भी नहीं बने है परन्तु मद्यमांस के त्यागी हैं तो भले हैं औरजो कोई शील प्रत मण्डित है और जिनशासनका सेवक है और श्रावक के व्रत पाले है तिसका क्यापूछना सो तो सौधर्मादि स्वर्ग में उपजे ही हैं अहिंसाबत धर्मका मूल कहा है अहिंसा मांसाविक के त्यागी के
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पद्म
ugotu
| अत्यन्त निर्मल होय है जै मलेच्छ और चाण्डाल है और दयावान होवें हैं वह मधु मांसादिकका त्याग
करे हैं सो भी पापों से छूटे हैं पापोंसे छूटा हुआ पुण्यको प्रहे है और पुण्य के बंधन से देव अथवा मनुष्य होय है और जो सम्यकदृष्टि जीवहें सो अणुव्रतको धारणकर देवों का इन्त्रहोय परमभोगों को भोगे है फिर मनुष्यहोय मुनिव्रत धर मोचपद पावे हे ऐसे प्राचार्य के बचनसुनकर यद्यपि कुंडलमंडितअणुव्रतकेधारने में शक्तिरहित है तो भी सीसनकाय गुरुओंको सविनय नमस्कारकर मद्यमांसकात्याग करताभया,और समीचीन जो सम्यक दर्शन उसकाशरण ग्रहा भगवान की प्रतिमाको नमस्कार और गुरुवों को नमस्कार कर देशांतर को गया मनमें ऐसी चिंता भई कि मेरा मामा महापराक्रमी है सो निश्चय सेती मुझे खेदखिन्न जान मेरी सहायता करेगा मैं फिर राजा होय शत्रुओं को जीतूंगा ऐसी आशा धर दविण दिशाजायवेको उद्यमी भया सो प्रति खेदाखिन दुखसे भरा धीरा आताथा सो मार्ग में शत्यन्तब्याधि वेदनाकर सम्यक रहित होय मिथ्यात्व गुण ठाने मरणको प्राप्त भया कैसा हे मस्या नहीं है जगत में उपाय जिसका सो जिस समय कुंडल मंडित के प्राण छूटे सोराजा जनक की बी विरेहा के गर्भ में पाया उसी ही समय बेदवती का जीवजओ चित्तोसवा भई थी सो भीतपके प्रभाक्से विदेशाके गर्भ में पाई ये दोनों एक गर्भमें माए
और वह पिंगल ब्राह्मण जो मुनिकेत घर भषनवासी देवभया था सो अवधि कर अपने तपका फल जाम फिर विचारता भयाकि वह चित्तोत्राथा कहां और वह पापी कुंडलमंडित कहां जिस से में पूर्व भव | में दुख अवस्था को प्रातमय अब वे दोनोंगजा जमा कीनी के गर्भ में पाए सो वह तो स्त्रीकोजाति पराधीन थी उस पापी कुंडलमंडित ने अन्याय मार्य किया सोयह मेरा परम शत्रु है जो गर्भ में गिरावना
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पद्म
करूतो राणी मरणको प्राप्त होय सो इस से मेरा बैर नहीं इस लिये जब यह गर्भ से वाहिर श्रावेतब मैं इसे दुखदं ऐसा चितवता हुआ पूर्व कर्म के बैर से क्रोधायमान जो देव सो कुण्डल मंडित के जीव पर हाथ मसले ऐसा जान कर सर्व जीवन से क्षमा करनी किसी को दुख न देना जो कोई किसी को दुख देय है सो श्राप को ही दुख सागर में डुबोवे है ॥ ___अथानंतर समय पाय रानी बिदेहाके पुत्र और पुत्रीका युगुल जन्म भया तबवह देवपुत्र को हरता भया सो प्रथम तो क्रोध के योग से उसने ऐसी बिचारी कि मैं इसे शिलापर पटक मारूं फिर बिचारी कि धिक्कार है मुझे मैं ऐसा अनन्तसंसारका कारण पापचिंतया बालहत्या समान और कोई पापनहीं पूर्वभवमें मैं मुनिव्रत धरेथे सोतृणमात्रका भी बिराधन न किया सर्व प्रारम्भतजा नानाप्रकार तप किये श्री गुरुके प्रसाद से निर्मल धर्म पाय ऐसी बिभूति को प्राप्त भया अब में ऐसा पाप कैसे करूं अल्प मात्र भी पापकर महादुःखकी प्राप्ति होयहै पाप से यह जीव संसार वनविषे बहुत काल दुख रूप अग्नि में जले है जो दयावान निदोर्षहै जिसकी भावना महासावधानरूप है सो धन्यहै सुगतिनामा रत्न उसके हाथमें है वह देव ऐसा विचारकर दयावान होयकर बालकको आभूषण पहिराय कानन विषे महा देदीप्यमान कुण्डल घाले परणलब्धीनामा विद्याकर आकाशसे पृथ्वीविषेसुखकी ठौर पधराय आप अपने घाम गया सो रात्रीके समय चन्द्रगतिनामा विद्याधरने इस बालकको आभरणकी ज्योतिकर प्रकाशमान श्राकाशसे पड़ता देखा तब बिचारी कि यह नक्षत्रपात भया तथा विद्युत्पातभया यह बिचारकर निकट अाए देखे तो बालकहै तब हर्षकर बालकको उठाय लिया और अपनी राणी पुष्पवती जो सेजमें सूती
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पद्म थी उसकी जांघोंके मध्यधर दिया और राजा कहताभया हे राणी उठो उठो तुम्हारे बालक भयाहै बालक पुराण
महाशोभायमानहै तब राणी सुन्दरहै मुख जिसका ऐसे बालकको देख प्रसन्न भई उसकी ज्योति के ॥४११५ ॥
समूहकर निद्रा जाती रही महाविस्मयको प्राप्तहोय राजाको पूछती भई हे नाथ यह अद्भुत बालक कौन पुण्यवती स्त्रीने जाया । तब राजाने कही हे प्यारी तैंने जना, तो समान और पुण्यवती कौन धन्य है भाग्य तेरा जिसके ऐसा पुत्र भया तब वह गणी कहती भई हे देव मैं तो बांझहूं मेरेपुत्र कझं एक तो मुझे पूर्वोपार्जित कर्मने ठगी फिर तुम क्यों हास्य करोहो तब गजाने कही हे देवी तुम शंका मत करो स्त्रियोंके प्रछन्न (गुप्त) भी गर्भ होयहै तब राणीने कही ऐसेंही हो हुं परन्तु इसके यह मनोहर कुंडल कहांसे श्राए ऐसे भूमंडलमें नहीं तब राजाने कही हे राणी ऐसे बिचारकर क्या यह बालक अाकाशसे पड़ा और में झेला तुझे दिया यह बड़े कुलका पुत्रहै इसके लक्षणोंकर जानिए है यह मोटा पुरुषहै अन्य स्रीतो गर्भके भारकर खेदखिन्न भई है परन्तु हे प्रिये तैंने इसे सुखसे पाया और अपनी कुक्षिमें उपजा भी बालक जो मातापिताका भक्कन होय और विवेकी न होय शुभकाम न करतो उसकर क्या कईएक पुत्र शत्रु समानहोय परणवे हैं इसलिये उदरके पुत्रका क्या विचार तेरेयह पुत्र सुपुत्र होयगा शोभनीकवस्तुमें सन्देह क्या अब तुम इस पुत्रको लेवोऔर प्रसूतिके घरमें प्रवेशकर और लोकोंको यही जनावना जो राणीके गुप्त गर्भथा सो पुत्रभया तंब राणी पतिकी आज्ञा प्रमाण प्रसन्न होय प्रमूतिगृहमें गई प्रभातमें राजाने पुत्रके जन्मका उत्सव किया रथनूपुरमें पुत्रके जन्मका ऐसा | उत्सवभया जो सर्व कुटम्ब और नगरके लोग आश्चर्यको प्राप्तभए रत्नोंके कुंडलकी किरणोंकर मंडित ।
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पराव 11४१२॥
जो यह पुत्र सो मातापिताने इसका नाम प्रभामंडल परा और पोपने के निमिच धायको सौंपा सर्व अंतःपुर की राणी श्रादि सकल स्त्री तिनके हाथरूप कमलोंका भ्रमर होता भया भावार्थ यह बालक सर्व लोकोंको बल्लभ बालक सुखको तिष्ठे है यह तो कथा यहाँही रही।
अथानंतर मिथिलापुरमें राजा जनककी सनी विदेहा पुत्रको हस जान विलाप करती भई अति ऊंचे स्वरकर रुदन किया सर्व कुटम्बके लोक शोकसागरमें पडे राखी ऐसे पुकारे मानों शस्त्रकर मारी हे हाय पुत्र तुझे कौन लेगया मुझे महा दुःखका करनहारा कह निर्दई कठोर चिसके हाथ तेरे लेनेपर कैसे पड़े जैसे पश्चिम दिशाकी तरफ सूर्य प्राय अस्त होय जाय तेसे तूमेरे मदभागिनीके आयकर अस्तहोय गया मैं भी परमवमें किसीका बालक विछोहाथा सो मैं फलपाया इस लिये कभी भी अशुभ कर्म, न करना जो अशुभकर्म है सो दुःसका वीजजसे वीज बिना वृक्ष नहीं तैसे अशुभकर्म बिना दुःख नहीं जिसपापीने मेरा पुत्र हरा सो मुझेही क्यों न मार गया अधमुईकर दुःखके सागरमें काहंको डबो गया इसभांति राणीने अति विलाप किया तब राजाजनक पाय धीर्य बंधावताभया हे प्रिये तु शोकको मत। प्राप्त होवे तेरा पुत्र जीवे है किसीन हराहे सो त निश्चय सेती देखेगीथा काहेको रुदनकरे है पूर्वकर्म के प्रभावकर गई वस्तु कोईतो देखिए कोई नदेखिएतूस्थिरताको प्राप्तहो राजा दशरथ मेरापरम मित्र है सो उसको यह वार्ता लिखू हूं वह और मैं तेरे पुत्रको तलाशकर लावेंगे भले २ प्रवीण मनुष्य तेरे । पुत्रके इंदिवेको पठावेंगे इसमांति कहकर राजाजनकने अपनी स्त्रीको संतोष उपजाय दशरथ पास लेख भेजासो दशरथ लेखवांच महा शोकवतभया राजादशरय और अनक दोनोंने पृथ्वीमें बालकको तलाश
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पद्म
पुराण
किया परन्तु कहीं भी देखा नहीं तब महाकष्टकर शोकको दाब बैठ रहे ऐसा कोई पुरुष अथवा स्त्री नहीं #४९३" जो इस बालक के गए सुयोंकर भरे नेत्र न मया होय सबही शोकके बशहोय रुदन करते भए । अथानन्तर प्रभामंडल के गएका शोक भुलावनेको महा मनोहर जानकी बाल लीला करे सर्व लोकको आनन्द उपजावती भई महा हर्ष को प्राप्त भई जो स्त्रीजन उनकी गोद में तिष्ठती अपने शरीरकी कातिर दशों दिशा को प्रकाशरूप करती वृद्धिको प्राप्त भई कैसी है जानकी कमल सारिखे हैं नेत्र जिस के और महासुकंठ प्रसन्न वदन मानों पद्मद्रह के कमल के निवास से साक्षात् श्री देवी ही आई है, उसके शरीररूप क्षेत्र में गुणरूप धान्य निपजतेभए ज्यों ज्यों शरीर बढ़ा त्यों त्यों गुण बढे समस्त लोकों को सुखदाता अत्यंतमनोज्ञ सुन्दर लक्षणों कर संयुक्त है अंग जिस का, सीता कहिए भूमि उस समान क्षमा की घरणहारी इसलिये जगत् में सीता कहाई, बदन कर जीता है चन्द्रमा जिसने पल्लव समान हैं कोमल भारक्त हस्त जिसके, महाश्याम महासुन्दर इन्द्रनील मणि समाम हैं केशों के समूह जिसके और नीती है मदकी भरी हंसनी की चाल जिसने और सुन्दर हैं भों जिसकी और मोलश्री के पुष्प समान मुख की सुगन्ध गुंजार करे हैं अगर जिस पर अतिकोमस्त्र हैं पुष्पमाखा समान भुजा जिसकी ओर केही समान है कटि जिसकी और महाश्रेष्ठ रस का बस जो केलेका गंभ उस समान हैं जंघा जिसकी स्थल कमल समान महाममोहर हैं पर जिसके और अतिसुन्दर हैं कुचयुग्म जिसका अति शोभायमान है रूप जिसका महाश्रेष्ठ मंदिर के चांगल में महारमयीक सातसे कन्याओंके समूह में शास्त्रोक्त कीब करे, जो कदाचित् इन्द्र की पटराणी रात्री बच्चा चकवच की पटराणी सुभद्रा इसके अंग की शोभा को
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पा
पुराण
॥४९४।।
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किंचित्मात्र भी धरें तो वे अतिमनोग्यरूप भासें जैसी यह सीता सब से सुन्दर है, इसको रूप गुण युक्त देख राजा जनक ने विचारा, जैसे रति कामदेव ही को योग्य है तैसे यह कन्या सर्व विज्ञान युक्त दशस्थ बड़े पुत्र जो राम तिनही के योग्य है सूर्य्य की किरण के योग से कमल की शोभा प्रकट होत है ॥ ॥ इति बब्बीसवां पव पूण भया ॥
अथानन्तर राजा श्रेणिक यह कथा सुनकर गौतमस्वामीको पूछताभया हे प्रभो जनकने रामका क्या माहात्म्य देखा जो अपनी पुत्री देनी विचारी तव गणधर चित्तको आनन्दकारी वचन कहतेभए हे राजन् महा पुण्याधिकारी जो श्रीरामचन्द्र तिनको सुयश सुन जिसकारणसे जनकने रामको अपनी कन्या देनी विचारी । बैताब्यपर्वत के दक्षिण भाग में और कैलाश पर्बत के उत्तर भाग में अनेक अन्तर देश बसे है तिनमें एक अर्धववर देश असंयमी जीवोंका है जहां महा मूढ़ जन निर्दई म्लेच्छ लोकों कर मरा उस में एक मयूरमाला नामा नगर काल के नगर समान महा भयानक वहाँ अन्तरगत नामा म्लेच्छ राज्य करे सो महा पापी दुष्टों का नायक महा निर्दई बड़ी सेना से नाना प्रकार के आयुधों कर मण्डित सकल म्लेच्छ संगले आर्य देश उजड़नेको आया सो अनेक देश उजाड़े कैसे हैं म्लेच्छ करुणाभाव रहित प्रचण्ड हैं चित्त जिनके और अत्यन्त है दौड़ जिनकी सो जनक राजाका देश उजाड़नेको उद्यमी भए जैसे टिड्डीदल आवे तैसे म्लेच्छोंके दल आए सबको उपद्रवकरणलगे तब राजा जनकने अयोध्या को शीघ्र ही मनुष्य पठाए म्लेच्छके आवने के सब समाचार राजा दशरथ को लिखें सो जनक के जन शीघ्र जाय सकलवृत्तान्त दशरथ सों कहते भए हे देव जनक वीनती करी है परचक्र भीलोंका याय
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पन पुराण ॥४१॥
सो सव पृथिवी उजाड़े है अनेक आर्य देश विध्वंस किये वे पापी प्रजा को एक वर्ष कियाचाहे हे सो प्रजा नष्टभई तब हमारे जीनेकर क्या अब हमको क्या कर्तव्य है उनसे लड़ाई करना अथवा कोई गढ़ पकड़ तिष्ठे लोगोंको गढ़ में राखें कालिंद्रिभागा नदीकीतरफ विषम म्लेच्छहें कहांजावें अथवा विपुलाचल की तरफ जावें अथवा सर्व सेना सहित कुंजगिरिकी ओर जा पर सेना महा भयानक आये है सोधु श्रावक सर्वलोक अति विहल हैं वे पापी गो आदि सव जीवों के भक्षक हैं सो जो आप आज्ञा देवें सो करें यह राज्य भी तुम्हारो और पृथिवी भी तुम्हारी यहांकी प्रतिपालना सब तुमको कर्तव्यहै प्रजा की रक्षा किये धर्मकी रक्षा होय है श्रावक लोक भाव सहित भगवानकी पूजा करे हे नानाप्रकारके व्रत घरे हे दान करे हे शील पाले हैं सामायिक करे हैं पोशा परिक्रमणा करे हैं भगवानके बड़े बड़े चैत्यालयों में महाउत्सव होय हे विधि पूर्वक अनेक प्रकार महा पूजा होय है.अभिषेक होय है क्वेिकी लोक प्रभोवना करे हैं और साधु दश लक्षण धर्मकर युक्त आत्मच्यान में भारद मोघ का साधन तपकरे हे सो प्रजाके नष्ट भए साघु और श्रावक का धर्म लुपे है और प्रजा के होते धर्म अर्थ काम मोक्ष सब सफें हैं जो राजा पर चक्र से पृथिवी की प्रतिपालना करे सो प्रशंसा के योग्य है राजा के प्रजाकी रक्षासे इस लोक परलोकविपे कल्याण की सिद्धि होय है प्रजाबिना राजा नहीं और सजाबिना प्रजानहीं जीवदया मय धर्मका जो पालन करे सो यह लोक परलोक में सुखी होय है धर्म मर्थ काम मोच की प्रवृत्ति लोगों के राजाकी रक्षा से होयहै अन्यथा कैसे होय राजाके भुजबलकी बाया पायकर प्रजा सुखसे रहे है जिस के देशमें धर्मात्मा धर्म सेवन करे हैं दान तपशील पूजादिक करे हे सो प्रजाकी रक्षाके योगसे छठा अंश ।
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॥४१६॥
रोजाको प्राप्त होय है यह सर्व वृत्तांत राजा दशरथ सुनकर भाप चलनेको उद्यमीभए और श्रीरामको बुलाय राज्य देना विधारा वादिनों के शब्द होतेभए त मन्त्री मार और सब सेवक पाए हाथी घोड़े स्व पयादे सब पाप गढ़े भए जलको भरे स्वर्षमयी कलश स्नान के निमित्त सेवक लोग भरसाए और शस्त्र बांध कर बड़े बड़े सामन्त लोक पाए और नृत्यकारिणी नृत्य कस्ती भई और राजलोक की सी जन नाना प्रकार के बस प्राभूषण पाम में खेले भाई यह राजाभिषेकका प्रारंवर देखकर राम दरारप से पूछते भो कि हे प्रभो यह क्या है तक दशरयने कही हे पुत्र तुम इस पृथिवीकी प्रतिपालना करो में ममा के हित निमित्त सत्रुकों के समूहसे सड़नेजाजा वे शत्रु देवोंफरभी दुर्जयहें तप कमलसारिखे नेत्रो जिसके ऐसे भीराय काइले गए हे तात ऐसे रंकन पर एता पस्त्रिय कहां वे आपके जायचे लायक नहीं के पशुसमान दुरास्मा निमसे संभाषण करनाभी उचित नहीं जिनके सन्मुख युद्धकी अभिलाषाकर भाप कहां पधारे उन्दर (वहा) के उपद्रव कर हस्ती क्रोध न करे और रुईके भस्मकरनेके अर्थ अग्नि कहां परिश्रम करे उमपर जानेकी हमको आज्ञा करो यही उचित है ये गमके वचनसुन दशरथ प्रति हर्षितभये तब रामको उरसे लगोय कर कहते भए हे पद्मकमल समान हे नेत्र जिसके ऐसे तुम बालक सुकुमार अंग कैसे उन दुष्टोंको जीतोगे यह बात मेरे मनमें न आवे तब राम कहतेभपे हे तात क्या तत्कालका उपजा अग्निका कणका मात्रभी विस्तीर्ण बनको भस्म न करे करेही करे छोटी बड़ी अवस्थापर क्या प्रयोजन और जैसे
अकेला उगताही बाल सूर्य घोर अंधकार के समूहको हरेही हरे तैसे हम बालकही तिन दुष्टोंको जीतेंही | जीतें ये बचन रामके सुनकर राजा दशरथ अतिप्रसन्नभए रोमांच होय पाए और बालक पुत्रके भेजने ।
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॥४१॥
पद्म का कछु इक विषादभी उपजा नेत्र सजल होयगए राजा मनमें विचारे है जो महा पराक्रमी त्यागादि |
बत के धारणहारे क्षत्री तिनकी यही रीति है जो प्रजाकी रक्षा के निमित्त अपने प्राणभी तजने का उद्यम करें अथवा आयुके क्षय विना मरणनहीं यद्यपि गहन रणमें जाय तोभी न मरे ऐसाचितवन करतो जो राजा दशरथ उसके चरणकमल युगको नमस्कारकर रामलक्ष्मण बाहिर निसरे सर्व शास्त्र और शस्त्र विद्या में प्रवीण सर्व लक्षणोंकर पूर्ण सबको प्रिय है दर्शन जिनका चतुरंग सेनाकर मण्डित विभूतिकर पूर्ण अपने तेजकर देदीप्यमान दोनों भाई राम लक्ष्मण स्थ में प्रारूढ़ होय जनककी मदतचले सो इनके जायबे पहिले जनक और कनक दोनोंभाई परसेनाका दोयोजनअन्तर जान युद्ध करणेकोचढ़े थे सो जनक के महारथी योघा शत्रुवोंके शब्द न सहते संते म्लेच्छों के समूहमें नैसे मेघकी घटामें सूर्यादि ग्रहप्रवेश करें तैसे यह थे सो म्लेच्छोंके और सामंतोंके महायुद्ध भया जिसके देखे और सुने रोमांच होय भावें कैसा
संग्राम भया बड़े शस्त्रनका है प्रहार जहां दोनों सेनाके लोक व्याकुलभए कनकको म्लेंछका दवाव भया तब | जनक भाईकी मदतके निमित्त अतिक्रोधायमान होय दुर्निवार हाथियोंकी घटा प्रेरता भया सो वेवरवर ' देश के म्लेल महा भयानक जनकको भी दबावते भये उसी समय राम लक्ष्मण जाय पहूंचे अति अपार
महागहन म्लेछ की सेना रामचन्द्र ने देखी, सो श्री रामचन्द्र का उज्ज्वल छत्र देख कर शत्रुवों की सेना कंपायमान भई, जैसे पूर्णमासी के चंद्रमा का उदय देखकर अंधकार का समूह जे चलायमान होय, म्लेछों | केवाणों कर जनक का वषतर टूट गया था और जनक खेदखिन्न भया था सो राम ने धीर्यबंधाया जैसे । संसारी जीत द्रों के उदय कर दुःखी होय सो धर्म के प्रभाव कर दुखों से छूट सुखी होय तैने जनक
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पद्म
| राम के प्रभाव कर सुखी भया, चंचल तुरंगों कर युक्त जो स्थ उस में प्रारुढ जो राघव महाउद्योत रूप ॥४१८० है शरीर जिनका वषतर पहिरे हार और कुंडल कर मंडित धनुष चढ़ाए और बाण हाथमें सिंहके चिन्ह
की है ध्वजा जिनके और जिन पर चमर दुरे हैं और महामनोहर उज्ज्वल छत्रसिर पर फिरे हैं पृथिवीके रक्षक धीरवीरहै मन जिनका असे श्रीरामलोकके वल्लभ प्रजाके पालक शत्रुवों की विस्तीर्ण सेना में प्रवेश करते भए सुभटों के समूह कर संयुक्त जैसे सूर्य किरणों के समूह कर सोहै तैसे शोभते भए जैसे माता हाथी कदलीवन में बैठा केलोंके समूह का विध्वंस करे तैसे शत्रुवों की सेना का भंगकिया जनक और कनक | दोनों भाई बचाए और लक्ष्मण जैसे मेघ बरमें तैसे वाणों की वर्षा करता भया, तीक्ष्ण सामान्य चक्र
और शक्ति कनक त्रिशूल कुठार करीत इत्यादि शस्त्रों के समूह लक्ष्मण के भुजावों कर चले उन कर अनेक म्लेछ मुवे जैसे फरसीनकर वृक्ष कटें वे भील पारधी महाम्लेछ लक्ष्मणके बाणेकर विदारे गये हैं उरस्थल जिनके कटगई हैं भुजा और ग्रीवा जिनकी हजारां पृथ्वीमें पड़े तब वे पृथ्वी के कंटक तिनकी सेना लक्ष्मण अागे भामी लक्ष्मण सिंहसमान दुर्निवार उसे देखकर जे म्लेलों में शार्दूल समान थे वेभी अतितोभको प्राप्त भए महाकादित्रों के शब्द करते और मुखसे भयानक शब्द बोलते और धनुषबाण खडग चक्रादि अनेक शस्त्रों को घरे और रक्त बस्त्र पहिरे खंजर जिनके हाथमें नाना वर्ण का है अंगजिनका के यक काजल समान श्यामकै यक कर्दम समान कै यक ताम्रवर्ण वृक्षों के बक्कल
पहिरे और नानाप्रकार के गेरुवादि रंगतिनकर लिप्त हैं अंग जिनके और नाना प्रकारके वृत्तोंकी मंजरी | तिनके हैं छोगा सिरपर जिनके,और कौड़ी सारिखे हैं दांत जिनके और विस्तीर्ण हैं उदर जिनके ऐसे
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पुराण ॥४१॥
भासें मानों कुटक जाति के वृक्षही फूलेहें और कै यक भील भयानक आयुधों कोधरेकठोर हैं जंघाजिन की भारी भुजावों के धरणहारे अमुरकुमार देवों सारिखे उनमत्त महा निर्दई पशुमांसके भक्षक महादृढ़ जीव हिंसाविषे उद्यमी जन्मही से लेकर पापोंके करणहारे तत्काल खोटे प्रारम्भन के करणहारे और सूकर भैंसा व्याघ्र ल्याली इत्यादि जीवोंके चिन्हहैं जिनकी ध्वजावों में नानाप्रकार के जे बाहन तिन पर चढ़े पत्रों के छत्र जिनके नानाप्रकार के युद्धके करण हारे अति दौड़ के करणहारे मया प्रचन्ड तुरंग समान चंचल वे भील मेघमाला समान लक्ष्मणरूप पर्वतपर अपने स्वामी रूपपवनके प्रेरेबाण। वृष्टि करते भए तबलक्ष्मण तिनके निपात करनेको उद्यमी तिनपर दौडे महाशीघ्र है वेग जिनका जैसे । महा राजेंद्र वृक्षोंके समूह पर दौडेसो लक्ष्मण के तेज प्रतापकर वे पापी भागे सो परस्पर पगों कर मसले गए तब उनका अधिपति अन्तरगत अपनी सेना को धीर्य बंधाय सकल सेना सहित श्राप लक्ष्मण के सन्मुख पाया महाभयन्कर युद्ध किया लक्ष्मणको रथ रहित किया तब श्रीरामचन्द्रने अपना रथचलाया पवनसमान है वेग जिसका लक्ष्मणके समीपाए लछमण कोदूजरथ पर चढाया औरआप जैसे अग्नि वन को भस्म करे तैसे तिनकी अपार सेना को बाण रूप अग्नि कर भस्म करते भए कैयकतोबागोंसे मारे और कैयककनकनामा शस्त्रसेविध्वंसे कैयक तोमरनामा श्रायुधसे हते कैयक सामान्य चक्रनामा शस्त्रसे निपात किए वह म्लेछौकी सेना महाभयंकर प्रत्येक दिशाको जातीरही क्षत्रचमर ध्वजा घनुष आदि शस्त्रडारडार भाजे महा पुण्याधिकारी जो राम उसने एक निमिष में ग्लेखोंका निराकरण कियाजैसे महामुनि क्षणमात्रमें सर्व कषायोंका निपात करें तैसे उसने किया वह पापी अंतरंगत अपारसेना |
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॥४२॥
पद्म || रूप समुद्रकर आयाथा सो भयखाय दस घोड़ोंके असवारोंसे भागा तब श्रीरामने आज्ञाकरी ये नपुंसक |
युद्धसे पराङ्मुख होय भागे अब इनके मारनेसे क्या तब लक्ष्मण भाईसहित पीछे बाहुडे वे म्लेछ भय से व्याकुलहोय संह्याचल विन्ध्याचलके बनोंमें छिप गए श्रीरामचन्द्रके भयसे पशु हिंसादिक दुष्ट कर्म को तज बन फलोंका आहार करें जैसे गरुड़से सर्प डरे तैसे श्रीरामसे डरतेभए । लक्ष्मणसहित श्रीराम ने शांतह स्वरूप जिनका राजा जनकको बहुत प्रसन्न कर विदा किया और श्राप पिता के समीप अयोध्याको चले सर्व पृथ्वीके लोक आश्चर्यको प्राप्तभए यह सबको परम आनन्द उपजा परम हर्ष मान रोमांचहोय आए । रामके प्रभावसे सब पृथ्वी विभूतिसेशेभायमानभई जैसे चतुर्थकालके आदि अषभदेवके समय सम्पदासे शोभायमान भईथी धर्म अर्थ कामकर युक्त जे पुरुष तिनसे जगत ऐसा भासताभया जैसे बर्फके अवरोधकर वर्जित जे नक्षत्र तिनसे आकाश शोभे ।गौतमस्वामी कहे हे हे राजा श्रेणिक ऐसा रामका माहात्म्य देखकर जनकने अपनी पुत्री सीताको रामको देनी बिचारी बहुत कहनेसे क्या जीवोंके संयोग अथवा वियोगका कारणभाव एक कर्म का उदयही है सो वह श्रीराम श्रेष्ठ पुरुष महासौभाग्यवन्त अतिप्रतापीऔरनमें न पाइये ऐसे गुणोंकर पृथिवीमें प्रसिद्ध होता भया जैसे किरणोंके समूहकर सूर्य महिमा को प्राप्त होय ॥ इति सत्ताईसवां पर्व सम्पूर्णम् ।
अथानन्तर ऐसे पराक्रमकर पूर्ण जो राम तिनकी कथा बिना नारद एकक्षणभी न रहे सदागम कथा करवोही करें कैसाहै नारद रामके यश सुनकर उपजाहै परम आश्चर्य जिसको फिर नारदने सुनी | जो जनकने रामको जानकी देनी विचारी कैसी है जानकी सर्व पृथिवीमें प्रकटहै महिमा जिन की
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पन पुराम ॥४२१॥
नारद मनमें चितवताभया । एक बार सीताको दे कि वह कैसीहै कैसे लक्षणोंकर शोभायमानहै जो जनकने रामको देनी करी है सो नारद शीलसंयुक्तहै हृदय जिसका सीताके देखने को सांताके घर आया सो सीता दपर्णमे मुख देखती थी सो नारदकी जटा दर्पणमें भासी सो कन्या भयकर ब्याकुल भई मनमें चितवती भई हाय माता यह कौनहै भयकर कम्पायमान होय महिलके भीतर गई नारद भी लारही महिलमें जाने लगे तब द्वारपाली ने रोका सो नारदके और द्वारपाली के कलह हुआ कलहके शब्द मुन खडग के और धनुषके घारक सामन्त दौड़े ही गए कहते भए पकड लो पकड लो यह कौन है । ऐसे तिन शस्त्र धारियों के शब्द सुनकर नारद डरा आकाशमें गमनकर कैलाश पर्वत गया वहां तिष्ठ कर चितवता भया कि में महाकष्ट को प्राप्त भयाथा सा मुशकिल से वचा नवा जन्म पाया जैसे पक्षी दावानलसे बाहिर निकसे तैसे में वहां से निकसा। सो धोरे धीरे नारदकी कांपनी मिटी और ललाटके पसेव पूंछे केश विसर गएथेवेसमार कर बान्धे कांपे हैं हाथ जिसके ज्योज्यों वह बात याद आवे त्योत्यों निश्वासनाषे महाक्रोधायमान होय मस्तक हलाय ऐसे विचारता भया कि देखो कन्या
की दुष्टता में अदुष्टचित्त सरलस्वभाव रामके अनुरागसे उसके देखनेको गयाथा सो मृत्युसमान अवस्था। | को प्राप्त भया यह समान दुष्ट मनुष्य मुझे पकड़ने को बाए सो भलीभई जो क्वा पकड़ा न गया।व।
वह पापिनी मेरे आगे कहां बचेगी जहाँ जहां जाय तहां ही उसे कष्ट में नाखू मेंबिना बजाये वादित्र नाचूं सो जब बादित्रबाजेतब कैसेटरू ऐसा विचारकरशीघही वैताडय को दक्षिण श्रेणि विषे जोरथन पुरु | नगर वहां गया महा सुन्दर जो सीता का रूप सो चित्रपट विषे लिख लेगया कैसा है सीता का रूप
-BaapMALE
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पुराण ॥४२॥
महासुन्दर है ऐसा लिखा मानों प्रत्यक्षही है सो उपबन विषे चन्द्रगतिका पुत्र भामण्डल अनेक कुमारों। || सहित क्रीडा करने को आया था सो चित्रपट उस के सभीष डार श्राप छिप रहा सो भामण्डल ने यहतो
न जानीकि यह मेरी बहिनका चित्रपटहै परन्तु चित्रपट देख मोहित भया लज्जा और शास्रज्ञान और विचार सब भूल गया लम्बे लम्बे निश्वास नापे होठ सूक गए गात शिथिल होयगया रात्रि दिवस निदान
आवे अनेक मनोहर उपचार कराए तो भी इसे सुख नहीं सुगन्ध पुष्प और सुन्दर आहार इसे विष समान लगें।शीतल जलसेवांटिये तो भी सन्ताप न मिटे कभी मौन पकड़रहे कभी हंसे कभी विकथा बके कभी उठ खड़ा रहे बृथा उठ चले फिर पीछे श्रावे ऐसी चेष्य करे मानों इसे भूत लगा है तब बड़े बड़े बुद्धिमान इसे कामातुर जान परस्पर बात करते भए कि यह कन्या का रूप किसी ने चित्र पट विषे लिखकर इसके ढिग आय डारा सो यह विक्षिप्त होय गया कदाचित यह चेष्यनारद ने ही करा होय तब नारदने अपने उपोयकर कुमार को व्याकुल जान लोकों की बात सुन कुमार के बन्धूवोंको दर्शन दिया तब तिनने बहुत आदर कर पूछाहे देव कहो यह कौन की कन्याका रूपहै। तुमने कहां देवीक्या यह । कोई स्वर्गकी देवांगना को रूपहै अथवा नाग कुमारी का रूप है पृथिवी विषे आई होवेगी सो तुमने देखी तब नारद माथा हलाय कर बोला कि एक मिथिला नाम नगरीहै वहां महासुन्दर राजा इद्र केतु का पुत्र जनक राज्य करे है उसके विदेहा राणी है सो राजा को अति प्रिय है तिन की पुत्री सीताका यह रूपहै ऐसा कह कर फिर नारद भामण्डल से कहते भए हे कुमार तू विषाद मत कर तू विद्याधर | राजा का पुत्र है तुझे यह कन्या दुर्लभ नहीं सुलभही है । और तू रूप मात्र ही से क्या अनुरागी भया।
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पन्न
॥४२३॥
। इसमें बहुत गुण हैं इस के हाव भाव विलासादिक कौन वर्णन कर सके और यही देख तेरा चित वशीभूत हुया सो क्या आश्चर्य है। जिसे देखे बड़े पुरुषों का भी चित्त मोहित होयजाय । में तो यह
आकारमात्र पट में लिखा है उसकी लावण्यता उस ही विषे है लिखने में कहां आवे नवयौवन रूपजल कर भरा जो कान्ति रूप समुद्र उस की लहरों विषे वह स्तन रूप कम्भों कर तिरे है और ऐसी स्त्री तुझे टार और कौन को योग्य तेरा और उस का संगम योग्य है इस भान्ति कह कर भामंडलको अति स्नेह उपजाया और पाप नारद आकाश में बिहार कर गए भामंडल कामके बाण कर वेध्या अपने चित्तमें विचारता भया कि यदि यह स्त्री रत्न विही मुझे न मिले तो मेरा जीवना नहीं देखो यह श्राश्चर्य है वह मुन्दरी परमकांति की धरणहारी मेरे हृदय में तिष्ठती हुई अग्निकी ज्वाला समान हृदय को प्राताप करे है सूर्य है सो तो वाह्य शरीर को प्राताप करे है और कामह सो अन्तर वाह्यदाह उपजावे है सो सूर्यके आताप निवारवेको तो अनेक उपायहै परंतु कामके दाह निवारवेका उपाय नहीं अब मुझे दो अवस्था आय बनी, कैतो उसका संयोग होय अथवा कामके वाणों कर मेग मरण होयगा निरन्तर ऐसा विचारता हुवा भामंडल विव्हल होगया सो भोजन तथा शयन सब भूल गया ना महल में ना उपबन में इसे किसी गैरसाता नहीं यह सब वृत्तान्त कुमार के व्याकुलता का कारण नारदकृत कुमारकी माता जानकर कुमारके पिता से कहतीभई हे नाथ अनर्थका मूल जो | नारद उसने एक अत्यन्त रूपवतीस्री का चित्रपट लाय कर कुमार को दिखाया सो कुमार चित्रपट को देख कर पति विभ्रम चित्तहोय गया सोधीर्य नहीं घरे है लज्जा रहित होय गया है बारम्बार चित्रपट को निरखे
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॥४२॥
पद्म || है और सीता ऐसे शब्द उच्चारण करे है और नाना प्रकार की प्रज्ञानचेष्टा करे है मानों इसे वाय लगी
है इसलिये तुम शीघ्र ही सीता उपजावने का उपाय विचारो वह भोजनादिक से पराण्मुख होय गया है सो उसके प्राण न छूटें इस पहिले ही यत्न करो । तब यह वार्ता चन्द्रगति सुन कर अति व्याकुल भया अपनी स्त्री सहित प्राय कर पुत्र को ऐसे कहता भया हे पुत्र तू स्थिरचिच हो और भोजनादि सर्वक्रिया जैसे पूर्वे करे था तेसे कर जो कन्या तेरे मन में बसी है सो तुझे शीघ्र ही परणाऊंगा, इसभान्ति कहकर पुत्रको शांतता उपजाय राजा चन्द्रगति एकान्त में हर्ष विषाद भोर पाश्चये को घरता संता अपनी स्त्री से कहता भवा हे प्रिये विद्याधगें की कन्या अतिरूपबन्ती अनुपम उन को तज कर भूमिगो. चरियों का सम्बन्ध हम को कहां उचित, और भमिगोवरियों के घर हम कैसे जावेंगे भौर जो कदाचित हम आय प्रार्थना करें और वह न दें तो हमारे मुख की प्रमा कहां रहेगी, इसलिये कोई उपाय कर कन्या के पिता को यहां शीघ्र ही ल्याबें और उपाय नहीं, तब भामंडल की माता कहती भई हे नाथ युक्त अथवो अयुक्त तुमही जानों तथापि ये तुम्हारे वचन मुझे प्रिय लगे हैं। __अथानन्तर चन्द्रगतिराजाने एक अपने सेवक चपलवेग नामा विद्याधर को आदर सहित बुलाय कर सकल वृत्तान्त उसको कान में कहा और नीके समझाया सो चपलवेग राजा की आज्ञा पोय बहुत हर्षित होय शीघ ही मिथिला नगरी को चलो, जैसे प्रसन्न भया तरुण हंस सुगंध की
भरी जो कमलनी उसकी ओर जाय, यह शीघ्र ही मिथिलानगरी जाय पहुंचा पाकास से उतर कर | अश्व का भेष धर गांय महिषादि पशुओं को त्रास उपजावता भया, राजा के मंडल में उपद्रव ,
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पा
पुराण
॥४५॥
किया तब लोगों की पुकार आई सो राजा सुनकर नगर के बाहिर निकसा प्रमोद उद्वेग
और कौतुक का भरा राजा अश्वको देखता भया कैसा है अश्व नौयौवनहै और उछलता संता अति तेजको घरे मन समान है वेग जिसका सुन्दर हैं लक्षण जिसके और प्रदक्षिणारूप महा प्रावर्तको घरे है मनोहर है मुख जिसका और महा बलवान खुरों के अग्रभाग कर मानो मृदंगही बजावे है जिसपर कोई चढ़ न सके और नाशिका का शब्द करता संता अति शोभायमान है ऐसे अश्व को देखकर राजा हर्षित होय बारम्बार लोकों से कहताभया यह किसीका अश्व बन्धन तुड़ाय पाया है तब पण्डितों के समूह राजा से प्रिय वचन कहते भये हे राजन इस तुरंग के समान कोई तुरंगही नहीं औरोंकी तो क्या बात ऐसा अश्वराजाके भी दुर्लभ आपके भी देखने में ऐसा अश्व न आया होयगा सूर्य के रथके तुरंगों की अधिक उपमा सुनिएई सो इस समानतो वेभी न होवेंगे कोई दैवके योगसे आपके निकट ऐसा अश्व आया है सो आप इसे अंगीकार करो आप महापुण्याधिकारी हो तब राजाने अश्वको अंगीकार किया अश्वशाला में ल्याय सुन्दर डोरियों से बांधा और भांति भांतिकी योग सामग्री कर इसके यत्नकिए एक मास इसका यहां हुवा एकदिन सेवकने आय राजाको नमस्कारकर विनती करी हे नाथ एक बनका मतंग गज आपाहे सो उपद्रवकरे है तब राजा बड़े गजपर असघार होयउस हाथीकी ओर गए वह सेवक जिसने हाथीका वृत्तान्त आय कहाथा उसके कहे माग कर राजा ने महावन में प्रवेश किया सो सरोवरके तट हाथी खड़ा देखा और चाकरों से कहा जो एक तेज तुरंग ल्यावो तब मायामई अश्वको तत्काल लेगए सुन्दर है शरीर जिसका राजा उसपर चढ़े सो वह आकाशमें राजाको लेउड़ा तब सब परिजन पुरजम ।
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४२६॥
हाहाकार कर महा शोकवन्तभए आश्चर्यकर व्याप्त हुवा है मम जिनका तत्काल पीछे नगरमें गए ॥
अथानन्तर वह अश्वके रूप का धारक विद्याधर मन समान है वेग जिसका अनेक नदी पहाड़ बन उपवन नगर ग्राम देश उलंघ कर राजा को स्थनूपुर लेगया जब नगर निकट रहा तब एक वृक्षके नीचे आय निकसा सो राजा जनक बृक्षकी डाली पकड़ लूंब रहा वह तुरंग नगरमें गया राजा वृक्षसे उतर विश्रामकर आश्चर्य सहितआगे गया वहां एक स्वर्ण मई ऊंचा कोट देखा और दरवाजा रत्नमई तोरणों कर शोभायमान और महा सुन्दर उपवन देखा उसमें नाना जातिके वृक्ष और बेल फल फूलों कर संपूर्ण देखे उनपर नाना प्रकार के पक्षी शब्द करे हैं और जैसे सांझके वादले होवें तैसे नानारंग के अनेक महिल देखे मानों ये महिल जिन मन्दिर की सेवाही करे हैं तब रोजा खड़गको दाहिने हाथ में मेल सिंह समान अति निशंक क्षत्री व्रतमें प्रवीण दरवाजे गया दरवाजेके भीतर नानाजातिके फूलों की बाड़ी और रत्न स्वर्ण के सिवाण जिसके ऐसी वापिका स्फठिकमणि समान उज्ज्वलहै जल जिसका
और महा सुगन्ध मनोग्य विस्तीर्ण कुन्द जातिके फूलों के मण्डप देखे चलायमान हैं पल्लवोंके समूह जिनके और संगीत करे हे भ्रमरों के समूह जिनपर और माधवी लतावोंके समूह फूले देखे महा सुन्दर
और आगे प्रसन्न नेत्रोंकर भगवानका मन्दिर देखा कैसा है मन्दिर मोतियों की मालरियों कर शोभित रत्नों के झरोलों कर संयुक्त स्वर्ण मई हजारां महास्तम्भ तिनकर मनोहर और जहां नाना प्रकार के चित्राम सुमेरु के शिखर समान ऊंचे शिखर और बब्रमणि जे हीरा तिनकर वेढ्या है पीठ (फ़रश) जिसका ऐसे जिन मन्दिरको देखकर जनक विचारताभयाकि यह इन्द्रका मन्दिरहे अथवा अहिमिन्द्र का ||
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पुराण
wફરક
पद्म || मन्दिरहै ऊर्धलोकसे पायाहेअथवा नागेन्द्रका भवन पातालसे आया है अथवा किसी कारणसे सूर्यको किरणों |
का समूह पृथिवीमें एकत्र भयाहै अहो उस मित्रविद्याधरने मेरा बड़ा उपकारकिया जो मुझे यहांलेबाया ऐसा स्थानक अबतक देखा नहीं था भला मन्दिर देखा ऐसा चितवन कर महा मनोहर जो जिनमन्दिर उत्तमें गया फलगयाहै मुखकमल जिसका श्रीजिनराजका दर्शन किया कैसे हैं श्रीजिनराज स्वर्ण समान है वर्ण जिनका और पूर्णमासी के चन्द्रमा समान है सुन्दर मुख जिनका और पद्मासन विराजमान अष्ट प्रातिहार्यं संयुक्त कनकमई कमलोंकर पूजित और नाना प्रकारके रत्नोंकर जड़ित जे छत्र वे हैं सिर पर जिनके और ऊंचे सिंहासनपर तिठे हैं तब जनक हाथजोड़ सीसनिवाय प्रणाम करताभया हर्षकर रोमांच होय पाए भक्तिके अनुरागकर मूर्छा को प्राप्तभया क्षणएकमें सचेत होय भगवानको स्तुति करने लगा। अति विश्रामको पाय परम अाश्चर्यको धरता संता जनक चैत्यालय में तिष्ठे है ॥ __अथानन्तर वह चपतवेग विद्याधर जो अश्व को रूपकर इलको ले आया था सो अश्वका रूप दूर कर राजा चन्द्रगति के पास गया और नमस्कार कर कहतोभया कि में जनकको लेआयाहूं मनोग्य वन में भगवान के चैत्यालय में तिष्ठे है, तब राजा सुन कर बहुत हर्ष को प्राप्त भया थोड़ेसे समीपी लोक लार लेय राजा चन्द्रगति उज्ज्वल है मन जिसका पूजा की सामग्री लेय मनोरथ समान रथ पर श्रारूढ़ होय चैत्यालय में आया सो राजा जनक चन्दगति की सेनाको देख और अनेक बादित्रों का नाद
सुन कर कछू इक शंकायमान भया कैएक विद्याघर मायामई सिंहों पर चढ़े हैं कैएक मायामई हाथीयों | पर चढ़े हैं कैएक घोडाबों पर चढ़े कईएक हंसो पर चढ़े तिन के वीच राजा चन्द्रगति है सो देख कर |
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।।४२८॥
घन | जनक विचारता भया कि जो विजियार्थ पर्वत पर विद्याधर वसे हैं ऐसी में सुनता हूं सो ये विद्याधर हैं |
विद्याघरों की सेना के मध्य यह विद्याधरों का अधिपति कोई परम दीप्ति कर शोभे है असा चितवन जनक करे है उसही समय वह चन्द्रगति राजा दैत्यजाति के विद्याधरोंका स्वामी चैत्यालय में आय प्राप्त भया महा हर्षवन्त नम्रीभूत है शरीर जिस का, तबजनक उस को देख कर कछू इक भयवान् होय भगवान् के सिंहासनके नीचे बैठ रहा, और उस राजा चन्द्रगति ने भक्ति कर भगवान्के चैत्यालय में जाय प्रणाम कर विधिपूर्वक महा उत्तम पूजा करी और परमस्तुति करता भया फिर सुन्दर हैं स्वर जिस के जैसी बीणा हाथ में लेकर महाभावना सहित भगवान के गण गावतो भया सो कैसे गावे है सो सुनो, अहो भव्य जीव हो जिनेंद्र को आराधो, कैसे हैं जिनेंद्रदेव तीन लोक के जीवों को वर दाता और अविनाशी है सुख जिन के और देवों में श्रेष्ठ जे इन्द्रादिक उन कर नमस्कार करने योग्य हैं कैसे हैं वे इन्द्रादिक महा उत्कृष्ट जो पूजा का विधान उस में लगाया है चित्त जिन्होंने ग्रहो उत्तम जन हो श्री ऋषभदेव को मन वचन काय कर निरन्तर भजो कैसे हैं ऋषभदेव महाउत्कृष्ट हैं और शिवदायक हैं जिनके भजे से जन्म जन्म के किए पाप समस्त विलय होय हैं अहो प्राणी हो जिनवस्को नमस्कार करो कैसे हैं जिनवर महा अतिशय के धारक हैं कर्मों के नाशक हैं और परमगति जो निर्वाण उस को प्राव भए हैं और सर्व सुरासुर नर विद्याघर उन कर पूजित हैं चरण कमल जिनके और क्रोध रूप महाबैरी का भंगकरन हारे हैं में भक्तिरूप भया जिनेन्द्र को नमस्कार करूंहूं उत्तमलक्षण कर संयुक्तहै देह जिनकी औरविनय कर नमस्कार करे हे सर्व मुनियों के समूह जिनको वे भगवान् नमस्कार मात्रही से भक्तों के भय हरेहैं
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पद्म
पुराण ॥४२
अहोभव्य जीव हो जिनवर को वारंवार प्रणाम करो वे जिनवर अनुपम गुण को धरे हैं और अनुषमहै । काया जिनकी और हते हैं संसारमई सकल कुकर्म जिन्होंने और रागादिकरूपजेमलतिनकररहितमहानिर्मल हैं और ज्ञानावरणादिक रूप जो पट तिनके दूर करनहारे पारकरकेको अति प्रवीणहैं और अत्यन्तपवित्र इसभान्ति राजा चन्द्रगति ने बीण बजाय भगवान की स्तुति करी तब भगवान के सिंहासन के नीचेसे। राजा जनक भय तज कर जिनराज की स्तुति कर निकसा महाशोभायमान तब चन्द्रगति जनकको देख। हर्षित भया है मन जिस का सो पछता भया तुम कौन हो इस निर्जन स्थानक विषे भगवान् । के चैत्यालय विषे कहां से आए हो तुम नागों के पति नागेन्द्र हो अथवा विद्याधरों के अधिपति हो हे मित्र ! तुम्हारा नाम क्या है सो कहो तब जनक कहता भया हे विद्याधरों के पति में मिथिला नगरी से आया हूं और मेरा नाम जनक है मायामई तुरंग मुझे लेअाया है जब यह समाचार जनक ने कहे तब दोनों प्रतिकर मिले परस्पर कुशल पूछी एक आसन पर बैठे फिर क्षणएक तिष्ठ कर जब दोनों आपस में विश्वास को प्राप्तभए तब चन्द्रगति और कथाकर जनक को कहते भए हे महाराजमें। बड़ा पुण्यवान जो मुझे मिथिला नगरी के पतिका दर्शन भया तुम्हारी पुत्री महा शुभ लक्षणों कर मण्डित है मैं बहुत लोकों के मुख से सुनी है सो मेरे पुत्र भामण्डल को देवो तुम से सस्कन्ध पाय मैं अपना परमउदय मानूंगा तब जनक कहतेभए हे विद्याधराधिपति तुमने जो कही सो सबयोग्यहै परन्तु मैंने मेरी पुत्री राजा दशरथ के बड़े पुत्र जो श्रीरामचन्द्र तिनको देनी करी है तब चन्द्रगति बोले काहे || से उनको देनी करी है तब जनक ने कही जो तुमको सुनिबे का कौतुक है तो सुनो मेरी मिथिलापुरी ||
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प
रत्नादिक धनकर और गांय आदि पशुवाकर पूण सो अर्घबबर देश के म्लेच्छ महाभयंकर उन्होंने पाय मेरे देशको पीडाकरी धनके समूह लूटने लगे और देश में श्रावक और यतिका धर्म मिटने लगा सो। मेरे और म्लेच्छों के महा युद्ध भया उस समय राम आयकर मेरी और मेरे भाईकी सहायता करी दे | | म्लेच्छ जो देवों से भी दुर्जय सो जीते और रामका छोटाभाई लक्ष्मण इन्द्र समान पराक्रमका धरणहारा है और बड़े भाई का सदा आज्ञाकारी है महा विनय कर संयुक्त है वे दोनों भाई प्राय कर जो म्लेच्छों की सेना को न जीतते तो समस्त पृथिवी म्लेच्छमई होजाती वे म्लेच्छ महा अविवेकी शुभक्रियारहित लोकको पीडाकारी महा भयंकर विष समान दारुण उत्पात का स्वरूपही हैं सो रामके प्रसाद कर सब भाज गए पृथिवीका अमंगल मिटगया वे दोनों राजा दशरथ के पुत्र महा दयालु लोकों के हितकारी तिनको पायकर राजा दशरथ सुखसे सुरपति समान राज्य करे है उस दशरथके राज्य में महासंपदावान् लोक बसे हैं और दशरथ महा शूरवीर है जिसके राज्य में पवनभी किसीका कुछ हर न सके तो और कौन हरे राम लक्षमणने मेरा ऐसा उपकार किया तब मुझे ऐसी चिन्ता उपजी कि में इनका क्या प्रति उपकार करूं रात्रि दिवस मुझे निद्रा न पावती भई जिसने मेरे प्राण रोखे प्रजा राखी उस राम समान मेरे कौन मुझसे कभीभी कछु उनकी सेवा नबनी और उन्होंने बड़ा उपकारकिया तब में विचारता भया जो अपना उपकार करे और उसकी सेवा कछु न बने तो क्या जीतव्य कृतघ्न का जीतब्य तृणसमान है तब मैंने अपनी पुत्री सीता नवयौवन पूर्ण रोम योग्य जान रामको देनी विचारी तब मेरा सोच कछु इक मिटा मैं चिन्तारूप समुद्र में डूबाथा सो पुत्री नावरूपभई सो पुत्री दावरूप में सोच समुद्रसे निकसा राम
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॥४३१॥
पळ || महा तेजस्वी हैं यह वचन जसकके सुन चन्द्रगतिके निकट वर्ती और विद्याधर मलिनमुख होय कहतेभए !
अहो तुम्हारी बुद्धि शोभायमान नहीं तुम भूमिगोचरी अपंडित हो कहां वे रंक म्लेच्छ और कहां उनके जीतवेकी बड़ाई इसमें क्या रामका पराक्रम जिसकी एती प्रशंसा तुमने स्लेछोंके जीतबेकर करी रामका जो एता स्तोत्रकिया सो इसमें उलटी निन्दाहै अहो तुम्हारी वातसुने हांसी यावे है जैसे बालकको विषफल ही अमृत भासे और दरिद्रीको बपरी (बेर) फलही नीके लागें और काक सूकेबृक्ष में प्रीतिकरे यह स्वभावही दुर्निवार है अब तुम भूमिगोचरियों का खोटा सम्बन्ध तजकर यह विद्याधरों का इन्द्र राजा चन्द्रगति इससे सम्बन्ध करो कहां देवों समान सम्पदाकेधरणहारे विद्याधर और कहां वे रंक भूमिगोचरी सर्वथा अतिदुखित तब जनक बोलेखारा सागर अत्यन्त विस्तीर्ण है परन्तु तृषा हरता नहीं और वापि का थोड़ेही मिष्ट जल से भरी है सो जीवोंकी तृपा हरे है और अन्धकार अत्यन्त विस्तीर्ण है उसकर क्या और दीपक अल्प | भीहै परंतु पृथ्वीमकाश करे हे पदार्थोंकाप्रकटकरेहे और अनेक मातेहाथीजो पराक्रम न करसकेंसोअकेला केसरी सिंहका बालक करे हे ऐसे जब राजाजनकने कहा तब वे सर्व विद्याधर कोपवन्त होय अतिशब्द कर भूमिगोचरियोंकी निन्दा करतेभए, हो जनक वे भूमिगोचरी विद्याके प्रभावसे रहित सदा खेदखिन्त्र शूरवीरता रहित आपदावान तुम कहां उनकी स्तुति करोहो पशुओंमें और उनमें भेद क्या तुम में विवेकनहीं इसलिये उनकी कीर्ति करोहो तब जनक कहते भए हाय हाय बड़ाकष्टहै जो मैंने पाप कर्म के उदयकर बड़े पुरुषोंकी निन्दासुनी तीन भवन में विख्यात जे भगवान ऋषभदेव इंद्रादिक देवोंमें पूजनीक तिनका इक्ष्वाकु वंश लोकमें पवित्र सो क्या तुम्हारे श्रवणमें न आया तीनलोकके पूज्य श्री तीर्थकर ||
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पद्य
॥४३२॥
देव और चक्रवर्ती बलभद्र नारायण सो भूमि गोचरियोंमें उपजे तिनको तुम कौन भांति निंदोहो अहो विद्याधरों पंच कल्याणककी माति भूमिगोचरियों होके होयहै विद्याधरों में कदाचित किसीके बुम ने देखी इक्ष्वाकु बंशमें उपजे बडे बडे राजा जो षट संड पृथिवीके जीतनहारे तिरके चक्रादि महा रत्न बही शुद्धिके स्वामी चक्र धारी इन्दादिककर माई है उदार कीर्ति जिनकी ऐसे गुणोंके सागर कृत कृत्य पुरुष ऋषभदेवके वंश के बरे २ प्रश्विीपति वा भूमिमें अनेक भए उसही बंशमें राजा अरण्य, बड़े राजा भए तिनके राणी सुमंगला उसके दसरथ पुत्र भए जे क्षत्री धर्म में तत्पर लोकों की रचा निमित्त अपना प्राण त्याग करतेन शंके जिनकी भाज्ञा समस्त लोक सिर परधरजिनकी चार पटरानी मानों चार दिशाही हैं सर्व शोभाको धेरै गुणोंकर उज्ज्वल और पांच सौ और गनी मुखका जीताहै चन्द्रमा जिन्होंने जे नाना प्रकारके शुम चरित्रों कर पतिका मन हर हैं और राजा दशरथके राम बड़े पुत्र जिनको पद्म कहिये लक्षमीकर मंडित है शरीर जिनका दीप्ति कर जीताहै सूर्य और कीर्ति कर जीताहै चन्द्रमा स्थिरताकर जीताहै सुमेरु शोभा कर जीता इन्द्र शूरवीरता कर जीते हैं सर्व सुभट जिन्होने सुन्दरहैं चरित्र जिनके जिनका छोटा भाई लक्षमण जिसके शरीरमें लक्षमीका निवास जिस के धनुषको देख शत्रु भयकर भाज जावें और तुम विद्याधरोंको उनसे भी अधिक बतावो हो सो काक भीतो आकाशमें गमन करे हैं तिनमें क्या गुणहें और भूमिगोचरियों में भगवान तीर्थकर उपजे हैं तिनको इन्द्रादिक देव भूमिमें मस्तक लगाय नमस्कार करे हैं फिर विद्याघरों की क्या बात ऐसे बचन जब जनक ने कहे तब वे विद्याधर एकांतमें तिष्ठकर आपसमें मन्त्रकर जनकको कहते भए हे भूमिगोचरियोंके नाथ
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तुम राम लक्ष्मणका एता प्रभावही कहोहो और वृथा गरजगरज बात करो हो सो हमारे उन के पुराख बल पराक्रमकी प्रतीति नहीं इसलिये हम करे हैं सो मुनो एक बज्रावर्त दूजा सागरावर्त ये दो धनुष ५४३३
जिनकी देव सेवा करें हैं सो ये दोनों धनुष वेदोनों भाई चढ़ावें तो हम उनकी शक्ति जाने बहुत कहने से क्या जो वजावर्त धनुष राम चढ़ावें तो तुम्हारी कन्या परणे नातर हम वलात्कार कन्याको यहां ले आयेंगे तुम देखतेही रहोगे तब जनकने कही यह बात प्रमाणहै तब उन्होंने दोनों धनुष दिखाए सो जनक उन धनुषोंको अति विषम देखकर कछुइक पाकुलताको प्राप्त भया फिर वे विद्याधर भाव थकी भगवानकी पूजा स्तुतिकर गदा और हलादि रखोंकर संयुक्त धनुषोंकोले और जनककोले मिथिलापुरीमाए
और चंद्रगति उपवनसे रथनूपुरग्याजवराजाजनक मिथिलापुरीश्राए तपनगरीकी महाशोभाभई मंगला चार भए और सबजन सन्मुखाए और वे विद्याधरनगर के बाहिर एक आयुध शालावनाय वहांधनुप
घरे और महागर्भको धरते संते तिष्ठे जनकखेद सहित किंचित भोजन खाय चिंता कर व्याकुल उत्साह | रहित सेज पर पडे वहां महा नमी भूत उत्तम स्री बहुत आदर सहित चंद्रमा की किरण समान
उज्जल घमरदारती भई राजा अतिदीर्घ निश्वास महा उष्ण अग्निसमान नाषे तब राणी विदेहाने कहा हे नाथ तुमनेकोन स्वर्ग लोक की देवांगना देखी जिसके अनुराग कर ऐसी अवस्था को प्राप्त भए हो । सो हमारे जाननेमें वह कामनी गुण रहित निर्दई है जो तुम्हारे अातापविषे करुणा नहीं करेहे हेनाथवह स्थानक हमें बताको जहाँसे उसे ले अावें तुम्हरे दुःख कर मुझेदुःख और सकल लोको को दुःख होय है तुम ऐसे महा सौभाग्यवन्त उसे क्यों न रुचे वह कोई पाषाण चित्त है उठो राजाओं को जे उचित
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कार्य होय सो करो यह तम्हारा शरीरहें तो सबही मन र्वाचित कार्य होंगे इस भान्ति राणी विदेहा जो पुराण प्राण ह से प्रिया सो कहती भई तब राजा बोले हे प्रिये हे शोभने हे वल्लभे मुझे खेद औरही है तू वृथा
ऐसी बात कही, काहेको अधिक खेद उपजावे है तुझे इस वृतांतकी गम्यता नहीं इसलिये ऐसे कहे है वह मायामई तुरंग मुझे विजिया गिरिमें लेगया वहां रथनूपरके राजा चन्द्रगतिसे मेरा मिलापभया सो उसने कही तुम्हारी पुत्री मेरे पुत्रको देवो तब मैंने कही मेरी पुत्री दशरथके पुत्र श्रीगमचन्द्रको देनी करी है तब उसने कही जो रामचन्द्र वज्रावर्त धनुष को चढ़ावें तो तुम्हारी पुत्री परणे नातर मेरा पुन परणेगा सो मैं तो पराये वश जाय पड़ा तब उनके भय थकी और अशुभकर्म के उदय थकी यह बात प्रमाण करी सो बज्रावर्त और सागरावर्त दोनों धनुष ले विद्याधर यहां आए हैं वे नगर के बाहिर तिष्ठे हैं, सो में ऐसे जानूं हूं ये धनुष इन्द्र से भी चढ़ाए न जावें जिनकी ज्वाला दशों दिशा में फैल रही है
और मायामई नाग फुकारें हैं सो नेत्रों से तो देखा न जावे धनुष बिना चढ़ाए ही स्वतः स्वभाव महाभयानक शब्द करे हैं इनकोचढ़ायवे की कहांवात, जो कदाचित् श्री रामचन्द्र धनुष को न चढ़ावें तो यह विद्याधर मेरी पुत्री को जोरावरीले जावेंगे जैसे स्याल के समीप से मांस की डली खग कहिये पक्षी लेजाय सो धनुष के चढ़ायवे का बीस दिन को करार है जो नवना तोवह कन्या को ले जावेंगे, फिर इसका देखना दुर्लभ है, हे श्रेणिक जबराजा जनकने इसभान्ति कही तवराणी विदेहाके नेत्रअश्रुपात्रसे भराए और पुत्र के हरनेका दुःखभूलगई | थी सो याद आया एक तो प्राचीनदुःख और दूसराआगमी दुःख सोमहाशोककर पीडित भई महाशब्द कर पुकारने लगी ऐसा रुदनकिया जो सकल परिवारके मनुष्य विहुलहोगये राजासे राणी कहे है हे देव मैंने
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॥४३५०
ऐसा कौन पाप किया जो पहिले तो पुत्र हरा गया और अब पुत्री हरी जाय है मेरे तो स्नेह का अवलम्बन पुराण | एक यह शुभ चेष्टित पुत्री ही है मेरे तुम्हारे सर्व कुटम्ब लोकों के यह पुत्री ही आनन्द का कारण है सो | मुझपापिनीके एकदुःख नहीं मिटे है और दूजा दुःख पाय प्राप्त होय है। इस भान्ति शोक के सागर में पड़ी
रुदन करती हुई राणी को राजाधीर्य बंधाय कहतेभए हे राणी रुदन कर क्या क्योंकि जो पूर्व इस जीव ने कर्म उपाजें हैं उनके उदय अनुसार फले हैं, संसाररूप नाटकका प्राचार्यजो कर्म सो समस्त प्राणियोंको नचावे है तेरा पुत्रगयासो अपने अशुभके उदयसे गया, अवशुभ कर्म उदयहै तो सकल मंगल ही होवेंगे,
ऐसे नाना प्रकारकेसार वचनोंकर राजाजनक ने राणी विदेहा को धीर्यबंधाया तब राणी शान्ति को प्राप्तभई॥ । अथानन्तर राजा जनक ने नगर के बाहिर धनुरशाला के समीप जाय स्वयम्वर मंडप रचा और | सकल राजपुत्रों के बुलायरेको पत्र पठाए सोपत्र बाँचबांच सर्व राजपुत्र पाए और अयोध्या नगरी | को भी दूत भेजे सो माता पिता संयुक्त रामादिक चारों भाई आएराजा जनक ने बहुत अादर कर पूजे सीता परम सुन्दरी सात से कन्याओं के मध्य महिल के ऊपर तिष्ठे बड़े वडे सामंत रक्षा करें और एक पंडित खोजा जिसने बहुत देखी बहुत सुनी हे स्वर्ण रूप बेतकी छड़ी उसकेहाथ में सो ऊंचे शब्दकर कहे है प्रत्येक राजकुमार को दिखाबे है हे राजपुत्री यह श्रीरामचन्द्र कमल लोचन राजा दशरथके पुत्र हैं तू नीके देख और यह इनका छोटा भाई लक्ष्मीवान् लक्ष्मण है महाज्योति को घरे और यह इनका भाई महा बाहु भरत है और यह इससे छोटा शत्रुघन है यह चारों ही भाई गुणों के सागर हैं इनपुत्रों कर राजा दशरथ पृथिवी की भली भान्ति रक्षा करे है जिसके राज्य में भय का अंकुर भी नहीं और यह हरिबाइन महा।
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पद्म पुराण
बुद्धिमान् काली घटा समान है प्रभा जिसकी और यह चित्ररथ महागुणवान् महासुन्दर है और यह ॥४३६ ॥ हर्मुख नामा कुमार अति मनोहर महातेजस्वी है यह श्रीसंजय, यह जय, यह भानु, यह सुप्रभ,
यह मंदिर, यह बुध, यह विशाल, यह श्रीघर, यह बीर, यह बन्धु, यह भद्रवल, यह मयूरकुमारइत्यादि अनेक राजकुमार महापराक्रमी महासौभाग्यवान् निर्मलवंश के उपजे चन्द्रमासमानान्ति जिनकी महा गुणवान् भूषणों के घरणहारे परमउत्साह रूप महाविनयवन्त महाज्ञानी महाचतुर चाय इकट्ठे भएहैं और यह संकाशपुर का नाथ इसके हस्ती पर्वत समान और तुरंग महाश्रेष्ठ और रथ महामनोग्य और योघा अद्भुत पराक्रम के धारी और यह सुरपुर का राजा, यह रन्ध्र पुर का राजा, यह नंदनीकपुरका राजा यह कुन्दपुर का अतिपति यह मगधदेशका राजेन्द्र यह कंपिल्य नगरका नरपति इनमें कैंयक इक्ष्वाकुवंशी और कैक नागवंशी और कैयक सोमवंशी और कैयक उग्रवंशी और कैयक हरिवंशी और कैयक क्रूरवंशी इत्यादि महा गुणवन्त जे राजा सुनिए हैं वे सर्व ते रेअर्थ आये हैं सो इनके मध्य जो पुरुष बज्रवर्त धनुष् को चढावे उसेतूंवर जो पुरुषों में श्रेष्ठ होयगा उसी से यह कार्य होयगा इस भान्ति खोजे ने कही और राजा जनक ने सबको अनुक्रम से धनुष की ओर पठाए, सोगए सुन्दर है रूप जिनका सो सव ही धनुष को देख कंपायमान होते भए धनुष में से सर्व ओर अग्नि की ज्वाला बिजुली समान निकसे और माया भयानक सर्प फुंकार करें तब कैयक तो कानों पर हाथघर भागे और कैयक धनुष को देखकरदूर ही कीले से ठाढ़े रहे कांपे हैं समस्त अंग जिनके और मुंद गए हैं नेत्र जिन के और कैयक ज्वर से ब्याकुल भए और कईयक धरती पर गिर पड़े और कईयक ऐसे भएजो बोलन सकें और कईक मूर्खको
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पुराण
n४३॥
प्राप्त भए और कईयक धनुष के नागों के स्वास से जैसे वृक्ष का सूका पत्र पवन से उड़ा उड़ा फिरे तैसे उड़ते फिरें और कईयक कहते भए जो अब जीवते घर जावें तो महादोन करें सकल जीवों को अभयदान देखें।
और कईयक ऐसे कहते भए यह रूपवन्ती कन्या है तो क्या इसके निमित्त प्राण तोन देने राजकुमार विचारते भये कि यह कोई मयामयी विद्याधर पायाहे सो राजावों के पुत्रोंको बाधा उपजाई है औरकईयकमहा। भाग्य ऐसे कहते भए अब हमारे स्त्री से प्रयोजन नहीं यह काम महा दुःखदाई है जैसे अनेक साधुअथवा उत्कृष्ट श्रावग शील व्रत धारे हैं तैसे हम भी शील व्रत धारेंगे धर्म ध्यान कर काल व्यतीत करेंगे इस भान्ति सर्व पराङ्ग मुख भऐ और श्रीरामचन्द्र धनुष चढावने को उद्यमो उठ कर महामातेहाथीकी न्याई। मनोहर गतिसे चलते जगत् को मोहते धनुष के निकट गए सो धनुष रामके प्रभावसेज्वालारहित झेनया जैसा सुन्दर देवोपुनीत रख है तैसा सौम्य होगया जैसा गुरू के निकट शिष्य होय जाय तब श्रीरामचन्द्र । धनुष को हाथ में ले चढ़ाय कर सेंचते भए सो मझापचण्ड शब्द भया पृथिवी कंपायमान भई कैसा है धनुष विस्तीर्ण है प्रभा जिसकी जैसा मेघ गाजे तैस्त्र धनुष का शब्दभया मयूरों के समूह मेघ का प्राममा जान नाचने लगे जिसके तेज के आगे सूर्य ऐसा भासने लगा जैसा अग्नि का कण भासे और स्वर्ण मई रजसे आकाश के प्रदेश व्याप्त होगए यह धनुष देवाधिष्ठित है सो आकाश में देव धन्य धन्य शब्द करते भए और पुष्पों की वर्षा होती भई देव नृत्य करते भए तब श्रीराम महादयावन्त धनुष के । शब्द से लोकोंको कम्पायमान देख धनुषको उतारतेभए लोक ऐसे डरे मानों समुद्र के भ्रमरमें आगए हैं तब सीता अपने नेत्रों से श्रीराम को निरखती भई कैसे हैं नेत्र पवन से चंचल जैसा कमलों का
ManMalaida
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andana
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॥४३॥
पत्र दल होय तिससे अधिक है कांति जिनकी और जैसा काम का वाण तीक्ष्ण होय तैसे तीक्षण हैं। | रोमांचकर संयुक्त सीता ने मनकी वृत्ति रूपमालो तो प्रथम देखतेही इनकी ओर प्रेगयी फिर लोका
चार निमित्त हाथमें रत्नमाला लेकर श्रीराम के गले में डारी लज्जो से नमीभूत हे मुख जिसका जैसे जिन धर्म के निकट जीव दया तिष्ठे तैसे राम के निकट सीता प्राय तिछी श्रीराम अति सुन्दर थे सो | इसके समीप से अत्यन्त सुन्दर भासते भए इन दोनों के रूपका दृष्टान्त देनेमें न पावें और लक्ष्मण दूजा धनुष सागरावर्त क्षोभको प्राय भयो जो समुद्र उस समान है शब्द जिसका उसे चढ़ाय सेंचतेभए सो पृथिवी कम्पायमानभई प्राकारामें देव जयजयकार शब्द करतेभए और पुष्पवर्षा होतीभई लक्ष्मण ने धनुषको चढ़ाय खेंचकर जब बाण पर दृष्टि घरी तंब सब डरे लोकोंको भय रूप देख आप धनुष की पिणच उतार महा यिनय संयुक्त राम के निकट पाए जैसे ज्ञान के निकट वैराग्य भावे लक्ष्मण का ऐसा पराक्रम देख चन्द्रगतिका पठाया जो चन्द्रवर्द्धन विद्याधर आया था सो उसने अति प्रसन्न होय अष्टादश कन्या विद्यधरोंकी पुत्री लक्षमणको दीनी सो श्रीराम लक्षमण दोनों धनुष लेय महाविनयवन्त पितापास आए और सीताभी आई और जेते विद्याधर पाएथे सो राम लक्षमणका प्रतापदेख चन्द्रवर्धन की लार स्थनूपुर गए जाकर राजा चन्द्रगति को सर्व वृत्तान्त कहा सो सुन कर चिन्ताबान होय तिष्ठ और स्वयम्बर मण्डपमें रामके भाई भरतभी आएथे सो मनमें ऐसा विचारतेभये कि मेरा और रामलक्षमण को कुल एक और पिता एक परंतु इनकासा अद्भुत पराक्रम मेरा नहीं यह पुण्याधिकारीहें इन कैसे पुण्य । । मैंने न उपार्जे यह सीता साक्षात्लक्ष्मीकमलके भीतरेदल समानहै वर्ण जिसका राम सारिषे पुण्याधिकारी
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पुराण
॥४३॥
हीकी स्त्री होय तव केकई इनकी माता सर्वकलामें प्रवीण भरत के चित्त का अभिप्राय जान पति के कान में कहतीभई हे नाथ भरतका मन कछुइक विलंषा दीखेहै ऐसा करो जो यह विरक्त न होय इस जनक के भाई कनक के राणी सुप्रभा उसके पुत्री लोकसुन्दरी है सो स्वयम्बर मण्डप की विधि फिर करावो और वह कन्या भरतके कण्ठमें वरमाला डारे तो यह प्रसन्न होय तब दशरथ इसकी बात प्रमाण कर कनकके कान पहूंचाई तब कनक दशरथकी आज्ञा प्रमाणकर जे राजा गयेथे सो पीछे बुलाये यथायोग् स्थानपर तिष्ठे सबजे भूपति वेई भये नक्षत्रों के समूह उनमें तिष्ठता जो भरत रूप चन्द्रमा उसे कनक की पुत्री लोक सुन्दरी रूप शुक्लपक्ष की रात्री सो महा अनुराग से वरती भई मनकी अनुरागता रूप मालातो पहिले अवलोकन करतेही डारीथी फिर लोकाचार मात्र सुमन कहिए पुष्प उनकी वरमालाभी कंठ में | डारी कैसी है कनककी पुत्री कनक समान है प्रभा जिसकी जैसे सुभदाने भरतचक्रवतोंको वराथा तैसे यह दशरथ के पुत्र भरत को वरतीभई गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे श्रेणिक कर्मोंकी विचित्रता देख भरत जैसे विरक्त चित्त राज कन्यापर मोहित भये और सब राजा विलखे होय अपने अपने स्थानक गए जिसने जैसा कर्म उपार्जा होय वैसाही फल पावेहे किसीके द्रव्यको दूसरा चाहनेवाला न पावे ॥
- अथानन्तर पिथिलापुरीमें सीता और लोकसुन्दरीके विवाहका परमउत्साहभया कैसीहै मिथिलापुरी ध्वजा और तोरणों के समूह से मण्डित है और महा सुगन्ध की भरीहे शंख आदि वादित्रों के समूह से पूरितह श्रीरामका और भरतका विवाह महाउत्सव सहित भयो द्रव्यसे भिक्षकलोकपूर्णभये जे राजा विवाह का उत्सव देखनेको रहेथे दरारथ और जनक कनक दोनों भाई से अति सन्मान पाय अपने २ स्थानक
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पद्म पुराव
४४०॥
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को गये राजा दशरथ और राजा दशरथके चारों पुत्र रामकी स्त्री सीता भरतकी स्त्री लोकसुन्दरी महा उत्सवसे अयोध्या के निकट आये कैसे हैं दशरथके पुल सकल पृथिवीपर प्रसिद्ध है कीर्ति जिनकी और परमरूप परमगुण सोईभया समुद्र उसमें मग्नहैं और परम रत्नोंके आभूषण से शोभितहें शरीर जिनके माता पिताको उपजाया है महाहर्षं जिन्होंने नानाप्रकारके बाहन उनकर पूर्ण जो सेना सोईभया सागर जहाँ 'अनेक प्रकारके वादित्र बाजे हैं जैसे जल निघि गाजें ऐसी सेना सहित राजा मार्ग मार्ग होय महिल पधारे और कनककी पुत्री को सबही देखे हैं सो देख२ अति हर्षित होयहैं और कहे हैं इनकी तुल्य की और कोई नहीं यह उत्तम शरीर को घरे हैं इनके देखनेको नगरके नर नारी मार्ग में चाय इकट्ठेभये तिन मार्ग अति संकीर्णभया नगरके दरवाजेसे ले रोजा महिल परियन्त मनुष्योंका पारनहीं, किया है समस्त जनने यावर जिनका ऐसे दशरथके पुत्र इनके श्रेष्ठ गुणों की ज्यों ज्यों लोक स्तुति करें त्योंत्यों ये नीचे २ हो रहें महासुख भोगनहारे ये चारोंही भाई अपने २ महिलमें श्रानन्दसों विराजे यह सब शुभ कर्म का फल विवेकी जन जानकर ऐसे सुकृत करो जिससे सूर्य से अधिक प्रभाव होय । जेते शोभायमान उत्कृष्ट फल हैं वे सर्व धर्म के प्रभाव से हैं और जे महानिन्द्य कटुक फल हैं वे सब पाप कर्म के उदय से हैं इसलिये सुख पाप कियाको तजो और शुभ क्रिया करो || इति श्रष्ठाईसवां पर्व सम्पूर्णम् ।
अथानन्तर आषाढ़ शुक्ल अष्टमी से अष्टान्हिका का महा उत्सवभया राजा दशरथ जिनेन्द्र की महाउत्कृष्ट पूजा करनेको उद्यमीभया राजा धर्म में अतिसावधान है राजाकी सर्व राणी पुत्र बांधव तथासकल कुटम् जिन राजके प्रतिबिम्बोंकी महा पूजा करनेको उद्यमी भए केई बहुत यादरसे पंच वर्णके जे रत्न विन
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पा
के चूका माडला मांडे हैं केई नानाप्रकार के रत्नों की माला बन्भवे हैं । भक्तिसे पाया है अधिकार जिन्हों ने और कई एला (इलायची) कर्पूरादि सुगन्ध द्रव्यों से जलको सुगन्धकरे हैं और केई सुगन्ध जलसे पृथ्वी ४४१ को छांटे हैं और केई नानाप्रकारके परम सुगन्ध पीसे हैं और कई जिन मन्दिरोंके द्वारोंकी शोभा अति
पुराण
दीयमान बस्त्रोंसे करावे हैं और केई नानाप्रकारकी धातुओंके रंगोंकर चैत्यालयोंकी भीतियोंको मंड वायें हैं इसभांति अयोध्यापुरीके सबही लोक बीतराग देवकी परम भक्तिको भरते हुए अत्यन्त हर्ष से पूर्ण जिन पूजा के उत्साहसे उत्तम पुण्यको उपार्जित भए राजा दशरथ भगवानका प्रति विभूति से अभिषेक करावता भया । नाना प्रकारके वारित्र बाजते भए । राजा ने अष्ट दिनों के उपवास किए और जिनेंद्र की ष्ट प्रकारके द्रव्यों से महा पूजा करी श्रीर माना प्रकारके सहज पुष्प और कृत्रिम कहिए स्वर्ण रत्नादि के रचे पुष्पों से श्री करी जैसे नन्दीश्वर द्वीप में देवों से संयुक्त इन्द्र जिनेंद्र की पूजा करें तैसे राजा दशरथ ने अयोध्या में करी और राजा ने चारोंही पटरानियों को गन्धोदक पठाया सो सीनके निकट तो तरुमा स्त्री ले गई । सो शीघ्र ही पहुंचा वे उठकर समस्त पापों का दूर करनहारा जो गन्धोधक उसे मस्तक और नेत्रों से लगावती भई और राणी सुप्रभा के निकट वृद्ध खोजा ले गया था सो शीघ्र नहीं पहुंचा इस लिये राणी सुप्रभा परम कोपकर शोक को प्राप्त भई मन में चितवती भई जौ राजाने उन तीन राशियों को मन्बोदक भेजा और मुझे न भेजा सो राजा का क्या दोष है मैं पूर्व जन्म में पुराय न उपजाया के पुरायली मासौभाग्यवंती प्रशंसा योग्य हैं जिन को भगवानका गोदक महापवित्र राजाने पाया अपमानकर दग्व जो में सोमेरे हृदयका ताप और
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प्रय पुस
॥४४॥
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भांति न मिटे अब मुझे मरणही शरण है । ऐसा विचार एक विशाखनामा भण्डारी को बुलाय कहती भई हे भाई यह बात तु किसीको मत कहियो मुझे विषसे प्रयोजन है सो तू शीघ्र लेना तब प्रथमतो उसने शंकावान होय लानेमें ढीलकरी फिर बिचारी कि औौष्मधिके निमित्त मंगाया होगा सो लेनका गया और राखी शिथिला गात्र मलिनचित्त बस्त्रोड़ सेजपर पड़ी राजादशरथने अन्तःपुर में आयकर तीन राणी देखी सुप्रभा न देखी सुप्रभासे राजाका बहुत स्नेह सो इसके महिलमे राजा श्राय खड़े रहे उस समय जो विष लेने को यथा सो ले आया और कहताभया । हे देवी यह विष ले यह शब्द राजाने सुना तब उसके हाथसे उठाय लिया और आप राणीकी सेज ऊपर बैठ गए तब राणी सेज से उतर बैठी राजाने ग्रहकर सेज ऊपर बैठाई और कहते भए हे बल्लभे ऐसा क्रोध काहे से किया जिसकर प्राण तजा चाहे है सब बस्तुवों में से जीतव्य प्रिय है सर्व दुःखों से मरणका बड़ा दुःख है । ऐसा तुझे क्या दुःख है जो विष मंगाया तू मेरे हृदयका सर्वस्व है जिसने तुझे क्लेश उपजायाहो उस को मैं तत्काल तीव्र दंडदूं हे सुन्दरमुखी तू जिनेन्द्रका सिद्धान्त जाने है शुभ शुम गति के कारण जाने है जो विष तथा शस्त्र आदि से अपघात कर मरे हैं वे दुर्गति में पड़े हैं ऐसी बुद्धि तोहि क्रोध से उपजी सो क्रोध को धिक्कार यह क्रोध महा अंधकार है अब तू प्रसन्न हो जे पतिव्रता है तिन में वह जौलग प्रीतम के अनुराग के बचन न सुने लौलग ही क्रोध का प्रवेश है तब सुप्रभा कहती भई हे नाथ तुम पर कोप कहां परन्तु मुझे ऐसा दुख भयाजो मरण विना शांत न होय तबराजाने कही हे राणी तुझेऐसा क्या दुख भया तब राणीने कही भगवानका गंधोदक और रागियोंकोपठाया और मुझे न पठायास मेरे में कौन कार्य
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पद्म पुरास
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करहीनता जानी तक तुमने मेरा कभी भी अनादर न किया अब काहे से अनादर किया यह बात राजा से राणी क है है उसी समय वृद्ध खोजा गन्धोदक ले आया और कहता भया हे देवी यह भगवानका गन्धोदक नरनाथ ने तुम को पठाया है सो लेवो और उसी समय तीनों राणी आई और कहती भई है मुग्धे पति की तुमपर प्रतिकृपा है तू कोप को क्यों प्राप्त भई देख हमको तो गन्धोदक दासी ले आई और तेरे वृद्धखोजा या पतिके तोसे प्रेम में न्यूनतानहीं जो पति में अपराधभी होय और वहा स्नेहकी बात करें तो उत्तम स्त्री प्रसन्न ही होय हैं है शोभने पति से क्रोध करना सुखके विघ्नका कारण सो कोप उचित्तनहीं सो उन्होंने जब इस भांति संतोष उपजाया तब सुप्रभाने प्रसन्न होय गंधोदक सीसपर चढ़ाया
नेत्रों को लगाया राजा खोजा से कोप कर कहते भए है निकृष्टतें एती ढाल क्यों लगाई तब वहभय कर कंपायमान होय हाथ जोड़ सीस निवाय कहता भया हे भक्तवत्सल हे देव हे विज्ञान भूषण अत्यन्त बृद्ध अवस्था कर हीनशक्ति जो मैं सो मेरा क्या अपराध मोपर आपक्रोध करो सो मैं क्रोधका पात्र नहीं प्रथम अवस्था में मेरे भुज हाथी के सूंड समान थे उरस्थल प्रबल था और जांघ गजबंधन तुल्य थी और शरीर दृढ़ था अब कर्म के उदय से शरीर अत्यन्त शिथिल होय गया पूर्वे ऊंची नीची धरती राजहंस की न्याई उलंघ जाता मन बांछित स्थान जाय पहुंचताथा अब स्थानक से उठा भी नहीं नाय है तुम्हारे पिता के प्रसाद कर में यह शरीर नाना प्रकार लड़ाया था सो अब कुमित्र की न्याई दुःख का कारण होय गया पूर्व मुझे वैरीयों के बिदारने की शक्तिथी सो व तो लाठी के अवलंवन कर महाकष्टसे फिरू हूं बलवान् पुरुषों ने खैंचा जो धनुष उस समान वक्रमेरी पौड हो गई है और मस्तक के केश अस्थिसमान श्वेत हो
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पद्म
पराख
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गए हैं और मेरे दांत भी गिर गए मामा शरीर का भाताप दखन सक ह राजन् ! मेरा समस्त उत्साह विलय गया ऐसे शरार कर कोई दिनजीवं हूं सो बड़ा आश्चर्ख है जरा से अत्यन्त जर्जर मेरा शरीर सांझ सकारे विमजायगा, मुझे मेरी काया की सुध नहीं तो और सुघ कहांसे होय पूर्वै मेरे नेत्रादिक इन्द्रिय विचक्षणता को
अब नाम मात्र रह गए हैं पांच घर किसी ठौर और परे काहूं ठौर समस्त पृथिवी तत्व दृष्टि से श्याम भासे है ऐसी अवस्था होय गई तो बहुत दिनों से राजद्वार की सेवा है सो नहीं तजसकूं हूं पके फल समान जो मेरा तन उसे काल शीघ्र ही भक्षण करेगा, मुझे मृत्यु का ऐसा भयनहीं जैसा चाकरी चूकने का भय है और मेरे आपकी आज्ञाहीका अवलंबन है, और अवलंबन नहीं, शरीर की अशक्तिता कर विलंब होय ताकू मैं
करूं हेनाथ मेराशरीर जराके आधीन जन कोपमतकरो कृपाही करो, ऐसे वचन खोजे के राजा दशरथ सुनकर वामा हाथ कपोल कै लगाय चिन्तावान् होय विचारता भया हो यह जल के बुदबुदासमान असार शरीर क्षणभंगुर है और यह यौवनबहुत विभ्रमको घरे संध्या के प्रकाश समान अनित्य है और अज्ञानका कारण है विजली के चमत्कार समान शरीर और संपदा तिनके अर्थ अत्यंत दुःख के साधन कर्म यह प्राणी करे है, उन्मत्त स्त्री के कटोच समान चंचल सर्प के फण समान विष के भरे, महाताप के समूह के कारण ये भोग ही जीवन को ठगे हैं, इसलिये महाठग हैं येविषय विनाशीक इनसे प्राप्त हुआ जो दुःख सो मूढ़ों को सुखरूप भासे है ये मूढ़ जीव विषयों को अभिलाषा करे हैं और इनको मन बांधित विषय दुष्प्राप्य हैं विषयों के सुख देखने मात्र मनोग्य हैं और इन के फल अतिकटुक हैं ये विषय इन्द्रायण के फल समान हैं संसारी जीवइन का चाहे हैं सो बड़ा आश्चर्य है जे उत्तमजन विषयों को विष तुल्य जान कर सजे हैं और तम करे हैं वे धन्य हैं, अनेक
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पद्म
पुराण
४४५०
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विवेकी जीव पुण्याधिकारी महा उत्साह के घरसहारे जिन शासन के प्रसादसे प्रबोध को प्राप्त भएहैं में कब इन विषयों का त्याग कर स्नेहरूप कीच से निक्स निर्वृति का कारण जिनेन्द्रका तप श्राचरूंग में पृथिवी की बहुत सुख से प्रतिपालना करी और भोग भी मन वांचित भोगे और पुत्र भी मेरे महा पराक्रमी उपजे अवमी में वैराग्य में विलंब करूं तो यह बड़ी विपरीत है हमारे वंश की यही रीतिहै कि पुत्र को राज्यलक्ष्मी देकर वैराग्य को मारन कर महाघीर तप करनेको बम में प्रवेश करें ऐसा चिन्तवन कर राजा भोगोंमें उदासचित कई एक दिन घर में रहे। हे श्रेणिक जो वस्तु जिस समय जिस क्षेत्रमें जिसकी जिसको जितनी प्राप्त होनी होय सो उससमाउस क्षेत्र में उससे उसको उतनी निश्चय सेती होय ही होय ||
मानन्तर गौतमस्वामी कहे हैं है ममम देश के मूपति केएक दिनों में सर्व प्राणियों के हित सर्वभूपति नामा मुनि बड़े आचार्य मन पर्णय ज्ञानके धारक पृथिवी विषे विहारकस्ते संघ सहित सरयू नदी के तीर आए कैसे हैं मुनि पिता समान वह कायके जीवोंके पालक दया विषे लगाई है मन, वचन, कायकी क्रिया जिन्होंने अाचार्यकी माझा पास कईएक मुनि तो गहन वनमें बिराजे कईएक पर्वतोंकी गुफावों में कई एक वन के चैत्यालयों में कईएक वृक्षोंके कोडरोंमें इत्यादि ध्यानके योग स्थानोंमें साधु तिष्ठे और आप श्राचार्य महेन्द्रोदय नामा सबमें एक शिला पर जहां विकलत्रय जीवोंका संचार नहीं और स्त्री नपुंसक बालक ग्राम्यजन पशुवों का संसर्ग नहीं ऐसा जो निरदोष स्थानक वहां नागवृक्ष के नीचे निवास किया महा गम्भीर महा क्षमावान जिनका दर्शन दुर्लभ कर्म खिपावनेके उद्यमी महा उदार है मन जिनका महा मुनि तिनके स्वामी वर्षाकाल पूर्ण करनेको समाधि योग्य घर तिष्ठे कैसा है
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पन्न
॥४६॥
HD
वर्षाकाल विदेश गमनकरनेवालोंको भयानक है वर्षतीजो मेघमाला और चमकती जो विजुरी और गर-1 जती जो कारीघटा तिनकी भयंकर जो ध्वनि उनसे मानो सूर्यको खिझावता हुवा पृथिवीपर प्रकट भया है सूर्य ग्रीष्म ऋतुमें लोकोंको पातापकारीथा सो अब स्थूल मेघकी धाराके अन्धकारसे भयखाय भाज मेघमालामें छिपा चाहे हे और पृथिवीतल हरे नाजकी अंकूरोंरूप कंचुकिनकर मंडितहै और महानदियों के प्रवाह बृद्धिको प्राप्तभए हैं ढाहा पाड़ते बहे हैं इस ऋतुवों में जे गमन करे हैं वे अति कम्पायमान होवे हैं और तिनके चित्तमें अनेक प्रकारकी प्रान्ति उपजे है ऐसी वर्षा ऋतुमें जैनी जन खड़गकी धारा समान कठिन व्रत निरन्तर घारे हैं चारण मुनि और भूमिचारी मुनि चातुर्मासिक में नाना प्रकारके नियम घरते भए वे मुनि हे श्रेणिक ! तेरी रक्षाकरें रागादिक परणति से तुझे निवृत्त करें। . अथानन्तर प्रभात समय राजा दशरथ कादित्रों के नादसे जाग्रत भया जैसे सूर्य उदयको प्राप्त होय
और प्रात समय कूकड़े बोलने लगे सारिस चकवा सरोबर तथा नदियों के तट पर शब्द करते भये स्त्री पुरुष सेजसे उठे भगवान के जे चैत्यालय तिन में मेरी मृदंग बीणा वादिनों के नाद होतेभये लोक निद्राको तज जिन पूजनादिक में प्रवरते दीपक मन्द ज्योतिभए चन्द्रमाकी प्रभा मन्दभई कमल फूले कुमुद मुद्रित भये और जैसे जिन सिद्धान्तके ज्ञाताओं के वचनोंसे मिथ्यावादी विलयजांय तेसे सूर्यकी किरणों से प्रह तारा नक्षत्र छिपगए इसभांति प्रभात समय अत्यन्त निर्मल प्रकटभया तब गजा देह कृत्य क्रियाकर भगवानकीपूजोकर वारम्बारनमस्कारकस्ताभया और भद्रजातिकीहथिनीपरचढ देवोंसारिखे जे राजा तिनके समूहोंसे सेव्यमान और गैर मुनियों को और जिनमन्दिरों को नमस्कार करता महेन्द्रोदय बनमें
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पद्म पुराण
४४१॥
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सुन
पृथिवीपतिगया जिसकी विभूति पृथिवीको आनन्द की उपजावनहारी वर्षों पर्यन्त व्याख्यान करिये तो भी न कह सकिए जो मुनि गुण रूप रत्नों का सागर जिस समय इसकी नगरीके समीप द्यावे उसही समय इसको खबर होय जो मुनि आये हैं तबही यह दर्शन को जाय सो सर्वभूतहित मुनिको तिनके निकट केते समीपी लोगों सहित गया हथिनी से उतर अति हर्षका भरा नमस्कार कर महा भक्ति संयुक्त सिद्धांत सम्बन्धी कथा सुनताभया चारों अनुयोगोंकी चरचा धारी और अतीत अनागत वर्तमान के कालके जे महापुरुष तिनके चरित्र सुने लोकालोकका निरूपण और छह द्रव्योंको स्वरूप छह कायके जीवोंका वर्णन छह लेश्याका व्याख्यान और बहों कालका कथन और कुलकरों की उत्पत्ति और अनेक प्रकार क्षत्रियादिकों के वंश और सप्त तत्व नव पदार्थ पञ्चास्तिकायका वर्णन आचार्य के मुख से श्रवण कर सर्व मुनियों को बारम्बार नमस्कारकर राजा धर्मके अनुरागसे पूर्ण नगरमें श्राये जिन धर्म गुणोंकी कथा निकटवर्ती राजाओं और मंत्रियोंसे कर और सबको बिदाकर महलमें प्रवेश करता. भया विस्तीर्ण है विभव जिसके और राणी लक्ष्मी तुल्य परमकांतिकर सम्पूर्ण चंद्रमासमान संपूर्ण सुंदर बदनकी धरणहारी नेत्र और मनकी हरणहारी हाव भाव विलास विश्वमकर मंडित महा निपुण परमविनय की करनहारी प्यारी वेई भईकमलाकी पंकि तिनकोराज सूर्यसमान प्रफुलित करताभया ॥ इति२६वांपर्वसं ० अथानन्तरमेघ आडम्बरकर युक्त जो वर्षाकाल सो गया और व्याकाशसंभारे खडग के समान निर्मल भया पद्म महोत्पल पुण्डरीक इंदीवरादि अनेक जातिके कमल प्रफुल्लित भए कैसे हैं कमलादि पुष्प विषयी. जीवों को उन्मादके कारणहैं और नदी सरोवरादिमें जल निर्मल भया जैसा मुनिका चित्त निर्मलहोय तैसा
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॥gga
पा | और इंद्रधनुष जाते रहे पृथ्वी कर्दम रहित होय गई शवऋतु मानों कुमुदोंके प्रफुल्लित होनेसे हंसती ।
हुई प्रकटभई विजुरियोंके चमत्कारकी संभावनाही गई सूर्य तुला राशिपर पाया शरदके श्वेत बादरे कहूं २ ! दृष्टि आने सो चणमात्रमें विलय जांय निशाम्प नवोड़ा स्त्री संध्याके प्रकाशरूप महा सुन्दर लाल |
अधरोंको धरे चांदनीरूप निर्मल बसोंको पहरे चन्द्रमाक्प हे चूडाममि जिसका सो अत्यन्त शोभती | | भई और वापिका निर्मल जखमी भरी मनुष्यों के मन को प्रमोद उपजाक्ती भई चकवा कवीके युगल | || को में केलि जा और मलोमतवे मासिवे को अाह जहां कमलों के वनमें प्रमते जो राजहंस अत्यंत |
शोभाको पो हैं सो सीताको चिन्ता जिसके प्रेमा ब्रो आमंडल से यहातु सुहावनी न लगी अग्नि । समान भास हे जग जिसको एक दिन यह भामंडल बज्जाको ललकर पिताके आगे बसंतप्तज नासा जो परममित्र बसे कहता भया केसाई भामंडल असबसे प्रति अंग जिसका भित्रको कहे है हे मित्र तू दीर्घशोची है और परकार्यमें उखपीएतोडिन होगाम तुझे मेरीक्षितानहीं याकुलतारूप भूमण । को रे जो प्राशारूप समुद्र उसमें में इलाहूं मुझे झालंजन क्यों न देवो ऐसे अार्तिध्यानकर युक्त भा. मंडलके बचन सुन राजसभाके सर्वलोक सभा रहित विवाद संयुक्त होगाखन विनको महा शोककर वप्तायमान देख भामण्डल लज्जासे भयो मुख हो गया तब एक वृहत्केतु नामा विद्याधर कहताभया अब क्या छिपाव राखो कुमारसे सर्व वृतांत यथार्थ कहो जिससे भांति न रहे तब वे सर्व वृतांत भामंडलसे कहते भए कि हे कुमार हम कन्याके पिताको यहांले आएये कन्याकी उससे याचना करी सो उसनेकहीं में कन्या रामको देनीकरीहे हमारे और उसके बार्गबहुत भई वह न माने तब वनावर्त ।
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पद्म पुराण
धनुषका करारभया जो धनुष राम चढ़ावें तो कन्याको परणे नातर हम यहांले आवेंगे और भामण्डल बिवाहेगा सो धनुषलेकर यहां से विद्याधर मिथिलापुरीगए सो राममहा पुण्याधिकारीने धनुष चढ़ायाही तब स्वयंबर ४४९मंडपमें जनककी पुत्री अति गुणवती महा विवेकवती पतिके हृदयकी हरणहारी ब्रत नियमकी धरन हारी नव यौवन मंडित दोषों से अखंडित सर्व कला पूर्ण शरद ॠतुकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान मुखकी कांतिको घरे लक्ष्मी सारखी शुभलक्षण लावण्यताकर युक्त सीता महासती श्रीराम के कंठ में बरमाला डार बल्लभा होती भई हे कुमार वे धनुष वर्तमान कालके नहीं गदा और हल आदि देवों पुनीत रत्नोंसे युक्त अनेक देव जिनकी सेवा करें कोई जिनको देख न सके सो वज्रावर्त सागरावर्त दोनों धनुषराम लक्ष्मण दोनों भाई चढावते भएवह त्रिलोक सुन्दरीरामने परखी अयोध्या ले गएसी अब वहवलात्कार देवोंसे भी न हारी जाय हमारी क्या बात और कदाचित कहोगे रामको परणाये पहले ही क्यों म. हरी सो जनक का मित्र रावण का जमाई मधुहै सो हम कैसे हरसकें इस लिये हे कुमार ! अव संतोष घरो निर्मलता भजो होनहार होयसो होय इन्द्रादिक भी और भांतिन करसकें तव धनुषचढ़ावनेका वृतान्त और राम से सीता का विहाह हो गया सुन भामण्डल अति लज्जावानहोय विषाद से पूर्ण भया मन में विचारे है जो मेरा यह विद्याधर का जन्म निरर्थक है जो मैं हीन पुरुषकी म्याईं उसे न परण सका ईषा और क्रोध से मंडितहोय सभा के लोकों को कहता भया कहां तुम्हारा विद्याधरपना तुम भूमिंगोचारियों से भी डरो हो "मैं आप जायकर भूमि गोवरियों को जीत उस को ले आऊंगा और जे धनुष दे आए तिनका निग्रह करूंगा सो कहकर शस्त्र सज विमान विषे चढ़ आकाश के मार्ग गया अनेक ग्राम नदी
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॥४५॥
। नगर बन उपवन सरोबर पर्वतादि पूर्ण पृथिवी मंडलदेखा तब इस की दृष्टि जो अपनेपूर्वभवका स्थानक विग्धपुर पहाड़ों के वीचथा वहां पड़ी चित्तमें चितई कि यहनगर मैंने देखा है इतने में जाति स्मरणहोय मुळ प्राय गई तब मंत्री ब्याकुल होय पिताके निकटले पाए चन्दनादि शीतलद्रब्योंसे छांटा तब प्रबोध को प्राप्तभया राजलोक की स्त्री इसेकहती भई हे कुमार तुमको यह उचितनहीं जो मातापिताके निकट ऐसीलज्जारहित चेष्टाकरो तुमतो विचक्षण हो विद्याधरोंकी कन्या देवांगनासे भी अतिसुन्दरहें वे परणों लोकहासकहा करावो हो तब भामण्डल ने लज्जा और शोकसे मुखनीचा किया और कहताभया धिक्कार है मुझको मैंने महामोहसे विरुधकाय्यं चिंता जोचीडालादि अत्यन्त नीचकुल हैं तिनके भी यह कर्म न होंय मैने अशुभ कर्म के उदय से अत्यन्तमलिनपरणाम किये में और सीता एकही माताकंउदरसे उपजे हैं सो अव मेर अशुभकर्म गया तो जथार्थजानी सो इसके ऐसेवचन सुनकर और शोककर पीड़ितदेख इस का पिता राजा चन्द्रगति गोदमें लेय मुख चूम पूछता भया हे पुत्र यह तैनेकौनभान्ति कहातबकुमार कहताभया।हे तात मेरा चरित्र सुनो पूर्वभवमें मैं इसही भरतक्षेत्रमें विदग्धपुर नगरका कुंडल मंडित राजाथा परमंडलका लटनहारा महाविग्रहका करणहारा पृथ्वीपर प्रसिद्ध निजप्रभाका पालक महाविभवकर संयुक्त सो मैं पापीने मायाचारकर एक विप्रकी स्त्री हरी सो वह विप्रतो अतिदुखी होय कहीं चला गया और मैंने राजा अरण्य के देशमें बाधा करी सो अरण्यका सेनापति बालचन्द्र मुझे पकडकर लेगया
और मेरी सर्व सम्पदा हर लीनी में शरीरमात्र रह गया कैएक दिन में बन्दीग्रहसे छूटा सो महादुःखित पृथ्वीपर भमण करता मुनियोंके दर्शनको गया महावत अणुव्रतका व्याख्यान मुना तीन लोक पूजा
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॥४१३
जो सर्वज्ञ वीतराग् देव तिनका पवित्र जो मार्ग उसकी श्रद्धाकरी जगतके बांधव जे श्रीगुरु तिनकी श्राज्ञाकर मैंने मद्यमांसकात्यागरूप व्रत श्रादराक्योंकि मेरी शाक्त हीनथी इसलिये विशेषत्रत न लेय सका देखो जिनशासनका अद्भुत महात्म्य जो में महापापीथा सो एतेही ब्रतसे में दुर्गतिमें न गया जिन धर्मके शरणसे जनककी राणी विदेहाके गर्भ में उपजी और सीताभी उपजी सो कन्या सहित मेग। जन्म भया और वह पूर्वभवका विरोधी विप्र जिसकी मैंने स्त्री हरी थी सो भी देव भया और मुझे जन्मतेही जैसे गृद्ध पक्षी मांसकी डली को लेजाय तैसे नक्षत्रोंसे ऊपर आकाशमें ले गया सोपहिले तो उसने विचार किया कि इसको मारूं फिर करुणासे कुंडल पहराय लघुपरण विद्याकर मुझे यत्न सो डारा सो गत्रिमें आकाशसे पड़ता तुमने झेला और दयावान होय अपनी गणको सौंपा सो मैं | तुम्हारे प्रसादसे बृद्धिको प्राप्तभया अनेक विद्याका धारकमया तुमने बहुत लड़ाया और माताने मेरी ।। बहुत प्रतिपालन करी भामंडल ऐसे कहके चुप होरहा सो राजा चन्द्रगति यह वृतांत सुनकर परम प्रबोध । को प्राप्तभया और इंद्रियों के विषयोंकी बासनातज महावैराग्य अंगीकार करनेको उद्यमीभया ग्राम धर्म कहिए स्त्रीसेवन सोई भया बृक्ष उसे सुखफलोंसे रहित जान और संसारको बन्धन जानकर अपनाराज्य भामंडलको देय श्राप सर्व भूतहित स्वामीके समीपशीघ्रही आया वे सर्व भूतहित स्वामी पृथ्वी पर सूर्यसमान प्रसिद्ध गुणरूप किरणोंके समूहकर भव्य जीवोंको अानन्दके करनहारे सो राजा चन्द्रगति विद्याधरने महेन्द्रोदय उद्यानमें आय मुनिकी अर्चनाकरी फिर नमस्कार स्तुतिकर सीस निवाय हाथ जोड इस भांति कहताभया हे भगवान तुम्हारे प्रसादकर में जिनदीक्षा लेय तप किया चाहूं हूं मैं गृहवास से
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पुराण
॥४२॥
उदासभया तब गुनि कहतेभए भवसागरस पार करणहारी यह भगवती दीक्षाहै सो लेग्रो राजातो वैराग्य को उद्यमीभया और भामंडलके राज्यका उत्सव होता भया ऊंचे स्वर नगारे बाजे नारी गीत मावती भई बांसुरी आदि अनेक वादित्रोंके समूह बाजते भए ताल मंजीरा आदि कांसीके वादित्र बाजे ऐसा बन्दीजनोंका शब्द होताभया कि शोभायमान जनक राजाका पुत्र जयवन्त होवे सो महेंद्रोदय उद्यान में ऐसा मनोहर शब्द गत्रिमें भया जिससे अयोध्याके सर्व जन निद्रा रहित होगए फिर प्रातःसमय मुनिराजके मुखसे महाश्रेष्ठ शब्द सुनकर जैनीजन अति हर्षको प्राप्तभए और सीताजनक राजाका पुत्र जयवन्त होवे ऐसी ध्वनि सुनकर मानों अमृतसे सींची गई रोमांच कर संयुक्त भयाहे सर्व अंग जिस का और फरके है बांई अांख जिसकी सोमनमें चितवती भई कि यह जोवारम्बार ऊंचा शब्द सुनिए कि जनकराजा का पुत्र जयवन्त होवे सो मेरा पिताभी जमकहै कनकका बड़ा भाई और मेरा भाई जन्मता ही हरा गया था सो वही न होय ऐसा बिचारकर भाई के स्नेहरूप जलकर भीज गाहै मन जिस का सो ऊंचे स्वरकर रुदन करती भई तब राम अभिराम कहिए सुन्दरहै अंग जिसका महा मधुर बचनकर कहतेभए हे प्रिये तू काहेको रुदन करे है जो यह तेरा भाई है तो अब खबर अावे है और जे
और है तो हे पंडिते तू क्यों सोच करे है जे विचक्षण हैं वे मुए का हरेका गएका नष्ट हुएकाशोक न करें हैं बल्लभेजे कायर हैं और मूर्ख हैं उनके विषाद होयहै और जे पंडित हैं पराक्रमी हैं तिनके बिषादनहींहोयहै इस भांति रामके और सीताके बचन होवे हैं उसही समय बधाई वारे मंगल शब्दकरते आए सो राजादशरथने महा हर्ष से बहुत आदर से नानाप्रकार के दानकरे और पुत्रकलत्रादिसर्व कुटुंब सहित वनमें गयासो ।
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पद्म
॥४५३॥
नगरके बाहिर चारों तरफ विद्याधरों की सेना सैकड़ों सामतों से पूर्ण देखञ्चाश्चर्य को प्राप्त भया विद्याधरों पुराण ने इन्द्रके नगरतुल्य सेनाका स्थानक क्षणमात्रमें वनाय राखा है जिसके ऊंचाकोट बड़ा दरवाजा जे पताका तोरण तिनसे शोभायमान रत्नोंसे मंडितऐसा निवास देख राजादशरथ जहां बनमें साधु विराजें थे वहांगया नमस्कारकर स्तुतिकर राजाचन्द्रगति का वैराग्य देखा विद्याधरोंसहित श्री गुरूकी पूजा करी राजा दशरथ सर्व बांधव सहितएक तरफ बैठा और भामंडल सर्व विद्याधरों सहित एकतरफ बैठा विद्याघर और भूमिगोचरी मुनिके पासयति और श्रावक का धर्म श्रवणकरते भए भामंडल पिता के वैराग्य होयवे कर कछुइक शोकवानबैठा तब मुनि कहते भए जो यतिकाधर्म है सो शूरवीरों का है जिनके गृहबास नहीं महाशान्त दशा है आनन्दका कारण है महा दुर्लभ है त्रैलोक्य में सार है कायरजीवों को भयानक भासे है भव्य जीव मुनिपदको पायकर अविनाशी धामको पावे हैं अथवा इन्द्र अहमिन्द्र पद लहे हैं लोक के शिखर जो सिद्धस्थानक है सो मुनिपद विना नहीं पाइये है कैसे हैं मुनि सम्यग्दर्शन कर मण्डित हैं जिन मार्ग से निर्वाण के सुख को प्राप्त होय और चतुर्गतिके दुख से छूटे सोही मार्ग श्रेष्ठ है सो सर्वभूतहित मुनि ने मेघकी गर्जना समान है ध्वनि जिसकी सर्व जीवोंके चित्तको आनन्दकारी ऐसे वचन कहे कैसे हैं मुनि समस्त तत्वोंके ज्ञाता सो मुनिके वचनरूप जल संदेह रूप ताप के हरता प्राणी जीवों ने कर्ण रूप अञ्जुलियों से पीए कईएक मुनिभए कईएक श्रावकभये महा धर्मानुराग कर युक्त है चित्त जिनका धर्मका व्याख्यान होयचुका तब दशरथ पूछताभया हे नाथ चन्द्रगति विद्याघरको कौन कारण वैराग्य उपजा और सीता अपने भाई भामण्डल का चरित्र सुननेकी इच्छा करती हैं।
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चा
पुराच
५४०
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कैसी है सीता महा विनयवन्ती है तब मुनि कहते भये हे दशरथ तुम सुनो इन जीवोंकी अपने अपने उपार्जे कर्मों से विचित्रगति है यह भामण्डल पूर्व संसार में अनन्त भ्रमण कर अति दुःखित मया कर्म रूपी पवनका प्रेरा इस भवमें आकाशसे पड़ता राजा चन्द्रगतिको प्राप्तभया सो चन्द्रगतिने अपनी पुष्पवतीको सौंपा सो नवयोवन में सीताका चित्रपट देख मोहितभया तब जनकको एक विद्याधर कृत्रिम अश्व होय लेगया यह करार ठहरा जो धनुष चढ़ावे सो कन्या परणे फिर जनकको मिथिलापुर लेय आए और धनुष लाए सो धनुष श्रीरामने चढ़ाया और सीता परणी तब भामण्डल विद्याघरोंके मुख से यह वार्ता सुन कोकर विमान में बैठ आवे था सो मार्ग में पूर्व भव का नगर देखा तब जातिस्मरण हुवा कि मैं कुण्डलमण्डित नामा इस विदग्धपुर का राजा श्रघर्मी था पिंगल ब्राह्मण की स्त्री हरी फिर मुझे अरण्य के सेनापति ने पकड़ा देश से कादिया सर्वस्व लूटलिया सो महापुरुष के आश्रय याय मद्य मांस का त्याग किया शुभ परिणामों से मरणकर जनक की राणी विदेहा के गर्भ से उपजा और वह पिंगल ब्राह्मण जिसकी स्त्री हरी सो बन से काष्ठ लाय स्त्री रहित शून्यकुटी देख अति विलाप करतो भया कि हे कमल नयनी तेरी गणी प्रभावती सारिषी माता और चक्रध्वज सारिखे पिता तिनको और बड़ी विभूति और बड़ा परिवार उसे तज मोसे प्रीति कर विदेश आई रूखे आहार और फाटे वस्त्र तैंने मेरे अर्थ से आदरे सुन्दर हैं सर्व अंग जिसके अवतू मुझेतज कहां गई इस भांति वियोगरूप अग्नि दग्धायमान वह पिंगल विप्र पृथिवी पर महा दुःख सहित भ्रमण कर मुनिराज के उपदेश से मुनिहोय तप अंगीकार करता भया तपके प्रभावसे देव भया सो मनमें चिन्तवताभया कि वह मेरी कान्ता सम्यक्त
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पुराण
५४५५॥
रहितथी सो तिर्यंचगतिको गई अथवा मायाचार रहित सरल परणामथी सो मनुष्यणीभई अथवा समाधि मरणकर जिनराजको उरमें धर देवगतिको प्राप्तभई फिर अवधिजोड़ निश्चय किया कि उसको तो कुण्डल मण्डित हर लेगया था सो कुण्डल मडित को राजा अरण्य का सेनापति बालचन्द्र बांध कर अरण्य के पास लेगया और सबस्व लूट लिया फिर राजो अरण्य ने इसको राज्य से विमुख कर सर्व देश में अपना अमल कर इसको छोड़दिया सो भ्रमणकरता महा दुखी मुनिका दर्शनकर मधु मांसका त्याग करता भया सो प्राण त्यागकर राजा जनककी स्त्री के गर्भ में आया और वह मेरी स्त्री चित्तोत्सवासो । भी राणी के गर्भ में आई है सो वहतो स्त्री की जाति पराधीन उसका तो कुछ अपराध नहीं और वह पापी कुंडलमंडित का जीव इस राणी के गर्भ में है सो गर्भ में दुःख दूं तो राणी दुःख पावे सो उससे तो मेरा बैर नहीं ऐसी वह देव विचार कर राणी विदेहा के गर्भ में कैंडल मंडित का जीव है उसपर हाथ मसलता निरन्तर गर्भकी चौकसी देवे सो जब बालक का जन्म भया तब बालकको हरा
और मनमें विचारी कि इसको शिला पर पठक मारूं अथवो मसल डारूं फिर विचारी कि धिक्कार है मुझ को जो पाप चिन्ता बाल हत्या समान पाप नहीं तब देवने बालक को कुंडल पहराय लघु परण नामा विद्या लगाय बालक को आकाश से डारा सो चन्दगति ने झेला और राणी पुष्पवती को सौंपा सो भामण्डल ने जातिस्मरण होय सर्व वृत्तान्त चन्द्रगति को कहा कि सीता मेरी बहिन है
और राणी विदेहा मेरी माता है और पुष्पवती मेरी प्रतिपालक माता है यह वार्ता सुन विद्या धरों की सभा सर्व प्राश्चर्य को प्राप्त भई और चन्द्रगति ने भामण्डल को राज्य देय संसार ।
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पुरान
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शरीर और भोगों से उदास होय वैराग्य अंगीकार करना विचारा और भामंडल को कहताभया हे पुत्र तेरे जन्मदाता माता पिता ते रे शोकसे महादुःखी तिष्ठे हैं सो उनको अपना दर्शनदेय तिनके नेत्रोंको आनन्द उपजाय सो स्वामीसर्वभूतहित मुनिराज रोजा दशरथ से कहे हैं यह राजा चन्द्रगति संसार का स्वरूप असार जान हमारे निकट चाय जिन दीक्षा धरता भया, जो जन्मा है सो निश्चय से मरेगा और जो मूवा है सो अवश्य नया जन्म धरेगा यह संसार की अवस्था जान चन्द्रगति भव भ्रमण से डरा ये मुनि के वचन सुनकर भामण्डल पूछताभया हे प्रभो चन्द्रगति का और पुष्पवती का मुझपर अधिक स्नेह काहे से भया, तब मुनि बोले, ये पूर्वभवके तेरे माता पिताहैं सो सुन || एक दारूनाम ग्राम वहां ब्राह्मण विमुचि उस के agat शास्त्री और अतिभूत पुत्र उसकी स्त्री सरसा, और एक कयान नामा परदेशी ब्राह्मण सो अपनी माता ऊर्जा सहित दारूग्राम में आया सो पापी अतिभूत की स्त्री सरसाको और इनके घर के सारभूत धनको ले भागा सो श्रतिभूत महादुःखी होय उसके ढूंढनेको पृथिवीपर भटका और इसका पिता के एक दिन पहिले दक्षिणा
अर्थ देशांतर गया था सो घर पुरुषों विना सूना होगया जो घरमें थोड़ा बहुतधन रहा था सो भी जाता रहा और प्रतिभूत की माता अनुकोशा सो दलिद से महा दुखी यह सब वृतांत विमुचिने सुना कि घरका धनभी गया और पुत्रकी बहू भी गई और पुत्र ढूंढनेको निकसा है सो नजानिये कौन तरफ़ गया तब विमुचि घर आया और अनुकोशाको यति विल देख घीर्य्य वन्धाया । कयान की माता ऊर्जा सभी महादुःखिनी पुत्रने अन्यायकार्यं किया उससे अतिलज्जायमान सो उसकोभी दिलासा करी कि तेरा अपराध नहीं और आप विमुचि पुत्रके ढूंढने को गया सो एक सर्वारिनाम नगरके बनमें एक अवधि
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॥४
॥
पन्न | ज्ञानी मुनि सो उसने लोकन के मुखसे उनकी प्रशंसा सुनी कि अबधिज्ञान रूप किरणों कर जगत् में
प्रकाश करें हैं तब यह मुनि पै गया धन और पुत्र वधू के जानेसे महादुखी थाहीसो मुनिराजकी तपोऋद्धि देखकर और संसारकी झूठी माया जान तीव्र वैराग्य पाय विमुचि ब्राह्मणमुनि भया और विमुचिकी स्त्री अनुकोशा और कयान की माता ऊर्या ये दोनों ब्राह्मणी कमलकान्ता आर्यिकाके निकट आर्यिकाके व्रत धरतीभई सो विमुचि मुनिश्रीरखे दोनों आर्यिका तीनोंजीव महानिस्पृह धर्मध्यानके प्रसादसे स्वर्गलोकगए कैसाहै वह लोक सदाप्रकाशरूप है, विमुचिका पुत्र अतिभूत हिंसामार्ग का प्रशंसक और संयमी जीवोंका निन्दक सो शार्त रौद्रध्यानके योगसे दुर्गति गया और यह कयान भी दुर्गतिगया और वह सरसा अति भूतकी स्त्री जो कयानकी लार निकसीथी सो वलाहक पर्वतकी तलहटीमें मृगीभई, सो व्याघके भय से मृगोंके यूथसे अकेली होय दावानलमें जलमुई, सो जन्मांतर में चित्तोत्सवा भई और वह कयान भय भ्रमणकर ऊंटभया फिर धूम्रकेश कापुत्र पिंगल भया, और वह अतिभूत सरसाका पति भव भ्रमण करता राक्षससरोवर केतीर हंसभया, सो सिचानने इसको सर्वअंग घायलकिया, सो चैत्यालयके समीप पड़ावहां गुरु शिष्यको भगवान्का स्तोत्र पढ़ा-थे सो इसनेसुना, इसकी पर्याय छोड़ दसहज़ार वर्ष की आयु का धारी नगोत्तर नामा पर्वतविषे किन्नर देव भया वहां से चयकर विदग्धपुरका राजा कुंडलमण्डित भया सो पिंगल के पास से चित्तोत्सवा हरी सो उसका सकल वृतांत पूर्वे कहाही है, और वह विमुचि ब्राह्मण नो स्वर्गलोककोगयाथा सोराजा चन्द्रगति भया,और अनुकोशात्राह्मणी पुष्पवतीभई और वह कयानकै एकलेय पिंगल होय मुनिव्रतधार देवभया सो उसने भामण्डलको होते ही हरा,और वह ऊर्याब्राह्मणी देवलोकसेचयकर
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पुराख ॥४५चा
पम राणी विदेहा भई । यह सकल वृत्तान्त राजा दशरथ सुनकर भामण्डल से मिला और नेत्र अश्रूपातसे भरलीये
अोर संपूर्णसभा यह कथा सुनकरसजलनेत्र होगई और रोमांच होयाए और सीता अपने भाई भामंडल को देख स्नेहकर मिली और रुदन करती भई, कि हे भाई में तुझे प्रथमही देखा और श्रीराम लक्ष्मण उठ कर भामण्डलसे मिले, मुनिको नमस्कार कर खेचर भूचरसवही बनसे नगरको गए भामण्डल से मन्त्र कर राजा
दशरथने जनक राजा के पास विद्याधर पठाया और जनकको प्रावनेके अर्थ विमान भेजे राजा दशरथ ने || भामण्डलका बहुत सन्मान किया और भामण्डलको अतिरमणीक महिल रहिबेको दीए जहां सुन्दर वापी | सरोवर उपवनहें सो वहां भामण्डल सुखसेतिष्ठा, और राजा दशरथने भामण्डलके वनेका बहुत उत्सव किया याचकों को बांबा से भी अधिक दान दिया,सो दरिद्र से रहित भए. और राजा जनकके निकट पपनसे भी अति शीघ विद्याधर गए, जायकर पुत्र के आगमनकी वधाईदी और राजा दशरयका और भामंडलका पत्र दिया सो पांच कर जनक अतिआनन्द को प्राप्त भया, रोमांच होय श्राए, विद्याधर से राजा पूछे है हे भाई यह स्वप्न है या प्रत्यक्ष है तू पा हमसे मिल, ऐसा कहकर राजा मिले और लोचन सजल होय पाए जैसा हर्ष पुत्रके मिलने का होय तैसा पत्र लानेवाले से मिलनेका हर्ष भया सम्पूर्ण वस्त्र प्राभूषण उसे दिए सव कुटुम्ब के लोगोंने भेले होय उत्सव किया, और बारम्बार पुत्रका वृत्तान्त उसे पूछेहैं और सुन सुन तृप्त न होंय विद्याधर मे सकल वृत्तान्त विस्तार से कहा उसी समय राजा जनक सर्व कुटम्ब सहित विमान में बैठ अयोध्या को चले सो एक निमिष में जाय पहुंचे कैसी है अयोध्या जहां वादित्रों के नाद होय रहें हैं, जनक शीघही विमानसे उतर पुत्र से मिला, सुखकर नेत्र मिल गए, क्षण एक मूर्छा पाय |
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पद्म
पुरा
॥४५
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गई फिर सचेत होय पातके भरे नेत्रों से पुत्र को देखा और हाथ से स्पर्शा और माता विदेहा भी पुत्र को देख मूर्च्छित हो गई फिर सचेत होय मिली और रुदन करती भई, जिसके रुदन को सुनकर तिर्यों को भी दया उपजे हाय पुत्र तू जन्मतही उत्कृष्ट बैरीसे हरागया था तेरे देखनेको चिन्तारूप अग्नि कर मेरा शरीर दग्घ भया था सो तेरे दर्शन रूप जल से सींचा शीतल भया और धन्य है वह राणी पुष्पवती विद्याधरी जिसने तेरी बाललीला देखी और क्रीड़ा कर धूसरा तेरा अङ्ग उरसे लगाया और मुख चूमा और नवयोवन अवस्था में चन्दन कर लिप्त सुगन्धों से युक्त तेरा शरीर देखा ऐसे शब्द माता विदेहा ने कहे और नेत्रों से अश्रुपात झरे और स्तनों से दुग्ध भरा और विदेहाको परम आनन्द उपजा जैसे जिनशासनकी सेवक देवी श्रानन्दसहित तिष्ठे तैसे पुत्रको देख सुखसागर में तिष्ठी एकमास पर्यन्त यह सर्व अयोध्या में रहे फिर भामंडल श्रीरामसे कहते भए कि ह देव इस जानकीके तिहारोही शरण है धन्य हैं भाग्य इसके जो तुम सारिखें पति पाए ऐसे कह बहिनको छाती से लगाया और माता विदेहा सीता को उर से • लगाकर कहती भई हेपुत्री तू सासू सुसर की अधिक सेवा करियो और ऐसा करियो कि जो सर्व कुटुम्बमें तेरी प्रशंसा, होय सो, भामंडल ने सबको बुलाया जनकका छोटा भाई जो कनक उसे मिथिलापुरी का राज्य सौंपकर जनक और विदेहा को अपने स्थानकलेगया यह कथा राजाश्रेणिक से गौतम स्वामी कहे हैं कि मगधदेश के
पति तू धर्मका माहात्म्य देख जो धर्म के प्रसादसे श्रीरामदेवके सीता सारिखी स्त्री भई गुणरूपकर पूर्ण जिसके भामंडलसा भाई विद्याधरोंका इन्द्र और देवाधिष्ठित वें धनुष सा रामने चढ़ायें और जिनके लक्ष्मण सा भाई सेवक यह श्रीरामका चरित्र भामंडल के मिलापका वर्णन जो निर्मल चित्तहोय सुनें उसे मन वांछित फलकी सिट दोष और नीरोग शरीरदोष सूर्य समान प्रभाको पावें ॥ इति तीसवांपर्व संपूर्णम् ।
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पद्य
अथ श्रीरामचन्द्र बनवास नामा त्रतीय महा अधिकारः अथानन्तर राजाश्रोणक गौतमस्वामीसे पूछतेभए हे प्रभो वे राजादशरथ जगतके हितकारी राजा अरण्यके पुत्र फिर क्या करतेभए और श्रीराम लक्ष्मणका सर्व वृतांत में सुना चाहूं हूं सो कृपा करके कहो तुम्हारा यश तीनलोकमें बिस्तर रहाहै । तब मुनियों के स्वामी महातप तेजके धारनहारे गौतम गणधर कहते भए जैसा यथार्थ कथन श्री सर्वज्ञदेव बीतरागने भाषाहै तैसा हे भव्योचम तू मुन। | जब राजा दशरथ फिर मुनियोंके दर्शनोंको गए तो सर्व भूतहित स्वामीको नमस्कारकर पूछते भए | हे स्वामी मैं संसार, अनन्त जन्मधेरे सो कईभवकी बातो तुम्हारे प्रसादसे सुनकर संसारको तज चाहूंहूं तब साधु दशरथको भव सुननेका अभिलाषी जानकर कहते भए हे राजन सब संसारके जीव अनादि कालसे कर्मोंके सम्बन्धसे अनन्त जन्म मरण करते दुःखही भोगत आएहैं । इस जगत मे जीवों के कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट मध्यम जघन्य तीन प्रकार की है और मोक्ष सर्वमें उत्तम है जिसे पंचमगति कहे हैं सो अनन्त जीवोंमें कोई एकके होयहै सबको नहीं वह पंचमगति कल्याण रूपणी है जहां से फिर आगमन नहीं वह अनन्न सुखका स्थानक शुद्ध सिद्धपद इंन्द्रिय विषय रूप रोगोंकर पीड़ित || मोहकर अन्ध प्राणी न पावें । जे तत्वार्थश्रद्धानकर रहित वैगग्यसे वहिर्मुख है और हिंसादिकमें है प्रवृति जिनकी तिनको निरन्तर चतुर्गतिका भ्रमणही है। अभव्योंको तो सर्वथा मुक्ति नहीं निरंतर भव भ्रमणही है और भव्यों में कोई एकको निवृति है जहां तक जीव पुद्गल धर्म अधर्म काल हे सो लोकाकाशहै । और जहां अकेला आकाशही है सो अलोकाकाशहे लोकके शिखर सिद्ध विराजे हैं
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पा
पुराण
॥४६॥
इस लोकाकाशमें चेतना लक्षण जीव अनन्त हैं उनका विनाश नहीं संसारी जीव निरन्तर पृथ्वी काय जलकाय अग्निकाय वायुकाय वनस्पातकाय त्रसकाय ये छै काय तिनमें देह धार भ्रमण करे । हैं यह त्रैलोक्य अनादिअनन्तहै इसमें स्थावर जंगमजीव अपने २ कर्मों के समूहकरबन्धे नाना योनियों में भ्रमण करे हैं और जिनराजके धर्मकर अनन्त सिद्धमए और अनन्त सिद्ध होवेंगे और होय हैं। जिन मार्ग टारकर और मार्ग मोक्ष नहीं । और अनन्तकाल व्यतीत भयाऔर अनन्त काल व्यतीत || होयगा। कालका अन्त नहीं जो जीव सन्देह रूप कलंककर कलंकी हैं और पापकर पूर्ण हैं और धर्मको नहीं जाने हैं उनके जैनका श्रद्धान कहां से होय और जिनके श्रद्धान नहीं सम्यक्तसे रहितहें। तिनके धर्म कहांसे होय और धर्मरूप वृक्ष बिना मोक्षफल कैसे पावे अज्ञान अनन्त दुखका कारणहैजे । मिथ्यादृष्टि अधर्ममें अनुरागी हैं और प्रतिउम्रपाप कर्मरूप कंचुकी (चोला )कर मंडितहैं। रागादि में | विषय के भरे हैं तिनका कल्याण कैसे होय दुःख ही भोगवे हैं एकहस्तिनागपुर विषे उपास्तनामा पुरुष उस की दीपनी नामास्त्री सो मिथ्याभिमान करपूर्ण जिसके कुछनियम तनहीं श्रद्धानराहत महाक्रोधवंतीप्रदेख सकी कषायरूप विषकी धारणहारी महादुर्भाव निरंतर साधुवोंकीनिंदा करण हारी कुशब्द बोलन हारी | महाकृपण कुटिल श्राप किसी को कदेही नदेय और जो कोई दान करे उसको मनेकरेधनकी पिरानी और धर्म नमाने इत्यादिक महादोषकी भरी मिथ्यामार्ग की सेवक सो पापकर्म के प्रमाक्कर भवसागरविले अनन्तकाल भ्रमणकरती भई और उपास्तिदान के अनुरागकर नन्द्रधरनगरविषे भद्रनामा मनुष्यउसके धारिणी स्त्री उसके धारणनामा पुत्रभया भाग्यवान बहुत कुटुम्बी उसके नयनमुन्दरी नामात्री सो धारणजे
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पद्म
पुराण
।।४६९०
शुदभाव ले मनियों को साहारवान देश अन्तकाल घरीर मकरधातुकी खगडीप घिउमाकुरु भोगभूमि। में तीन पलवसुखभोग देव पर्याय ब्रहांसे चयकर पृचलायती मगरी किये रामानन्दीघोष राणी बसुपा उस के तन्द्रिवर्धन नामा पुत्र भया एक दिन राजा मनिषोष प्रशोधर नाम मुनि के निकट धर्म श्रवना कर तंदिवर्धन को राज्यदेय आप मुत्तिभया महातप कर स्वर्ग लोकगया और बान्दिवर्थन ले थावक के व्रत धारे पञ्चनमोंकार के स्मरण विये तत्पर कोहि पर्व पस्यन्त महाराज्य पद के मुख भोग कर अन्तकाल समाधि मरण कर पञ्चमें देवलोक गया वहां से चयकर पश्चिम बिदेह विने विजयाध पर्वत वहां शशिपुर नाम नगर वहां राजा रत्नमाली उसके राणी क्तिलता उसके सूर्य जब मामा पुत्र भया एक दिन रत्न माली महा बलवान नाम सिंहपुर का राजा बज्रलोचन तासूयुद्ध करने को गया। अनेक दिव्य रथ हाथी घोड़े पियादे महा पराक्रमी सामन्त लार नानाप्रकार वस्त्रों के धारक राजा होट डसता धनुष चढ़ाय वस्त्र पहिरे रथ विषे प्रारुढ भयानक प्राकृतिको घरे आग्नेय विद्याधरशत्रुके स्थानक को दग्ध करवेकी है इच्छा जिसके उस समय कोई एक देव तत्काल आयकर कहता भया हे रत्नमाली तैने यह क्या आरम्भा अब तू क्रोध तज मैं तेरा पूर्व भवका वृत्तान्त कहूं हूं सो सुन भरत क्षेत्र विषे गांधारी नगरी वहां राजा भूति उसके पुरोहित उपमन्यु सो राजा और पुरोहित दोनों पापी मांसभक्षी एक दिन राजा कवलगर्भ स्वामी के मुखसे ब्याख्यान सुन यह व्रत लिया कि मैं पाप का अाचरण न करूं सो बृत मन्यु पुरोहितने छुड़ाय दियो एकसमय राजापर परक्षत्रुवोंकी धाड आई सो राजा और पुरोहित दोनों मारे गए पुरोहितका जीव हाथी भया सोहाथी युद्धमें घायल होय नमोकार मन्त्र का श्रवण कर
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पद्म
५४६३॥
तू
उसी गन्धारी नगरी में राजा भूतिकी राणी योजनगन्धा उसके अरिसूदन नामा पुत्र भया सो उस ने पुराण कवलगर्भ मुनिका दर्शन कर पूर्व जन्म स्मरण किया तब महाबैराग्य उपजा सो मुनिपद आदरा समाधि मरण कर ग्यारवें स्वर्ग में देवभया सो मैं उपमन्यु पुरोहितका जीव और तू राजाभूत मरकर मन्दारण्य में मृगभया दावानल में जरमूत्रा मरकर कलिंजनामा नीचपुरुष भया सो महा पापकर दूजे नरक गया सो मैं स्नेहके योगकर नरकमें तुझे संबोधा आयु पूर्णकर नरक से निकस रत्नमाली विद्याघरभया सो अब नरक के दुःख भूलगया यह वार्ता सुन राजा रत्नमाली सूर्यजय पुत्र सहित परप बैराग्यको प्राप्त भगा दुर्गति के दुख से डरा तिलकसुन्दर स्वामी का शरण लेय पिता पुत्र दोनों मुनि भए सूर्यजय तपकर दसमें देवलोक देव भया वहांसे चयकर राजा अरण्यका पुत्र दशरथ भयो सो सर्व भूतहित मुनि कहे हैं अल्पमात्र भी सुकृतकर उपास्तिक का जीव के एक भवमें बडके बीजकी न्याई बृद्धिको प्राप्तभया तू राजा दशरथ उपास्ति का जीव है और नन्दिवर्धन के भव विषे तेरा पिता राजानन्दिघोषमुनि होय चैवेक गया सो वहाँ से चयकर मैं सर्वभूतहित भया और जो राजाभूत का जीव रत्नमाली भयाथा सो स्वर्गसे प्राय कर यह जनक भया और उपमन्यु पुरोहित का जीव जिसने रत्नमाली को संबोधाथा सो जनकका भाई कनक भया इस संसार में न कोई अपना है न कोई पर है शुभाशुभ कर्मों कर यह जीव जन्म मरण करे हैं यह पूर्वभव का नसुन राजा दशरथ निसंदेह होग संयम को सन्मुखभया गुरुके चरणों को नमस्कारकर नगर में प्रवेश किया निर्मलहै अन्तःकरण जिसका मनमें विचारता भया कि यह महामंडलेश्वर पदका राज्य महा सुबुद्धि जे शब तिनको देकर में सुनिबत अंगीकार करूं राम घर्मात्मा हैं और महा
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॥४६॥
प्य धीर हैं धीर्यको घरे हैं यह समुद्रांत पृथिवी का राज्यपालवे समर्थ हैं और भाईभी इनके प्राज्ञाकारी हैं
ऐसा राजा दशरथने चितवन किया कैसे हैं राजा मोहसे परांगमुख और मुक्तिके उद्यमी उस समय शरद ! ऋतु पूर्णभईऔर हिमऋतु का आगम भया कैसी है शरदऋतु कमलही हैं नेत्र जिसके और चन्द्रमाकी चांदनी सोही है उज्ज्वल वस्त्र जिसके सो मानों हिमऋतु के भयकर भागगई॥ ____ अथानन्तर हिमऋतु प्रकटभई शीत पड़ने लगा बृन दहे और ठंडी पवन कर लोक व्याकुल भए जिस ऋतु में धनरहित: पाणी जीर्ण कुटि में दुख से काल व्यतीत करे हैं कैसे हैं दरिद्री फट गए हैं
अधर और चरण जिनके और बाजे हैं दांत जिनके और रूखे हैं केश जिनके और निरन्तर अग्निका है | सेवन जिनके और कभी भी उदर भर भोजन न मिले, कठोर है चर्म जिनका ।और घर में कुभार्या के वचनरूप
सस्त्रों कर विदारा गया है चित्त जिनका । और काष्टादिक के भार लायवेको कांधे कुठारादिक को घरे बन वन भटके हैं और शाक वोपलि आदि ऐसे आहार कर पेट भरे हैं और जे पुण्य के उदय कर राजादिक धनाढ्य पुरुष भए हैं वे बडे महलों में तिष्ठे हैं और शीत के निवारण हारे अगर के घूप की सुगन्धिता कर युक्त सुन्दर वस्त्र पहरे हैं और सुवर्ण और रुपादिक के पात्रों में षट् रस संयुक्त सुगन्धि स्निग्ध भोजन करे हैं, केसर और सुगन्धादि कर लिप्त हैं अंग जिनके, और जिनके निकट धूप दान में धूप खेइये हैं। और परिपूर्ण धन कर चिन्तारहित हैं झरोखों में बैठे लोकन को देखे हैं। और जिन के समीप गीत नृत्यादिक विनोद होयवो करे हैं, रत्नों के ग्राभूषण और सुगन्धमालादिक कर मंडित सुन्दरकथा | में उद्यमी हैं और जिन के विनयवान् अनेक कला की जानन हारी महारूपवती पतिव्रता स्त्री हैं।
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पन्न
| पुण्य के उदय कर ये संसारीजीव देवगति मनुष्यगति के सुख भोगे हैं और पाप के उदय कर नरक तिर्यंच तथा कुमानुष होय दुःख दरिद्र भोगे हैं, ये सर्व लोक अपने अपने उपार्जित जे कर्म तिनके फल भोगे हैं। ऐसे मन में विचार कर राजा दशरथ संसार के वास से अत्यन्त भय को प्राप्तभया निर्वृति के पायबे की है अभिलाषा जिस के, समस्त भोग वस्तुवों से विरक्त भया द्वारपाल को कहता भया। कैसा है। दारपाल भूमि में थापा है मस्तक और जोड़े हैं हाथ जिस ने नपति ने उसे भाज्ञाकरी कि हे भद्र सामंत मंत्रीपरोहित सेनापति आदिसब को ले प्रावो, तब वह दारपाल दारेपर पाय दूजे मनुष्य को दोरपर मेल तिनको आज्ञा प्रमाण बुलावन को गया, तब वे प्रायकर राजा को प्रणाम कर यथायोन्य स्थान में तिष्ठे विनतीकर कहते भए हे नाथ आज्ञा करो क्या कार्य है तब राजाने कही में संसारकात्याग कर निश्चयसेती संयम धरूंगा, तपमंत्रो कहतेभए हे प्रभो तुमकोकोन कारष वैराग्य उपजा, तब नृपतिनेकही कि प्रत्यक्ष यह । समस्त जगत् सूके तृण की न्याई मृत्यु रूप अग्निकर जरे है और जो अभव्यन को अलभ्य और भव्यों को लेने योग्य ऐसा सम्यक्त सहित संयम सो भवतापका हरणहारा और शिवसुख का देनहारा है सुर असुर नर विद्याधरों कर पूज्य प्रशंसा योग्यहै, मैंने आजमुनिके मुख से जिनशासन का व्याख्यान सुना, कैसाहै जिन शासन सकलपापोंका वर्जन हाराहै तीन लोक में प्रकट महा सूक्ष्म चर्चाजिसमेंअतिनिर्मल उपमा रहित है सर्व वस्तुओं में सम्यक्तपरम वस्तु है सोसम्यक्तका मूलजिनशासनहै श्रीगुरुत्रोंके चरणारबिंदके प्रसादकर में निर्वृत्तिमार्ग में प्रवृता मेरी भव भ्रांति रूप नदी की कथा अाज में मुनि के मुखसे सुनी और मुझे जातिस्मरण भया सोमेरे अंग देखो त्रास करकांपे हैं कैसी है मेरी भवभ्रान्तिनदी नानाप्रकारके जे जन्म वेही हैं भ्रमण !
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पुराख
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जिस में और मोह रूप कीच कर मलिन कुतर्करूप आहों कर पूर्ण महादुःख रूप लहर उठे हैं निरन्तर जिसमें, मिथ्यारूप जल कर भरी मृत्युरूप मगरमच्छों का है भय जिसमें रुदनके महाशब्दको घरे, अधर्म प्रवाह कर वहती अज्ञानरूप पर्वत से निकसी संसार रूप समुद्र में है प्रवेश जिस का सो अब में इस भवनदी को उलंघकर शिवपुरी जायवे का उद्यमी भयाहूं तुम मोह के प्रेरे कछु वृथा मत कहो संसार समुद्र तर निर्वाण दीप जाते अन्तराय मत करो जैसे सूर्य के उदय होते अंधकार न रहे तैसे सम्यक ज्ञान 'के होते संशय तिमिर कहांरहे इसलिये मेरे पुत्र को राज्य देवो अव ही पुत्र का अभिषेक करावो में तपोवन में प्रवेश करूं हूं ये वचन सुन मंत्री सामंत राजा को वैराग्य का निश्चय जान परमशोक को प्राप्त भए नीचे होय गए हैं मस्तक जिनके और अश्रुपात कर भर गए हैं नेत्र जिन के अंगुरी कर भूमि को कुचरते क्षण मात्र में प्रभारहित होय गए, मौन से तिष्ठे और सकल ही रणवास प्राणनाथ का निर्यन्य व्रत का निश्चय सुन शोक को प्राप्त भया अनेक विनोद करते थे सो तज कर प्रांसुओं से लोचन भर लिए, और महारुदनः किया और भरत पिता का वैसग्य सुन आप भी प्रतियोष को प्राप्त भए, क्ति में चिसक्ने भए ग्रहो यह स्नेह का बन्ध छेदना कठिन है हमारा पिता ज्ञान को प्राप्त भया जिनदीक्षा लेने को.. इच्छे है, अब इनके राज्य की चिन्ता कहाँ, मुझो तो न किसी को कुछ पूछमा न कुछ करना तपोवन में प्रवेश करूगा संयम घरुगा। कैसा है संयम संसार के दुःखों का क्षय करणहारा है और मेरे इस देह कर भी क्या कैसा है यह देह व्याधि का घर है और विनश्वर है सो यदि देहही से मेरा सम्बन्ध नहीं तो । बांधवों से कैसा सम्बन्ध यह सब अपने अपने कर्म फल के भोगता हैं, यह प्राणी मोह. कर अन्धा है |
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पुराण
॥४६॥
दुःख रूप बन में अकला ही भटके है कैसा है दुःख रूप बन अनेक भव भय रूप वृक्षों से भरा है ।।
अथानन्तर केकई सकल कला की जाननहारी भरतकी यह चेष्टाजॉन अतिशोकको धरती मनमें चितवे है कि भरतार और पुत्र दोनोंही वैराग्य धारा चाहेहैं कौनउपायकर इनका निवारण करूं इसभांति चिन्ता कर ब्याकुलभया है मन जिसका तब उसको राजाने जो करदीयाथा सी याद आया और शीघही पतिपैजाप्राधे सिंहासनपर बैठी और बीनती करती भई कि हे नाथ सर्वही स्त्रियों के निकट तुमने मुझे कृपा कर कही थी जोत मांगे सो में देउ सो अब देवो तुम महा सत्यवादीहो आँस्दानकर निर्मलकीर्ति तुम्हारी
जगत्में विस्तर रही है तब दशरथ कहतेभये ह प्रिये जो तेरी बांचा होय सोही लेहु तबराणी केकई अांस ॥ Hडारती सती कहतीभई हे नाथ हमने ऐसी क्या चूककी जो तुम कठोर चित्तकिया हमको तजाचाहोहो हमारा
जीवतो तुम्हारे श्राधीन है और यह जिनदीक्षा अत्यन्त दुर्घर सो लेयवेको तुम्हारी बुद्धि काहेको प्रवृत्तिहै। । यह इन्द्र समानजे भोंग उनकर लडाया जो तुम्हारा शरीर सो कैसे मुनिपदधारोगे कैसाहै मुनिपद अत्यन्त विषहै इस भांति जब रोणी केकईने कहा तब आप कहतेभए हे कांते समर्थोको कहाँ विषम मेंतो निसन्देह मुनिबत धरूंगा तेरी अभिलाषा होयं सो मांग लेवो तब राणी चिन्तावान होय नीचा मुखकर कहतीमा हे नाथ मेरे पुत्रको राज्य देवो तब दशरथ बोले इसमें क्या सन्देह तें धरोहर हमारे मेलीथी सो अब लेषी तैने जो कहा सो हमने प्रमाणकिया अब शोक तज तेंने मुझे ऋण हित किया तब राम लक्ष्मणको बुलाय दशरथ कहताभया कैसे हैं दोनों भाई महा विनयवान हैं पिताके प्राज्ञाकारीहें राजा कहे है हेयरस यह केकई अनेक कलाकी पारगामिनी इसने पूर्व महा घोर संग्राममें मेरी सारथिपमा किया यह अतिचतुर
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पराश
पश्य है मेरी जीत भई तब में तुष्टासमान होय इसे वर दीया कि जोतेरें बांछो होय सोमांग तव इसने वचन मेर liwen घरोहर मेला अब यह कहे है कि मेरे पुत्रको राज्य देवो सो जो इसके पुत्रको राज्य न देउं तो इसका
पुत्र भरत संसार का त्यागकरे और यह पुत्रके शोककर प्राण तजे और मेरी वचन चूकने की अकीर्ति जगत्में विस्तरे और यह काम मर्यादा से विपरीतहै कि जो बड़े पुत्रको छोड़कर छोटे पुत्रको राज्यदेना।
और भरतको सकल पृथिवीका राज्य दीए तुम लक्ष्मणसहित कहां जावो तुम दोनोंभाई परमक्षली तेज के घरणहारे हो इसलिये हे वत्स में क्या करूं दोनोही कठिन बात पाय बनी हैं में अत्यन्तदुःखरूप चिंता के सागर में पड़ा हूं तब श्रीरामचन्द्रजी महा विनयको घरतेभए पिताके चरणारविंदकी ओर हैं नेत्र जिन के और महा सज्जन भावको घरहें हे तात तुम अपने वचनको पालो हमारी चिंता तजो जोतुम्हारे वचन चूकने की अपकीर्ति होय और हमारे इन्दकी सम्पदा भावे तो कौन अर्थ जो सुपुत्रहें सो ऐसाही कार्य करे जिसकर माता पिताको रंचमात्रभी शोक न उपजे पुत्रका यही पुत्रपना पंडित कहे हैं जो पिताको पवित्र करे और कष्ट से रक्षा करे पवित्र करणा यह कहावे जो उनको जिनधर्म के सन्मुख करे दशरथ के और राम लक्ष्मणके यह बात होयहे उसी समय भरत महिलसे उतरा मनमें विचोरी कि मैं कर्मों को हनूं मुनिव्रत धरूंसोलोकोंके मुखसे हाहाकार शब्दभया तब पिताने विठ्ठल चिसहोय मरतो बन जायचे से राखा गोद में ले बैठे छातीसे लगाय लियो मुख चूमा और कहते मए हे पुत्र तू प्रजाका पालन कर। में तप के अर्थ बनमें जाऊं हूं भरत बोले में राज्य न करूं जिन दीक्षा धरूंगा तब राजा कहतेभये हे। वत्स कईएकदिन राज्यकरो तुम्हारी नवीन वय है वृद्ध अवस्था में तप कस्यिो तब भरतने कही हे लात |
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पम | जो मृत्यु है सो बालबृद्ध तरुणको नहीं देखे है सर्वभक्षी है तुम मुझे वृया काहे को मोह उपजावोहोतब। प्रा राजाने कही हे पुत्र गृहस्थाश्रममें भी धर्म का संग्रह होयहे कुमानुषों से नहीं बने है तब भरतने कही ||
हे नाथ इन्द्रियोंके वशवर्ति काम क्रोधादिककेभरे गृहस्थनको मुक्ति कहां तब भूपतिनकही हे भरत मुनि योंमेंभी सवही तद्भव मुक्ति नहीं होय हैं कईएक होयहें इसलिये तू कईएक दिन गृहस्तधर्म आराध तब भरतने कही हे देव आपने जो कही सो सत्यहै परन्तु जो गृहथियों का तो यह नियमही है कि गृहस्थमें मुक्ति न होय और मुनियोंमें कोई होय कोई न होय गृहस्थधर्मसे परम्पराय मुक्तिहोय साचात नहीं इस लिये यह शक्तिवालोंका काम नहीं है मुझे यह बात न रुचे में महाव्रत धरणकोही अभिलाषी हूं गरुड़ कहां कोगोंकी रीति पाचरे कुमानुष कामरूप अग्निकी ज्वालाकर परम दाह को प्राप्तभए संते स्पशइंद्रियों
और जिहा इन्द्रियकर अधमकार्य करे हैं तिनको निवृत्ति कहाँ पापी जीव धर्मसे विमुख भोगनको सेय कर निश्चय सेती महा दुःख दाता जो दुगति उसे पास होय हैं ये भोग दुर्गतिके उपजावनहारे और राखे न रहे क्षणभंगुर इसलिये त्याज्यंही हैं ज्योज्यों कामरूप अग्निमें भोगरूप ईंधन डारिये त्योत्यों अत्यंत तापकीकरणहारीकामाग्नि प्रज्वलितहोयहै इसलिये हेतात तुममुझे मोबादेवोजोबनमें जाय विधिपूर्वकतप । करूं जिनभाषित तप परम निर्जराका कारमाहे इससंसास्से में प्रतिभयको प्रावमयाहूं और हे प्रमोजो घरहीम कल्याण होय तो तुम काहेको घरतज मुनि हुत्रा चाहाहो तुम मेरे तातहो सो तातका यहीधर्म है किसंसारसमुद्रसे तारे तपकी अनुमोदना करे यह बात विवचम्म पुरुष कहे हैं शरीर स्त्री धन मातापिता भाईसकलको वज यह नीव अकेलाही परलोकको जायो विरकाच देवलोकके सुख भोगे तोभी यह वृष ।
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is
* या सी कैसे मनुकि नामिनि रहीय पिता मासके पनि सुनकर बहुत प्रसन्नभया हर्ष यकी। रोमाय हाय पाएँ और कहतीभवा पुत्र तु पन्ह मनाम बुख्याविनासनका रहस्पन प्रतियोष की प्रतिमहि तूं जो कहें है स माह तथापित नारसन अवतक भी मी मेरी अशाभग न करी । न विनयधान पुरुषों में प्रधानी मेंस नाती मुंन सी माता केकीने पुखमै मेस सारथीपना किया वह बुछ अति विषमया जिसमें जीवनेकी प्रामानहीं की हो इसके सारीपनसे युद्ध में विजय पाईसबमें! सुटायमान होय इसको कही जी तेरी पाँची झीय समग तब इसमें कही यह वचन मण्डार रहे जिस दिन मुझे इच्छा होयगी उस बिन मासूमी सी भान उसने यह मांगी कि मेरे पुत्रको सख्य देवो लो। प्रमाण किया बहे गुगनिचे के सम्बसमान पर राज्य निकटककर ताकिमेरी प्रतिज्ञा मंगकी। कीर्ति जमत न हाय और यह तेरी माता तेर शोककर तप्तायमान होय मरणको न पाये कैसी है यह निरन्तर सुखकर लडायाहै शरीर जिसने अस्प कहिए पुत्र उसका यही पुत्रपनाहै कि माता पिताको शोक समुद्र में न डारे यह बात बुद्धिमान कहे हैं इस भांति राजाने मस्तको कहा ॥
अथानन्तर श्रीराम भरतका हाथ पकड़ महा मधुरवचनसे प्रेमकी भरी दृष्टिकर देखते संते कहते भए। कि हे भ्रात तातने जैसे बचन तुझे कहे ऐसे और कौन कहने समर्थ ओसमुद्रसे रत्नोंकी उत्पति होय सो सरोवरसे कहां श्रवार तेरी वय तपके योग्य नहीं कैयेक दिन राज्यकर जिससे पिताकी कीर्ति बचन पालवेको चन्द्रमासमान निर्मलहोय और तू सारिखे पुत्रके होते सते माता शोककर तप्तायमान मरण | को प्राप्त होय यह योग्य नहीं और मैं पर्वत अथवा बनमें ऐसी जगह निवास करूंगा जो कोई म
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पन जाने तू निश्चित राज्यकर में सकल राज ऋद्धि तज देशसे दूर रहूंगा और पृथ्वी को पीड़ा किसी ४ प्रकार न होयगी इसलिये अब तू दीर्घ सांस मत डारे कैयक दिन पिताकी प्राज्ञामान राज्यकर न्याय | सहित पृथ्वीकी रक्षाकर हे निर्मलस्वभाव यह इक्ष्वाकु वंशियोंका कुल उसे तू अत्यन्त शोभायमान कर जैसे चन्द्रमाग्रह नक्षत्राविकको शोभायमान करे है भाईका यही भाईपना पंडितों ने कहाहै कि भाइयों की रक्षा करे संताप हरे श्रीरामचन्द्र ऐसे बचन कहकर पिताके चरणोंको भाव सहित प्रणाम कर चल पड़ें ता पिताको मर्श ग्रामई काष्ठके स्तम्भसमान शरीर होगया राम तर्कश बांध धनुष हाथमें लेय माता को नमस्कार कर कहते भए हे माता हम अन्य देशको जांय? तुम चिन्ता न करनी तब माता को भी मूबी नामई फिर सचेत होय मम बरती सैती कहती भई किहे पुत्र तुम मुझे शोक के समुद्रमै डार कहाँ आम हो तुम उत्तम टाके वस्णाहोमाताका पुत्र मालवन है जैसे शाखा के 'मैल आवरी माता कस्ता विलाप करतीमई माताको मतिमें तत्पर उसे प्रणाम का कहितमएहें माता तुम सिरमकरी में reart कोई मानककर तुमको निस्सन्देह बुलाऊंगा हमार पितनि माता कोबाईपादिया मासो मस्तको सम्पादिया अकामे यहां का स्ट्र विन्यावासाके बेमें यया मलबाक्लक बन तथा समुक्के समीप स्थानक कागा में सूर्पकमान यहां रहूं में भरत न्द्रमांकी पाऐश्वर्य पतिमावि तमासामीमा जो पुत्र उसे उरसेलगायरुदन करती सतीस्तीमई पुत्र मुमै सुम्मा संगचलना वितो तुमको देखें बिना में शोंके स्खनको समर्थ
कुलपती निलया पति तापही पाप में से पिता तो कास क्समपा |
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Dusu
और पति जिनदीक्षा लेयवे को उद्यमी भया हेमवतो पुत्रही का अवलंबन है सो उपभी छोड चलेतो पुरा मेरी क्या गति तब राम वोले हे मात मार्ग में पाषाण और कंटक बहुत हैं तुम कैसे पावोंसे चलोगी इस || लिये कोई सुखकास्थान कर असवारी भेज तुमको बुलालूंगा मुझे तुम्हारे चरणों की सों है तुम्हारे लेने
को में श्राऊंगा तुम चिंतामत करो ऐसकह माता को शांतता उपजाय रुखसत हुए फिरपिताके पासगए। पितामुर्छित होय गए सो सचेतभा एपिताको प्रणामकर दूसरी मातावों पे गए सुमित्रा केकई सुप्रभा। सब को प्रणाम कर विदा हुए केसे हैं राम न्यायप्रवीण निराकुल है चित्तजिनकातथा भाई बंधु मंत्री। अनेक गंजा उमराव परिवार के लोकसबको शुभवचन कह बिदाभए सबको बहुत दिलासाकर छातीसे लगाय उनके प्रांस पूंछे उन्होंने घनीही बिनती करी कि यहांहो रहो सो न मानी सामन्त तथा हाथी घोडे रथ सब की ओर कृपादृष्टि कर देखा फिर बडे र सामन्त हाथी घोडे भेट लाए सोरामनेन राखे सीता अपनपति को विदेश गमनको उद्यमी देख मुसरा और सासुनको प्रनामकर नाथके संग चली जैसे राचीइन्द्र के संग चले और लक्षमण स्नेहकर पूर्ण रामको विदेश गमन को उद्यमी देख चित्त में क्रोधकर चितक्ता भया कि हमारे पिता ने स्त्रीके कहे से यह क्या अन्यायकार्य विचारा जो रामकोटार और को राज्य दिया धिक्कार है स्त्रियों को जो अनुचित काम करतीशंका न करें, स्वार्थ विषेत्रासक्त है चित्तजिनका और यह बड़ा भाई महानुभाव पुरुषोत्तम है सो ऐसे परिणाम मुनियोंके होयहें, और में ऐसा सामर्थ हूं जो समस्त दुराचारियों का पराभव कर भरतकोराज्यलक्ष्मी से रहित करूं और राज्य लक्ष्मी श्रीरामकेचरणों में | लाऊं परन्तु यह वात उचित नहीं क्रोध महा दुखदाई है जीवों को अन्ध करे है पिता तो दीक्षा को उद्यमी ।
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पन्न
४४७३
| भया और में क्रोध उपजाऊं सो. योग्य नहीं और मोहि ऐसे विचार कर क्या योग्य और अयोग्य पिता
जाने अथवा वडाभाईजाने जिसमें पिताकी कीर्ति उज्ज्वल होय सो कर्तव्य है। मुझे किसीको कछु न कहना में मौन पकड बडे भाई के संग जाऊंगा कैसा है यह भाई साधु समान है भाव जिसके ऐसा विचार कर कोप तज धनुष. वागलेय समस्त गुरुजनों को प्रणाम कर महाबिनय संपन्न राम के संग चला दोनों भाई. जैसे देवालय से देवनिकले तैसे मन्दिर से निकसे और माता पिता सकल परिवार और भरत शत्रुघ्न सहित इनके वियोग में अश्रूपात कर मानों वर्षा ऋतु करते संते राखवे.को चले सोराम लक्ष्मण अतिपिताभक्त । सम्बोधने को महापंडित विदेश जायवेही कहि निश्चय जिनकेसोमातापिताकीबहुत स्तुतिकर बारंबार नम.
स्कारकरबहुतधीर्यवंधायमुशकिलसेपीछेफेरे सोनगरमें हाहाकार भयो लोकवार्ताकरे हैं हेमात यह क्या भया यह कौन ने मत उठाया इस नगरी ही का अभाग्यहै अथवा सकलपृथिवीकाअभाग्य है हम तो अब यहां न रहेंगे इनके लार चलेंगे ये महासमर्थ हैं और देखो यह सीता नोथ के संग चली है और राम की - सेवा करणहारा लक्ष्मण भाई है धन्य है यह जानकी बिनयरूप वस्त्र पहिरे भरतार के संग जाय है नगर की नारी कहे हैं हम सबको शिक्षा देनहारी यह सीतामहापतित्रता हैइस समान और नारी नहीं ने महा पतिव्रता होंय सो इसकी उपमा पावें पतिव्रताओं के भरतार ही देव हैं और देखो यह लक्ष्मण माता को रोवती बोड़ बड़े भाई के संग माय है धन्य इसकीभक्ति धन्यइसकीपीति धन्यइसकीशक्ति धन्यइसकीचमा अन्य इसकीविनय की अधिकता इस समान और नहीं और दशरवनेभरतको यहक्यामाज्ञाकरीजो तू राज्य लहु और राम खस्मणको यह क्या बुद्धि उपजी जोअयोध्याको छोड़ यो जिसकालमेंजो होनी होय सोहोय है ।
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पुराव
1४४
जिस के जैसा कर्म उदयहोय तैसीही होय जो भगवान्के ज्ञानमें भासा है सोहोय दैवगति दुर्निवार है, यह । बात बहुत अनुचित होय है यहां के देवता कहां गए ऐसे लोगों के मुखसे ध्वनि होती भई । सब लोक इनकेलार चलनेको उद्यमी भए घरों से निकसे नगरी का उत्साह जाता रहा शोककर पूर्ण जो लोकतिनके अश्रुपातों कर पृथिवी सजल होय गई जैसे समुद्र की लहर उठे है तैसे लोक उठे राम के संग घले, मने किये भी न रहें राम को भक्ति कर लोक पूजें संभाषण करेंसो राम पेंड पेंड में विघ्न मानें इन का भाव चलने का लोक ऐसाचाहें के लार चलें राम का विदेश गमन मानो सूर्य देख न सका, सो अस्त होने लगा अस्त समय सूर्य के प्रकाश ने सर्व दिशा तजी जैसे भरत चक्रवर्ती ने मुक्ति के निमित्त राज्य संपदा तजी थी सूर्य के अस्त होते परम राग को धरती संती सन्ध्या सूर्य के पीछे ही चली, जैसे सीताराम के पीछे चले और समस्त विज्ञान का विध्वंस करणहारा अन्धकार जगत् में ब्याप्त भया, मानों राम को , गमन से तिमिर बिस्तरा, लोगलार लागे सोरहें नहीं तब समने लोकोंके टारिनेको श्री अरनाथ तीर्थकर के चैत्यालयमें निवासकरना विचारा संसारकेतारणहारे भगवानतिनकाभवनसदारोभायमान महासुगन्ध अष्ट मंगल द्रव्यों कर मंद्रित जिसके तीनदरवाजे ऊंचातोरण सो राम लक्ष्मण सीताप्रदक्षिणा देय चैत्यालयर्मे गए समस्त विधिके वेत्ता दोयदरवाज़ेतक तोलोक चलेगए तीसरे दरवाजे पर द्वारपालने रोकाजैसें मोहिनीकर्म मिथ्या दृष्टियों को शिवपुर जाने से रोके है, राम लक्ष्मण धनुषबाण और वखतर वाहिर मेल भीतर दर्शनको गए कमल समान हें नेत्र जिनके श्रीअरनाथ का प्रतिक्विरत्नों केसिंहासनपरविराजमान महाशोभायमान महासौम्यकायोत्सर्गश्रीवत्सलक्षणकर देदीप्यमानहै उरस्थलजिनकाप्रकट हैं समस्तलक्षण |
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पुराण
॥४७५॥
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जिनके संपूर्णचन्द्रमा समानबदन फूले कमलसे नेत्रजाकथन में और चितवनमें न आवे ऐसा है रूपजिनका तिनका दर्शनकर भावसहित नमस्कारकर ये दोनों भाई परमहर्ष को प्राप्त भए, कैसे हैं दोनों बुद्धि पराक्रमरूप लज्जा के भरे जिनेंद्र की भक्ति में तत्पर रात्रि को चैत्यालय के समीप ही रहे. वहां इनको वसे जान कर माता कौशल्यादिक पुत्रों विषे है वात्सल्य जिनका श्राय कर आंसू डारती चारम्वार उरसों लगावती भई पुत्रोंक दर्शन में अतृप्त विकल्परूप हिंडालमें भूले है चित्त जिनका गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक सर्वशुद्धता में मन की शुद्धता महा प्रशंसा योग्य है स्त्रीपुत्रको भी उरसे लगाव और पतिको भी उरसे लगावे परन्तु परणाम का अभिप्राय जुदा २ है दशरथकी चारों ही राणी गुगारूप लावण्यताकर पूर्ण महामिष्टवादिनी पुत्रों से मिल पति गई जायकर कहती भई कैसा है पति सुमेरुसमान निश्चल है भाव जिसका राणी कहे हैं हे देव कुलंरूप जहाज थोकरूप समुद्रनें डूबे है सो यांभोराम लक्ष्मणको पीछे लावो तब राजा कहुते भए यह जगत विकाररूप मेरे श्राधीन नहीं मेरी इच्छातो यहही है कि सर्व जीवों को सुख होय किसी को भी दुःख न होय जन्म अरा मरणरूप पारधियोंकर कोई जीव पीडा न जाय परंतु ये जीव नानाप्रकार के कर्मों की . स्थिति को घरे हैं इस लिये कौन विवेकी वृथा शोककरे । बांधवादिक इष्टपदार्थोंके दर्शन में प्राणियों को तृति नहीं तथा धन और जीतत्र्य इनसे तृप्ति नहीं इंद्रियोंके सुख पूर्ण न होय सकें और आयु पूर्ण होय तब जीव देहको त और जन्म घरे जैसे पची वृत्तको तज चला जायहै तुम पुत्रोंकी माता हो पुत्रों को ले श्रावो पुत्रोंके राज्यका उदय देख विश्रामका भजा मनेतोराज्यका अधिकार तजा पाप क्रिया से agar Traयको प्राप्तभया अब मैं मुनित्रत धरूंगा । हे श्रेणिक इस भांति राजा राणियों
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पुरात
L
2-
SAT
T
को कहकर निर्मोहबाके निश्ववको भात भया सकल विवियामिलापरूप दोषोंसे रहित सूर्य समानी वेग जिसका सो पृथ्वीमें तप संयमका उद्योत करता भया ॥ इति इकतीसवां पर्ष संपूर्णम् ।
अथानन्तर रामलक्ष्मण क्षण एक निद्राकर अर्धरात्रिके समय जब मनुष्यसोयरहेलोकोंका शब्द मिटगया मोर अंधकार फैलगया उस समय भगवानको नमस्कारकर वखतर पहिरधनुर्फ वाणलेयसीताको पीवमें से कर चले घर घर दीपकोंका उद्योत होरहाहै कामीजन अनेक चेष्टाकरे हें ये दोनों भाई महाप्रवीण नगरकेदार की खिडकीकी ओरसे निकसे दचिणदिशाका पंथ लिया गत्रिके अंतमें दौड़कर सामन्तलोक पाय मिले. राघबके संग चलमेकी है अभिलाषा जिनके दूरसे रामलक्ष्मणको देख महाविनयके भरे सवारी कोड़प्पादे आए चरणारविन्दको नमस्कारकर निकट श्रायक्वनालाप करले भए बहुत सेना आई और जानकीकीबहुत प्रशंसा करते भए कि इसके प्रमादसे हम रामलक्षमणको धाय मिले यह नहोसीतोये धीरे ईम चलते तोहम कैसे पहुंचते क्योंकि ये दोनों भाई पवनसमान शीतगामी हैं और यह सीता महासती हमारी माताहै इस समान प्रशंसायोग्य पृथ्वीमें और नहीं ये दोनोंभाई नरोत्तम सीताकी चाल प्रमाण मन्द मन्द दो कोस चले खेतों में नानाप्रकारके अन्न हरे होव रहे हैं और सरोवरों में कमल फूल रहे हैं और वृध महारमांक दीखे, अनेक ग्राम नगरादिमें मेरं लोक पूजहें भोजनादि सामग्री करी और बड़े बड़े राजावडी फौजसे आय मिले जैसे वर्षाकालमें गंगा यमुनाके प्रवाहमें अनेक नदियों के प्रवाह पाप मिलें कैइक सामन्तमार्गके खेदकरइनका निश्चय जान पाझपायपीछे गए और केएक लज्जाकर एक भयकर केइक भाक्तिकर लारप्यादे चले जाय हैं सो राम लक्ष्मण क्रीडा करते परियाना नामा अटवी ।
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पुराण
॥४991
में पहुंचे । कैसी है अटवी नाहर और हाथियोंकि समूहाँकर भी महा भयानक गायकर मत्रितमान अंधकारकी भरी जिसके मध्य नदी है उसके तट पाए जहाँ भीलोंका निवास है नाना प्रकारके मिष्ट फलहें आप वहां तिष्ठकर कैएक राजावों को विदा किया और केएक पीछे न फिरे राम ने बहुत कहा तो भी संग ही चले सो सकल नदी को महा भयानक देखते भए कैसी है नदी पर्वतों सों निकसती मझनील है जलजिसका प्रचण्ड लहर जिसमें महाशब्दायमान अनेकने ग्रह ममर सिनकर भरी दोऊ ढांहांविरती कलोलोंके भयकर उडे हे तीर के पदी जझं ऐसीनदी को देखकरसकल सामन्त त्रासकर कंपायमान होय रामलक्षमस कोकरतेभए हेना पाकर हमेंभी पार उतारोहमसेवक भक्तिवंत हमप्रसमावोहे माता जामकी सक्ष्मणसे कहो हमको भीमरससारे इसमोनि-कहले महाभिनेक नरपति माना पेश के करणारे मंदीमें पढ़ने में सब रामबोस नही था तुम पीये पित्रो। यह का। महा मनमक है हमारा तुम्स यहांलमही संगम मिना बरसको सब का स्वामी किया है । भक्ति कर तिनको सेवो तब वे कहते भवे हे माय हमारे स्वामी तुमी हो मा दयावान झेश। प्रसन्न होको हमको मन लोभे तुम बिना यह प्रजा नियमकई पाखता रूप हो कौन की मार || आय तुम समान और कौमहे न्यायसिंह मोरयजेद सादिकका भरा मनामक जो यह मन उसमें तुम्हारे । संम रहो बुम बिना हमें स्वर्गभी सुखकमी नहीं तुम को पीले माझे मो चित्र पिरे नहीं कैसे यह चिन सा इन्द्रियोंका अधिपति इसही से अहिए है जो अद्युत प्रस्तुअमुगा को हमारे मोनोकर क्या घरकर तथा स्त्री कुटम्बादिककर क्या तुम मर स्नहो तुमको बोड कहा जावें प्रभो तुमको बालकीह्य
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पद्म पुराण argacil
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में भी हमसे घृणा न करी अब अत्यन्त निठुरता को घारोहो हमारा अपराध क्या तुम्हारे चरण रजकर परमवृद्धि को प्रम भए तुम तो भृत्यवत्सल हो हो माता जानकी अहो लक्ष्मण घीरु हम सीस कि बायहाथ जोड़ बीचती करे हैं नाथको हमपर प्रसन्नकरो ये वचन सविनय कहे तब सीता और लक्षमा समके चरणोंकी ओर निरख रहे धम बोले अब तुम पीछे जावो यही उत्तरहे सुखसे रहियो ऐसा कहकर दोनों धीर नदी के विषे प्रवेश करते भये श्रीराम सीता का कर मह सुखसे नदीमें लेगए जैसे कमलबी को दिग्गज लेजाय वह असराल नंदी राम लक्ष्मण के प्रभावकर नाभि प्रमाण बहने लगी दोनों भाई जल विहार में प्रवीण क्रीड़ा करते चलेगए सीताराम के हाथ गहे ऐसी शोभे मानो साक्षात् लक्ष्मीही कमल दलमें तिष्ठ है राम सक्षमण क्षणमात्रमें नदीपार भए वृक्षों के आश्रय श्रायगए तब लोकों की दृष्टिगोचर एक तो विलाप करते मांसू डारते घरको गए और कईएक राम लक्ष्मलकी
घरी है दृष्टि जिन्होंने सो काष्ठ कैसे होयरहे और कईएक मूर्द्धाखाय भरतीपर पड़े और कईएक ज्ञान को प्राप्तहोयजिन दीक्षाको उद्यमी भए परस्पर कहतेभये कि धिक्कार है इस असार संसारकोऔर धिक्कारइन क्षणभंगुर भोगोंको ये काले नागके फण समान भयानक हैं ऐसे शूरवीरोंकी यह अवस्था तो हमारी क्या बात इस शरीरको धिक्कारहैजो पानी के बुदबुदा समाननिसार जरामरण इष्टवियोग अनिष्टसंयोग इत्यादिकष्ट की भाजन हैं वे महापुरुष भाग्यवन्त उत्तम चेष्टाके धारक जे मरकट (बंदर) की भौंहसमान लक्ष्मी को चंचलजानतजकरदीक्षा घरतेभयेइस भांति अनेक राजाबिरक्तदीक्षाकोसन्मुखभये जिन्होनेएक पहाडकीतल हटी में सुन्दर वन देखा अनेक वृक्षोंकर मंडित महा सघन नानाप्रकारके पुष्पोंकर शोभित जहां सुगन्धक
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पुराण
लोलुपी भ्रमर गुंजार करे हैं वहां महा पवित्रस्थानक में तिष्ठते ध्यानाध्ययन विषे लीन महातप के बारक ४९० || साधु देखे तिनको नकस्कारकर वे राजा जिननाथका जो चैत्यालय वहां गये उससमय पहाड़ों की तलहटी तथा पहाड़ों के शिखर में अथवा रमणीक बनों में नदीयों के तट विषे नगर ग्रामादिक में जिन मंदिर थ वहाँ नमस्कार कर एक समुद्र समान गम्भीर मुनियों के गुरू सत्यकेतु आचार्य तिन के निकट गये नमस्कार कर महा शांतस्स के भरे आचार्य से वीनती करते भये हे नाथ हमको संसार समुद्र से पार उतारो -तब मुनि कही तुमको भव से पारउतारम हारी भगवती दीक्षा सो अंगीकार करो यह मुनिकी आज्ञा पाके परम हर्षको प्राप्तभये राजा विदग्धविजय मेककूर संबाम लोलुप श्रीनागदमन घीर शत्रुदम घर विनोद कंटक सत्यकठोर प्रियर्धन इत्यादि निर्जन्म होते भये उनका गज तुरंग स्थादि सकल साज सेवक लोकोंने जायकर उनके पुत्रादिककोसोंपा तब वे बहुतचिन्त्यवान भएफिर समझकर नानाप्रकार के. नियम धार भए कैवक सम्यक दर्शनको अंगीकारतोषको प्रासभए कैयक निर्मल जिनेश्वर देव का धर्म श्रवण कर पाप पममुख भए बहुत सति रामलक्ष्मण की वार्ता सुनु साधुभए कैयक श्रावक के अमुक्त भारते भए बहुत रास आर्थिक मई बहुधाविका भई कैयक सुखराम का सर्वांत भरत दशरथ पर जाकर कहते गप सो सुनकर दशस्य और भरत का नकद को मा गए ।
अमानन्तर राज! दशरथ भरत को राज्याभिषेक कर कछुयक जो सम के वियोग कर : व्याकुल था सो समता में लाभ विलाप करना जो अंतःपुर उसे प्रति बोध नगर से वन को गए सर्व भूतिचित स्वामीको प्रणामकर बहुत खोंसहित जिनीवा आदी एकाकी बिहारी जिन कालपी
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भए परमशुक्लध्यान की है अभिलाषी जिनके तथापि पुत्रके मोकार कमीकबुककलुषताउपज प्रावे खोएक दिन योखिचया विचास्ते अपति संसारको हकका मूलपहनासकामो इपिाकारहोइसीकर कर्म बंधे हैं में अमन्तमम्म घरे सिनो र्गम अस्म भी बहुतधरे सो मेरेशार्थ जन्म के अनेक मासाक्षिा भाई पुत्र कांपए अनेक बार में देवलोक के भोग भोगे और भनेकपा- नाककेस भोगे तिचगतिम मेराझीर अनेक बारइन जीवोंमे अहमका में भला मानारूपयोंदिय जिलाविणे में बहुतदुख भोगे और बहुत्वार कदनकिया और रुदनकेशनसमोरबहुतवारचीणवांसुरी पारिवादियोंके नारसनो गीतसुने मुख्य देखे देवलोकविषे मनोहर अप्सरामोंके भोग भोगे अनेक वार मेरा शुजर नरक किो कुहाड़ों करकाया ममा और अनेकवार मनुष्यगति विषे महा सुगंध महावीर्यका कैरणहारा षट्रस संयुक्त अन्नबाधार किया और अनेक वार नरकविषे गालासीसा पोस्तांका नारकीयों ने मारमार सभी प्याया और भनेकवार सुरनर गतिमें मनके हरणहारे सुंदररूपदेसे और सुंदररूपपारे और अनेकवार नरकवि महाकल्पपारे मारनानापकारके त्रास देखे कैयक बार राजपद देवपद में नानाप्रकारकसुगन्धसूंघे जिन पर भ्रमर गुंजारकरें और कैयक वार नरक की महा दुर्गन्ध सूंघी और अनेक बार मनुष्य क्या देवगति विषेमहालीला की घरणहारी बस्त्राभरण मंडिल मनकी चोरणेहारी जे मारी तिम सों आलिंगन कीयो और बहुत बार नरकों विषेजे कूटशाल्मलि | बृच तिनके तिषण कंटक और प्रज्वलतीलोह की पुतलीयों से स्पर्श किया, इस संसारविषे कर्मों के संयोग | से मैं क्या क्या न देखा क्या क्या न स्पर्शा क्या क्या न सूंघा क्या क्या न सुना क्या क्या न भला और
पृथिवीकाय जलेकायमग्निकाय वायुकायचनस्पतिकापत्रसकाय विषे असादेहनहीं जोमें नधारा,सीनलोक
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पन्न
॥४८॥
विषे असा जीव नहीं जिस से मेरे अनेक नाते न भए, थेपुत्र मेरे कईवार पिता भए माता भए शत्रु भए मित्र भए असा स्थानक नहीं जहां में न उपजान मुश्रा ये देह भोगादिक भनित्य इस जगत विषे कोईशरण नहीं, यह चतुर्गति रूप संसारदुःख का निवास है मैं सदाअकेलाहूं ये षद्रव्य परस्पर सबही भिन्न हैं, यह काय अशुचि, मैं पवित्र, ये मिथ्यादि अब्रतादिकर्माश्रवके कारण हैं, सम्यक्तब्रत संयमादि संवर के कारणहैं तपकर निर्जरा होय है यह लोक नानारूप मेरे स्वरूप से भिन्न इस जगत में आत्मज्ञान दुर्लभ है, और वस्तु को जो स्वभाव सोई धर्म तथा जीवदयाधर्म सो में महाभागसेपाया धन्य ये मुनि जिन के उपदेश से मोक्षमार्ग पाया सो अब पुत्रों की कहां चिन्ता, असा विचार कर दशरथ मुनि निर्मोहदशा को प्राप्त भए जिन देशों में पहिले हाथी चढ़े चमर दुरते छत्र फिरते थे और महारण संग्राम में उद्धत बैरीयों को जीते तिन देशों में निम्रन्थ दशा धरे बाईस परीषह जीतते शांतिभाव संयुक्त विहार करते भए और कौशल्या तथो सुमित्रा पति के वैरागी भए और पुत्रों के विदेश गए महाशोकवंती भई निरंतर अश्रुपात डारें तिन के दुःख को देख भरत राज्य विभूति को विषसमान मानता भया और केकई तिनको दुखी देख उपजी है करुणा जिस के पुत्र को कहती भई हे पुत्र ने राज्य पाया बड़े बडे राजा सेवा करे हैं परन्तु राम लक्ष्मण बिना यह राज्यशोभे नहीं सोवे दोऊभाई महाविनयवान् उनबिना कहां राज्य और कहां सुख और क्या देश की शोभा और क्या तेरी धर्मज्ञता वे दोनों कुमार और वह सीता राजपुत्री सदा सुख के भोगन हारे पाषाणादिककर पूरितजोमार्ग इसविषे वाहन बिना कैसे जांवेंगेऔर तिन गुणसमुद्रों की ये दोनों माता | निरंतर रुदन करें हैं सो मरण को प्राप्त हावेंगी इसलिये तुम शीघगामी तुरंगपरचढ़ शितावी जावो उनको
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॥४
॥
लेभावो उनसहित महासुख से चिरकालराजकरियो और में भी तेरे पीछेही उनकेपास आऊंहूं यह माता की आज्ञा सुन बहुतप्रसन्न होय उसकी प्रशंसा कर अति आतुर भरत हजार अश्व सहित राम के निकट चलाऔर जेराम के समीप से वापिस आएथे तिनकोसंग लेचला श्राप तेजतुरंग पर चढा उतावली चाल 1 वन में पाया वह नदी असराल वहती थी सो उस में वृक्षों के लठे गेर बेडे बांध क्षण मात्र में सेना। सहित पार उतरे, मार्ग में नरनारियों को पूछते जावें कि तुम ने राम लक्ष्मण कहीं देखे वे कहे हैं यहां से निकट ही हैं सो भरत एकाग्रचित्त चले गए सघनवन में एक सरोवर के तट पर दोनों भाई सीता सहित बैठे देखे समीप धरे हैं धनुष वाण जिन के सीता के साथ वे दोनों भाई घने दिवस में पाए और भरत छह दिन में आया रामको दूरसे देख भरत तुरंग से उतरपायपियादोजाय रामके पायनपरा मर्षित होयगया तब रोमने सचेतकिया भरत हाथजोड़ सिर निवाय राम से वीनती करता भया कि हे नाथ राज्य के देयवे कर मेरी क्यों विडम्बना करी तुम सर्व न्याय मार्ग के जाननहारे महा प्रवीण मेरे इस राज्य से क्या प्रयोजन तुम बिना जीवनेकर क्या प्रयोजन तुम महा उत्तम चेष्टाके घरणहारे मेरे प्राणोंके आधारहो उठो अपने नगर चलें हे प्रभो मुझपर रूपाकरो राज्य तुम करो राज्य योग तुमही हो मुझे सुख की अवस्था देवो मैं तुम्हारे सिरपर बत्र फेरता खड़ा रहूंगा और शत्रुधन चमर ढारेगा और लक्ष्मण मन्त्री पद धारेगा मेरी माता पश्चातापरूप अग्निकर जरे है और तुम्हारी माता और लक्षमणकी माता महा शोक करे हैं यह बातभरत करही है और उसही समय शीघ्र स्थपर कड़ी अनेक सामन्तों सहित महा शोककी भरी केकई आई और राम लक्षण को उरसों लगाय बहुत रुदन करती भई रामचन्द्र ने धीर्य ।
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पद्म पुराख
बन्धाया तब केकई कहतीभई हे पुत्र उठो अयोध्या चलो राज्य करो तुम बिन मेरे सकलपुर बन समान ४८३ है और तुम महाबुद्धिवान हो भरत से सेवा लेवो हम स्त्री जन निकृष्ट बुद्धि हैं मेरा अपराध क्षमाकरो तत्र राम कहते भये हे मात तुमतो सब बातों में प्रवीण हो तुम क्या न जानो हो क्षत्रियोंका यही विरद है जाववत न चूकें जो कार्य विचारों उसे और भांति न करें हमारे तात ने जो वचन कहा सो हमको
र तुमको निवाहना इस बात में भरतकी आकीर्ति न होयगी फिर भरत से कहा कि हे भाई तुम चिंता मत करो तू अनाचार से शंके है सो पिता की आज्ञा और हमारी आज्ञा पालने से अनाचार नहीं ऐसे कहकर वन विषे सब राजावों के समीप भरत का श्री रामने राज्याभिषेक किया और केकई को प्रणाम कर बहुत स्तुति कर बारम्बार संभाषण कर भरत को उरसे लगाय बहुत दिलासाकर मुशकिल से विदा किया के कई और भरत राम लक्षमण सीता के समीप से पीछे नगरको चले भरत राम की आज्ञा प्रमाण प्रजाका पिता समान हुवा राज्यकरे जिसके राज्यमें सर्वं प्रजाको सुख कोई अनाचार नहीं ऐसा नःकंटक राज्य है तोभी भरतको चणमात्र राग नहीं तीनों काल श्री अरनाथ की बन्दना करे और मुनियों के मुखसे धर्म श्रवण करे द्युति भट्टारक नामा जे मुनि अनेक मुनि करे हैं सेवा जिनकी तिनके निकट भरतने यह नियम लिया कि रामके दर्शनमात्र सेही मुनित्रत धरूंगा ||
अथानन्तर मुनि कहते भये कि हे भरत कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके ऐसे राम जवलग न आवें तबलग तुम गृहस्थ के व्रत घरो जे महात्मा निर्ग्रन्थ तिनकामाचरण अतिविषम है सो पहिले श्रावक के व्रतपालने उससे यतिका धम सुखसों सधे है जब बृद्ध अवस्था श्रावेगी तब तप करेंगे यह वार्ता कहते अनेक
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पद्म
॥
४॥
जबुद्धि मरणको प्राप्तभए महा अमोलक रत्नसमान यतीका धमे जिसकी महिमा कहनेमें न आवे उसे जे घारे, तिनको उपमा कौनकी देवें यतिके धर्मसे उतरता श्रापकका धर्म है सो में प्रमादरहित करेहैं वे धन्य हैं यह अणुव्रतभी प्रबोधका दाताहै जैसे रत्नद्वीप में कोई मनुष्य गया और वह जो रत्नलेय सोई देशान्तरमें दुर्लभ है तैसे जिन धर्म नियमरूप रत्नोंका दीपहै एसमें जो नियम लेय सोई महाफल का दाताहै जो अहिंसारूप रत्नको अंगीकारकर जिनवरको भक्तिकर अरचे सो सुरनरके सुख भोग मोक्षको प्राप्त होय और जो सत्यव्रतका धारक मिथ्यात्व का परिहारकर भावरूप पुष्पोंकी मालाकर जिनेश्वर को पूजे है उसकी कीर्ति पृथिवी में विस्तरेहै और आज्ञा कोई लोप न सके और जो परधनका त्यागी जिनेन्द्रको उरमें धारे बारम्बार जिनेन्द्रको नमस्कारकरे सो नव निधि चौदह रत्नका स्वामीहोय अक्षयनिधि । पावें और जो जिनराजका मार्ग अंगीकारकर परनारीका त्यागकरे सो सबके नेत्रोंको श्रानन्दकारी मोक्ष लक्षमी का वर होय और जो परिग्रह का प्रमाणकर संतोष घर जिनपतिका ध्यानकर सो लोक पूजित अनन्त महिमाको पावे और आहार दानके पुण्यकर महा सुखी होय उसकी सब सेवाकरें और अभयदान कर निर्भय पद पावे सर्व उपद्रसे रहित होय और ज्ञानदानकर केवल ज्ञानीहोय सर्वज्ञपद, पावे और औषधि दानके प्रभावकर रोगरहित निर्भयपद पावे और जो रात्रीको आहार का त्यागकरे सो एक वर्ष में छह महीना उपवास का फल पावे यद्यपि गृहस्थ पद के प्रारम्भ में प्रवृते है तोभी शुभगति के सुख पावे जो त्रिकाल जिनदेवकी बन्ददाकरे उसके भाव निर्मल होंय सर्व पापका नाशकरे और जो निर्मलभाव रूप पुष्पोंकर जिननाथको पूजे सो लोकमें पूजनीक होय और जो भोगी पुरुष कमलादि. जलके पुष्प
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पद्म
॥४८५॥
तशातकी मालती आदि पृथ्वी के सुगन्ध पुष्पोंकर भगवान को रच सौ पुष्पविमानको पाय यथेष्ट पुराण क्रीड़ा करे और जो जिनराजपै अगर चन्दनादि धूपखेखेसो सुगन्धशरीरका धारक होय और जो गृहस्थी जिन मंदिर में विवेक सहित दीपोद्योत करे सो देवलोक में प्रभाव संयुक्त शरीर पावे और जो जिन भवनमें छत्र चमर झालरी पताका दर्पणादि मंगल द्रव्यचढ़ावे और जिनमंदिरको शोभित करे सो श्वर्यकारी विभूति पावे और जो जल चन्दनादिसे जिन पूजा करे सो देवोंका स्वामीहोय महानिर्मल सुगन्ध शरीर जे देवांगना तिनका वल्लभहोय और जो नीरकर जिनेंद्रका अभिषेक करे सो देवों कर मनुष्यों से सेवनीक चक्रवर्ती होय जिसका राज्याभिषेक देव विद्याधर करें और जो दुग्धसे अरहन्त का सो क्षीरसागर के जल समान उज्ज्वल विमान में परम कांति धारक देव होय फिर मनुष्य होय मोत पावे और जो दधिकर सर्वज्ञ बीतरागका अभिषेक करे सो दधिसमान उज्ज्वल यशको पत्य कर भवधिको तरे और जो घृतकर जिननाथका अभिषेककरे सो स्वर्ग विमान में महा बलवान देव ही मरम्परा अनन्तवीर्यको घरे और जो ईपरसकर जिननाथका अभिषेक करे सो अमृतका आहारी सुरेश्वर होय नरेश्वर पदपाय मुनीश्वर होय अविनश्वर पदपावे अभिषेक के प्रभावकर अनेक भव्य जीव देवोंसे इन्द्रोंसे अभिषेक पावतेभए तिनकी कथा पुराणों में प्रसिद्ध है जो मककर जिनमंदिरमें मसूर विच्छादिककर बुहारी देय सो पापख्य रजसे रहितहोय परम विभूति आरोग्यता पावे और जो गीत नृत्यवादित्रादिकर जिनमंदिरमें उत्सव करे सो स्वर्ग में परम उत्साहको पावे और जिनेश्वर के चैस्यालंब करावे सो उसके पुरायकी महिमा कौन कह सके सुरमंदिरके सुख भोग परम्पराय अविनाश धाम
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पन्न
पराज
1४६
पावे और जो जिनेंद्रकी प्रतिमा विधिपूर्वक कसवेसो मुरनरके सुख भोग परमपद पावे प्रत विधान संप दान इत्यादि शुभ ष्ठानोंसे प्राणी जे पुगक अपान सोसमा कार्य जिन विम्ब करावनके हुस्य नहीं जी मिनषिध कावे सो परंपधा सिप बाये और वो भव्य जिनमंदिर के शिखर बढ़ाने सो इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवादिक सुखभोगलोक शिसापधुचे औरओ जीलिमीवरोंकी घरम्मत करने सो कमब्प अजीर्णको हर निभव नीसेगपरको पाश्रीजी नवीव चैत्यालय कराय जिनबिम्बपराब प्रतिष्ठाकरे सो तीनलोकमें प्रतिष्ठापावे पोरजे सिद्धक्षेत्रादितीर्थोकी बाकाकरे सोमनुष्यजन्म सकसकरें और जे जिनप्रतिमाके वर्तनका चिन्तवनकरे उसे एक उपवासका फलहोय और दर्शनके उद्यमका अभिलापी होय सो बेलाका फल पावे और जो चैत्यालय जावयेका प्रारम्भकरे उसे वेलाकाफल होय गमन किए चौलाका फलहोय और कछुएक भागे गए पंच उपवासका फाहोय प्राधीदूरगए पचोपवासका फल होय और चैत्यालयके दर्शनसे मासोपवासका फलहोय और भावभक्तिकर महास्तुति किएअनंत फल प्राप्तिहोय जिनेंद्रकी भक्तिसमान और उत्तम नहीं और जो जिनसूत्र लिखवाय उसका व्याख्यान करें करावें पढ़ें पड़ावें सुनें सुनावे शस्त्रोंकी तथा पंडितोंकी भाक्तिकरें वे सर्वांगके पाठी होय केवल पद पावें जो चतुर्विध संघकी सेवा करे सो चतुरगतिके दुख हर पंचमगति पावे मुनि कहेहे कि हे भरत जिनेंद्रकी भक्तिकर कर्म क्षयहोय और कर्मचय भए अक्षयपद पावे ये बचन मुनिके सुन राना भरत ने प्रणाम कर श्रावकका व्रत अंगीकार किया भरत बहुश्रत अतिधर्मज्ञ महा विनयवान श्रद्धावान चतुर्विध संघको भाक्तकर और दुखित जीवोंको दयाभावकर दान देताभयासम्यकदर्शन रत्नको उरमें
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पद्म धारता भय, औरमहासुन्दर श्रापकके व्रतविषे तत्पर न्याय सहित राज्यकरताभया, भरतगुणोंकासमुद्र उसका ugcon
प्रताप और अनुराग समस्त पृथिवी विषे विस्तरता भया, उसके देवांगना समान डेढ़ सौराणी तिन विषे
आसक्त न भया, जल में कमलकी न्याई अलिप्त रहा, जिसके चितमें निरन्तरयह चिन्ता वरतेकि कवयति के व्रत धरूं तप करू मिर्पथ हुवा पृथिवी में विचरूं धन्य हैं वे पुरुष जे धीर सर्व परिग्रह का त्याग कर तप के बल कर समस्त कर्म को भस्मकर सारभुत जो निर्वाण का सुखउसे पाबेहैं, मैं पापी संसार में मग्न प्रत्यक्ष देखू हूं जो यह समस्त संसारका चरित्र क्षणभंगुर है जो प्रभात देखिये सो मध्यान्ह में नहीं मैं मह होय रहा हूं जे स्क विषयाभिलाषी संसार में राचे हैं वे खोटी मृत्यु मरेंगे सर्प व्याघ्र गज जल अग्नि शस्त्र विद्युत्पात शुलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीतिसे शरीर तजेंगे यह प्राणी अनेक सहस्रों दुख को भोगनहारा संसार मेंभ्रमण करे है चा पाश्चर्य है अस्प आयु में प्रमादीहोय रहा है जैसे कोई मदोन्मत्त क्षारसमुद्र के तट सूता तरंगों के समूह से नडरे तैसे में मोह कर उन्मत्त भव भ्रमण से नहीं हरुहूं निर्भय होय रहा हूं हाय हाय हिन्सा माम्भादि अनेक जे पाप सिन कर लिप्त में राज्य कर. कोन से घोर नरक में जाउंमा कैसा है नरक वाण पदम चक के श्राकार तीराय पत्र जिन में असे शाल्मली वृक्ष जर्झ हैं अथवा अनेक प्रकार निर्यञ्च गति जिस में जागा देखो जिन मात्र सारिखा। महाज्ञानरूप शास्त्र उस को पार कर भी मेस मन पाप युक्त हो रहा है निस्पृह होय कर यति का धर्म
नहीं घारे है सो नजानिये कौन गति जाना है जैसी कर्मों की नासनहारी जो धर्मरूप चिन्ता उसको | निरन्तर माप्त हुआ जो राजा भरत सो जैन पुराणादि ग्रन्थों के श्रवण विषे आसक्त सदैव ।
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wyceu
साधन की कथा में अनुरांगी रात्रि दिन धर्म में उद्यमी होता भयो ॥ इति बसीसवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ ___अथानन्तर श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण सीता जहां एकतापसों का आश्रम है वहां गए अनेक तापस जटिल नानाप्रकारके वृचोंके वकल पहिरे अनेक प्रकारका स्वादुफल तिनकर पूर्ण हैं मठजिनके बनविषे बृक्षसमान बहुत मठ देखे विस्तीर्ण पत्रों कर छाए हैं मठ जिनके अथवा घासकेछलों कर पाछादित है निवास जिनके विना बाहे सहजही उगेजे धाम्य वे उनके आंगनमें सूके हैं और मृगभयरहित प्रांगन में वेठे जुगालेहें और तिनके निवास विषे लूवा मेंना पढ़े हैं और तिनके मठों के समीप अनेक गुलस्यारी लगाय राखी हैं सो तापसों की कन्या मिष्ट जल कर पूर्ण जे कलश वे थांवलों में डारें हैं श्री रामचन्द्र को श्राए जान तापस नाना प्रकारके मिष्ट फल सुगन्ध पुष्पमिष्ट जल इत्यादिक सामग्रियों कर बहुत आदरसे पाहुन गति करलेभए मिष्ट बचनका संभाषण कर रहने को कुटी मृदुपल्लवन की शय्या इत्यादि उपचार करते भए वे तापस सहजही सबों का आदर करें हैं इनको महारूपवान अद्भुत पुरुषजान बहूत आदर किया रात्रि को बस कर ये प्रभात उट चले तब तापस इन की लार चले इनके रूप को देखकर पाषाण भी पिघलें तो मनुष्य की क्या बात वे तापस सूके पत्रों के आहारी इनके रूपको देख अनुरागी होतेभए जे बृद्धतापस हैं वे इनको कहतेभए तुमयहां रहोतो यहसुखका स्थान है और कदापि न रहो तो इस अटवी विषेसावधान रहियो यद्यपि यहबनी जल फल पुष्पादि कर भरी है तथापि विश्वास न करना, नदी वनी नारी ये विश्वास योग्य नहीं, सो तुम तो सब बातों में सावधान ही हो फिर राम लक्ष्मण सीता यहां से आगे चले अनेकतापसिनी इनके देखनेकी अभिलाषाकर बहुत विहल भई
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पन्न
पुराव ugcoml"
धारता भय, औरमहासुन्दर श्रापकके व्रतविषे तत्पर न्याय सहित राज्यकरताभया, भरतगुणोंकासमुद्र उसका प्रताप और अनुराग समस्त पृथिवी विषे विस्तरता भया, उसके देवांगना समान डेढ़ सौराणी तिन विषे प्रासक्त न भया, जल में कमलकी न्यांई अलिप्त रहा, जिसके चितमें निरन्तरयह चिन्ता वरतेकि कवयति के व्रत धरूं तप करू मिर्पथ हुवा पृथिवी में विचरूं धन्य हैं वे पुरुष जे धीरे सर्व परिग्रह का त्याग कर तप के बल कर समस्त कर्म को भस्मकर सारभुत जो निर्वाण का सुखउसे पाबे हैं, मैं पापी संसार में मग्न प्रत्यक्ष देखू हूं जो यह समस्त संसारका चरित्र क्षणभंगुर है जो प्रभात देखिये सो मध्यान्ह में नहीं में मढ होय रहा हूं जे स्क विषयाभिलाषी संसार में राचे हैं वे खोटी मृत्यु मरेंगे सर्प व्याघ्र गज जल अग्नि शस्त्र विद्युत्पात शूलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीतिसे शरीर तजेंगे यह प्राणी अनेक सहस्रों दुख को भोगनहारा संसार मेंभ्रमण करे है बड़ा पाश्चर्य है अस्प आयु में प्रमादीहोय रहा है जैसे कोइ मदोन्मत्त बास्समुद्र के तट मूता तरंगों के समूह से नहरे तेसे में मोह कर उन्मच भव भ्रमण से नहीं डरहूं निर्भय होय रहा हूं हाय हार हिन्सा प्रारम्भादि अनेक जे पाप तिन कर लिप्त में राज्य कर. कोन से घोर नरक में आऊंगा कैसा हे नाक वाण पदम चक के श्राकार तीमय पत्र जिन में श्रेसे शाल्मली वृत जर्झ हैं अथवा अनेक प्रकार निर्याच मति जिस में मागा देखो जिन सास्त्र सारिखा माहाजानरूप शास्त्र उस को पाय कर भी मेस मन पाप युक्त हो रहा है निस्पृह होय कर यति का धम्म नहीं घारे हे सो नजानिये कौन गति जाना है मेसी कर्मों की नासनहोरी जो धर्मरूप चिन्ता उसको निरन्तर माप्त हुआ जो राजा भरत सो जैन पुराणादि अन्थों के श्रवण विषे अासक्त सदैव
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साधन की कथा में अनुरांगी रात्रि दिन धर्म में उद्यमी होता भयो ॥ इति बत्तीसवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ __ अथानन्तर श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण सीता जहां एकतापसों का आश्रम है वहां गए अनेक तापस जटिल नानाप्रकारके वृत्चोंके वकल पहिरे अनेक प्रकारका स्वादुफल तिनकर पूर्ण हैं महाजिनके बनविषे बृक्षसमान बहुत मठ देखे विस्तीर्ण पत्रों कर छाए हैं मठ जिनके अथवा घासकेछलों कर पाशादितहें निवास जिनके विना बाहे सहजही उगेजे धान्य वे उनके आंगनमें सूके हैं और मृगभयरहित वांगन में वेठे जुगालेहें और तिनके निवास विषे खूवा मेंमा पढ़े हैं और तिनके मठों के समीप अनेक गुलक्यारी लगाय राखी हैं सोतापसों की कन्या मिष्ट जल कर पूर्ण जे कलश वे थांवलों में डारें हैं श्री रामचन्द्र को श्राए जान तापस नाना प्रकारके मिष्ट फल सुगन्ध पुष्पामष्ट जल इत्यादिक सामग्रियों कर बहुत आदरसे पाहुन गति करतेभए मिष्ट चचनका संभाषण कर रहने को कुटी मृदुपल्लवन की शय्या इत्यादि उपचार करते भए वे तापस सहजही सबों का आदर करें हैं इनको महारूपवान अद्भुत पुरुषजान बहूत आदर किया रात्रि को बस कर ये प्रभात उट चले तब तापस इन की लार चले इनके रूप को देखकर पाषाण भी पिघलें तो मनुष्य की क्या बात वे तापस सूके पत्रों के आहारी इनके रूपको देख अनुरागी होतेभए जे बृद्धतापस हैं वे इनको कहतेभए तुमयहां रहोतो यहसुखका स्थान है और कदापि न रहो तो इस अटवी विषे सावधान रहियो यद्यपि यहबनी जल फल पुष्पादि कर भरी है तथापि विश्वास न करना, नदी वनी नारी ये विश्वास योग्य नहीं, सो तुम तो सब बातों में सावधान ही हो फिर राम लक्ष्मण सीता यहां से आगे चले अनेक तापसिनी इनके देखनेकी अभिलाषाकर बहुत विहल भई ।
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हुई दूर लग पत्र पुष्प फल इन्धनादि के मिसकर साथचली आई, कई एक तापसिनी मधुर वचन कर इनको कही भईकितुम हमारे आश्रमविषे क्यों न रहो हमतुम्हारी सब सेवा करेंगी यहांसे तीन कोसपर ऐसीवनी है जहां महासघन वृक्ष हैं मनुष्यों का नाम नहीं अनेक सिंह व्याघ्र दुष्टजीवोंकर भरी जहांईंधन और फल फूल के अर्थ तापस भी न आवें डामकी तीक्षण णीयों कर जहांसंचार बन महाभयानक है और चित्रकूट पर्वत अति ऊंचा दुर्लंध्य तिस्तीपिडा है तुम ने क्या नहीं सुना है जो चलेजावोहो तब राम कहते भए हो तापसीनो हो हम अवश्य आगे जावेंगे तुम तुम्हारे स्थान जावो कठिनता से तिनको पीछे फेरी वे परस्पर इनके गुणरूपका वरणन करती अपने स्थानक आई ए महा गहन वन में प्रवेश करते भए कैसा है वह पर्वतके पाषाणोंके समूहकर महाकर्कस औरजे बडे २ जे वृक्ष तिनपर आरूढ हैं बेला के समूह जहां और सुधाकर अति क्रोधायमानजे शार्दूल तिनके नखकर बिदारे गए हैं वृक्ष जहां और सिंहोकर हते गए जे गजराज तिनके रुधिर कर रक्त भए जो मोती सोठारे २ विखर रहे हैं और माते जे गजराज तिन कर भग्न भएहैं तरुवर जहां और सिंघों की ध्वनि सुन कर भाग रहे हैं कुरंग जहाँ ! और सूते जे अजगर तिनके श्वासोंकी पवनकर पूर रही हैं गुफा जहां शूरों के समूहकर कर्दम रूप होरहे हैं सरोवर जहां और महा अरण्य भैंसे उनके सींगनकर भग्न भये हैं ववइयों के स्थान जहां और फणको ऊंचे किये फिरहेँ भयानकसर्प जहां और कांटोंकर बींधापू का अग्रभाग जिनका ऐसी जे सुरहगाय सो खेद खिन्न भई हैं और फैल रहे हैं कटेरी आदि अनेक प्रकार के कंटक जहां और विष पुष्पोंकी रजकी वासनाकर घूमें हैं अनेक प्राणी जहां और गैंडावों के पग कर विदारे गये हैं वृक्षों के पेड़ और भ्रम
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घन
॥४०॥
| रोझन के समह तिनकर भग्न भये हैं पल्लवों के समूह जहां और नाना प्रकार के जे पक्षियोंके समूह तिनके जो कर शब्द उनकर बन गूजरहा है और बन्दरों के समूह तिनके कूदनेकर कम्पायमान हैं वृक्षों की शाखा जहां और तीव्र वेगकों धर पर्वत से उतरती जे नदी तिनकर पृथिवी में पड़गयाहै दहाना जहां
और वृक्षों के पल्लवों कर नहीं दीखे है सूर्य की किरण जहां और नानाप्रकार के फलाल तिन कर भरा अनेक प्रकारकी फैलरही है सुगन्ध जहां नानाप्रकारकी जे औषधि तिनकरिपूर्ण और बनके जेधान्य तिन कर पूरित कहीं एक नीलकहीं एक पीतकहीं एक रक्त कहीं एक हरित नाना प्रकार वर्णको धरेजोबन उसमें दोनोंवीर प्रवेश करतेभये चित्रकूट पर्वत के महामनोहरजेनीझरने तिनमें क्रीडाकरते बनकी अनेक सुन्दरवस्तु देखते परस्पर दोनोंभाई वातकरते बनके मिष्टफल प्रास्वादन करते किन्नर देवोंके भी मनको हरें ऐसा मनोहर गान करते पुष्पोंके परस्परप्राभूषण बनावते सुगन्ध द्रव्य अंगमें लगावते फूलरहे हैं सुन्दर नेत्र जिनके महा स्वछन्द अत्यन्त शोभाके धारणहारे सुरनर नागोंके मनकेहरणहारे नेत्रोंको प्यारे उपवनकी न्याई भीमबनमें रमतेभए अनेकप्रकारके सुन्दरजे लतामंडप तिनमें विश्रामकरते नानाप्रकारकी कथा करते विनोद करते रहस्य की बातें करते जैसे नन्दन वनमें देव भ्रमण करें तैसे अति रमणीकलीला से वन विहार करते भये । ___अथानन्तर साढेचार मास में मालव देश में पाए सो देश अत्यन्त सुन्दर नानाप्रकारके धान्योंकर शोभित जहां ग्राम पट्टनघने सो केतीक दूर आयकर देखें तो वस्ती नहीं तब एक बटकी छाया में बैठ दोनों भाई परस्पर बतलावतेभये कि काहेसे ये देश ऊजड़ दीखे है नानाप्रकारके क्षेत्र फल रहे हैं और मनुष्यनहीं | नानाप्रकारके वृक्ष फल फूलन कर शोभित हैं और पौंडे सांठे के बाद बहुत हैं और सरोवरों में कमल फूल |
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पराश
पद्म। रहे हैं नानाप्रकारके पक्षी केलिकरे हैं यह देश अति विस्तीर्ण मनुष्यों के संचार विना शोभे नहीं जैसे जिन iyen दीक्षाको धरे मुनि वीतरागभाव रूप परम संयम विना शोभे नहीं ऐसी सुन्दर वार्ता राम लक्षमणसे करे
हैं वहां अत्यन्त कोमल स्थानक देख रत्न कम्बल क्लिाय श्रीराम बैठे निकट धरा है धनुष जिनके और सीता प्रेमरूप जलको सरोवरी श्रीरममें आसक्त है मन जिसका सो समीप बेठी श्रीरामने लक्षमण को अाज्ञाकरी तू बट ऊपर चढ़कर देख कहीं वस्तीभी है सो अाज्ञाप्रमाण देखताभया और कहताभया किहे। देव विजियाध पर्वत समान ऊंचे जिनमन्दिर दीखे हैं तिनके शरदके वादले समान शिखर शोभहें ध्वजा फरहरे हैं और ग्रामभीबहुत दीखे हैं कूप वापी सरोवरों कर मंडित और विद्याधरोंके नगर समान दीखे हैं खेत। फल रहेहैं परन्तु मनुष्यकोई नहीं दीखे है न जानिये लोक परिवार सहित भाजगएहें अथवा क्रूरकर्म । के करनहारे म्लेच्छ बान्धकर लेगए हैं एक दलिद्री मनुष्य प्रावता दीखेहै मृगसमान शीघ आदेहै रूक्ष हैं केशजिसके और मलकर मंडितहै शरीर जिसका लावी डाढी कर पाछादित है उरस्थल और फाटे वस्त्र पहिरेढरे हैं पसेव जिसके मानो पूर्वजन्मके पापको प्रत्यक्ष दिखावेहै तब रामने अाज्ञाकरी शीघजाय उसको ले प्राव तब लक्षण बटसे उतर दलिद्री के पासगए सो लक्षमणको देख अाश्चर्यको प्राप्तभया कि यह इन्द्र है तथा वरुणहै तथा नागेन्द्रहै तथा नर है किन्नर है चन्द्रमाहै अक सूर्य है अग्नि कुमारहै अक कुवेर है यह कोई महातेज का धारक है ऐसा विचारता संता डर कर मूर्छा खाय भूमि में गिर पड़ा तब लक्ष्मण
कहते भए हे भद्र भय मतकर उठ उठ ऐसा कह उठाया और बहुत दिलासा कर श्रीरामके निकटले पाये | सो दरिद्री पुरुष क्षुधा आदि अनेक दुःखों कर पीडित था, सो राम को देख सब दुःख भूल गया |
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पद्म
पुराण
राम महासुन्दर सौम्य है मुख जिनका कांति के समूह से विराजमान नेत्रों को उत्साह के करणहारे महा ४er" || विनयवान् सीता समीप बैठी है सो मनुष्य हाथ जोड़ सिर पृथिवी से लगाय नमस्कार करता भया तब आप दया कर कहते भए, तू छाया में जाय बैठ भय न कर तब वह आज्ञा पाय दूर बैठा रघुपति अमृत रूप वचन कर पूछते भए तेरा नाम क्या है और कहां से आया और कौन है तब वह हाथ जोड़ बिनती करता भया हे नाथ में कुटंबी हूं मेरा नाम सिरगुप्त है दूर से आऊं हूं तब आप बोले यह देश जड़ का से है तब वह कहता भया ह देव उज्जयिनीनामानँगरी उसका पति राजा सिंहोदर प्रसिद्ध प्रतापकर नवाए हैं बड़े बड़े सामंत जिसने देवों समान है विभव जिसका और एक दशांगपुरकापति वज्रकर्ण सो सिंहोदरका सेवक अत्यन्तप्यारा सुभट जिसने स्वामी के बड़े बड़े कार्य किए सो निर्ग्रन्थ मुनिको नमस्कार कर धर्मश्रवण कर उसने यह प्रतिज्ञा करी कि मैं देव गुरु शास्त्र टार और को नमस्कार न करूं साधु के प्रसादकर उसको सम्यक दर्शन की प्राप्ति भई सो पृथिवी में प्रसिद्ध है आपने क्या अब तक उसकी वार्ता न सुनी, तब लक्ष्मण राम के अभिप्राय से पूछते भए कि वज्रकर्ण पर कौन भान्ति संतन की कृपा भई तब पंथी कहता भया हे देवराज एक दिन वज्रकर्ण दसारण्य बन में मृगया को गया था जन्म ही से पापी क्रूरकर्म का करणहारा इन्द्रियों कालोलुपी महामूढ़ शुभक्रिया से परांमुख महासूक्ष्म जिन धर्म की चर्चा
न जाने काम क्रोध लोभी हीए अंध भोग सेवन कर उपजा जो गर्ब सोई भया पिशाच उसी कर पीडित सो बन में भ्रमण करे सोउसने ग्रीष्म समय में एक शिला पर तिष्ठतासंता सत्पुरुषोंकर पूज्य ऐसा महा मुनि देखा, चार महीना सूर्य की किरण का आताप सहनद्दारा महातपस्वी पक्षी समान निराश्रय
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पद्म पुरामा ॥४३॥
सिंहसमान निर्भय सोतप्तायमानजोशिलाउसकरतप्तशरीर ऐसे दुर्जय तीव्रताप का सहनहारा सज्जन सों। ऐसे तपोनिधि साधुको देख वज्रकर्ण तुरंगपर चा बरछी हाथमेंलिये कालसमान महाकर पूछता भयो कैसे हैं साधु गुण रूप रत्नों के सागर परमार्थ के वेसा पापों के घातक सर्व जीवों के दयालु तपो विभूति कर मंडित तिनको वज्रकर्ण कहताभया हे स्वामी तुम इस निर्जन वन में क्या करो हो ऋषि बोले प्रात्म कल्याण करे हैं जो पूर्व अनन्त भवविषे नाचरा, तब वज्रकर्ण हंसकर कहताभया इस अवस्थाकर तुमको क्या सुखहै तुमने तपकर रूपलावण्यरहित शरीर किया तुम्हारे अर्थ काम नहीं बनाभरमानहीं कोई सहाई नहीं स्नान सुगंन्ध लपनादिरहित हो, पराए घरों के आहार कर जीविका पूरी करोहो तुम सारीखे मनुष्य क्या अात्महिताकरें, तब उसकोकाम भोगकर अत्यन्तबार्त्तिवन्तदेखमहादयावान संयमीबोले क्यालेनेमहाघोर नरककी भूमिसुनी हैजोतू उद्यमी होय पापोंविषेप्रीति करे हैनरककी महाभयानकसातभूमिह उमहादुर्गन्धपई देखी न जाय स्पर्शीन. जांय सुनी नजांय, महातीक्षण लोहके कांटोंकर भरी जहां नोरकियों को धानियों मेंपेले हैं अनेक वेदना त्रास होय हैं छुरियों कर तिल २ काटिए हैं और तातेलोहे समान ऊपरले नरकोंका पृथिवी तल और महाशीतल नीचले नरकों का पृथिवी तल उस कर महा पीड़ा उपजै है, जहां महाअन्ध कार मा भयानक रौरवादि गत असिपत्र बन महादुर्गन्ध वैतरणी नदी जे पापी माते हाथियोंकी न्याई निरंकुश हैं वे नरक में हजारां भान्ति के दुख देखे हैं हम तुझे पूछे हैं तो सारीषे पापारम्भी विषयानुरू कहां आत्म हित करे, ये इन्द्रायण के फल समान इन्द्रियोंके सुख त निरन्तर सेय कर सुख माने है, सो इनमें हित नहीं ये दुर्गति के कारणहैं, आत्माका हित वह करे है जो जीवों की दया पाले मुनि के व्रत घरे
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uyeen
NARAYRANA
अथवा श्रावक के व्रत श्रादरे निमल है चित्त जिस का, जेमहाव्रत तथा अणवत नहीं पादरे हैं वै मिथ्यात्व। अबतके योग से समस्त दुखों के भाजन होयहे, तेंने पूर्व जन्म में कोई सुकृत किया था उसकर मनुष्य देह पाया अब पोप करेगा तो दुगंति जायगा ये विचारे निर्बल निरापराध मृगादि पशु अनाथ भूमि ही है शय्या जिन के चंचल नेत्र सदा भय रूप वन के तृणों और जल कर जीवन हारे पूर्व पाप कर अनेक दुखों कर दुखी रात्रि भी निद्रा न करें भयकर महाकायर सोभले मनुष्य असे दोनों को कहाहनें इसलिए जोतू अपना हित चाहे है तोमन क्चन काय कर हिंसा तज, जीव दया अंगीकार कर, असे मुनी के श्रेष्ठ बचन | | सुनकर बजकर्ष प्रतिबोधको प्राप्तभया जैसे फलावृक्ष नयजाय तैसे साधुके चरणारबिन्दको नयाअश्व ! से उतर साधुके निकट गया हाथ जोड़प्रणामकर अत्यन्त बिनयकी दृष्टिकर चित्तमें साधुकी प्रशंसा करता। भया धन्यहै ये मुनि परिग्रहके त्यागी जिनको मुक्तिकी प्राप्तिहोयहै और इस बनके पची और मृगादि, पशु प्रशंसा योग्य, जे इस समाधि स्वरूप साधुका दर्शनकरे हैं और अति धन्य हूं में जो मुझे श्राज। साधुका दर्शनभया ये तीन जगतकर बन्दनीकहै अबमें पापकर्मसे निवृतभया ये प्रभो ज्ञानस्वरूप नखों। कर बन्धु स्नेहमई संसाररूप जो पिंजरा उसे छेदकर सिंहकी न्याई निकसे ये साधु देखो मनरूप बैरी को । बशकर नग्न मुद्राधर शील पाले हैं में अतृप्त आत्मा पूर्ण वैराग्यको प्राप्त नहीं भया इसलिये श्रावक के अणुव्रत अादरूं ऐसा विचारकर साधुके समीप श्रावकके ब्रत प्रादरे और अपनामन शांत रस रूप । जलसे धोया और यह नियम लियाकि देवादिदेव परमेश्वर परमात्मा जिनेंद्रदेव और तिनके दास महा भाग्य निग्रंथ मुनि और जिनबाणी इन बिना औरको नमस्कार न करूं प्रीतिवर्धन नामा वे मुनि तिन
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पद्म पुराण
use
के निकट बजकर्णने अणुब्रन आदर और उपवास धारे मुनिने इसको बिस्तारकर धर्मका व्याख्यान कहा जिसकी श्रद्धाकर भव्यजीव संसार पाशसे छुटे एक श्रावकका धर्म एक यतिका धर्म इसमें श्रावक का धर्म गृहालवन संयुक्त और यतिका धर्म निरालम्बनिरपेक्ष दोनोंधौंकामूल सम्यक्तकी निर्मलता तप
और ज्ञानकरयुक्त अत्यन्तश्रेष्ठ सो प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोग रूपविषे जिन शासन प्रसिद्धहै यतिकाधर्म अतिकठिन जान अणुव्रत में बुद्धिठहराई और महाब्रतकी महिमा हृदय में धारी जैसे दरिद्रीके हाथमें निधि श्रावे और वह हर्षको प्राप्त होय तैसे धर्मध्यान को धरता संता आनन्द को प्राप्त भया यहअत्यन्त क्रूर कर्म का करण हारा एक साथही शांति दशा को प्राप्तभया इसबातकर मुनि भीप्रसन्नभए राजानेउसदिन तो उपवास किया दूसरेदिन पारणा कर दिगंबरके चरणाराबिंद को प्रणाम कर अपने स्थान को गया गुरुके चरणारविंद हृदयमेधारतासंता संदेह रहितभया अणुव्रतश्राराधे चित्त में यह चिंता उपजी कि उज्जैनी का राजा जो सिंहोदर उसका मैं सेवक हूं उसका विनय किए विनामराज्य कैसे करूंतब विचारकर एक मुद्रिका बनाई उसमें श्रीमुनिसुव्रतनाथ जी की प्रतिमापधगय दक्षिणांगुष्ट में पहिरी जब सिंहोदर के निकट जाय तब मुदिका में प्रतिमा उसेवारंबार नमस्कार करे सो इसका कोई बैरी था उसने यह छिद्र हेर सिंहोदर से कही कि यह तुम को नमस्कार नहीं करे है जिन प्रतिमा को करे है, तब सिंहोदर पापी कोप को प्राप्त भया और कपट कर वनकर्णको दशांग नगर से बुला वता भया, सम्पदाकर उन्मत्त मानी इसके मारवेि कोउद्यमीभया सो वजूकर्ण सरलचिच सो तुरङ्गपरचढ़ उज्जयिनी जावे को उद्यमी भया, उससमय एकपुरुष ज्वानपुष्ट और उदारहे शरीर जिसका दण्ड जिसके
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पद्म पुराण
४९६
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हाथ में सो आयकर कहताभया हेराजा जो तू शरीरसे और राज्यभोगसे रहितभया चाहे तो उज्जयनी जावो नातर मत जावो सिंहोदर अति क्रोधको प्राप्त भया है तुमनमस्कार नकरोहो इसलियेतुमको माराचा हे है तु सो, यह सुनकर वज्रकर्ण ने विचारी कोऊ शत्रु मे रेविषे और नृप विषे भेद किया चाहे है उस ने मंत्र कर यह पठाया होय फिर बिचारी इस का रहस्य तो लेना तब एकान्त में उसे पूछता भया तू कौन है और तेरा नाम क्या और कहांसे आया है और यह गोप्य मन्त्रतैंने कैसे जाना तब वह कहता भया कुन्दननगर में महा धनवन्त एक समुद्रसंगम सेठ है उसके यमुना स्त्री उसके वर्षा काल में विजुरी के चमत्कार समय मेरा जन्म भया, इस लिये मेरा विद्युदंग नाम घरा सो मैं अनुक्रम से नव यौवन को प्राप्त होय व्यापार के अर्थ उज्जैनी में गया तहां कामलता वेश्या को देख अनुराग कर व्याकुल भया एक राति उससे संगम किया सो उसी ने प्रीति के बन्धन कर बांध लिया जैसे पारधी मृगको पांसि से बोधे मेरे बाप ने बहुत वर्षों में जो धन उपार्जा था सो में ऐसा कूपूत बेश्या के संग कर पट मास में सब खोया जैसे कमल में भ्रमर आसक्त होय तैसे उस में आसक्त भया, एक दिन वह नगरनायिका अपनी सखी के समीप अपने कुण्डलों की निन्दा करती थी सो में सुनी तवउससे पूछी उसने कही धन्य है राणी श्री महासौभाग्यवती उस के कानों में ऐसे कुण्डल हैं जैसे किसी के नहीं तब मैंने मन में चितई कि यदि मैं सी के कुण्डल हर कर इसकी आशा पूर्ण न करूं तो मेरे जीने कर क्या तब कुण्डल हरने को
अंधेरी रात्री में राज मन्दिर में गया सो राजा सिंहोदर कोप हो रहा था और राणी श्रीधरानिकट बैठी थी सोपी ने पूछा हे देव आज निद्रा काहे से न आवे है तब राजाने कही हे राणी में वज्रकर्णको
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पद्म | छोटे से मोटाकिया औरमुझेसिर न नवावेसोउसेजबतक न मारूं तब तक आकुलता के योग्यसे निगा कहाँ
आवे एते मनुष्यों से निद्रा दूरही भागे अपमान से दग्ध और कुटुम्बी निर्धन शत्रुने आय दवाया अरु जीतने समर्थ नहीं और जिसके चित्त में शल्य तथो कायर और संसार से विरक्त इन से निद्रा दूरही रहे है यह वार्ता राजा और रानी की में सुनकर ऐसा होयगया मानो काहू ने मेरे हृदयमें वन की दीनी सो कुण्डल लेयवेकी बुद्धि तज यह रहस्ह लेय तेरे निकट प्राय अब तू वहांमतजाइयो कैसा है त जिन धर्म में उद्यमी है और निरन्तर साधुवोंका सेवकहै अंजनीगिरि पर्वतसे हाथी मदझरें तिन पर चढ़े योधा वक्तर पहिरे और महा तेजस्वी तुरंगों के असवार चिलते पहिरे महा क्रूर सामन्त तेरे मारनेके अर्थ गजाकी प्राज्ञासे मार्ग रोके खड़े हैं इसलियेतू कृपाकर अब वहां मतजा में तेरे पायनपरूं हूं मेरा वचन मान और तेरे मनमें प्रतीति नहीं आवे तो देख वह फौज पाई धूरके पटल उठे हैं महा शब्द होते आवे हैं यह विद्युदंग के वचन सुन वजूकर्णपर चक्रको प्रावते देख इसको परममित्र जान लार लेय अपने गढ़विषे तिष्ठा सिंहोदर के सुभट दरवाजे में श्रावने न दिये तब सिंहोदर सर्वसेना लार ले चढ़ आया सो गाढ़ाजान अपने कदक के लोक इनके मारनेके डरसे तत्काल गद लेने की बद्धि न करी गढ़के समीप डेरे कर वजकर्ण के समीप दूत भेजा सो अत्यन्त कठोर वचन कहता भया तू जिन शासनके गर्वसे मेरे ऐश्वर्यका कंटकभया जे घर खोवा यति तिन्होंने तुझे बहकाया तू न्याय रहितभयादेश मेरादिया खाय माथा अरहंतको नवावे तू मायाचारी है इसलिये शीघ्रही मेरे समीप आयकर मुझे प्रणाम कर नातर मारा जायगा यह वार्ता दूतने वजकर्णसे कही तत्र कर्ण ने जोजवाब दिया सो दूतजाय
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पद्म
सिंहोदरसे कह है है नाथ वज्रकर्णकी यह विनती है कि देश नगर भण्डार हाथी घोड़े सब तुम्हार हैं सो लेवो पुरा मुझे स्त्री सहित धर्म द्वार देय का दे देवो मेरा तुमसे उजर नहीं परन्तुमें यह प्रतिज्ञा करी है कि जिनेन्द्रमुनि
॥ ४९८ ॥
और जिनवाणी इन बिना औरको नमस्कार न करूं सो मेरा प्राणजाय तो भी प्रतिज्ञा भंग न करूं तुम मेरे द्रव्य के स्वामीहो आत्माके स्वामी नहीं यह वार्तासुन सिंहोदर अति क्रोधको प्राप्तभया नगरको चारों तरफ से घेरा और देश उजाड़दिया सो दलिद्री मनुष्य श्रीराम से कहे हैं हे देव देश उजाड़ने का कार मैं तुमसे कहा अब में जाऊंहूं जहांसे नजदीक मेरा ग्राम है ग्राम सिंहोदरके सेवकोंने जलाया लोगों के विमान तुल्य घरथे सो भस्म भए मेरी तृण काष्ठ कर रची कुटी सोभी भस्म भई मेरे घर में एक बाज एक माटी का घट एक हांडी यह परिग्रहथा सो लाऊंहूं मे रे खोटी स्त्री उसने क्रूर वचन कह मुझे भेजा है और वह बारम्बार ऐसे कहे है कि सूने गांवमें घरोंके उपकरण बहुत मिलेंगे सो जाकर ले आवोसो मैं जाऊं हूं मेरे बड़े भाग्य जो आपका दर्शनभया स्त्री ने मेरा उपकारकिया जो मुझे भेजा वह बचन सुन श्रीराम महादयावान ने पंथीको दुखी देख अमोलक रत्नोंका हार दिया सो पंथी प्रसन्न होय चरणार विंदको नमस्कार कर हारले अपने घर गया द्रव्यकर राजावों के तुल्य भया ।।
अथानन्तर श्रीराम लक्षमण से कहते भए कि हे भाई यह जेष्ठ का सूर्य अत्यन्त दुरसह जब अधिक न चढे उससे पहिलेही चलो इस नगरीके समीप निवास करें सीता तृषाकर पीड़ित हैं सो इसे जल पिलावें और आहारकी विभी शीघ्र ही करें ऐसा कहकर वहांसे आगे गमन किया सो दरांगनगर के समीप जहां श्रीचन्द्रप्रभु का चैत्यालय महा उत्तम है वहां आये और श्रीभगवानको प्रणाम कर
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परा
いさき
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सुख से तिष्ठे और आहारकी सामग्री निमत्त लक्षमण गए सिंहोदर के कटक में प्रवेश करते कटक के रक्षकजो मनुष्य उन्होंने मने किये तब लक्षमण ने विचारी कि ये दरिद्री और नीच कुल इनसे में विवाद करूं यह विचार नगरकी ओर आए सो नगरके दरवाजों में अनेक योधा बैठेथे और दरवाजे के ऊपर बज्रकरण तिष्ठाथा महासावधान सो लक्षमणको देख लोग कहते भए तुम कौन हो और कहां से कौन अर्थ आहो तव लक्षणने कही दूरसे आए हैं और आहार निमित्त नगर में जाते हैं तब वज्रइनको अति सुन्दर देख आश्चर्यको प्राप्तभया और कहताभया हे नरोत्तम भीतर द्याजावो तब यह गढ़में कर्ण बहुत आदरसे मिला और कहताभयो कि भोजन तय्यार है सो प कृपाकर यहांही भोजनकरो तब लक्षमणने कही मेरे गुरुजन बड़े भाई और भावज श्रीचन्द्रप्रभुके चैत्यालय में बैठे हैं तिनको पहिले भोजन कराय फिर में भोजन करूंगा तब वज्रकर्णने कही बहुत भलीवात वहां जाइये उन योग्य सब सामग्री है सो ले जावें अपने सेवकों हाथ उसने भान्ति भान्तिकी सामग्री पठाई सो लक्षण लिवाय लाए श्रीराम लक्षमण और सीता भोजन कर बहुत प्रसन्नभए श्रीराम कहते भए हे लक्ष्मण देखो वेज्रकर्ण की बड़ाई जो ऐसा भोजन कोई अपने जमाई को भी न जिमावे सो दिन वाकिफ़ी अपने तांई जिमाए पीने की वस्तु महा मनोहर और व्यंजन महामिष्ट यह अमृत तुल्य भोजन जिस कर मार्गका खेद मिटा और जेठ के चाताप की तपत मिटी चान्दनी समान उज्ज्वल दुग्ध महा सुगन्ध जिस पर भ्रमर गुञ्जार करें और सुन्दर घृत सुन्दर दधि मानों कामधेनुके स्तनों से उपजाया दुग्ध उससे निरमाया है ऐसे भोजन ऐसे रस और ठौर दुर्लभ हैं, उस पंथी ने पहिले अपने तांई कही थी कि यह
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पद्म
nyoou
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अबतको घारी श्रावक है और जिनेन्द्र मुनिन्द्र जिनसूत्र टार और को नमस्कार नहीं करे है. सो ऐसा घरमात्मा व्रत शील का धारक अपने आगे शत्रु से पीडित रहे तो अपने पुरुषार्थ से क्या सधा, अपना यही धर्म है जो दुखी का दुख निवारें साधर्मी का तो अवश्य निवारें यह अपराघ रहित साघुसेवा में सावधान महाजिनधर्मी उसके लोक जिनधर्मी ऐसे जीवको पीड़ा क्यों उपजे । यह सिंहोदर ऐसा बल बान है जो इसके उपद्रव से वज्रकर्णको भरत भी न वश्चाय सके इसलिये सो हे लक्ष्मण तुम इसकी शीघ्रही सहायता करो सिंहोदर पै जावो और वजू कर्णका उपद्रव मिटे सो करो हम तुम को कहा सिखायें जो यूं कहियो यूं कहियो तुम महा बुद्धिवान् हो जैसे महामणि प्रभा सहित प्रकट होय है तैसे तुम महबुद्धि पराक्रम को घरे प्रकट भए हो, इस भान्ति श्रीराम ने भाई के गुण गाए तब भाई लज्जाकर नीचे मुख होय गए नमस्कार कर कहते भए हे प्रभो जो श्राप श्राज्ञा करोगे सोई होयगा महा विनयवान लक्ष्मण राम की आज्ञा प्रमाण धनुष बाण लेय घरती को कंपायमान करते हुए शीघ्र ही सिंहोदर पै गए सिंहोदरके कटक के रखवारे पूछते भए तुम कौन हो लक्ष्मण ने कही मैं राजा भरत का दूत हूं, तब कटक में बैठने दीया अनेक डेरे उलंघ राजद्वार में गया द्वारपाल ने राजा से मिलाया सो महाबलवान सिंहोदरको तृणसमान गिनतासंता कहता भय हे सिंहोदर अयोध्याका अधिपति भरत उसने यह आज्ञा करी है कि वृथा विरोधकर क्या वजू कर्ण से मित्रभाव करो तब सिंहोदर कहता भया हे दूत तू राजा भरतको इस भान्ति कहियो कि जो अपना सेवक होय और विनयमार्ग से रहित होय उसे स्वामी समझाय सेवा में लावे, इस में विरोध क्या यह वजकर्ण दुरात्मा मानी मायाचारी कृतघ्न मित्रों का निन्दक चाकरीचूक आलसी मूढ विनयचार रहित खोटी
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पद्म पुरामा
अभिलाषा का धारक महाक्षुद्र सज्जनतारहित है सो इसके ये दोष जब मिटेंगे कि कै तो यह मरण को प्राप्त होय अथवा इसेराज्य रहित करूं इसलिये तुम कद्दूमतकहो मेरा सेवक है जो चाहूंगा सो करूंगा तब #५०९ ॥ लक्ष्मण बोले बहुत उत्तरों कर क्या यह परमहितु है इस सेवक का अपराध क्षमा करो ऐसा जब कहा तब सिंहोदर क्रोध कर अपने बहुत सामन्तों को देख गर्व को धरतो हुवा उच्च स्वरों से कहता भया यह वज्रकर्ण तो महामानी है ही परन्तु इसकेकार्यको आया जो तू सोभी महामानी है तेरा तन और मन मानो पाषाण से निरमाया है चमात्र भी नम्रता तो मैं नहीं तू भरतका मूढसेवक है जानिये है जो भरत के देश में तोसारिखे मनुष्य होवेगे जैसे सीजती भरी हांडी में से एक चावल काट कर नर्म कठोर की परीक्षा कीजिए है तैसे एक तेरे देखनेसे सब की बानिगी जानी जाय है, तब लक्ष्मण क्रोध कर कहते भए मैं तेरी वांकी सूधी करावे को आया हूं तुझेनमस्कार करने को तो न आया, बहुत कहनेसे क्य थोड़े ही में समझजावो वज्र कर्ण से संधिकर ले नातर मारा जायगा ये वचन सुन सब ही सभा के लोक क्रोध को प्राप्त भए नाना प्रकार के दुर्बचन कहते भए और नाना प्रकार क्रोध की चेष्टाको प्राप्त भए के एक क्रूरी लेय के एक कटार भाला तलवार गहकर इस के मारने को उद्यमी भए हुंकार शब्द करते अनेक सामन्त लक्ष्मण को ऐसे बेढ़ते भए जैसे पर्वत को मदर रोकें तैसे रोकते भए, सा यह धीर वीर युद्ध क्रिया विषे पण्डित शीघ्र क्रिया के वेचा चरण के घात कर तिन को दूर उड़ा दिए कै एक गोडों से मारे के एक कहनियों से पछाड़े कैएक मुष्टिप्रहार कर चूर्ण कर डारे केएकों के केश पकड पृथिवी पर पाडिमारे कैयकों को परस्पर सिर भिडाय मारे, इस भांन्ति अकेले महावली लक्ष्मण
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पद्य
॥५२२॥
ने अनेक योधा विध्वंस किये तब और बहुत सामंत हाथी घोड़ोंपर चढ़े वक्तर पहिरे लक्ष्मण की चौगिरद फिरें नानाप्रकार शस्त्रों के धारक तब लक्ष्मण जैसे सिंह स्यालों को भगावे तैसे तिनको भगावता भया तब सिंहोदर कारीघय समान हाथीपर चढ़कर अनेक सुभटों सहित लक्ष्मण से लड़नेकोउद्यमी भया अनेक योधा मेघसमान लक्ष्मणरूप चंद्रमाको ढूंढ़ते भए सो सब योधा ऐसे भगाए जैसे पवन पाकके डोडों के जे फफंदे तिनको उड़ावे उस समय महायोधावोंकी कामिनी परस्परवार्ता करे हैं देखो यह एक महा सुभट अनेक योधाओंसे बेढ़ाहै परन्तु यह सबको जीते हैं कोई इसको जीतिवे शक्त नहीं धन्य है इसके माता पिता इत्यादि अनेक वार्ता सुभटॉकी स्त्री करे हैं और लचमणने सिंहोदरको कटकसहित चढ़ा देखा जका थम उपाड़ा और कटकके सन्मुख गए जैसे अग्नि बनको भस्म करे तैसे कटकके बहुत सुभट -विध्वंस किए और जो दशांगनगरके योधा नगरके दरवाजे ऊपर बजकर्णके समीप बैठेहुएथे सो फूल गए हैं नेत्र जिनके स्वामीसे कहते भए हे नाथ देखो यह एक पुरुष सिंहोदरके कटकसे लड़े है ध्वजारथ छत्र भग्न कर डारे परम ज्योतिका धारी है खडगसमान है कांति जिसकी समस्त कटकको व्याकुलतारूपभ्रमण में डागहै सब तरफ सेना भागी जायहै जैसे सिंहसे मृगोंके समूह भागें और भागते हुए सुभट परस्पर बतलावे हैं कि वक्तर उतारधरो हाथी घोड़े छोड़ो गदाखाडे में डार देवो ऊंचे शब्द न करो ऊंचाशब्द सुनकर शस्त्रकेधारकदेख यह भयानक पुरुष आय मारेगा अरेभाई यहांसे हाथी लेजावो कहां थांभरावा है गैलादेव अरे दुष्ट सारथी कहां रथको थांभ राखाहै अरे घोडे आगेको यह आया यह श्रआयाइसभांति । के बचनालाप करते महाकष्टको प्राप्तभए सुभट संग्राम तज आगे भागे जारहे हैं नपुंसक समान हो ।
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पद्म
पुराण
गए यह युद्ध में क्रीडाका करणहारा कोई देवहै तथा विद्यावर काल है क वायुहै यह महाप्रचंड सब सेनाको जीतकर सिंहोदरको हाथीसे उतार गले में बस्त्र डारबांध लिए जाय है जैसे बलद को ५०३५ बांध धनी अपने घर लेजाय यह वचन बज्रकणके योधा वज्रकर्ण से कहताभया तब वह कहते भए हे
सुभट हो बहुत चिन्ताकर क्या धर्मके प्रसाद से सब शांति होयगी और दशांग नगरकी स्त्री महलों के ऊपर बैठी परस्पर वार्ता करे हैं रे सखी देखो इस सुभ की अद्भुत चेष्टा जो एक पुरुष अकेला नरेन्द्र haraj ली जाय है अहो धन्य इसका रूप धन्य इसकी कांति धन्य इसकी शक्ति यह कोई प्रति शयका धारी पुरुशोत्तम है धन्य हैं वे स्त्री जिनका यह जगतीश्वर पति हुआ है तथा होयगा थोर सिंहोदर की पटरानी बाल तथा वृद्धोंसहित रोचती हुई लक्ष्मणके पांवो पड़ी और कहती भई हे देव इसे छोड़ देवो हमे भरतारकी भीख देवो अब जो तुम्हारी श्राज्ञा होयगी सो यह करेगा तब कहते भए यह आगे बडा वृक्ष है उससे बांध इसे लटकाऊंगा तब इसकी राणी हाथ जोड बहुत विनती करती भई हे प्रभो आप रोस भएहो तो हमें मारो इसे छोडो कृपा करो प्रीतमका दुःख हमें मत दिखावो ज तुम सारखे पुरुषोत्तम है वे स्त्री और बालक बृडोंपर करुणाही करे हैं तब आप दयाकर कहते भए तुम चिन्ता न करो आगे भगवानका चैत्यालयहै: वहां इसे छोडेंगे ऐसा कह आप चैत्यालय में गए जाय कर श्रीराम से कहते भए कि हे देव यह सिंहोदर आयाहै श्राप कहो सो करें तब सिंहोदर हाथ जोड कांपता श्रीराम के पावन पड़ा और कहताभया हे देव तुम महाकांतिके घारी परम तेजस्वी हो सुमेरुसारिखे अचल पुरुषोत्तमहों में आपका आज्ञाकारी यह राज्य तुम्हारा तुम चाहो जिसे देवो मैं तुम्हारे चरणारविंद
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1५०४.
की निरन्तर सेवा करूंगा और राणी नमस्कारकर पतिकी भीख मांगतीभई और सीतासतीके पायन परी कहती भई हे देवी हे देवी हे शोभने तुम स्त्रियोंकी शिरोमणिहो हमारी करुणाकरोतब श्रीरामासिंहोदरको कहते भए मानो मेघगाजे अहोसिंहोदर तुझे जोबजकर्णकहे सो कर इसी बातसे तेरा जीतब्यहै और वात कर नहीं इस भांति सिंहोदरको रामकी माज्ञाभई उसी समयजे वजकर्णके हितकारीथे तिनकोभेजबजू कर्णको बुलाया सोपरिताहत चैत्यालयमें पाया तीन प्रदक्षिणादेय भगवानको नमस्कारकरचंद्रप्रभु | स्वामीकी अत्यन्तस्तुतिकर रोमांचहोय आए फिरबह बिमयवान दोनों भाइयोंके पास आया स्तुतिकर शरीरकी आरोग्ता पूंछता भया और सीता जीकी कुशल प्रछी तब श्रीराम अत्यन्त मधुर ध्वनि कर बजकर्ण को कहते भए हे भव्य तेरी कुशल से हमारे कुशल है इस भाति बजकर्णकी और श्रीरामकी बार्ता होयहें तवही सुन्दर भेष धरे विद्युदंग माया श्रीराम लक्ष्मण की स्तुति कर बजकर्ता के समीप बैठा सर्वसभा में विद्युदंग की प्रशंशा भई कि यह बजकर्णका परम मित्र है फिर श्री रामचन्द्र प्रसन्न होय बजकर्ण से कहते भए तेरी श्रद्धा महामशन्सा योग्य है कुबुद्धियों के उत्पात कर तेरी बुद्धि रंच मात्र भी न डिगी जैसे पवन के समूह से सुमेरु की चूलिका न डिगे मुझे देखकर तेरा मस्तक न नया सो धन्यहै तेरीसम्मक्तकी दृढ़ताजेशुद्धत्तस्वके अनुभवी पुरुषहें तिनकी यही रीति है कि जगतकर पूज्य जे जिनेदतिन को प्रणाम करें फिर मस्तक कौन को नवावें मकरंद रसका श्रास्वादकरणहाराजोभ्रमर सो गर्धव(गधा)कीपूछपै कैसे गुंजार करे तू बुद्धिमान है धन्यहै निकटभब्य है चन्द्रमासे भी उज्जवलकीर्ति तेरी पृथिवीमें विस्तरी है इस भांति वर्जकर्णके सांचे गुण श्रीरामचन्द्रने वर्णन कीए तब वह लज्जावान् |
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॥५०५
पद्म होय नीचा मुख कर रहा श्रीरघुनाथ से.कहता भया हे नाथमो पर यह मापदा तो बहुत पड़ीथी परन्तु तुम पुराव
सारीखे सज्जन जगतके हितु मेरे सहाई भए मेरे भाग्य से तुम पुरुषोत्तम पधारे इस भांति वजकर्ण ने कहीतबलक्ष्मण बोले तेरीबांचा जो होय सो करें, तब वज्रकर्ण ने कही तुम सारिखे उपकारी पुरुष पोयकर मुझे इस जगत विषे कछु दुर्लभ नहीं मेरी यही बीनती है में जिनधर्मो हूं मेरे तृणमात्र को भी पीडाकी अभिलाषा नहीं और यह सिंहोदर तो मेरा स्वामी है इसलिये इसे छोडो ये वचन जब वज्रकर्ण ने कहे तब सब के मुख से धन्य धन्य यह ध्वनि होती भई कि देखो यह ऐसा उत्तम पुरुष है देष प्राप्तिभए भी पराया मला ही चाहे है में सज्जन पुरुष हैं वे दुर्जनोंका भी उपकारकरें और आपका उपकार करें उनका तो करें ही करेलचमणने वजकर्णको कही जो तुमकहोगेसो ही होयगासिंहोदरकोछोड़ा और वजकर्णकाऔरसिहोदर का परस्पर हाथ पकड़ाया परम मित्रकीए वजकर्णको सिंहोदर का आधा राज्य दिलवायाऔर जोमाललूटाथा सोभी दिवाया और देश पनसेना आधार विभागकरदिया वजकर्णके प्रसादकर विद्युदंग सेनापति भया
और वज्रकर्ण ने राम लक्षमणकी बहुत स्तुति करी अपनी पाठपुत्रियों की लक्षमण से सगाई करीकैसी हैं वे कन्या महाविनयवन्ती सुन्दर भेष सुन्दर श्राभूषण को घरे भो राजा सिंहोदर को आदि देय राजाओं की परम कन्या तीन सौ लक्षमण को दई सिंहोदर औवजकर्ण लक्षमण से कहते भये आप अंगीकार करें तब लचमण बोले विवाह तालब करूंगा जब अपने भजकरराज्य स्थान जमाऊंगा औरश्रीरामतिनसे कहते भये कि हमारे प्रयतक देश नहीं है तातने राज भरतको दियाहैइसलिये चन्दनगिरीके समीप तथा दक्षिणके समुद्र के समीप स्थानक करेंगे सब अपनी दोनों मातावों को लेने को में श्राऊंगा अथवा लक्षमण आवेगा
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पद्म
पुराव
७५०६४
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उस समय तुम्हारी पुत्रियों को भी परण करले आवेगा अब तक हमारे स्थानक नहीं कैसे पाणिग्रहण करें जब इस शांति कही तब वे सब राजकन्या ऐसी होय गई जैसा जाडे का मारा कमलों का बन होय जाय -नमें विचारतीभई वह दिन कब होयगा जबहमको प्रीतमके संगमरूप रसायनकी प्राप्ति होगी और जो कदाचित प्राणनाथका विरहभया तो हम प्राणत्याग करेंगे इन सबका मन विरहरूप अग्नि कर 'जलताभया यह विचारती भई एक ओर महा चौडागर्त औरएक ओर महाभयंकर सिंह क्या करें किधर जावें विरहरूप व्यात्रको पतिके संगमकी आज्ञा से वशीभूत कर प्राणोंको राखेंगी यह चिन्तवन करती • हुई अपने पिता की लार अपने स्थानक गई सिंझेर बजकर्ण आदि सबही नरपति रघुपति की ..आज्ञालेय पाए वे राजकन्या उत्तम चेष्शकी धरणहारी मातापितादि कुटुंबसे अत्यन्त सन्मान जिनका और पति है विश्वजिनका सो नाना विनोद करती पिता के घर में तिष्ठती भई और विद्युदंगने अपने माता पिताको कुटंब सहित बहुत विभूतिसे बुलाए तिनके मिलापका परम उत्सव किया और बज्रक के और विदर के परस्पर प्रतिप्रीति बढी और श्रीरामचन्द्रलक्ष्मण अर्धरात्रिको चैत्यालय से निकलकर चल दिए सो धीरे २ अपनी इच्छा प्रमाण गमनकरे हैं और प्रभातसमय जे लोक चैत्यालय में आए तो श्रीराम को न देख शून्यहृदय होय अति पश्चाताप करते भए । इति तेतीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
श्रथानन्तर रामलचमण जानकीको धीरे २ चलावते और रमणीक बनमें विश्वाम लेते और महा मिष्ट या फलों का रसपान करते क्रीड़ा करते रसभरी बातें करते सुन्दर चेष्टा के घरणहारे चले २ नलकूबर नामा नगर ये कैला नगर नाना प्रकारके रत्नों के जे मंदिर तिनके उतंग शिखरों कर मनोहर और
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पद्म पुराण
४५२१
1
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सुन्दर उपवनोंकर मंडित जिनमंदिरोंसे शोभित स्वर्गसमान निरंतर उत्सवका भरा लक्ष्मी का निवास है । सो श्रीरामलक्षमण और सीता नलकूबर नामा नगरके परम सुन्दर बनमें आय तिष्ठे कैसा है वह बन फलपुष्पों से शोभित जहां भूमर गुंजार करे हैं और कोयल बोले हैं सो निकट सरोवरीपर लक्ष्मण निमित्त गए सो उसी सरोवरीपर क्रीडाके निमित्त कल्याणमाला नाम राज्य पुत्री राजकुमार . कामे किये आई थी कैसा है राजकुमार महारूपवान नेत्रोंका हरणहारा सर्वको प्रिय महा विनयवान क. तिरूप निम्रनोके पर्वत श्रेष्ठ हाथीपर चढ़ा सुंदर प्यादे लार जो नगरका राज्य करे सो सरोवरीके तीर लक्ष्मणको देख मोहितभया कैसा है लक्ष्ममा मीलकमल समान श्याम सुंदर लवणोंका भरण• हारा सो राजकुमार... एक मनुष्यको श्राज्ञाकरी कि इनको लेखावो सो वह मनुष्य जायकर हाथ जोड नमस्कार कर कहताभया हे वीर यह राजपुत्र आपसे मिला चाहे है सो पधारिये तब लक्ष्मण राजकुमार के समीप गए सो हाथी से उतरकर कमल तुल्य जे अपने कर तिनकर लक्षमणका हाथ पकड तम्बू में ले गया एक आसनपर दोनों बैठे राजकुमार पूछताभया आप कौन हो कहांसे आये हो तब लक्ष्मणने कही मेरे बडे भाई मेरोवन | एकदा न रहे सो उनके निमित्त अन्नपान सामग्रीकर उनकी आज्ञालेय तुमपर आऊंगा तब सब बात कहूंगा यह बात सुन राजकुमारने कही कि रसोई यहांही तैयारभई है सो यहांही तुम और वे भोजनको तब लक्ष्मणकी आज्ञापाय सुन्दर भातदाल नाना विधिव्यंजन नवीनघृत कपूरादि सुगन्ध व्यसहित दुग्ध और नाना प्रकार पीनेकी बस्तु मिश्री के स्वाद जिसमें ऐसे लाडु और पूरी सांकली इत्यादि नानाप्रकार भोजनकी सामग्री और वस्त्राभूषण माला इत्यादि अनेक सुगंध नामा
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|| प्रकार तैयार किए बार अपना निकटवर्ती जो द्वारपाल उसे भेजा सोजायकर सीतासहित रामकोप्रमाण कर कहताभया हे देव इस बस्त्र भवनके विषे तुम्हाराभाई तिष्ठे है और इस नगरके नाथने बहुत आदर से विनती करी है यहां छाया शीतल है और स्थान मनोहर सो पापकृपा करपधारें तो मार्ग का खेदनिवृत होवे तब आप सीता सहित पधारेजेसे चांदनी सहित चांदउद्योत करे कैसेआप मातेहाथी समानहै चाल जिनकी लक्ष्मण सहित नगरकाराजा दाही से देख उठकर सामने आया सीता सहित राम सिंहासन पर बिराजे राजा ने भारती उतार कर अर्घ दिए अतिसन्मान किया प्रापप्रसन्न होय स्नानकर भोजन किया सुगन्धलगाई फिर राजाने सबको विदाकिए ए चारहीरहे एकराजा तीनएराजानेसबको कहाकिमेरेपिता के पाससे इनकेहावसमाचार पाए हैं सो एकांतकी वार्ता है कोई श्रावने न पावे जो आवेगा उसे ही में मारूंगा बडे २ सामन्त बारे राखएकांत में इनकेागेलज्जा तज कन्यानेजो राजा का भेषधरा यासो तज अपना स्त्रीपदकारूप प्रकट दिखाया कैसीहै कन्या लज्जाकर नमीभूत मुखाजिसका और रूपकरमानों स्वर्ग की देवांगना है अयवा नागकुमारी है उसकीकांतिसे समस्त मन्दिर प्रकाशरूप होयगया मानों चन्द्रमा का उदय भया चन्द्रमा किरणोंसे मंडित है इसका मुखलज्जा और मुलकन कर मंडितहै मानों यह राजकन्या साचात लक्ष्मीही है कमलों के बनमें से प्रायतिष्ठी है अपनी लावण्यतारूप सागर में मानों मन्दिरको गर्क कियाहै जिसकी युति प्रागे रस्न और कंचन दुतिरहित भासे, जिसके स्तन युगुलसे कांतिरूप जलकी तरंगोंसमान त्रिवलीशोभेहै और जैसे मेघपटल को भेद निशाकर निकसे से बखको भेद अंग की ज्योति फैल रही है और अत्यन्तचिकने मुगन्ध कारे बांके पतले लम्बेकेश
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५०
तिनसे विराजितहै प्रभारूप बदन जिसका मानों कारीघटामोवजली के समान चमके है और महासूतम । स्निग्ध जो रोमों की पंक्ति उसकरविराजित मानों नीलमणिसे मंडित सुवर्णकी मूर्तिही है तत्कालना रूप तज नारीका रूपकर मनोहर नेत्रों की धरनहारी सीता के पांयन लाग समीप जाय बैठी जैसे लक्षमी रतिके निकट जाय बैठे सो इसका रूप देख लक्षमण काम कर बींधा गया औरही अवस्था होमई नेत्र चलायमान भए तब श्री रामचन्द्र कन्या से पूछते भए तू किसकी पुत्री है भोर पुरुष काभेष कौन कारण किया त्व वह महामिष्ट वादिनी अपना अंग वस से ढांक कहती भई हे देव मेरा वृत्तान्त सुनो इस नगर का राजा बालखिल्य महा सुद्धि सदा श्राचारवान श्रावक के बत धारक महा दयालु जिन
धर्मीयों पर वात्सल्य अंग का धारणहारा राजाके पृथिवी राणी उसे गर्भ रहा सो में मर्भ में आई और । म्लेच्छोंका जो अधिपति उससे संग्राम. भया मेरा पिता पकड़ा गया सो मेरा पिता सिंहोदरका सेवकसो | सिंहोदरने यह माज्ञाकरी कि जो बालखिल्य के पुतहोय सो राज्यका कर्ताहोय. सो में पापिनी पुत्रीभई तब हमारे मन्त्री सुद्धि.उसने मनसूवाकर राज्य के अर्थ मुक पुत्र ठहराया सिंझेदरको वीनती.लिली कल्याणमाला मेरा नामघरा और बड़ाउत्सवकियासो मेरीमाता और मन्त्री ये तो जाने हैं जो यह कन्याहै
और सब कुमारही जाने हैं सो एते दिनमें व्यतीतकिये अब पुण्यके प्रभाव से भापका दर्शनया मेख पिता बहुत दुःख में तिष्ठे है म्लेछोंकी बन्द में है सिंहोदरभी उसे छुड़ायचे. समर्थ नहीं और जो द्रव्य देश में उपजे है सो सब म्लेक के जाय है मेरी मावा वियोगरूप अग्नि से तमयमान जैसे दूज के चन्द्रमा की मर्ति क्षीणहोय तैसी होयगई है ऐसा कहकर दुःखके मार कर पीड़ित है समस्त गात जिसका सो
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पद्म
पुराच
।। ५१०
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मूर्द्धा खायगई और रुदन करती भई तब श्रीरामचन्द्र ने अत्यन्त मधुरवचन कहकर धीर्य बँधाया सीता गोदमें ले बैठी मुख धोया और लक्ष्मण कहतेभये हे सुन्दरी सोच तज और पुरुषका भेषकर राज्य कर कईएक दिनोंमें ग्लेंडों को पकड़े और तेरे पिताको छूटाजान, ऐसा कहकर परम हर्षउपजाया सो इनके वचन सुनकर कन्या पिताको छूटाही जानती भई श्रीराम लक्ष्मण देवोंकी न्याई तीनदिन यहां बहुत प्रदर से रहें फिर रात्रिमें सीता सहित उपवन से निकसकर मोप चलेगए प्रभात समय कन्या जग्गी तिनको न देख व्याकुलभाई और कहती भई वे महापुरूष मेरा मन हरलेगये मुझपापिनीको नींद आ गई सो गोवचलेगए इस भांति विलापकर मनको थॉभ हाथीपर चढ़ पुरुषके भेष नगर में गई और राम लक्ष्मण कल्याण माला के विनयकर इरागयाहै चित्त जिनका अनुक्रमसे मेकला नामा नदी पहुंचे नदीउतर क्रीड़ा करते अनेक देशोंको उलंघ बिन्ध्याटवीको प्राप्तभए पंथमें जातेहुये गुवालोंने मने कीए कि यह अटवी भयानक है तुम्हारे जाने योग्य नहीं तब आप उनकी बात न मानी चलेहीगए कैसी है वनी कहींएक लताकर मंडित जे शालवृक्षादिक उनसे शोभित है और नानाप्रकार के सुगंध वृक्षोंकर भरी महा सुगन्धरूपहै और कहीं एक दावानलकर जले वृक्ष तिनकर शोभारहित है जैसे कुपुत्रकर कलंकित गोत्र न शोभे ।
अथानन्तर सीता कहती भई कंटकवृत्तके ऊपर बाई और काग बैठा है सो यहतो कलहकी सूचना कर है और दूसरा एक काग चीर वृक्ष पर बैठा है सो जीत दिखावे है इसलिये एक महूर्त्त स्थिरताकरो इस मुहूर्त में चले मागे कलह अन्त जीत है मेरे चित्तमें ऐसा भासे है तब चणएक दोनों भाई थंभे फिर चले आगे म्लेछों की सेना दृष्टि पड़ी वे दोनों भाई निर्भय धनुषवाण घरे म्लेछों की सेनापर पड़े सो सेना
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पत्न
नाना दिशोंको भाग गई तब अपनी सेना का भंग जान और बहुत म्लेछ वक्तर पहिराए सो वेभी
लीलामात्र में जीते तब वे सब म्लेछ धनुष वाण डार पुकार करते पतिप जाय सारा वृत्तान्त कहतेभए ॥५११॥
तब वे सब म्लेछ परम क्रोधकर धनुषवाण लीए महाँ निर्दई बडी सेनासे आये शस्रोंके समूहसे संयुक्त वे काकोदन जातिके म्लेछ पृथिवी पर प्रसिद्ध सर्व मांस के भक्षी राजोंकरभी दुर्जय वे कारी घटा समान उमंडि आये तब लचमण ने कोपकर धनुष चढ़ाया तब बन कम्पायमान भया वनके जीव कांपने लग गए तब लक्षमण ने धनुष के शर बांधा तब सब म्लेछ डरे बनमें दशों दिश प्रांधे की न्याई भटकते भए तब मा भयकर पूर्स म्लेकोंका अधिपति स्थसे उतर हाथ जोड़ प्रणामकर पायन पडा अपना सब । वृतांत दोनों भाइयों से कहता भया । हे प्रभो! कौशांबी नाम नगरी है वहां एक विश्वानल नाया ब्राह्मण
अग्निहोत्री उसके प्रसिसंन्यानामास्त्री तिन केरौद्रभूतनामा पुत्र सो दूतकला में प्रवीण बाल अवस्थाही ॥ से क्रूर फार्म काकरणहारा सो एक दिन चोरी से पकड़ा गया और सूली देने को उद्यमी भए तब एक दयावान्
ने बुड़ाया सो में कांपता देश तज यहां पाया कर्मानुयोग कर काकोदन जाति के म्लेवों का पति भया महाभ्रष्ट पशु-समान व्रत किया रहित तिहूं हूं अबतक महासेना के अधिपति बड़े बड़े राजा मेरे सन्मुख युद्ध करने को समर्थन भए मेरी रष्टिगोचर न पाए सो मैं पाप के दर्शन मात्र ही से वशीभत भया धन्यभाग्य मेरे जो मैंने तुम पुरुषोत्तम देखे अब मुझे जो प्राङ्गा देवो सो करूं श्रापका किंकर श्रापके चरणारविन्द की पावड़ी सिरपुरघरू और यह विन्ध्याचल पर्वत और स्थान निधि कर पूर्ण है, श्राप यहां राज्य करो में तुम्हारा दास ऐसा कहकरम्लेक मूर्खासायकर पायनपड़ा जैसेवृक्षनिर्मूलहोयगिरपड़े उसकोविहल |
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पुराव
१५१२॥
देख श्री रामचन्द्र दयारूप वेल कर बेटे कल्पवृच समान कहते भए उठ उठ डरैमत वालखिल्य को छोड़ तत्काल यहां मंगाय और उसका भावकारी मंत्री होय कर रहो म्लेलों की क्रिया तज पापकर्म से निवृत्त हो दश की रक्षा कर इस भान्ति किये से तेरी कुशल है तब उसने कही हे प्रभो ! ऐसे ही करूंगा यह वीनती कर ग्राप गया और महारथ का पुत्र जोवालखिल्य उसे बोड़ा बहुत विनय संयुक्त उस के तैलादि मर्दन कर स्नान भोजन कराय आभूपण पहिराय स्थपर चढ़ाय श्री रामचन्द्रके समीप लेजाने को उद्यम किया, तब बालखिल्य. परम प्रश्चिर्य को प्राप्त होय विचारता भया कहां यह म्लेय. महाशत्रु कुफमी.. अत्यन्त निर्दयी और मेरा एता विनय करे है सोजानिये है कि श्राज मुझे किसी की भेद देंगे भव मेस जीवना नहीं यह विचार सो गलखिल्य सचिन्त चला मागे राम लक्ष्मण को देख परम हर्षित भया स्थ। से उतर आय नमस्कार किया और कहता भया हे नाथ! मेरे पुण्य के योगसे माप पधारे मुझे धन । से छुड़ाया श्राप महासुन्दर इन्द्र तुल्य पुरुष होतब रामने माहाकरी तू अपने स्थानको जो कुटुंब से मिल तब बालखिल्य रामको प्रणाम कररौद्रभूतसहित अपनेनगरगयासोबालखिल्यको भाया सुनकर कल्याण माला महाविभूति सहितसन्मुखमाया पौरनगर में महा उत्साह भया राजाने राजकुमार को उस्से लगाय अपनी असवारी में चढ़ाय नगर में प्रवेश किया राणी पृथिवी के हर्ष से रोमाञ्च होय पाये जैसाागे शरीर
सुन्दरथा तैसा पति के पाये भया सिंहोदर को आदि देय बालखिल्य के हितकारी सब ही प्रसन्न भए | और कल्याणमाला पुत्री ने एते दिवस पुरुष का भेष कर राज थाम्भा था सो इस बात का सबको आश्चर्य । भयायह कथा राजा श्रेणिकसे गौतम स्वामीकहे हैं हे नराधिप वह रौद्रभूत परद्रव्यका हरणहारा अनेक देशोंका
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पुगत
५१३
कंटक सो श्रीराम के प्रतापसे वालखिल्यकाप्राज्ञाकारी सेवकभया ।जब रौद्रभूत वशीभूत भया और म्लेक्षों की विगमभूमि में वालखिल्यकी प्राज्ञाप्रवर्ती तब सिंहोदरभी शंका मानता भया । और अति स्नेह सहित सन्मानकरताभया बालखिल्य रघुपतिकप्रसादसे परमविभूतिपाय जैसाशरदऋतुमें सूर्यप्रकाशकरतेसापृथिवी पर प्रकाश करताभया अपनीराणी सहितदेवों की न्याईरमता भया ॥ इति चौंतीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर वे रामलक्ष्मण दोनों सारिखे मनोहर नन्दन बन सारिखा बन उसमें सुखसे बिहार करते एक मनोग्य देशमें प्राय निकसे जिसके मध्य तापती नदी बहे नानाप्रकारके पक्षियोंके शब्दोंसे सुंदर वहां एक निजन बनमें सीता तृषाकर अत्यन्त खेदखिन्न भई तब पतिको कहती भई । हे नाथ तृषासे मेरा कंठ शोष होयह जैसे अनन्त भवके भूमणकर खेदखिन्न हुआ भव्यजीव सम्यक दर्शनको बांछे तैसे मैं तृषासे व्याकुल शीतल जलको बांहूं ऐसा कहकर एक वृक्ष के नीचे बैठगई तब रामने कही हे देवी हे शुभे तू विषादको मत प्राप्तहोय नजीकही यह अगे ग्राम है जहां सुंदर मंदिर, उठ आगे चल इस ग्राममें तुझे शीतल जलकी प्राप्ति होयगी ऐसा जब कहा तब उठकर सीता चली मंद २ गमन करती गजगामिनी उससहित दोनों भाई अरुगानामा ग्राममें पाए जहां महाधनवान किसानहैं जहां एक ब्राह्मण अग्निहोत्री कपिलनामा प्रसिद्ध उसके घरमें आय उतरे उसकी अग्निहोत्रकी शाला में पण एक बैठ खेद निवारा कपिलकी ब्राह्मणी जललाई सो सीताने पिया वहां बिराजे हैं और बनसे ब्राह्मण वील तथा छीला वा खेजडा इत्यादि काष्ठका भार बांधे आया दावानल समान प्रज्वलित जिसका मन महाक्रोधी कालकट विष समान बचन बोलतामया उल्लुसमानहै मुख जिसका और कर
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पद्म
॥५१॥
में कमण्डलु चोटिक गांठ दिए लांबीडाढी यज्ञोपर्वात पहिरे उञ्छवृति कहिएअन्नको काटकर ले गए पीछे खेतनमें से अन्न कण बीन लावे इसभांतिहै आजीविका जिसकी सोइनको बैठे देख वक्र मुखकर ब्राह्मणीको दुवचन कहताभया हे पापिनी इनको घरमें क्यों प्रवेशदिया मैंबाज तोहे गायों के मठनमें बांधूंगा देख इन निर्लज्ज ढीठ पुरुष धूरकर धूसरोंने मेरा अग्निहोत्रका स्थान मलिन किया यह बचन सुन सीता रामसे कहती भई हे प्रभो इस क्रोधीके घरमें न रहना बनमें चलिये जहां नानाप्रकार के पुष्प फल उनसे मंडित वृत्त शोमे हैं निर्मल जलके भरे सरोवर, तिनमें कमल फूल रहे हैं और मृग अपनी इच्छासे क्रीडा करते हैं यहां ऐसे दुष्ट पुरुषों के कठोर बचनसुनिये हैं यद्यपियह देशधनसे पूर्ण है और स्वर्ग सारिखा सुन्दरहै परंतु लोग महाकठोरहैं और ग्रामीजनविषेषकठोरहीहायहें सोविपके रूखे बबन सुन ग्रामके सकललोक पाए इन दोनों भाइयोंका देवोंसमान रूप देख मोहित भए ब्राह्मण को एकांत लेयलोक समझावतेभए ये एक रात्रि यहांरहे हैं तेगक्या उजाडहै ये गुणवानविनयवानरूपवान पुरुषोत्तमतब द्विज सबसे लड़ा और सबसे कहा तुममेरे घर क्यों बार परेजाहु और मूर्ख इनपर क्रोध कर पाया जैसे श्वान गजपर आवे इनको कहताभयारे अपवित्रहो मेरेघरसे निकसो इत्यादि कुवचन मुन लक्षमण कोपभए उस दुर्जनके पांव ऊंचकर नाडि नीचेकर भूमाया भूमिपर पछाडने लगी तब श्री राम परमदयालुने उसे मने किया हे भाई यह क्या ऐसे दीनके मारने में क्या इसे छोड देवो इस के मारनेसे बड़ा अपयशहै जिनशासनमें शूरवीरको एते न मारने यति ब्राह्यण गाय पशु स्त्री बालक वृद्ध ये दोष संयुक्तहोय तोमी हनने योग नहीं इसभांति भाईको समझाया विप्र छुडायाऔर भापलक्षमण
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पुराख .५१५॥
को आगेकर सीतासहित कुटीसे निकसे आप जानकीसे कहे हैं हे विप्रेधिक्कारहै नीचकी संगतिको जिस करकूरबचन सुनिये मन में विकारकाकारणमहापुरुषोंकर त्याज्यमहाविषम बनविषेवृक्षोंके साथ वासभला न नीचोंके साय और आहारादिक बिना प्राण जावेतो भले परन्तु दुर्जनके घर क्षणएकरहनायोग नहीं नदियों के तटपर पर्वतोंकी कंदराभे रहेंगे फिर ऐसे दुष्टके घर न आवेंगे इस भांति दुष्टके संगको निन्दते ग्राम से निकसे राम बनको गए वहां वर्षा समय आय प्राप्त भया । समस्त आकाशको श्याम करता हुवा और अपनी गर्जना कर शब्द रूप करी है पर्वतकी गुफा जिस ग्रह नक्षत्र ताराओं के समूह को दयंक कर शब्द सहित बिजुरी के उद्योत कर मानों अंबर हंसे है मेघ पटल ग्रीष्म के ताए को निवार कर पंयियोंको बिजुर्गरूप अंगुरियोंसे डरावता हुआ गाजे है श्याम मेघश्राकाशमें अंधकार करता हुआ जल की धाराकर मानों सीताको स्नान कराव है जैसे गज लक्ष्मी कोस्नान करावे वे दोनोंदीर वन में एक बड़ा बटकाक्ष जिसके डाहला घरके समान वहांबिराजे सो एक दंभकर्ण नामा यक्षस बट में रहताथा सो इनकोमहा तेजस्वी दे ख जायकर अपने स्वामीको नमस्कार कर कहताभया हे नाथ कोई स्वर्गसे आएहैं मेरेस्थानकमें तिष्ठेहैं जिन्होंने अपने तेजकर मुझस्थानसे दूरकिया है वहां मेंजायनसकहूं यक्षके वचनसुनकर यक्षाधिपति अपनेदेवों सहित बटकावृक्ष जहां रामलक्षमणथे वहां पाया महाविभव संयुक्त बनक्रीड़ा में आसक्त नूतनहै नाम जिसकासोदूर ही से दोनों भाइयोंको महारूपवानदेख अवध कर जानता भया कि ये बलभद्र नारायणहें तबवह इनके प्रभावकर अत्यन्त वात्सल्यरूप भया क्षणमात्र में महामनोग्यनगरी निरमापी ए वहां सुखसे सोते हुएप्रभात सुन्दर गीतोकेशब्दों करजागे रत्नजडित
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४५१६॥
सेजपर आपको देखा और मंदिरमहामनोहर वहुत खणका अति उनल और सम्पूर्ण सामग्रीकर पूर्ण
और सेवकसुन्दर बहुतआदर के करनहारेनगरमरमणीक शब्द कोटदरवाजयों कर शोभायमान वे पुरषोत्तम महानुभाव तिनका चित्त ऐसे नगरको तत्काल देख श्राश्चर्यको न प्राप्त भया यह शुद्र पुरुषों की चेष्टा है कि अपूर्ववस्तु कोदेख आश्चर्य को प्राप्त होंय । समस्त वस्तु कर मण्डित वह नगर वहांवें सुन्दर चेष्टा के धारक निवास करते भए मानो ये देव ही हैं । यक्षाधिपती ने राम के अर्थ नगरो रचो। इस लिये पृथिवी पर रामपुरी कहाई उस नगरी में सुभट मन्त्री द्वारपाल नगरके लोग अयोध्या समान होते भए। राजा श्रोणिक गौतमस्वामी को पूछेहैं हेप्रभो येतो देवकृतनगरी में विराजे और उसब्राह्मणकीक्या बातसो कहो तब गणधरबोले वहब्राह्मण अन्यदिन दांतला हाथमेलेय बनमेंगया लकड़ी दंढतेअकस्मात् ऊंचे नेत्र किये निकटहीसंदरनगर देखकरआश्चर्यको प्राप्त भया । नानाप्रकारके रंग की ध्वजा उनकर शोभित शरद के मेघ समान सुंदर महिल देखे और एक राजमहिल महा उज्ज्वल मानो कैलाश काबालक है सोऐसा देखकरमनमें विचारताभया कि यहअटवी मृगोंसे भरी जहां मेंलकडीलेनेनिरन्तर पावताहुं सोयहां रत्नाचल समान सुन्दर मन्दिरों से संयुक्त नगरी कहां से बसी सरोवर जल भरे कमलों से शोभित दीखे है जो में अब तक कभी न देखे, उद्यान महा मनोहर जहां चतुर जन क्रीड़ा करते दोखहैं और देवालय महा ध्वजावों कर संयुक्त शोभे हैं और हाथी घोड़े गाय भैंस तिन केसमूह दृष्टिावे हें । घण्टादिक के शब्द होय रहे हैं यह नगरी स्वर्ग से आई है अथवा पातालसे निसरीहै कोई महाभाग्य के निमित्त यह स्वप्न है अक प्रत्यक्ष है अक देवमाया है अक गन्धों का नगर है । अक मैं पित्त कर व्याकुल भया हूं इस के निकटवर्ती जो में
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सो मेरे मृत्यु का चिन्ह दीखे है, ऐसा विचार विषाद को प्राप्त भया।सो एकस्री नाना प्रकार केाभरण पुराण ५९० पहरे देखी उस के निकट जाय पछतो भया। हे भटें यह कौन की पुरी है तब वह कहती भई यह राम की
पुरी है तें ने क्यों न सुनी जहां राम राजा जिसके लक्ष्मण भाई, सीता स्त्री और नगर के मध्य यह बड़ा मन्दिर है शरद के मेघ समान उज्वल जहां वह पुरुषोत्तम विराजे हैं कैसा है पुरुषोत्तम लोक विषे दुर्लभ है दर्शन जिस का सो उसने मनवांछित द्रव्य के दान से सब दरिद्र लोक राजाओं के समान किये तब ब्राह्मण बोला हेसुन्दरी कौनउपाय कर उसे देखें सो तू कहो ऐसे काष्ठकाभार डारकर हाथ जोड़ उसके पायन पड़ा। तब वह सुमायानामा यक्षनी कृपा कर कहती भई, हे विप्र इस नगरी के तीन द्वार हैं। जहां देवभी प्रवेशन करसके बड़े बड़े योधा रक्षक बैठे हैं रात्रिमें जागे हैं जिनके मुखसिंह गजव्याघ तुल्य हैं तिन से भय को मनुष्य प्राप्त होय हैं, यह पूर्व द्वार है जिस के निकट बड़े बड़े भगवान् के मंदिर हैं मणि के तोरणों से मनोग्य तिन में इन्द्र कर वंदनीक अरिहंत के बिम्ब विराजे हैं और जहां भव्यजीव सामायिक आदि स्तवन करे हैं और जो नमोकारमंत्र भाव सहित पढे हैं सो भीतर प्रवेश कर सके हैं। जो पुरुषअणुव्रत का धारी गुणशील से शोभित है उसको रामपरम प्रीतिकर वांछे हैं। यह वचन यक्षनीके अमृतसमान सुनकर ब्राह्मण परम हर्ष को प्राप्त भया । धन आगम का उपाय पाया यक्षनी की बहुत स्तुति करी रोमांच कर मंडित भया है सर्वअंग जिसका सोचारित्रशूर नामा मुनिके निकट जाय हाथ जोड़ नमस्कार
कर श्रावक की क्रिया का भेद पूछता भया। तब मुनिने श्रावक का भेद इसे सुनाया चारों अनुयोग | का रहस्य बताया सो ब्राह्मण धर्म का रहस्य जान मुनि की स्तुति करता भया । हे नाथ तुम्हारे उपदेश से |
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या
मेरे ज्ञान दृष्टि भई जैसे तृषाबान को शीतल जल और ग्रीष्म के तोप कर तप्तायमान पंथी को छाया YM और क्षुधावान को मिष्टान्ह और रोगी को औषधि मिले तैसे कुमार्ग में प्रतिपन्न जो में सो मुझे तुम्हारा
उपदेश रसायन मिला जैसे समुद्र के मध्य डूबते को जहाज़ मिले। में यह जैन का मार्ग सर्व दुःखों का दूर करणहारा तुम्हारे प्रसाद से 'पाया जो अविवेकियों को दुर्लभ है तीन लोक में मेरे तुम समान कोऊ हित नहीं जिन कर ऐसा जिनधर्म पाया । ऐसा कहकर मुनि के चरणारविन्द को नमस्कार कर ब्राह्मण अपने घर गयाअति हर्षित फूल रहे हैं नेत्र जिस के स्त्री से कहता भया हे प्रिये मैंने आज गुरु के निकट अद्भुत जिनधर्म सुना है जो तेरेबापने अथवा मेरेबापने अथवा पिता के पिताने भी न सुना और हे ब्राहणी मेंने एक अद्भुत बन देखो उसमें एक महा मनोग्य नगरी देखी जिसे देखे आश्चर्य उपजे परन्तु मेरे गुरुके उपदेश से आश्चर्य नहीं उपजे है तब ब्राह्मणी ने कही हे विप्र तें क्या क्या देखा और क्या सुना सो कद्दो तब ब्राह्मणने कही हे प्रिये में हर्ष थकी कहने समर्थ नहीं तब बहुत अादर कर ब्राह्मणीने बारम्बार पूछा तब ब्राह्मण ने कही हे प्रिये में काष्ठ के अर्थ वन में गया हुवा था, सो वन में एक महा रमणीक रामपुरी देखी उस नगरी के समीप उद्यान में एक नारी सुन्दरी देखी सो वह कोई देवता होयगी महा मिष्ट वादिनी में ने पूछा यह नगरी किस की है तब उसने कही यह रामपुरी है, जहां राजाराम श्रावकों को मन वांछित धन देवे हैं। तब में मुनि पै जाय जैन वचन सुने सो मेरा आत्मा बहुत तृप्त भया मिथ्यादृष्टि कर मेरा श्रोत्मा अाताप युक्त था सो अाताप गया जिस धर्मको पायकर मुनिराज मुक्ति के अभिलाषी | सर्व परिग्रह तज महा तप करे हैं सो वह अरिहंत का धर्म त्रैलोक्य में एक महानिधि में पाया ये वहिर्मुखजीव )
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॥५९९५
बृथा क्लेश करे हैं मुनि थकी जैसा जिनधर्म का स्वरूप सुनाथा तैसा ब्राह्मणी को कहा कैसा है ब्राह्मण पुराण | निर्मल है चित्त जिस का तब ब्राह्मणी सुनकर कहती भई मैंने भी अपने में तुम्हारे प्रसाद से जिन
धर्म की रुचि पाई और जैसे कोई विष फल का अर्थो महा निधि पावे, तैसे ही तुम काष्ठादिक के अर्थो धर्म इच्छा से रहित श्रीअरिहंत का धर्म रसायन पाया अबतक तुमने धर्म न जोना अपने प्रांगन में पाए सत्पुरुष तिनका निरादर किया उपवासादिक खेद खिन्न दिगम्बर उनको कभीभी श्राहार न दिया इन्द्रादिक कर वन्दनीक जे अरिहन्तदेव तिनको तजकर ज्योतिषी व्यन्तरादिकको प्रणाम किया जीव दयारूप जिनधर्म अमृततज अज्ञानके योगसे पापरूप विषका सेवन किया मनुष्यदेह रूप । रत्नदीप पाय साधुवों को परखा धर्म रूपरत्न तज विषय रूप कांचका खंडअंगीकार किया जे सर्वभक्षी
दिवस रात्रि पाहारी, अवती, कुशीली तिनकी सेवाकरी भोजनके समय अतिथिश्रावे औरजो निरबुद्धि | अपने विभव प्रमाण अन्नपानादि न दे उसके धर्म नहीं अतिथि पदका अर्थ तिथि कहिए उत्सव के | दिन तिनविषे उत्सव तज जिसके तिथि कहिए विचार नहीं और सर्वथा निस्पृह घर रहित साधु सो अतिथि कहिये जिनके भाजन नहीं करही पात्र हैं वे निग्रंथ श्राप तिरे औरों को तारे अपने शरीर में भी निस्पृह किसी वस्तु में जिनका लोभ नहीं निरपरिग्रही मुक्ति के कारण जे दरा लक्षण तिन कर शोभित हैं इस भांति ब्राह्मणी ने धर्मका स्वरूप कहा और सुशर्मानामा ब्राह्मणी मिथ्यात्व रहित होती भई जैसे चन्द्रमा के रोहिणी शोभे और बुध के भरणी सोहे तैसे कपिल के सुशर्मा शोभतीभई ब्राह्मण ब्राह्मणीको उसी गुरू के निकट लेाया जिसके निकट आप ब्रत लिएथे सो स्त्री कोभी श्रावकाके व्रत
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पद्म
"५२०॥
| दिवाए कपिलको जिन धर्म के विषय अनुरागी जान और भी अनेक ब्राह्मण शम भाम धारते भए मुनि सुव्रतनाथ का मत पायकर अनेक सुबुद्धि श्रावक श्राविको भए और जे कर्मके भारसे संयुक्तमान कर ऊंचा है मस्तक जिनका वे प्रमादी जीव थोड़ेही आयु में पापकर घोर नरक में जाय हैं कईएक उत्तम ब्राह्मण सर्व संगका परित्यागकर मुनिभए वैराग्यकर पूर्ण मनमें ऐसा विचार किया यह जिनेन्द्र का मार्ग अबतक अन्त जन्म में न पाया महा निर्मल अब पाया ध्यानरूप अग्नि में कर्मरूप सामग्री भाव घृत सहित होमकरेंगे सो जिनके परम वैराग्य उदयभया थे मुनिही भए और कपिल ब्राह्मण महा क्रियावान श्रावक भयो एक दिवस ब्राह्मणीको धर्मकी अभिलाषिनी जान कहता भया हे प्रिये श्रीराम के देखने को रामपुरी क्यों न चलें कैसे हैं राम महा प्रवल पराक्रमी निर्मलहै चेष्टा जिनकी और कमल। सारिखे हैं नेत्र जिनके सर्व जीवों के दयालु भव्य जीवों पर है बात्सल्य जिनका जे प्राणी अाशा में ] तत्पर नित्य उपाय में है मन जिनका दलिद्र रूप समुद्र में मग्न उदर पूर्ण में असमर्थ तिनको दरिद रूप समुद्र से पार उतार परम सम्पदा को प्राप्त करे हैं इस भांति कीर्ति तिनकी पृथिवी पर फैलरही है महा अानन्दकी करणहारी इसलिये हे प्रिये उठ भेट लेकर चलें और में सुकुमार बालकको कांधे लूंगा ऐसे ब्रह्मणीको कह तैसेही कर दोनों हर्ष के भरे उज्ज्वल भेषकर शोभित रामपुरीको चले। सो उनको मार्ग में भयानक नागकुमार दृष्टि पाए फिर वितर विकराल वदन हडहडांस करते दृष्टि आये इत्यादि भयानक रूप देख ये दोनों निकंप हृदय होयकर इस भांति भगवानकी स्तुति करते भये कि श्रीजिनेश्वरदेव के तांई निरन्तर मन वचन कायकर नमस्कार होवे कैसे हैं जिनेश्वर त्रैलोक्य कर वन्दनीक हैं।
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संसारकीच से पार उतारे हैं परम कल्याण के देनहारे हैं यह स्तुति पढ़ते ये दोनों चले जावें हैं इनको राजिनभक्तजान यच शांत होगये ये दोनों जिनालय में गए नमस्कारहोवो जिनमन्दिरको ऐसा कह दोनों हाथ जोड़ और चैत्यालयकी प्रदक्षिणा दई और अन्दरजाय स्तोत्र पढ़तेभए हे नाथ महा कुगतिका दाता मिथ्यामार्ग उसे तकर बहुत दिनमें तुम्हारा शरण गहा चौबीस तीर्थंकर अतीत काल के और चौबीस वर्तमान कालके और चौवीस अनागत कालके तिनको में बंदूं हूं और पंचभरत और पांच ऐरावत पंच विदेह ये पन्द्रह कर्म भूमि तिनसे जे तीर्थंकर भये और वरते हैं और अब होवेंगे तिन सबको हमारा नमस्कार हो जो संसार समुद्रसो तिरें औरतारें ऐसे श्रीमुनि सुत्रतनाथके ताई नमस्कारहो तीन लोक में जिनका यश प्रकाशक है इस भांति स्तुतिकर अष्टांग दण्डवतकर ब्राह्मण स्त्री सहित श्रीरामके अक्लो
नको गए राम मार्ग में बड़े बड़े मन्दिर महा उद्योतरूप ब्राह्मणीको दिखाए और कहताभया ये कुन्द के पुष्पसमान उज्वल सर्व कामनापूर्ण मगरीके मध्य रामके मन्दिर हैं जिनकी यह नगरी स्वर्गसमान 'शोभे है इस भांति वार्ता करता ब्राह्मण राज मन्दिर में गया सो दूरही से लक्ष्मण को देख व्याकुलता 'को प्राप्त भया चित्त में चितारे है वह श्याम सुन्दर नील कमल संमान प्रभा जिस की में अज्ञानी दुष्ट स्वमों से दुःखाया तो मुझे त्रास बीन्ही पापनी जिल्हा महा दुष्टिनी कानन को कटुक वचन भाषे अब पापा पृथ्वी के चित्र में बैठूं अब मुझे शरण कोनका जो मैं यह जानता अक यहाँही नगरी बसाए रहे हैं तो देशत्यागकर उत्तरादेशाः चला जाताइस भांति विकल्परूपहोयं ब्राह्मणीको तज ब्राह्मम मागासो लक्ष्मणने देखा सब हंसकर राम को कहा वह माय माग है और मृगंकी न्याई व्याकुल होय
।।५२१
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पन्न मुझेदेख भागे है तब रामबोले इसको विश्वास उपजाय शीघ्र लावो तब सेवकजन दौड़े दिलासादेय लाए १२२॥ || डिगताऔर कांपता पाया निकटवायभयसजदोनों भाइयोंके आगे भेटमेल स्वस्ति ऐसाशब्द कहताभया
और प्रतिस्तवन पढ़ताभया तब गम बोले है द्विज तैमे हमको अपमानकर अपने घरसे काढ़े थे अब क्यों पूजे है तन विप्र चोला हे देव तुम प्रछन्न महेश्वरहो में अज्ञानसे न जाने इसलिए अनादर कियाजैसे भस्म से दबी अग्नि जानी न जाय,हे जगनाथ! इसलोककी यही रीतिहै । धनवानको पूजिएहै सूर्य शीतऋतु में तापरहित होयह सो उससे कोई नहीं शंके है अब मैं जाना तुमपुरुषोत्तमहोहे पद्मलोचन! ये लोक द्रव्य । को पुजे हैं पुरुषको नहीं पूजे हैं जो प्रर्यकर युक्तहोय उसे लौकिकजन माने हैं और परम सजनहे और। धनरहितहै तो उसे निप्रयोजन जनजान न माने हैं तब रामबोले हे विम जिसके अर्थ उसके मित्र जिस के अर्यउसके भाई जिसके अर्थसोई पंडित अर्थविनान मित्रन सहोदरजोअर्थकरसंयुक्तहै उसके परजनभी निज होयजायहैं और घनवहीजोधर्मकरयुक्त और धर्मवही जोदयाकरयुक्त और दयावही जहांमांसभोजन कात्यागजब जीवोंका मांस तजातब अभक्ष्यका त्याग कहिए उसके और त्याग सहजही होय मांस के त्याग बिना और त्यागशोभे नहीं ये वचन रामके मुन विप्र प्रसन्नभया और कहताभया हे देव जो तुम सारिखे पुरुषोंको महापुरुष पूजिये हैं तिनका भी मूढलोक अनादर करे हैं आगे सनत्कुमार चक्रवर्तीभए बड़ी शद्धिके धारी महारूपवान जिनका रूपदेव देखने आए सो. मुनि होय कर श्राहारको ग्रामादिक में गए महासाचार प्रवीणसो निरन्तराममिका को न प्राप्त होते भए एक दिवस विजयपुर नाम नगर में एक निर्धन मनुष्यके आहार लिया उसके पंचाश्चर्यभए हे प्रभो में मंदभाग्य तुम सारिख पुरुषों का
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॥५२३
श्रादर न कियासो मेरा मन पश्चाताप रूप अग्निसे तप है तुम महारूपवान तुमको देखे महा क्रोधी का पुगण क्रोध जाता रहे और आश्चर्यको प्राप्तहोय ऐसा कहकर सोचकर गृहस्थकपिल रुदनकरताभया तब श्री
रामने शुभ बचनसे संतोषा और सुशर्मा ब्राह्मणीको जानकी संतोषती भई फिर राघवकी आज्ञा पाय स्वर्ण के कलशोंसे सेवकोंने द्विजकी स्त्रीसहित स्नान कराया और श्रादरसे भोजन कराया नानाप्रकार के बस्त्र और रनोंके आभूषण दिए बहुत धन दियासो लेकर कपिल अपने घर पाया मनुष्यों को विस्मयका करणहारा धन इसकेभया यद्यपि इसके घरमें सब उपकार सामग्रीअपूर्व है तथापि इसप्रवीणका परिणाम विरक्त घरमें श्रासक्त नहीं मनमें विचारतामया आगेमें काष्ठके भारका वहनहारा दरिद्रीया सो श्रीरामदेवने तृप्त किया इसी ग्राम विषे में सोषत शरीर अभूषितथा सो गमने कुवेर समान किया चिन्ता दुःख सहत किया मेरा घर जीर्ण तृण का जिसके अनेक छिद्रकादि अशुचि पत्तियों की पीट कर लिप्त था अब रामके प्रसादसे अनेक खणके महिलभए बहुत गोधन बहुत धन किसी वस्तु की कमी नहीं हाय २ में दुर्बुद्धि क्या किया वे दोनों भाई चन्द्रमा समान बदन जिनके कमल नेव मेरेघर पाए थे ग्रीषमके श्रातापसे तप्तायमान सीतासहितसो मैंने घरसे निकासे इस बातकी मेरे हृदयमेंमहा शल्प. जबलग घरमें बसूहूं तोलग खेदमिटे नहीं इस लिएगृहारम्भका परित्यागकर जिनदीचा श्रादरू जवयह बिचारी तबइसको वैशम्यरूपजानसमस्त कुटुम्ब के लोक और सुशर्माब्राह्मणी रूदनकरतेभएतब कपिलसवको शोकसागर में मग्न देख निर्ममत्वबुाद्धकर कहता भया कैसा है कपिल शिव सुखमें है. अभि लाग जिसकी हो प्राणी हो परिवारके स्नेहसे और नाना प्रकार के मनोरथों से यह मूढ़ जीव भव ताप ॥
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॥२४॥
कर जरे हैं तुम क्या नहीं जानो हो. ऐसा कह महा विरक्त होय दुःख कर मुर्छित जो सी उसे तज और सर्व कुटुम्ब को तज अठारह हजार गाय और रस्नों कर पूर्ण घर और घर के बालकं स्त्री को सौंप आप सर्वा रम्भ तज दिगम्बर भया स्वामी अनन्त मति का शिख्यमया कैसे अनन्त मातिजमत में प्रसिद्ध तपोनिधि गुणं शील के सांगर यह कपिल मुनि मुरुकी प्रज्ञा प्रमाण महातपकरता भया सुन्दर चारित्र का भार घर परमार्य में लीन है मन जिसका वैराग्य विभूति कर और साधुपद की शोभा कर मंडित हे शरीर जिसका । सा जो विवेकी यह कपिल की कथा पढ़ेमुने उसे अनेक उपवासों का कल होय सूर्य समाम उसकी प्रभाहोय ।। इति पैतीसापर्व सम्पूर्ण भया । ... अथानन्तर वर्णऋतुपूर्ण भई कैसी है वर्षातु श्याम घटा से महा अंधकार रूपजहां मेघ जल असगल बरसे मोर विजुरियों के चमत्कार कर भयानक वर्षा ऋतु'व्यतीत भई शरदऋतु प्रगट भई। दशों दिशा उज्जल मई तब वह यक्षाधिपति श्रीराम से कहता भया कैसे हैं श्रीराम चलने को है मन । जिनका यक्ष कहे है हे देव हमारी सेवामें चूक होयसो क्षमा करो तुम सारिख पुरुषों की सेवा करनेको कोन! समर्थ है तब राम कहतेभए हे यक्षाधिपते तुमसब बातों के योग्य हो और तुम पराधीन होय हमारी सेवा । करी सो क्षमा करियो तब इनके उत्तमभाव बिलोकि अति हर्षित भया नमस्कार कर स्वयंप्रभ नामा हार श्रीराम की भेट किया महा अद्भुत और लक्ष्मण को मणि कुण्डल चांद सूर्य सारिखे भेट किये । और सीता को कुशला नामा चूड़ामणि महा देदीप्यमान दिया और महामनोहर मनवांछित नादकी करनहारी देवो पुनीत वीणादई ये अपनी इच्छा से चले तब स्वराज ने पुरी संकोचलाई और इनके जायबे का बहुत शोच
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पुराण ५२
किया। और श्रीरामचन्द्र यक्षकी सेवा से अतिप्रसन्नहोय आगे चलेदेवोंकीन्याई रमते नानाप्रकारकोकथामें श्रासक्तनाना प्रकार के फलों के रसके भोक्ता पृथिवी पर अपनी इच्छा से प्रमते, मृगराज तथा मजराजों से भरा जो महाभयानक बन उसे उलंघ विजयपुर नामा नगराए उससमय सूर्य अस्तभया । अन्धकार फैला आकाश में नक्षत्रों के समूह प्रकट भए, नगरसे उत्तर दिशा की तरफ न अति निकट न अति ! दूर कायरलोगों को भयानक जो उद्यान वहां विराजे । .. अथानन्तर नगर का राजा पृथिवीधर जिस के इन्द्राणी नामा राणी नीके गुणों से मंडित उस के । वनमाला नामा पुत्री महासुन्दर सो बालअवस्था ही से लक्ष्मण के गुलं सुनअति आसक्तमई फिर सुनी दशरथ ने दीक्षा घरी और केएक के वचनसे भरत को सज्य दिस-राम लक्ष्मण परदेश निकसे हैं ऐसा विचार उसके पिता ने कन्याका इन्द्रनगर को सजाउसका पुत्र जो बालमित्र महासुन्दर उसे देनी विचारी सोयह वृत्तान्त बनमालाने सुमा हृदय में विराजे हैं लक्मम जिसके तक्मनमें विकारी कमसीलेय मरमा भंला परन्तु अन्य पुरुष को सम्बन्ध शुभ नहीं यह विचार सूर्य से संभाल करती गई हे मानो अब तुम मस्त हो जावो शीम ही सत्रि को पगबहु अपदिमकाएक चम मुझ से समान बीते है सो मानों इसके चितवन कर सूर्य अस्त भया कन्या की उपवास है सनपा समय माता पिता की माझा लेक्श्रेष्ठ स्वमें बढ़ बन यात्रा को बहाना कर सत्रि में यहां पाई जाशमलरमा तिठे वे सो इसने मानकर उस ममें जागरण किया जा सकललोकसो गए तब यह भन्ने अन्दर वरती बनकी मृगी समान रेसले निकस क्नमें चली सो यह महासती पानी इसके शरीर की सुगन्धता कर न सुगन्धित होप नया
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पद्म पुराच
।। ५२६०
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लक्षमण विचारता भया यह कोई राजकुमारी महाश्रेष्ठ मानों ज्योति की मूर्ति ही हैं सो महाशोक के कर पीडित है मन जिसका यह अपघात कर मरण बांधे है सो मैं इसकी चेष्टा छिपकर देखूं ऐसा विचारकर छिपकर के वृक्ष तले बैठा मानों कौतुक युक्त देव कल्पवृक्ष के नीचे बैठे उसही बट के तने
सनी की सी चाल जिसकी और चन्द्रमा समान है बदन जिसका कोमल है अंग जिसका ऐसी वनमाला आई जलसे चला वस्त्रकर फाँसी बनाई और मनोहर बाणीकर कहती भई हो इसवृक्ष के निवासी देवता पाकर मेरी बात सुनो कदाचित बनमें विचरता लक्षमण यावे तो तुम उसे कहियो जो तुम्हारे विरह
महा दुःखित बनमाला- तुम में चित्त लगाय बट के वृक्ष में वस्त्र की फांसा लगाय मरण को मात्र भई हमने देखी और तुमको यह सन्देशा कहा है कि इस भवमें तो तुम्हारा संयोग मुझे न मिला अब परभव में तुमही पति हूजियो यह वचन कह बृक्षकी शाखा सों फांसी लगाय आप फांसी लेने लगी, उसही समय लक्ष्मण कहताभया हे मुग्धे मेरी भुजाकर श्रालिंगन योग्य तेरा कण्ठ उसमें फांसी काहे को डारे है है सुन्दरवदनी परमसुन्दरी में लक्ष्मण हूं जैसा तेरेश्रवण में आया है तैसा देख और प्रतीत न श्रावे तो निश्चय कर लेहु ऐसा कह उसके करसे फांसी हर लीनी जैसे कमल झागों के समूहको दूर करे तब वह लज्जाकर युक्त प्रेमकी दृष्टि कर लक्षमण को देख मोहित भई कैसा है लक्षमण जगत् के नेत्रोंका हरणहारा है रूप जिसका परम आश्चर्यको प्राप्त भई चित्त में चितवे है यह कोई मुझपर देवोंने उपकार किया मेरी अवस्था देख दयाको प्राप्त भए जैसा में सुनाथा तैसा देव योग से यह नाथ पाया जिसने मेरे प्राण बचाए ऐसा चिंतक्न करती बनमाला लक्षमण के मिलाप से अत्यन्त अनुराग को प्राप्त भई
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पद्म
॥५२॥
अथानन्तर महा सुगन्ध कोमल सांथरे पर श्रीरामचन्द्र पौड़े थे सो जागकर लक्षमणको न देख बुरा जानकी को पूछतेभए हे देवी यहां लक्षमण नहीं दीखे है रात्रि के समय मेरे सोवने को पुष्प पल्लवों का कोमल सांथरा बिछाय आप यहांही तिष्ठता था सो अब नहीं दीखे है तब जानकीने कही हे नाथ ऊंचा स्वर कर बुलाय लेवो तब आप शब्द किया हे भाई हे लक्षमण हे बालक कहां गया शीघ्र आब तब भाई बोला हे देव आया बनमाला सहित बड़ े भाई के निकट आया आधी रात्रीका समय चन्द्रमा का उदयभया कुमद फूले शीतल मन्द्र सुमन्त्र पवन बाजने लगी उस समय बनमाला कोपल सम्मान कोमल कर जोड़ वस्त्र कर वेढ़ा है सर्व अंग जिसने लज्जाकर नम्रीभूत है मुख जिसका जाना है समस्त कर्तव्य जिसने महा विनयको घरती श्रीराम और सीता के चरणारविन्दको वन्दती भई सीता लक्ष्मण को कहती भई हे कुमार तैने चंद्रमावी मता करी तब लक्षमण लज्जाकर नीचा होय गया श्रीराम जानकी कहतेभए तुम कैसे जानी तत कही हे देव जिस समय चन्द्रमा का उद्योत भया उसकी समय कन्या सहित उत्तमण माया तब श्रीराम सीता के वचन सुन प्रसन्न भए ।
अथानन्तर बनमाखा महा शुभ शील इनको देख आश्चर्यकी भरी प्रसन्न है मुखचन्द्रमा जिसका फूल रहे हैं नेत्र कसल जिसके सीता के समीप बैठी और ये दोनों भाई देवों समान महा सुन्दर निदा रहित सुखसे कथा वार्ता करते विष्ठे हैं और जनमाला की सखी जागकर देखे तो सेज सूनी कन्यानहीं तब भगकर खेन्द्रित भई और महा व्याकुल होय रुदन करती भई उसके शब्द कुछ योघा जागे मायुध लमाय तरंग त्वद् दसों दिशाको दौड़ और पमादे दौड़ नरकी और धनुष है हाथमें जिनके दशों दिशा
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ख़ुदी राजा का भय और प्रीति कर संयुक्त है मन जिसका ऐसे दौड़े मानो पवन के बालक हैं तब क पुरस्क एक इसतरफ दौड़े आये बनमालाको बनमें राम लक्ष्मणके समीप बैठी देख बहुत हर्षित होय जाय कर
प्र
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राजा पृथिवीघर का बाई दई और कहले भये कि हे देव जिनके पावनेका बहुत यत्न करिये तोभी न मिलें वे सहजी आए हैं मभा तरें नगर में महा निषि आई बिना बादल आकाश से वृष्टिभई क्षेत्रमें विना बाई घान जगा तुम्हारा जसाई लक्ष्मण नगर के निकट तिष्ठे है जिसने बनमाला प्राण त्याग करती बचाई और राम तुम्हारे पस्महित सीता सहित विराजे हैं जैसे सूची सहित इन्द्र विराजें ये वचन सृजा सेवकों के सुनकर महा हर्षित होय चणे एक मूर्बित होयगया फिर परम आनन्दको प्राप्तहोय सेवकों को बहुत धनदिया और मनमें विचारता भया मेरी पुत्रीका मनोरथ सिद्धभया जीवों के धन की प्राप्ति और इष्टका समागम औरभी सुख के कारण पुण्यके मोम से - होयहैं जो वस्तु सैकड़ों योजन दूर और श्रवण में वे सभी पुण्याधिकारी के क्षणमात्र में प्राप्त होय है और जे प्राणी दुःखके भोक्ता पुण्यहीन हैं तिनके हाथ से इष्टवस्तुविलाय जाय है पर्वत के मस्तक पर तथा बन में सागर में पंथ में पुण्याविकारियों के इष्ट वस्तु का समागम होय है ऐसा मन में चिंतवन कर स्त्री से समस्त वृतान्त कहा, स्त्री बारंबार पूछे हैं यह जामे मानोंस्वप्न हीहै, फिर रामके अघर समान आरक्तसूयका उदयभया तव राजाप्रेमका
सर्व परिवार सहित हाथी पर चढ़कर परम कांति संयुक्त राम से मिलने चला और बनमाला की माता आप पुत्रियों सहित पालकी पर चढ़ कर चली सो राजा दूर ही से श्रीराम का स्थानक देख कर फूल गये हैं नेत्र कमल जिसके हाथी से उतर समीप याया श्रीराम और लक्ष्मण से मिला और उसकी
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पुराण
राणी सीता के पायन लागी और कुशल पूछती भईबीन बांसुरी मृदंगादिक के शब्द भए बन्दीजन विरद बखानते भए बड़ा उत्सव भया राजा ने लोकों को बहुत दान दिया नृत्य होता भया दशों दिशा नोद कर शब्दायमान होती भई श्रीराम लक्ष्मण को स्नान भोजन कराया फिर घोडे हाथी रथ उन पर चढ़े अनेक सामंत और हिरण समान कूदते पयादेउन सहित रामलक्ष्मणने हाथी पर चढे हुये पुर में प्रवेश किय, राजाने नगर उछाला महा चतुर मागध विरद बखाने हैं मंगल शब्द करे हैं राम लक्षमण ने अमोलिक वस्त्र पहरे हार कर विराजे है वक्षस्थल जिनका, मलियागिरि के चन्दन से लिप्त है अंग जिनका नाना प्रकार के रत्नों की किरणो से इन्द्र धनुष होय रहा है दोनों भाई चांद सूर्य सारिखे, नहीं वरणे जावें हैं गुण जिनके, सौधर्म ईशान सारिखे जानकी सहीत लोकों को आश्चर्य उपजावते राजमन्दिर में पधारे श्रेष्ठ मालाधरे सुगंध कर गुंजार करे हैं भ्रमर जिनपर महा विनयवान् चन्द्रवदन इनको देख लोकमोहित भए कुबेर का सा कियो जो बह सुन्दर नगर वहां अपनी इच्छा से परम भोग भोगते भए इस भांति सुकृत में है चित्त जिनका महागहन बन में प्राप्त भए भी परम विलासको अनुभवे हैं सूर्य समान है कांति जिनकी वे पापरूप तिमीर को हरे हैं निज पदार्थ के लाभसे आनन्दरूपहें ॥ इति छत्तीसवां पर्वसंपूर्णम्॥
अथानन्तर एक दिन श्री राम सुख से विराजे थे, और पृथिवीधर भी समीप बैठा था उस समय एक पुरुष दूर का चला महा खेद खिन्न आय कर नमीभूत होय पत्र देताभया सोराजा पृथिवीधर ने पत्र लेप कर लेखक को सौंपा लेखक ने खोलकर राजा के निकट बांचा उस में इस भान्ति लिखाथा कि इन्द्र समान है उत्कृष्ट प्रभाव जिस का महालक्षगीवान नमे हैं अनेक सजा जिन को श्री नन्द्यवर्त नगर का
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पद्म पुरागा ॥५३॥
स्वामी महाप्रबल परोक्रमको धारी सुमेरुपर्वतसा अचल प्रसिद्ध शस्त्रशास्त्र में प्रवीण सवराजावांका राजा महाराजाधिराज प्रताप कर वश किये हैं शत्रु और मोहित करी है सकल पृथिवी जिसने सूर्य समान महो बलवान् समस्त कर्तव्यों में कुशल महानीतिवान् गुणों से बिराजमान श्रीमान् पृथिवी का नाथ महाराजेंद्र अति बीर्य सोविजय नगरमें पृथिवीधर को कुशल क्षेम प्रश्नपूर्वक श्राज्ञा करे है कि जे पृथिवीपर सामन्त हैं। भण्डार सहित और सर्व सेना सहित मेरे निकट प्रबरते हैं आर्य खण्ड के और मलेच्छ खण्ड के चतुरंग सेना सहित नाना प्रकार के शस्रों के धरण हारे मेरी आज्ञाको शिरपरधारे हैं अञ्जनगिरिसारिखे अाठसै हाथे और पवनके पुत्रसम तीन हजार तुरंग अनेक रथ अनेक पयादे तिन सहित महा पराक्रमका धारी महा तेजस्वी मेरे गुणों से बैंचा है मन जिसका ऐसाराजा विजय शार्दूल
आया है और अंग देशके राजा मृगध्वज रणोमि कलभ केशरी यह प्रत्येक पांच पांचहजार तुरंग और छैनो हाथी और स्थ पयादे तिन सहित आये हैं महाउत्साह के धारी महा न्यायमें प्रवीण बुद्धि जिन | की और पंचालदेशका राजा पौढ़ परम प्रतापको धरता न्यायशास्त्र में प्रवीण अनेक प्रचण्ड बलको उत्साह | रूप करता हजार हाथी और सातहजार तुरंगों से और रथ पयादों से युक्त हमारे पास आया है और मगध देशका राजा सुकेश बड़ी सेना से आया है अनेक राजावों सहित जैसे सैकड़ों नदीयों के प्रवाहों को लिये रेवाका प्रवाह ससुद्र में श्रावे तैसे उसके संग काली घटा समान आठ हजार हाथी अनेक रथ
और तुरंगोंके समूह हैं अप वज्रको आयुध धारे हैं और म्लेलोंके अधिपति सुभद्र मुनिभद्र साधुभद्र नंदन । इत्यादि राजा मेरे समीप आये हैं वज्रधर समान और नहीं निवारोजाय पराक्रम जिसका ऐसा राजा सिंह
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पद्म वीय पाया है और राजा वांम और सिंहस्थ ये दोनों हमारे मामा महा बलवान बड़ी सेनासे आएहैं और Ham| वत्सदेशका स्वामी मोरदत्त अनेक पयादे अनेक स्थ अनेक हाथी अनेक घोड़ोंसे युक्त अायाहै और राजा
पोष्टल सौवीर सुमेरु सारिखे अचल प्रबल सेनासे पाये हैं ये राजे महा पराक्रमी पृथिवीपर प्रसिद्ध देवों सारिखे दस अक्षोहिणी दल सहित आये हैं इतने राजावों सहित में बड़े कटकसे अयोध्याके राजा भरत पर चढ़ाहूं सो तेरे अोयवेकी वोट देखें हूं इसलिये आज्ञापत्र पहुंचते प्रमाण पयानकर शीघ अाइयो किसी कार्यकर विलम्ब न करियो जैसे किसान वांको चाहे तैसे में तेरे अागमन को चाहूंहूं इसभांति पत्र के समाचार लेखकने बांचे तब पृथिवीधर ने कछ कहने का उद्यम किया उससे पहिले लक्षमण बोले अरे दूत भरतके और अतिवीर्यके विरोध कौन कारणसे भया तब वह वायुगत नाम दूत कहताभया में सब बातोंका मरमी हूं सब चरित्र जोनहूं तब लक्षमण बोने हमारे सुनने की इच्छा है उलने कही आपको सुननेकी इच्छा है तो सुनो एक श्रुतिवृद्ध नामा दूत हमारे राजा अतिवीर्यने भरतपर भेजा सो जमकर कहताभया इन्द्र मुल्य राजा अतिवीर्य का में दूतहूं प्रणाम करे हैं समस्त नरेन्द्र जिसको न्याय के थापने में महा बुद्धिवान सो पुरुषों में सिंह समान जिसके भय से अरि रूप मृग निद्रा नहीं करे हैं इसके यह पृथिवी वनिता समान है कैसी है पृथिवी चार तरफ के समुद्र सोई हैं कटिमेखलाजिसके जैसे परणी स्त्री आज्ञा में होय तैसे समस्त पृथिवी आज्ञा केवश है सो पृथिवी पति महा प्रबल मेरे मुख होय तुमको आज्ञा करे हैं कि हे भरत कि हे भरत शीघ आय कर मेरी सेवा करोअथवा अयोध्या तज समुद्र के पार जावो ये वचन सुन शत्रुधन महा क्रोधरूष दावानल समान प्रज्वलित होय कहताभया अरे दूत तुझऐसे
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॥५३२०
पा वचन कहने उचितनहीं वह भरतकी सेवाकर अक भरत उसकीसेवाकरेऔरभरत अयोध्याका भार मन्त्रीयोंको || सौंप पृथिवीके वशकरनेके निमित्त समुद्रक पारजाये भक और भांति जाय और तेरा स्वामी ऐसे गर्वके वचन कहे है सो गर्दभ माते हाथी की न्याई गाजे है अथवा उसकी मृत्यु निकटहै इसलिए ऐसे वचन कहे है | अथवा वायुके वश है राजा दशरथको बैराग्य के योग से तपोवन को गए जान वह दुष्ट ऐसीबात कहे | है सो यद्यपि तातकी क्रोध रूप अग्नि मुक्ति की अभिलाषाकर शान्त भई तथापि पिता की अग्नि से हम स्फुलिंग समान निकसे हैं सो अति वीर्य रूप काष्ठको भस्म करने समर्थ हैं हाथी के रुधिररूप कीच कर लाल भए हैं केश जिसके ऐसाजो सिंह सोशांत भया तो उसका बोलक हाथियों के निपात करने समर्थ है ये वचन कह शत्रघन वलता जो वांसों का बन उस समान तडतडात कर महा क्रोधायमान भया
और सेवकों को आज्ञा करी कि इस दत का अपमान कर काढ़ देवो तब आज्ञा प्रमाण सेवकों ने अपराधी को स्वान को न्याई तिरस्कार कर काढदिया सो पुकारता नगरीके बोहिरगया धूलसे धूसराहै अंग
नसका दरवचनोंसे दग्धाने धनी पैजाय पुकारा और राजाभात समुद्रसमानगम्भीर परमार्थका जानन हारा अपूर्व दुर्वचन सुन कछु एक कोपको प्राप्त भया भरत शत्रुघन दोनोभाई नगरसे सेना सहित शत्रुपर निकसे और मिथुला नगरीका धनी राजा जनक अपनेभाई कनक सहित बड़ी सेनासे आय भेलाभया
और सिंहोदरको प्रादि दे अनेक राजा भरतसे आय मिले भरत बड़ीसेनासहित नन्द्यावर्तपुर के धनी अति बीर्यपर चढ़ा पिता समानप्रजाकी रक्षा करता संता कैसा है भरत न्यायमें प्रवीण है और राजा अतिवीय भी दूत केवच सुन परम कोषको प्राप्तभया क्षोभको प्राप्तभया जोसमुद्र उसके समान भयानक सर्व सामन्तों।
मान
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पन
पुराण
॥५३३॥
से मंडित भरत के ऊपर जाने का उद्यमी भया है यह समाचार सुन श्रीरामचन्द अपनी ललाट दूज के चन्द्रमा समान वक्रकर पृथिवीघरसे कहतेभये कि अतिवीर्य को भरतसे ऐसाकरना उचितही है क्योंकि जिस ने पिता समान बड़े भाई का अनादर किया। तब राजा पृथिवीधर ने राम से कही वह दुष्ट है हमप्रवल जान सेवा करे हैं, तब मंत्रकर अतिवीर्य को जुवाब लिखा कि मैं कागद के पीछे ही प्रावूहूं और दूतको विदा किया फिर श्रीराम से कहताभया अतिवीर्य महाप्रचण्डहै इसलिये मैं जाउंहूं तब श्रीरामने कही तुम तो | यहां ही रहो और मैं तुम्हारे पुत्र को और तुम्हारे जवाई लक्षमण को ले अतिवीर्य के समीप जावूगा ऐसा
कहकर स्थपर चढ़ बड़ी सेना सहित पृथिवीधर के पुत्र को लारलेय सीताऔर लक्षमण सहित नन्द्यावर्त । नगरी को चले सोशीघ गमनकर नगरके निकट जायपहुंचे वहां पृथिवीधरके पुत्र सहित स्नोन भोनज
कर राम लक्षमण और सीता ये तीनो मंत्र करतेभए जानकी श्रीगमसे कहतीभई । हे नाथ यद्यपि मेरे। il कहिवे का अधिकार नहीं जैसे सूर्य के प्रकाशहोते नक्षत्र का उद्योत नहीं तथापि हे देव हितकी वांछाकर । । में कछ इककहूं हूं जैसे वांसों से मोती लेना तैसे हम सारिखों से भी हितकी बातलेनी (कभीयक किसी | एक वास के बीड़ेमें मोती निपजे हैं)। हे नाथ यह अतिवीर्य्य महासेनाका स्वामी क्रूरकर्मी भरतकर कैसे
जीता जाय इसलिये इसके जीतने का उपाय शीघ्र चिन्तवना तुमसे और लक्षमणसे कोईकार्य असाध्य नहीं तव लक्षमणबोले । हेदेवी यह क्याकहो हो आज अथवा प्रभातइस अणुवीर्यको मेरेकर हताहीजानों श्रीरामके चरणारविन्दकी जो रजकर पवित्रहै सिरमेरा मेरे श्रागे देवभी टिक नहीं सकें मनुष्य क्षुद्रवीय्य की तो क्याबात जबतक सूर्यअस्त न होय उससे पहिलेही इसक्षुद्रवीर्य को मूवाही देखियो यहलक्षमण
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॥५३४॥
के वचन सुन पृथिवीधर का पुत्र भी गर्जनाकर ऐसे ही कहताभया तब श्रीराम भौंहफेर उसे मनेकर लक्षमणसे कहते भए महाधीवीर है मन जिनका हे भाई जानकीने कहीं सो युक्त है यह अतिवीर्य बल कर उद्धत है रणसंग्राम में भरतके वशकरने का पात्र नहीं भरत इसके दसवें भाग भी नहीं यह दावानल समान इसका वह मतंग गज क्याकरे यह होथीयोंसे पूर्ण घोड़ों कर पूर्ण स्थपयादेयों से पूर्ण इस को जीतने समर्थ भरतनहीं जैसे केसरीसिंह महाप्रबल है परन्तु विन्ध्याचल पर्वत के ढाहिबे समर्थ नहीं। तैसे भरत इसको जीते नहीं, सेना का प्रलय होवेगो जहां निःकारण संग्राम होय वहां दोनों पक्षों के मनुष्यों का क्षयहोय और यदि इस दुरात्मा अतिवीर्य ने भरतको वशकिया तब रघुवंशयोंके कष्ट का क्या कहना और इनमें संधिभी सूझनहीं क्योंकिशत्रुघन अतिमानी बालक सोउद्धत वैरीसे दोषकियो यहन्यायमें उचित नहीं ॥ अन्धेरी रात्रिमें रौद्रभूत सहित शत्रुघनने दूरकेदौरा जाय अतिवीर्यके कटकमें धाड़ा। दिया अनेक योधा मारे बहुतहाथी घोड़ेकाम आए औरपवन सारिखे तेजस्वी हज़ारोंतुरंग और सातसे अंजनगिरि समानहाथी लेगया सोतने क्या लोगोंके मुखसे न सुनी यह समाचार अतिवीर्य सुन महा क्रोधको प्राप्तभया और अवमहा सावधानहे रणका अभिलाषी है और भरत महामानी है सो इस से युद्ध । छोड़ सन्धि न करे इसलिये तू अतिवीर्य को वशकर तेरीशक्ति सूर्य कोभी तिरस्कार करने समर्थ है और यहांसे भरतभी निकटहै सो हमको आपा न प्रकाशना जे मित्रको न जनावें और उपकार करें वे अद्भुत । पुरुष प्रशंसा करने योग्य हैं जैसे रात्रि का मेघ । इसभान्ति मंत्र कर रोम को अतिवीर्य के पकडने की बुद्धि उपजी रात्रि तो प्रमाद रहित होय समीचीन लोगों से कथाओं कर पूर्ण करी सुखसों ।
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पद्म
पुराण
॥५३५५
निशा व्यतीत भई प्रात समय दोनों वीरों ने उठ कर प्रात क्रिया कर एक जिनमन्दिर देखा सो उस में प्रवेश कर जिनेन्द्र का दर्शन किया वहां आर्यिकावों का समूह विराजता था तिन की वन्दना करी और आयिकाओं की जो गुरानी वरधर्मा महा शास्त्र की वेत्ता सीता को इस के समीप राखी आप भगवान् की पूजा कर लक्षमण सहित नृत्यकारणी स्त्री का भेष कर लीला सहित राज मन्दिर की तरफ चले इंद्र की अप्सरा तुल्य नृत्यकारणी को देख नगर के लोक आश्चर्य कोप्राप्त भए लारलागे ये महा भाषण पहिरे सर्व लोक के मन और नेत्र हरते राज द्वार गए चौवीसौ तीर्थकरों के गुण गाए पराणों के रहस्य बताए प्रफुल्लितहें नेत्र जिनके इनकी ध्वनि राजा सुन इन्होंके गुणका खेंचा समीप आया जैसेरस्सी का
खेंचा जल के विषे काष्ठ का भार आवे नृत्य कारणी ने नृप के समीप नृत्य किया रेचक कहिये भ्रमण । अंग मोड़ना मुलकमा, अबलोकना, भौंहों काफेरेना मन्द मंद हंसना जंघावहुकर पल्लव तिनका हलावना
पृथिवी को स्पर्श शीघ्रही पगों का उठावना राग का दृढ़ करना केश रूप फांस का प्रवर्तन इत्यादि चेष्टा रूप काम बाणों से सकल लोकों को बींधे स्वरों के ग्राम यथा स्थान जोड़ने से और वीण के बजायवे कर सबोंको मोहित किए जहां नृत्यकी खडीरहे वहां सकल भाव के नेत्र चलेजाय, रूपकर सबोंकनेत्रस्वरकर सबों के श्रवण गुणकर सबोंका मनबांध लिया,गौतमस्वामी कहेहेकि हेश्रेणिक जहां श्रीराम लक्षमणनृत्य करें
और गावें बजावें वहां देवोंके मनहरे जाय तो मनुष्योंकी क्याबात श्रीऋषभादि चतुर्विंशतितीर्थंकरोंकेयश गाय सकलसभा बशकरी राजाको संगीतकर मोहित देख शृंगार रससे बीररसमें पाए आँख फेर भौंहे फेर महा प्रवलतेज रूप होय अतिवीर्यको कहतेभए हे अतिवीर्य तेंने यह क्या दुष्टता प्रारंभी तुझे यह मंत्र ।
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पद्म पुराच
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कौनने दिया तैंने अपने नाशके निमित्त भरतसो विरोध उपजाया जियाचाहे तो महा विनय कर तिन को प्रसन्नकर दासहोप तिनके निकट जावो तेरीराणी बड़े बंशकी उपजी कामक्रीड़ा की भूमि विघवान होय तुझे मृत्युको प्राप्तभए सब आभूषण डार शोभा रहित होयगी जैसे चन्द्रमा बिना गात्र शोभारहित होय तेरा चित्त शुभ आया है सो चित्तको फेर भरतको नमस्कारकर हे नीच इसभांति न करेगा तो बार ही मराजायगा राजाचरण्यके पोता और दशरथ के पुत्र तिनके जीवते तू कैसे अयोध्याका राज्य चाहे है जैसे सूर्य प्रकाश होते चन्द्रमाका प्रकाश कैसेहोय जैसे पतंगदीप में पड़ भूवा चाहे है तैसे तू मरण चाहे
राजभर गरुड़समान महाबली तिनको तू सर्पसमान निर्बल बराबरी करे है यह बचन भरत की प्रशंसा और अपनी निन्दाके नृत्यकारिणी के मुख से सुन सकलसभा सहित अतिवीर्य क्रोधको प्राप्त भया लाल नेत्र किए जैसे समुद्रकी लहर उठे है तेसे सामन्त उठे और राजाने खडग हाथमें लिया उसी समय नृत्यकारिणी ने उचल हाथसों खडग खोल लिया और सिरके केश पकड बांध लिया और नृत्य कारणी तिवीर्य के पक्षी राजा तिनसो कहती भई जीवनेकी बांया राखो तो प्रतिवीर्यका पक्ष छोड भरतपै जावो भरतकी ही सेवा करो तब लोकों के मुख से ऐसी ध्वनि निकसी महा शोभायमान गुण वान भरत भूप जयवन्त होवे सूर्यसमान है तेज जिसका न्यायरूप किरणों के मंडलकर शोभित दशरथ के बंशरूप आकाशमै चन्द्रमासमान लोकको आनन्दकारी जिसका उदय लक्ष्मीरूप कुमुदनी विकास को प्राप्तहोय शत्रुवों के प्रतापसे रहित परम आश्चर्य को करती हुई अहो यह बडा आश्चर्य जिसकी नृत्यकारणी की यह चेष्टा जो ऐसे नृपतिको पकड लेय तो भरतकी शक्तिका क्या कहना इन्द्रको भी
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पद्म पुराण ॥५३॥
जीते हम इस अतिवीर्य सो आए मिले सो भरतमहाराज कोप भए हौवेगेन जानिये क्या करें अथवा वे दयावंत पुरुषहें जाय मिलें पायन परें कृपाही करेंगे अतिवीर्य के मित्र राजा ऐसा विचार करतेभए और श्रीराम अतिवीर्यको पकड हाथीपर चढ़ जिनमंदिर गए हाथीसे उतर जिनमंदिरमें जाय भगवान की पूजा करी और बरधर्मा आर्यिकाकी बन्दना करी बहुत स्तुति करी रामने अतिवीर्य लक्ष्मणको सौंपा सो लक्षमणने केस गह दृढ़ बांधा तब सीताने कही इसे ढीला करो पीडा मत देवो शांतता भज कर्मके उदय से मनुष्य मति हीन होयजायहैं आपदा मनुष्यों में ही होय बडे पुरुषोंको सर्वथा पर की रक्षाही करना सत् पुरुषों को सामान्य पुरुष का भी अनादर न करना यहतो सहस्रराजावोंका शिरो मणिहै इस लिये इसे छोड देवो तुम यह बश किया अब कृपाही करनायोग्यहै राजावोंका यही धर्म है जो प्रबल शत्रुवोंको पकड छोडदें यह अनादि कालकी मर्यादाहै जब इसभांति सीताने कही तब लक्ष्मण हाथ जोड प्रणामकर कहताभया हे देवी तुम्हारी आज्ञासे छोडबकी क्याबात ऐसा करूं जो देव इसकी सेवा करें लक्षमणका क्रोध शांत भया तब अतिवीर्य प्रतिबोध को पाय श्रीरामसों कहता भया हे देव तुमने बहुत भला किया ऐसी निर्मलबुद्धि मेरी अबतक कभीभी न भईथी अब तुम्हारेप्रताप से भई है तब श्रीराम उसे हार मुकटादि रहित देख विश्रामके बचन कहते भए कैसे हैं रघुबीर सौम्यहै श्राकार जिनका हे मित्र दानता तज जैसा प्राचीन अवस्थामें धैर्यथा तैसाहीधर बडे पुरुषोंकेही संपदा और आपदादोनों होयहैं और अब तुझे कुछ श्रापदानहीं नंद्यावर्तपुरका राज्य भरतकाआज्ञाकारी होय कर कर तब अतिवीर्य ने कड़ी मेरेअवगज्यकी वांछा नहीं मैं गज्यका फलपाया अब मैं औरही अवस्था
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पद्य
पुरामा
॥५३॥
धरूंगा समुद्र पर्यन्त पृथिवी का वश करणहारा महामान का धारी जो मैं सो कैसा पराया सेवकहोय । राज्यकरूं इस में पुरुषार्थ क्या और यह राज्य क्या पदार्थ जिन पुरुषोंने षट खंडका राज्य किया वे भी। तृप्तनभए तो मैं पांच ग्रामोका स्वामी कहांअल्प विभूबिकर तृप्त होऊंगा जन्मातरमें कियाजो कर्मउसका प्रभाव देखो जो मुझे कांति रहित किया जैसेराहुचन्द्रमा को कांति रहित करे यह मनुष्य देह सारभूत देवों से भी अधिक मैं वृथाखोई नवांजन्म धरनेको कायर मैं सो तुमने प्रतिबोधा अब ऐसी चेष्टा करूँजिस से मुक्ति प्राप्तहोय इस भांति कहकर श्रीराम-लक्षमणको क्षमा कराय वह राजामति बीर्य केसरीसिंह जैसाहै पराक्रम जिसका श्रुतधर नामा मुमीश्वर के समीप हाथ जोड नमस्कार कर कहता भया हे नाय दिगंबरी दीक्षा वांहूं तब प्राचार्य ने कहा यही बात योग्य है यह दीक्षा से अनन्त सिद्धभए
और होवेंगे तबअतिवीर्य बस्त्रतज के कोलुन्च कर महाव्रत का धारीभया अात्मा के अर्थ विषे मग्न रागादि परिग्रहका त्यागी बिधि पूर्वक तपकरता पृथिवीपर विहार करता भया जहांमनुष्यों का संचार नहीं वहां रहे सिंहादि क्रुरजीवोंकरयुक्त जो महागहन वन अथवा गिरि शिखर गुफादि तिनमें निर्भय निवास करे ऐसे अतिवीर्य स्वामीको नमस्कारहोवे तजाहै समस्त परिग्रह की आशा जिन्होंने और अंगीकार किया है चारित्रका भार जिहोंने महा शील के धारक नानाप्रकार तपकर शरीरको शोषणहारे प्रशंसा योग्य महामुनि सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र रूपसुन्दरहैं भाभूषण और दशोंदिशाही वस्त्र जिनके साधवों केजे मूलगुण उत्तरगुण वेही संपदाकर्म हरिबेको उद्यमी संजमीमुक्तिके वरयोगीन्द्र तिनको नमस्कारहावे यह अतिवीर्य मुनि का चारित्र जो सुबुद्धि पढ़ें सुनें सो गुणों की वृद्धि को प्राप्त होय भानु समान तेजस्वी होंग और संसार के कष्टसे गिवृत होय ॥ इति सैंतिसवां पर्व संपूर्णभया ।
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पद्म
पुराण
॥५३॥
अथान्तर श्री रामचन्द्र महा न्याय के वेत्ताने अतिर्यि का पुत्र जोविजयरथ उसे अभिषेक कराय पिताके पदपर थापा उस ने अपना समस्त वित्त दिखाया सो उसका उसको दिया और उस ने अपनी बहिन रत्नमाला लक्षमण को देनी करी सो उन्होंने प्रमाणकरी उसके रूपको देख लक्षमण हर्षितभए मानों साक्षात् लक्ष्मीही है फिर श्रीराम लक्षमण जिनेंद्रकीपूजाकर पृथिवीधरके विजयपुरनगरमेंवापिस गए और भरतने सुनीकि अतिवीर्य को नृत्यकारिणीने पकडा सो विरक्तहोय दीक्षाधरी शत्रुधनहास्यकरने लगा तब उसेमने कर भरत कहतेभए अहो भाई गजा अतिवीर्य धन्य है जे महादुःख रूप बिषियों को तज शान्तिभाव को प्राप्त भए वे महा स्तुति योग्य हैं तिनकी हांसी कहां तपका प्रभाव देखो जो रिपु भी प्रमाण योग्य गुरु होय हैं यहतप देवनको दुर्लभहै इसमान्त भरतने प्रतिवीर्य की स्तुतिकरी उस ही समयअतिवीर्यका पुत्रविजयस्थोयाअनेक सामन्तोंसहित सोभरत को नमस्कार करतिष्ठाक्षणिक
और कथा कस्जो रत्नमाला लक्षमणकोदई उसकीबडीवहिन विजयसुन्दरी नानाप्रकार प्राभूषण की धरण हारी भरत को परणाई और बहुत द्रव्य दियो सो भस्त उस की बहिन परण बहुत प्रसन्न भए विजयस्थ || से बहुत स्नेह किया यही बड़ों की रीत है और भरत महा हर्ष थकी पूर्ण है मन जिस का तेज तुरंग पर
चढ़कर अतिवीर्य मुनिके दर्शनको चला सो जिसः गिरिपर मुनि विराजे थे वहां पहिलेमनष्यदेखगए थेसा लार है तिन को पूछते जांय हैं कहां महामुनि कहां महामुनि,वे कहे हैं आगे विराजे हैं सो जिसगिरिपर मुनिथे वहां जाय पहुंचे कैसाहै गिरि विषम पाषाणोंके समूहसे महाअगम्य और नानाप्रकारके वृक्षोंसे पूर्ण पुष्पोंकी सुगंधकर महामुगन्धित और सिंहादिक कर जीवोंसे भरा सोराजा भरत अश्वसे उतर महाविन्य
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पद्म
पुरास
॥५४॥
वान मुनिके निकटगए कैसे हैं मुनिरागद्वेषरहित शांत भई हैं इंद्रिय जिनकी शिलापर विराजमान निर्भय अकेले जिन कलपी अतिवीर्य मुनींद्र महातपस्वी ध्यानि मुनिपदकी शोभासे संयुक्त तिनको देख भरत आश्चर्यको प्राप्तभया फूलगएहैं नेत्र कमल जिसके रोमांच होयगए हाथ जोड नमस्कारकर साधुके चरणारबिन्दकी पूजाकर महा नमीभूत होय मुनिभक्ति विषे है प्रेम जिसका सो स्तुति करता भया हे नाथ ॥ परमतत्वके वेत्ता तुमही इसजगत विषेशूरवीरहो जिन्होंनेयह जैनेंद्री दीक्षा महादुद्धरधारी जेमहंत पुरुष । विशुद्ध कुलमें उत्पन्नभए तिनकी यही चेष्टाहै इस मनुष्य लोकको पाय जो फल बडे पुरुष बांछे हैं सों श्रापने पाया और हम इस जगतकीमायाकर अत्यन्त दुखी हैं हे प्रभो हमारा अपराध क्षमाकरो तुम कृतार्थ हो पूज्यपदको प्राप्तभए तुमको बारम्बार नमस्कारहो ऐसा कहकर तीन प्रदक्षिणादेय हाथ जोड नमस्कारकर मुनि संबंधी कथा करता २ गिरिसे उतर तुरंगपर चढ हजारों सुभटोंकर संयुक्त अयोध्या में श्राया समस्त राजाओं के निकट सभामें कहा कि वे नृत्यकारनी समस्त लोकों के मनको मोहित करनी अपने जीवित विष भी निर्लोभ प्रबल नृपोंको जीतनहारी कहां गई देखो आश्चर्यकी बात अति वीर्यके निकट मेरी स्तुति करें और उसे पकडें स्त्री वर्गमें ऐसी शक्ति कहांसे होय जानिएहै जिनशासनकर देवियोंने यह चेष्टाकरी ऐसा चिन्तवन करता हुवा प्रसन्न चित्तभया और शत्रुघन मानाप्रकार के धान्यकर मंडित जो धरा उसके देखनेको गया जगतमें व्याप्तहे कीर्ति जिसकी फिर अयोध्या आया परम प्रतापको धरे और राजाभरत अतिवीर्य की पुत्री विजय सुन्दरी सहित सुख भोगता सुखसों तिष्ठे जैसे सुलोचना सहित मेघेश्वर तिष्टा यह तो कथा यहांही रही आगे श्रीरामलक्ष्मणका वर्णन करे हैं।
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पन्न
पुराया
॥५४१॥
अथानंतर वे रामलक्षमण सर्वलोकको आनन्दके कारण कईएक दिन पृथ्वीधरके पुरमै रहे जानकीसहित मंत्रकर आगे चलनेको उद्यमीभए तबसुंदर लक्षणकी घरनहारी बनमाला लक्षमणसे कहती भई नेत्र सजलहोय गए हे नाथ में मंदभागिनी मुझे आपतज जावोहो तो पहिले मरणसे क्यों बचाई तबलक्षमण बोले हे प्रिये तू विषादमतकरे थोडे दिनोंमें तेरे लेनेको आगे हे सुन्दरबदनी जो तेरे लयवेको शीघ्र न आवे तो हमको वह गति हो जो सम्यकदर्शन रहित मिथ्या दृष्टिकी होयहै हे बल्लभेजोशीघ्रही तेरे निकट न आवे तो हमको वह पापहो जो महामानकर दग्धसाधुवोंके निंदकोंको होय है हे गजगामिनीहम पिताके बचन पालिवे निमित्त दक्षिणके समुद्रके तीर निसंदेह जाय, मलयाचलके निकट कोई परम । स्थानककर तुझे लेने आवेंगे हे शुभमते तू धीर्य रख इसभांति कहकर अनेक सौगंधकर अति दिलासा । देय अाप सुमित्रा के नन्दन लक्ष्मण श्रीराम के संग चलने को उद्यमी भए लोकों को सूते जान ।
रात्रि को सीता सहित गोप्य निकसे प्रभात में इनको न देखकर नगर के लोक परम शोकको प्राप्त भए राजा को अति शोक उपजा बनमाला लक्षमण बिना घर सूना जानती भई अपना चित्त जिन शासन में लगाय धर्मानुराग रूप तिष्ठी राम लक्षमण पृथिवीपर बिहार करते नर नारियोंको मोहते। पराक्रमी पृथिवी को आश्चर्य के कारण धीरे धीरे लीला से बिचरे हैं जगत के मन और नेत्रों को । अनुराग उपजावते रमे हैं इनको देख लोक विचरे हैं कि यह पुरुषोत्तम कौन पवित्र गोत्र में | उपजे हैं धन्य है वह माता जिसकी कुक्षि में ये उपजे और धन्य हैं वे नारी जिनको ये परणे ऐसा रूप देवों। को दुर्लभ यह सुन्दर कहां से आए और कहां जाय, इनके क्या वांछाहै परस्पर स्त्रीजन ऐसीवार्ता करे ।
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पन्न
॥५४२०
हैं । हे सखी देखो दोनों कमल नेत्र चन्द्रमा सारिखे अद्भुत बदन जिनके और एक नारी नागकुमारी समान अद्धत देखी। नजानिये वे सरथे किमर थे हे मधे महापराय बिना उनका दर्शन नहीं अब ता वे दूर गये पीछे फिरो वे नेत्र और मनके चोर जगत् का मन हरते फिरे हैं इत्यादि नर नारियोंके पालाप सुनते सबको मोहित करते वे स्वच्छा विहारी शुद्ध हैं चित्त जिनके नाना देशों में विहार करते क्षेमांजलि नामा नगर में श्राए उसके निकट कारी घटा समान सघन वन में सुख से तिष्ठे जैसे सौमनस बन में देव तिष्ठे वहां लक्ष्मण ने महासुन्दर अम्न और अनेक व्यंजन तैय्यार किये और दाखों का स्स सो श्रीराम साता ने लक्षमण सहित भोजन किया। ___ अथानन्तर लक्षमण श्रीराम की आज्ञा लेथ क्षेमांजलि नाम पुर के देखने को चले महासुन्दर माला पहिरे और पीतांबर धारे सुन्दर है रूप जिनका नाना प्रकार की बेल वृक्ष उनसे युक्त बन और निर्मल जल की भरी नदी और नाना प्रकार के क्रीडागिरि अनेक धातु के भरे और ऊंचे ऊंचे जिन मन्दिर और मनोहर जलके निवाण और नाना प्रकारके लोक उनको देख नगर में प्रवेश किया कैसा है नगर नाना प्रकार के व्यापार कर पूर्ण सो नगर के लोक इनको देख अद्भुत रूप देख परस्पर वार्ता करते भए तिन के शब्द इसने सुने कि इस नगर के राजा के जितपद्मानामा पुत्री है उसे वह परणे जो राजा के हाथ की शक्ति की चोट को खाय जीवता बचे सो कन्या की क्या बात स्वर्ग का राज्य देय तो भी यह बात कोई न करे शक्ति की चोट से प्राण ही जांय तब कन्या कौन अर्थ जगत् में जीतव्य सर्व वस्तु से प्रिय है इसलिये कन्या के अर्थ प्राण कौन देय, यह वचन सुनकर महा कौतुकी
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॥५४३॥
लक्षमण किसी को पछते भए हे भद्र यह जितपद्मा कौन है तब वह कहता भया यह कालकन्या पंडितमाननीय सर्व लोक प्रसिद्ध तुमने क्या न सुनी इसनगर का राजा शत्रुदमन जिसके राणी कनक प्रभा उसके जितपद्मा पुत्री रूपवन्ती गुणवन्ती जिसने बदनकी कांतिसे कमल जीताहै और गात की शोभाकर कमलनी जीती सो इसलिये जितपद्मा कहावे है नवयौवनमंडित सर्पकला पूर्ण अद्भुत आभूषण की धरणहारी उसे पुरुष का नाम रुचे नहीं देवों का दर्शन भी अप्रिय मनुष्यों की तो क्याबात जिसके निकट कोई पुलिंगशब्दको उच्चारण भी न कर सके यहकैलाश के शिखर समान जो उज्ज्वल मंदिर उस में कन्यातिष्ठे है सैकड़ों सहेली जिसकी सेवा करे हैं जो कोई कन्या के पिताके हाथकी शक्तिकी चोटसे बचे उसे कन्या बरे, लक्ष्मण यह वार्ता सुन आश्चर्य को प्राप्त भयो और कोप भी उपजा मनमें विचारी महारार्जित दुष्ठ बेष्टासंयुक्त यह कन्या उसे देखू यह चितवन कर राजमार्ग होय क्मिान समान सुन्दर घर देखता और मदोन्मत्त हाथी कारीघटा समान और तुरंग चञ्चल अवलोकता और नृत्यशाला निरखता राजमन्दिरसे गया कैसा है राजमन्दिर अनेक प्रकारके झरोखोंकर शोभित नाना प्रकार ध्वजावों कर मण्डित शरद के बोदर समान उज्ज्वल महामनोहर रचनोकर संयुक्त ऊंचे कोटकर वेष्टित सो लक्ष्मण जाय द्वारपर ठगहा भया इन्द्रके धनुष समान अनेक वर्णका है तोरण जहाँ सुभदों के समूह अनेक देशों के नानाप्रकार भेट खेय कर आये हैं कोई निकसे है कोई जाय है सामन्तोंकी भीड़ होयरही है लक्ष्मण को द्वार में प्रवेश करता देख बारपाल सौम्य वापी से कहता भया तुम कौनहो और कौनकीआवासे आए हो कौन प्रयोजन राज मन्दिर में प्रवेश करोहो तब कुमारने कही राजाको देखा चाहे हैं तू जाय
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पद्म पुराण
५४४
राजा से पूछ तव वह द्वारपाल अपनी ठौर दूजे को राख श्राप गजा सो जाय विनती करताभया हे महा राज आपके दर्शन को एक महा रूपवान पुरुष आयाहै द्वारे तिष्ठे है नील कमल समानहे वर्ण जिसका
और कमल लोचन महा शोभायमान सौम्य शुभ मूर्ति है तब राजाने प्रधानकी और निरख अाज्ञा करी श्रावे तब द्वारपाल लक्षमण को राजाके समीप लेयगया सो समस्त सभा इस को अति सुन्दर देख हर्ष की वृद्धिको प्राप्त भई जैसे चन्द्रमाको देख समुद्रकी शोभा बृद्धिको प्राप्त होय राजा इसको प्रणाम रहित देदीप्यमान विकट स्वरूप देख कछु इक विकारको प्राप्त होय पूछता भया तुम कौन हो कौन अर्थ कहां से यहां आए हो तब लक्षमण वर्षाकाल के मैघ समान शब्द करते भए मैं राजा भरतका सेवकह पृथिवी के देखने की अभिलाषा से विचरूं तेरी पत्री का वृत्तान्त सुन यहां आया यह तेरी पुत्री महा दुष्ट मारणेवाली गाय है नहीं भग्न मए हैं मान रूपी सींग जिसके यह सर्वलोकोंको दुःखदायनी वर्ते है तब राजा शत्रुदमन ने कही मेरी शक्ति को जो सहार सके सो जितपद्माको बरे तब लक्षमण 'कहताभया तेरी एक शक्ति से मेरे क्या होय तू अपनी समस्त शक्ति से मेरे पंच शक्ति लगाय इस भान्ति राजाके और लक्षमण के विवाद भयो उस समय झरोखा से जितपद्मा लक्षमणको देख मोहित भई और हाथ जोड़ इशारा कर मने करतीभई कि शक्तिकी चोट मत खावो तब आप सैन करतेभए तू डरे मत इस भांति समस्या मेंही धीर्य बंधाया और राजा से कही क्यों कायर होय रहा है शक्ति चलाय अपनी शक्ति हमकोदिखा तब राजाने कही मूवा चाहे है तो झेल महाकोपकर प्रज्वलित अग्निसमान एक शक्ति चलाई सो लक्षमणने दाहिने करमें ग्रही जैसे गरुड सर्पको ग्रहे और दूसरी शक्ति दूसरे हाथ ।
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पप
पुराण
से गही और तीजी चौथीदोनों कांख में गही सो चारों शक्तियोंको गहे लक्ष्मण ऐसा शोभे है मानो। चोदन्ता हस्ती है तब राजाने पांचवीं शक्ति चलाई सो दांतों से गही जैसे मृगराज मृगीको गहे तव देवों के समूह हर्षितहोय पुष्पवृष्टि करते भये और दुंदुभी वाजे बाजतेभए लक्षमण राजासे कहतेभए और है तो औरभी चला तब सकल लोक भयकर कंपायमान भए राजा लक्षमणकाअखंडवल देखाश्चर्यको प्राप्तभया लज्जो कर नीचा होय गया और जितपद्मा लक्षमणके रूप और चरित्र कर बैंची थकी आय ठगढ़ीभई वह कन्या सुन्दर वदनी मृगनयनी लक्ष्मण के समीप ऐसी शोभती भई जैसे इन्द्रके समीप शची होय जितपद्मा को देख लक्षमण का हृदय प्रसन्न भया महा संग्राम में भी जिसका चित्त स्थिर न होय सो इसके स्नेह से वशीभूत भया लक्षमण तत्काल विनयकर नमीभूत होय राजा को कहता भया हे माम हम तुम्हारे बालक हैं हमारा अपराध क्षमाकरो जे तुम सारिखे गम्भीर नरहें वे बालकोंकी अज्ञान चेष्टा कर और कुवचन कर विकारको नहीं प्राप्त होय हैं तब शत्रुदमन अति हर्षित होय हाथी सूंड समान अपनी भुजावोंकर कुमारसे मिला और कहताभया कि हे धोर में महा युद्ध में माते हाथियोंको क्षणमात्रमें जीतनहारा सो तैने जीता और बनके हस्ती पर्वतसनान तिनको मद रहित करनहारा जो में सो तुमने मुझे गर्वरहितकिया धन्य तुम्हारा पराक्रम धन्य तुम्हारोरूप धन्यतुम्हारेगुण धन्यतुम्हारी निगवंतामहा विनय वान अद्भुत चरित्र के घरणहारे तुमसे तुमही हो इस भांति राजाने लक्षमणके गुण सभा में वर्णन किये तब लक्ष्मण लज्जाकर नीचा होयगया।और राजाकी प्राज्ञाकर मेघकीध्वनि समानबादित्रों केशब्द सेवक करते भाऔर गानों को सानि मार्ण नगर के निणे ग्रानन्दता राजाने लक्षमण
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॥५४६॥
|| से कही हे पुरुषोत्तम मेरी पुत्री का तुम पाणिग्रहणाकया चाहो हो तो करो लक्षमणने कही मे रेबडे भाई पुराण
और भावज नगर के निकट तिष्ठे हैं तिनको पुछो उनकी आज्ञा होय सो तुमको हमको करनी उचित है वे सर्व नीके जाने हैं तब राजा पुत्री को और लक्षमण को स्थमें चढाय सर्व कुटुम्ब सहित रघुबीर पे चला, सो क्षोभ को प्राप्त हुआ जो समुद्र उसकी गर्जना समान इस की सेना का शब्दसुन कर और धूल के पटल उठते देख कर सीताभयभीत होय कहतीभई हे नाथलक्षमणने कुछ उद्धत चेष्ठा करी जिससे इस दिशामें उपद्रव दृष्टि आवे है इसलिये सावधान होय जो कुछ करणा होय सो करो, तब श्राप जानकी को उर से लगाय कहते भए हेदेवी भय मत करों ऐसा कह कर उठे धनुषु उपर दृष्टि धरी तवही मनुष्यों के समूह के आगे स्त्रीजन सुन्दर गान करती देखी फिर निकट ही आई सुन्दर है अंग जिनके स्त्रियों को गावती और नृत्य करती देख श्रीराम कोविश्वास उपजा सीता सहित सुख से विराज स्त्रीजन सर्व आभूषण मंडित अति मनोहर मंगल द्रव्य हाथ में लिये हर्ष के भरे हैं नेत्र जिनके रथ से उतर कर आई और राजा शत्रु दमन भी बहुत कुटुम्ब सहित श्रीररम के चरणारविन्द को नमस्कार कर बहुतविनयसे बैठा लक्षमण और जितपद्मा एक रथ में बैठे आए थे सो उतर कर लक्षमण श्रीरामचन्द्र को और जानकी को सीस निवाय प्रणाम कर महा विनयवान दूर बैठा सो श्रीराम राजा शत्रुदमनसे कुशल प्रश्न वार्ता कर सुख से बिराजे राम के आगमन से राजा ने हर्षित होय नृत्य किया महा भक्ति से नगर में चलने की विनती करी,श्रीराम और सीता और लक्षमण एक रथ में विराजेपरम उत्साह से राजाके महल में पधारे मानों वह राजमन्दिर सरोवर ही है स्त्री रूप कमलों से भरा लावण्यरूप जल है जिसमें और शब्द करते
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॥५४॥
जे आभूषण वेई हैं सुन्दर पक्षी जहां यहदोनों वीर नवयौवन महा शोभा से पूण केयक दिन सुख से विराजे राजा शत्रु दमन करे है सेवा जिनकी ॥
अथान्तरसर्वलोक के चित्तको आनन्दके करणहारे रामलक्षमणमहाधीरबीर सीतासहितअर्धरात्रिको उठचले लक्षमण ने प्रियवचनकर जैसे वनमाला को धीर्य बंधायाथा तैसे जितपद्मा को धीर्यबंधायाबहुत दिलासाकर आपश्रीराम के लारभए नगरके सर्बलोक को और नृप को इनके चले जाने से प्रति चिंता भई धीर्यनरहा यहक श्री गौतमस्वामीराजाश्रेणिक से कहे हैं हे मगधाधिपति वे दोनों भाई जन्मांतर के उपार्जेजे पुण्य तिनसे सर्व जीवोंके बल्लभ जहां २ गमन करें तहां २ राजाप्रजासर्व लोक सेवाकरें
और यह चाहें कि यह न जावें तो भला । सर्व ईदियोंके सुखऔर महा मिष्टअन्नपानादि बिनाहीयत्न इनको सर्वत्र सुलभ जे पृथिवी विषे दुर्लभ वस्तु हैं वेसब इनको प्राप्त होय महाभाग्य भव्य जीव सदा.
भोगों से उदास हैं ज्ञान के और विषयों के बैर है ज्ञानी ऐसा चितवन करे हैं कि इन भोगों कर प्रयोजन | नहीं ये दुष्ट नाश को प्राप्त होंय इस भांति यद्यपि भोगों की सदा निन्दाही करे हैं भोगों से विरक्त ही । हैं दीप्ति से जीता है सूर्य जिन्होंने तथापि पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावसे पहाड़के शिखरपर निबोस करे हैं बहां भी नाना प्रकार सामग्री का संयोग होय है जवलग मुनि पद का उदय नहीं तब लग देवों समान सुख भोगवे हैं अड़तीसवां पर्व पूर्ण भया अथानंतर ये दोनो वीर महाधीर सीता सहित बन में पाए कैसा है बन नाना प्रकार केवृक्षों करशोभित अनेक भांति के पुष्पों की सुगन्धिता कर महासुगंध लतावों के मंडपों से युक्त यहां राम लक्षमण रमते रमते आए कैसे हैं दोनों समस्त देवो पुनीत सामग्री कर शरीर का है आधार
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18.0
जिनके कहूं इक मूगों के रंग समान महा सुंदर वृक्षों की कूपल लय श्रीराम के कमिण कर हैं कहूं। | यक वृक्षों में लग रही जो बेल उस कर हिंडोला बनाय दोन क्षोटा देय देय जानकी को झलावे हैं और
आनन्द की कथा कर सीता को विनोद उपजावे हे कभी सीता राम से कहे है, हेदेव यह वृक्ष क्या मनोग्य दीखें हैं और सीता के सुगंधता कर भ्रमर प्राय लगे हैं, सो दोनोंउड़ाबे हैं इसभांतिनाना प्रकार के बन में धीरे धीरे विहार करते दोनों धीर मनोग्य है चारित्र जिनके जैसे स्वर्गके बन विषे देव रमें तैसे रमते भए,अनेकदेशोंको देखते अनुक्रमकर वंशस्थल नगर आए वे दोनों पुण्याधिकारी तिनको सीता के कारण थोड़ी दूर ही श्रावने में बहुत दिन लगे सो दीर्घकाल दुःख क्लेश का देनहारा न भयासदा सुख रूप ही रहे नगरके निकट एक बंशधर नामा पर्वत देखा मानो पृथिवी को भेद कर निकसाहै जहां बांसों के प्रति समूह तिनसे मार्ग विषम है ऊंचे शिखरों की छाया से मानों सदा संध्याको घारे है और निभरनों कर मानों इंसे है सो नगर से रोजा प्रजा को निकसते देख श्रीरामचन्द्र पूछते भए ब्रह्मे क्या भयकर नगर तजो हो तब कोई यह कहता भया श्राज तीसरा दिन है रात्रि के समय इस पहाड़ के शिखर पर ऐसी ध्वनि होय है जो अबतक कभी भी नहीं सुनी पृथिवी कंपायमान होय है और दशों दिशा शब्दायमान होय हैं वृक्षों की जड़ उपड़ जाय हे सरोवरोंका जल चलायमान होय है उस भयानक शब्द कर सर्व लोकों के कान पीडित होय हैं मानों लोहे के मुदगरों कर मारे कोई एक दुष्ट देव जगत् का कटक हमारे मारने के अर्थ उद्यमी होय है इस गिरि पर क्रीडा करे है उस के भयसे संध्या समय लोक ॥ भागे हैं प्रभातमें फिर आवे हैं पांच कोस परे जाय रहें हैं जहां उसकी निन सुनिये यह वार्ता सुन
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पन
॥५४॥
सीता राम लक्षमण से कहती भई जहां यह सब लोक जाय हैं वहाँ आप भी चलें जे नीतिशास्त्र के वेत्ता हैं वे देश कोल कोजान कर पुरुषार्थ करे हैं वे कदाचित् आपदा को नहीं प्राप्त होय हैं तब दोनों धीर हंसकर कहते भए तू भय कर बहुत कायार है सो यह लोकजहांजायहें वहां तू भीजा प्रभात सब आवेतब तू भीपाइयो हम तो आजइसगिरि परे रहेंगे यह अत्यन्त भयानक कौन की ध्वनि होयहै सो देखेंगे यही निश्चय है यह लोक रंक हैं भयकर पशु बालकों को लेय भागे हैं हमको किसी का भय नहीं तव सीता कहती भई तुम्हारे हठको कौन हरिख समर्थ तुम्हारा अाग्रहदुर्निबार है ऐसा कहकर वह पतिव्रता पति के पीछे चली खिन्न भए हैं चरण जिसके पहाड़के शिखर पर ऐसी शोभे मानों निर्मल चन्द्रकांति ही है श्रीराम के पीछे और लक्षमण के आगे सीता कैसी सोहे मानों चन्द्र कांति और इन्द्रनील मणिके मध्यपुष्पराग मणिही है उस पर्वतका आभूषण होती भई राम लक्षमण को यह डर है कि कहीं यह गिरिसे। गिरन पड़े इसलिये इसका हाथ पकड़ लिएजायहें वे निर्भय पुरुषोत्तम विषम, पाषाण जिसके ऐसे पर्वत । को उलंघकर सीतासहित शिखरपरजाय पहुंचे। वहां देशभूषण और कुलभूषण नामादोयमुनि महाप्यानास्ट दोनों भुज लुबाए कायोत्सर्ग आसनघरे खड़े परमतेजकर युक्तसमुद्र सारिखेगंभीर गिरिसारिखेस्थिर शरीर और आत्मा को भिन्न भिन्न जाननहारे मोह रहित नग्न स्वरूप यथाजातरूपके धरनहारे कान्तिके सागर नवयौवन परमसुन्दर महा संयमी श्रेष्ठ हे आकार जिन के जिनभाषित धर्म के आराधनहारे तिन | को श्रीराम लक्षमण देखकर हाथ जोड़ नमस्कार करते भए। और बहुत आश्चर्य को प्राप्त भए चित्त में | | चितवते भए कि संसार के सर्वकार्य प्रसारहैं दुःख के कारण हैं मित्र द्रव्य स्री सर्व कुटुम्ब औरइन्द्रियजनित |
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परा
५५०॥
सुख यह सब दुःख ही हैं एक धर्म ही सुखका कारण है महा भक्तिके भरे दोनों भाई परम हर्ष को घरते विनयसे नम्रीभूत हे शरीर जिनके मुनियोंके समीप बैष्ठे उसीसमय असुरके आगमन से महाभयानक शब्द भया मायामई सर्प और बिच्छु तिनकर दोनों मुनियों का शरीर बेष्टित होय गया सर्प अति भयानक महाशब्द के करणहारे काजल समान कारे चलायमान है जिव्हा जिनकी और अनेक वर्णके अतिस्थूल विच्छु तिनसे मुनियोंके अंग बेटे. देख, राम लक्षमण असुरपर कोपको प्राप्त भए । सीता। भयकी भरी भरतारके अंगसेलिपट गई तब आप कहतेभए तू भयमतकरे इसको धीर्य बन्धाय दोनों सुभटोंने निकट जाय सांप विच्छ मुनियों के प्रांगे से दूर किये चरणारविंदकी पूजाकरी और योगीश्वरों की भक्ति बन्दना करतेभये श्रीराम वीण लेय बजावतेभए और मधुर स्वर से गावतेभए और लक्षमण गान करताभया गानमें ये शब्द गाये महा योगीश्वर धीर वीर मन वचन कायकर वन्दनीक हैं मनोय्यहै। चेष्टा जिनकी देवोंकरभी पूज्य महा भाग्यवन्त जिन्होंने अरिहंतका धर्म पाया जो उपमो रहित अखंड महा उत्तम तीन भवन में प्रसिद्ध जे महा मुनि जिन धर्म के धुरन्धर ध्यान रूप वज्र दण्डसे.महामोह रूप शिलाको चूर्ण करडारें और जे धर्म रहित प्राणियों को अविवेकी जान दयाकर विवेकके मार्ग लावें। परम दयालु अाप तिरें औरों को तारें इसभांति स्तुति कर दोनों भाई ऐसे गावें जो बनके तिर्यन्चों के भी मन मोहित भए और भक्ति की प्रेरी सीता ऐसा नृत्य करतीभई जैसा सुमेरुके विषे शची नृत्यकरें जाना है समस्त संगीत शास्त्र जिसने सुन्दर लक्षणको घरेअमोलक हार मालादि महिरे परम लीला कर युक्त दिखाई है प्रकटपणे अद्भुत नृत्यकी कला जिसने सुन्दर है बाहुलता जिसकी हाव भावादिमें प्रवीण
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पुराण
मन्द मम्द चरणोंको धरती महा लयको लिये गावतीगीत अनुसार भावको वतावती अद्भुत नृत्य करती महा शोभायमान भोसती भई और असुर कृत उपद्रव को मानो सूर्य देख न सका सो अस्तभया और संध्याभी प्रकठ होय जाती रही आकाश में नक्षत्रों का प्रकाश भया दशों दिशामें अन्धकार फैलगया उस समय असुरकी मायासे महा रौद्र भूतोंके गण हड हउ हँसतेभये महा भयंकर हैं मुख जिनके और राक्षस खोटे शब्द करतेभए और मायामई स्यालनी मुखसे भयानक अग्नि की ज्वाला काढ़ती शब्द बोलती भई और सैकड़ों कलेवर भयकारी नृत्य करतेभये, मस्तक भुजा जंघादि अंगोंकी बृष्टि होती भई
और दर्गन्ध सहित स्थल बंद लोहकी बरसतीभई और हाकिनी नग्न स्वरूप लाबें होठ हाडों के शाम | रण पहिरे करहै शरीर जिनके हाले हैं स्तन जिनके खड़ग हैं हाथ में जिनके वे दृष्टि मे श्रावती भई
और सिंह व्याघादिक कैसे मुख तप्त लोह समान लोचन हस्त में त्रिशूल घरे होंठ डसते कुठिल हैं भौंह जिनकी कठोर हैं शब्द जिनके ऐसे अनेक पिशाच नृत्य करतेभए पर्वतकी शिला कम्पायमान भई और भूकम्प भया इत्यादि चेष्टा असुरने करा सो महामुनि शक्लभ्यानमें मग्न न जानतेभए ये चेष्टा देख जानकी भयको प्राप्तभई पतिके अंग से लगगई तब श्रीराम कहतेभए हे.देवी भय मतकर सर्व विघ्नके हरणहारे जे मुनिके चर्ण तिनका शरपगहा ऐसा कहकर सीताको मुनिके पायन मेल श्राप लक्षमणसहित धनुष हाथ में लिये महाबली मेघसमान गरजे धनुष के चढ़ायवेका ऐसा शब्दभया जैसा वज्रपातका शब्दहोय तब
वह अग्निप्रभ नामा असुर इन दोनों वीरोंको बलभद्र नारायण जान भागगया उसकी सर्वचेष्टा विलाय || गई श्रीराम लक्षमणने मुनिका उपसर्ग दूरकिया तत्काल देशभूषण कुलभूषण मुनियों को केवल उपजा।
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पद्म पुराव 1५२॥
चतुरनिकाय के देव दर्शन को पाऐ विधिपूर्वक नमस्कारकर यथा योग्य वैठे केवल ज्ञानके प्रतापसे केवली के निकट रात दिनका भेद न रहे भूमिगोचरी और वद्याधर केवलीकी पूजाकर यथा योग्य बैठे सुर नर विद्याधर सबही धर्मोपदेश श्रवण करते भये रामलक्षमणहर्षितचित्त सीता सहित केवलीकी पूजाकर हाथ जोड़ नमस्कारकर पूछतेभये हे भगवान असुरने पापको कौन कारण उपसर्ग किया और तुम दोनों में परस्पर अति स्नेह काहेसे भया व केवलीकी दिव्यध्वनि होतीभई। पद्मनीनामा नगरीमें राजाविजयपर्वत गुणरूप घान्यके उपजिवेका उत्तमचे। जिसके धारणीनामा स्त्री और अमृतसुर नामा दूत सर्व शास्त्रों में प्रवीण राज काज विषे निपुण लोकरीति को जाने और जिसको गुणही प्रिय उसके उपभोग नोमा स्त्री उसकी कुक्षि से उपजे उदित मुदित नामा दोय पुत्र व्यवहार में प्रवीण सो अमृतसुर नामा दूत को राजाने कार्य निमित्त बाहिर भेजा सो वह स्वामी भक्त मसुभूतिमित्र सहित चला वसुभूति पापी इस की स्त्री से आसक्त दुष्टचित्त सो सत्रि में अमृतसुर को खड्ग से मार नगरी में वापिस आया लोगों से कही मुझे वापिस भेज दिया है और उसकी स्री उपभोग से यथार्थ वृत्तान्त कहो तब वह कहती भई मेरे दोनों पुत्रों कोभी मार ताकि हम दोनों निश्चिन्त तिष्ठे सो यह वार्ता उदितकी बहूंने सुनी और सर्व वृत्तान्त उदितसे कहा यह बह सास के चरित्रको पहिले भी जानती थी इसको वसुभूति की बह ने समाचार कहे थे जो परदारा के सेवन से पतिसे विरक्त थी सो उदित ने सर्व वातोंसे सावधान होय मुदितको भी सावधान किया और वसुभूतिका पड़ग देख पिताके मरणका निश्चयकर उदितने बसुभूति को मारा सो पापी मरकर म्लेछकी योनि को प्राप्त भया ब्राह्मणथा सो कुशीलके और हिंसाके दोष से
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पत्र
॥५५३५
चांडालका जन्म पाया एक समय मतिवर्धननामा प्राचार्य मुनियों में महातेजस्वी पद्मनी नगरी पाए सो बसंततिलकनामा उद्यानमें संघसहित विराजे और आर्यिकावोंकी गुरानी अनुधरा धर्म ध्यान में तत्परसो भी अार्थिकादियोंके संघसहित आई सो नगरके समीप उपवनमें तिष्ठी और जिस बनमें मुनि विराजें थे उसबनके अधिकारी माय राजासे हाथ जोड़ बिनती करतेभए हेदेव अागेको या पीछे को कहो संघ कौन तरफ जावे तब राजाने कही कि क्याबातहै वे कहतेभए उद्यानमें मुनि पाएहैं जो मने करें तो डरें जो नहीं मनेकरें तो तुम कोपकरो यह हमको बड़ा संकटहै स्वर्गके उद्यानसमान यह बन है अबतक काहूको इसमें आने न दिया परंतु मुनियोंका क्याकरें वे दिगम्बर देवोंकर न निवारे जावें हम सारखेकैसे निवारतब राजानेकही तुममतमनेकरोजहांसाधु विराजेसो स्थानकपवित्रहोयहै सो राजाबडी विभूतिसे मुनियों के दर्शनको गया वे महाभाग्य उद्यानमें विराजेथे बनकी रजसे धूसरे हैं अंगजिनके मुक्ति । योग्य जो क्रिया उससे युक्त प्रशांतहे हृदय जिनके कैयक कायोत्सर्ग धरे दोनों भुजा लुवांय खडे हैं । कैयक पदमासनवरे विराजे हैं बेला तेला चौला पंच उपवास दस उपवास पक्षमासादि अनेक उपवासों
से शोषाहै अंग जिन्होंने पठन पाठनमें सावधान भ्रमर समान मधुर, शब्द जिनके शुद्ध स्वरूप विषे. लगायाहै वित्त जिन्हों ने सोराजा ऐसे मुनियोंको दूरसे देख गर्न रहितहोय गजसे उतर सावधान होय सर्व मुनियों को नमस्कार कर प्राचार्य के निकट जाय तीन प्रदक्षिणादेय प्रणामकर पूछता भया हे नाय जैसी तुम्हारे शरीरमें दीप्ति है तैसे भोग नहीं तब प्राचार्य कहते भए यह कहां बुद्धि तेरी तू शूखीरको स्थिर जाने है यह बुद्धि संसारको बढ़ावन हारी है.जैसे हाथीके कान चपल तैसा
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पप
पुराण ॥५५४॥
जीतव्य चपलहै यह देह कदलीके थंभसमान असारहै और ऐश्वर्य स्वप्न तुल्यहै घर कुटम्ब पुत्र कलत्र बांधव सब असारहैं ऐसा जानकर इस संसारकी मायामें क्या प्रीति यह संसार दुःखदायकहै यह प्राणी अनेक बार गर्भवासके संकट भोगवे हैं गर्भवास नरक तुल्य महाभयानक दुर्गन्ध कृमिजालकर पूर्ण रक्त श्लेषमादिकका सरोवर महा अशुचि कर्दमका भराहै यह प्राणी मोहरूप अंधकारसे अन्धा भया गर्भवाससे नहीं डरे है धिक्कारहै इस अत्यन्त अपवित्र देहको सर्व अशुभकास्थानक क्षणभंगुर जिसका कोई रक्षक नहीं जीव देहको पोषे वह इसे दुःखदेय सो महाकृतग्न नसा जाल कर बेढ़ा चर्म से ढका अनेक रोगोंका पुंज राजा के आगमनसे ग्लानिरूप ऐसे देहमें जे प्राणी स्नेह करे हैं वे ज्ञान रहित अविवेकी हैं तिनके कल्याण कहांसे होयहै और इसशरीरविष इंद्रियचोर बसे हैं वेबलात्कार धर्मरूप धनको हरे हैं यह जीवरूप राजा कुबुद्धिरूपस्त्रीसो रमे हैं और मृत्यु इसको अचानक असा चाहे है मनरूप माता हाथी विषयरूप बनमें क्रांडा करे है ज्ञानरूप अंकुशसे इसे वशकर वैराग्यरूप थंभ से विवेकी बांधे हैं यह इंद्रियरूप तुरंग मोहरूप पताका को घरे पर स्त्री रूप हरित तृणों में महा लोभको धरते शरीररूप रयको कुमार्गमें पाडे हैं चित्तके प्रेरे चंचलता धरे हैं इसलिये चितको बश करना योग्य है. तुम संसार शरीर भोगोंसे विरक्तहोय भक्तिकर जिनराजको बारम्बार नमस्कार करो निरन्तर सुमरो जिससे निश्चयसे संसार खमुद्रको तिरो तप संयमरूप बाणोंसे मोहरूप शत्रुको हण लोक के शिखर अविनाशीपुरका अखंड राज्य करो निर्भय निजपुर में निवास करो यह मुनि के मुख से वचन सुन कर राजा विजयपर्वत मुबुद्धि राज्य तज मुनि भया और वे दूतके पुत्र दोनों भाई उदित मुदित जिनवाणी
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१५५५०
मुन मुनि होय महीपर विहार करते भए सम्मेद शिखरकी यात्राको जाते थे किसी प्रकार मार्ग भूल वन में जाय पड़े वह वसूभूति विप्रका जीव महारौद्र भील भयाथा उसने देखे अति क्रोधायमान होय कुठार समान कुवचन बोल इनको खडे राखे और मारने को उद्यमीभया तब बडाभाई उदित मुदितसे कहताभया कि हे भात भय मतकरो क्षमा ढालको अंगीकार करो यह मारने को उद्यमी भयाहै सो हमने बहुत दिन. तपसे क्षमाका अभ्यास किया है सो अब दृढ़ता राखनी यह वचन सुन मुदित बोला हम जिनमार्ग के सरधानी हमको कहां भय, देह तो बिनेश्वर ही है और यह वसुभृति का जीव है जो पिता के वैर से माग था परस्पर दोनों मुनि ए बार्ताकर शरीर का ममत्वतज कायोत्सर्गधारतिष्ठे वह मारनेकोभाया सोम्लेछ कहिए भील तिन के पतिने मने किया दो मुनि बचाए यह कथा सुन रामने केवली से प्रश्न किया हे देव उसने बचाए सो उसको प्रीति का कारण क्या तब केवली की दिव्य ध्वनिमें प्राज्ञाभई एक यक्ष स्थान नामग्राम वहां सुरप और कर्षक दोनोभाई थे एक पक्षीको पारधीजीवता पकड़ उसे ग्राममें लाया सो इन दोनों भाईयोंने द्रब्य देय छुड़ाया सो पक्षी मरकर म्लेछ पति भया और वे सुरप कर्षक दोनों। वीर उदित मुदित भये परोपकार कर उसने इनको वचाएजो कोई जिस से नेकी करे है सोवह भी l उससे नेकी करे है और जो काहू से बुरी करे है उस से वह भी बुरी करे है यह संसारी जीवों की
रीति है इस लिये सबों का उपकार ही करो किसी प्राणी से बैर न करना एक जीवदया ही मोक्ष । का मारग्र है, दया बिना ग्रन्थों के पढ़ने से क्या एक सुकृत ही मुख का कारण सो करना, वे उदित - मुदित मुभि उपसर्गसेछूट सम्मेद शिखर की यात्रा को गए और अन्य भी अनेक तीर्थों की यात्राकरी ||
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पुराख
रत्नत्रय का अाराधन कर समाधिसे प्राणतज स्वर्ग लोक गए और वह वसुभूति का जीवजो म्लेषभया ॥
था सोअनेक कुयोनियों में भ्रमणकर मनुष्यदेह पायतापसव्रतधरअज्ञान तपकरमरजोतिषी देवोंके विषे अग्निकेतु नामा करदेवभया और भरत क्षेत्रकेविषम अरिष्टपुरनगर जहांराजाप्रियवतमहा भोगी उसके दो। राणी महागुणवती एककनकप्रभा दूजीपद्मावती सोवे उदित मुदितके जीवस्वर्गसे चयकर पद्मावतीराणीके | रत्नस्थ विचित्ररथनामा पुत्रभए और कनकप्रभाके वह जोतिषीदेव चयकर अनुधरनामा पुत्रभया राजा प्रिय ब्रत पुत्रको राज्यदेय भगवानके चैत्यालयमें छह दिनका अनशन धार देह त्याग स्वर्गलोक गए।
अथानन्तर एक राजाकी पुत्री श्रीप्रभा लक्ष्मी समान सो रत्नरथने परणी उसकी अभिलाषा अनुधर के थी सो रत्नग्थसे अनुधरका पूर्व जन्म तो वैरही था फिर नया बैर उपजा सो अनुधर रत्नरथ की
थ्वी उजाड़ने लगा तब रत्नरथ और विचित्ररथ दोनों भाइयोन अनुधर को युद्ध में जीत देश से निकास दिया सो देशसे निकासनेसे और पूर्व बैरसे महाक्रोधको प्राप्तहोय जटा और बक्कलकाधारी तापसी भया विषवृक्ष समान कषाय विषका भरा और रत्नस्थ विचित्ररथ महातेजस्वी चिरकाल राज्य कर मुनि होय तपकर स्वर्गके विषे देवभए महा सुख भोग वहांसे चयकर सिद्धार्थ नगर के विषे राजा तेमंकर राणी विमला तिनके महा सुंदर देश भूषण कुलभूषण नामा पुत्र होतेभए सो विद्या पढ़ने के अर्थ घरमै उचित क्रीडा करते तिष्ठे उस समय एक सागरघोषनामा पंडित अनेक देशमें भूमणकरता पाया सो राजाने पंडितको बहुत अादरसे राखा और ये दोनों पुत्र पढनेको सौंपे सो महा विनयकर संयुक्त | सर्व कला सीखी. केवल एक विद्या गुरुको जाने या विद्याको जाने और कुटम्बमें काहूको न जाने।
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पा पुराण
॥५५७॥
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तिनके एक विद्याभ्यासही का कार्य विद्यागुरुसे अनेक विद्या पढी सर्वकलाके पारगामी होय पितापै भए सो पिता इनको महाविद्वान सर्व कला निपुण देखकर प्रसन्नभया । पंडितको मनवांछित दान दिया यह कथा केवली रामसे कहे हैं वे देशभूषण कुलभूषण हम हैं सो कुमार अवस्था में हमने सुनी जो पिताने तुम्हारे बिवाह के अर्थ र जकन्या मंगाई हैं । यह वार्ता सुनकर परम विभूति घरे तिन की शोभा देखने को नगर बाहिर जायवे के उद्यमी भए सो हमारी बहिन कमलोत्सवा कन्या झरोखे में बैठी नगरकी शोभा देखथी सो हमतो विद्या के अभ्यासी कभी किसीको न देखा न जाना हम न जाने यह हमारी बहिन है अपनी मांग जान विकाररूप चित्त किया दोनों भाइयों के चित्त चले दोनों परस्पर मन में विचार भए इसे मैं पर दूजा भाई परणाचा है तो उसे मारूं सो दोनों के चितमें विकार भाव और निदई भाव भया उसही समय बन्दीजनके मुखसे ऐसा शब्द निकसा किराजा क्षेमंकर विमला राणीसहित "जयवन्त होवे जिसके दोनों पुत्र देवन समान और यह झरोके में बैठी कमलोत्सवा इनकी बहिन सरस्वती समान दोनों बीर महागुणवान और बहिन महा गुणवंती ऐसी सन्तान पुण्याधिकारियों के ही होय है जब यह वार्ता हमने सुनी तब मनमें बिचारी अहो देखो मोह कर्म की दुष्टता जो हमारे बहिनकी अभिलाषा उपजी यह संसार असार महा दुःखका भरा हाय जहां ऐसा भाव उपजे पापके योग से प्राणी नरकजांय वहां महादुःख भोगें यह विचारकर हमारे ज्ञान उपजा सो वैराग्यको उद्यमी भए । तब माता पिता स्नेहसे व्याकुल भए हमने सबसे ममत्व तज दिगम्बरी दीचा आदरी श्राकाशगामिनी रिद्धिसिद्ध भई नानाप्रकारके जिन तीर्थादिमें बिहार किया तपही है घन जिनके और माता पिता
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।।५५८
राजाक्षमंकर अगलेभी भवका पिता सो हमारे शोकरूप अग्निकर तप्तायमानहुवा सर्व आहारतजमरण को प्राप्त भया सो गरुडेंन्द्र भयो । भवन वासी देवों में गरुड़ कुमार जाति के देव तिन का अधिपति महा सुन्दर महा पराक्रमी महालोचन नाम सोपाय कर यह देवों की सभा में बैठा है और वह अनुधर तापसी विहार करता कौमुदी नगरी गया अपने शिष्यों के समूह से बेढा वहां राजा सुमुख उसके राणी रतिवती परम सुन्दरी सैंकड़ों गणियों में प्रधान और उसके एक नृत्यकारनी मद की पताका ही है, अतिसुन्दर रूप । अद्भुत चेष्टा की धरणहारी, उसने साधुदत्त मुनि के समीप सम्यक्दर्शन ग्रहा तबसे कुगुरु कुदेव कुधर्म । को तृणवत् जाने उसके निकट एक दिन राजा ने कही यह अनुधर तापसी महातप का निवास है।। तब मदनाने कही हे नाथ अज्ञानी का कहां तप लोक में पाखण्ड रूप है यह सुनकर राजाने क्रोध किया तू । तपस्वी की निन्दा करे है, तब उसने कही आप कोप मत करो थोड़े ही दिन में इसकी चेष्टादृष्टि पडेगी ऐसा कहकर घर जाय अपनी नागदत्ता नामा पुत्री को सिखाय तापसी के आश्रम पठाई, सो वह देवांगना समान परम चेष्टा की धरणहारी महा विभ्रम रूप तापसी को अपना शरीर दिखावती भई, सो इस के अंग उपंग महा सुन्दर निरख कर अज्ञानी तापसी का मन मोहित भया और लोचन चलायमान भए जिस अंग पर नेत्र गए वहां ही मन बन्ध गया काम बाणों सेतापसी पीडित भयाव्याकुल होय देवांगना समान जो यह कन्या उसके समीप आय पछता भया, तू कौन है और यहां क्यों आई है सन्ध्या काल में सव ही लघु बृद्ध अपने स्थानक में तिष्ठे हैं । तू महासुकुमार अकेली बनमें क्यों विचरे है, तब वह कन्या मधुरशब्द कर इसका मनहरती सन्ती दीन्ता को लिये बोली चंचलनील कमल समान हैं लोचन
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॥५५॥
पद्म जिसके हे नाथ दयावान् शरणागत प्रतिपाल आजमेरी माताने मुझे घरसे निकास दई सो अवमें तुम्हारे
भेषकर तुम्हारे स्थानक रहना चाहूं हूं तुम मो सो कृपा करो रोत दिन तुम्हारी सेवाकर मेरा यह लोक परलोक सुधरेगा धर्म, अर्थ काम इन में कौन सा पदार्थ है जो तुम में न पाइये तुम परम निधान हो में पुण्य के योग से तुमपाये इसभांति कन्याने कही तब इसका मनअनुरागी जान विकल तापसी कामकर प्रज्वलित बोला हे भद्र में क्या कृपा करूं तू कृपा कर प्रसन्न हो मैं जन्म पर्यंत तेरी सेवा करूंगा ऐसा कहकर हाथ चलावने का उद्यम किया तब कन्या अपने हाथ से मने कर आदर सहित कहती भई । हे नाथ में कुमारी कन्या तुम को ऐसा करना उचित नहीं, मेरी माता के घर जाय कर पूछो घरभी निकटही है जैसी मो पर तुम्हारी करुणा भई है,तैसे मेरी मा को प्रसन्न करो वह तुम को देवेगी तब जो इच्छा होय सो करियो, यह कन्याके वचन सुन मूढ़तापसी व्याकुल होय तत्काल कन्याकी लार रात्रिको उसकी माताके पास
आया, काम कर व्याकुल है सब इन्द्रिय जिस की जैसे माता हाथी जल के सरोवर में बढ़े तैसे नृत्यकारिणी के घरमें प्रवेश किया। गौतम स्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हैं हे राजन् कामकर प्रसाहुवा पाणी न स्पर्श न आस्वादेन सूघे न देखे न सुने न जाने न डरे और नलज्जा करे महा मो हसे निरन्तर कष्टको प्राप्त होय है जैसे अन्धा प्राणी सों के भरे कूप में पड़े तैसे कामान्ध जीव स्त्री के विषयरूप विषमकूपमें पडे सो वह तापसी नृत्यकारिणी के चरणों में लोट अति अधीन होय कन्या को याचताभया उसने तापसी को बांध राखा राजाको समस्याथी सो राजा ने आयकर रात्रिको तापसी पन्धा देखा प्रभात तिरस्कार निकास दिया सो अपमान कर लज्जायमान महोदुःख को धरताहुवो पृथिवी में भ्रमणकर मूवा अनेक
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पुराव ॥५६॥
कुयोनियोंमें जन्म मरण किए फिर कर्मानुयोगकर दरिद्रीके घर उपजा जब यह गर्भ में पाया तवही इसका माताने उसके पिताको कर बचन कहकर कलह किया सो उदास होय विदेश गया और इसका जन्म भया बालक अवस्थाही थी कि तब भीलोंने देश के मनुष्य वन्द किये सो इसकी माताभी वन्दीमें गई सर्व कुटुम्ब रहित यह परमदुखी भया कई एक दिन पीछे तापसी होय अज्ञान तपकर ज्योतिषी देवोंमें अग्निप्रभा नामा देव भया और एक समय अनन्तवीर्य केवलीको धर्म में निपुण जो शिष्य तिन्होंने पूछा कैसे हैं केवली चतुरनिकाय के देव और विद्याधर तथा भूमिगोचरी तिनसे,सेवित हे नाथ! मुनिबत नाथके मुक्ति गये पीछे तुम केवलीभए अब तुम समान संसारका तारक कौन होयगा तब उन्होंने कही देश भूषण कुलभूषण होवेंगे केवल ज्ञान और केवल दर्शनके धरणहारे जगत् में सार जिनका उपदेश पायकर लोक संसार समुद्रको तिरेंगे ये वचन अग्निपभने सुने सो सुनकर अपने स्थानक गया इन दिनोंमें कुअवधि कर हमको इस पर्बतमें तिष्ठेजान अनन्तवीर्य केवलीका वचन मिथ्या करूं ऐसा गर्वघर पूर्व बैरकर उपद्रव करने को आया सो तुमको बलभद्र नारायण जान भयकर भाजगया हे राम तुम चरम शरीरी तद्भव मोक्षगामी बलभद्र हो और लक्षमण नारायण है उस सहित तुमने सेवाकरी और हमारे घातिया कर्मके क्षयसे केवल ज्ञानउपजा इसप्रकार प्राणीयोंके वरकाकारण सर्व बैरानुबन्ध है ऐसा जानकर जीवोंके पूर्वभव श्रवणकर हे प्राणीहो रागद्वेष तज निश्चल होवो ऐसे महापवित्र केवीके वचन सुन सुरनर असुर बारम्बार नमस्कार करतेभये और भव दुःखसे डरे और गरुडेन्द्र परम हर्षित होय केवलीके चरणारविदको नमस्कार कर महा स्नेहकी दृष्टि बिस्तारता लहलहाट करे हेमणि कुण्डल जिसके रघुवंशमें उद्योत करणहारे जे राम तिनसों
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प्रय
कहता भया हे भव्योत्तम तुम मुनियों की भक्ति करी सो में अति प्रसन्न भया ये मेरे पूर्व भव के पुत्र हैं जो तुम मांगो सो में देहुं तब श्रीरघुनाथ क्षण एक विचार कर बोले तुम देवन के स्वामी हो कभी हमपै अोपदा परे तो चितारियो साधुवोंकी सेवाके प्रसादसे यह फल भयाजो तुम सारिखोंसे मिलाप भया दब गरुडेन्द्रनेकही तुम्हारा वचन में प्रमाण किया जब तुमको कार्य पड़ेगा तब मैं तुम्हारे निकटहीहूं ऐसा कहा तब अनेक देव मेघकी ध्वनि समान वादित्रोंके नाद करतेभये साधुवोंके पूर्वभव सुन कईएक उत्तम मनुष्य मुनिभये कई एक श्रावकके व्रत धारतेभए वे देशभूषण कुलभूषण केवली जगत् पूज्य सर्व संसार के दुःखसेरहित नगर ग्राम पर्वतादि सर्व स्थानमें विहारकर धर्मका उपदेश देतेभये यह दोनों केवलियों के पूर्व भवका चरित्र जे निर्मल स्वभाव के धारक भव्यजीव श्रवण करें ये सूर्य समान तेजस्वी पाप रूप तिमिरको शीघ्रही हरें।। इति श्रीउनतालीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ - अथानन्तर केवली के मुख से समचन्द को चरम शरीरी कहिये तद्भव मोक्षगामी सुतकर सकल राजा जय जय शब्द कहकर प्रणाम करतेभये और वंशस्थलपुरका राजा सुरप्रभ महा निर्मल चित्त राम लक्ष्मण सीताकी भक्ति करता भया महिलों के शिखरकी कांति से उज्वल भयाहै आकाश जहां ऐसा जो नगर वहां चलनेकी राजा ने प्रार्थना करी परन्तु राम ने न मानी वंशगिरि के शिखर हिमाचल के शिखर समान सुन्दरजहां नलिनी वन में महा रमणीक विस्तीर्ण शिला वहां आप हंस समान विराजे कैसा है वन? मानाप्रकार के वृक्ष और लताओं कर पूर्ण और नानाप्रकार के पची करहै नादजहां सुगन्ध पवन चले है भान्ति २ के फल पुष्प उनसे शोभित और सरोवरों में कमल फूल रहे हैं स्थानक पति
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|| सुन्दर सर्व ऋतु की शोभा जहां बन रही है शुद्ध पारसी के तल समान मनोग्य भूमि पांच वर्ण के
रत्नों से शोभित जहां कुंदमौलमिरी मालती स्थल कमल जहां अशोकवृत्त नागवृच इत्यादि अनेक भ६२
प्रकार के सुगन्ध बृक्ष फूल रहे हैं तिन के मनोहर पल्लव लहलहाट करे हैं वहां राजा की आज्ञा कर महा भक्तिवन्त जे पुरुष उन्होंने श्रीरामको विराजने के निमित्त बस्त्रों के महामनोहर मण्डप बनाये सेवक जन महाचतुर सदा सावधान अति आदर के करण हारे मंगल रूप बाणी के बोलनहारे स्वामीकी भक्ति विषे । तत्पर उन्होंने वहुत तरहके चौडे ऊंचे वस्त्रों के मण्डप बनाये नाना प्रकार के चित्राम हैं जिनमें और जिन पर ध्वजा फर हरे हैं मोतियों की माला जिन के लटके हैं क्षुद घंटिकाओं के समूह कर युक्त और जहां मणियों की झालर लूंब रही हैं महा देदीप्यमान सूर्यकी सी किरण धरे और पृथिवी पर पूर्ण कलश थापे है
और छत्र चमर सिंहासनादि राज चिन्ह तथा सर्व सामग्री धरे हैं अनेक मंगल द्रव्य हैं ऐसे सुन्दर स्थल विषे सुख सों तिष्टे हैं, जहां जहां रघुनाथ पांव घरे वहां वहां पृथिवी पर गजा अनेक सेवा करें शय्या श्रासन मणि सुवर्ण के नाना प्रकारके उपकरण और इलायची लवंग ताम्बूल मेवा मिष्ठान्ह तथा श्रेष्ठ वस्त्र अद्भुत ग्राभूषण और महा सुगन्ध नाना प्रकारके भोजन दघि दुग्ध घृत भान्ति भान्ति के अन्न इत्यादि अनुपमवस्तु लावें इस भांति सर्व ठोर सब जन श्रीरामको पूजें वंशगिरिपर श्रीराम लक्षमण सीताके रहनेको मण्डप रचे तिनमें किसी ठौर गीत कहीं नृत्य कहीं वाजित्रवाजे हैं कहीं सुकृतकी कथा होयहै और नृत्य कारिणी ऐसा नृत्य करें मानों देवांगनाही हैं कहीं दान बटे हैं ऐसे मन्दिर बनाए जिनका कौन वर्णन करसके जहां सब सामग्री पूर्ण जो याचक आवें सो विमुख न जाय दोनों भाई सर्व ग्राभरणों
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॥५६३॥
से युक्त सुन्दर माला सुन्दर वस्त्र धरें मनवांछित दानके करणहारे महा यशसे मण्डित और सीता परम पुराक सौभाग्य की धरणहारी पापके प्रसंग से रहित शास्त्रोक्त रीतिकर रहे, उसकी महिमा कहांतक कहिए।
और वंश गिरिपर श्रीरामचन्द्रने जिनेश्वर देवके हजारों अद्भुत चैत्यालय महादृढ़हें स्तम्भ जिनके योग्य है लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई जिनकी और सुन्दर झरोखोंसे शोभित तोरण सहित हैं द्वार जिनके कोट और खाई कर मण्डित सुन्दर ध्वजावोंसे शोभित बन्दना के करणहारे भव्यजीव तिनके मनोहर शब्दसे संयुक्त मृदंग वीण वांसुरी झालरी झांझ मंजीरा शंख भेरी इत्यादि वादित्रों के शब्दकर शोभायमान निरन्तर आरम्भए हैं महा उत्सव जहां ऐसे रामके रचे रमणीक जिन मन्दिर तिनकी पंक्ति शोभतीभई वहां पंच वर्ण के प्रति बिंब जिनेन्द्र सर्व लक्षणोंकर संयुक्त सर्व लोकों से पूज्य विराजते भये एक दिन श्रीराम कमल लोचन लक्षमणसे कहतेभये हे भाई यहां अपने ताई दिन बहुत बीते और सुखसे इस गिरि पर रहे श्रीजिनेश्वरके चैत्यालय बनायवे कर पृथिवी में निर्मल कीर्ति भई और इस वंशस्थलपुर के राजा ने अपनी बहुत सेवा करी अपने मन बहुत प्रसन्न किए अब यहांहीरहें तो कार्यकी सिद्धि नहीं और इन भोगों कर मेरा मनप्रसन्न नहीं ये भोग रोगके समानहें ऐसाभी जानेंहूं तथापि ये भोगोंके समूह मुझे क्षणमात्र नहीं छोड़ें हैं सो जबतक संयम का उदय नहीं तब तक ये विना यत्न आय प्राप्त होय हैं इस भवमें जो कम यह प्राणी करे है उसका फल पर भव में भोगवे है और पूर्व उपार्जे जे कर्म तिनका फल वर्तमान काल विषे भोगे है इस स्थल में निवास करते अपने सुख संपदा है परन्तु जे दिन जाय हैं वे । फेर न पावें नदीका वेग और आय के दिन और यौवन गए वे फेर न पावें इसलिये करनारवा नाम
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पुरास
॥५४॥
नदी के समीप दंडक बन सुनिये है वहां भूमिगोचरियोंकी गम्यता नहीं और वहां भरतकी आज्ञा का | भी प्रवेश नहीं वहां समुद्र के तट एक स्थानक बनाय निवास करेंगे यह रामकी शाज्ञा सुन लक्षमलने विनती करी हे नाथ आप जो आझ करोगे सोई होयगा ऐसाविचार दोनोंवीर महा धीर इन्द्रसारिखेभोग भोग वंशगिरिसे सीतासहित चले राजा सुप्रभ वंशस्थलपुर का पति लार चला सो दूरतक गया आप विदाकिया सो मुश्किलसे पीछे बाहुडा महा शोकवन्तअपने नगरमें पाया श्रीरामका विरह कौनकौनकों शोकवन्त न करेगौतम स्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हैं हे राजन् ! वह वंशगिरिबड़ापर्वत जहां अनेक धातु सो रामचन्द्र ने जिन मंदिरोंकी पंक्ति कर महा शोभायमान किया कैसे हैं जिन मन्दिर दिशावोंके समूह | को अपनी कांतिसे प्रकाशरूपकरे हैं उस गिरि पर श्रीरामने परम सुन्दर जिन मन्दिर बनाए सो वैशगिरि समगिरि कहाया इस पृथिवी पर प्रसिद्धभया रवि समान है प्रभा जिसकी । इति चालीसवां पर्व संपूर्णम् ___अथानन्तर राजा अरण्य के पोता दशरथ के पुत्र राम लक्षमण सीतासहित दक्षण दिशाके समुद्र को चले कैसे हैं दोनों भाई महो सुःख के भोक्ता नगर ग्राम तिनकरभरे जे अनेक देश तिनको उलंघ करे महा बनमें प्रवेश करतेभये जहां अनेक मृगों के समूह हैं और मार्ग सूझे नहीं और उत्तम पुरुथे। की वस्ती नहीं जहां विषम स्थानक सो भीलभी विचर न सके नाना प्रकारके वृक्ष और बेल उन कर भरा महा विषम अति अन्धकार रूप जहां पर्वतोंकी गुफा गम्भीर निझरने झरें हैं उस बनमें जानकी प्रसंग से धीरे धीरे एक एक कोस रोज क्ले दोनों भाई निर्भय अनेक क्रीडा करणहारे करनरवानदी । पहुंचे जिसके तट महा स्मणीक प्रचुर तृणोंके समूह और सामानता धरै महाकायाकारी अनेकवृक्षफल,
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पुराव ५६
पद्म | पुष्पादिसे शोभित और जिसके समीप पर्वत ऐसे स्थान को देख दोनों भाई वार्ता करते भये यह कन।
अति सुन्दर ऐसा कह कर रमणीक वृक्ष की छाया में सीता सहित तिष्ठे क्षण एक तिष्ठ कर वहां के रमणीक स्थानक निरख कर जल क्रीड़ा करते भये फिर महा मिष्ट आरोग्य पक्व फल फलों के आहार बनाए सुख की है कथा जिनके वहां रसोई के उपकरण और वासणमाटी के और बांसों के मानो प्रकार तत्काल बनाए, महा स्वादिष्टसुन्दरसुगंध आहार बन के धान सीता ने तैय्यार किये भोजन के समय दोनों वीर मुनिके पायबे के अभिलाषी द्वारापेषण को खड़े उस समय दो चारण मुनि पाएसुगुप्ति और गुप्ति हैं नाम जिनके ज्योतिपटल कर संयुक्तहै शरीर जिनका और सुन्दर है दर्शन जिनका मति श्रुति अवधि तीन बान विराजमान महाव्रत के धारक परमतपस्वी सकलवस्तु की अभिलाषा रहित निर्मल हैं चित्त जिनके मासोपवासी महा धीर बीर शुभचेष्टा के धरणहारे नेत्रोंको आनन्द के करता शास्त्रोक्त । । प्राचार कर संयुक्त है शरीर जिनका सोपाहार को आए सो दूरसे सीताने देखे तक महा हर्षकेभरे नेत्र जिस
के और रोमांच कर संयुक्त है शरीर जिसका पति सो कहती भई हे नरश्रेष्ठदेखो देखोतप करदुर्बल शरीर दिगम्बर कल्याण रूप चारण युगल पाए तब रामने कही हे प्रिये हे पंडिते हे सुन्दरमूर्ति वे साधु कहाँ कहां हैं हे रूप प्राभरणकी घरणहारी धन्यहेंभाग्य ते रेते नै निम्रन्थ युगल देखे जिनके दर्शन से जन्म जन्मके पाप जावें भक्तिवन्त प्राणीके परमकल्याण होय जब इसभांति रामने कही तक्सीतो कहतीभई ये
आर ये भाए तबही दोनों मुनि राम की दृष्टि परे जीव दयाके पालक ईर्या समति सहित समाधान रूप हैं मन जिनके तब श्रीराम ने सीता सहित सन्मुख जाय नमस्कार कर महाभक्ति युक्त श्रद्धा सहित मुनियों।
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पद्म
पुराण
को आहार दिया चरणी भैंसों का और वन की गायों का दुग्ध और छुहारे गिरी दाप नाना प्रकार के ६६. बनके धान्य सुन्दर घी मिष्टान्न इत्यादि मनोहर वस्तु विधिपूर्वक तिनसे मुनियोंको पारणा करावते भए
मुनि भोजन के स्वाद लोलुपता से रहित निरंतराय आहार करते भए जबराम ने अपनी स्री सहित भक्ति कर आहार दिया तब पंचाश्चर्य भए रत्नों की वर्षा पुष्पबृष्टि शीतल मन्दसुमन्ध पवन और दुंदुभी बाजे जयजयकार शब्द सो जिससमय राम के मुनियों का आहार भया उससमय बन में एक गृध्र पक्षी अपनी इच्छा कर वृक्ष पर तिष्ठे था सो अतिशय कर संयुक्त मुनियों को देख अपने पूर्वभव जानता भया कि कोई एक भव पहिले मुनुष्य था सो प्रमादी अविवेक कर जन्म निष्फल खोया तप संयम न किया धिकार मुझ मूढ बुधिको अब मैं पापके उदयसे खोटी योनि में चाय पड़ा क्या उपाय करूं मुझे मनुष्य भव में पापी जीवों ने भरमाया वे कहिने के मित्र और महाशत्रु सो उनके संग में धर्म रत्न तजा और गुरुवों के वचन उलंघ महापाप आचरा मैं मोहकर अन्ध अज्ञान तिमिर कर धर्म न पहिचाना अब अपने कर्म चितार उर में जलूं हूं बहुत चिंतवन कर क्या दुखके निवारने के अर्थ इन साधुवोंका शरण गहूं ये सर्व सुखके दाता इनसे मेरे परम अर्थकी प्राप्ति निश्चय सेती होयगी इस भान्ति पूर्वभवके चितारनेसे प्रथम तो परम शोकको प्राप्त भयाथा फिर साधुवों के दर्शन से तत्काल परम हर्षित होय अपनी दोनों पांखहलाय
सुवोंसे भरे हैं जिसके महा विनयकर मण्डित पक्षी वृक्ष के अग्रभाग से भूमिमें पड़ा सो महा मोटा पक्षी उसके पड़ने के शब्दसे हाथी और सिंहादि बनके जीव भयकर भाग गए और सीता भी आकुलचित्त भई कि देखो यह डीठ पक्षी मुनियोंके चरणों में कहांसे चायपड़ा कठोर शब्दकर घनाही निवारा परन्तु
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पद्म
॥५६१
वहपक्षी मुनियों के चरणोंके धोक्नमें प्रोयपड़ा चरणोदकके प्रभावकर क्षणमात्र में उसको शरीर रत्नों की राशिसमान नाना प्रकार के तेजकर मण्डित होय गया पाखतो स्वर्ण की प्रभाको घरते भए. दोऊ पाँव बैडूर्यमणिसमान होय गये और देह नाना प्रकारके रत्नोंकी छविको धरता भयाऔर चंच मंगा समानारक्त भई तब यहपक्षी श्रापको और रूपको देखपरम हर्षको प्राप्त भया मधुरनादकर नृत्य करने को उद्यमी भया देवोंके दुन्दुभी समानहै नाद जिसका नेत्रोंसे आनन्दके अश्रुपातडास्ता शोभता भया जैसा मोर मेहके अागम में नत्यकरे तैसा मुनिके आगे नृत्य करता भया महामुनि विधि पूर्वक पारणो कर बैडूर्यमणि समान शिलापर विराजे । पद्मराग मणि समानहें नेत्र जिसके ऐसा पक्षी पांखसंकोच मुनियों के पांओं को प्रणामकर आगे तिष्ठा तब श्रीराम फूलेकमल समान हैं नेत्र जिनक पक्षीको प्रकाश रूप देख आप परम आश्चर्यको प्राप्तभए साधुओंके चरणारविन्दको नमस्कारकर पूछते भए कैसे हैं साधुश्रा ईस मूल गुण चौरासीलाख उत्तर गुण वेही हैं श्राभूषण जिनके बारम्बार पक्षीकी ओर निरख राममुनि से कहते भए हे भगवान यह पक्षीप्रथम अवस्था विषे महा विडरूप अंगथा सो चणमात्रमें सुवर्ण और रत्नोंके समूहकी छविधरता भया यह अशुचिसर्व मांसका आहारी दुष्ट गृध्रपची अापके चरणों के निकट तिष्ठकर महाशांतभया सो कौनकारण तब सुगुप्तिनामा मुनि कहतेभए हेराजन पूर्व इस स्थलविषे दंडक नामादेशथा जहां अनेक ग्रामनगर पट्टण संवाहण मटंब घोष खेट करबट द्रोणमुखथे वाडिकरयुक्तसोप्राम कोटखाई दरवाजोंकरजो मंडितसो नगर और जहां रत्नोंकीखान सो पट्टणपर्वतके ऊपरसो संवाहन औरजिसे पांचसौ ग्रामलगे सो मटंब और गायोंके निवास गुवालोंके आवाससो घोष और जिसके आगे नदीसो खेट
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और जिसके पीछे पर्वतसो कर्वद और समुद्र के समीपसी द्रोणमुख इत्यादि अनेक रचनाकर शोभित वहां ५६॥ ककुंडल नामानगर महामनोहर उसमें इस पक्षीका जीव दंडक नामाराजांथा महाप्रतापी उदय घरे
पद्म पुराव
प्रचंड पराक्रर्म संयुक्त भग्न किये हैं नुरूप कंटक जिसने महामानी बड़ी सेना का स्वामीसो इस मृह ने की श्रद्धा पापरूप मिश्रया शाखा सेया जैसे कोई घृतका अर्थी जलको मथे इसकी स्त्री. मंडियों hi सेवकी तिनसी प्रति अनुरागिणीसों उसके संगकर यहभी उसके मार्गको घरताभया स्त्रियोंके क्श हुवा पुरुष क्या न करे एक दिवस यह नगरके बाहिर निकसासी बनमें कायोत्सर्ग घरे ध्यानारूढ मुनि देखे तब इस निर्द मुनिके कंठ विषे मूवा सर्व द्वारा कैसा था यह पाषाणसमान कठोरथा वित्त जिस का सो मुनि ध्यान घरे मानसो तिष्ठे और यह प्रतिज्ञा करी जलम मेरे कंउसे कोई सर्प दूर न करे तौल में हलन चलन नहीं कर घोगरूपही रहूँ सो काढूने सर्प दूर न किया मुनि खंडेही रहे फिर कैयक दिनोंमें राजा उसी मार्गगया उसही समय किसी भले मनुष्यने सांप काटा और मुनिके पास वह बैठा था सो राजाने उस मनुष्यसे पूछा कि मुनिके कंठसे सांप किसने काढा और कब काढ़ा तब उसने कही है नरेंद्र किसी नरकगामीने ध्यानारूढ़ मुनिके कंठविषे मूवा सर्प डाराथा सो सर्पके संयोग से साधुका शरीर प्रतिखेद खिन्न भया इनके तो कोई उपाय नहीं आज सर्प मैंने काढा है तब राजा मुनिको शांत स्वरूप कषायरहित जान प्रमासकर अपने स्थानकगया उस बिनसे मुनियों की भक्ति विष अनुराग भया और किसीको उपद्रव न करें तब यह वृतांत राखीने दंडियों के मुखसे सुनाकराजा जिनधर्मका अनुरामभिया तब पापनीने क्रोधकर मुनियोंके मारने का उपाय किया जे दुष्टजीनों बे
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पदा
५६
अपने जीनेका भी पत्न तज पराया अहितकरें सो पापनीने अपने गुरुको कहा तुम निग्रन्थ मुनि का रूपकर मेरेमहलमें श्रावो और विकारचेष्टाकरी, तब उसने इसही भांतिकरी सो राजा यह वृतांतजान कर मुनियोंसेकोपभया और मंत्री आदि दुष्ट मिथ्या दृष्टिसदा मुनियोंकी निन्दाहीकरते अन्यभी और जे कर कर्मी मुनियोंके अहितु थे तिन्होने राजाको भरमाया सो पापी राजा मुनियों को पानी विषेपेलिवेकी
आज्ञा करताभया प्राश्चर्यसहित सर्व मुनि घानीमें पेले एक साधु बहिभूमिगया पीछे श्रावताथा सो किमी दयावानने कहा अनेक मुनि पापी राजाने यंत्रमें पेले हैं तुम भाग जावो तुम्हारा शरी धर्मका साधनहै सो अपने शरीस्की रक्षा करो तब यह समाचार सुन संघके मरणके शोककर चुभी है दुःख रूप शिला जिसके क्षण एक मजके स्तंभसमान निश्चल होय रहा फिर न सहा जाय ऐसा क्लेश । रूप भया सो मुनिरूप जोपर्वत उसकी समभावरूप गुफासे क्रोधरूप. केसरीसिंह निकसा जैसा बारक्त अशोकवृक्ष होय तैसे मुनिके रक्त नेत्र भए, तेजकर आकाश संध्याके रंगसमान होया गया कोप कर तप्तायमान जो मुनि उसके सर्व शरीर विषे. पसेवकी बून्द प्रकटभई फिर कालाग्नि समान प्रज्वलित अग्विपूतला निकसा सो धरती श्राकाश अग्निरूप होय गए, लोक हाहाकार करते मरणको प्राप्त भए ! जैसे बांसोंका वन बले तैसे देश भस्म होय गया न गजान अंतहपुर न पुरन ग्राम न पर्वतन नदीन बनान कोई प्राणी कुछभी देशमें नववा महाज्ञानगम्यके योगकर बहुत दिनों में मुनिने समभावरूप जो धम उपार्जाथा सो तत्कालको वरूप रिपुने हरा दंडक देशका दंडक राजा पापके प्रभावकर प्रलयभया औरदेश प्रलयमया सो अबयह दंडकवन कहावे है कैयकदिन तो यहां तृणभी न उपजा फिर घनकालविषेमुनियों
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पद्म का बिहारभया तिनके प्रभावकर वृतादिकभए यह बन देवोंको भी भयंकरहै विद्याधरोंकी क्या बात सिंह | ison ब्याज अष्टापद दि अनेक जीवोंसे भरा और नाना प्रकारके पक्षियोंकर शब्दरूपहै और अनेक प्रकार के
घान्यसे पूर्णहै वह राजादंडक महा प्रबल शक्तिका धारकथा सो अपराधकर नरक तिर्यंचगति विषे बहुत काल भूमणकर यह गृधू पक्षी भया अव इसके पापकर्म की निवृतिभई हमको देख पूर्वभव स्मरण भया ऐसा जान जिनाज्ञा मान शरीर भोगसे विरक्तहोय धर्म विषे सावधान होना परजीवोंका जो दृष्टांतहे सो अपनी शांतभावकी उत्पतिका कारणहै इस पक्षीको अपनी विपरीत चेष्टा पूर्वभवकी याद आई है सो कंपायमानहै पचीपर दयालुहोय मुनि कहत भए हे भव्य अब तू भयमत करे जिससमय में जैसी होनी होय सो होय रुदन काहेको करे है होनहारके मेटवे समर्थ कोई नहीं अबतू विश्राम को पाय सुखीहोय पश्चाताप तजदेख कहां यहवन और कहां सीतासहित श्रीरामका श्रावना और कहां हमारा बनचर्याका अवग्रह जो बनमें श्रावगके श्राहार मिलेगा तो लेवेंगे और कहीं तेरा हम को देख प्रतिबोध होना कर्मों की गति विचित्र है कर्मोंकी विचित्रता से जगत की विचित्रता है हम ने जो अनुभया और सुना देखाहै सो कहें हैं पक्षीके प्रतिबोधवेके अर्थ रामका अभिप्राय जान सुगुप्ति मुनि अपना और गुप्तिमुनि दूजा दोनोंका वैराग्यका कारण कहतभए एक वाराणसी नगरी वहां अचल नामाराजा विख्यात उसके राणी गिरदेवी गुणरूप रत्नोंकर शेभित उसके एकदिन त्रिगुप्तिनामा मुनि शुभ चेष्ठ के घरनहारे पाहारके अर्थ पाए । सो गणीने परमश्रद्धाकर तिनको विधि पूर्वक श्राहार दिया । जव निरन्तराय अाहारहो चुका तब राणीने मुनिको पूछाहे नाथ यहमेरागृहवाससफल होयगा।
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या नहीं। भावार्य मेरेपुत्र होयगा या नहीं तब मुनिवचन गुप्तभेद इसके संदेह निवाणके अर्थ आज्ञा पुराण करा तेरदोय पुत्र विवेकीहोयमें सो हमदोय पुत्र त्रिगुप्ति मुनिकी आज्ञाभए पीछेभए इसलिये सुगुप्ति । 1५११
और गुप्ति हमारे नाम मातापिताने राखे सो हम दोनों राजकुमार लक्ष्मीकर मंडित सर्व कला के पारगामी लोकों के प्यारे नानाप्रकारकी क्रीडा कर रमते घर में तिष्ठे॥
अथानन्तरएक और वृतांतभया गन्धरती नामा नगरी वहां के राजाका पुरोहित सोम उसके दोय पुत्र एक सुकेतु दूजा अग्निकेत तिनविय अतिप्रीतिसों सुकेतुका विवाहभया विवाहकर यह चिन्ता भई कि कभी इस स्त्रीके योगकर हम दोनों भाइयोंमें जुदायगी न होय फिर शुभकर्मके योगसे सुकेतु प्रति वोधहोय अनन्तवीर्य स्वामीके समीप मुनिभया और लहुराभाई अगिनकेतु भाईके बियोगकर अत्यंत दुखीहोय बाराणसी विषे उग्रतापसभया तब बडाभाई मुकेतु जो मुनिभयाथा सो छोटे भाईको तापस भया जान सम्बोधिवेके अर्थ प्रायवेका उद्यमी भया गुरुपै अाज्ञा मांगी तब गुरुने कहा तू भाईको संबोधा चाहे है तो यह वृत्तान्त सुन तब इसने कही हे नाथ बृत्तान्त क्या तब गुरुने कही वह तुम सों मत पक्ष का वाद करेगा और तुम्हारे वाद के समय एक कन्या गंगा के तीर तीन स्त्रियों सहित आवेगी। गौर है वर्ण जिसका नानाप्रकार के वस्त्र पहिरे दिनके पिछले पहिर अावेगी तो इन चिन्होंकर जान तू भाई से कहियो इस कन्याका कहा शुभ अशुभ होनहार है सो कहो तब वह विलषाहोय तोसे कहेगा मेंतो न जानू तुम जाने हो तो कहो तब तू कहियो इस पुर विषे एक प्रवर नामा श्रेष्ठी धनवन्त उसकी यह रुचिरा नामा पुत्री है सो आज से तीसरे दिन मरणकर कम्बर ग्राम में विलास नामा कन्योके पिता का
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पद्म
पुराव
७२
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मामा उसके छोरी होयगी ताहि ल्याली मारेगा सो मरकर गाढर होयगी फिर भैंस, भैंस से उसी विलास केवधरा नामा पुत्री होयगी यह वार्ता गुरुनेकही तव सुकेतु सुनकर गुरुको प्रणामकर तापसियोंके श्राश्रम
या जिस भांति गुरुने कहीथी उसही भांति तापससों कही और उसी भांति भई । वह विधुरा नामा बिलास की पुत्रीको प्रवरनामा श्रेष्ठी पर लगा तब अग्निकेतु ने कही यह तेरी रुचिरानामा पुत्री सो मर कर अजा गाडर भैंस होय तेरे मामा के पुत्री भई अब तू इसे परने सो उचित नहीं और विलास कोभी सर्व वृत्तान्त कहा कन्याके पूर्वभव कहे सो सुनकर कन्याको जातिस्मरण भया कटुम्बसे मोह तज सर्व सभाको कहतीभई यह प्रवर मेरा पूर्व भवका पिता है सो ऐसा कह ध्यार्थिका भई और अनिकेतु तापस मुनिया यह वृत्तान्त सुनकर हम दोनों भाइयोंने महा वैराग्यरूप होय अनन्तवीर्य स्वामीके निकट जैनेन्द्र अङ्गीकार किये मोहके उदयकर प्राणियों के भवबन के भठकावनहारे अनेक अनाचार होय हैं सद्गुरुके प्रभावकर अनाचारका परिहार होय है संसार असार है माता पिता बांधव मित्र स्त्री संतानादिक तथा सुःख दुःखही विनश्वर हैं ऐसा सुनकर पक्षीभव दुखसे भयभीत भया धर्म ग्रहण की वांच्छा कर बारम्बार शब्द करताभया तब गुरुने कही हे भद्र भय मत करे श्रावकके व्रत लेघो जिसकर फिर दुख की परम्परा न पावे व तू शांतभाव घर किसी प्राणीको पीड़ा मत करे अहिंसा व्रत घर मृषा बाणी तज सत्य त आदर पर वस्तुका ग्रहण तज परदारा तज तथा सर्वथा ब्रह्मचर्य भज तृष्णा तज सन्तोष भज रात्री भोजनका परिहार कर अभक्ष आहार का परित्याग कर उत्तम चेष्टा का धारक हो और त्रिकाल संध्या में जिनेन्द्र का ध्याम घर हे सुबुद्धि उपवासोदि तपकर नानाप्रकार के नियम अंगीकार कर प्रमाद
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पन्न
॥५३॥
| रहित होय इन्द्री जीत साधुओं की भक्ति कर देव अरहंत गुरु निर्गथ दया धर्म में निश्चय कर इस भांति मुनिने अाज्ञा करी तब पक्षो बारम्बार नमस्कार कर सुनि के निकट श्रावक के व्रत घारता भया सीताने जानी यह उत्तम श्रावक भया तब हर्षित होय अपने हाथसे बहुत लडाया। उसे विश्वास उपजाय दोनों मुनि कहतेभये यह पक्षी तपस्वी शांत चित्त भया कहां जायगा गहन बनमें अनेक कर जीव हैं इस सम्यग्दृष्टि पक्षो की तुमने सदा रक्षाकरनी यह गुरुके वचन सुन सीता पक्षी के पालिवेरूपं है चित्त जिसका अनुग्रहकर राखो । राजा जनककी पुत्रीकर कमलकर विश्वासती संती कैसी शोभतीभइ जैसे गरुड़ की माता गरुड़को पालती शोभे और श्रीराम लक्षमण पक्षीको जिनधर्मी जान अतधर्मानुराग करतेभये और मुनियों को स्तुतिकर नमस्कार करते भये दोनों चारणं मुनि आकाश के मार्ग गए सो जाते कैसे शोभतेभये मानो धर्मरूप समुद्रकी कल्लोलही हैं और एक बनका हाथी मदोन्मत्त बनमें उपद्रव करताभया उसको लक्षमण वशकर उसपर चढ़ रामपै आए सो गजराज गिरिराज सारिखा उसे देख राम प्रसन्नभए और वह ज्ञानी पक्षी मुनिकी आज्ञा प्रमाण यथाविधि अनुबत पालताभया महा भाग्यके योगसे राम लक्षमण सीताका उसनेसमीप पाया इनके लार पृथिवी में विहार करे यह कथा गौतम स्वामी राजो श्रेणिक से कहे हैं। हे राजन धर्मका माहात्म्य देखो इसही जन्म में वह विरूप पक्षी अद्भुत रूप होय गया प्रथम अवस्थाविषे अनेक मांसका आहारी दुगंध निद्यपक्षी सुगन्धके भरे कञ्चन कलश समान महासुगन्ध सुन्दर शरीर होय गया, कहूं इक अग्निकी शिखासमान प्रकाशमान और कहूं इक वैडूर्यमणि समानकहूंइक स्वर्ण समान कहूंइक हरित्मणि की प्रभा को घरे शोभता भया राम लक्ष्मण के समीप बह ।
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पद्य
॥५१४॥
सुन्दर पक्षी श्रावक के व्रत घरे महास्वाद संयुक्त भोजन करता भया। महाभाग्य पक्षी के जो श्रीराम । की संगति पाई। रामके अनुग्रह से अनेकचर्चाधार दृबती महाश्रद्धानी भया श्रीराम इसे अति लडावें । चन्दनकर चर्चित है अंग जिसका स्वर्ण की किंकिणी कर मण्डित रत्नकी किरणों करशोभित है शरीर जिसका उसके शरीर में रत्न हेमकर उपजी किरणों की जटा इसलिए इसका नाम श्रीराम ने जटाय धरा।। राम लक्ष्मण सीता को यह अति प्रिय, जीती है हंस की चाल जिस ने महा सुन्दर मनोहर चेष्टा को । घरे राम का मन माहता भया, उसी बनके और जे पक्षी वे देखकर आश्चर्य को प्राप्त भये यह व्रती । तीनों संध्या विष सीता के साथ भक्तिकर नमीभूत हुअाअरहन्त सिद्ध साधुओंकी बन्दना करे। महादया वान जानकी जटायु पक्षी पर अतिकृपाकर सावधान भई सदा इसकी रक्षा करे । कैसी है जानकी जिनधर्म से है अनुराग जिसका वह पक्षी महा शुद्ध अमृत समान फल और महा पवित्र सोधा अन्न निर्मल छाना जल इत्यादि शुभ वस्तु का आहार करता भया । जब जनक की पुत्री सीता ताल बजावे
और रामलक्षमण दोनों भाई तालके अनुसार तानलाचे तवयह जटायुं पक्षी रवि समानहै कान्ति जिसका परम हर्षित भया ताल और तान के अनुसार नृत्य करे ॥ इति इकतालीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ __अथानन्तर पात्र दान के प्रभाव करराम लक्षमण सीता इसलोक में रत्नहेमादि सम्पदाकर युक्त भए । एक सुवर्णमई रत्नजड़ित अनेक रचना कर सुन्दर जिसके मनोहर स्तंभ रमणीक वाड बीच विराजवे । का सुन्दर स्थानक और जिसके मोतियोंकी माला लम्बे सुन्दर झालरी सुगन्ध चन्दन करपरादि कर । मण्डित जोकि सेज़ प्रासन वादित्र वस्त्र सर्व सुगन्ध कर पूरित ऐसा एक विमान समान अद्भुत रथ ।
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बनाया जिसके चार हाथी जु उसमें बैठे राम लक्षमण सीता जटाय सहित रमणीक बन में विचरें जिन in को किसी का भय नहीं काह की घात नहीं काह ठौर एक दिन काह ठौर पन्द्रह दिन किसी और एक
मास क्रीडा करें। यहां निवास करें अक यहां निवास करें सी है अभिलाषा जिनके नवीन शिष्य की इच्छा की न्याई इनकी इच्छा अनेक ठौर विचरती भई । महानिर्मल जे नीझरने तिनको निरखते ऊंची नीची जायगा टार समभूमि निरखते ऊंचे वृक्षों को उलंघ कर धीरे धीरे धागे गए, अपनी स्वेच्छा कर भ्रमण करते ये धीर वीर सिंह समान निर्भय दण्डकबनके मध्य जाय प्राप्त भए कैसा है वह स्थानक
कायरों को भयंकर जहां पर्वत विचित्र शिखिरके घारक जहां रमणीक नीझरने झरें जहां से नदी निकसे | जिनका मोतियों के हार समान उज्ज्वल जल जहां अनेकवृक्ष बड़ पीपल, बहेड़ा पीलू सरसी बड़े बड़े सरल । वृक्ष धवल वृक्ष कदंब तिलक जातिवृक्ष लोंदवृक्ष अशोक जम्बूवृक्ष पाटल थाम्र प्रांवला अमिली चम्पा
कण्डीरशालि वृक्ष ताडबृक्ष प्रियंगू सप्तछद, तमाल नाग बृक्ष नन्दीबृक्ष अर्जुनजातिके वृक्ष पलाशवृक्ष मलियागिरिचन्दन केसरि भोजवृक्ष हिंगोटवृक्ष काला अगर और सुफेद अगर कुन्द वृक्ष पद्माकवृक्ष कुरंज वृक्ष पारिजात वृक्ष मिजन्यां केतकी केवड़ा महुवा कदली खैर मदनबृक्ष नींबू खजूर छुहारे चारोली नारंगी विजौरा दाडिम नारयल हरडें कैथ किरमाला विदारीकंद अगथिया करंगज कटालीकूट अजमोद कौंच कंकोल मिर्च लवंग इलायची जायफल जायवित्री चव्य चित्रक सुपारी तांबूलों की बेलि रक्तचन्दन घेत श्यामलता. मीग सींगी हरिद्रा परलू सहिंजपा कुड़ावृक्ष पद्माख पिस्ता मौलश्री बील वृक्ष द्राक्षा विदाम शाल्य इत्यादि अनेकजाति के जे बृक्ष तिन कर शोभित है और स्वयमेव उपजे. नाना
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प्रकार के धान्य और महारस के भरे फल. और पौड़े सांठे इत्यादि अनेक वस्तुओं कर वह वन पूर्ण नाना प्रकार के वृक्षः नाना प्रकार की बेल नाना प्रकार के फल फूल तिन कर. बन अति सुन्दर.मानों दूजा नन्दनवनही है सो शीतख मन्द सुगन्ध पवनकर कोमल कोपल हालें सो ऐसा सोहे मानों यह क्न राम के पायो कर हर्ष कर नृत्य कर है और सुगन्ध पवन कर उठी जो पुरुषों की रजःसो इनके अंग से श्राय लगे सो मानों अटबी प्रालिंगन ही करे है और भ्रमर गार करे हैं सो मानों श्रीराम के पधारने का प्रसन्न भया वन गानही करे है, और महा मनोज्ञ गिरोंके नीझरनों के बांटेयों के उछरिबे के शब्दकरः मानों हंसेही है और भैरुण्ड जाति के पक्षी तथा हंस सारिस कोयल मयर सिंबांण कुरुचि सूत्रा मैनाकपोत भारद्वाज इत्यादि अनेक पक्षियोंके ऊंचेशब्द होयरहे हैं सो मानों श्रीराम लक्ष्मण सीताके आयबेका अादरी करे हैं औरमानों पक्षी कोमल बाणीकर ऐसा बचन कहे हैं कि महाराज भले ही यहां पात्रो और सरोवरों में साझेदःश्याम अरुण कमल फूल. रहे हैं सो मानों श्रीराम के देखने को कौतूहल से कमलरुप नेत्रों कर देखने को प्रवरते हैं और फूलों के भारकर नम्रीभूत जो बृक्ष सो मानो रोम को नमे हैं और सुगन्ध पवन चले है सो मानों वह वन रामके प्रायवे से अानन्द के स्वांस लेय है, सो श्रीराम सुमेरु कैसे सौमनस बन समान बनको देखकर जानकी से कहते भए कैसी है जानकी फले कमल. समान हैं नेत्र जिसकेपति कहे है हे प्रिये देखो यह वृक्ष बेलोंसे लिपटे पुष्पोंके गच्छोंकर मण्डित मानों गृहस्थ समान ही भासे हैं और प्रियंगु की बेल बौलसरी के वृक्ष से लगी कैसी शोभे है जैसी जीप दया-जिन धर्म से एकताको धरे सोहे और यह माधवीलता पवनकर चलायमान जे पल्लव उन कर
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पद्म पुराख 11499
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समीप के वृक्ष को स्पर्शे हैं जैसे विद्या विनयवानको स्पर्शे है और हे पतिव्रते यह बनका हाथी मदकर यासरूप हैं नेत्र जिसके सो हथिनी के अनुरागका प्रेरा कमलों के बनमें प्रवेश करे है जैसे अविद्या कहिये मध्यापर उसका प्रेरा अज्ञानी जीव विषयवासना विषे प्रवेशकरे कैसा है कमलोंका बन विकसि रहे कमलदल तिनपर भ्रमर गुंजारकरे हैं और हे हृदबते यह इंद्रनीलमणि समानश्यामवर्ण सर्पबिलसे निकस कर मयूर को देख भाग कर पीछे बिल में धसे है जैसे विवेक से काम भाग भववन में छिपे और देखो सिंद्द केसरी महा सिंह साहसरूप चरित्र इस पर्वत की गुफा में तिष्ठा था सो अपने रथ का नाद सुन निद्रा त गुफा के द्वाराय निर्भय तिष्ठे है और यह बघेरा क्रूर है मुख जिसका गर्व का भरा मांजरे नेत्रों का धारक मस्तक पर घरी है पूंछ जिसने नखों कर वृक्ष की जड़ को कुचरे है और मृगों के समूह दूब के अंकुर तिनके चरित्रको चतुर अपने बालकोंको बीच कर मृगियों सहित गमन करे हैं सो नेत्रों कर दूरही से अवलोकन करते अपने ताई दयावन्त जान निर्भय भए बिचरे हैं यह मृग मरण से कायर सो पापी जीवों के भय से अति सावधान हैं तुम को देख अति प्रीति को प्राप्त भए विस्तीर्ण नेत्र कर बारम्बार देखे हैं तुम्हारे से नेत्र इनके नहीं इस लिये आश्चर्य को प्राप्त भए हैं और यह वन का शूकर अपनी दांतली.
भूमि को विदारता गर्नका भरा चला जाय है लग रहा है कर्दम जिसके और हे गजगामिनी इस वन विषे अनेक जातिके गजों की घटा विचरे हैं सो तुम्हारीसी चाल तिनकी नहीं इसलिये तुम्हारी चाल देख अनुरागी भए हैं और ये चीते विचित्र अंग अनेक वर्ण कर शोभे हैं जैसे इन्द्र धनुष अनेक वर्ण कर सोहे है 'हे कलानिधे यह बन अनेक अष्टापदादि क्रूर जीवों कर भरा है और अति सघन वृक्षों कर भरा है और
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पन
नाना प्रकार के तृणां कर पूर्ण है कहीं एक महा सुन्दर है जहां भय रहित मृगों के समूह विचरे हैं कहूं यक महा भयंकर अति गहन है जैसे महाराजों का राज्य अति सुन्दर है तथापिदुष्टोंको भयंकर है और कहीं इक महामदोन्मत्त गजराज बृक्षों को उखाड़े है जैसे मानी पुरुष धर्मरूप बृक्षको उखाडे है कहूं इक नवीन वृक्षों के महासुगंध समूह पर भ्रमर गुंजार करे हैं जैसे दातावों के निकट याचकावें किसी और वन लाल होय रहाहै काहू और श्वेत काहोर पीत काहू ठौर हरित काहू ठौर श्याम काहूठौर चञ्चल काहू ठौर निश्चल काह ठौर शब्द सहित काह गैर शब्दरहित काहू ठौर गहन काहू ठौर विग्ले वृक्ष काह और सुभग काह गैर दुर्भग काहू और विरस काहू और सुरस काह और सम काहू और विषम काहूं ठौर तरुण काहूं और वृक्षवृद्धि इस भांति नाना विधि भासे है यह दण्डकनामा बन विचित्र गति लिये है जैसे कर्मों का प्रपंच विचित्रं गति लिये है, हे जनकसुता जो जिन धर्मको प्राप्त भए हैं वेही यहां कर्म प्रपंच से निवृत्त होय, निर्वाण को प्राप्त होय हैं जीवदयो समान कोई धर्म नहीं जो आप समान पर जीवों को जान सर्व जीवों की दया करें वेई भवसागर से तिरें यह दण्डक नामा पर्वत जिसके शिखर आकाशसों लगरहे हैं उस को नाम यह दण्डक बन कहिये है इस गिरि के ऊंचे शिखर हैं और अनेक धातुकर भराहै जहां अनेक रंगों से आकाश नाना रंग होय रहा है पर्वत में नाना प्रकार की ओषधी हैं कैयक ऐसी जड़ी हैं जे दीपक समान प्रकाश रूप अंधकार को हरें तिनको पवन का भय नहीं पवन में प्रज्वलित और इस गिरिसे नीझरने झरे हैं जिनका सुन्दर शब्द होय है जिनके छांटों की वन्द मोतियों की प्रभा को धरे हैं इस गिरि के स्थानक कैयक उज्ज्वल कैयक नील कईएक पारक्त दीखे हैं और अत्यंत सुन्दरहें सूर्य की किरण गिरिक शिखर |
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प के वृक्षों के अग्रभाग में प्राय पड़े है और पत्र पवनसे चंचल हैं सो अत्यंत सोहे हैं हे सुबद्धि पिणि पुराम ॥५ ॥ | इस वन में कहूं इक वृक्ष फलों के भार कर नम्रीभूत होय रहे हैं और कहूं इक नानो रंग केजे पुष्प वेई
भए पट तिनकर शोभित हैं और कहूं इक मधुर शब्द बोलनहारे पक्षी तिनसे शोभित हे हे प्रिये ! इस पर्वत से यह क्रौंचवा नदी जगत् प्रसिद्ध निकसीहै जैसे जिनराजके मुखसे जिनवाणी निकसे, इस नदी का जल ऐसा मिष्ट है जैसी तेरी चेष्टा मिष्ट है, हे सुकेशी इस नदी में पवन से उठे हैं लहर और किनारे के वृक्षोंके पुष्प जलमें पड़े हैं सोअति शोभितहें कैसी है नदी हंसोंके समूह और भागोंके पटलोंसे अति उज्ज्वल है और ऊंचे शब्दकर युक्तहै जल जिसका कहूं इक महा विकट पाषाणोंके समह तिन कर विषमहै और हजारों ग्राह मगर तिनसे अति भयंकरहै और कहूं इक अति वेग कर चला श्रावे है जल का जो प्रवाह उसकर दुर्निवार है जैसे महा मुनियोंके तपकी चेष्टा दुर्निवार है, कई इक शीतल बहे है कहीं इक वेगरूपबहे है, कहीं इक काली शिला कहीं इक श्वेत शिला तिनकी कांतिकर जल नील श्वत दुरंग होय रहा है, मानो हलधर हरिका स्वरूप ही है कहीं इक रक्त शिलावोंके किरण की समूह कर नदी आरक्त होय रही है जैसे सूर्य के उदयसे पूर्व दिशा रिक्त होय, और कहीं इक हरितपाषाण के समूह कर जल में हरितता भासे है, सो सिवाल की शंका कर पक्षी पीछे होय जाय रहे हैं। हे कांते वहां कमलों के समूह कर मकरंद के लोभी भ्रमर निरन्तर भूमण करे हैं, और मकरंद की सुगन्धता
कर जल सुगन्ध मय होय रहा है, और मकरन्दके रङ्गोंकर जल सुरङ्ग होय रहाहै, परन्तु तुम्हारे शरीर की | सुगन्धता समान मकरन्द की सुगन्धि नहीं, और तुम्हारेरंग समान मकरन्द को रंगनहीं, मानों तुम कमल
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पुरात
पर बदनी कहावो हो। सो तुम्हारे मुख की सुगन्धताही से कमल सुगन्धितहें और ये भ्रमर कमलोंको तेज
तुम्हारे मुख कमल पर गंजार कर रहे हैं और इस नदी का जल काहू ठऔर पाताल समान गम्भीर है मानों तुम्हारे मनकीसी गम्भीरताको घरे है और कहूं इक नीलकमलोंकर तुम्हारे नेत्रोंकी छायाको घरे | है और यहां अनेक प्रकारके पक्षियोंके समूह नानाप्रकार क्रीड़ा करे हैं जैसे राजपुत्र अनेक प्रकारकी क्रीड़ा
करेंहे प्राणप्रिये ! इस नदी के पुलिन की बोलू रेत अति सुन्दर शोभित है जहां स्त्री सहित खग कहिये विद्याधर अथवा खग कहिये पक्षी आनन्दसो विवरे हैं हेअखण्डवते यह नदी अनेकविलासको धरे समुद्र की ओर चली जाय है जैसे उत्तम शीलकी धरणहारी राजाओंकी कन्या भरतारके परणवेको जांय कैसे हैं भरतार महा मनोहर प्रसिद्ध गुणोंके समूहको धरे शुभचेष्टा कर युक्त जगत में सुन्दरहें हे दयारूपिनी ! इस नदीके किनारे के वृक्ष फल फूलों से युक्त नानाप्रकार पक्षियोंकर मंडित जलकी भरी कारीघटा समरन सघनशोभाको धरे हैं इसभांति श्रीरामचन्द्रजी प्रतिस्नेह के भरे वचन जनकसुतासे कहतेभए परम विचित्र अर्थको धरे तब वह पतिव्रता अति हर्षके समूहसे भरी पतिसे प्रसन्न भई परम आदरसे कहतोभई हे करुणा निधे यह नदी निर्मल है जल जिसका रमणीक हैं तरंग जिममें हंसादिक पक्षियों के समूह कर सुन्दर है परन्त जैसा तम्हारा चित्त निर्मल है तैसा नदीका जल निर्मलनहीं और जैसे तम सघन और सगन्ध हो तैसा बन नहीं औरजैसे तुम उच्च और स्थिरहो तैसा गिरिनहीं और जिनका मन तुममें अनुरागी भया
हैतिनका मन और और जाय नहीं इसभांति राजसुताके अनेक शुभ वचन श्रीराम भाई सहित सुन कर | अति प्रसन्न होय इसकी प्रशंसा करतेभये कैसे हैं राम रघुवंश रूप आकाशमें चन्द्रमा समान उद्योतकारी
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पद्म | हैं नदीकेतटपर मनोहर स्थलदेख हाथियों के रथसे उतरे लक्षमण प्रथमही नानास्वादको धरे सुन्दर मिष्टफल पुराण ॥५५॥
लाया और सुगन्ध पुष्प लाया फिर राम सहित जल क्रीडाका अनुरागी भयो कैसाहै लक्षमण मुणों की। खान है मन जिसका जैसी क्रीड़ा इन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्ती करें तैसी राम लक्षमणने करी मानों वह नदी। श्रीरामरूप कामदेवकोदेख रतिसमान मनोहररूप धारतीभई कैसी है नदी लहलहाट करतीजेलहर तिनकी । माला कहिये पंक्तिउससे मर्दितकिये हैं श्वेत श्याम कमलोंके पत्र जिसने और उठे हैं झाग जिसमें भ्रमररूप
है उड़ा जिसके पक्षियोंके जे शब्द तिनकर मानो मिष्टशब्दकरहैं वचनालाप करहें राम जलक्रीझकर कमलों। | के बनमें छिपरहे फिर शीघही पाए जनकसुता से जल केलि करतेभए इनकी चेष्टा देख वन के तिर्यच । | भी और तरफ से मन रोक एकाग्रचित्त होय इनकी अोर निरखतेभए कैसेहैं दोनोंवीर कठोरता से रहित ।
है मन जिसका और मनोहर है चेटा जिनकी सोता गान करतीभई सो गानके अनुसार रामचन्द्र ताला | देतेभए मृदंगसेभी अति सुन्दर राम जलकोड़ामें आसक्त और लक्षमण चौगिरदा फिरे केसाहै लक्षमण
भाईके गुणों में आसक्त है बुद्धि जिसकी राम अपनी इच्छा प्रमाण जल कोड़ाकर समीप के स्गों को ।
आनन्द उपजाय जल क्रीड़ा से निबृत्तभए महा प्रसक्त जे बनके मिष्टफल तिनसे चुधा निवारण कर । लता मडपमें तिष्ठ जहां सूयका आताफ नहीं ये दवों सारिखे सुन्दर नानाप्रकार की सुन्दर कथा करते भये | सीता सहित अति आनन्दस तिष्ठे कैसीहै सीता जययुके मस्तकपर हाथ है जिसका वह राम लक्ष्मण
से कहे हैं हे प्रात यह नानाप्रकारके बृक्ष स्वादु फलकर संयुक्त और नदी निर्मल जल की भरी और | जहां लतावोंके मण्डपऔर यह दण्डकनामा गिरि अनेक रनोंसे पूण यहां अनेक स्थानक क्रीझ करने । हैं इस गिरिके निकट एक सुन्दर नगर बसावें और यह वन अत्यन्त मनोहर औरोंसे अगोचर यहाँ नि
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परास
पा | वास हपका कारण है यहां स्थानककर है भाई तू दोनों मातावों के लायवे को जावे अत्यन्त शोक |
वनी हैं सो शीघही लावो अथवा तू यहां रहो और सी..ा तथा जटायुभी यहारहे में मातावों के ल्यायबे को जाऊंगा तब लचमण हाथजोड़ नमस्कारकर कहता भयाजोआपकी आज्ञा होयगी सो होयगा तब राम कहतेभए अबतो वर्षा ऋतु आई और ग्रीषम ऋतु गई यह वर्षा ऋतु अति भयंकर है जिसमें | समुद्र समान गाजते मेघ घयनोंके समूह विचरे हैं चालते अंजनगिरि समान दशों दिशा में श्यामता होयरहीहै बिजुरी चमके है बगुलावोंकी पंक्ति विचरे हैं और निरन्तर वादलोंसे जल वस्सेहे जैसेभगवान के जन्मकल्याण में देवरत्न धारा वरसावें और देख हे भ्राता यह श्याम घय तेरे रंग समान सुन्दर जलकी बूंद बस्सावे हैं जैसे तदान की धारा बरसावे ये बोदर प्राकाशमें विचरते विजुरीके चमत्कारकर युक्त बड़े बड़े गिरियोंको अपनी पाराकर श्राबादतेसंते धनि करतेसंते कैसे सोहे हैं जैसे तुमपीतवस्र पहिरे अनेक राजावोंको आज्ञाकरते पृथिवीको कृपादृष्टिरूप अमृतकी वृष्टिसे सींचते से हो हे बीर! ये कैयकबादर पवनके वेगसे आकाशविषे भूमें हैं जैसे यौवन अवस्थामें असंयमियोंका मन विषय बासनामें भूमे, और यह मेघ नाजके खेत छोड़ वृथा पर्वतोंके विषे बरसे हैं जैसे कोई द्रव्यवान पात्रदान और करुणादान तज वेश्यादिक कुमार्गमें धन खोवे, हे लक्ष्मण ! इस वर्षाऋतुमें अतिवेगसूं नदी बहे हैं और धरती कीचसों भर रही है और प्रचंड पवन बाजे है भूमिविषे हरित काय फैल रही है और त्रसजीव विशेषतासे हैं इस समयमे विवेकियों का बिहार नहीं ऐसे बचन श्रीरामचन्द्रके सुनकर सुमित्राका नन्दन लक्ष्मण बोला
हे नाथ ! जो आप आज्ञा करोगे सो ही में करूंगा ऐसी सुन्दर कथा करते दोनों बीर महाधीर सुंदर | स्थानकमेंसुखसे वर्षाकालपूर्ण करतभए कैस हैवर्षाकाल जिससमय सूर्य नहीं दीखेहै।इतितेंतालीसापर्व
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By
पुगध | अथ सीताहरण और युद्धनामा चौथा महा अधिकार।।
अथानन्तर वर्षातु व्यतीतर्भई शरदऋतुका आगमनभया मानों यह शरदऋतु चंद्रमाकी किरण रूप बामोंसे वर्षारूप बैरीको जीत पृथिवीपर अपना प्रताप विस्तारती भई दिशारूप जे स्त्रियेसो फल रहे हैं छल जिनके ऐसे वृक्षोंकी सुगन्वताकर सुगन्धित भई हैं और वर्षा समयमें कारी घटावोंकर जो आकाश श्यामथा सो अब चन्द्रकांतिकर उज्वल शोभताहुवा मानों क्षीरसागरके जलसे धोयाहै और बिजलीरूप
स्वर्ण सांकलकर युक्र वर्षकालरूपी गज पृथिवीरूप लक्ष्मीको स्नानकराय कहीं जातारहा और शस्तके | योगसे कमल फुले तिनपर भूमर गुंजार करते भएइंस क्रीडा करतेभए और नदियोंके जल निर्मल होय ।
गए दोनों किनारेमहामुन्दर भासते भए मानों शरवकाल रूपनायिकाको पाय सास्तारूप कामिनीकांति । | को पास भई हैं और बनवर्षा और पवनकर छूटे केसे शोभते भए मानोनिद्रासे रहित ज.प्रत दशा को | प्राप्तभरहें सरोवरों सरोजनियोंपर भूमर गुंजार करे हैं और वन विषेच्चोंपर पची नाद करे हैं सोमानों
परस्पर वार्ताही करे हैं और रजनीरूप नायिकानानाप्रकारके पुष्पोंकी सुगन्धताकर सुगन्धित निर्मल प्राकाशरूप बस पहरे चन्दमारूप तिलकधरे मामों शरदकालरूप नायक जायहै । और कामीजनों को काम उपजावती केतकीके पुष्पोंकी रजकर मुगन्ध पवन चले है इस भांति शरद ऋतु प्रवरसी सो
लक्ष्मण बड़े भाईकी मात्रा मांग सिंहसमान महा पराक्रमी बन देखनेको श्रोला निकला सो भागे || गए एक सुमन्धपवन अईतव लचमण विचारते भए यह मुगन्ध काहे की है ऐसी अद्भुत मुगन्ध ।
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पमा वृत्तोंकी न होय अयवा मेरेशरीरकी भी ऐसी सुगन्ध नहीं यह सीताजी के अंगकी सुगन्धहोय तथा Mreen कोऊ देव पायाहोय ऐसा सन्देह लक्ष्मणको उपजा सो यह कथा राजा श्रेगिक सुन गौतम स्वामी
से पूछता भया हे प्रभो जिस मुगन्ध कर. बासुदेवको आश्चर्य उपजा सो वह सुगव काहे की तब गौतम गणधर कहते भए कैसे हैं गौतम सन्देहरूप तिमिर दूर करनेको सूर्य हैं सर्वलोसकी चेष्टाको जाने हैं पापरूप रजके उड़ावनेको पवन गौतम कहे हैं हे श्रेणिक द्वितीय तीर्थंकर श्रीअजितनाथ. तिनके समोशरणमें मेघवाहन विद्याधर रावण का वडा शरणे आया उसे राक्षसों के इंद्र महा भीमने । त्रिकूटाचल पर्वतके समीप राजसदीप वहां का नामा नगरी सो कृपाकर दई और यह रहस्य की बात कही हे विद्याधर सुन भरत चैत्रके दत्तिणदिशा की तरफ लवण समुद्र के उत्तरकी ओर पृथिवी । के उदर विषे एक अलंकारोदय नामा नगरहेमो अद्भुत स्थान है और नानाप्रकाररत्नोंकी किरणों । से मंडितहै देबोंको भी आश्चर्य उपनावे तो मनुष्योंको क्याबात भूमिगोचरियोंकोतो अगम्यही है और विद्याधरोंको भी प्रतिविषमहै चितवनमें न मावे सर्व गुणों से पूर्ण है जहां मणियोंके मंदिरहै परचक्र से श्रागोचरहै सो कदाचित तुमको अथवा तेरेसन्तानके राजाओंको लंकामें परचक्रका भय उपजे तो अलकारोदयपुरमें निर्भय भए तिष्ठियो इसे पताललंका कहे हैं ऐसाकहकर महाभीम बुद्धिमान राक्षसोंके इंद्र ने अनुग्रहकर रावणके बड़ोंको लंका और पाताललंका दई और राक्षस द्वीप दिया सो यहां इनके वंश में अनेक राजाभए बड़े २ विवेकी व्रतधारी भए सो रावण के बडे विद्याधर कुल विष उपजे हैं देव नहीं । विद्याधर और देवोंमें भेदहै जैसे तिलक और पर्वत कर्दम और चन्दन पाषाण और रत्नोंमें बडा भेद।
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पद्म देवों की शक्ति बडी क्रांति बडी और विद्याधर तो मनुष्यहें क्षत्री वैश्य शूद्र यह तीन कुलहें गर्भवास
के खेद भुक्ते हैं विद्या साधनकर आकाशमें बिचरे हैं सो अढाई द्वीप पर्यंत गमन करे हैं और देव गर्भ वाससे उपजे नहीं महासुन्दर स्वरूप पवित्र धातु उपधातु कर रहित आंखोंकी पलक लगे नहीं सदा जाग्रत जरारोगरहित नवयौवन तेजस्वी उदार सौभाग्यवन्त महासुखी स्वभावहीसे विद्यावंत अवधि नेत्र चाहे जैसारूप करें स्वेछाचारी देवों विद्याधगेका कहां संबंध, हे श्रेणिक । ये लंकाके विद्याधरराक्षसद्धीप में बसे इसलिये राक्षस कहाए ये मनुष्य क्षत्री वंश विद्याधर, देवभी नहीं राक्षसभी नहीं इनके वंश में लंका विषे अजितनाथके समयसे लेकर मुनिव्रत नाथके समय पर्यंत अनेक सहस्र राजा प्रशंसा करने योग्यभए कई सिद्धभए केई सर्वार्थ सिद्ध गए केईस्वर्ग विषे देवभए केईएक पापी नरकगए अब उस बंश में तीन खण्डका अधिपति जो गवणासी राज्य करे है उसकी बहिन चन्द्रनखा रूपसे अनूपमसो महा पराक्रमवन्त खरदूषणने परणी वह चौदह हजार राजोकाशिमोमणि रावणकी सेनामें मुख्यसोदिग्पाल समान अलंकापुर जो पाताललंका वहां थाने रहे हैं उसके संबक और सुन्दर ये दो पुत्र रावण के भानजे पृथ्वी प्रतिमान्यभए सो गौतमस्वामी कह हैं हे श्रेणिक माता पिताने संबूको बहुत मने किया तथापिकालका प्रेरा मूर्यहास खडग साधिवे के अर्थ महाभयानकवनमें प्रवेश करताभया शास्त्रोक्तमाचार को आचरता हुवामूर्यहास खडगक साधिबको उद्यमीभया एकही अन्नका श्राहारी ब्रह्मचारी यतेन्द्रिय विद्या साधिवेको बांसके बीडमें यह कहकर बैठा, कि जब मेरा पूर्ण साधन होयगा तबही में बाहिर || श्राऊंगा उस पहिली कोई बोर्ड में प्रावेगा और मेरी दृष्टि पड़ेगातो उसे मैं मारूंगा ऐसा कहकर एकांत
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पद्म बैठा सो कहां बैठा दण्डक बनमें कोचवा नदीके उत्तर तीर बांसके बीडमें बैठा बारहवर्ष साधन किया। पुराण ३८६ | खड्ग प्रकटभया सो सातदिनमें यह न लेय तो खड्ग और के हाय जाय और यह माराजायसो चंद्र
नखा निरन्तर पुत्रके निटक भोजनलेय पावती सो खडगको देख प्रसन्नभई और पतिसे जाय कही कि संबुकको सूर्यहास सिद्धभया अब मेरा पुत्र मेरुकी तीन प्रदक्षणाकर आवेगा सो यहतो ऐसे मनोरथ करे और उसबनमें भ्रमता लक्ष्मण पाया हजारों देवोंसे रक्षायोग्य खडग स्वभाव सुगन्ध अद्भुत रत्नसो गीतम कहे हैं हे श्रेणिक वह देवोपुनति खडग महासुगन्ध दिव्य गंधादिककर लिप्त कल्पवृक्षों के पुष्ाँकी माला तिनसे युक्तसो मूर्यहास खडगकी सुगन्धलक्ष्मणकोई लक्ष्मण पाश्चर्यको प्राप्तभया
और कार्य तज सीधाशीघ्रही बांसकी ओर अाया सिंहसमान निर्भय दखताभयावृत्तोंकरभाछादितमहा विषम स्थल जहां बलोंके समूह अनेक जाल ऊंचे पाषाण वहां मध्यमें समभूमि सुन्दर क्षेत्र श्री विधि त्ररथ मुनि का निर्वाण क्षेत्र मुबर्णके कमलोंसे पूजित उसके मध्य एक बांसोंका बीडा उस के ऊपर खडग प्राय रहा है सो उसकी किरणके समूहसे बांसोंका बीडा प्रकाशरूपहोयरहाहै सो लक्षमण ने आश्चर्य को पाय निसंक होय खड्ग लिया और उस की तीक्ष्णता जानने के अर्थ बांस के नीडापर वाहिया सो संबूक सहित बांस का बीड़ा कट गया और खडग के रक्षकसहस्रों देव लक्षमणके हाथ में खडग पाया जान कहते भए तुम हमारे स्वामी हो ऐसा कह नमस्कार कर पूजते भए ।
अथानन्तर लक्षमण को बहत बेर लगी जान रामचन्द्र सीता से कहतेभए लक्षमण कहां गया | हे भद्र जटायु तू उड़ कर देख लक्षमण आवे है तब सीता बोली हे नाथ वह लक्षमण पाया केसर कर
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प प्र पुराण
८
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चरा है अंग जिसका नानाप्रकार की माला और सुन्दर बस्त्र पहिरे और एक खडग अदभुत लिये आवे है सो खड्ग से ऐसा सोहे है जैसा केसरी सिंह से पर्वत शोभे तव रामने आश्चर्यको प्राप्तभया है मन जिनका प्रति हर्षित होय लक्ष्मण को उठ कर उर से लगाय लिया, सकल बृतोन्तपूछा तब लक्ष्मणने सर्व बात कही आप भाई सहित सुख से विराजे नाना प्रकार की कथा करें और संक की माता चन्द्रनखा प्रतिदिन एक ही अन्न भोजन लावती थी सो आगे आयकरदेखेतो बांसका बीड़ाकटा पडा है, तब विचारती भई कि मेरे पुत्र ने भला न किया, जहां इतने दिनरहा और विद्यासिद्धि भई ताहीं वीड़े को काटा सो योग्य नहीं था अब अटवी छोड़ कहां गया इत उत देखे तो अस्त होता जोसूर्यउसके मंडल समान कुण्डल सहित सिर पड़ा है और घड़ जुदा पडा है देख कर उसे मूर्छा ध्याय गई मूर्छा ने इसका परम उपकार किया नातर पुत्र के मरण से यह कहां जीवे, फिर केतीक बेर में इसे चेत भया तब हाहाकार कर उठी पुत्र का कटा मस्तक देख शोक कर प्रतिविलाप किया नेत्र आंसुओं से भर गए अकेली बनमें करची कन्या पुकारती भई हा पुत्र बारह वर्ष और चार दिन यहां व्यतीत भए तैसे तीन दिन और भी कयौं न निक्स गए तुझे मरण कहां से आया हाय पापी काल तेरा मैं क्या बिगाड़ा जो नेत्रोंकी निधि पुत्र मेरा तत्काल विनाशा में पापिनी परभव में किसीका बालक हता था सो मेरा बालक हता गया, हे पुत्र का मेनहारा एक बचन तो मुख से कह हे बत्स या अपना मनोहर रूप मुझे दिखा ऐसी माया रूप मङ्गल कीडा करना तुझे उचित नहीं अबतक तैंने माताकी आज्ञा कवहूं न लोपी अब निःकारण यह बिल कार्य करना तुझे योग्य नहीं इत्यादिक कविल्प कर विचारती भई निःसन्देह मेरा पुत्र
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पन
पुरास
परलोकको प्राप्त भया विचारा कुछ और ही था और भया कुछ और ही यह बात बिचार में नथी सोभई ME हे पुत्र जो तू जीवता और सूर्यहास खडग सिद्ध होता तो जैसे चंद्रहास के धारक रावण केसन्मुख कोई
नहीं प्राय सके है तैसे तेरे सन्मुख कोई नहीं प्राय सकता मानों चंद्रहास ने मेरे भाई के हाथ में स्थानक किया सो अपना विरोधी सूर्यहास ताहि तेर हाथ में न देख सका भयानक बन में अकेला निर्दोष नियम का धारी उसे मारने को जिसके हाथ चले सो ऐसापापी खोटावैरी कौन है जिस दुष्टने तुझे हताअब वहकहां जीवता जायगा इसति बिलाप करती पुत्रका मस्तक गोदमेंलेय चूमतीभई मूगा समान आरक्त हैं नेत्र जिसके फिरशोक तज क्रोधरूप होय शत्रु के मारने को दौड़ी सो चली चली वहां पाई जहां दोनों भाई विराजें थे दोनों महारूपवान मनमोहिबे के कारण तिनको देख इसका प्रवल क्रोध जातारहा, तत्काल राग उपजा मनमें चितवती भई इन दोनों में जो मुझे इच्छे ताहिं में से यह विचार तत्काल कामातुर भई । जैसे कमलों के बन में हंसनी मोहित होय और महाहृदयमें भैंस अनुरागिनी होय और हरे धान के खेत में । हिरणी अभिलाषिणी होय तैसे इनमें यह आसक्त भई सो एक पुन्नागवृक्ष के नीचे बैठी रुदन करे अतिदीन शब्द उचारे बनकी रजकर धूसरा होयरहा है अंग जिसका उसे देखकर रोमकी रमणी सीता अति दयालुचित्त उठकर उसके समीप बाय कहती भई । तू शोकमत कर हाथ पकड़ उसे शुभ वचन कह धीर्य बन्धाय रामके निकट लाई तब राम उसे कहते भए तू कौन है यह दुष्ट जीवों का भरा बन इसमें अकेली क्यों विचरे है तब वह कमल सरीखे हैं नेत्र जिसके और भ्रमर की गुजार समान वचनजिसके || सो कहती भई हे पुरुषोत्तम मेरी माता तो मरणको प्राप्तभई सो मोको गम्य नहीं में बालक थी फिर उसके
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पुराण
पद्म शोक कर पिता भी परलोक में गया सा में पूर्वले पाप से कुटुम्ब रहित दण्डक बनमें आई मेरे मरण की।
अभिलाषा सो इस भकानक बनमें किसी दुष्ट जीवने न भषी बहुत दिनों से इस वनमें भटक रही हूं। आज मेरे कोई पापकर्म का नाश भया सो श्राप का दर्शन भया अव मे रेप्राण न छूटें ता पहिले मुझे कृपाकर इच्छो जोकन्या कुलवन्ती शीलवन्तीहोय उसेकोन न इच्छे सबही इच्छे यहइसके लज्जारहित वचन | सुनकर दोनों भाई नरोत्तम परस्पर अवलोकन कर मौन से तिष्ठे कैसे हैं दोनों सर्वशास्त्रों के अर्थ का। जो ज्ञान सोई भया जल उससे धोयाहै मन जिनका कृत्य अकृत्य के विवेकमें प्रवीण तब वह इनका। चित्त निष्काम जान विश्वास नास कहती भई मैं जावं तब राम लक्षमण बोले जोतेरी इच्छा होय सो कर तब वह चली गई उसके गए पीछे राम लक्षमण सीता आश्चर्य को प्राप्त भए और वह क्रोधायमोन होय शीघ्र पतिके समीप गई और लक्षमण मनमें विचारता भया कि यह कौनकी पुत्री कौन देशमें उपजी समूहसे विठुरी मृगी समान यहां कहांसे आई हे श्रेणिक यह कार्य कर्तव्य यह न कर्तव्य इसका परिपाक शुभ वा अशुभ ऐसाविचार अविवेकी न जानें अज्ञानरूप तिमिरसे प्राचादितहै बुद्धि जिनकी और प्रवीण बुद्धि महाविवेकी अविवेकसे रहित हैं सो इसलोकमें ज्ञानरूप सूर्यके प्रकाशकर योग्य अयोग्य को जान अयोग्य के त्यागी होय योग्य क्रिया में प्रवृत्ते हैं ॥ इति चवालीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर जैसे हृदका तट फूट जाय और जल का प्रवाह विस्तार को प्राप्त होय तैसे खरदूषण
की स्त्री का राम लक्षमण से राग उपजाथा सो उनकी अवांछा से विध्वंस भया तब शोकका प्रवाह प्रकट || भया अतिव्याकुल होय नाना प्रकार विलाप करतीभई अरतिरूप अग्निकर तप्तायमान है अंग जिसका।
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पद्य जैसे क्छड़े विना गाय विलापकरे तैसे शोककरती भई झरे हैं नेत्रोंसे आंसू जिसकेसोविलाप करतीपतिने । Favonदेखी नष्ट भयाहै धीर्य जिसका और धूरकर धूसरा है अंग जिसका बिखर रहे हैं केशों के समूह जिसके
और शिथिल होय रही है कटी मेखला जिसकी और नखोंसे विदारी है वक्षस्थल कुच और जंघा जिस की सो रुधिरसे प्रारक्त है और आवरण रहित लावण्यता रहित और फट गई है चोली जिसकी जैसे माते हाथीने कमलनीको दलमली होय तैसी इसे देख पति धीर्य बन्धाय पूछताभया हे कांते कौन दुष्ट ने तू ऐसी अवस्थाको प्राप्तकरी सो कहो वह कौन है जिसे आज पाठवां चन्द्रमा है अथवा मरण उसके। निकट ओयाहै वह मूढ़ पहाड़ के शिखरपर चढ़ सोवे है सूर्य से क्रीड़ा करे है अन्धकूपमें पड़े है दैव उससे रूसा है मेरी क्रोध रूप अग्निमें पतंगकी नाई पड़ेगा धिक्कार उस पापी अविवेकीको वह पशुसमान अपवित्र अनीती यह लोक परलोक भ्रष्टे जिसने तू दुखाईतूबडवानलकी शिखा समानहै रुदन मतकर और । स्त्रियोंसारखी तू नहीं बड़े वंशकी पुत्री बड़े घर परणी आई है अबही उस दुराचारी को हस्त तले हण परलोक । को प्राप्त करूंगा जैसे सिंह उनमत्तहाथीको हणे इसभांति जब पतिने कही तब चन्द्रनखा महा कष्ट थकी रुदन तज गद गद वाणीसे कहतीभई जुलफोंकर श्राछादित हैं कपोल जिसकी हे नाथ में पुत्रके देखने को बनमें नित्य जातीथी सो अाज पुत्रका मस्तक कटा भूमिमें पड़ा देखा और रुधिरकी धारा कर बांसों का बीड़ा पारक्त देखा किसी पापी ने मेरे पुत्र को मार खडग रत्न लिया कैसा है खडग देवोंकर सेवने
योग्य सो में अनेक दुखोंका भाजन भाग्य रहित पुत्रका मस्तक गोदमें लेय विलाप कस्तीभई सोजिस | पापीने संबक को माराथा उसने मुझसे अनीति विचारी भुजावोंसे पकड़ी में कही मुझे छोड़ सो पापी
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पद्म
पुराण
नीचकुली बाड़े नहीं नखोंसे दांतोंसे विदारी निर्जन बनमें मैं अकेली वह बलवान पुरुष में अबला तथापि ५९॥ पूर्व पुण्य से शील बचाय महा कष्टसे मैं यहां थाई सर्व विद्याधरोंका स्वामी तीनखण्डका अधिपति तीन
लोक प्रसिद्ध रावण किसीसे न जीता जाय सो मेराभाई और तुम खरदूषण नामा महाराज दैत्यजाति के जे विद्याधर तिनके अधिपति मेरे भरतार तथापि मैं दैवयोगसे इस अवस्थाको प्राप्त भई ऐसे चन्द्रनखा के वचन सुन महा क्रोधकर तत्काल जहां पुत्रका शरीर मृतक पड़ाथा वहांगया सो मूवादेख कर अति खेद खिन्न भया पूर्व अवस्थामें पुत्रपूर्णमासी के चन्द्रमा समानथा सो महाभयानक भासता भया खरदूषणने अपने घर या अपने कुटम्बसे मन्त्रकिया तब कैएक मन्त्री कर्कश चित्तथे वे कहते भयेहेदेव जिसने खडग रत्नलिया और पुत्रहता ताहि जो ढीला छोड़ोगे तो न जानिये क्याकरे सो उसका शीघ्र यत्नकरो और कैएक विवेकी कहते भए हे नाथ यहलघुकार्य नहीं सर्व सामन्त एकत्र करो और रावण पैभी पत्र पठावो जिनके हाथ सूर्यहास खडग आया के समान पुरुष नहीं इस लिये सर्व सामन्त एकत्रकर जो विचार करना होय सो करो शीघ्रता न करो तब रावणके निकट तो तत्काल दूत पठाया दूत शीघ्रगामी और तरुण सो तत्काल रावण पै गया रावण का उत्तर पीछा यावे उसके पहिले खरदूषण अपने पुत्र के मरणकर महा द्वेषका भरा सामन्तों से कहताभया वे रंक विद्यावल रहित भूमिगोचरो हमारी विद्या घरोंकी सेनारूप समुद्रके तिरनेको समर्थ नहीं धिक्कार हमारे सूरापन को जो और का सहारा चाहें हैं। हमारी भुजाहें वेही सहाई हैं और दूजा कौन ऐसा कहकर महा अभिमान को धरे शीघ्र ही मन्दिरसे निकसा प्रकाश मार्ग गमन किया तेजरूप है मुख जिसका सो उसको सर्वथा युद्धको सन्मुख जान
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पद्म पुरा
चोदह हजार राजा संगचले सो दण्डक वन में आए उनकी सेना के वादित्रों के शब्द समुदके शब्दसमान yera सीता सुनकर भयको प्राप्तभई हे नाथ क्या है कहां है ऐसे शब्द कह पतिके अंग सें लगी जैसे कल्प बेल कल्प वृक्षसे लगे तब आप कहतेभए हे प्रिये भय मतकर इसे घीर्य बंधाय विचारते भए यह दुर्धर शब्द सिंहका है अक मेघ का अक समुद्रका ह अकदुष्ट पक्षियोंका है सब आकाश पूरगया है तब सीता से कहतेभये हे प्रिये ये दुष्टपक्षीहैं जे मनुष्य और पशुवको लेजाए हैं धनुषके टंकोर से इनको भगादूं उतने ही में शत्रू की सेना निकटाई नानाप्रकारकेच्यायुधोंकर युक्तसुभट दृष्टिपरे जैस पवनके में रे मेघघटावों के समूहविचरें तेस विद्याधर विचारतेभए तब श्रीरामने विचारी ये नन्दीश्वर द्वीपको भगवान की पूजाके अर्थ देव
हैं अथवा बांसों के बीडे में काहू मनुष्यको हतकर लक्ष्मण खडग रत्न लाया और वह कन्या बन
सकुशल थी उसने ये अपने कुटुम्ब केसामन्त प्रेरे हैं इसलिये अपरसेना समीपच्चाए निश्चिंत रहना उचित नहीं धनुषकी ओर दृष्टिधरी और बत्तर पहिरने की तैयारी करी तब लक्षमण हाथजोड़सिर निवाय बिनती करताभया हे देव मेरेहोते आपको एतापरिश्रम करना उचित नहीं आप राजपुत्री रिचा करो मैं शत्रुओं के सन्मुख जाऊं हूं सो जो कदाचित भीड़ पडेगी तो मैं सिंहनाद करूंगा तब आप मेरी सहाय करियो ऐसा कहकर बक्तर पहर शस्त्रधार लक्ष्मण शत्रुओं के सन्मुख युद्धको चला सो वे विद्या धर लत्तणको उत्तम आकारका धारनहारा बीराधिवीर श्रेष्ठपुरुष देख जैसे मेघपर्वतको बेढ़े तैसे बेढ़ते भए शक्ति मुदगर सामान्य चक्र बरछी बाग इत्यादि शस्त्रों की वर्षा करते भए सो अकेला लक्षमण सर्व विद्याधरों के चलाए बाण अपने शस्त्रों से निवारताभया और आपविद्याधरों की ओर आकाशमेव चदण्ड
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। वाण चलावताभया यह कथा गोतमस्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हैं हे राजन अकेला लक्षमण विद्याधरों पुराव की सेनाको बाणोंसे ऐसा रोकता भया जैसे संयमी साधु आत्मज्ञानकर विषय वासनोको रोके लक्षमणके
शस्त्रों से विद्याधरों के सिर रत्नों के आभरणकर मण्डित कुण्डलोंसे शोभित आकाशसे धरतीपर परें मानों अम्बर रूप सरोवर के कमलही हैं योघावों सहित पर्वत समान हाथी पड़े और अश्वों सहित सामन्त पड़े भयानक शुब्प करते होंठ डसते ऊर्धगामी बाणोंकर वासुदेव बहन सहित योधावोंको पीड़ता भया ।।
अथानन्तर पुष्पकविमानमें बैठा रावण पाया सम्बूकके मारणहारे पुरुषोंपर उपजाहै महाक्रोघ जिसको सो मार्गमें रामकेसमीप सीता महा सतीको तिष्ठतीदेखताभयासो देखकर महामोहको प्राप्तभया कैसीहे सीता जिसे देखे रतिका रूपभी इस समान न भासे मानो साक्षात् सक्षमीही है चन्द्रमा समान सुन्दर वन निझन्यां के फूल समान अधर केसरी की कदि समान कटि सहलहाद करते चंचल कमलपत्र समान लोचन और महा गजराज के कुम्भस्थल के शिखर समान कुच नवयौवन सर्व गुणों कर पूर्ण कांति के समूह से संयुक्तहै शरीर जिसका मानों कामके धनुषकी पिणचही है और नेत्र जिसके कामके वाणही हैं मानों नाम कर्मरूप चतरे ने अपनी चपलता निवारनेके निमित्त स्थिरता कर सुख से जैसी चाहिये तैसी बनाई है जिसको देख रावणकी बुद्धि हरीगई महारूपके अतिशयको धरे जो सीता उसके अवलोकनसे संबूक के मारवे वारेपर जो क्रोध था सो जातारहा और सीतापर राग भाव उपजा चित्तकी विचित्रगतिहै मन में चितवताभया उस बिना मेरा जीतव्य कहां और जो विभति मेरे घरमें उससे क्या यह अद्भुतरूप अनुपम महासुन्दर नवयौवन मुझे खरदूषणकी सेनामें आया कोई ननाने उस पहिले इसे हरकर घर लेजाऊ मेरी
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| कीर्तिचन्द्रमा समान निर्मल संकल लोकमें विस्तररही है सो छिपकर लेजाने में मलिन न होय हे श्रेणिक Mean अर्थीदोषको न गिने इसलिये गोप्प लेजाइवेका यत्न किया इस लोकमें लोभ समान और अनर्थ नहीं
और लोभमें परस्त्री के लोभ समान महा अनर्थ नहीं रावणने अवलोकनी विद्या से वृत्तान्त पूछा सो वाके कहेसे इनका नाम कुल सब जाने लक्षमण अनेकसे लड़नहारा एक युद्ध में गया और यह रामहै यह इसकी स्त्री सीताहै औरजब लक्षमण गयो तब रामसे ऐसा कहगयाहै जो मोपै भीड़ पड़ेगी तब मैं सिंहनाद करूंगा तब तुम मेरी सहाय करियो सो वह सिंहनाद में करूं तब यह राम धनुषवाण लेय भाई पै जावेगे और मैं सीता लेजाऊंगा जैसे पक्षी मांसकी डली को लेजाय और खरदूषणका पुत्र तोइनने माराही था और उसकी स्त्रीका अपमान किया सो वह शक्ति आदि शस्त्रोंकर दोनों भाइयोंको मारेहीगाजैसे महो' प्रबल नदीका प्रवाह दोनों ढाहे पाड़े नदीके प्रवाहकी शक्ति छिपी नहीं है तैसे खरदूषणकी शक्ति काहू से छिपी नहीं सबकोई जाने हैं ऐसा-विचारकर मूढ़मति कामकर पीड़ित राबण मरणके अर्थ सीताके हरण का उपाय करताभया जैसे दुखुद्धि वालक विपके लेनेका उपाय करे । - अथानन्तर उधरतो लक्ष्मण और कटकसहित खरदूषण दोनोंमें महायुद्ध होयरहाहै शस्त्रोंका प्रवाह होय रहाहै और इधर रावणने कटककर सिंहनादकिया उसमें बारम्बार सम राम यह शब्दकिया तब रामने जाना कि यह सिंहनाद लक्षमण ने किया सुन कर व्याकुल चित्त भर जानी भाई पै भीड़ पड़ी तब
रामने जानकीको कहा हे प्रिये भय मत करे क्षणएक तिष्ठ ऐसे कह निर्मलपुष्मोंमें छिपाई और जटायु को | कहा हे मित्र यह स्त्री अबलाजाति है इसकी रक्षाकरियो तुम हमारे परम मित्रहो धर्मी हो ऐसा कहकर आप |
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पद्म
पुराव
॥५५
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धनुषवाण लेयचले सो अपशकुन भए सो न गिने महासती को अकेली बनमें छोड शीघ्रही भाई पै गए महारण में भाईके आगे जाय ठाढ़े रहे उससमय रावण सीता के उठायवे को याया जैसा माताहाथी कमलिनी को लेने द्यावे काम रूप दाहकर प्रज्वलित है मन जिसका भूलगई है समस्त धर्मकी बुद्धिजिसकी सीताको उठी पुष्पक विमानमें धरनेलगा तब जटायु पक्षी स्वामींकी स्त्री को हरतीदेख क्रोधरूद अग्निकर प्रज्वलित भयाउठकर अति वेगसे रावणपर पडा तीक्षण नखोंकी अणी और चंचसे रावण का उरस्थल रुधिर संयुक्त किया और अपनी कठोर पावोंसे रावणके वस्त्र फाडे रावण का सर्वशरीर खेदखिन्नकिया तब रावणने जानी यह सीताको छुडावेगा झंझट करेगा इतने से इसका धनी थान पहुंचेगा सो इसे मनोहर वस्तु का अवरोधक जान महा क्रोधकर हाथ की चपेट से मारा सो प्रति कटोर हाथकी घातसे पक्षी विह्वलहोय पुकारताहुवो पृथिवी में पड़ा मूर्द्धाको प्राप्तभया तब रावण जनकसुताको पुष्पक विमान में घर अपने स्थानकको लेचला हेश्रेणिक यद्यपि रावण जाने है यह कार्य योग्य नहीं तथापि काम के वशीभूत हुआ सर्व विचार भूल गया सीता महासती आप को परपुरुष कर हरी जान रामके अनुरोग से भीज रहा है चित्त जिस का महा शोकवन्ती होय रतिरूप विलाप करती भई, तब रावण इसे निज भरतार में अनुरक्त जान रुदन करती देख कुलू एक उदास होय विचारता भया जो यह निरन्तर रोवे है और विरह कर व्याकुल है अपने भतार के गुण गावे है अन्यपुरुष के संयोग का अभिलाष नहीं, सो स्त्री अवध्य है इसलिये मैं मार न सक और कोई मेरी अज्ञा उलंघेतो उसे मारूं और मैं साधुवों के निकट ब्रत लिया था जो परस्त्री मुझे न इच्छे उसे मैं न से सो मुझे यह बतदृढ़ रखना इसे कोई उपायकर प्रसन्नकरूं उपायकिये प्रसन्न होयगी:
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पुरात
१५९६॥
जैसे काधवन्त राजा शीघ्र ही प्रसन्न न किया जाय तैसे हठेवन्ती स्त्री भी वश न करी जाय जो कछ वस्तु ॥ है सो यत्नसे सिद्ध होयहै मनवांछित विद्या परलोककी क्रिया और मनभावना स्त्री ये यत्मसे सिद्ध होय यह विचारकर रावण सीता के प्रसन्न होने का समय हेरे कैसा है गवण मरण पाया है निकट जिसके ॥
अथानन्तर श्रीरामने वाणरूप जलकी धारा कर पूर्ण जोरणमण्डल उसमें प्रवेश किया सो लक्षमण | देख कर कहता भया हाय हाय एते दूर आप क्यों आए हे देव जानकी को अवली बन में मेल पाए । यह बन अनेक विग्रहका भरा है तब रामने कही में तेरा सिंहनाद सुन शीघ्राया तब लक्षमणने कहीं
आप भली न करी अब शीघ्र जहां जानकी है वहां जावो तब रामनै जानी वीरतो महाधीर है इस शत्र का। भय नहीं इसको कही तू परम ऊत्साह रूप है बलवान बैरी को जीत ऐसा कह कर आप सीता की उपजी हैं शंका जिनको सो चञ्चलचित्त होय जानकीकी तरफचले क्षणमात्र में प्राय देखें तो जानकी नहीं तब प्रथम तो विचारी कदाचित् में सुरति भङ्गभया हूं फिर निर्धारणकर देखें तो सीतानहीं तब श्राप हाय सीता ऐसा कह मूळ खाय धरती पर पड़े, सो धरती रामके मिलाप से कैसी होती भई जैसे भरसारके मिलाप से। भार्या सोहै फिर सचेत होय वृक्षोंको और दृष्टिं घर प्रेमके भरे अत्यंत आकुल होय कहते भए हे देवी त , कहां गई क्यों न बोले हो बहुत हास्यकर क्या वृक्षोंके श्राश्रय बैठी होय तो शीघ ही आवो कोपकर क्या में तो शीघ्र ही तुम्हारे निकट आया हेप्रामावल्लभे यहतुम्हारा कोप हमें दुखका कारणहै इसभांति विलाप करते
फिरे हैं सो एक नीची भूमिमें जटायु को कण्ठगति प्राण देखा तब आप पक्षी को देख अत्यन्त खेदखिन्न। | होय इसके समीप बैठे नमोकारमंत्र दियो और दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये चार आराधना सुनाई अरिहंत ।
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पराम
'पन सिद्ध साधु केवली प्रणीत धर्मका शरण लिवाया पक्षी श्रावककै व्रतका धरणहारा श्रीरामके अनुग्रहसे ।
समाधि मरण कर स्वर्ग के विषे देव भया परंपराय मोक्षजायगा, पक्षीके मरणके पीछे आप यद्यपि ज्ञानरूपहें। तथापि चात्रि मोहके वश होय महाशोकवन्त अकेले बनमें प्रिया के वियोगके दाह कर मूर्छा खाय पडे फिर सचेत होय महाव्याकुल महासती सीता को टूटते फिरें निराश भए दीन वचन कहें जैसे भूतके श्रावेश कर युक्त पुरुष वृथा अलाप करे छिद्र पाय महाभीम बनमें काहू पापीने जानकी हरी सो बहुत विपरीत करी मुझे मारा अब जो कोई मुझे प्रिया मिलावे और मेरा शोकहरे उससमान मेरा परम बांधवनहीं हो बन के वृक्ष हो तुम जनकसुता देखी चंपा के पुष्प समान रंगकमल दल लोचन सुकुमार चरण निर्मल स्वभाव । उत्तम चाल चित्तकी उत्सव करणहारी कमलके मकरंद समान सुगन्ध मुखका स्वांस स्त्रियोंके मध्य श्रेष्ठ तुमने पूर्व देखीहोय तो कहीं इसभांति बनके बचोसे पूछे हैं सो वै एकेन्द्री वृक्ष कहाँ उत्तर देवें तब राम सीताके गुणोंसे हराहै मन जिनका फिर मू खाय धरतीपर पड़े फिर संचतहोय महाकोधायमान बजा वर्त पनुपहाथमें लिया फिणच चढ़ाई. टंकोर किया सो दशौदिशा शब्दायमानभई सिंहोंको भयकाउप| जावनहारा नरसिंहने धनुषका नाद किया सो सिंहभागगए और गोंक मद उतरगएतब धनुष उतार
अत्यन्त विषारको प्राप्तहोय बैठकर अपनी भूलका सोच करतेभए, हाय हाय में मिथ्या सिंहनाद के । श्रवणकर विश्वासमान वृथा जाय प्रिया खोई जैसे मूढजीवकुश्रतका श्रवण सुन विश्वासमान अविवेकी
होय शुभगत्तिको खोवे सो मूढके खोयवेका आश्चर्य नहीं परन्तु में धर्मबुद्धि बीतराग के मार्ग का । || श्रद्धानी असमझहोय अमुरकी मायामें मोहित हुवा यह आश्चर्यकी बातहै जैसे इस भव बनमें अत्यंत ।
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।।५८
पर दुर्लभ मनुष्यकी देह महापुण्य कर्मकर पाई उसे वृया खोवे सो फिर कब पावे और त्रैलोक्य में दुर्लभ
महारत्न ताहि समुद्र में डारे फिर कहां पावे तैसे बनितारूप अमृत मेरेहाथसे गया फिर कोन उपायसे । पाइये इस निर्जन बनमें कौनको दोषदू में उसे तजकर भाईपे गया सो कदात्रित कौपकर नार्याभई। होय इस अरण्य बनमें मनुष्य नहीं कौनको जाय पूड़े जो हमको स्त्रीकी वार्ता कहे ऐसा कोई इसलोक। में दयावान श्रेष्ठ पुरुषहै जो मुझे सीता दिखावे वह महासती शीलवन्ती सर्व पापरहित मेरेहृदयको। बल्लभ मेरा मनरूप मंदिर उसके बिरहरूप अग्निसे जरे है सो उम्रकी बार्ता रूप जलके दानकर कौन । बुझावे ऐसा कहकर परम उदास धरती की और है दृष्टि जिनकी बारम्बार कछु इक विचारकर निश्चल । होय तिष्ठे एक चकवीका शब्द निकटही सुना सो सुनकर उसकी भोर निरखा फिर विचारी इसगिरि । का तट अत्यंतसुगंधहोय रहाहै सों इसही और गई होय अथवा यह कमलोंका बनहै यहां कौतूहलके । अर्थ गईहोय आगे इसने यह बन देखाथा सो स्थानक मनोहरहै नानाप्रकारके पुष्पोंकर पूर्णहै कदाचित वहां तणमात्र गईहोय सो यह विचार श्राप वहां गए वहांभी सीताको न देखा चकवी देखा तब बिचारी वह पतिव्रता मेरेबिना अकेली कहां जाय फिर ब्याकुलताको प्राप्तहोय जायकर पर्वतसे पूछते । भए । हे गिरिराज तू अनेकधातुओंसे भराहै मैं राजा दशरथका पुत्र रामचन्द्र तुझे पूछूई कमल सारिखेनेत्र। जिसके सोसीतामेरे मनकी प्यारी हंसगामिनी सुन्दर रत्नोंके भारसे नमीभृतहै अंग जिसका किंदूरीसमान
अंधर मुन्दर नितंबसो तुमकहूं देखीवहकहांहै तब पहाडक्या जवाबदेय इनके शब्दसे गूंजा। तव श्राप | जानी कछु इसने शब्द कहा जानिएहै इसने न देखी वह महासती काल प्राप्तभई यह नदी प्रचंड तरंगों
MEDIAS
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पुरास
की धरणहारी अत्यन्त वेगको धरे अविवेकबन्ती इसने मेरी कांता हरीजैसे पापकी इच्छा विद्याको हरे अथवा कोई क्रूर सिंह तुधातुर भरख गयाहोय वह धर्मात्मा साधुव!की सेवक सिंहादिक के देखते ही नखादि के स्पर्श बिनाही प्राणदेय। मेरा भाई भयानक रणमें संग्राममें है सो जीवनेका संशय है यह संसार असारहै और सर्व जीवराशि संशय रूपही हैं अहो यह बड़ा आश्चर्य है जो मैं संसार का स्वरूप जानूहूं और दुखसे शून्यहोय रहाहूं । एक दुख पूरा नहीं परे है और दूजा और आवे है इसलिये जानिए है कि यह संसारदुखका सागरही है जैसे खोडे पगको खंडित करना और दाहे मारेको भस्मकरना और डिगे को गर्तमें डारनारामचंद्रजीने बनमें भ्रमणकर मृगसिंहादिक अनेक जन्तु देखे परंतु सीतान देखी तब अपने आश्रम प्राय अत्यन्त दीनवदन धनुष उतार पृथिवीमें तिष्ठे बारम्बार अनेक विकल्प कस्ते क्षण एकनिश्चलहोय मुखसे पुकारतेभए। हे श्रेणिक ऐसे महा पुरुषका भी पूर्वोपार्जित अशुभके उदय से दुख होगहै ऐसाजानकर हो मग्यजीव हो सदा जिनवरके धर्ममें बुद्धिलगावो संसारसे ममतातजोजे पुरुष संसास्के विकासे पसमुसहोप और जिन बबनको नहीं मारावे संसारके विषे शरणरहित पारूप वृचके कटक फल भोमवे हैं कर्मस्पशत्रुके आतापसे खेद खिन्न हैं। इति पेंतालीसवां पर्व संपूर्णम्
अथानन्तर लक्ष्मण के समीप युद्ध में खरदूषणका शत्रु विराधित नामा विद्याधर अपने मंत्रीऔरशस्वीरों सहित शस्त्रोंकरपूर्ण माया सो लक्षमणको अकेलायुद्धकरता देख महा नरोत्तम जान अपने स्वार्थकी सिद्धि बनसे जान प्रसन्न भ्या महा तेजकर देदीप्पमान शोभताभया वाहन से उतर गोड़े धरती लगाय हायजोड़ । सीसनिवाय अति नमीभत होय परम विनय से कहता भया हे नाथ में आप का भक्त हूं कछु इक मेरी
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पद्म
पुरान
६००॥
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बीती सुनो तुम सारिख दुख का क्षय करनहारे हो उसने घी कही आप सारी समक्षगए उस के मस्तकपर घर कहते भए तू डर मत हमारे पीछे खड़ा रह तब वह नमस्कार कर प्रति श्राश्चर्य को प्राप्त होय कहता या हे प्रभो यह खरदूषण शत्रु महाशक्ति को घरे है इसे आप निवारो और सेना के योघावों से मैं लडूंगा ऐसा कह खरदूषण के योद्धाओं से विराधित लड़ने लगा दौड़ कर तिनके कटक पर पड़ा अपनी सेना सहित ललाट करे हैं श्रायुधों केसमुह विराधित तिन से प्रगट कहता भया में राजा चन्द्रोदय का पुत्र विधित घने दिनों में पिता का बैर लेने आया हूं युद्ध का अभिलाषी अब तुम कहां जावो हो जे युद्ध में . मुत्रीय होतो खड़े रहो, में ऐसा भयंकर कल दूंगा जैसा यम देय ऐसा कहा तब तिन योद्धावोंके और इन केमहासंग्राम भयो धनेक सुभर दोनों सेना के मारे गए पियादे प्यादेयों से घोड़ों के प्रसवार घोड़ों के
वारों से हाथीयों के सवार हाथीयों के असवारों से रथी रथीयों से परस्पर हर्षित होय युद्ध करते भए । वह उसे बुलावे वह उसे बुलावे इस भान्ति परस्पर युद्ध कर दशों दिशा को बाणों से माछादित करते भए ।
अथानंतर लक्षमण और खरदूषण का महायुद्ध भया जैसा इन्द्र और असुरेन्द्रके युद्ध होय उस समय खरदूषण क्रोध कर मण्डित लक्षमणसे लाल नेत्र कर कहता भया । मेरा पुत्र निवेर सो तेंने हा और चपल तैंने कांता के कुचमर्दन किये सो मेरी दृष्टि से कहां जायगा ब्राज तीक्षण वाणों से तेरे प्राण हरूंगा जैसे कर्म किए हैं तिनका फल भोगवेगा, हे क्षुद्र निर्लज्ज पर स्त्री संग लोलुपी मे रे सन्मुख आय कर परलोक जा । तब उस के कठोर बचनों से प्रज्वलित भयाहैमन जिसका सो लक्षमण वचन कर सकल आकाश को पूरताहुवा कहता भया । अरे क्षुत्र वृथा क्यों गाजे है जहाँ तेरा पुत्र मया वहां तुझे पठाऊंगा ऐसा कहकर आकाश के विषे
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पया
तिष्ठता जो खरदूषण उसे लक्ष्मणने रथरहित किया और उसका धनुषतोड़ा और ध्वजाउड़ायदई औरप्रभा । रहित किया तब वह क्रोधकर भरा पृथिवीके विषे पड़ा जैसे क्षीणपुण्य भए दैव स्वर्ग से पडे फिर महा सुभट खडगलेय लक्ष्मणपर पाया तब लक्षमण सूर्यहास खडगलेय उसके सन्मुख भया इन दोनों में नानाप्रकार महायुद्ध भया देव पुष्पवृष्टि करते भए, और धन्य २ शब्द करतेभए फिर महा युद्धके विषे सूधहास खडगकर लक्षमणने खरदूषणका सिर काटा सो निर्जीव होय खरदूषण पृथिवी पर पड़ा मानों स्वर्गसे देव गिरा सूर्यसपानहे तेज जिसका मानों रत्न पर्वतका शिखर दिग्गजने ढाहा।
अथानन्तर खरदूषणका सेनापति दूषण विरापितको रथ रहित करनेको प्रारम्भताभया तब लक्षमण ने बाणसे मर्मस्थलको घायल किया सो घूमताभूमि में पड़ा और लक्षमणने खरदूषणका सकल समुदाय और कटक और पाताल लंकापुरी विरातिको दीनी और लक्षमण अतिस्नेहका भरा जहाँ राम तिष्ठे हैं वहां पाया प्रानकर देखे तो आप भूमिमें पड़े हैं और स्थानकमें सीता नहीं तबलचमणने कही हे नाथ उठो कहां सोवो हो जानकी कहां गई, तब राम उठकर लक्षमणकोघावरहित देख कछु इक हर्षको प्राप्तभए । लक्ष्मणको उरसे लगाया और कहतेभए । हे भाई में न जानूं जानकी कहां गई। कोई हर लेयगया अथवा सिंह भषगया बहुत हेगसो नपाई अति सुकुमार शरीर उदवेगकर विलयगई तब लचमण विषादरूप होय क्रोधकर कहताभया। हे देव सोचके प्रबन्ध कर क्या यह निश्चय करो। कोई दुष्ट दैत्य हर लेगयाहै जहां तिष्ठे है सोलावेंगेश्राप संदेह न करो नानाप्रकारके प्रिय बचनों से रामको धीर्य बंधाय और निर्मलजनसे सुबुद्धिने रामका मुख धुवाया इसी समय विशेष शब्द मुन राम ने |
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पद्म पुराण ॥६०२॥
पूछा यह शब्द काहेका है तब लक्षमणने कही हे नाथ यह चन्द्रोदय विद्याधरका पुत्र विराधित इसने स्गमें मेरा बहुत उपकार किया सो भापक निकट अायाहै इसकी सेनाका शब्दहै इस भांति दोनों बौरबार्च करे हैं और वह बड़ी सेनासहित हाथ जोड नमस्कारकर जयजय शब्द कहे अपने मंत्रियों सहित बिनती करताभया आप हमारे स्वामी हो हम सेवक हैं जो कार्य होय उसकी श्राज्ञा देवो तब लक्षमण कहता भया हे मित्र किसी दुराचारी ने मेरेप्रभुकी स्त्री हरी है इस बिना रामचन्द्र जोशोक के बशी होय कदाचत प्राणको तजें तो मैं भी अग्नि में प्रवेश करूंगा उनके प्राणों के अाधार मेरेप्राण हैं यह तू निश्चय जान इस लिये यह कार्य कर्तव्य है भले जान सो कर तब यह बात सुन बह अति दुखितहोय नीचा मुख कर रहा और मन में विचारता भया एते दिन मोहि स्थानक भूष्ट हुए भए नाना प्रकार बन बिहार किया और इन्होंने मेरा शत्रु हना स्थानक दिया इनकी यह दशा में जो २ विकल्प करूंहूं सो योंही वृथा जाय, यह समस्त जगत कर्माधीनहै तथापि मैं कछू उद्यम कर इनका कार्य सिद्ध करूं ऐसा विचार अपने मंत्रियों से कहा पुरुषोत्तम की स्त्री रत्न पृथिवीपर जहां होय तहां जल स्थल आकाशपूर चन गिरि ग्रामादिक में यत्नकर हेरो यह कार्यभए मन बांछित फल पापोगे ऐसी राजा विरापित की प्राज्ञा मुन यश के अर्थी सर्व दिशाको विद्याधर दौडे। __अथानन्तर एक रत्ननटी विद्याधर अर्कटी का पुत्र सो आकाश मार्ग में जाताथा उस ने सीता के रुदन की हाय राम हाय लक्षमणयहध्वनि समुद्र के ऊपर श्राकाश में सुनी तब रत्नजटी वहां आय देखे तो रावण के विमान में सांताबैठी बिलाप करे है तब सीताको विलाप करती देख रत्मजवी क्रोधका भग
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॥६०३॥
रावण सों कहता भया हे पापी दुष्ट विद्याधर ऐसा अपराध कर कहां जायगा यहभामण्डल की बहन रामदेव की गणी है मैं भामंडल का सेवक हूं हे दुर्बुद्धि जिया चाहे तो इसे छोड तबरावण अति क्रोध कर युद्ध को उद्यमी भया फिर विचारी कदाचित युद्धके होते अति विह्वल जो सीतासोमरजावतोभला नहीं इस लिये यद्यपि यह विद्याधर रंक है तथापि उपाय से मारना ऐसाविचार रावण महाबलीने रत्न जटी की विद्याहर लीनी सो रत्नजटी आकाश से पृथिर्वापर पड़ा मन्त्रके प्रभावसे धीरा रस्फुलिंगेकीन्याई समुद्र के मध्य कंपद्वीपमें श्राय पड़ा आयुकर्मके योग्यस जीवता वचाजैसे बणिक काजहाजफटजाय और जीवता बचे सो रत्नजटी विद्याखोय जीवता बचासो विद्या तो जातीरही जिसकर विमान में वैठ घर पहुंचे सो अत्यन्त स्वासलेता कम्बूपर्वतपर चढदिशाका अवलोकन करताभया समुद्रकी शीतल पवनकर खेद मिटा सो बनफल खाय कम्बूपर्वतपर रहे और जेविरधितके सेवक विद्याधर सब दिशाको नानाभेषकर दौड़े थे वे सीताको न देख पीछे आये सोउनका मलिन मुख देखरामने जानी सीता इनकी दृष्टिनआई तब राम दीर्घ स्वांस नांख कहते भए हे भले विद्याधर हो तुमने हमारे कार्य के अर्थ अपनी शक्ति प्रमाण अति यत्न किया परन्तुहमारे अशुभ का उदय इस लिए अबतुम सुखसे अपने स्थानक जावो हाथ से बड़वानल में गया रत्न फिर कहां दीखे कर्म का फल है सो अवश्य भोगना हमारा तुम्हारा निवारान निवरे हम कुटम्बसे छूटे बनमें पैठेतोभी कर्मशत्रुको दयान उपजी इसलिये हमनेजानी हमारे असोता का उदय है सीता भी गई इससमान और दुखक्या होयगा इसभान्ति कहकर राम रोक्नेलगे, महाधीर नरों के अधिपति तब बिराधित धीर्य बंबायवे विषे पंडित नमस्कार कर हाथ जोड़ कहतो भया हे देव आप एता विषाद क्यों
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॥६०४॥
पद्म । करो थोड़े ही दिन में आप जनक सुता को देखोगे, कैसी है जनकसुता निःपाप है देह जिसकी हे प्रभो |
यह शोकमहा शत्रु है शरीरका नासकरें औरवस्तुकी क्याबात इसलिये आप धीर्य अंगीकार करो यह धीर्य ही महापुरुषों का सर्वस्व है आप सारीखे पुरुष विवेक के निवास हैं धीर्यवन्त प्राणी अनेक कल्याण देख और आतुर अत्यन्त कष्ट करेतो भी इयवस्तुको न देखे और यह समय विषादका नहीं आप मन खगाय सुनों विद्याधरों का महाराजा खरदूषण मारा सो अब इसका परिपाक विषम है सुग्रीव किहकंधापुर का घनी और इन्द्रजीत कुम्भकर्ण त्रिशिर अक्षोभ भीम क्रूरकर्मा महोदर इनको आदि दे अनेक विद्याधर महा योधा बलवन्त इस के परममित्र हैं सो इस के मरण के दुःख से क्रोध को प्राप्त भए होंगे ये समस्त नाना प्रकार युद्ध में प्रवीण हैं हजारां ठौर रण में कीर्ति पाय चुके हैं और वेताड़ पर्वत के अनेक विद्या घर खरदूषण के मित्रहैं और पवनञ्जय का पुत्र हनूमान् जाहि लखे सुभट दर ही टरें उस के सन्मुख देव भी न आवें सो खरदूषणका जमाई है इसलिये वह भा इसके मरणका रोष करेगा इसलिये यहां बन में न रहनाअलंकारोदय नगर जोपाताललंका उसमें विराजिये और भामंडल को सीता के समाचार पठाइये वह नगर महादुर्गम है वहां निश्चल होय कार्य को उपाय सर्वथा करगे इंसभान्ति विरोधित ने विनती करी तब दोनों भाई चार घोड़ों का रथ तापर चढ़कर पाताललंका को चले सो दोनों पुरुषोत्तम सीता बिना न शोभते भए जैसे सम्यक्दृष्टि बिनो ज्ञान चारित्र न सोहें चतुरंग सेना रूप सागर से मंडित दण्डक बन से चले, विराधित आगाऊ गया वहां चन्द्रनखा का पुत्र सुन्दर सो लड़ने को नगर के बाहर निकसा उसने यद्ध किया सो उसको जीत नगर में प्रवेशकिया देवोंके नगर समान वह नगर रत्ममई
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पराव
-
पर वहां खरदूषण के मंदिर में विराजे सो महा मनोहर सुरमन्दिर समान वह मन्दिर वहां सीता बिना रश्चमात्र ison भी विश्राम को न पावते भए सीता में है मन राम का सो राम को प्रियाके समीप कर बन भी मनोग्य
भासता था अब कांताके वियोगकर दग्ध जो राम तिनको नगर मन्दिर विन्ध्याचलके बनसमान भासें ।
अथानन्तर खरदूषण के मन्दिर में जिनमन्दिर देखकर रघुनाथने प्रवेश किया वहां अरिहंत की प्रतिमा देख रत्नमई पुष्पोंकर अर्चा करी क्षण एक सीता का संताप भूल गये जहां जहां भगवान् के
चैत्यालय येवहां वहां दर्शन किया प्रशान्त भई है दुःख की लहर जिनके रामचन्द्र खरदूषण के महल में । तिष्ठे हैं और सुन्दर अपनी माता चन्दनखा सहित पिता और भाई के शोक कर महाशोक सहित लंका 1 गया। यहपरिग्रह विनाशीकहै और महादुःख का कारण है विघ्न कर युक्त है इसलिये हे भन्यजीव होतिन
विषे इच्छा निवारो यद्यपि जीबोंके पूर्व कर्म के सम्बन्ध से परिग्रह की अभिलाषा होय है तथापि साधुवम के | उपदेश से यह तृष्णा निवृत्त होयहै जैसे सूर्य के उदयसे रात्रिनिवृत्त होयहै।। इति छयालीसवांपर्व संपूर्णम्॥ - अथानन्तर रावण सीता को लेय ऊंचे शिखरपर तिष्ठा धीरे धीरे चालता भया जैसे आकाश में सूर्य चले शोककर तमायमान जो सीता उसका मुख कमल कुमलाय मान देख रतिके राग कर मूद भयाहै मन जिसको ऐसा जो रावण सो सीता के चौगिर्द फिरे और दीनवचन कहे. हे देवी काम के वाणकर में हता जाऊंहूं सो तुझे मनुष्य की हत्या होयगी हे सुन्दरी यह तेरा मुखरूप कमल सर्वथा, कोप संयुक्त है तो भी मनोग्य से अधिक मनोग्य भासे है प्रसन्न होय एक वेर मेरी ओर दृष्टिघर देख तेरे नेत्रों की कांति रूप जल कर मोहि स्नान कराय और जो कृपा दृष्टि कर नहीं निहार तो
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E
SH
अपने चरण कमल से मेरा मस्तक तोड़ हाय हाय तेरी क्रीड़ा के बन में अशोक वृक्ष ही क्यों न । भया. जो तेरे चरण कमल की पगथली की घात अत्यन्त प्रशंसा योग्य सो मुझे सुलभ होती भावाथअशोक बृक्ष स्त्री के पगथली के घात से फले । हे कृशोदरी विमानके शिखर पर तिष्ठी सर्व दिशादेख में सूर्य के ऊपर आकाश में आया हूं मेरु कुलाचल और समुद्र सहित पृथिवी देख मानों काहू । सिलावटने रची है ऐसे वचन रावणने कहे तब वह महासती शीलका सुमेरु पटके अन्तर अरुचि के। अक्षर कहती भई हे अधम दूर रहो मेरे अंग का स्पर्श मत करे और ऐसे निन्द्य वचन कभी मत। कहे रे पापी अल्प आयु. कुगति गामी अपयशी तेरे यह दुराचार तुझे ही भयकारी हैं परदारा की अभिलाषा करता त महा दुःख पावेगा जैसे कोई भस्म कर दवी अग्नि पर पांव घरे तो जरे तैसे तू इन कर्मोंसे बहुतपछतावेगा तू महामोहरूप कीचसे मलिन चित्त है सो तुझे धर्मका उपदेश देना बृथा है जैसे अन्ध के निकट नृत्य करे हे क्षुद्र जे पर स्त्रीकी अभिलाषा करे हैं वे इच्छामात्रही पाप को बांधकर नरक में महा कष्टको भोगे हैं इत्यादि रुक्ष वचन सीता ने रावण से कहे तथापि कामकर हता है चित्त जिसका सो अविवेक से पीछो न भया और खरदूषणको जे मदद गएथे परम हितु शुक, हस्त प्रहस्तादिक वे खरदूषण के मूबे पीछे उदास होय लंका पाए सो रावण काहूकी ओर देखे नहीं जानकी को नानाप्रकार के वचनकर प्रसन्न करे सो वह कहां प्रसन्न होय जैसे अग्नि की ज्वाला को कोई पीय न सके और नाग के माथे की मणिको न लेयसके तैसे सीताको कोई मोह न उपजायसके फिर रावण ने हाथ जोड़ सीस निवाय नमस्कार कर नानाप्रकार के दीनताके बचन कहे सो सीताने इस
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॥६०
पद्म के वचन कछ न सुने फिर मन्त्री आदि सन्मुख आए सर्व दिशा से सामन्त पाए राक्षसोंका पतिजो
रावण सो अनेक लोकोंकर मण्डिताहोताभया लोक जयजयकार शब्द करतेभए मनोहर गीत नृत्य वादित्र होतेभये रावणने इन्द्र की न्याई लंकामें प्रवेश किया सीता चित्तमें चितवतीभई ऐसा राजा अमर्यादा की रीति करे तब पृथिवी कौनके शरण रहे जब रामचन्द्रकी कुशल क्षेम की वार्ता में न सुन तबलग खोन पानका मेरे त्याग है रावण देवारण्य नामा उपवन स्वर्गसमान परम सुन्दर जहां कल्पवृक्ष समान वृक्ष वहां सीताको मेलकर अपने मन्दिर गया उसही समय खरदूषण के मरण के समाचार आए सो महा शोककर रावणकी अठारा हजार राणी ऊंचे स्वरकर विलाप करतीभई और चन्द्रनखा रावणकी गोद में लोटकर अति रुदन करतीभई हाय में अभागिनी हतीगई मेरा धनी माग गया मेहके झरने समान रुदनकिया अश्रूपात का प्रवाह बही पति और पुत्र दोनोंके मरणके शोकरूप अग्नि कर दग्धायमानहै हृदय जिसका सो इसे विलाप करती देख इसका भाई रावण कहताभया हे वत्से रोयवेकर क्या इस जगत् के प्रसिद्ध चरित्रको क्या न जाने है विना काल कोई वजसे भी हता न मरे और जब मृत्युकाल भावे तब सहजही मरजाय कहां थे भामगोचरी राम और कहां तेरा भरतार विद्याधर दैत्यों का अधिपति खरदूषण ताहि वेमार यह कालही का कारण है अब जिसने तेस पति मारा ताको में मारूंगा इस भांति बहिनको घीर्य बंधाय कहताभया भक्त भगवानको अर्चनकर श्राविका के व्रत धार चन्द्रनखा को ऐसा कह कर
रावणमहल में गया सर्पकी न्याइ निश्वास नाखता सेजपर पड़ा वहां पटराणी मन्दोदरी आय कर भर|| तारको व्याकुल देख कहतीभई हे नाथ खादषणके मरणकर अति ब्याकुलभएहो सो तुम्हारे सुभटकुल
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Mteca
में यह बात उचित नहीं जे शवीर हैं तिनके मोटी आपदा में विषाद नहीं तुम बीराघिवीर चत्री हो पुराव तुम्हारे कुलमें तुम्हारेपुरुष और तुम्हारे मित्र रण संग्राम में अनेक क्षयभये सो कौन रकाशोककरोगो तुमने
कभी किसीका शोक न किया अब खरदुषणका एता सोच क्यों करो हो पूर्वे इन्दके संग्राम विषे तुम्हारा काका श्रीमाली मरणको प्राप्तभया और अनेक बांधव रण में हते गए तुम काहू का कभी शोक म किया आज ऐसा सोच दृढ़ क्यों पड़ा है जैसा पूर्व कभी हमारी दृष्टिना पड़ा तब रावण निश्वास नाख बोला हे सुन्दरी सुन मेरे अन्तःकरण का रहस्य तुझे कहूं तू मेरे प्राणों की स्वामिनी है और सदामेरी बांछापूर्ण करहै जो तू मेरा जीतन्य चाहे है तोकोप मतकरमैं कहूं सो कर सर्ववस्तु का मूल प्राण हैं तब | मन्दोदरीने कही जो पाप कहो सो में करूं तब रावण इसकी सलाह लेय विलखाहीय कहताभया हेप्रिये एक सोतानामा स्त्री स्त्रियोंकी सृष्टि में ऐसी और नहीं सो वह मुझे न इच्छे तो मेरा जीवना नहीं मेरी लावएयतारूप यौवन माधुर्यता सुन्दरता सुन्दरीको पायकर सफल होय तब मन्दोदरी इसकी दशा कष्टरूप जान हंस कर दान्तों की कान्तिरूप चान्दनी को प्रकाशती सन्ती कहती भई हे नाथ यह बड़ाआश्चर्य है तुम सारीखे प्रार्थनाकरे और वह तुम को न इच्छे सो मन्दभागिनी है इससंसार में ऐसी कौनपरम सुन्दरी है जिस का मन तुम्हारे देखे खण्डित न होय और मन मोहित न होय अथवा वह सीता कोई परम उदय रूप अद्भुत त्रैलोक्य सुन्दरी है जिस को तुम इच्छो हो और वह तुम को नहीं इच्छे है ये तुम्हारेकर हस्ती की सुण्ड समान रत्नजड़ित वाजूओं से युक्त उन से उर से लगाय बलात्कारे क्यों न सेवो तब | रावण ने कहीउस सर्वाग सुन्दरीको में बलात्कार नहीं गहूं उसका कारण सुन अनन्तवीर्यकेवलीके निकट
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पद्म
पुराव
MEGR
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मैं एकव्रत लिया है वे भगवान दे इन्द्रादिक कर कन्दनीक ऐसा व्याख्यान करते भए कि इस संसार में भ्रमण करते जीव परम दुखी तिनके पापों थकी निवृति निर्वाणका कारण है एक भी नियम महा फलको देय है और जिन के एक भी बत नहीं के नर जर्जरे कलश समान निर्गुण हैं जिनके मौत का कारण कोई नियम नहीं तिन मनुष्यों में और पात्रों में कबू अन्तर नहीं इस लिये अपनी शक्ति प्रमाण पापों को जो सुक्तरूप धन को अंगीकार करो ताते जन्म के आंबेकी व्याई संसाररूप अन्धकूप में व परो इस भान्ति भगवान के मुखरूप कपलसे निकसे वचनरूप अमृत सो पीयकर के यक मनुष्य तो मुनि के यत्र अल्प शक्ति अमुक्तका धारण कर श्रावक भए कर्म के सम्बन्ध से सब की एक तुल्य शक्ति: वहीं वहां भगवान केवली के समीप एक साधु मोसे कृपाकर कहते भया हे दशानन कछु नियम तुमभी लेहु तू दया धर्मरूपरून नदी में आया है सो रूप रन के विन खाली न जाय ऐसा कहा तब मैं प्राकर वेव असुर विद्याधरमान सबकी साचीलिया कि जो पनारी मुझे न इच्छे ताहि मैं बलात्कार स
ऊ हे प्राण पिए मैं विचारी मोसे रूपवान नार को बीछे ऐसी कौन नारी है जो मान करे इस लिए मैं वास्कार न से सजाओंों की यही रीति है जो वचन कहें सो निवाहें अन्यथा महादोष लागे सो मैं इसलिए प्राण त ता पहिले सीता को प्र घरके भरा भए पीछे कुवां खोदना, वृथा देवक मन्दोदरी को विहल जान कहती भई हे नाव तुम्हारी आज्ञाप्रमाण ही होयगा ऐसा कह देनारम्य मा उद्यान में गई और उसका की अह हजार राणी गई मन्दोदरी आयकर सीता मो. साति कहती भई हे सुमदर हर्ष के स्थान में कहां विवाद पर रही है जिस स्त्री के रावण पति
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पुराण ॥६१०॥
सो जगत में धन्य है सर्व विद्याधरों का अधिपति सुरपति का जीतनहारा तीन लोक में सुन्दर उसे क्यों न इच्छे निर्जन बन के निवासी निर्धन शक्ति हीन भूमि गोचरी तिनके अर्थ कहा दुःख करे है सर्व लोक में श्रेष्ठ उसे अंगीकार कर क्यों न सुख करे अपने सुख का साधन कर इस में दोष क्या जो कछु करिये है सोअपने सुखको निमित्त करियहै और मेरा कहाजोन करेगी तोजो कुछतेरा होनहारहै सोहोगा रावण महो बलवान है कदाचित् प्रार्थनाभंग से कोप करे तो तेरा इस बात में अकोरज ही है और राम लक्ष्मण तेरे सहाई हैं सो रावण के क्रोध किए उनका भी जीवना नहीं इसलिये शीघ्र ही विद्याधरोंकाजो ईश्वर उसे अंगीकार कर जिस के प्रसादसे परम ऐश्वर्यको पाय कर देवन केसे सुख भोग जबऐसा कहा तब जोनकी अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्र जिसके गदगद बाणी कर कहती भई हे नारी यह बचन तैने सब ही विरुद्ध कहे तू पतिव्रता कहावे है पतिव्रतावों के मुखसे ऐसे बचन कैसे निकसे यह शरीर मेरा छिदजावे भिदजवे हता जावे परन्तु अन्यपुरुष को मैं न इच्छे रूप कर सनत्कुमार समान होवे अथवा इंद्र समानहोवे तौमेरे कौन अर्थ में सर्वथा अन्य पुरुष को न इच्छं तुम सब अठारह हजार राणी भेली होय कर आई होसो तुम्हारा कहा में न करूं तुम्हारी इच्छा होय सो करो उसही समय रावण पाया मदन के आताप से पीड़ित जैसे तृषातुर माता हाथी गंगाके तीर अावे तैसे सीता के समीप आय मधुर वाणी कर आदर से कहता भया हे देवी तू भय मत करे मैं तेरा भक्त हूं. हे सुन्दरि चित लगाय एक विनती सुन में तीन लोक में कौन बस्तु कर हीन जो तू मुझे न इच्छे, ऐसा कह कर स्पर्श की इच्छा करता भयातब सीता क्रोध कर कहती भई पापी परे जा मेराअंगमत स्पर्शो तब रावण कहता भया कोप और अभिमान तज प्रसन्नहोशची इंद्राणी
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E99
पन समान दिव्य भोगोंकी स्वामिनी हो तब सीता बोली, कुशीले पुरुषका विभव मलसमानहै और शीलवंत
हैं तिन के दरिद्र ही आभूषण हे जे उत्तम वंश में उपजे हे तिनके शीलकी हानिसे दोनोंलोक विगरेहैं इसलिये मेरे तो मरणही शरण है तू पर स्त्रीकी अभिलाषा राखे है सो तेरा जीतव्य बृथा है जो शील पालता जीवे है उसही का जीतब्य सफल है इस भांति जब सीता ने तिरस्कारकिया तब रावणक्रोध कर मायाकी प्रवृत्ति करताभया राणी अठरा हजार सब चलीगई और रावण के भयसे सूर्य अस्तहोय गया मद भरती मायामई हाथियोंकी घटा श्राई यद्यपि सीता भयभीत भई तथापि रावणके शरण न गई फिर अग्नि के स्फुलिंगे वरसते भए और हलहलाट करें हैं जीभि जिनकी ऐसे सर्प आए तथापि सीता रावणके शरण न गई फिर महा कर वानर फारे हैं मुख जिन्होंने उछल उछल पाए अति भयानक शब्द करतेभए तथापि सीता रावण के शरण न गई और अग्निकी ज्वाला समान चपल जिहा जिनकी ऐसे मायामई अजगर तिन्होंने भय उपजाया सो तथापि सीता रावण के शरण न गई फिर अन्धकार समान श्योम ऊंचे ब्यंतर हुकार शब्द करतेयाए भय उपजावतेभये तथापि सीता रावणकेशरण न गई इसभांति नानाप्रकार की चेष्टाकर रावणने उपसर्ग किये तथापि सीता नडरी रात्रि पूर्णभई जिन मन्दिरों में वादित्रोंके शब्द होतेभए दारों के कपाट उघरे मानों लोकों के लोचनही उधरे प्रात सन्ध्या कर पूर्व दिशा
आरक्त भई मानों कुंकुम के रंगसे रंगीही है निशा का अन्धकार सर्व दूर कर चन्द्रमा को प्रभा रहित कर सूर्य का उदय भया कमल फूले पक्षी बिचरने लगे प्रभात भया तब प्रात क्रिया कर विभीषणादि रावण के भाई खरदूषण के शोक कर रावण पै अाए सो नीचा मुख किये धांसू डारते भूमि में तिष्ठे
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पद्म
६१२॥
उस समय पटके अन्तर शोक की भरी जो सीता उसके रुदनके शब्द विभीषयने सुने और सुन कर || कहता भया यह कौन स्त्री रुदन करे है अपने स्वामी से बिछुरी है इसका शोक संयुक्त शब्द दुखको प्रकट दिखावे है ये विभीषण के शब्द सुन सीता अधिक रोवने लगी सज्जन को देख शोक बढेही हैं विभीषण पूछताभया हे बहिन तू कौन है तब सीता कहती भई में राजा जनककी पुत्री मामलकी बहिन रामकी राणी दशरथ मेरा सुसरा लक्षमण मेरा देवर सो खरदूषण से लड़ने गया उसकेपीछे मेरा स्वामी भाई की मददगा मैं बनमें अकेली रहो सो विद्र देख इस दुष्टचित्तने हरी सो मेरा भरतार मो बिना मात गा इसलिये हे भाई मुझे मेरे भरतार पै शीघ्र ही पड़ावो ये वचन सीताके सुन विभीषण रावण से विनय कर कहता भया है देव यह परनारी व्यग्निकी ज्वाला है आशी विष सर्पके फप समान मयंक रहे आप काकोलाए शीघ्र ही पाय देवो हे स्वामी में बाल बृद्ध हूं परन्तु मेरी विनती सुनो मुभी आपने अज्ञा करी थी कि उचित वर्ता हमसो कहाकरो इसलिये आप की प्राज्ञा से मैं कहूँ तुम्हारी की रूप बेलि के समूहकर सर्व दिशा व्याप्त होय रही हैं ऐसा न होय जो अपयशरूप अग्नि कर यह कोर्ति लता भस्म होय यह पर दाराका अभिलाषी प्रयुक्त अति भयंकर महानिन्द दोनों लोकका नाशकरण हारा जिससे जगत् में लज्जा उपजे उत्तम जनों से धिक्कार शब्द पाइयें है जे उत्तम जन हैं तिनके हृदय ata ऐसा नीतिकार्य कदाचित न कर्तव्य आप सकल वार्ता जानोहो सब मर्यादा आम्ही से रहें आप विद्याधरोंके महेश्वर यह बलता गंगारा काहेको हृदयमें लगावो जो पापबुद्धि परमारी सेवे हैं सो नरक में प्रवेश करे हैं जैसे लोहे का ताता गोला जल में प्रवेश करे जैसे पापी नरकमें पड़े हैं ये वचम
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पद्म पुरास
|| विभाषणके सुनकर रावण वोले हे भाई पृथिवी पर जोसुन्दर वस्तु है उसका मैं स्वामी हूँ सब मैरीही वस्तु । | पर वस्तु कहांसे आई ऐसा कहकर और बात करनेलगा फिर महानीतिका भारी मारीच मन्त्री क्षण एक पीछे कहताभया देखो यह मोह कर्मकी चेष्टा रावण जैसा विवेकीसर्वरीतिको आने ऐसे कर्मकरे सर्वच जे सुबुद्धि पुरुष हैं तिनको प्रभातही ऊकर अपनी कुशल अकुशल चितवनी विवेक से न चकना इस भांति निरपेक्ष भया महा बुद्धिमान मारीच कहता भया तब रावण मे कछ पाछा जवाब न दिया उ8 खड़ा रही त्रैलोक्य मण्डन हाकी पर चढ़ सब सामन्तम सहित उपवन से मगरको चला बरली, खडग, ॥ तोमर, चमर, छत्र ध्वजा आदि अनेक वस्तु हैं हाथों में जिनके ऐसे पुरुष भागे चलेजाय, अनेक प्रकार शब्द झेय, चंचलहै ग्रीवा जिमकी ऐसे हजागं सुरंगों पर चढ़े सुभट चलेजायहैं और कारी घय समान मद झरतेगाजते गजराज चलेजायहें और मामामास्की चधकरते पयादे चलेजाय हैं हजारो वादिन बामे इस भांति से राक्पने लंका में प्रवेश किया खवय के चक्रवर्ती की संपदा तथापि सीता तृणसभी नयम्य जाने सीता का मन निष्कलंक यह लुभाष को समर्थन भया जैसे जल में कमल अलिस रहे तैसे सीता अलिप्त रहे सर्व ऋतु के पुष्पों से शोभित नामा प्रकार के वृक्ष और मतावों से पूर्ण ऐसा श्रमद नामा बन वहां सीता सरली वह पम नन्दन समान सुन्दर जिसे लखे नेत्र प्रसन्न होय फुलमिरि के ऊपर यह क्न सो देखे पीछे और टोर दृष्टि म लगे मिसे सखे देवों का मन उन्मोद को पाम होय मम्॥
ष्योंकी क्या बात बह फुल्लगिरि सप्तवन से येष्टित सोहे जैसे भदशालादि बनकर सुमेरु सोहे है। । हेश्रेणिक सातही वन अद्भुतहैं उनके नामसुन प्रकीर्णक, जनानन्द, सुखसेव्य, समुच्चय, चारणप्रिय, निबोध
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पुराण
।।६१२॥
प्रमद तिनमें प्रकीणक पृथिवी पर उसके ऊपर जनानन्द जहां चतुर जन क्रीड़ा करें और तीजा सुखसेब्य अतिमनोग्य सुन्दर वृक्ष और बेल कारी घटा समान सघन सरोवर सरिता वापिका अतिमनोहर और समुच्चय में सूर्य का श्राताप नहीं वृक्ष ऊंचे कहूं ठौर स्त्री क्रीड़ा कर कहूं और पुरुष और चारपप्रिय बनमें चारण मुनि ध्यान करें और निबोध ज्ञान का निवास सबों के ऊपर अति सुन्दर प्रमद नामा बन उस के ऊपर जहां तांबूल को बेल केतिकियों केबीडे जहां स्नानक्रीड़ा करने को उचित रमणीक वापिका कमलों करशोभित हैं और अनेक खणके महल और जहां नारंगी विजोरा नारियल छुहारे ताड़ वृक्ष इत्यादि अनेक जाति केवृक्ष सर्व ही वृक्ष पुष्पों के गुच्छों कर शोभे हैं जिनपर भ्रमर गुञ्जार करे हैं और जहां बेलों के पल्लव मन्द पवन कर हले हैं जिस बन में सघनवृक्ष समस्त ऋतुवों के फल फूलोंकर युक्त कारी घटा समान सघन हैं मोरों के युगल कर शोभित है उस बन की विभूति मनोहर बापी सहस्रदल कमलहै मुख जिनके सो नील कमल नेत्रों कर निरपे हैं और सरोवर में मन्द मन्द पवनकर कल्लोलउठे हैं सो मानों सरोवरी नृत्य ही करे हैं और कोयल बोले हैं सो मानों वचनालाप ही करे हैं और राज हंसनीयों के समूहकर मानों सरोवर हँसेही हैं बहुत कहिबे कर क्या वह प्रमदनामा उद्यान सर्व उत्सव का मूल भोगों का निवास नन्दनबन से भी अधिक उस बन में एक अशोकमालिनी नामा वापी कमलादि कर शोभित जिसके मणि स्वर्ण के सिवाण विचित्र आकार को धरे द्वार जिसके और मनोहर महल जिस के सुन्दर झरोखे तिनकर शोभित जहां नीझरने झरे हैं वहां अशोकवृक्ष के तले सीता राखी कैसी है सीता श्रीराम जी के वियोग कर महाशोक को घरे है जैसे इन्द्र से विछुरी इन्द्राणी, रावण की प्रज्ञा से ।
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पद्म पुराण ॥६१५॥
अनेक स्त्री विद्याधरी खड़ी ही रहे नाना प्रकार के वस्त्र सुगन्ध श्राभूषण जिनके हाथमें भान्ति भान्ति की चेष्टा कर सीको प्रसन्न किया चाहें दिव्यगीत दिव्यनृत्य दिब्यवादित्र अमृत सारिखे दिव्यवचन उन कर सीता को हर्षित किया चाहें परन्तु यह कहां हर्षितहोय जैसे मोक्ष संपदाको अभब्य जीव सिद्ध न कर सके तैसे रावण की दूती सीता को प्रसन्न न कर सकी। ऊपर ऊपर रावण दूती भेजे कामरूप दावानल की प्रज्वलित उसकर ब्याकुन महाउन्मत्त भांति भांति अनुराग के वचन सीता को कह पठावे यह कछू जवाब नहीं देय दूती जाय रावण सो कहै हे देव वह तो अाहार पानी तज बैठी है तुमको कैसे इच्छे वह काहू सो बात न करे निश्चल अंगकर तिष्ठे है हमारी ओर दृष्टिही नहीं धरे अमृत सेभी अति स्वादु दुग्धादि कर मिश्रित बहुत भांति नाना प्रकार के व्यञ्जन उसके मुख आगेधरे हैं सो स्पर्शनहीं। यह दूतियों की बात सुन रावणखेद खिन्न होय मदनाग्निकी ज्वाला करे व्याप्त है अंग जिसका महा आरतरूप चिन्ता के सागर में डूबा कबहुं निश्वास नांपेकबहूँ सोच करे सूक गया है मुख जिसका कभीकछु इकगावे कामरूप अग्नि कर दग्ध भयाहै हृदय जिसका कछुइकविचार निश्चल होयरहे अपना अंग भूमिमें डार देय फिर उठे सूनासा होयरहे बिनासमझे उठचले फिरपीले प्रावे जैसे हस्तीसूण्ड पटके तैसेभूमिमेंहाथ पटकेसीता को बारबार चितारता आंखोंसे प्रांसू डारे कबहूंशब्द कर बुलावेकभी हुंकार शब्द करे कभी चुप होयरेह कभीवृथाबकवादकोकभी सीतारबार २बके कभी नीचामुखकरनखोंसे धरती कुचरेकभी हाथ अपने हिय लगावे कभी बाहू ऊंचाकरे कभी सेजपर पड़े कभी उठबैठे कभी कमल हिये लगावे कभी दूर डारदेय | कभी शृंगारकी काव्य पढ़े कभी आकाशकी ओर देखे कभी हाथसे हाथ मसले, कभी पगस पृथिवी ||
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म हो निश्वासरूप अग्निकर अपरश्याप झेयगए कभी कह २ शब्दको कभी अपने केश बखरे कभी बांधे। ME कभी जंभाईलेय, कभी मुखपर अवन बारे कभी रख सब पहिरुलेय सांताके चित्राम बनावे कभी प्रश्नु
। पातका कार्य करे, दानश्या हाहाकार शब्दको मदन महकर पीडित अनेक चेक्षा करे माशारूप इंधन । कर प्रज्वलित जो कामरूप अरिन इसकर उसका हृदयजरे और शरीर जले कभी मममें चितके कि में कौन अवस्थाको प्रासया जिसकर अपना शरीरभी नहीं पार सफूई. में अनेक मढ़ और सागरके मध्य तिष्ठे बड़े बड़े विद्याधर युद्धविषे हजारां जीते और लोक विष प्रसिद्ध जो इंद्र नामा विद्यावस्सो कदीगृह विषे डारां अनेक युद्ध लिखे जीते राजाओं के समूह अब मोहकर उनमत्तभया में मास्के कर प्रवर्ता हूं गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे राजन रावणतो कामके वश भया और विश्रीषम्मा महा बुद्धिमान मात्र दिखे विषुमाचे सब मंत्रियोंको हकवाकर मंत्र विच्चस कैसाहै विभीषणा रस्वा के राज्यका भार जिसके सिरपर पड़ा है समस्त शास्त्रोंके ज्ञानरूप जलकर धोयाहे मनरूप मैल जिसने रावणके उस समान और हितु नहीं विभीषण को सर्वथा रावणके हितहीका चितवन है सो मंत्रियों से काल्ताभया श्रो बृद्धाहो राजाकी तो यह दशा अब अपने तांई क्या कर्तव्य सो कहो तब विभीषण के बचन सुन संभिन्नमति मंत्री कहता भया हम क्या कहें सर्वकार्य बिगडा रावणकी दाहिनी भुजा खरदूषणथा. सो मुवा और विराषित क्या पदार्थ सो स्यालसे सिंभया लक्ष्मणके युद्ध विशे सहाई भया और वानरवंशी जोरसे बस रहे हैं इम्फा भाकार को रुकू औरही और इनके चित्समें कलु और ही जैसे: सर्प कास्त्रो मल्ममाही विष प्और पलका पुत्र जो हनुमान सो खखूपयकी पुत्री भसंग
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कुसमाका पतिसो सुग्रीवकी पुत्री परणाहै सुग्रीवकी पत. विशेषहै. यह बचन संभिन्नमतिके सुन पंचमुख मंत्री मुसकाय बोला तुम खरदूषणके मरणकर सोच किया सो शूरवीरों की यही रीतिहै संग्राम विषे शरीर तजें और एक खरदूषणके मरणकर रावमाका क्या घट गया जैसे पवनके योगसे समुद्र से एक जलकी कगिका गई तो समुद्रका क्या न्यून भाँ और तुम औरोंकी प्रशंसा करो हो सो मेरे चित्तमें लज्जा उपजे है. कहां रावण जगतका स्वामी और कहां वै बनवासी भूमिंगोचरी लक्षमणके हाथ सूर्यहास खडग आया तो क्या और विगधित पाय मिला तो क्याजैसे पहाड विषमहै और सिंहकर संयुक्तहै तोभी क्या दावानल नदहे सर्वथा दहे तब सहस्रमति मंत्री माथा हलाय कहताभया कहां ये अर्थहीन बातें कहो हो जिसमें स्वामीका हितहोय सो करना दूसरा स्वल्पहै और हम बडे हैं यह विचार बुद्धिमानका नहीं समयपाय एक अग्निका किणकासकलमंडलको दहे और अश्वग्रीव के महा सेनाथी और सर्व पृथिवींविषे प्रसिद्ध हुवाथा सो.छोटेसे त्रिपृष्टिनेरणमें मारलिया इसलिये और यत्नतजलंका की रक्षाको यत्न करो। नगरीपरम दुर्गमकरी कोई प्रवेशन करसकेमहाभयानक मायामई यंत्रसर्व दिशौं में बिस्तारों, और नगरमें पर चक्रका मनुष्य न श्रावने पाये और लोक को धीर्य बंधावो और सब उपाय कर रक्षा करो जिसकर रावण सुखको प्राप्तहोय और मधुर वचनकर नाना बस्तुओंकी भेटकर सीताको प्रसन्न करो जैसे दुग्ध पायवेसे नागी प्रसन्न करिये और बानर बंशी योधाओंकी नगर के बाहिर चौकी राखो ऐसे किए कोऊ परचक्रकाधनीनाय सके और यहांकी बात परचक्रमें न जाय इस भांति गढ का यत्न कीये तब कौन जाने सीता कौन ने हरी और कहां है सीता विना-राम निश्चय सेती
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पद्म
पुराख
६१८
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प्राण तजेगा जिसकी स्त्री जाय सो कैसे जीवे, और राम मूवा तव केला लक्ष्मण क्या करेगा अथवा राम के शोक कर लक्ष्मण अवश्य मरे न जीवे जैसे दीपक के गए प्रकाश न रहे और यह दोनों भाई
तब अपराधरूप समुद्र में डूबा जो विराधित सो क्या करेगा और सुग्रीव का रूप कर विद्याघर उस के घर में आया है सो रावण टार सुग्रीव का दुःख कौन हरे मायामई यंत्र की रखवारी सुग्रीव को सौंपी जिससे वह प्रसन्नहोय रावण इसके शत्रु का नाश करे लंका की रक्षाका उपाय मायामई यंत्र कर करना। यह मंत्र कर हर्षित होय सब अपने अपने घर गए विभीषण ने मायामई यंत्र कर लंका का यत्न किया और अधःऊर्धतिर्यक् सेकोऊन आयसके नानाप्रकार कीविद्याकरलंका अगम्यकरी । गौत्तमगणघर कहै हैं श्रेणिक संसारी जीव सर्व ही लौकिक कार्य में प्रवृते हैं व्याकुलचित्त हैं और जे व्याकुलता रहित निर्मलचित्त हैं तिनको जिन वचन के अभ्यास टाल और कर्तव्य नहीं और जो जिनेश्वर ने भाषा है सो पुरुषार्थ बिना सिद्ध नहीं और मले भवितव्य के बिना पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं, इसलिये जे भवजीव हैं वे सर्वथा संसारसे विरक्त होय मोक्षका यत्नकरो नर नारक देव तिर्यंच ये चार ही गति दुःखरूपहैं अनादि काल से ये प्राणी कर्मके उदयकर युक्त रागादि में प्रवृते हैं इसलिये इनके चित्तमें कल्यानरूप वचन न आवें अशुभ का उदय मेट शुभ की प्रवृति करे तब शोकरूप अग्नि कर तप्तायमान न होय ॥ इति सैंतालीसवां पर्व ॥
अथानन्तर किहकंधापुर का स्वामी जो सुग्रीव सो उसका रूप बनाय विद्याधर इसके पुरसें चाया और सुग्रीव कांता के विरहकर दुखी भ्रमता संता वहां आया जहां खरदूषण की सेनाके सामंत मूए पड़े थे विखरे रथ मूए हाथी मूए घोडे छिन्न भिन्न होय रहे हैं शरीर जिनके कैयक राजावों का दाह होय है
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पुरा ॥६१९०
| कैयक ससके हैं कईएकोंकी भुजा कटगई हैं कईओं की जंघा कटगई हैं । कईमों की प्रांत गिरपड़ा हैं |
कईओंके मस्तक पड़े हैं कइयोंको स्यालभषे हैं कइयोंको पक्षी चूथे हैं कयकोंके परबार रोवे हैं कईयकोंको टांगि राखे हैं यह रण खेतका वृतांत देख सुग्रीवकिसी को पूछता भया तब उसने कही खरदूषण मारा गया तब सुग्रीवने खरदूषण का मरण सुन अति दुःख किया मनमें चितवे है बड़ा अनर्थ भया वह महाबलवान था जिससे मेरा सर्बदुःख निवृत्त होता सो कालरूप दिग्गजने मेरा अाशारूप वृक्ष तोड़ा में हीनपुण्य अव मेरा दुःख कैसेशांत होय यद्यपि बिना उद्यम जीव को सुख नहीं ताते दुःखदूर करने का उद्यम अंगीकार करूं तब हनमान पै गया हनुमान दोनों का समानरूप देख पीछे गया तब सुग्रीवने विचारी कौन उपायकरूं जिससे चित्तकी प्रसन्नता होय जैसे नवा चांद निषे हर्ष होय जो रावणके शरण जाऊं तो रावण मेरा और शत्रुका एकरूप जान शायद मुझे ही मारे अथवादोनों को मार स्त्री हरलेय वह कामांध है कामांधका विश्वासनहीं। मंत्रदोष अपमानदान पुण्य वित्त शूरवीरता कुशील मनका दाह यहसब मित्र को नकहिए जोकहें ख़तापावें इसलिये जिसने संग्राममें खरदूषण को मारा उसहीके शरणे जाऊं वह मेरा दुःख हरे और जिसपै दुःख पड़ा होय सोदुखी के दुःख को जाने जिनकी तुल्य अवस्थाहोय तिनही में स्नेह होय सीता के वियोगको सीतापति ही को दुःख उपजा है ऐसा विचार कर विराघितके निकट अति प्रीतिकर दूत पठाया सो दूत जाय सुग्रीव के आगम का वृत्तांत विराधित से कहता भया सो विराघित सुन कर मनमें हर्षित भया विचारी बड़ा आश्चय है सुग्रीव जैसे महाराज मुझ से प्रीति करने को इच्छा करें सो बड़ोंके आश्रय से क्या न होय में श्रीरामलक्षमणका आश्रय किया इसलिये सुग्रीव से पुरुष मोसे |
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पुराण
॥६२०॥
ढभ किया चाहे हैं सुप्रीव पाया मेवकी गाज समान वादित्रों के शब्द होते आए सो पाताल लंकाके लोग सुनकर व्याकुल भए तब लक्षमण ने विराधित से पूछा वादिनों का शब्द कौनका सुनिये है तब अनुराधा का पुत्र विराधित कहता भया हे नाथ यहवानर वंशियोंका अधिपति प्रेमका भरा तुम्हारे निकट आया है किहकंधापुर के राजा सूर्यरज के पुत्र पृथिवी पर प्रसिद्ध बड़ा बाली छोट्य सुग्रीव सो बाली ने तो रावणको सिर न नवाया सुग्रीवको राज्य देय बैरागी भया सर्व परिग्रह तजे सुग्रीव निहकंटक राज्य करे उसके सुतारा स्त्री जैसे शची संयुक्त इन्द्र रमें तैसे सुग्रीव सुतारा सहितरमें जिसके अंगदनामा पुत्रगुण रत्नों कर शोभायमान जिसकी थिवीमर कीति फैलरही है यह बात विराधित कहे है और सुग्रीव पायाही राम और सुग्रीव मिले रामको देख फूलगया है मुखकमल जिसको सुवर्णके आंगनमें बैठे अमृतसमान बाणी कर योग्य संभाषण करते भये सुग्रीव के संग जे बृद्ध विद्याधर हैं वे रामसो कहतेभए हे देव यह राजा सुग्रीव किहकंधापुरका पति महाबली गुणवान सत्पुरुषोंको प्रिय सो कोई एक दुष्ट विद्याधर माया कर इनका रूप बनाय इनको स्त्री सुतारा और राज्य लेयवे का उद्यमी भया है ये वचन सुन राम मम में चितवते भए यह कोई मुझसेभी अधिक दुखियाहै इसके बैठेही दूजापुरुष इसके घरमें प्राय धसाहै इसके राज्य विभवहै परन्तु कोई शत्रुको निवारिखसमर्थ नहीं लक्षमण ने समस्त कारण सुग्रीवफेमन्त्री जामवंतको पूछा जामवंत सुग्रीव के मन तुल्य है तब वह मुख्य मन्त्री महा विनय संयुक्त कहता भया हे माय कामकी फांसी कर बेढ़ा वह पापी सुतारा के रूपपर मोहित भया मायोमई सुग्रीवका रूप बनाय राजमन्दिर श्राया सो सुताराके महिल में गया सुतोरा महा सती अपने सेवकोंसे कहतीभई यह कोई दुष्ट विद्याधर विद्यासे
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पद्म
पुराण
मेरे पतिका रूप बनाय श्रावेहै पापकरपूर्ण सो इसका आदर सत्कार कोई मतकरो वह पापी शंकारहित जायकर सुग्रीवके सिंहासनपर बैठा और उसही समय सुग्रीव भी पाया और अपने लोकोंको 'चिंतापान देखे तब विचारी मेरे घरमें काहेका विषाद है लोक मलिन बदन ठौर और मेले होय रहे हैं कदोचित् अंगद मेरुके चैत्यालयों की बन्दना के अर्थ सुमेरु गया न आयाहोय अथवा राणीने काहूपर शेस किया होय अथवा जन्म जरामरण कर भयभीत विभीषण वैराग्य को प्राप्त भया होय उसको सोच होय ऐसा विचारकर द्वारे आया स्त्तमई द्वार गीत गान रहित देखा लोक सचिंत देखे मनमें विचारी यह मनुष्य
औरही होगये। मन्दिर के भीतर स्त्री जनों के मध्य अपना सा रूपकिए दुष्ट विद्याधर कैा देखा दिव्य - हार पहिरे सुन्दर बस्त्र मुकट की कांति में प्रकाश रूप तब सुग्रीव क्रोध कर गाजा जैसे वर्षाकाल का मेव गाजे और नेत्रोंकी आरक्ततासे दशोदिया भारत होय गईं जैसी साझाले सब यह पाप कृत्रिम । सुप्रीव भी गाजा जैसे माता हाथी भदकर बिहल होय तैसा काम करविहल सुग्रीव सों लड़नेको उठा ।। दोऊ होंठ उसते प्रकुटी प्रदाय युद्धमने स्वामी भए सब श्रीसमचन्द्रादि मन्त्रियोंने मनेकिए और सुतास ॥ फ्टराणी प्रकट कहती भई बह कोई दुष्ट विद्याधर मेरे पतिका रूप बनाय आया है देह और बल और बघमोंकी कांति से तुल्य भया है परन्तु मेर मस्तार में महापुरुषों के लक्षण हैं सो इसमें नहीं जैसे तुरंग
और खरकी तुल्यता नहीं तैसे मेरे पतिकी और इसकी तुल्यता नहीं इस भांति राणी सुतारी के वचन सुनकरभी कैएक मन्त्रियोंने नमानी जैसे निर्धनका वचन धनवान ने माने सादृश्यरूपदेखकर हरागयाहै चिसमिनका सो सब मन्त्रिवाने भेले होय मन्त्रक्रिया पंडितों को इतनोंके वचनोंका विश्वास न करनामलक
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॥२२॥
अतिबृद्ध, स्त्री, मद्यपायी वेश्यासक्त इनके बचन प्रमाण नहीं और स्त्रियों को शीलकी शुद्धि राखनी शील की शुद्धि विनागोत्रकी शुद्धि नहीं स्त्रीयोंको शील ही प्रयोजनहे इसलिये राज लोकमें दोनों ही नजानेपावें बाहिर रहें तब इनका पुत्र अंगद तो माताके बचनसे इनकी पक्षप्राया और जांबूनद कहेहै हम भी इन्हीं के संगरहें और इनका पुत्र सो शत्रमई सुग्रीव की पच अंगद है और सात अक्षोहणी दल इनके है औरसात । उसपैहैनगरकी दक्षिणकोर बह राखा उत्तरकी ओर यह राखे और बालीकापुत्र चंद्ररश्मि उसने यह प्रतिज्ञाकरी जो सुतारो के महिल आवेगा उसे ही खड़ग कर मारूंगा तब यह सांचा सुग्रीव स्री के विरह कर व्याकुल शोक के निवारखे निमित्त खरदूषण पै गया सो खरदूषण तो लक्षमण के खडग कर हतोगया फिर यह हनूमान पै गया जाय प्रार्थना करी में दुःख कर पीड़ित हूं मेरी सहाय करो मेरारूप कर कोई पापी मेरे घर में बैठा है सो मोहि महाबाधा है जायकर उसे मारी तब सुग्रीव के बचन सुन हनूमान् बड़वानल समान क्रोधकर प्रज्वलित होय अपने मंत्रियों सहित अप्रतीधात नामा विमान में बैठ किहकंधपुर आया || सोहनूमान को आया सुन वह मायामई सुग्रीव हाथी चढ़ लडिबे को आया सो हनूमान दोनों का सादृश्य रूप देखाअाश्चर्य को प्राप्त भया मनमें चितवता भया ये दोनों समान रूप सुग्रीवही इनमें से कौन को मारूं कछुविशेशजांना नपड़े बिना जानेसुग्रीवही को मारूंतो बड़ा अनर्थ होय। एक मुहूर्त अपने मंत्रियों से विचारकर उदासीन होय हनूमानपीछा निजपुर गया सो हनूमानको गए सुन सुग्रीव बहुत व्याकुल भया
मन में विचारताभया हजारों विद्या और माया तिन से मण्डित महाबली महाप्रताप रूप बायुपुत्र सो | | भी सन्देहको प्राप्त भया सोबड़ा कष्ट अब कौन सहाय करे अतिव्याकुल होय दुःख निवारने अथ स्त्रीके ।
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परा
1६२३॥
बियोगरूप दावानल कर तप्तायमान आपके शरण पाया है आप शरणागत प्रतिपालक हैं यहसुग्रीव अनेक गुणोंकर शोभितहै हे रघुनाथ प्रसन्नहोय इसे अपनाकरो तुमसारखे पुरुषों काशरीर पर दुःखका नाशक है ऐसे जाबूनन्दके बचन सुन रामलक्षमण और विराधित कहते भए, धिक्कारहोवे परदारा रतपापी जीवों को रामने बिचारी मेरा और इसका दुःखसमानहै सो यह मेरा मित्रहोयगामें इसका उपकार करूं और यह पीछे मेरा उपकार करेगा नहींतो में निग्रंथी मुनिहोय मोक्षका साधन करूंगा ऐसा बिचारकररामसुग्रीव से कहते भए, हे सुग्रीव में सर्वथा तुझे मित्र किया जो तेरा स्वरूप बनाय आयाहै उसे जीत तेरा राज्य तुझे निहकंटक कराय दूंगा और तेरी स्त्री तोहि मिलायदूंगा श्रीर तेराकाम होय पीछे तूंसीता की सुध हमें पानदेना कि कहांहै तव सुग्रीव कहताभया हे प्रभो मेरा कार्यभए पीछे जो सातदिनमें सीताकी सुध न लाऊतो अग्निमें प्रवेश करूं यह बात सुन रामप्रसन्नभए जैसे चन्द्रमाकी किरणसे कुमद प्रफुल्लित। होय। रामकामुखरूप कमल फूलगयासुग्रीवके अमृतरूप वचनसे रोमांच खडे होयाए जिनराजके चैत्या लयमें दोनों घी मित्रमए यह बचन किया परस्पर कोई द्रोह न करे ॥ अथानन्तर रामलचमणस्थपर
चढ़ अनेक सामन्तों सहित सुग्रीव के साथ किहकन्धपुर श्राए नगरके समीप डेराकर सुग्रीवने माया ॥ मयी सुग्रीव पै दूत भेजा सो दूतको उसने खेद दिया और मायामई सुग्रीव रथमें बैठ बड़ी सेना सहित
युद्धके निमित्त निकसा सो दोनों सुग्रीव परस्पर लडे मायामई सुग्रीव और सांचे मुग्रीवके नानाप्रकार ॥ का युद्ध भया अन्धकार होय गया दोनोंही खेद को प्राप्तभए, घनी वेरमें मायामई सुग्रीवने सांचे सुग्रीव || के गदाकी दीनीसो गिरपडा तब वह मायामई सुग्रीव इसको मूया जान हर्षित होय नगरमें गया और
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पद्म सांचा सुग्रीव मूर्थितहोय पडा सो परिवारके लोक डेरामें लाये तब सचेत होय रामसों कहता भया हे पुगए
प्रभो मेरा चोरं झमें पाया हुश्रा सो नगरमें क्यों जाने दिया तब राम कही तेरा और उसका रूप देखकर हम भेद न जाना इस लिये. सो तेरा शत्रु न हता कदाचित बिना जाने राहीं नास झेय तो योग्य नहीं तू हमारा परममित्र है तेरे और हमारे जिन मंदिरमें बचन हुवा है।
अथानन्तर रामने मायामई मुग्रीवको फिर युद्धके निमित्त बुलायासोबहावलवान क्रोधरूप अग्नि कर जलता आया राम संन्मुखभए वह समुद्र तुल्य अनेक शस्त्रोंके धारक सुभट वेई भए ग्राह उनकर पूर्ण उस समयं लंचमणने सांचा. मुग्रीव पकड राखा कि कभी स्त्रीके बैरसे शत्रुके सन्मुख नपाएऔर श्रीरामको देखकर मायामई सुग्रीवके शरीर में जो बैताली विद्याथी.सो ताको पूछकर उसके शरीरमें से निकली तत्र सुग्रीवक्ता श्राकार मिट.वह साहसंगतिविद्याधर इन्दनीलके पर्वतसमान भासता भया जैस सांपकी कांचली दूर होय तैसे सुग्रीवका रूप दूर होगया. तब जो आधी सेना बानरवंशियोंकी इसके साथथी सो उस से जुदी उसके सन्मुखहोय युद्धको उद्यमी भई सब बानर बंशी एकहोय नानाप्रकारके श्रायुधों से साहसगतिसौं युद्ध करते भए सो साहसगति महा तेजस्वी प्रबलशक्ति का स्वामी सब बा र बंशियों को दशादिशाको भगाता भया जैसे, पवन धूलको उड़ावे फिर, साहसगति धनुष बाण लेय राम पें, आया सो मेघमंडल समान बाणोंकी वर्षा करता. भया उद्धतहै पराक्रम जिसका. साहसगतिके और
श्रीरामके महायुद्ध भया प्रवलेहै पराकूम जिनका ऐसे सम रणकीडामें प्रवीण क्षुद्रवाणोंसे साहसगति | का वक्तर तोंडतेभए और तीक्षण बाणों से साहसगातिका शरीर चालिनी समान कर डारासोप्राणरहित
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पन होय भूमिमें पडा सोंने निरख निश्चय किया जो यह प्रागारहित है तब मुग्रीव रामलक्षमणकी महा
स्तुति कर इनको नगर में लाया नगर की शोभाकरी मुग्रीवको सुताराका संयोगभया सो भोगसागर में मग्न होय गया रात दिनकी सुध नहीं सतारा बहुत दिनोंमें देखीसो मोहित होगया और नन्दनवन की शोभा को उलंघे है ऐसाअानन्द नामावन वहां श्रीगमकोराखे उसवनकी रमणीकताका वर्णन कौनकर सके जहां महामनोग्य श्रीचन्द्रप्रभुका चैत्यालयवहां राम लक्षमणने पूजाकरी और विराधित को श्रादिदे सर्व कटक का डेरा वनमेंभया खेदरहित तिष्ठे सुग्रीक्की तेरह पुत्री रामचन्द्र के गुण श्रवण कर अति अनुराग भरी वरिवेकी बुद्धि करती भई चन्द्रमा समान है मुख जिनका तिनके नाम मुनों चन्द्रामा, हृदयावली हृदयधर्मा,अनुधरी, श्रीकांता ,सुन्दरी सुरवती देवांगना समानहै विभ्रम जिसका मनोबाहनी मनमें बसन हारी चारुश्री मदनोत्सवा गुणवती अनेक गुणोंकर शोभित और पद्मावती फलेकमल समान है मुख जिसका तथा जिनाती सदा जिनपूजा में तत्पर ए त्रयोदश कन्या लेकर सुग्रीवरामपै श्राया नमस्कार करकहतामया हे नाथ ये इच्छाकर आपको बरेहे हे लोकेश इन कन्यावों के पति होवो इनका चित्तजन्मही से यह भया जो हम विद्याधरों को नवरेंआपके गुण श्रवणकर अनुरागरूप भईहैं यह कहकर रामको परणाई ये कन्याअति लज्जा की भरी नम्रीभूत हैं मुखजिनके समका प्राश्रय करती भई महामुन्दर नव यौवन जिनके गुण वर्णनमें नावे विजुरी समान सुवर्णसमान कमल के गर्भ समान श्रीर की कांति जिनकी उस कर श्राकाश में उद्योत भया वे बिनय रूप लावण्यता कर मंडित राम के समीप तिष्ठी मुन्दर है चेष्टा जिनकी यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे मगधाधिपति पुरुषों में सूर्य्य ||
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पद्म
॥२६॥
समानश्रीराम सारिखे पुरुष तिनका चित्त विषय बासना से विरक्त है परन्तु पूर्व जन्म के सम्बन्ध से कई एक दिन विरक्त रूप गृह में रह फिर त्याग करेंगे। इतिश्री अठतालीसवांपर्व संमपूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर वे सुग्रीव की कन्या रामका मनमोहने के कारण अनेक प्रकारकी चेष्टाकरतीभई मानों देवलोक ही से उतरी हैं वीणदिक का वजावना मनोहर गीतका गावना इत्यादि अनेक सुन्दर लीला करती भई तथापि रामचन्द्रका मन न मोहा-सर्वप्रकार के विस्तीर्ण विभव प्राप्त भए परन्तु रामने भोगों में मन न किया सीता विषे अत्यन्त चित्त समस्त चेष्टा रहित महाश्रादर से सीता को ध्यावते तिष्ठे जैसे मुनिराज मुक्ति को ध्यावे वे विद्याधर की पुत्री गान करें सो उन की ध्वनि न सुनें और देवांगना समान तिनका रूप सोन देखें राम को सर्व दिीजानकी मई मासे और कछू भासे नहीं और कथानकरें ए सुग्रीव की पुत्री परणी सों पास वैठी तिनको हे जनकसुते ऐसा कह वतला काक से प्रीति कर पूछे अरे काकतू देश २ भूमण करे है तैने जानकी भी देखी और सरोवसेंमें कमलफूल रहे तिनकेमकरन्द कर जलसुगन्ध होय रहाहै वह चकवा चकवीके युगल कलोल करते देख चितारे सीताबिन रामको सर्ब शोभा फीकी लगे सीता के शरीर के संयोग की शंका से पवन से आलिंगन करेंकदाचित् पवन सीता जीके निकट से आई होय जिस भूमि में सीता जी तिष्ठे हैं उस भूमि को धन्य गिनें और सीता बिना चन्द्रमा की चादनी को अग्नि समान जाने मन में चितवें कदाचित सीतो मेरवियोग रूप अग्नि से भस्म भई होय और मन्द मन्द पवन कर लताओं को हालती देख जाने हैं यह जानकी ही है, और वेल पत्र हालते देख जाने जानकी के वस्त्र फरहरे हैं, और भ्रमर संयुक्त फूल देख जानें जानकी के लोचन ही हैं, और
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पन कोंपल देख जानें जानको के करपल्लव ही हैं अरश्वेत श्याम प्रारक्त तीनोंजाति के कमलदेख जानें सीता १६२७। के नेत्र तीन रंगको धरे हैं और पुष्पों के गुच्छे देख जानेजानकी जी के शोभायमान स्तनही हैं और कदलीके स्तंभोंविषे जंघात्रोंकी शोभा जाने औरलालकमलों मे चरणोकी शोभाजाने संपूर्णशोभा जान कीरूपहीजाने
अथानन्तर सुग्रीव सुताराके महिलमें ही रहा राम पै अाये बहुत दिन भए तब रामने विचारी उसने साता नदेखी मेर वियोगकर तप्तायमान भई वह शीलवन्ती मरगई इसलिये सुग्रीव मेरेपास नहीं आवे अथवा वह अपना राज्य पाय निश्चिन्त भया हमारा दुःख भूल गया यह चितवनकर राम की आंखों से आंसू पडे तघ लक्षमण राम को सचिन्त देख कोप कर लोल भए हैं नेत्र जिन के प्राकुलित है मन जिन का नांगी तलवार हाथ में लेय सुग्रीव ऊपर चले सो नगर कम्पायमान भया सम्पूर्ण राज्य के अधिकारी तिन को उलघ सुग्रीव के महल में जाय उस को कहा रे पापी अपने परमेश्वर राम तो स्त्री के दुःख से दुखी
और तू दुर्बुद्धि स्त्री सहित सुख करे, रेविद्याधर बायस विषय लुब्ध दुष्ट जहां रघुनाथने तेरा शत्रु पठाया। है वहाँ मैं तोहे पठाऊंगा इस भांति क्रोध के उग्र वचन लक्षमण ने जब कहे तब सुग्रीव हाथ जोड़ नमस्कारकर लक्षमण का क्रोध शान्त करताभया सुग्रीव कहे है हे देव मेरी भूल माफकरो में करार भूलगया हम सारिखे क्षुद्र मनुष्योंके खोठी चेष्टा होयहै और सुग्रीवकी संपूर्ण स्त्री कांपती हुई लक्षमणको अर्घदेय
आरती करती भई हाथ जोड़ नमस्कारकर पतिकी भिक्षा मांगती भई तब आप उत्तम पुरुष तिनको दीन जान कृपाकरते भए यह महन्त पुरुष प्रणाममात्रही से प्रसन्न होंय और दुर्जन महादान लेकरभी प्रसन्न न होय लक्षमण ने सुग्रीव को प्रतिज्ञा चिताय उपकार किया जैसे यक्षदत्तको माता का स्मरण कराय मुनि |
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१६२८॥
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उपकार करतेभए यह वार्तासुन राजा श्रेणिक गौतमस्वामीसे पूछते हैं हे नाथ यचदत्तका वृत्तान्त में मीका जाना चाहूंहूं तब गौतम स्वामी कहतेभए हे श्रेणिक! एक कौंचपुर नगर वहाँ राजा यक्ष सभी गजिलता। उसके पुत्र यक्षदत्त सो एकदिन एक स्त्रीको नगरके बाहर कुटीमें तिष्ठती देख कामबाण कर पीड़ित भया । उसकी ओर चला रात्री में तब ऐन नामाइसको मना करतेभए यह यक्षदत्त खडग है जिसके हाथों सो॥ विजुरी के उद्योग से मुनिको देखकर तिनके निकठ आय विनय संयुक्त पूछताभया हे भगवान काहेको मुझे ममेकिया तब मुनिने कही जिसको देखे तू कामवश भयाहै सो स्त्री तेरी माताहै इस लिये यद्यपि सूत्रमें रात्रिको बोलना उचित नहीं तथापि करुणाकर अशुभ कार्य से मनेकिया तब यशदत्तने पूछा हे स्वामी यह मेरी माता कैसे है तब मुनिन कहीं सुन ऐ मृत्यकावती नगरी वहां कणिकनामा वणिक उस के धूनामा स्त्री उसके बन्धुदत्त नामा पुत्र उसकी स्त्री मित्रवती लतादत्त की पुत्री सो स्त्री को छाने गर्भ राख बन्धुदत्त जहाज बैट देशान्तर गया इसको गए पीछे इसकी स्त्री के गर्भ जान सासू सुसरने दुराचारणी जान घरसे निकाल दई सो उत्पलकादासीको लारलेय बड़े सारथीकी लार पिताके घर चली सो उत्पलकाको सर्पने डसी बनमें मुई और यह मित्रवती शीलमात्रही है सहाय जिसकेसो कौंचपुर में आई महाशोक की भरी उसके उपबनमें पुत्रको जन्म भया तब यहतो सरोवर में वस्त्र धोयने गई और पुत्ररत्नकवलमें बेन सो कंबल संयुक्त पुत्रको स्वान लेयगया सो किसीने छुड़ाया राजायज्ञदत्तको दिया उसके राणीराजलताअपुत्रवती सो रॉजाने पुत्ररापीको सोंपा उसका यक्षदत्त नाम धरा सो तू और वह तेरी माता वस्र धोय आई तुझे न देख विलाप करती भई एक देवपुजारो ने उसे दयाकर धैर्य बंधाया
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पुराण ॥६ ॥
तू मेरी बहिन है ऐसा कह राखी सौ यह मित्रवति सहाय रहित लज्जाकर अकीर्तिके भय थकी बापके । घर न गई अत्यन्त शीलकी भरी जिन धर्ममें तत्पर दरिद्रीकी कुटि विषे रहे सो तें भ्रमण करती देख कुभाव किया और इसका पति वन्धुदत्त रत्न कंबल देगयाथा उसमें तोहि लपेट सो सरोवरगईथी सोरत्न कम्बल राजाके घरमें है और वह बालक तू है इस भांति मुनिने कही तब यह मुनिको नमस्कारकर खडग हाथ में लिये राजा पे गया और कहता भया इस खडग कर तेरा सिर काटुंगा नातर मेरे जन्म का कृत्तांत कहो तब राजाने यथावत वृत्तन्त कहा और वह रत्न कम्बल दिखाया सो लेयकर संयुक्तथा तब यह यच दत्त अपनीमाताकुठी में तिष्ठेची उससे मिला और अपना बघुदत्त पिता उसको कुलायो महा उत्सव और महा विभवकर मण्डित माता पितासे मिला यह यचदत्तकी कथा गौतमस्वामीने राजा श्रेणिकसे कही जैसे यशदत्तको मुनिने माताका वृत्तान्त जनाया तैसे लक्षमणने सुग्रीवको प्रतिज्ञा विस्मरण होयगया | था सो जनाया सुगीव लक्षमण के संग शीघ्रही रामचन्द्र अाया नमस्कारकिया और अपने सब विद्या! घर सेवक महाकुलके उपजे कुलाए जो इसवृत्तान्तको जानतेथे और स्वामी कार्यमें तत्पर तिनको समझाय कर कहा सो सर्वेही सुनो रामने मेरा बड़ा उपकार किया अब सीताकी खबर इनको लाय दो इसलिये तुम सब दिशावोंको जागो और सीता कहां है यह खंबर लावो समस्त पृथिवी पर जलस्थल आकारा में हरो जम्बूदीप लवण समुद्र घात की खण्ड कुलाचल बन सुमेरु नानाप्रकार के विद्याघरों के नगर समस्त अस्थानक सर्वदिशा दंडो॥
अथानन्तरये सब विद्याधर सुग्रीव की आज्ञा सिरपर घर कर हर्षित भए सर्वही दिशा को शीघ्र
।
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पद्म पुराण
ही दौड़े सबही विचारें हम पहिली सघ लोवें ता सों राजो अति प्रसन्न होय और भामण्डल कोभी खबर पठाई कि सीता हरी गई उसकी सुध लेवो तब भामण्डल बहिन के दुःख कर अतिही दुखी भयो हेरने का उद्यम किया और सुग्रीव प्रापभी. दृढने को निकसा सो जोतिष चक्र के ऊपर होय बिमान में बैठा देखता भया विद्याधरों के नगर सर्व देखे सो समुद्र के मध्य जम्बद्धीप देखा वहां महेंद्र पर्वतपर अाकाशसे सुग्रीव उतरा वहां रत्नजटी तिष्ठेथा सो ढरा जैसे गरुडसे सर्प डरे फर विमान नजीक अाया। तबग्नजटीनेजानी कि यह सुग्रीव है लंकापति ने क्रोधकर मुझपर भेजासो मुझे मारेगा हायमें समुद्रमें क्यों । न डूब मूया या अन्तर द्वीप में मारा जाऊंगा विद्या तो रावण मेरी हर खेय गया थो अब प्राण हरने यह पठाया, मेरी यह वाञ्छा थी जैसे तैसे भामण्डल पर पहुंचूं तो सर्वकार्य होंय सो न पहुंच सका यह चितवन करे है इतनेमें ही सुग्रीव पाया मानोंदूसरा सूर्य ही है द्वीप को उद्योत करता आया सो इस को बन की रजकर धूसरा देख दया कर पूछता भया हे रत्नजटी पहिले तू विद्या कर संयुक्त था अब हे भाई तेरी क्या अवस्था भई इसभान्ति सुग्रीव ने दयाकर पूछा सो रत्नजटी अत्यन्त कम्पायमान कछु कह न सके तब सुग्रीव ने कहा भय मत कर अपना वृत्तान्त कह बारम्बार धैर्य बन्धाया तब रत्नजटी नमस्कार कर कहता भयो रोवण दुष्ट सीताको हरण कर लेजाता था सो उसके और मेरे परस्पर विरोध भया मेरी विद्या छेद डारी अब मैं विद्यारहित जीवत में सन्देह चिन्तावान् तिष्ठा था सो हे कपिवंश के तिलक मेरे भाग से तुम आए ये वचन रत्नजटी के सुन सुग्रीव हर्षित होय उसे संग लेय अपने नगर में श्रीराम पै लाया सो रत्नजटी रामलक्ष्मण सों सबकेसमीप हाथ जोड़ नमस्कारकर कहता भया हे देव
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पन्न
पुराण
सीता महासती है उसको दुष्ट निर्दई लंकापति रावण हर लेय गया सो रुदन करती विलाप करती ॥६३१॥
विमानमें बैठी मृगी समान व्याकुल में देखी वह बलवान् बलात्कार लिएजाता था सो मैंने क्रोधकर कही यह महासती मेरे स्वामी भामण्डल की बहिन है तू छोड़ दे सो उसने कोपकर मेरी विद्या छेदी वह महाप्रबल जिसने युद्ध में इन्द्र को जीता पकड लिया और कैलाश उटाया तीन खण्ड का स्वामी सागरांत पृथिवी जिसकी दासी जो देवों से भी न जीता जाय सोउसे मैं कैसे जीत उसने मुझे विद्यारहित किया यह सकल बृत्तांत रामदेव ने सुनकर उस को उरसे लगायो और बारम्बार उसे पूछते भए फिर राम पूछते भए हे विद्याधरो कहो लंका कितनी दूर है तब वे विद्याधर निश्चल होयरहे नीचा मुख किया
मुख की छाया और ही होगई कछु जुवाब न दिया, तब रामने उनका अभिप्राय जामा कि यह हृदय में । रावणसे भयरूप हैं मन्ददृष्टि कर तिनकी ओर निहारे लब ये जानते भए हमको पाप कायर जाने । तब लज्जावान् होय हाथ जोड़ सिर निवाय कहते भए हे देव जिसके नाम सुने हमको भय उपजे हैं. । उसकी बात हम कैसेकहें कहां हमअल्प शक्ति के धनी औरकहां वह लंकाका ईश्वर इसलिये तुमयह हठछोडो
अववस्तुगई जानो अथवा सुनो होतो हम सबबृत्तान्त- कहें सो नीके उरमें धारो, लवणसमुद्रके विषेराक्षस द्वीप प्रसिद्धहै अद्भुत सम्पदा का भरा सोसातसो योजन चौड़ा है और प्रदक्षिणाकर किञ्चित् अधिक इक्कीस सौ योजन उसकी परिधिहै उसके मध्यसुमेरु तुल्यत्रिकूटाचल पर्वतहै सो नवयोजनऊंचा पचास योजनके विस्तार नाना प्रकारके मणि और सुवर्ण कर-मण्डित आगे मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्र ने दिया थो उस त्रिकुटाचल के शिखर पर लंका नाम नगरी शोभायमान रत्नमई जहां विमान समान घर
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ज्य और अनेक क्रीडा करने के निवास तीस योजल के विस्तार लंकापुरी महाकोट खाईकर मण्डित मानों MT/ दूजी वसुधारा ही है और लंकाके चौगिरद बड़े बड़े, रमणीक स्थानकहें अतिमनोहरमणि सुवर्णमई जहां
रोक्षसों के स्थानक हे तिनमें रावण के बन्धुजन वसे हैं सन्ध्याकार सुवेल कांचन बहादन पोधन हंस हर सागर घोष अर्धस्वर्ग इत्यादि मनोहर स्थानक धन उपवन श्रादिसे शभित देवलोकसमानहै जिन विष भ्रात, पुत्र, मित्र, स्त्री बांधव सेवक जन सहित लंकापति रमे है सो उस विद्याधरोंके सहित क्रीड़ा करता देख लोकोंको ऐसी शंका उपजे है कि मानों देवोंसहित इन्द्रही रमे है जिसका महाबली विभीषण सा भाई जो औरोंसे युद्ध में न जीता जाय उस समान बुद्धि देवोंमें नहीं और उस समान मनुष्य नहीं उस एकही से रावणका राज्य पूर्ण है और रावणका भाई कुम्भकर्ण त्रिशूलका धारक जिसका युद्ध में टेढी भौहें देवभी देख सकें नहीं तो मनुष्योंकी क्यावात और रावणका पुत्र इन्द्रजीत पृथ्वी विषे प्रसिद्धहै और जिनके बडे २ सामन्त सेवकहें नाना प्रकार विद्याके धारक शत्रु के जीतनहारे और जिसका छत्र पूर्ण चन्द्रमा समान जिसे देखकर वैरी गर्वको तजे हैं जिसने सदा रण संग्राममें जीत ही जीत सुभदपनेका विरद प्रकट कियाहे सौ रावणके छत्रको देख तिनका सर्व गर्व जाता रहे और रावणका चित्रपट देखे अयवा नाम सुने शत्रु भयको प्राप्तहोय जो ऐसा रावण उससे युद्ध कौन कर सके इसलिये यह कथाही न करना और बात करो। यह बात विद्याधरोंके मुखसे सुनकर लक्ष्मण बोला मानों मेघ गाजा तुम पती प्रशंसा करो हो सो सब मिथ्याहै जो वह बलवानथा तो अपना नाम | छिपाय स्त्रीको चुराकर क्यों लेगया वह पाखण्डी अतिकायर अज्ञानी पापी नीच राचस उसके रंच
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पा मात्र भी शूरता नहीं और राम कहते भए बहुत कहनेसे क्या सीताकी सुधही कठिनथी अब सुध पाई || पुगर तब सीता पाय चुकी और तुम कही और बात करो और चिन्तवन करो सो हमारे और कछु बात नहीं
और कछू वितवन नहीं । सीताको लावना यही उपायहै । रामके बचन मुनकर वृद्धविद्याधर क्षण एक विचारकर बोले, हे देव शोक तजो हमारे स्वामी होवो और अनेक विद्याधरोंकी पुत्री गुणोंकर देवांगनासमान उनके भग्तार होवो और समस्तदुःखकी बुद्धि छोडो तब राम कहते भए हमारे और स्त्रियों का प्रयोजन नहीं जो शचीसमान स्त्रीहोय तोभी हमार अभिलाषानहीं जो तुम्हारी हममें प्रीतितो सीता हमें शीघही दिखावो तब जांबूनन्द कहताभया, हेप्रभो इसहठकीतजो एक सुद्र पुरुषने कृत्रिममयूरका हठ किया उसकीन्याई स्त्रीका हठकर दुखीमतहोवो यह कथा सुनो। एकवणातटग्राम वहां सर्व रुचि नामा गृहस्थी उसके विनयदत्त नामा पुत्र उसकी माता गुणपूर्णा और विनयदत्तका कुभित्र विशाल भूत जो पापी विनयदतकी स्त्रीसों आसक्तभया स्त्रीके बचनसे विनयदतको कपटसे बनम लगया सी एक वृक्ष के ऊपर | बांध वह दुष्ट घर चला आया कोई विनयदर्शक समाचार पूछे तीउसे कछुमिथ्या उत्तरदय सांचा होय रहे
और जहां विनयदत्त बन्धाथा वहां एक तुद्रनामा पुरुषायावृचके तले बैठा वृक्ष महासघन विनयदत्त कुरलावताथा सो तुद्रदेख तो दृढ़ बन्धनकर मनुष्य बृक्षकी शाखाके अग्रभाग बन्धाहै तब क्षुद्र दयाकर ऊपर चढ़ा विनयदत्तको बन्धनस निवृतकिया विनयदत्त द्रव्यवानसोंचूद्रको उपकारी जान अपने घर लेगया भाईसे भी अधिक हितराखे विनयदत्तके घर उत्साहभया और वह शिलाभूत कुमित्र दूर भागगया तुद्र विनयदत्तका परमामंत्र भया सो क्षुद्रका एक क्रीड़ा करनेका कागजका मयूर सो पवनकर उडाराज
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पद्म
n६३४॥
पुत्रके घर जाय पड़ा सो उसने उठाकर स्खलिया उस निमितसे चूद्र महाशोककर मित्रको कहताभया मुझे जोक्ता इच्छे है तो मेरा वही मयूर लामो विनयदत्तने कही मैं तुझे नमई मयूरकराय दूं और सांचेमोर मंगाय, वह पत्रमई मयूरपवनसे उड़गया सो राजपुत्रने राखा में कैसे लाऊं तब तुदने कही में वही लेउ स्त्नोंके न नेउं न सांचे लं विनयदत्त कहे जो चाहो सो लो वह मेहाथ नहीं तुद्र बारम्बार वही मांमे सो वहतो मुहथानुम पुरुषोत्तमहोय ऐसे क्यों भूलो वह पत्रोंकामयूर राजपुत्रकेहाथगयाविनयदत्त कैसे लावे इसलिए अनेक विद्याधसेंकीपुत्री सुवर्णसमान वर्ण जिनका श्वेत श्याम प्रारक्त तीनवर्णकोधरेहेनेत्र कमलजिनके सुन्दर पीवर 'स्तन जिनके कवली समान जंघा जिनकी और मुखकी कांतिकरशरदकी पूर्णमासी के चन्द्रमा को जीते मनोहर गुगों की धरणहारी तिनके पति होवो हे रघुनाथ महा भाग्य हमपर कृपाकसे यह दुःख का बढ़ावमहास शोक सन्ताप छोड़ो तब लक्षमण ओले । हे जाम्बूनन्द तैंने यह दृष्यंत यथार्थ न दिया हम कहे हैं सो सुनो एक कुसमपुर नामा नगर वहां एक प्रभवनामा गृहस्थ जिन के यमुना नामा स्त्री उस के धनपाल बन्धुपाल गृहपाल पशुपालक्षेत्र पाल सो यह पांचों ही पुत्र यथार्थ गुषों के धारक धनके कमाउ कुन्डम्ब के पालने में उद्यमी सदा लौकिक धन्धे करें क्षणमात्र पालस नहीं और इन से छोटा यात्मश्रेयनामा कुमार सो पुण्य के योग से देवों से भोग भोगे सो इस को माता पिता और बड़े भाई कटुक बचन कहें एक दिन यह मानी नगर पालि प्रमे था सो कोमल शरीर
खेदको प्राप्त भया उद्यम कस्ने क्ये असमर्थ सो पाप का मरण बांछता था उस समय उस के पूर्व पुण्य | कर्म के उदय से एकराज पुत्र इसे कहता भया, हे मनुष्य में पृथुस्थान नगर के राजा का पुत्र भानुकुमार ।
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परराख। ॥६३॥
पन हूं सो देशान्तर भ्रमण को गया था सो अनेक देश देखे पृथिवीपर भ्रमण करता देवयोग से कर्म पुर पुरास
गया सो एक निमित्तज्ञानी पुरुष की संगति में रहा उस ने मुझे दुखी जान करुणाकर यह मंत्रमई लोह का कडा दिया और कही यह सर्व रोग का नाशक है बुद्धिवर्द्धन है ग्रह सर्प पिशाचादिकका वश करण हाराहै इत्यादि अनेक गुण हैं सो तू राख ऐसा कह मुझे दिया और अब मेरे राज्य का उदय पाया मैं राज्य करने को अपने नगर जावू हूं यह कडा में तुझे दूहूं तू मरेमत जो बस्तु आप पै आई अपना कार्य कर किसी को दे देने से बड़ा फल है सो लोक में ऐसे पुरुषों को मनुष्य पूजे हैं प्रात्मश्रेय को ऐसा कह राजकुमार अपना कडा देय अपने नगर गया औरयह कड़ा ले अपने घर आया उस ही दिन उस नगर के राजा की राणी कोसर्प ने डसा था सो चेष्टा रहित होयगई उसे मृतक जान जरायवे को लाएथे सो प्रात्मश्रेय ने मंत्रमई लोहके कड़े प्रसाद से विष रहित करी तब राजाने अतिदान देय बहुत सत्कार किया आत्मश्रेय के कड़े के प्रसाद से. महाभोग सामग्री भई सब भाइयों में मुख्य ठहरा पुण्यकर्म के प्रभाव से पृथिवी पर प्रसिद्ध भया एक दिन कड़े को वस्त्र में बांध सरोवर गयो सोगोह आय कड़े को लेय महावृक्ष के तले ऊंडा बिल है.उस में बैट गई विल शिलों से आच्छादित सो गोह बिल में बैठी भयानक शब्द करे आत्मश्रेय ने जाना कड़े को गोह बिलमें लेगई गर्जना करे है तब प्रात्मश्रेय बृक्षको जहसे उखाड़ शिला दूर कर गोह का बिल चूर कर डाला बहुत धन लिया सो राम तो अात्मश्रेय हैं सीता कडे
समान हैं लंका. विल समान है रावण गोह समान इसलिये हे विद्याधरो तुम निर्भय होवो ये लक्षमाण, | के वचन जाम्बूनन्द के बचनों को खण्डन करनारे सुनकर विद्याधर आश्चर्यको प्राप्त भए ।
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पन अथानन्तर जांबूनन्द प्रादि सब रामसे कहत भए हे देव ! अनन्तवीर्य योगींद्रको रावणने नमस्कार । | कर अपने मृत्युका कारण पूछा तब अनन्तवीर्यकी आज्ञाभई जो कोटिशिलाको उठावेगा उससे तेरी
मृत्युहै तब ये सर्वज्ञके वचन सुन रावणने विचारी ऐसा कौन पुरुषहै जो कोटि शिलाको उठावे यह वचन विद्याधरोंके सुन लक्ष्मण बोले मैं अबही यात्राको वहां चलूंगा तब सबही प्रमाद तज इनके लार भए जाम्बूनन्द महाबुद्धि, सुग्रीव, विराधित अर्कमाली नल, नील इत्यादि नाम पुरुष विमान विष राम लक्षमणको चढ़ाय कोटिशिला की और चले अंधेरी रात्रि में सो शीघ्र ही जाय पहुंचे शिलाके समीप उतरे शिला महा मनोहर सुर नर असुरों से नमस्कार करने योग्य ये सर्व दिशा में सामन्तों को रखवारे राख शिला की यात्रा को गए हाथ जोड़ सीस निवाय नमस्कार किया सुगन्ध कमलों से तया अन्य पुष्पों से शिलाकी अर्चा करी चन्दनकर चरची सो शिला कैसी शोभती भई मानसाक्षात शची ही है उससे जे सिद्ध भए तिनको नमस्कार कर हाथ जोड भक्तिकर शिलाकी तीन प्रदक्षिणा दई सब विधिमें प्रवीण हैं तब लक्ष्मण कमर बांध महा विनय को धरता हुवा नमोकार मंत्रमें तत्पर महा भक्ति स्तुति करनेको उद्यमी भया और सुग्रीवादि बानर बंशी सबही जयजयकार शब्दकर महा स्तोत्र पढ़तेभए एकाग्रचितकर सिद्धोंकी स्तुतिकरे हैं कि भगवान सिद्धत्रैलोक्यके शिवरपर विराजे हैं वह लोकशिखर महादेदीप्यमानहै और वे सिंधस्वरूप मात्र सत्ताकर अविनश्वर, तिनका फिर जन्म नहीं अनंत वीर्यकर संयुक्त अपने स्वभावमें लीन महासमीचीनता युक्त समस्त कर्मरहित संसार समुद्र के पार कल्यामा मूर्ति श्रानन्द पिंड केवलज्ञान केवलदर्शन के आधार पुरुषाकार परम सूक्ष्म अमूर्ति अगुरु लघु असंख्यात ।
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पद्म पुराण
प्रदेशी अनंत गुणरूप सर्वको एकसमय में जाने सब सिद्धसमान कृतकृत्य जिनके कोई कार्य करना नहीं ६३ ॥ सर्वथा शुद्धभाव सर्वद्रव्य सर्वक्षेत्र सर्वकाल सर्वभाव के ज्ञाता निरंजन अत्मज्ञानरूप शुल्क ध्यान अग्निकर
अष्टकर्म बन के भस्म का हारे और महा प्रकाशरूप प्रताप के पुंज जिनको इन्द्र धरणेद्र चक्रवर्त्यादि पृथिवी केनाथ सबही सवें महास्तुतिकर वे भगवान संसारकै प्रपंचसे रहित अपने आनन्दस्वभाव तिनमई अनंत सिद्धए और अनंत होवेंगे अढाईद्वीप के विषे मोच का मार्ग प्रवृते है एकसौ साठ महाविदेह और पांच भरत पांच ऐरावत एकसौ सत्तर क्षेत्र तिनके आर्यखण्ड विषे जे सिद्धभए और होवेंगे उन सब को हमारा नमस्कारहो इस भरतने के विषे यह कोशिला यहांसे सिद्ध शिलाको प्राप्तभए वे हम को कल्याण के कर्ता होवें जीवोंको महा मंगलरूप, इस भांति चिरकाल स्तुतिकर चित्तमें सिद्धों का ध्यान कर सबही लक्षमणको आशीर्वाद देते भए. इस कोटिशिला से जे सिद्ध भए वे सर्व तुम्हारा विघ्न हरें अरिहंत सिद्ध साधु जिनशासन ये सर्व तुमको मंगलके करता होहु इसभांति शब्द करते भए और लक्षमण सिद्धों का ध्यान कर शिलाको गोड़े प्रमाण उठावता भया अनेक आभूषण पहिरे भुज बंधनकर शोभायमान है भुजा जिसकी सो भुजाओं से कोटिशिला उठाई तव आकाशमें देव जयजय शब्द करते भए सुग्रीवादिक आश्चर्यको प्राप्तभए कोटिशिला की यात्राकर फिर सम्मेद शिखरगए और कैलाशकी यात्रा कर भरत तू सर्व तीर्थ वंदे प्रदक्षिणा करी सांझ समय विमान बैठ जयजयकार करते हुए रामलक्ष्मण लार किहकंधपुर आए आप अपने स्थानक सुखसे शयन किया फिर प्रभातमया सब एकत्र होय परस्पर वार्ता करते भए देखो अब थोडेही दिन में इनदोनों भाइयों का निष्कंटक राज्य होयगा ये परम
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पुराव
॥६३८॥
ज्य | शक्ति को धरे हैं वह निर्वाण शिला इनोंनेउठाई सोयह सामान्य मनुष्य नहीं यह लक्ष्मण रावण को निसंदह ।
मारेगा, तक कैयक कहतेभए रावणने कैलास उप्रयासो वाहका पसक्रम घाटनहीं तब और कहते गए ताने । कैलास विद्याकेबलसे उपया सोआश्चर्य नहीं तब कैयक कहतेभए काहेको विवाद को जगतके कल्याण । अर्थ इनका उनका हितकराय देवो इस समान और नहीं सवणसे प्रार्थनाकर सीता लायसमको सोपो युद्धसे । क्या प्रयोजन ागे तारकमेरुपहा वलवान् भए सो संग्राममें मारेगए वे तीनसंड के अधिपति महा भाग्य । महापराक्रमी थे और और भी अनेक राजा रणमें इतेगए इसलिये साप कहिये परस्पर मित्रता श्रेष्ठ है । तब ये विद्या की विधिमें प्रवीण परस्पर मंत्रकर श्रीराम पाए अतिभक्ति से नमस्कारकर रामके समीप नमस्कार कर बैठे कैसे शोभते भए जैसे इन्द्रके समीप देव सोहैं कैसे हैं राम नेत्रों को प्रावन्द के कारण । सो कहते भए अब तुम क्यों दील करो, हो, मोविना जानकी लंकामें महादुःखसे तिष्ठे है इसलिये दीर्घ । सोच छांड अवारही लंका की तरफ गमन का उद्यम करो तब जे सुग्रीवके जांबनंदादि मंत्री राजनीति में प्रवीन हैं वे रामसे बीनती करते भए है देव हमारे टीलनहीं परन्तु यह निश्चय कहो सीताके ल्यायवे ही का प्रयोजन है अक राक्षसों सों युद्ध करना है यह सामान्य युद्धनहीं विजय पावना कठिनहै वह भरत क्षेत्रके तीन खंडका निष्कंटक से राज करे है द्वीप समुद्रोंके विषे रावण प्रसिद्धहै जासे धातुकी खंडदीप के शंका माने जंबूद्वीपमें जिसकी अधिक महिमा अद्भुतकार्य को करणहारा सर्वके उरकाशल्यहै सो युद्ध योग्य नहीं इसलिय रणकी बुद्धिछोड़ हम जोकहें हैं सो करो। हे देव उसे युद्धसन्मुख करिवमें जगतको महाक्लेश उपजे है प्राणियों के समूह का विध्वंस होयहै समस्त उत्तम क्रिया जगत् से जाय हैं इसलिये
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BEBCa
विभीषण रावण का भई सो पापकर्म रहित श्रावकव्रत का पास्कहै रावण उसके वचनको उलंघे नहीं तिन दोनों भाईयोंमें अंतराय रहित परम प्रीतिहै सो विभीषण चातुर्यता से समझावेगा और रावण भी अपयशसे शंकेगा लज्जाकर सीता को पठाय देगा इसलिये विचारकर रावण पै ऐसा पुरुषभेजनाजोवात करनेमें प्रवीण होय और राजनीति में कुशल होय अनेक नय जाने और रावणका कृपापात्र होय ऐसा हेरो तब महोदधि नामा विद्याधर कहता भया तुम कछ सुनीहै लंकाकी चौगिरद मायामई यंत्र रचा है सो अाकाशके मार्ग से आयसके नहीं पृथिवी के मार्गसे जायसके लंका अगम्यहै महाभयानक देखानजाय ऐसा मायामई यंत्र बनायाहै सो इतने बैठे हैं तिनमें तो ऐसाकोऊ नहीं जो लंकामें प्रवेश करे इसलिये पयनंजयका पुत्र श्रीशैल जिसे हनुमान कहे हे सोमहाविद्यावान बलवान पराक्रमी प्रसाफ्रूपहै उसे याचो बह रावणका यस्ममित्र है और पुरुषोत्तम है सो रावणको समझाय विघ्न टारेगा तब यह बात सबने क्याण कस हनुमान के निकट श्रीभूतनामा दूत शीत्र पछया गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे। समन महाबुद्धिवान होय और महाशक्ति को घरे होय और उपायकरें तो भी होनहार होय सोही होपजैसे उदयकाल में सूर्य का उदय होय ही लेसे जो होनहार सो होयही । इति उनतालीसयां पर्वसंपूर्णम् ॥ ___ अचानतर श्रीधूतनामा दूत पक्नके समसे शीघछी आकास के मार्गलो लक्ष्मी का निवास जो बीयुस्नगर अनेक जिनभवन लिवो शोभित वहांभया जहां मन्दिर सुवर्ष रत्नमई सो तिनकी माला
कार मण्डित कुन्दके पुष्प समान उज्वल सुन्दर झरोखोंसे शोभित मनोहर पवनकर स्मणीकसो दूत नगर || की शोभा और नगर के अपूर्व लोम देख माश्चर्यको प्रासमया फिर इन्द्र के महिल समान राजमन्दिर
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-६४०
पद्म | वहांकी अद्भुत स्वना देख थकित होय रहा हनूमान खरदूषणकी बटी मनंगकुसमा रावण की भानजा
उसके खरदूषणका शोक कर्म के उदयाले जो शुभ अशुभ भावे उसे कोई निवारिखे शक्त नहीं मनुष्यों की क्या शक्ति देवोंसे अन्यथाभी न होय इतने द्वारेआय अपने आगमका वृतांत कहा सो अनंगफुसमा की नर्मदया नामा दागली द को भीतर लेयगई अनंगकुसमा ने सकल बृत्तांत पूछा सो श्रीभूत ने नमस्कारकर विस्तारसे कहा दण्डकनमें श्रीराम लक्षमणका प्रावन सम्बूकका बध खरदूषणसे युद्ध फिर भले भले सुभटों सहित खरदूषापका मरण यह वार्तासुन अनंगकुससा मूर्याको प्राप्तभई तब चन्दन के जल से सींच सचेतकरी अनंग कुसमा अश्रुपात डारती विलापकरतीभई हाय पिता हाय भाई तुम कहां गए एक बार मुझे दर्शन देवो वचनालाप करो महा भयानक बनमें भूमिगोचरियों ने तुमको कैसे हते इसभांति पिता और भाई के दुःखसे चन्द्रनखाकी पुत्री दुखी भई सो महा कष्टसे सखियोंने शांतिता को प्रासकरी और जे प्रवीण उत्तम जनथे उन्होंने बहुत संबोधी तब यह जिनमार्गमें प्रवीण समस्त संसार के स्वरूपकोजान लोकाचारकी रीति प्रमाण पिताके मरणको क्रिया करतीभई फिर दूतको हनुमान महा शोक के भरे सकल वृत्तान्त पूछतेभये तब सकल वृत्तान्त कहा सो हनूमान खरदूषणके मरणसे अति क्रोध को प्राप्तभया भौंह टेढ़ी होयगई मुख और नेत्र आरक्तभये तब दूतने कोप निवारने के निमित्त मधुर स्वरों से वीनतीकरी हे देव किहकंधपुर के स्वामी सुग्रीव तिनको दुख उपजा सोतो आप जानोही हो साहसगति विद्याधर सुप्रीवका रूपवनाय आया उससे पीड़ितभया सुग्रीव श्रीरामकेशरण गया राम सुग्रीव का दुख दूर करवे निमित्त किहकंधापुर आए प्रथमतो सुग्रीव और उसके युद्धभया सो सुग्रीव से वह जीता न गया
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७६४१॥ ।
पुराण फिर श्रीरामके और उसके युद्धभया सो रामको देख वैतालीविद्या भागगई तब वह साहसगति सुग्रीव
के रूपसे रहित जैसाथा सो होयगया महायुद्ध में रामने उसे मारा सुग्रीव का दुःख दूर किया यह बात सुन हनूमानका क्रोष दूरभया मुख कमल फूल हषित होय कहते भये अहो श्रीरामने हमारा बड़ा उपकार किया सुग्रीवका कुल अकीर्तिरूप सागरमें डूबे था सो शीघही उधारा सुवर्णके कलश समान सुग्रीव का गोत्र सो अपयशरूप ऊंटे कूप में डूबता था श्रीराम सन्मतिके घारकने गुणरूप हस्तकर काढ़ा इसभांति हनूमान ने बहुत प्रशंसाकरी और सुख के सागर में मग्नभए और हनूमानकी दूंजी स्री सुग्रीवकी पुत्री पद्मरागा पिताके शोकका अभाव सुन हर्षित भई उसके बड़ा उत्साह भयो दान पूजा आदि अनेक शुभ कार्य किए हनूमानके घरमें अनंगकुसमाके घर खरदूषणका शोकभया और पद्मरागा के सुग्रीव का हर्ष भया इसभांति विषमताको प्राप्त भए घरके लोग तिनको समाधान कर हनूमान किहकंधापुरको सन्मुख भए महा अधिकर युक्त बड़ी सेनासे हनुमान चला अाकाशमें अधिक शोभाभई महा रत्नमई हनूमान, विमान उसकी किरणों से सूर्यको प्रभामंद होय गई हनुमानको चालता सुन अनेक राजा लारभए जैसे इन्द्रकी लार बड़े बड़े, देव गमन करें आगे पीछे दाहिनी बांई ओर अनेक राजा चले जाय, विद्याघरों के शब्द से आकाश शब्दमई होय गया आकाशगामी अश्व और गज तिनके समूहों से आकाश चित्रामरूप होयगया महा तुरंगोंसे संयुक्त ध्वजावों कर शोभितसुन्दर रथ उमसे अाकाश शोभायमान. भासताभया और उज्ज्वल छत्रों के समूह कर शोभित अाकाश ऐसा भासे मानों कुमदोंकाहीवन है और गम्भीर दुन्दुभी शब्द उनकर दीदिशा ध्वनिरूप होयगई मानो मेघ गाजे है और अनेक वर्ण के श्राभूषण,
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पुराव
२॥
तिनकी ज्योति के समूहसे श्राकाश नानारंगरूपहोयगया काहू चतुर रंगेरेका रंगा वस्र है हनुमान के || वादित्रों का नाद सुन कपिवंशी हर्षित भए जैसे मेघकी ध्वनि सुन मोर हर्षित होय मुवि ने सबनगर की शोभा कराई हाट वाजार उजाले मंदिरों पर ध्वजा चढ़ाई ग्लों के तोरणोंसे द्वार शोभित किए हनूमान के सब सन्मुख गए सबका पूज्य देवोंकी न्याई गरमें प्रवेश किया मुग्रीव के मंदिर श्राए मुग्रीव ने बहुत आदर किया और श्रीराम का समस्तवृतांत कहा तब ही मुग्रीवादिक हनूमान सहित परमहर्ष को धरते श्रीरामके निकट पाएसो हनुमान रामको देखताभयामहासुन्दर सूक्ष्म स्निग्धश्याम मुगन्ध वक्र लंबे महामनोहरहें केश जिनके सो लक्ष्मीरूपवल इनकर मंडित महा मुकुमारअंग जिनका सूर्यसमान प्रतापी चन्द्रसमान कांति धारी अपनी कांति से प्रकाश के करण हारे नेत्रों को प्रानन्द के कारण महामनोहर अतिप्रवीण श्राश्चर्यकारो कार्यके करणहारे मानो स्वर्गलोक से देवहीं पाएहैं देदीप्यमान निर्मल स्वर्ण के कमल के गर्भ समान है प्रभा जिनकी सुन्दर नेत्र सुन्दर श्रवण सुन्दर नासिका सबांग सुन्दर मानों साचात् कामदेव ही हैं कमल नयन नवयोवनचढ़े धनुष समान भौंह जिन की पूर्णमासी के चन्द्रमा समान बदन महामनोहर मूंगा समान लालहोंठ कुन्द के पुष्प समान उज्वल दंत शंखसमान कंट मृगेन्द्र समान साहस सुन्दरकटि सुदर बक्षस्थल महाबाहू श्रीवत्सलक्षण दक्षणावर्त गंभीरनामे आरक्तकमल समान कर चरण महाकोमल गोल पुष्ट दोऊ जंघा और कछुवे की पीठ समान चरण के अग्रभाग महाकांति को घरे अरुण नव अतुल बल महायोधा महा गंभीर महा। उदार समचतुर संस्थान बजू वृषभ नाराच संहनन मानों सर्व जगत्रय की सुन्दरता एकत्र कर बनाए ।
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पन्न हे महा प्रभाव संयुक्त परन्तु सीता के बियोग से व्याकुल चित्त मानों शची रहित इंद्र बिराजे हैं अथवा
रोहिणी रहित चन्द्रमा तिष्ठे है रूप सौभाग्य कर मंडित सर्व शास्त्रों के वेत्ता महाशूर बीर जिनकी सर्वत्र कीर्ति फैलरहीहै महा बुद्धिमान गुणवान ऐसे श्रीराम तिनको देखकर हनुमान आश्चर्यको प्राप्तभया तिनके शरीर की कांति हनुमान पर जायपड़ी प्रभाव देखकर वशीभूत हुवा पवन का पुत्र मनमें विचारता भया ये श्रीराम दशरथ के पुत्र भाई लक्ष्मण लोकश्रेष्ठ इनका प्राज्ञाकारी संग्राम में जिनके चंद्रमा समान उज्ज्वल क्षत्र देख साहसगति की विद्या वैताली ताके शरीर से निकस गई और इन्द्र भी मैंने देखा है परन्तु इनको देखकर परम आनन्द संयुक्त हृदय मेरा नम्रीभूत भया इसभान्ति आश्चर्य को प्राप्त भयाअंजनी का पुत्र श्रीराम कमललोचन तिनके दर्शनकोओगे पाया और लक्षमण ने पहिलेही रामसे कहराखी
सो हनुमान को दूर ही से देख उठे उरसे लगाय मिलं पररपर अतिस्नेह भया हनुमान अति विनयकर बैग आप श्रीराम सिंहासन पर विराजे भुज बन्धसे शोभितहै भुजा जिनकी महा निर्मल नीलाम्बर | मण्डित राजन के चूडामणि महा सुन्दर हार पहिरे ऐसे सोहें मानों नक्षत्रों सहित चन्द्रमाही है और दिव्य पीतांबर धारे हार कुरडल कर्पूरादि संयुक्त सुमित्रके पुत्र श्रीलक्षमण केसे सोहे हैं मानों विजुरी सहित मेघही है और वानर वंशियों का मुकट देवों समान पराक्रम जिसका राजा सुग्रीव कैसा सो मानों लोकपाल ही है और लक्षमण के पीछे बैग विराधित विद्याधर कैसा सोहे मानों लक्षमण नरसिंह काहे चक्ररत्न ही है रामके समीप हनूमान कैसा शोभता भया जैसा पूर्णचन्द्र के समीप बुध सोहे और | सुग्रीव के दोयपुत्र एक अंगज दूजा अंगद सो सुगन्धमाला और वस्त्र आभूषपादिकर मण्डित ऐसे सोहें
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पन, मानों यम कुवेर ही हैं और नल नील और सैंकड़ों राजा श्रीराम की सभामें ऐसे सोहें जैसे इन्द्र की ATM सभामें बैठ देव सोहें अनेक प्रकारकी सुगन्ध और प्राभूषणों का उद्योत उससे सभा ऐसी सौहं मानों | इन्द्रकी सभा है तब हनुमान आश्चर्य को पाय अतिप्रीति को प्राप्तभया श्रीरामको कहताभया । हे देव
शास्त्र में ऐसा कहाहै प्रशंसा परोक्ष करिये प्रत्यच न करिये परन्तु अापके गुणोंसे यह मन वशीभूत । भया । प्रत्यक्ष स्तुति करे है और यह रीति है कि आप जिनके आश्रय होय तिनके गुण वर्णन करे। सो जैसी महिमा अापकी हमने सुनी थी तैसी प्रत्यक्ष देखी श्राप जीवों के दयालु महा पराक्रमी परम हित गुणों के समूह जिनके निर्मल यशकर जगत् शोभापमानहै । हे नाथ सीताके स्वयम्बरविधान में । हज़ारों देव जिसकी रक्षाकरें ऐसा पत्रावर्त धनुष बापने चढ़ाया सो हमने सब पराक्रम सुनै जिनका पिता दशरथ माता कौशल्या भाई लक्षमण भरत शत्रुधन स्त्री का भाई भामंडल साराम जगोत्पति तुम धन्य हो । तुम्हारी शक्ति धन्य तुम्हारा रूप धन्य सागरावर्त धनुष का धारक लक्षमण सोसदा आज्ञाकारी धन्य यह । धीर्य धन्य यह त्याग जो पिताके वचन पालिवेअर्थ राज्यका त्यागकर महा भयानक बनमें प्रवेश किया।
और आपने हमारा जैसो उपकार किया तैसा इन्द्र न करे सुग्रीव का रूप कर साहसगति आयाथा। सो आपने कपिवंशका कलंक दूर किया अापके दर्शनकर वैताली विद्या साहसगतिके शरीर से निकस। गई आपने युद्ध में उसे हता सोअापनेतो हमारा बड़ा उपकार किया अब हम क्यासेवा करें शास्त्रको यह आज्ञा है जो आप सो उपकार करे और उसकी सेवा न करे उमको भारशुद्धतानहीं और जो कृतघ्न | उपकार भूले सो न्याय धर्म से वहिर्मुख हैं पापियों में महापापी हैं और अपराधीयों से निर्द, ई हैं सा उससे,
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पुराण ६४
सत्पुरुष संभाषण न करें इसलिये हम अपना शरीरभी तजार तिहारे काम को उद्यमीहैं मैं जायलका पतिको । समझाय तुम्हारी स्री तुम्हारे लाऊंगा हे राघव महा बाहू सीता का मुखरूपकमल पूर्णमासी के चंद्रमा । समान कांति का पुंज आप निस्संदेह शीघही सीताको देखोगे तब जांबूनन्दमंत्री हनूमान कोपरम हितके वचन कहता भया हेवत्स वायु-पुत्र हमारे सबनके एक तू ही आश्रयहै सावधान लंका को जाना और किसी सो कदाचित् बिरोध नकरना तब हनुमान ने कहो आप की आज्ञा प्रमाण ही होयगा । । । प्रथानंतर हनुमान लंका कोचलिबे को उद्यमी भया तब राम अति प्रीति को प्रासभए एकांत में कहते ।
भए हे वायु पुत्रसीताको ऐसे कहियो, कि हेमहासती तुम्हारे वियोगसे राम का मन एकचण भी सातारूप
नहीं और गम ने योंकही ज्यों लग तुम पराए मशहो त्योलग हम अपनापुरुषार्थ नहीं जानेहं और तुम। । महानिर्मल शील से पूर्णहो और हमारेवियोग से प्राशतजा चाहोहो सोप्राण तजो मत अपना चित्त समाधान
रूप रोखो विवेकी जीवों को आर्त रौद्ध से प्राण न तजने मनुष्यदेह अतिदुर्लभ है उस में जिनेन्द्र का || धर्म दुर्लभ है उस में समाघि मरण दुर्लभ है जो समाधि मरण न होय तोयह मनुष्य देह तुषवत् प्रासार । || हैऔर यह मेरे हाथ की मुद्रिका जाकर उसे विश्वास उपजे सो ले जावो और उन का चुडामणि महाप्रभा
रूप हमपैलेाइयो तब हनमान् ने कही जो आप आज्ञा करोगे सो ही होयगा, ऐसा कहकर हाथजोड़नमस्कार कर फिर लक्षमण से नमीभूत होय बाहिर मिकसा विभूति कर परिपूर्ण अपने तेजसे सर्व दिशा को उद्योत करता सुग्रीव के मंदिर आया और सुग्रीव से कही जौलग मेरा श्रावना न होय तो लग तुम। | वहुत सावधान यहांहीरहियो इसभांति कहकर सुन्दर हे शिखर जिसके ऐसा जो विमान उसपर ब्रहा।
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ऐसा शोभताभयाजेसा सुमेरुके ऊपर जिनमंदिर शोभे परमज्योति से मंडित उज्वल छत्रकर शोभित । हंससमान उज्ज्वल चमर जिसपर दुरें हैं और पवन समान अश्व चालते पर्वत समान गज और देवोंकी सेना समान सेनाउसके संयुक्त इस भांतिमहा विभूतिसे युक्त आकाश गमन करता गमादिक सर्वने देखा गौतमस्वामी गजा श्रेणिक सेकहे हैं हे गजन यह जगत नाना प्रकारके जावों से भग है तिन में जो कोई परमार्थ के निमित्त उद्यम को हैं सो प्रशंशा योग्य हैं और स्वार्थ से जमतही भगहे जेपराया उपकार करें वे कृतज्ञ हैं प्रशंशायोग्य है. और जे निकारण उपपकार करें हैं उन के तुल्य इन्द्रचन्द्र कुबेर भी नहीं और जे पापी कृतघ्नी पराया उपकार लोपे हैं वे नरक - निगो के पात्र हैं और लोक निन्ध हैं ॥ ॥इति पचासवांपर्व संपूर्णम् ॥ ___ अथान्तर अंजनी का पुत्र श्राकाशमें गमन करता परम उदय को धर कैसा शोभता भया मानों वहिन समान जानकी उसे लायवेको भाई जाय है कैसे हनुमान श्रीरामकी आज्ञा विषे प्रवर्ते हैं महा विनय रूप ज्ञानवंत शुद्ध भाव रामके कामका चित्त में उत्साह सो दिशा मंडल अवलोकते लंकाके मार्गमें राजा महेंद्रका नगर देखतेभए मानों इन्द्रका नगरहै पवर्तके शिखरपर नगरबसे हैं जहां चन्द्रमा समान उज्ज्वलमंदिरहै सो नगर दूरही से नजर आया तब हनूमानने देखके मनमें चितया यह दुर्बुद्धि महेन्द्रका नगरहै वह यहां तिष्ठे है, मेरी माताको जिसने संताप उपजायाथा पिता होयकर पुत्रका ऐसा
अपमानकरे जो इसने नगरमें न राखी तब माता बनमें गई जहां अनन्तगतिमुनितिष्ठथेतिननेअमृतरूप । बचनकहकरसनाधानकरी सोमेगउद्यानविषजन्मभया जहांकोई बंधुनहींगमाता शरणावेप्रोस्यह न ।
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परास
utan
गले यह क्षत्रीका धर्म नहीं इसलिये इसका गर्व हरू तब क्रोधकर रगाके नगारे बजाए और ढोल वाजते भए शंखोंकी घनिभई योधावोंके आयुध झलकने लगे गजामहेंद्र परचक्र आया सुनकर सर्व सेना सहित बाहिर निकसा दोनों सेनामें महा युद्धभया महेंद्र ग्थमें चढ़ा माथे छत्र फिरता धनुष चढाय हनूमानपर आया सो हनूमानने तीनवाणोंमे उसका धनुष छेदा जैसे योगीश्वर तीन गुप्तिकर मानको छेनें फिर महेंद्रने दूजा धनु र लेनेका उद्यम किया उसके पहिले बाणोंसे रथसे घोड़े छूटाय दिए सो स्थ के समीप भ्रम जैसे मनके प्रेरे इन्द्रिय विषयों में म्रने फिर महेंद्रका पुत्र विमानों पैठ हनूमानपर पापा सो हनूमानके और उसके बाणचक्र कनक इत्यादि अनेक आयुधोंसे परस्पर महायुद्ध भया हनूमानने अपनी विद्यासे उसके शस्त्र निवारे जैसे योगीश्वर अ.त्मचिंतवनकर पर्गपहके समूहको निवारें उस ने अनेक शस्त्र चलाये सो हनूमानके एकभी न लगा जैसे मुनिको कामका एकभी वाण न लग जैसे तमों के समूह अग्निमें भस्म होय तैसे महेंद्रके पुत्रके सर्व शस्त्र हनूमानपर विफलगए और हनुमाह ने उसे पकडा जैन मर्पको गरुड पकडे तब राजा महेंद्र महारथी पुत्रको पकडा देख महा क्रोधायमानभग हनूमानपर पाया जैसे साहसगति समपर आयाथा हनूमाननी महा धनुषधारी सूर्य के रथ समान स्थपर चढा मनोहर है उस्में हार जिसके शूग्बीगेमें महाशूरवीर नानाकेसन्मुख भया सो दोनों में करोत कुठार खडग बागा श्रादि अनेक शत्रोंसे पवन और मेघ की न्याई महा युद्ध भया दोनों सिंह
समान महाउद्धत महाकोपके भरे बलवन्त अग्निके कणसमान रक्तनेत्र दोनों अजगरसमान भयानक || शब्द करते परस्पर शस्त्र चलावते गहास संयुक्त प्रकटहें शब्द जिनके परस्पर ५से शमन करें हैं धिक्कार
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प
पुराव
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तेरे को तू क्या युद्ध करना जाने इत्यादि बचन परस्पर कहतेभए दोनों विद्याबल से युक्त परम युद्ध करते वारम्वार अपने लोगों करह हाकार जयजयकारादि शब्द करावतेभए गजा महेंद्र महा विक्रि शाक्त का धारक कोचकर प्रज्वलित है शरीर जिसका सो हनुमानपर श्रायुवों के समूह ढारता भया भुडी फरसी बाण शतघ्नी मुदार गदा पर्वतों के शिखर शालिवृच बटवृत्त इत्यादि अनेक आयुध हनुमान पर महेंद्रने चलाए सो हनुमान व्याकुलताको न प्राप्तभया जैसे गिरिराज महा मेघ के समूह से कंपाय मान न होय जेते महेंद्रने बाण चलाए सो हनुमानने उलका विद्याके प्रभाव से सब घूर डारे फिर आपने स्थसे उछल महेंद्र के रथ में जाय पडे दिग्गज की सूंड समान अपने जे हाथ तिनसे महेंद्र को पकड लिया और अपने रथ में आप शूरवीरोंसे पाया है जीतका शब्द जिन्होंने सही लोक प्रशंसा करते भए राजा महेंद्र हनुमानको महाचलवान परम उदयरूप देख महा सौम्य वाणीकर प्रशंसा करता भया हे पुत्र तेरी महिमा जो हमने सुनी थी सो प्रत्यक्ष देखी मेरा पुत्र प्रसन्नकीर्ति जो अब कानूने कदे न जीता रथनूपुरका स्वामी राजाइन्द्र उससे भी न जीतागया विजियार्धगिरिके निवासी विद्याधर तिन में महाप्रभाव संयुक्त समहिमाको धरे मेरापुत्रस तैंने जीता और पकडा धन्य पराक्रमते रामहावीर्यको घरे तेरे समान और पुरुष नहीं और अनुपमरूप तेरा और संग्राम में अद्भुत पराक्रम, हेपुत्रहनूमान तैने हमारे सब कुल उद्योतकिए तू चरमशरीरी अवश्य योगीश्वर होयगा विनय आदि गुणोंसे युक्त परम तेज की राशि कल्याणमूर्ति कल्पवृक्ष प्रकटभयाहै तू जगतका गुरुकुलका आश्रय और दुःखरूप सूर्य कर जे तप्ताय - मान तिनको मेघसमान इस भांति नाना महेन्द्रने अति प्रशंसा करी और चांख भर आई और रोमांच
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होयाए मस्तक चूमाछाती से लगाया तब हनूमान नमस्कारकर हाथजोड़ अति विनयकर जमा करावते भए एकक्षणमें औरही होयगए हनुमान कहे हैं हे नाथ में बाल बुद्धिकर जो तुम्हारा अविनय कियासो क्षमा करो और श्रीरामका किहकंधापुर श्रावनेका सकल वृत्तान्त कहा आप लंका के तरफ जावनेका वृत्तान्त कहा और कही में लंका होय कार्य कर आऊंडूं तुम किहकंधापुर जावो राम की सेवाकरो ऐमा कहकर हनूमान आकाशके मार्ग लंकाको चले जैसे स्वगलोक को देव जाय और राजा महेंद्र राणी सहित तथा अपने प्रसन्नकीर्ति पुत्र सहित अंजनीपुत्रीके गया अंजनीको माता पिता और भाई का मिलाप भया सो प्रति हर्षित भई फिर महेंद्र किहकंधापुर पाए सो राजा सुग्रीव विराधित आदि सन्मुख गए श्रीराम के निकट लाए राम बहुत आदरसे मिले जे राम सारिखे महंत पुरुष महातेज प्रतापरूप निर्मल चित्त हैं और जिन्होंने पूर्व जन्ममें दोनबत तप श्रादि पुण्य उपार्जे हैं तिनकी देव विद्याधर भूमिगोचरी सबही सेवाकरें हैं जे गर्बवन्त बलवन्त पुरुष हैं वे सब उनके वश होवें इसलिये सर्वप्रकार अपने मनको जीत सत्कर्ममें यत्नकरो, हे भव्यजीव हो उस सत्कर्म के फलकर सूर्यसमान दीप्तको प्राप्त होवो॥ । __अथानन्तर हनूपान आकाश में विमान में बैठे जाय हैं और मार्ग में दधिमुख नामा दीप आया जिसमें दघिमुख नामा नगर जहां दघि समान उज्ज्वल मन्दिर सुन्दर सुवरण के तोरण काली घटासमान सघन उद्यान पुरुषों से युक्त स्फटिक मणि समान उज्ज्वल जलकी भरी वापिका सोपानों कर शोभित कमलादिक कर भरी गौतमस्वामीराजा अंणिक से कहे हैं हे राजन इस नगरसे दूर वन वहां तृण बेल वृक्ष कांटों के ममह सूके वृक्ष दष्ट सिंहादिक जीवों के नाद महा भयानक प्रचण्ड पवन जिससे वृक्ष ।
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पुराव
६५०॥
गिरगिर पडें सूक गये हैं सरोवर जहां और गृध्र उल्लादि दुष्ट पक्षी विचरें उस बनमें दोयचारण मुनि | अष्टदिनका कायोत्सर्ग घरेखड़े और वहां से चारकोस तीन कन्या मानो मनोग्य नेत्र जिनके जटाघरे सफेद वस्त्र पहरे विधि पूर्वक महातपकर निर्मलहै चित्त जिनको मानों वे कन्या तीनलोककी आभूषणहीहै
अथानन्तर बन में अग्नि लगी सो दोनों मुनि धीर वीर बृक्षकी न्याई खड़े समस्त बन दावानल कर जरे वे दोनों निरग्रन्थ योग युक्त मोक्षाभिलाषी रोगादिक के त्यागी प्रशान्त बदन शान्त चित्त निष्पापं अवांछक नासा दृष्टि लूवे हैं भुजा जिनकी कायोत्सर्ग धरे जिनके जीवना मरना तुल्य शत्रु मित्र समान कांचन पाषाण समान सो दोनों मुनि जरते देख हनमान कम्पायमान भया वात्सल्य गुण कर मंडित महा भक्ति संयुक्त वैयावत करिवेको उद्यमी भया, समुद्रका जल लेयकर मूसलाधार मेह वर साया क्षणमात्रमें पृथिवी जलरूप होयगई वह अग्नि उस जलसे हनूमानने ऐसे बुझाई जैसे मुनि क्षमा भावरूप जल से क्रोधरूप अग्निको बुझावें मुनियों का उपसा दूर कर तिनकी पूजा करताभया और वे तीनों कन्या विद्या साधतीथी सो दावानल के दाह कर व्याकुलताका कारण भयाथा सो हनुमान के मेहकर बन का उपद्रव मिटा सो विद्यासिद्धिभई सुमेरुकी तीन प्रदक्षिणा कर मुनों के निकट आयकर नमस्कार करतीभई और हनुमानकी स्तुति करती भई अहो तात धन्य तुम्हारी जिनेश्वर में भक्ति तुम किसी तरफ जातेथे सो साधुवों की रक्षा करी हमारै कारण से बनमें उपद्रव भया सो मुनि ध्यानारूढ़ ध्यान से डिगे तब हनुमान ने पूछी तुम कौन और निर्जन स्थानक में कौन कारण रहो हो तब सबों में बडी बहिन कहती भई यह दधिमुख नामा नगर जहां राजा गन्धर्व उसकी हम तीन पुत्री बड़ी चन्द्र
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पराका
पिन रेखा दूजी विद्युत्प्रभा तीजी तरंगमाला सर्वगोत्रको वल्लभ सो जेते विजियार्ध विद्याधर राजकुमार हैं । ॥६३१॥ | ये सब हमारे विवाहके अथ हमारे पितासे याचना करते भये और एक दुष्ट अंगारक सो अति अभिलाषी:
निरन्तर कामके दाह कर पाताप रूप तिष्ठे एकदिन हमारेपिता ने अष्टांग निमित्तके वेत्ता जे मुनि तिन को पूछी हे भगवान मेरी पुत्रियों का वर कौन होयगा तब मुनिने कही जो रणसंग्राम में साहसगति का. मारेगा सो तेरी पुत्रियों का वर होयगा तब मुनिके अमोघ वचन सुनकर हमारे पिताने विचारी विजिया की उत्तरश्रेणी में श्रेष्ठ जो साहसगति उसे कौन मारसके जो उसे मारे सो मनुष्य इस लोक में इन्द्र समान है और मुनि के बचन अन्यथा नहीं सो हमारे माता पितो और सकल कुटम्ब मुनि के बयन पर हा भए और अंगारक निरन्तर हमारे पितासे याचनाकरे सो पिताहमको न देय तब वह अति चिन्तावान दुःख रूप वैर को प्राप्त भया ओर हमारे यही मनोरथ उपजा जो वह दिन कब होय हम सहसगति के हनिवार को देखें सो मनोगामिनी नामविद्या साधिवे को इस भयानक बनमें आई सो हमको बाखां दिन ।
और मुनियों को पाठमा दिन है आज अंगारकने हम को देख क्रोध कर वन में अग्नि लगाई जो छह । वर्ष कछु इक अधिक दिनों में विद्या सिद्ध होय हमको उपसर्ग से भय न करबे कर बारहही दिन में विद्या सिद्धभई इस आपदा में हे महाभाग जो तुम सहाय न करते तो हमारा अग्नि कर नाश होता और मुनि भस्म होते इसलिये तुम धन्य धन्य हो तब हनुमान कहतेभये तुम्हारा उद्यम सफलभया जिनके निश्चय होय तिनको सिद्धहोयही धन्य निर्मल बुद्धि तुम्हारी बड़े स्थानक में मनोरथ धन्य तुम्हारा भाग्य ऐसा || कहकर श्रीराम के किहकंधापुर श्रावने को सकल वृत्तान्त कहा और अपने रामकी आज्ञा प्रमाण लंका
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पन
॥६५॥
जायका वृत्तान्त कहा उसही समय वनके दाह शांति होयबे का और मुनि उपसर्ग दूर होनेका वृत्तांत राजा गन्धर्व सुन हनूमान पै आया विद्याघरों के योग से वह बन नन्दन बन जैसाशोभतो भया और राजा गन्धर्व हनुमान के मुख से श्रीरामका किहकंधापुर विराजने का वृत्तान्त सुन अपनी पुत्रियों सहित श्रीराम के निकट पाया पुत्री महा विभूति कर राम को परणाई राम महा विवेकी ये विद्याघरों की पुत्री और महाराज विभूति कर युक्त हैं तथापि सीता बिना दशदिशा शून्य देखतेभए समस्त पृथिवी गुणवान जीवोंसे शोभित होय है और गुणवन्तों विना नगर गहनबन तुल्य भासे है कैसे हैं गुणवान जीव महा मनोहर है चेष्टा जिनकी और अति सुन्दर हैं भाव जिनके ये प्राणी पूर्वोपार्जित कर्मके फलसे सुख दुःख भोगवेहैं इसलिये जो सुखके अर्थी हैं वे जिनरूप सूर्यसे प्रकाशाजो पवित्रजिनमार्ग उसमें प्रवृते हैं। इति५१ सं. . अथानन्तर महा प्रताप कर पूर्ण महाबली हनुमान जैसे सुमेरुको सौम जाय तैसे त्रिकूटाचल कों चला सो आकाश में जाती जो हनूमानकी सेना उसका महा धनुषके श्राकारमायामई यंत्रकर निरोध भया तव हनूमान ने अपने समीपो लोकों से पूछा जो मेरी सेना कोन कारण आगे चल न सके यहां गर्व का पर्वत असुरों का नाथ चमरेन्द्र है अथवा इन्द्र है तथा इस पर्वत के शिखर पर जिन मन्दिर है अथवा चरमशरीरी मुनि हैं तब हनुमान के ये वचन सुनकर पृथुमति मन्त्री कहता भया हे देव यह क्रूरता संयुक्त मायामई यन्त्र है तब आप दृष्टिधर देखा कोटमें प्रवेश कठिन जाना मानों यहकोट विरक्त । स्त्री के मन समान दुःख प्रवेश है अनेक आकारको धरे वक्रता से पूर्ण महा भयानक सर्व भक्षी पूतली । | जहां देवभी प्रवेश न करसकें जाज्वल्यमान तीक्षपहें अग्र भाग जिनके ऐसे करोतोंके समूहकर मण्डित ।
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पण जिहा के अग्रभाग से रुधिर को उगलते ऐसे हजारों सर्प तिन के भयायक फण वे विकराल शब्दकरे हैं । ६- और विष रूप अग्नि के कण बरसे हैं विषरूप धूमका अन्धकार होयरहा है जो कोई मूर्ख सामन्तपणा के
मानसे उद्धतभया प्रवेशकरे उने मायामई सर्प ऐसे निगलें जैसे सरप मेंडकको निगले लंका के कोट का मंडल जोतिष चक्र से भी ऊंचा सर्व दिशों में दुलंघ और देखा न जाय प्रलयकाल के मेघ समान भया । नक शब्द कर संयुक्त और हिंसारूप ग्रन्थोंकी न्याई अत्यन्त पापकर्मियों से निरमाया उसे देख कर । हनुमान विचारताभया यह मायामईकोट राक्षसोंके नायने रचाहै सो अपनी विद्याकी चातुयता दिखाई।
है और अब में विद्यारल से इसे उपाड़ता हुवा राक्षसों का मद हरूं जैसे अात्मध्यानी मुनि मोह मद, ) को हरे तब हनुमान युद्ध में मनकर समुद्र समान जो अपनी सेना सो अाकाशमें राखी और आप विद्या । मई वक्तर पहिर हाथमें गदालेकर मायामई पूतली के मुख में प्रवेश किया जैसे राहु के मुख में चन्द्रमा प्रवेश करे और वा मायामई पूतली की कुक्षि सोई भई पत की गुफा अन्धकार कर भरी सो श्राप नरसिंहरूप तीक्षण नखोंकर विदारी और गदाके घातसे कोट चूरण किया जैसे शुक्लध्यानीमुनि निर्मल भावोंसे घातिया कर्मकी स्थिति चूरणकरे । ___ अथानन्तर यह विद्या महाभयंकर भंग को प्राप्तभई तब मेघकी ध्वनि समान ध्वनिभई विद्याभाग गई कोट विघट गया जैसे जिनेन्द्र के स्तोत्र से पाप कर्म विघट जाय तब प्रलयकाल के मेघ समान
भयंकर शब्द भया मायामई कोट विखरा देख कोट का अधिकारी वज्रमुख महा क्रोधायमान होय || शीघ्र ही स्थपर चद हनूमानपर विना विचार मारने को दौड़ा जैसे सिंह अग्नि की ओर दौडे जब
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प्रय | उसे आया देख पवनका पुत्र महायोंधा युद्ध करिवेको उद्यमी भया तब दोनों सेनाके योधा प्रचण्ड nam नानाप्रकारके बाहनों पर चढ़े अनेक प्रकारके आयुध धरे परस्पर लड़नेलगे वहुत कहनेसे क्या स्वामी
के कार्य ऐसा युद्ध भया जैसा मानके और मार्दवके युद्धहोय अपने २ स्वामीके दृष्टिमें योधा गाज युद्ध करते भए। जीवत विषे नहीं है स्नेह जिनके, फिर हनूमानके सुभटोकर बज्रमुखके योधा क्षणमात्र में दशदिशा भोजे और हनूमानने सूर्य से भी अधिकहै ज्योति जिसकी ऐसे चक्र शस्त्रोंसे बज्रमुख का। सिर पृथ्वीपर डारा यह सामान्य चक्र चक्री अचक्रियोंके सुर्दशनचक होयहै युद्ध विषे पिता का। मरण देख लंकासुन्दरी बज्रमुखकी पुत्री पिताका जो शोक उपजाथा उसे कष्टसे निवार क्रोधरूप विष । की भी तेज तुरंग जुये हैं जिसके एसे स्थपर चढ़ी कुंडलोंके उद्योतसे प्रकाशरूप है मुख जिसका बक हैं भौंह जिसकी उल्कापातका स्वरूप सूर्यमंडल समान तेज धरती क्रोधके बश कर लाल, नेत्र जिस के क्रूरताकर डसे हैं किंदूरीसमान होंठ जिसने मानों क्रोधायमान शचीही है सो हनूमान पर दौडी।
और कहती भई रे दुष्ट मैं तुझे देखा यदि तेरे में शक्ति है तो मोसे युद्ध कर जो के घायमानरावण न करे । सो मैं करूंगी हे पापी तुझे यममन्दिर पठाऊंगी तू दिशाको भूल अनिष्टस्थानको प्राप्त भया ऐसे शब्द कहती वह शीघ्रही आई सो श्रावतीका हनुमानने छत्र उडाय दिया तब उसने बाणोंसे इनका धनुष तोड डारा और शक्तिलेय चलावे उसे पहिले हनूमान बीचही शक्तिको तोडडारी तब वह विद्यावलकर गंभीर बज्रदंडसमान वाण और फरसी बरछी चक्र शतघ्नी मूस न शिला इत्यादि वायुपुत्रके रयपर बरसावती भई जैसे मेघमाला पर्वतपर जलकी मूसल धारा वरसावे नानाप्रकार के श्रायुधोंके समूहसे उसने हनु ।
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मान को बेढ़ा जैसे मेघपटल सूर्यको पालादे तब हनूमान विद्याकी सर्व विधिमें प्रवीण महा पराक्रमी पद्म पुराण उसने शस्त्रोंके समूह अपने शस्त्रोंसे आप तक न श्रावने दिए तोमरादिक बाणोंसे तोमरादिक बाण १६५५॥
निवार और शक्तिसे शक्ति निवारी इसभांति परस्पर अतियुद्ध भया इसके बाण उसने निवारे उसके बाण इसने निवारे बहुत बेस्तक युद्धभया कोई नहीं हारे सो गौतमस्वामी गजा श्रेणिकसे कहे हैं । हे राजन हनुमानको लंकासुन्दरी बाणशक्ति इत्यादि अनेक श्रायुधोंसे न जीतती भई. और काम के बाणोंकर पीडित भई कैसे हैं कामके वाण मर्म के विदारनहारे कैसी है लंकासुन्दरी साक्षात लक्ष्मी 'समान रूपवन्ती. कमल लोचन सौभाग्य गुणोंसे गर्बितसो हनूमानके हृदयमें प्रवेश करती भई जिस के कर्ण पर्यत बाणरूप तीक्षण कटाक्ष नेत्ररूप धनुषसे चढे ज्ञानधीर्य के हरणहारे महा मुन्दर दुर्द्धर मनके भेदनहारे प्रवीण अपनी लावस्यतासे हरी है और सुन्दरताई जिन्होंने तब हनुमान मोहितहोय मनमें चितवताभया जो यह मनोहर प्रकार महाललित बाहिर तो विद्यावाण और सामान्य माण तिनकर मोहि भेदे है और पाभ्यन्तर मेरेमनको कामके बागोंसे बीधे है यह मोहि वाह्याभ्यंतर हणे । है तनमनको पीड़े है इस युद्धविषे इसके बाणोंसे मृत्युहोय तो भली परन्तु इसके बिना स्वर्ग में भी जीवना भला नहीं इसभांति पवनपुत्र मोहितभया और वहलेकामुन्दरीभी इसके रूपको देख मोहित भई करतारहित करुणा विषे आयाहै चित्त जिसका तब जो हनूमानके मारिवेको शक्ति हाथमें लीनी
थी सोशीघही हाथसे भूमिमें डारदई हनुमान पर नचलाई कैसे हैं हनुमान प्रफुल्लितहै तन और मन || जिनका और कमल दलसमानहें नेत्र निनके और पूर्णमासीके चन्द्रमासमानहै मुख जिनका नवयोवन ।
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६६.
मुकटविषे वानरका चिन्हसातातकामदेव हैं । लंकासुन्दगमनमें चितवताभई कि इसने मेरा पितामारा पुराण सो बड़ा अपराध किया यद्यपि द्वेषी है तथापि अनूपसरूपकर मेग्मनको हरे है जो डम महित कामभोग
नसेऊतो मेरा जन्म निष्फल है तब विहल होय एक पत्र जिसमें अपना नाम सो वाण कोलगाय चलाया तामें ये समाचार थे हे नाथ देवों के समूह कर नजीती जाऊं ऐसी में सो तुमने काम के वाणों से जीती, यह पत्र बांच हनूमान प्रसन्न होय रथ से उतरे जायकर उस से मिले जैसे काम रति से मिले वह प्रशांतवैर भई संती पासू डारती तातके मरण कर शोकरत तब हनूमान कहते भए हे चन्द्रवदनी रुदन । मत करे तेरे शोक की निवृति होवे तेरे पिता परम क्षत्री महाशवीर तिनकी यही रीति जोस्वामी कार्य के अर्थ युद्ध में प्राण तजें और तुम शास्त्र में प्रवीण हो सो सब नीके जानो हो, इस राज्य में यह प्राणी कर्मों के उदयकर पिता पुत्र बांधवादिक सबकोहणे है इसलिये तुमचार्तिध्यान तजोयेसकलपाणी अपना उपार्जा कम भोगवे हैं निश्चय मरण का कारण प्रायु का अन्त है और पर जीव निमित्त मात्र हैं, इनवचनों से लंकासुन्दरी शोक रहित भई इस सहित कैसी सोहती भई जैसे पूर्णचन्द्र से निशा सोहे प्रेम के समूह कर पूण दोनों मिलकर संग्राम का खेद विस्मरण होयगए दोनों का चित्त परस्पर प्रीति रूप होय गेया तब आकाश में स्तम्भनी विद्याकर कटक थांभा और सुन्दर मायामई नगर बसाया जैसी सांझ की प्रारक्तता होय उस समान लाल देवनके नगर समान मनोहर उसमें राजमहल अत्यन्त सुन्दर सो हाथी घोड़े विमान रथों पर चढ़े बड़े बड़े राजा नगर में प्रवेश करते भए नगर ध्वजावोंकी पंक्ति कर शोभित सो यथायोग्य नगर में तिष्ठे महा उत्साहसे संयुक्त रात्रि में शूरवीरों के युद्धका वर्णन जैसा भया तैसा सामंत करते भए हनूमान का लकासुन्दरी के संग रमता भया ।
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पुराव
"अथानन्तर प्रभात ही हममान चलने को उद्यमी भए तप लंकासुन्दरी महा प्रेम की भरी ऐसे .६५७n || कहती भई हे कंत तुम्हारे पराक्रम न सहे जांय ऐसे अनेक मनुष्यों के मुख रावणने सुने होगे सो सुनकर
अतिखेद खिम्न भयो होयगा इसलिये तुम लंका काहे को जावो, तब हनुमान ने उसे सकल बृतान्त कहा कि रामने बानरवंशियों का उपकार किया सोसबों का प्रेरा रामके प्रति उपकार मिमित्त जाऊहूं हे प्रिये राम कासीता से मिलाप कराऊं राक्षसों का इन्द्र अन्याय मार्गसे हर ले गयाहै, सी सर्वथा में साऊंगा तब उसने कही तुम्हारा और रावण का वह स्नेह नहीं स्नेह नष्ट भया सो जैसे स्नेह कहिये 'सैल उसके नष्ट होयबे से दीपका. की शिखा नहीं रहे है तैसे स्नेह नष्ट होयवे से संबन्धका व्यवहार नहीं रहे है अबतक तुम्हारा यह व्यवहार था तुम जब लंका प्रावते तब नगर उछालतेगली गली में हर्ष होता मन्दिर घावों की पंक्ति से शोभित होते जैसे स्वर्ग में देव प्रवेश करें तैसे तुम प्रवेश करते, अब सवष प्रचण्ड दशानन तुम में देषरूप है सो निःसंदेह तुमको पकड़ेगा इसलिये जब तुम्हारे उनके संधि होय तब मिलना योग्यहै तब हनुमान बोले हे विचक्षणे जाय कर उसका अभिप्राय जाना चाहूं हूं
और वह सीतासती जगत् में प्रसिद्ध है और रूप कर अद्वितीय है जिसे देखकर रावणका सुमेरुसमान अचल मन चला है वह महापतित्रता हमार नाथ की स्त्री हमारी माता समान उसका दर्शन किया चाहूं हूं इसभांति हनूमान ने कही और सब सेना लंकासुन्दरी के समीप राखी और आप उस विवेकिनीसे बिदा होयकर लंका को सन्मुख भए। यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं। हे राजन् ! इस लोक में यह आश्चर्य है जो प्राणी क्षणमात्र में एक रस को छोड कर दूजे रस में आ जाय
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पद्म पुराण
॥६५॥
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कभी विरस को छोड़ कर रस में श्रा जाय कवहूं रस को छोड कर बिरस में श्रा जाय यह जगत यह कर्म की अद्भुत चेष्टा है संसारी सर्व जीव कम्मों के आधीन हैं। जैसे सूर्य दक्षणायन से उत्तरायण आ।वे तैसे प्राणी एक अवस्था से दूजी अवस्था में आवे ॥ इतिवावनवां पर्व समाप्तम् ॥
अथानन्तर गोतमस्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वह पवनका पुत्र महाप्रभावक उदयकर संयुक्त थोडे ही सेवकों सहित निःशंक लंका में प्रवेश करता भया प्रथमही विभीषण के मंदिर में गया बिभीषण ने बहुत सम्मान किया फिर चगाएक तिष्ट कर परस्पर वार्ता कर हनुमान कहता भया कि रावण आधे भरत का पति सर्व का स्वामी उसे यह कहां उचित जो दलिद्र मनुष्य की न्याईं चोरी कर परस्त्री लावे जे राजा है सो मर्यादाके मूल हैं जैसे नदीका मूल पर्वत राजाही अनाचारी होयतो सर्व लोक में अन्याय की प्रवृति होय ऐसे चरित्रकिए राजा की सर्वलोक में निंन्दा होय इस लिए जगत के कल्याण निमित्त रावण को शीघ्र ही कहो न्यायको न उलंघे यह कहो हे नाथ जगतमें अपयश का कारण यह कर्म है जिससे लोक नष्ट हॉय सोन करना तुम्हारे कुल का निर्मल चरित्र केवल पृथिवी परही प्रशंसा योग्य नहीं स्वर्ग में भी देव हाथ जोड़ नमस्कार कर तुम्हारे बड़ों की प्रशंशा करे हैं तुम्हारा यश सर्वत्र प्रसिद्ध है तब विभीषण कहता भया में बहुत चार भाई को समझाया परन्तु मानें नहीं और जिस दिन से सीता ले आया उस दिनसे हमसे बात भी न करे तथापि तुम्हारे बचन से मैं फिर दबायकर कहूंगा परन्तु यह हठ उस से छूटना कठिन है और आज ग्याग्वां दिन है सीता निराहार है जलभी नहींलेय है तौ भो रावण को दया नहीं उपजी इस काम से विरक्त नहीं होय है ए बात सुनकर हनुमान को
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६५९
पद) अति दया उपजी प्रमदनामा उद्यान जहां सीता विराजे है वहां हनुमान गया उस बनकी सुन्दरता देखता
भया नवीनजे बलों के समूह तिनसे पूर्ण और तिनके लाल पल्लवसोहे हैं मानों मुन्दर स्त्रीके कर पाव । ही हैं और पुष्पोंकेगुग्छों पर भ्रमर गुजार करें हैं और फलों से शाखा नम्रीभूत होय रही हैं और ॥ पवन से हालें हैं कमलों कर जहां सरोवर शोभित हैं और देदीप्य मान वेलोंसे वृक्ष वेष्ठित हैं मानों वह वन देववन समान है अथवा भे.गभूमि समान है पुष्पोंकी मकरन्दसे मंडित मानों साक्षात नंदन बनहै अनेक अद्भुत ताकर पूर्ण हनूमान कमल लोचनबनकी लीला देखतासंतासीता के दर्शन निमित्त श्रागे गया चारों तरफ़ बन में अवलोकन किया सो दूर ही से सीता को देखी सम्यक दर्शन सहित महा सती उसे देख कर हनूमान मनमें चितवता भया यह राम देवकी परम सुन्दरी महा सती निर्धूम अग्नि समान असुवन से भर रहे हैं नेत्र जिसके सोच सहित बैठी मुख से हाथ लगाए सिरके केश बिखर रहे है कृशहै शरीर जिसका सो देखकर हनुमान विचारताभया । धन्य रूप इस माताका लोक विष जीते हैं सर्वलोक जिसने मानों यह कमलसे निकस लक्ष्मीही विराजे है दुखके समुद्रमें डूब रही है तोभी इस समान और कोई नारी नहीं मैं जैसेहोय तैसे इसे श्रीरामसे मिलाऊं इसके और रामके काज अपना तनहूँ इसका और रामका विरह न देखें यह चितवनकर अपना रूप फेर मन्द २ पांव धरता हनूमान आगे जाय श्रीरामकी मुद्रिका सीताके पास डारी सो शीघ्रही उसे देख रोमांचहोय अाएऔर कछू इक मुख हर्षितभा सो समीप बैठीथी जो नारी वे इसकी प्रसन्नताके समाचार जायकर रावणको कहती भई सो वह तुष्टायमानहाय इनको बस्त्ररत्नादिक देताभया और सीताको प्रसन्न वदन जान कार्य
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पद्म पुराख
६६.
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की सिद्धि वितताभया सौ मन्दोदरीको सर्व अन्तःपुर सहित सीता पै पठाई सो अपने नाथके मंचन से सर्व अन्तःपुर सहित सीता आई सो सीताको मन्दोदरी कहती भई । हे बाले आज तू प्रसन्न भई सुनी सो तैंने हमपर बड़ी कृपाकरी अब लोकका स्वामी रावण उसे अंगीकारकर जैसे देवलोककी लक्ष्मी इन्द्रको भजे ये बचन सुन सीता कौपकर मन्दोदरी से कहती भई हे खेचरी आज मेरे पतिकी बार्ता: आई है मेरे पति आनन्द हैं इसलिये मोहि हर्ष उपजा है तब मन्दोदरीने जानी इसे अन्न जल किये ग्यारह दिनभर सो वायसे वके हैं तब सीता मुद्रिका ल्यावनहारे से कहती भई, हे भाई मैं इस समुद्र के अंतद्वीप विषे भयानक बन पड़ी हूं सो कोअ उत्तमजीव मेरा भाई समान अतिवात्सल्य घग्णहारा मेरे पति की मुद्रिकाले आया है सो प्रकट दर्शनदेवे तब हनुमान महा भव्य जीव सीताका अभिप्रायजान मनमें बिचारता भवा जो पहिले पराया उपकार विचार फिर प्रतिकायरहोय बिपरहे सो अधमपुरुष हैं और जै पर जीवको आपदा विषे खेद खिन्न देख पराई सहायकरे तिन दयावन्तों का जन्म सफल है तब समस्त रावण की मन्दोदरी आदि देवे हैं और दूरही से सीताको देख हायजोड सीन निवाय नमस्कार करताभया कैसा है हनुमान महानिशंक कांतिकर चन्द्रमासमान दीप्तिकर सूर्य समान वस्त्र आभरणकर मंडिस रूपकर मुकट वानरका चिन्ह चन्दनकर चर्चित है सर्व अंग जिसका महा बलवान बज्र. वृषभ नासच संहनन सुन्दर केश रक्त हॉट कुंडल के उद्योन से महा प्रकाशरूप मनोहर मुख महा गुणवान महाप्रताप संयुक्त सीता के निकट श्रावता कैसा सोभता भया मानों भामंडल भाई लेयये को या प्रथमही अपना कल गोत्र माता पिताका नाम सुनाय कर फिर अपना नाम कहकर फिर
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श्री रामने जो कहाथा सो सर्व कहा और हाथ जोड़ विनतीकरी हे साधर्मनी स्वर्गविमान समान महल पुरा में श्रीराम विराजे हैं परन्तु तुम्हारे विरहरूप समुद्रमें मग्न काहू ठौर रतिको नहीं पावे हैं समस्त भोगोप
पद्म
५६६१
भोग तजे मौन धरे तुम्हारा ध्यान करे हैं जैसे मुनि शुद्धताको ध्यावे एकाग्रचित तिष्ठे हैं वे बीणाकानाद और सुन्दर बियों के गीत कापि नहीं सुते हैं और सदा तुम्हारीही कथाकरे हैं तुम्हारे देखने अर्थ केवल प्राणों को घरें हैं यह बचन हनुमानके सुन सीता आनन्दको प्राप्त भई फिर सजल नेत्रहोय कहती भई ( सीताके निकट हनुमान महा विनयवान हाथ जोड़ खड़ा है ) जानकी बोली हे भाई मैं दुख के सागर में पड़ीहूं अशुभके उदयसे युक्तपति के समाचार सुन तुष्टायमा नभई तुझे क्या हूँ तब हनुमान प्रणाम कर कहता या हे जगत, पूज्ये तुम्हारे दर्शनही से मोहि महा लाभ भया तब सीता मोती समान
यों की बूंद नावती हनुमान से पूछती भई हे भाई यह मगर ग्राह यादि अनेक जलचरों कर भाख महाभयानक समुद्र उसे उलंघ कर तु कैसे आया और सांत्र कहो मेरा प्राणनाथ तैनें कहां देखा और लचण युद्धमें गयाथा सो कुशल चेमसे है और मेरा नाथ कदाचित तुझे यह संदेशा कहकर परलोक प्राप्त हुवा होय अथवा जिनमार्ग में महाप्रवोण सकल रिग्रह का त्याग कर तप करता होय अ मेरे वियोग से शरीर शिथिल योयगया होय और अंगुरी से मुद्रका गिरपड़ी होय यह मेरे विकल्प है, तक मेरे प्रभु का तोसों परिचय न था सो कौन भांति मित्रता भई सो सब मुझसे विशेषता कर कहो त हनूमान हाथ जोड़ सिर निकाय कहता भया हे देवि सूर्यास खडग लक्ष्मण को सिद्धभया और चन्द्रना ने घनी जाय घनीको क्रोध उपजाया सो खरदूषण दण्डक बनमें युद्धकरने को आया और लक्ष्मण उप
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पय
॥६६२
से युद्धकरने को गए सो तो सब बृतान्त तुम जानो हो फिर रावण आया और आप श्रीराम के पास विराजती थी सो रावण यद्यपि सर्वशास्त्र का वेत्ता था और धर्म अधर्म का स्वरूप जाने था परन्तु प्राप को देखकर अविवेकी होयगया समस्त नीति भलगया बुद्धि जाती रही तुम्हारे हरिनेके कारण कपट कर सिंहनाद किया सो सुनकर राम लक्षमणपै गए और यह पापी तुमको हर ले आया फिर लक्षमण ने रामसे कही तुम क्यों ओएशीघ्र जानकीपै जावोतब भाप स्थानक पाए तुमको न देखकर महाखेद | खिन्न भए तुम्हारे ढूंढने के कारण वनमें बहुत भ्रमें फिर जटायु को मरते देखा तब उसे नमोकार मन्त्र दिया और चार आराधना सुनाय सन्यास देय पक्षी का परलोक सुधारा फिर तुम्हारे विरह से महादुखी सोच से परे और लक्षमण खरदूषण को हन राम पे आया धीर्य बंधाया और चन्द्रोदय-का पुत्र विराधित लक्षमणसे युद्धही में प्राय मिला था फिर सुग्रीव रामपै अाया और साहसगति विद्याघर जो सुग्रीव का रूप कर सुग्रीवकी स्रीका अर्थी भया था सो रामकोदेख साहसगतिकी विद्या जाती रही सुग्रीवका रूप मिटगया और साहसगति रामसेलड़ा सो साहसगतिको रामने मारा सुग्रीवका पकार किया तब सबने मुझबुलाय रामसे मिलाया अबमें श्रीरामका पठाया तुम्हारे छुड़ायवेअर्थ यहांआया हूं परस्पर युद्ध करना निःप्रयोजनहै कार्य की सिद्धि सर्वथा नयकर करनी और लंकापुरीका नाथदयावान् है विनयवान् है धर्म अर्थ काम का बेत्ता है कोमल हृदयहै सौम्यहै वक्रतारहितहे सत्यवादी महाधीरवार । है सो मेरा वचन मानेगा तोहि रामपै पठाबेगा उसकी कीर्ति महा निर्मल पृथिवी पर प्रसिद्ध है और यह लोकापबाद से डरे है तब सीता हर्षित होय हनूमान से कहती भई कि हे कपिध्वज तो सरीखे
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पराक्रमी धीरवीर विनयवान मेरे पतिके निकट कतेक हैं तब मन्दोदरी कहती भई । हे जानकी तैंने यह | क्या समझकर कही तू इसे न जाने है इसलिये ऐसा पूछे है इस सरीखे भरतक्षेत्रमें कौनहें इस क्षेत्र में यह एक ही है यह महासुभट युद्ध में कबार रावण का सहाई भयाहै यह पवनका पुत्र अंजनी का सुत रावणका भानजा जमाई है चन्द्रनखाकीपुत्री अनंगकुसमा परणाहै इस एकने अनेकजीतेहैं सदालोक इसके दर्शन को बांछे हैं चन्द्रमा की किरणवत् इसकी कीर्ति जगत्में फैल रही है लंकाका धनी इसे भाइयों से भी अधिक गिने है यह हनूमान पृथिवी पर प्रसिद्ध गुणोंकर पूर्ण है परन्तु यहबड़ा आश्चर्य है कि भूमिगोचरियों कादूत होय आयाहै तब हनुमानने कही तुमराजामय की पुत्री और रावणकी पटराणी दूती होय कर आई हो जिस पति के प्रसादसे देवोंके से सुख भोगे उसे अकार्य में प्रवर्त्ततें मने नहीं करों हो और ऐसे कार्यकी अनुमोदना करो हो अपना वल्लभ विष का भरा भोजनकरे उसको नहीं निवारोहो जो अपना भला बुरा न जाने उसका जीतव्य पशु समान और तुम्हारा सौभाग्यरूप सब से अधिक और पति परस्त्री रत भया उसकी दूंतीपना करो हो तुम सब बातों में प्रवीण परम बुद्धिमतीथी सो प्राकृत जीवों समान अविधि कार्यकरो हो तुम अर्धचक्री की महिषी कहिये पटराणी हो सो अब में तुमको महिमी कहिये भेंस समान जानूं हूं यह समाचार हनूमान के मुखसे सुन मन्दोदरी क्रोध रूप ोय बोली अहो तू दोषरूप है तेग वाचालपना निरर्थक है जो कदाचित रावण यह वात जाने कि यह सम का दूत होय सीतापै पायाहै तो जो काहूसे न करे ऐसी तोसे करे और जिसने रावणका बहनऊ चन्द्रनखा का पति मारा उसके सुग्रीवादिक सेवक भए रावणकी सेवा छोड़ी सो वे मन्द बद्धि है ये रंक
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जया करेंगे इनकी मृत्यु मिकटाई है इसलिये भूमिगोचरी के सेवक भयहें वे अतिमह निर्लज्ज तुन्छवृत्ति Momसतनी बथा गर्वरूप होय मृत्यु के समीप तिष्ठे हैं ये वचन मन्दोदरी के सुनकर सीता क्रोधरूप होय कहती !
भई हे मन्दोदरी तू मन्दवद्धि है जो बृथा ऐसे कहे है तें मेरा पति अद्भुत पराक्रमका धनी क्या नहीं सुना है शूरवीर और पण्डितोंकी गोष्ठी में मेरा पति मुख्य गाइये है. जिसके वज्रावर्त धनुषका शब्द रण संग्राम में सुनकर महा रणधोर यावा धार्य नहीं घरे हैं भयसे कम्पायमान होय कर दूर भागे हैं और जिसका लक्षमण छोटयभाई लक्ष्मीका निवास शत्रु पक्ष के चय करनेको समर्थजाके देखलेही शत्रु दूर भागजावें बहुत कहिनसे क्या मेरा पति सम लक्ष्मण सहित समुद्र तरकर शीघही श्रावे है सो युद्धमें थोड़े ही दिनों में तू अपने पतिको मूवा दखेगी मेरा पति प्रबल पराक्रम का धारी है तू पापी भरतार की प्राज्ञा रूप दूती होयपाई है. सो शिताबही विधवा होयगी और बहुत रुदन करेगी ये वचन सीताके मुखसे सुनकर मन्दोदसे रामा मयकी पुत्री अति कोषको प्राप्तभई अठरा हजार राणी हाथोंकर सीता के माखे को उद्यमी भई और क्रूर वचन कहती सीता पर आई तब हनूमान बीच आन कर तिनको थांभी जैसे पहाड़ नदीके प्रवाह को थांभे वे सब सीताको दुःखका कारण बेदनारूप होय हनिबे को उद्यमी भई थी सो हनुमानने वैद्य रूप होय निवारी तब ये सब मन्दोदरीअादि रावणकी राणी मान भंग होय रावणपै गई । क्रूर हैं चित्त जिनके तिनको गये पीछे हनूमान सीता से नमस्कारकर आहार के निमित्त विनती करता। भया हे देवि यह सोगरांत पृथिवी श्रीरामचन्द्रकी है इसलिये यहांका अन्न उनहीकाहै बैरियोंका न जानों इस भांति हनुमान ने सम्बोधी और प्रतिज्ञा भी यही थी कि जो पति के समाचार सुनूं तव भोजनकरूं ।
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4६६५
पा सो समाचार आएही तब सीता सब प्राचार में विचक्षण महा साधनी शीलवन्ती देशकाल की जानने
धारी आहार लेना अंगीकार करतीभई तब हनुमान ने एक ईरा नामकी स्त्री कुलपालिकाको आज्ञाकरी कि शीघही श्रेष्ठ अन्न लावो और हनूमान बिभीषणके गया उसीके भोजन किया और उससे कही सीता को भोजन की तयारी कराय आयाहूं और ईरा जहां डेरे थे वहां गई सो चार महर्त में सर्व सामग्री लेकर आई दर्पण समान पृथिवीको चन्दन से लीपा और महा सुगन्ध विस्तीर्ण निर्मल सामग्री और सुवर्णादिक के भाजन में भोजन धराय लाई कैएक पात्र घृत के भरे हैं कैएक चावलोंसे भरे हैं चावल कुन्दके पुष्प समाम उज्ज्वल और केएक पात्र दाल सो भरे हैं और अनेक रस नानाप्रकार के व्यंजन दूध दही महा स्वाद रूप भांति भांति आहार सी सीता बहुत किया संयुक्त रसोई कर ईरानादि समीप वतियोंको यहां ही न्यौते हनुमान से भाई का भाव कर अति वात्सल्य किया महा श्रद्धा संयुक्त है
अन्तःकरण जिसका ऐसी सोतामहा पतिव्रता भगवानको नमस्कारकर अपना नियम समाप्तकर विविध | पात्रों के भोजन करावने काश्रभिलाषकर महा सुन्दर श्रीराम तिनको हृदयमें धार पवित्र है अंग जिसको | दिम में शुद्ध आहार करतीभई सूर्यका उद्योत होय तबही पवित्र मनोहर पुण्यका बढ़ावन हारा आहार
योग्य है रात्रिको योग्य नहीं. सीता भोजन कर चुकी और कछु इक विश्रामको प्राप्त भई तब हनूमान ने नमस्कार कर विनती करी हे पतिव्रते हे पवित्रे हे गुण भूपणे मेरे कांधे चढ़ो और समुद्र उलंघ क्षण
मात्र में रामके निकट ले जाऊं तुम्हारे ध्यानमें तत्पर महा विभव संयुक्त जे राम तिनकी शीघही देखो | तुम्हारे-मिलापकर सवहीको मानन्दहो तब सीता रुदन करती हुई कहती भई हेमाई पतिकी प्राज्ञाविना ।
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पन्न | मेरा गमन योग्य नहीं जो पूछे कि विना बुलाए क्यों आई तो मैं क्या उत्तर दंगी इसलिये रावणने उपद्रव तो || पुराण सुना होयगा सो अब तुम जावो तोहि यहां विलंब उचित नहीं मेरे प्राणनाथ के समीप जाय मेरी तरफ
से हाथ जोड़ नमस्कार कर मेर मुखके वचन इसभांति कहियो हे देव एकदिनमो सहित आपने चारण मुनिकी बन्दना करी महा स्तुतिकर और निर्मलजलकी भरी सगेवरी कमलोंकर शोभित जहांजल क्रीडा करी उस समय महा भयंकर एक बनका हाथी बाया सो वह हाथी महाप्रबल आपने क्षण मात्रमें बशकर सुन्दर क्रीडा करी हाथी गर्व रहित निश्चल किया और एक दिन नन्दन बन समान बन विषे में वृत्तकी शाखाको नवावती क्रीडा करती थी सो भ्रमर मेरे शरीरको आय लगेसो आपने अतिशीघ्रता कर मुझे भुजासें उठाय लई और आकुलता रहित करी और एकदिन सूर्यके उद्योत समय में आपके समीप सरोवरके तट तिष्ठती थी तब श्राप शिचा देयबेके काज कछू इक मिसकर कोमल कमलनालकी मेरे मधरसी दोनों और एकदिन पर्वतपर अक जातिके वृक्ष देख में आपकोपछा हे प्रभो यह कौन जातिके वृक्ष महामनोहर तब प्रसन्न मुखकर कही हे देवि ये नन्दनीं वृक्ष हैं और एकदिन करणकुण्डल नामा नदीके तीर आप विराजे थे और मैं भी थी उस समय प्रध्यान्ह समय चारणमुनि अाए सो तुम उठकर महाभाक्तिकर मुनिको आहार दिया वहां पंचाश्चर्य भए रत्नवर्षा कल्प वृक्षों के पुष्पोंकी वर्षा सुगन्धजन की वर्षा शीतल मन्द मुगन्ध पवन दुन्दुभी बाजे और अाकाश विषे देवों ने यह ध्वनि करी धन्य ये पात्र धन्य ये दाता धन्य दान, ये सब रहस्यकी बात कही और चूडा मणि सिरस उतार दिया जो इसके दिवानेसे उनको विश्वास आवेगा और यह कहियो में जानूं हूं आप ।
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पुराण
की कृपा
अत्यन्त तथापि तुम अपने प्राणा यत्न से राखियो तुम्हारेसे मेरा बियोग भया अब #६६ ॥ | तुम्हारे यत्न से मिलाप होयगा ऐसा कह सीता रुदन करती भई तब हनुमान ने धीर्य बंधाया और कही
हे माता जो तुप आज्ञा करोगी सोही होयगा और शीघ्र ही स्वामी सो मिलाप होयगा यह कह हनूमानसीता से विदा भया और सोता ने पतिकी मुद्रिका अंगुरी में पहिर ऐसा सुख माना मानों परि का समागम भया ओर बन की नागरो हनूमान को देख कर आश्चर्यको प्राप्त भई और परस्पर ऐसी वात करती भई यह कोई साक्षात् कामदेव है अथवा देव है सो बनकी शोभा देखवे को आया है तिन में कोई एक काम कर व्याकुल होय वीन वजावती भई किन्नरी देवीयों कैसे हैं स्वर जिनके कोई यक चन्द्रवदनी
हस्तविषे दर्पण राख और इसका प्रतिबिम्ब दर्पण में देखती भई देखकर आसक्त भई इस भांति समस्त स्त्रियों को संभ्रम उपजाय हार माला सुन्दर वस्त्र घरे है दैदीप्यमान अग्निकुमार देववत् सोहताभया ॥
अथानन्तर इनके बनमें वने की वार्ता रावणने सुनी तब क्रोधरूपहोय रावणने महा निर्दई किंकर युद्ध में जे प्रवीण थे वे पठाए और तिनको यह आज्ञाकरी कि मेरी क्रीड़ाका जो पुष्पोद्यान वहां मेरा कोई एक द्रोही आया है सो अवश्य मार डारियो तब ये जायकर वनके रक्षकोंको कहतेभए हो बनके रक्षकहो तुम क्या प्रमादरूप हो रहे हो कोई उद्यान में दुष्ट विद्याधर आया है सो शीघ्रही मारना अथवा पकड़ना वह महा विनयी है वह कौन है कहां है ऐसे किंकरों के मुख से ध्वनि निकसी सो हनूमान ने सुनी और धनुष धरणारे शक्ति के घरणहारे गदाके घरणहारे खड्ग बरबीके घरणहारे अनेक लोग श्रवते हनूमानने देखे तब पवन का पूत सिंह से भी अधिक है पराक्रम जिसकामुकटमें रत्न जड़ित बानरका चिन्ह उसकर
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पद्म
पुराण
॥६६॥
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प्रकाश किया है आकाश जिसने याप उनको अपना रूप दिखाया उगते सूर्यं समान क्रोधरूप होंठ डसता लाल नेत्र तब इसके भय से सब किंकर भागे तब और कर सुभट आए शक्ति तोमर खड़ग चक्रगदा धनुष इत्यादि श्रायुध कर में धरे और अनेक शस्त्र लावते पाए तब अंजनी का पुत्र शस्त्र रहित था सो बनके जे वृक्ष ऊंचे ऊंचे थे उनकेसमूह उपाड़े और पर्वतोंकी शिला उपाड़ी सो रावण के सुभटों पर अपनी भुजोंकर वृक्ष और शिला चलाई मानों कालही है सो बहुत सामंत मारे कैसी है हनुमान की भुजा महा भयंकर जो सर्प उसके फण समान है श्राकार जिनका शालवृक्ष पीपल बड़े चम्पा नीच अशोक कदम्ब कुन्द नाग अर्जुन धव श्राम्र लोध कटहल बडे बडे, वृक्ष उपाड़ उपाड़ अनेक योधा मारेक शिलावों से मारे कैयक मुक्कों और लातों से पीसडारे समुद्र समान रामए के सुभटों की सेना क्षणमात्र में व खेरडारी कैयक मारे कैयक भागे हे श्रेणिक मृगोंके जीतवेको मृगराजका कौन सहाई होय और शरीर बलहीन होय तो घनोंकी सहायकर क्या उस बनके सबही भवन और वापिका और विमान सारिखे उत्तममंदिर सब चूरडारे केवल भूमिरहित बनके मन्दिर और वृक्ष विध्वंस किये सोमार्ग होय गया जैसे समुद्र सूकजाय और मार्ग होयजाय फोरि डारी है हाटों कपिंक्ति और मारे हैं अनेक किंकर सो बाजारऐसा होय गया मानों संग्रामकी भूमि है उतंग जे तोरणसो पडे हैं और ध्वजावों की पंक्ति पडी सो आकाश से मानों इन्द्रधनुष पड़ा है और अपनी जंघोंसे अनेक वर्ण रत्नों के महिल ढाहे सो अनेक वर्णके रत्नों की रजकर मानों आकाश में हजारों इन्द्र धनुष चढ़े हैं और पायनकी लातन से पर्वत समान ऊंचे घर फोर डारे तिन का भयानक शब्द होता भया और कई यक तो हाथोंसे मारे और कई एक पगों से मारे और छाती से और
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पुराण
कांधे से इस भाति रावणके हजारों मुभट मारे सोनगर में हाहाकार भया और रश्नों के माहल गिर पडे तिनका शब्द भया और हाथियों के थंभ उपार डारे और घोड़े पवनमंडल पानों कीन्याई उडेर फिरहँ
और वापी फोर डाग सो कीचड़ रहगया समस्त लंका ब्याकुल भई मानों चाक चढ़ाई है लंका रूप सरोवर राक्षसरूप मीनों से भरा सो हनमानरूप हाथी ने गाह डारा तब मेघ बाहन वक्तर पहिर बड़ी फौज लेय पाया और उसके पीछेही इन्द्र जीत पाया सो हनूमान उनसे युद्ध करनेलगा लंकाकी वाह्यभूति में महायुद्ध भयो जैसा खरदूषण के और लक्षमण के युद्धभया था और हनमान चार घोड़ों ।
के रथपर चढ़ धनुषवाण लेय राक्षसोंकी सेना पर दौड़ा तब इन्द्रजीत ने बहुत बेरतक युद्ध कर हनुमान । ) को मागफांससे पकड़ा और नगरमें लेाया सो इसके आयवसे पहिलेही रावण के निकट हनुमान की ।
पुकार होय रहीथी अनेक लोग नाना प्रकार कर पुकारकर रहेथे कि सुग्रीवका बुलाया यह अपने नगर से । किहकंधापुर आया रामसो मिला और वहां से इस ओर आया सो महेन्द्र का जीता और माधवों के। उपसग निवारे दधिमुखकी कन्या रामपै पठाई और बज्रमई कोट विश्व॑सा वज्रमुखको मारा और उसकी । पुत्री लंका सुन्दरी अभिलाषवन्तीभई और उससंग रमाऔर पुष्पनामा वन विध्वंसा और वनपालक बिल करे और बहुत सुभट मारे औरघटरूप जे स्तन तिनकर मगच सींच मालियों की स्त्रियों ने पुत्रोंकी नाई जे वृच बढ़ाएथे वे उपारडारे और वृक्षों से वेल दूरकरी सो विधवा स्त्रियोंकी नाई सूमिमें पड़ी तिनके पल्लव मूक गए और फल फूलों से नमीभूत नानाप्रकारके वृक्ष मसान कैसे वृक्ष.करडारे सो यह अपराध सुन रावण अति कोप भयाथा इतनेमें इन्द्रजीत हनमानको लेकर आया सो रावणने इसको लोह की सांकलों।
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पराम
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ण्य से बंधाया और कहताभया कि यह पापी निलंजदुराचारी है अब इसके देखनेकर क्या यह नाना अप॥६०. राध का करणहारा ऐसे दुष्टको क्यों न माम्येि तब सभोके लोक सही माथा धुनकर कहतेभए हेहनूमान
जिसकेप्रसादकर पृथिवीमें तूप्रभुताको प्राप्तभया ऐसे स्वामीके प्रतिकूल होय भमिगोचरीकादूतभयारावल की ऐतीकृपा पीठ पीछे डारदई ऐसे स्वामीको तज जे भिखारी निर्धन पृथिवीमें श्रमतेफिरें वे दोनों वीर तिन का तू सेवकभया और रावणने कहा कि तूपवनका पुत्रनहों किसी औरकर उपजाहै तेरी चेष्टाअकुलीनकी प्रत्यक्ष दीखे है जे जार जात हैं तिन के चिन्ह अंगमें नहीं दीखे हैं अब अनाचारको आचरें तब जानिए यह जारजात है कहां केसरी सिंहका बालक स्यालका प्राश्रयकरे नीचका आश्रयकर कुलवन्त पुरुष न जीवें अब तूराजदार का द्रोही है निग्रह करने योग्यहै तब हनूमान यह वचनसुन हंसा और कहाभयान जानिए.. कौन का निग्रह होय इस दुर्बुद्धिकर तेरी मृत्युनजीक आईहै केएक दिनमें दृष्टिपरेगी लक्षमणसहित श्रीराम बड़ी सेना से आवे हैं सो किसीसे रोकेन जाय जैसे पर्वतोंकर मेघन रुके और जैसे नानाप्रकार के अमृत समान आहार कर तृप्त न भया और विष की एक बंद भये नाश को प्राप्त होय तैसे हजारों स्त्रियों कर तू तृप्तायमान न होय और पर स्त्रीकी तृष्णाकर नाशको प्राप्त होयगा जो शुभ और अशुभ कर प्रेरी बुद्धि होनहार माफिक होयहै सो इन्द्रादि कर भी अन्यथा न होय दुखुद्धिमें सैकड़ों प्रिय वचन कर उपदेश दीजिए तौभी न लगें जैसा भवितव्य होय सोही होय विनाशकाल अावे तव बुद्धिका नाश होय जैसेकोई प्रमादी विषका भरा सुगन्ध मधुर जल पीवे तो मरणको पावे तैसे हे रावण तू परस्त्रीका लोलुपी नाश को प्राप्त होयगा तू गुरु परिजन बृद्धमित्र प्रिय बांधव मन्त्री सब के वचन उलंघकर पापकर्म में प्रवृतो
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पद्म
हैसो दुराचार रूप समुद्र में काम रूप भ्रमर के मध्य आय नरक के दुःख भोगेगा हे रोवण तू रत्नश्रवा पुराण || राजांके कुल क्षय नीच पुत्र भया तुझसे राक्षस बंशियोंका क्षय होयगा अागे तेरे बंशमें बड़े बड़े मर्यादाके ॥६११॥
पालनहारे पृथिवी में पूज्य स्वर्ग मुक्तिके गमन करणहारे भए. और तू उनके कुलमें पुलाक कहिए न्यून पुरुष भया दुर्बुद्धिको मित्रको मित्रलोक सुबुद्धिकी बात कहे सो न माने इसलिये दुर्बुद्धिको कहना निरर्थक
है जब हनूमानने यह वचन कहे तब रावण क्रोधकर आरक्त होय दुईचन कहता भया यह पापी मृत्यु से । नहीं डरे है वाचालहै इसलियेशीघही इसके हाथ पांवग्रीवा साकलोंसे बांधकर और कुवचनकहते ग्राममें फेरोक्रूर किंकरखार और घर घर यह वचन कहो यहभूमिगोचरियों को दूत आयाहे इसे देखो और स्वान बालक लारसो नगरकी लुगाई धिक्कारदेवें औरबालक धूल उड़ावें और स्वानभोंकें सर्व नगरीमें इसभांति इसे फेरो दुःख देवो तब वे रावणकीयाज्ञा प्रमाण कुवचन बोलते ले निकसे सो यह बन्धन तुड़ाय ऊंचा चला जैसे यति मोह फांस तोड़ मोनपुरी को जाय श्राकाशसे उछल अपने पगों की लातों कर लंका का बड़ा दार ढाया तथा और छोटे दरवाजे ढाहे इन्द्रके महिल तुल्य रावणके महिल हनूमान के चरणों के घातसे विखर गए जिनके बड़े बड़े स्तंम थे और महलके आस पास रत्न सुवर्णका कोट था सो चूर डारा जैसे वज्रपातके मारे पर्वत चूर्ण होजाय तैसे रावणके घर हनूमान रूप बत्र के मारे चूर्ण होयगए यह हनूमान के पराक्रम सुन सीताने प्रमोद किया और हनुमान को बन्धा सुन विषाद किया था तब वनोदर पास बैठी थी उसने कही हे देवी वृथा कोहेको रुदन करे यह सांकल तुड़ाय श्राकाश में चला जाय है सो देख तब सीता अतिप्रसन्न भई और चित्तमें चितवती भई यह हनमान मेरे समाचार
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पास
६७२०
पद्म पति पै जाय कहेगा सौ असीस देती भई और पुष्पांजलि नाखती भई कि तू कल्याणसे पहुंचियो |
समस्त ग्रहं तुझे सुखदाई होंय तेरे बिघ्न सकल नाशको प्राप्त होय तू चिरंजीव हो इसभान्ति परीक्ष | असीस देती भई जे पुण्याधिकारी हनुमान सारिखेपुरुष हैं वे अद्भुत आश्चर्यको उपजावेहें कैसे हैं वेपुरुष | जिन्होंने पूर्व जन्म में उत्कृष्ट तप ब्रत बोचरे हैं और सकल भव में विस्तरे है ऐसी कीर्ति के धारक हैं।
और जो काय किसीसे नबने सो करपे समर्थ हैं और चितवनमें न आवे ऐसा जोप्राश्चर्य उसे उपजावें हैं इसलिये सर्व तजकर जे पंडित जन हैं वे धर्म को भजी और जे नीचकम हैं वे खोटे फलके दाता हैं। इसलिये अशुभकर्म सजी और परम सुखका श्रास्वाद तामें श्रासक्त जेवाणी सुन्दर लीलाके धारको सूर्य के तेजको जीते ऐसे होय हैं ॥ इति पनवा पर्व सपूर्णम् ॥ _ अथानन्तर हनूमान अपने कटक में आय किहकंधापुर को आया लंकापुरी में पिम्न कर आया
वजा छत्रादि नगरी की मनोग्यता हर श्राक किहकिंधापुर के लोग हनूमानको आया जाम बाहिर निकसे नगर में उत्साह भया यह धीर उदार है पराक्रम जिसका नगर में प्रवेश करता भया सी नगर के नर नारियों को इसके देखने का अति संभ्रमभया अपना जहां निवास वहां जाय सेनाके यथा योग्यडेरे कराए राजा सुग्रीवने सब बृतान्त पूछा सो उसे कहा फिर रामके समीप गए राम यह चितवन कर रहे हैं कि हनुमान आयाहै सो यह कहेगा कि तुम्हारी प्रिया सुखसे जीवे है हनुमानने उसही समय प्राय गम को देखा महाक्षीण वियोगरूप अग्निसे तप्तायमान जैसे हाथी दावानलकर व्याकुलहोय महाशोकरूप गर्त में पडै तिनको नमस्कारकर हाथ जोड हर्षितपश्न होय सीता की वार्ता कहता भया जेते रहस्य के
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.६७३॥
समाचारकहेथे वहसत्र वरणनकिये औगतिरकाचूडामाणसौंपनिश्चितभयाचिन्ताकरबदनकीऔरही छाया होय रही है आंसू पडे हैं सो रामभी इसे देखकर रुदन करने लगगए और उठकर मिले श्री राम यों पूछे हैं हे हनुमान सत्यकहो मेरीस्त्री जीवे है तब हनुमान नमस्कारकरकहताभया । हैनाथ जीवे है आप का ध्यान करे है हे पृथ्वीपते आप सुखी होवो आपके विरहकर वह सत्यवती निरन्तर रुदन करे है नेत्रों के ज नकर चतुरमास कर राखाहै, गुण के समूहकी नदी सीता ताके केश बिखर रहे हैं अत्यम्त दुखी है और बारम्बार निश्वास नाखती चिंताके सागरमें डूबरही है स्वभावहीसे दुर्बल शरीरहै और अब विशेष दुर्बल होगई है रावणकीस्त्री श्राराधे हैं परन्तु उनसे संभाषणकरे नहीं निरंतर तुम्हाराही ध्यानकरे है शरीर का संस्कार सब तज बैठी है हे देव तुम्हारी राणी बहुत दुःखसे जीवे है अब तुमको जो करनाहोय सोकरो
अयानन्तर हनुमानके ये बचन सुन श्रीराम चिन्तावानभए मुखकमल कुमलायगया दीर्घ निश्वास नाखतेभए और अपने जीतव्यको अनेक प्रकार निंदतेभए तब लक्ष्मणने धीर्य बंधाया हे महा बुद्धि क्या सोच करोहो कर्तव्यों मनधरो और लचमण सुग्रीवसे कहताभया हे किहकन्धा धिपते तू दीर्घ सूत्री है अब सीताके भाई भामंडल को शीवही बुलावो रावगाकी नगरी हमको अवश्यही जाना है के तो जहाजोंकर समुद्र तिरे अथवा भुजावोंसे ये बात सुन सिंहनाद नामा विद्याधर बोला आप चतुर महाप्रवीण होयकर ऐसी बात मत कहो और हमतो आपके संगहें परन्तु ऐसा करना जिसमें सबका हित । होय हनूमानने जाय लंकाके वन विध्वंसे और लंकामें उपद्रव किया सो रावण क्रोधभयाहै सो हमारी । तो मृत्यु आई है तब जमवन्त बोला तू नाहरहोय कर मृगकी न्याई कहा कायर होयहै अब रावणभी
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पत्र
॥६
॥
भयरूपहै और वह अन्यायमार्गी है उसकी मृत्यु निकटाई है और अपनी सेनामें भी वडे २ योधा विद्याधर महारथी हैं विद्या विभवसे पूर्ण हैं हजारों श्राश्चर्यके कार्य जिन्होंने किये हैं तिनके नाम धनगति एकभृत गजस्वन, क्रूरकलि, किलभीम कुंड, गोरवि अंगद. नल नील तडिद्वक्रमंदर अर्शनी अर्णव, चन्द्रज्योत, मृगेंद्र, बजदृष्टि, दिवाकर, और उल्काविद्या लांगूलविद्या दिव्यशस्त्र विषे प्रवीण जिनके पुरुषार्य में विघ्न नहीं ऐसे हनूमान महाविद्यावान और भामण्डलविद्याधरोंका ईश्वर महेंद्रकेतु अति उग्रह पराक्रम जिसका प्रसन्नकीर्ति उपवति और उसके पुत्र महा बलवान तथा राजा मुग्रीवके अनेक सामन्त महा बलवानहैं परम तेजके धारक वरते हैं अनेक कार्यके करणहारे आज्ञाके पालनहारे ये बचन सुनकर विद्याधर लक्षमणकी ओर देखतेभए और श्रीरामको देखा सो सौम्यतारहित महा विकरालरूप देखा और भृकुटि चढ़ी महा भयंकरमानों कालके धनुषही हैं श्रीरामलक्ष्मण लंकाकी दिशा क्रोधके भरे लाल नेत्रकर चौके मानों राक्षसोंके क्षय करनेके कारणही हैं फिर वही दृष्टि धनुषकी ओर धरी, और दोनों भाइयोंका मुख महाक्रोधरूप होय गया कोपकर मंडितभए शिरके केश ढीलेहोय गए मानों कमलके स्वरूपही हैं जगतको तामसरूप तमकर व्याप्तकिया चाहें हैं ऐसा दोनों भाइयोंका मुख ज्याोतके मंडल मध्य देख सब विद्याधर गमनको उद्यमीभए संभ्रमरूप है चित जिनका राघव का अभिप्राय जानकर सुग्रीव हनुमानादि सर्व नाना प्रकार के भायुध और संपदा कर मंडित चलने को उद्यमी भए सम लक्षमण दोनों भाइयों के प्रयाण होने के वादियों के समूह के नादकर परित करी है दशोंदिशा सो मार्गसिवदी पंचमी के दिन सूर्यके उदय समय महा उत्साह सहित भले २ शकुन भए
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पद्म
॥६७५
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उससमय प्रयाण करतेभए क्या क्या शकुन भए वे कहिये हैं निर्घम अग्नि की ज्वाला दक्षिण वर्त देखी और मनोहर शब्द करते मोर और वस्त्राभरणकर संयुक्त सौभाग्यवती नारी सुगन्ध पवन निग्रथ मुनि छ तुरंगों का गम्भीर हींसना घंटा का शब्द दहीका भरा कलश काग पांख फैलाए मधुर शब्द करता मेरी और शांख का शब्द और तुम्हारी जय होवे सिद्धि होवे नन्दो बधो ऐसे वचन इत्यादि शुभ शकुन भए राजा सुग्रीव श्रीराम के सँग चलते भए सुग्रीवके ठौर २ सुविधाघरों के समूह आए कैसा है सुग्रीव शुक्लपक्षके चन्द्रमा समान है प्रकाश जिसका नानाप्रकार के विमान नानाप्रकारकी ध्वजा नानाप्रकार के वाहन नाना प्रकोर के आयुध उन सहित बड़े बड़े विद्याधर आकाश में जाते शोभते भए राजा सुग्रीव हनूमानशल्य दुर्मर्षण नलनील काल सुषेणकुमुद इत्यादि अनेक राजा श्रीरामके लारभए तिनके ध्वजावों पर देदीप्यमान रत्नमई बानरोंके चिन्ह मानो आकाशके प्रसवेको प्रवरते हैं और विराधितकी ध्वजा पर नाहरका चिन्ह नीझरने समान देदीप्यमान और जाम्बुकी ध्वजापर वृक्ष और सिंहरव की ध्वजा में व्याघ्र और मेघकांतकी ध्वजा में हाथीका चिन्ह इत्यादि राजावोंकीध्वजा में नानाप्रकार के चिन्ह इनमें भूतनाद महा तेजस्वी कपाल समान सो फौज का अग्रेसरभया और लोकपाल समान हनुमान भूतनाद के पीछे सामन्तों के चक्र सहित परम तेजको धरे लंकापर चढ़े सो अति हर्षके भरे शोभते भये जैसे पूर्व रावण के बड़े सुकेशी के पुत्र माली लंका पर चढ़े थे और अमल किया था तैसे श्रीराम चढ़े श्रीराम के सन्मुख विराधित बैठा और पीछे जामवंत बैठा बांई भुजा सुषेण बैठा दाहिनी भुजा सुग्रीव बैठा सो एक निमिष में बेलंधरपुर पहुंचे वहाँका समुद्र नाम राजा सो उसके और नलके परम
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चा
พริก
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युद्धभया सो समुद्रके बहुत लोक मारेगए और नलने समुद्रको बांधा फिर श्रीरामसे मिलाया और वहांही डेराभए श्रीरामने समुद्रपर कृपाकरी उसकाराज्य उसको दिया सो राजासमुद्रनेति हर्षित होय अपनी कन्या सत्यश्री कमला गुणमाली रत्नचड़ा स्त्रियों के गुपकर मंण्डित देवांगना समान सो लक्षमण से पराई वहां एक रात्री रहे फिर यहांसे प्रयाणकर सुवेल पर्वतपर सुवेल नगरगए वहां राजा सुबेल नाम विद्याधर उसको संग्राम में जीत रामके अनुचर विद्याधर क्रीड़ा करतेभए वैसे नन्दन बन में देव क्रीड़ा करें वहां अक्षय नाम वन में आनन्द से रात्रि पूर्णकरी फिर प्रयाणकर लंका आय को उद्यमी भए कैसी है लंका ऊंचे कोट से युक्त सुवर्ण के मन्दिरोंकर पूर्ण कैलाश के शिखर समान है आकार जिनके और नाना प्रकारके रत्नों के उद्योतकर प्रकाशरूप और कमलोंके जे वन तिनसे युक्त वापी सरोवरादिक कर शोभित नाना प्रकार रत्नोंके ऊंचे जे चैत्यालय तिनकर मण्डित महा पवित्र इन्द्रकी नगरी समान ऐसी लंकाको दूरसे देखकर समस्त विद्याधर रामके अनुचर आश्चर्य को प्राप्तभए और हंसद्वीप में डरे किये वहां हंसपुर नगर राजा हंसरथ उसे युद्ध में जोत हंसपुरमें कीड़ा करते भए वहांसे भामण्डल पर फिर दूत भेजा और भामण्डन के आने की बांबा कर वहां निवास किया जिस जिस देश में पुरायाधिकारी गमन करें वहां वहां शत्रुओं को जीत महा भोग उपभोग को भेजें इन पुण्याधिकारी उद्यमन्तों से कोई परे नहीं हैं सव आज्ञाकारी हैं जो जो उनके मन में अभिलाषा होय सो सब इनकी मूठी में है इस लिये सर्व उपायकर त्रैलोक्य में सार ऐसा जो जिनराजका धर्म सो प्रशंसा योग्यहै जो कोई जंग जीत भयाचाहे वह जिनधर्मको आराधो ये भोग क्षणभंगुर हैं इनकी कहा बात यह वीतरागका धर्म निर्वाण
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पद्म पुराण
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देहरा है और कोई जन्म लेय तो इन्द्र चक्रवर्त्यादिक पदको दैनहारा है उस धर्मका प्रभाव से ये भव्य जीव सूर्यसे भी अधिक प्रकाशको घरे हैं ।। इति चौवनवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर रामका कटक समोप आया जान प्रलयकाल के तरंग समान लंका क्षोभ को ग्राप्तभई और रावण कोपरूप भया और सामन्त लोक रणकथा करते भए जैसा समुद्रका शब्द होय तैसे वादित्रों के नादभए सर्व दिशा शब्दायमान भई और र भेरी के नाद से सुभट महा हर्ष को प्राप्त भए सब साजवाज सज स्वामी के हितु स्वामी के निकट आए तिनके नाम मारीच अमलचन्द्र भास्कर सिंहप्रभ हस्त मस्त इत्यादि अनेक योधा श्रायुधों से पूर्ण स्वामी के समीप आए ।
अथानन्तर लंकापति महायोधा संग्राम के निमित्त उद्यमीभया तब विभीषण रावणपैाए प्रणामकर शास्त्र मार्ग के अनुसार प्रति प्रशंसायोग्य सबको सुखदाई आगामी कालमें कल्याणरूप वर्तमान कल्याण रूप ऐसे वचन विभीषण रावण से कहता भया कैसा है विभीषण शास्त्र में प्रवीण महा चतुर निय प्रमाण का वेत्ता भाई को शान्त वचन कहता भया हे प्रभो तुम्हारी कीर्ति कुन्द के पुष्प समान उज्ज्वल महाविस्तीर्ण महाश्रेष्ठ इन्द्र समान पृथिवी पर विस्तर रही है सो पर स्त्री के निमित्त यह कीर्ति क्षणमात्र में क्षय होयगी जैसे सांझ के बादल की रेखा इसलिये । हे स्वामी ! हे परमेश्वर हम पर प्रसन्न होवो शीघ्र ही सीता को रामके समीप पठावो इसमें दोष नहीं केवल गुणही हैं सुखरूप समुद्र में आप निश्वय तिष्ठो हे विचक्षण जे न्याय रूप महा भोग हैं वे सब तुम्हारे स्वाधीन हैं और श्रीराम यहां आए हैं सो बडे, पुरुष हैं तुम्हारी तुल्य हैं सो जानकी तिनको पटाय देवो सर्वथा प्रकार अपनी वस्तु ही प्रशंसा
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योग्य है पर वस्तु प्रशंसा योग्य नहीं यह वचन विभीषण के सुन इन्द्रजीत रावण का पुत्र पिता के चित्त की वृति जान बिभीषण को कहला भया अत्यन्त मान का भरा और जिनशासनसे विमुख हे साम्रो तुमको कौनने पूछो और कौन ने अधिकार दिया जिससे इसभान्ति उन्मत्त की नाईं वचन कहो हो तुम अत्यन्त कायर हो और दीन लोकन की नाई युद्ध से डरो हो तो अपने घरके बिबरणमें बैठो कहा ऐसी बातों से ऐसी दुर्लभ स्त्रीरल पायकर मूढों की न्याई कौन तजे तुम काहेको वृथा वचन कहो जिस स्त्री के अर्थ सुभट पुरुष संग्राम में तीक्षण खड्ग की धारा से महा शत्रुवों को जीत कर वीर लक्ष्मण भुजोंकर उपार्जे हैं तिनके कायरता कहां कैसाहै संग्राम मानों हाथियों के समूहसे जहां अंधकार होय रहाहै और नाना प्रकार के शब्दों के समूह चले हैं जहां अति भयानक है यह वचन इन्द्रजीत के सुनकर इन्द्रजीत को तिरस्कार करता संता बिभीषण बोला रे पापी अन्यायमार्गी क्या तू पुत्र नामा शत्रु है तुझे शीत वाय उपजी है अपना हित नहीं जाने है शीत वायु कापीड़ा और उपाय छांड शीतल जलमें प्रवेश करे तो अपने प्राण खोवे और घरमें आग लगी और तू अग्नि में सूके ईंधन डारे तो कुशल कहां से होय अहो मोह रूप ग्राहकर तू पीडितहै तेरी चेष्टा विपरीतहै यह स्वर्ण मई लंका जहां देवविमानसे घर लक्ष्मणके तीक्षण बाणोंसे चूर्ण न होहि जाहिं तापहिले जनकसुता पतिव्रता को राम , पै पठावो सर्व लोक के कल्याण के अर्थ शीघही सीता का अर्पण योग्य है तेरे बापकुबुद्धि ने यह ।
सीता नहीं आनी है राक्षसरूप सर्पो का विल यह जो लंका उसमें विषनाशक जड़ी आनी है सुमित्रा | का पुत्र लक्ष्मण सोई भयो क्रोधायमान सिंह उसे तुम गज समान निवाखेि समर्थनहीं जिस के हाथ
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पुराण
॥६
॥
पन्न | सागरावर्त धनुष और आदित्य मुख अमोघवाण और जिन के भामंडल सा सहाई सो लोकों से कैसे
जीता जाय और बड़े बड़े विद्याधरों के अधिपति जिनसे जाय मिले महेन्द्र मलय हनुमान सुग्रीव त्रिपुर इत्यादि अनेक राजा और रत्नदीप का पति वेलंघरका पति सन्ध्या हरद्वीप हैहयदीप आकाशतिलक कैलीकिल दधिवक्र और महाबलवान विद्या के विभव से पूर्ण अनेक विद्याधर प्रायमिले इसभान्तिके कठोर वचन कहता जो विभीषण उसपर महा क्रोधायमान होय खड्ग काढ़ रावण मारने को उद्यमी भया तब विभीषण ने भी महाक्रोधके बशहोय रोवणसे युद्ध करनेको वज्रमई स्तम्भ उपाड़ाये दोनोंभाई उग्रतेज के धारक युद्धको उद्यमी भए सो मंत्रीयों ने समझाय मने किए विभीषण अपने घरगया रावण अपने महिल गया फिर रावणने कुम्भकर्ण इन्द्रजीत को कठोरचित्त होय कहा कि यह विभीषण मेरे अहित में तत्पर है और दुरात्माहै इसे मेरी नगरीसे निकासोइस अनर्थीके रहिबेसे क्या, मेरा अंगही मोसे प्रतिकूल होय तो मोहि नरुचे जो यह लंकामें रहे और में इसे न मारूतो में रावण नहीं ऐसी वार्ता विभीषण सुनकर कहामें भी क्या स्त्नश्रया का पुत्र नहीं ऐसा कह लंका से निकसा महासामंतों सहित तीस अचौहिणीदल लेयकर समपै चला(तीस चोहणी केलेकभए उसकावर्णन)छहलाख छप्पनहजारएकसौ हाथी और एतेही रप और उगणीसलाख अस्सठहजार तीनसो तुरंग और बत्तीसलाख अस्सी हजार पांच से पयादावियुतघन इन्द्रवज्र इन्द्रप्रचण्ड चपल उडत एका प्रशनि संघातकाल महाकाल ये विभीषण संबंधी परम सामन्त अपने कुठस्न और सब समुदायसहित नानाप्रकार शस्त्रोंसे मंडित रामकी सेनाकी तरफ चले नानाप्रकारके बाहनोंकर युक्त आकाशको श्राछादितकर सर्व परिवारसहित विभीषण हंसद्वीप पायासो
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पद्य पराव TECO
। उसदीपके समीप मनोग्यस्थल देख जनके तीर सेनासहित तिष्ठा जैसे नंदाश्वरद्वीपके विषे दे तिष्ठे विभीषणकोप्रायासुन बानखशियोंकी सेना कंपायमानभई जैसे शीतकालमें दलिद्री कांपे लचमशाने सागगवर्त धनुष और सूर्यहासखडग ही तरफ दृष्टिधरी और रामने बजावर्त धनुष हाथ लिया और सब मंत्री भेले होय मंत्र करतेभए जैसे सिंहसे गज उरे तैसे विभीषणसे बानरवंशीडरे उसही समय विभीषणने श्रीरामके निकद विचक्षण द्वारपाल भेजासो रामपे प्राय नमस्कारकर मधुरवचन कहताभया है देव इन दोनों भाइयों में जब से रावण सीतालायातबहीसे विरोधपडा और आज सर्वथा विगडगई इसलिये श्रापके पायनायाहै श्राप के चरणारविन्दको नमस्कार पूर्वक विनतीकरे है कैसाहै विभीषण धर्म कार्यविषे उद्यीहै यह प्रार्थना करी है कि आप शरणागत प्रतिपालहो में तुम्हाराभक्त शरणे आया हूं जो आज्ञाहोय सो ही करूं आप कृपा करने योग्यहैं यह द्वारपालके बचन सुन रामने मंत्रियोंसे मंत्र किया तब रामसे सुमतकांत मंत्री कहताभया कदाचित रावण ने कपटकर भेजाहोय तो इसका विश्वास क्या राजावोंकी अनेक चेष्ट हैं और कदाचित कोई बातकर आपसमें कलुषहोय फिर मिलिजांय कुल और जल इनके मिलनेका आश्चर्य नहीं तब महाबुद्धिवान मतिसमुद्र बोला इनमें विरोध तो भया यह बात सबके मुख से सुनिए है और विभीषण महा धर्मात्मा नीतिवान है शास्त्ररूप जनसे धोयाहै चित्त जिसका महा दयावानहै दीनलोकोंपर अनु ग्रह करे है और मित्रता में दृढ़है और भाईपने की बात कही सो भाईपनेका कारण नहीं कर्मका उदय
जीवों के जुदा २ होयह इन कर्मों के प्रभावकर इसजगत में जीवों की विचित्रताह इस प्रस्ताव में अब । एक कथाहै सो मुनो एक गिरि एकगोभूत ये दोऊ भाई ब्राह्मणथे सो एक गजा सूर्यमे घथा उस के
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पप गणी मतिक्रिया उसने दोनोंको पुण्यकी बांछाकर भातमें छिपाय सुवर्णदिया सो गिरि कपटीने भात ६८९ / में स्वर्ण जान गोभूतको छलकर मारा दोनोंका स्वर्ण हर लिया सो लोभसे प्रीतिभंग होयहै और भी | कथा सुनो कौशांबी नगरी में एक ब्रहछन नामा ग्रहस्थी उसके पुरावदानामा स्त्री उसके पुत्र अहिदेव | महीदेव सो इनका पिता मूवा तब ये दोऊ भाई धनके उपारजने निमित्त समुद्में जहाजमें बैठ गए
सो सर्व द्रव्यस्य एक रत्नमोल लिया सो वह रत्नको जो भाई हाथमें लेय उसके ये भावहाय किमें दूजे भाइको मारूंसो परस्पर दोऊ भाइयों के लोटे भावभए तब घरपाय वह रन माताको सौंपा सी माताके ये भावभएं कि दोनों पुत्रोंको विष देय मारूतब माता और दोनों भाइयों ने उसरत्नसे विरक्त होय कालिंदी नदीमें डारा सोरत्नको मछली निगलगई सो मछलीको धीवग्ने पकरी और अहिदेव मही देवहींके बेची सो अहिदेवमहीदेवकी बहिन मछलीको विवारतीथी सोरत्न निकसा तब इसकेये भावभए कि माता को और दोऊ भाइयों को मारूं तब इसने सकल वृतांतकहा कि इस रत्नके योगसे मेरे । ऐले भाव होय, जो तुमको मारूं तब रत्नको चूर डारा माता बहिन और दोऊ भाई संसारके भाव | से विरक्त होय जिनदीना धरतेभए इस लिए द्रव्य के लोभसे भाइयों में भी वैर होय है और ज्ञान के
उदयकर और मिटे हे और गिरने तो लोभ के उदय से गाभूत को मारा और अहि देवके महिदेवके वैर मिट गया सो महा बुद्धि विभीषणका द्वारपाल अायाहै उसको मधुवचनोंसे विभीषण को बुलायो तव
द्वारपालसोस्नेह जनाया और विभीषणणको अति श्रादरसे बुलाया विभीषण रामके समीप आयासोराम । विभीषणका अतिसादर करमिले विभीषण बिनती करता भयाहेदेव हेप्रभो निश्चयकर मेरेइस जन्ममें
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पद्म
६८२॥
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तुमही प्रमोहो श्रीजिननाथ तो इसजन्म परभव के स्वामी और रघुनाथ इसलोक के स्वामी इस भांति प्रतिज्ञा करी तब श्रीरामकहते भये तुझे निःसंदेह लंकाका धनी करूंगा सेना में विभीषण के श्रावने का उत्साह भया ।
अथानन्तर भामंडल भी आया कैसा है भामंडल अनेक विद्या सिद्ध भई हैं जिसको सर्व विजियार्थ का अधिपति जब भामंडल आया तब राम लक्ष्मण आदि सकल हार्पितभए भामंडल का यति सन्मान किपा भाउ दिन हंसदीप में रहे फिर लंका को सन्मुख भए नानाप्रकार के अनेक रथ और पवन से भी अधिक तेज को घरे बहुत तुरंग और मेघमाला से गयंदो के समूह और अनेक सुभटों सहित श्री राम ने लंकाको पयानं किया समस्त विद्याधरसामंत श्राकाशको श्रावादते हुए राम के संग चले सबमें
प्रेसर वानरवंशी भए जहां रण छेत्र थापा है वहां गए संग्राम भूमि बीसयोजन चौड़ा है और लंबाई का विस्तार विशेष है वह युद्धभूमि मानों मृत्यु की भूमि है इस सेना के हाथीगाजे और अश्व हिंसे विद्याधरों के वाहन सिंह हैं उन के शब्द हुए और वादित्र वाजे तब सुनकर रावण अति हर्षको प्राप्त भया मनमें बिचारी बहुत दिन में मेरे रखका उत्साह भया समस्त सामंतों को श्राज्ञा भई कि युद्ध के उद्यमी होवो सो समस्तही सामंत याज्ञा प्रमाख श्रानन्द से युद्ध को उद्यमी भए कैसा है शवया युद्ध में है हर्ष जिसको जिसने कभी भी सामंतों को अप्रसन्न न किया सदा प्रसन्नही राखे सो श्रव युद्ध के समय सबही एक चित्त भए मास्कर नामापुर, तथापयोस्पुर, कांचनपुर, व्योम बल्लभपुर, गंधर्व गीतपुर, शिवमंदिर, कंपनपुर सूर्योदयपुर अमृतपुर, शोभासिंहपुर, सत्यगीतपुर' लक्ष्मीगीतपुर, किंनरपूर बहुनागपूर, महाशलपूर चक्रपुर, स्वर्णपुर सीमंतपुर मलयानंदपुर श्रीगृहपुर श्रीमनोहरपुर रिपुंजयपुर शशिस्थानपुर मार्तंडप्रभपुर
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॥६
॥
पत्र विशालपुर ज्योतिरंडपुर परिष्योधपुर अश्वपूर रत्नपुर इत्यादि अनेक नगरीके स्वामी बड़े विद्याधर ||
मंत्रियोंसहित महाप्रीतिके भरे गवण पैपाए सोरावण राजावोंका सन्मान करताभया जैसे इन्द्र देवोंका करें हैं शस्त्रबाहन वक्तरादि युद्ध की सामग्री. सब गजावों को देता भया चारहजार अबोहणी रावमाक होतीभई और दोहजार अक्षाहणी रामके होती भईसो कौनभांति हजार अक्षौहणीदल तो भामंडलका और हजार मुग्रीवादिकका सर्बभांतिसुग्रीव और भामंडलये दोऊमुख्य अपने मंत्रियों सहित तिनसों मंत्रकर राम लक्षण युद्धको उद्यमी भए अनेक वंश के उतजे अनेक आचरनके धरणहारे नानाजातियों से युक्त नाना प्रकारगुण क्रियासे प्रसिद्ध नानाप्रकार भाषाके बोलनहारे विद्याधरराम श्री रावण पे भेलेभए गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे राजन पुण्य के प्रभाव से मोटे पुरुषों के बैरी भी अपने मित्र होय हैं और पुण्यहीनों के चिरकाल के सेवक और प्रति विश्वासके भाजन वेभी विनाश काल में शत्रु रूप होय परणवे हैं इस असार संसारमें जीवोंकी विचित्रगतिहै सोविचित्रगति जानकर यह चिंतवन करना किमेरे भाई सदासुखदाई नहीं तथा मित्र बांधव सबही सुखदाई नहीं कभी मित्र शत्रु होजांय कभी शत्रु मित्र हो। जाय ऐसे विवेकरूप सूर्य के उदयसे उरमें प्रकाशकर वुद्धिवंतोंको साधर्मही चिंतवना।इतिपचावनवा पर्व।
अयानन्तर राजा श्रेणिक गौतम स्वामीको पूछताभया, हे प्रभो अचौहिणीका परिमाण श्राप कहो तब गौतमका दूजा नाम इन्द्रभूतहे सो इंद्रभूत कहतेभए, हे मगधाधिपति अक्षौहिणीका प्रमाण तुझे संक्षेप से कहे हैं सो सुन आगम में पाठभेद कहे हैं वे सुनोप्रथम भेद पति दूजा भेद सेना तीजा भेद सेनामुख चौथा गुल्म पांचमा वाहिनी छठाप्रतना सातवां चमू आठवां अनीकिनी सो अब इनके यथार्थ भेद मुन ।
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पद्म
पुराण
।।६४।
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एकर एकगज पांच पयादे तीनतुरंग इसका नामपत्ति और तीनस्थ तीनगज पंद्रह पयादे नव तुरंग इसको सेनाकहिये और नव रथ नव गज पैंतालीस पयादा सत्ताईस तुरंग इसे सेना मुख कहिये और संचाईस रथ सत्ताईस गज एक सौ पैंतीस पयादा इक्कासी अश्व इसे गुल्म कहिये और इक्यासीरथ इक्यासी गज चार से पांच पयारे दोसोतैंतालीस अश्व इसे वाहिनी कहिये और दोयसै तियालीस रथ दोयसौ तिया लीस गज बारासौ पंद्रह पया दे सात सौ उनतीस घोडे इसे प्रतिनाकहिये और सातसौ गुणनीय रथ सात गुणतीसगज छत्तीस पैंतालीसपयाद इक्कीस सौ सतासी तुरंग इसे चमू कहिये और इक्कीस सतासीरथ इक्कीससौ सत्यासीगज दसहजार नौसेपैंतीसपयादे और पैंसठसी इकसठ तुरंग इसे अनीकिनी कहिये सो पत्ति नतिक आठ भेदभऐ सोयहांलों तो तिगुने २ बढ़े और दश अनीकिनीकी एक चौहिणी हो उसका वरणन रथ इक्कीसहजार आठसौ सत्तर और गज इक्कीसहजार पाठ से सत्तर पियादे एकलाख नौहजार तीनसे पचास और घोड़े पैंसठहजार बैसोइस यह एक अक्षौहिणी का प्रमाणभया ऐसी चारहजार अचौहिंगी कर युक्त जो रावण उसे प्रति बलवान जानकर भी किह कन्धापुरके स्वामी सुग्रीवकी सेना श्रीराम के प्रसाद से निर्भय रावण के सन्मुख होती मई श्रीराम की सेनाको अतिनिकट आए हुए नाना पत्तको घरें जो लोक सो परस्पर इस भांति बार्ता करते भए देखो रावणरूप चन्द्रमा विमानरूप जे नक्षत्र तिनके समूहका स्वामी और शास्त्रमें प्रवीण सो पर स्त्री की इच्छारूप जे बादल तिनसे आवादितभया है जिसके महाकांतिकी घरणहारी अठारह हजार राणी तिनसे तो तृप्त न भया और देखो एक सीताके अर्थ शोक व्याप्त भयहि अब देखिये राचस |
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पद्म
पुराण
॥६
बंशी और बानरबंशी इनमें कौनका क्षयहोय रामकी सैनामें पवनका पुत्र हनूमान महा भयंकर देदीप्यमान जो शूरता सोई भई उष्णकिरण उनसे सूर्य तुल्य है इस भांति केयक तो राम के पक्ष के योधाओंके यश वर्णन करते भए और कैयक समुद्रसेपी अतिगंभीर जो रावणकी सेना उसका वर्णन करतेभए और कैयक जो दगडक बनमें खरदूषणका और लक्षमणकायुद्धभयाथा उसका वर्णन करतेभए और कहते भए चन्द्रोदय का पुत्र विराधित सा है शरीर तुल्य जिनके ऐसे लक्ष्मण तिन्होंने खरदपण हता अति बल के स्वामी लक्षमण तिनका बल क्या तुमने न जाना कैयक ऐसे कहते भए और कैयक कहते भए किराम लक्षमण की क्या बात वे तो बड़े पुरुष हैं एक हनुमानने केते काम किये मन्दोदरीका तिरस्कार कर सीता को धीर्य बंधाया और रावणकी सेना जीत लंकामें विघ्न किया कोटदरवाजे. ढाहे इसमान्ति नाना प्रकारके वचन कहतेभए तब एक सुवक्रनामा विद्याधर हँसकर कहा भया कि कहां समुद्र समान रावण की सेना और कहां गाय के खोज समान बानखशियों काबल जो रावण इन्द्रको पकड़ लाया और सबों का जीतनहारा सो वानवंशियों से कैसे जीता जाय सर्व तेजस्वीयोंके सिस्परतिष्ठे है मनुष्योंमें चक्रवर्ति के नामको सुने कौन धीर्य धरे और जिसके भाई कुम्भकरण महादलवान त्रिशलका धारक युद्ध में प्रलय कालकी अग्निसमान भासे है सोजगत्में प्रल पराक्रम का धारक कोनसे जीताजाय चन्द्रमा २.मान | जिसके छत्रको देखकर शत्रुवोंकी सेना रूप अंधकार नाश को प्राप्त होय है सो उदोर लेजका धनी उसके
आगे कौन ठहर सके जो जीतव्य की बांछा तजे सोही उसके सन्मुख होय इस भान्ति अनेक प्रकार के राग द्वेषरूप वचन सेनाके लोग परस्पर कहते भए दोनों सेना में नाना प्रकारकी वार्ता लोकों के मुख ।
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परा.
पर होती भई, जीवों के भाव नानाप्रकार के हैं राग देष के प्रभावसे जीव निजकम उपार्जे हैं सो जैसाउदय ।
होय है तैसे ही कार्य में प्रवृते हैं जैसे सूर्य का उदय उद्यमी जीवों को नाना कार्य में प्रवृताते है तैसे कर्म का उदय जीवों के नाना प्रकार के भाव उपजावे है ।। इति छप्पनवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___अथानन्तर पर सेनाके समीपको न सह सके ऐसे मनुष्य वेशूरापने के प्रकट होने से अति प्रसन्न होय लड़ने को उद्यमीभए योधा अपने घरों से विदा होय सिंह सारिखे लंकासे निकसे कोईयक सुमट की नारी रणसंग्राम का स्तान्त जान अपने भरतार के उरसे लग ऐसे कहती भई हे नाथ तुम्हारे कुल की यही रीति है जो रणसंग्राम से पीछे न होंय और जो कदाचित् तुम युद्ध से पीछे होवोगे तो में सुनतेही प्राणत्याग करूंगी योधाओं के किंकरोंकी स्त्रियें कायरों की स्त्रियों को चिकार शब्द कहें इस समान और कष्ट क्या जो तुम छाती घाव खाय भले दिखाय पीछे श्रावोगे तो घाव ही आभूषणहै और टगया है बक्तर और कर हैं अनेक योषा स्तुति इसभान्ति तुमको में देखूगी तो अपना जन्मपन्य गिनंगी
और सुवर्ण के कमलोंसे जिनेश्वर की पूजा कराऊंगी जे महायोधा रणमें सन्मुख होय मरणको प्राप्त होय तिनका ही मरण धन्यहै और जे युद्धसे परांमुख होंय धिक्कार शब्दसे मलिन भए जीवे हैं तिनके
जीवने से क्या और कोईयक सुभटानी पतिसे लिपट इसभान्ति कहती भई जो तुम भले दिखाय कर | आवोगे तो हमारे पति हो और भागकर श्रावोगे तो हमारे तुम्हारे सम्बन्ध नहीं और कोईयक स्त्री
अपने पतिसे कहती भई हे प्रभो तुम्हारे पुराने घाव अब विघट गए इसलिये नवे घाव लगे शरीर अति | शोभे वह दिन होय जो तुम बीरलक्षमीके वर प्रफुल्लित वदन हमारे प्रावो और हम तुमको हर्षसंयुक्त ।
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६
देखें तुम्हारी हार हम क्रीड़ा में भी न देखसकें तो युद्धमें हार कैसे देख सकें और कोई एक कहती भई पुरा कि हे देव जैसे हम प्रेमकर तुम्हारा बदन कमल स्पर्श करे हैं तैसे वक्षस्थल में लगे घाव हम देखे तव
पद्म
अति हर्ष पावें और एक रौताणी अति नवोढ़ा हैं परन्तु संग्राम में पतिको उद्यमी देख प्रौढ़ा के भाव को प्राप्त भई और कोई एक मानवती घने दिनों से मान कर रही थी सो पतिको रणमें उद्यमी जान मोन तज पति के गले लगी और अति स्नेह जनाया रणयोग्य शिक्षा देती भई और कोई एक कमलनयनी भरतार के वदनको ऊंचा कर स्नेहकी दृष्टिकर देखती भई और युद्ध में दृढ़ करतीभई और कोई यक सामन्तनी पतिके वक्षस्थल में अपने नखका चिन्हकर होनहार शस्त्रों के घावनको मानो स्थानक करती भई इस भांति उपजी है चेष्टा जिनकेऐसी गणी रौताणी अपने प्रीतमोंसे नानाप्रकार के स्नेहकर वीररसमें दृढ़ करती भई तब महा संग्रामके करण हारे यांधा तिन से कहतेभर हे प्राणवल्लभ नर वेई हैं जेरल में प्रशंसा पावें तथा युद्ध के सन्मुख जीव तजें तिनकी शत्रु कीर्तिकरें हाथियों के दांतों में पग देय शत्रुवोंके घाव कर तिनकी शत्रु कीर्तिकरें पुण्य के उदय बिना ऐसा सुभटपना नहीं हाथियों के कुंभस्थल विदारणहारे नरसिंह तिनको जो हर्ष होय है सो कहिवेको कौन समर्थ है हे प्राण प्रियेक्षत्री का यही धर्म है जो कायरोंको न मारें शरणागतको न मारें न माखेि देंय जो पीठ देय उसपर चाट म करें जिस आयुध न होय उससों युद्ध न करें सो वालवृद्ध दीनको तजकर हम योधावों के मस्तक पर पढ़ेंगे तुम हर्षित रहियो हम युद्धमें विजयकर तुमसे चाय मिलेंगे इसभांति अनेक वचनोंकर अपनी अपनी शैताषियोंको धीर्य बंघाय योघा संग्राम के उद्यमी घरसे रणभूमिको निकसे कोई एक सुभटानी
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पद्म पद्मव
C
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चलते पति के कट में दोनों भुजासे लिपट गई और हिंदती भई जैसे गजेन्द्र के कंड में कमलनी लटके ..और कोई एक रौताणी वक्तर पहिरे पति के अंगसे लग अंगका स्पर्श न पाया सो खेद खिन्न होतो भई और कोई एक अर्द्धबालिका कहिए पेटी सो बल्लभ के अंग से लगी देख ईर्षा के रससे स्पर्श करती भई कि हम टार इनके दूजी इनके उर से कौन लंगे यह जान लोचन संकोचे तब पतिप्रिया की प्रसन्न जान कहते हे प्रिये यह भाषा वक्तर है स्त्री वाची शब्द नहीं तत्र पुरुषका शब्दसुन हर्ष को भई कोई एक अपने पति को ताम्बूल चत्रावती भई और आप तांबूल चावती भई कोई एक पति aaaaaaa art तीक दर पतिके पीछे पीछे जातीभई पतिके रक्की अभिलाषा सो इनकी और freit नहीं और की मेरी बाजी सो योधावों को चित्त रणभूमि में और स्त्रियों से विदाहोना सो दोनों कारणपाय योघावोंका चित्त मानों हिंडोले हींदताभ्या शैतानियोंको तज रावत चले तिन रौतानियोंने आंसू न डारे प्रांसु अमंगल हैं और कैएक योधा युद्ध में जायचेकी शीघ्रताकर वक्तरभी न पहिर सके जो हथियार हाथ आया सोही लेकर गर्वके भरे निकसे रणभेरी खुन उपजा है हर्ष जिनकी शरीर पुष्ट होय गया सो वक्तर अंग में न आवे और कइएक योधावोंके रणभेरी का शब्दसुन हर्ष उपजा सो पुराने घाव फटगए तिनमेंसे रुधिर निकसताभया और किसीने नवा वक्तर बनाय पहिरा सो हर्ष के होने
टूटगया सो मानों नया वक्तर पुराने वक्तरके भावको प्राप्तभया और काहू के सिरका टोप ढीला होयगया सोना वल्लभा कर देती भई और कोईएक सुभट संग्राम का लालसी उसके स्त्री सुगन्ध लगा यत्रेकी अभिलाषा करती भई सो सुगन्धमें चिल न दिया युद्धको निकसा और वे स्त्रियां व्याकुलतारूप
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पद्म पुराण
म६६९ ।।
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अपनी २ सेजपर पड़रही प्रथमही लंका से हस्त प्रहस्त राजा युद्धको निकसे कैसे हैं दोनों सर्वं में मुख्य जो कीर्ति सोई भया अमृत उसके स्वाद में लालसी और हाथियों के रथ पर चढ़ नहीं सहस के हैं वैरियोंका शब्द और महा प्रताप के धारक शूरवीर सो रावणको विना पूछेही निकसे यद्यपि स्वामी की याज्ञा करी विना कार्य करना दोष है तथापि धनी के कार्य को बिना आज्ञा जायतो दोष नहीं गुण के भावको भजेहै मारीच सिंह जघन्य स्वयंभू शंभू प्रथम विस्तीर्ण बलसे मंडित शुक और सारस चांद सूर्य सारिखे गज और बीभत्स तथा वञ्चाच वज्रभूति गम्भीरनाद नक्र मकर वजघोष उग्रनाद सुन्दनिकुम्भकुंभ संध्याक्ष विभ्रमक्रूर माल्यवान खरनिश्चर जम्बूस्वामी शिखीवीर उर्दू के महा बल यह सामंत नाहरों के रथचढ़ निकसे और वजोदर शक्रप्रभ कृतान्त विगदोधर महामणि सण गोष चन्द्र चन्द्रनख मृत्युभीषण वज्रोदर धूम्रा मुदित विद्युज्ज महा मारीच कनक क्रोधनु क्षोभणबन्ध उद्दाम डिंडी डिंडम डिंभव प्रचंड डमर चंड कुंड हालाहल इत्यादि अनेक राजा व्याघ्रों के रथ चढ़े निकसे वह कहे मैं आगे रहूं वह कहे मैं आगे रहू शत्रु के विध्वंस करने को है प्रवृत बुद्धि जिनकी विद्या कौशिक विद्याविख्याक सर्पवाहू महाद्युति शंख प्रशंख राजभिन्न अंजनप्रभ पुष्पकर महारक्त घाश्र पुष्पखेचर अनंगकुसम कामवर्त्त स्मरागण कामाग्नि कामराशि. कनकप्रभ शशिमुख सौम्यवक्र महाकाम हैमगौर यह पवन सारिखे तेज़ तुरंगों के रथ चढ़े निकसे और कदंब विटप भीमनाद भयानाद भयानक शार्दूल सिंह वलांग विद्युदंग ल्हादन चपल चाल चंचल इत्यादि हाथियों के रथ चढ़े निकसे गौतम स्वामीराजा श्रेणिक से कहे हैं हे मगाधाधिपति कहां लग सामंतों के नाम कहें सब में अग्रेसर अढ़ाई कोड़ि निर्मलवंश के उपजे राक्षशों के कुमार
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पद्म
६९०
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देवकुल्य पराक्रमी प्रसिद्ध हैं यश जिनके सकल गुणों के मंडन युद्ध को निकसे महाबलवान मेघवाहन कुमार इंद्र के समान रावण का पुत्र अतिप्रिय इंद्रजीत सोभी निकसा जयंतसमान धीरबुद्धि कुम्भकरण सूर्य्य के विमान तुल्य ज्योतिप्रभव नामा विमान उस में अरूद्ध त्रिशूल का चायुध घरे निकसा और रावण भी सुमेरु के शिखर तुल्य पुष्पकनाम अपने विमान पर चढ़ इद्र तुल्य पराक्रम जिसका सेना कर आकाश भूमि को आबादित करता हुवा दैदीप्यमान आयुधों को घरे सूर्य समान ज्योति जिस की सो भी अनेक सामंतों सहित लंका से बाहिर निकसा वे सामंत शीघ्रगामी बहुरूप के घरणहारे वाहनों पर चढ़े कैथकों के रथ कैयकों के तुरंग कैयकों के हाथी कैयकों के सिंह तथा शूरसांभर बलध भैंसा उष्ट्र मीढ़ा मृग अष्टापद इत्यादि स्थल के जीव और मगरमच्छ यदि अनेक जल के जीव और नाना प्रकार के पक्षी तिन का रूप धरे देव रूपी वाहन तिन पर चढ़े. अनेक योधा रावण के साथी निकसे भामंडल और सुग्रीव पर रावण का अतिक्रोध सो राक्षसवंशी इस से युद्ध को उद्यमी भए रावण को पयान करते अनेक अपशकुन भए तिनका वर्णन सुनो दाहिनी तरफ शल्यकी कहिए सेह मंडल को बांधे भयानक शब्द करती प्रयण का निवारण करे है और गृद्ध पक्षी भयंकर अपशब्द करते आकाश में भ्रमते मानों रावण का क्षय ही कहे हैं और अन्य भी अनेक अाशुकुल भए स्थलके जीव श्राकाशके जीव अति व्याकुल भए क्रूरशब्द करते भए रुदन करते भये सा यद्यपि राचसों के समूह सवही पंडित हैं शास्त्रका विचार जान हैं तथापि शूरवीरता के गर्व से मूढ़ भये महा सेनासहित संग्राम के अनि कर्मके उदयसे जीवोंका जब कान यावे है तब अवश्य
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पुरा
ऐसाही का होय है कालको इन्द्रभी निवारिवे श क नहीं औगेकी क्याबात वे राचसवंशी योवा ६९ बड़े बलवान युद्धमें दिया है चित्त जिन्हें ने अनेक वाहनोंपर चढ़े नानाप्रकार के आयुद्ध घरें अनेक अपशकुन भए तोभी न गिने निर्भ भए रामकी सेना के सन्मुखचाए । इति सत्तावनवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर समुद्रसमान रावण की सेनाको देख नल नील हनुमान जानवन्त यदि अनेक विद्यावरराम हितराम के कार्य को तत्पर महा उदार शूरवीर अनेक प्रकार हाथियों के रथ चढ़े कटकसे निकले जयमित्र चन्द्रप्रभ रतिवर्द्धन कुमुदावर्त महेंद्र भानुमंडल अनुवर दृढ़रथ प्रीति कंठ महा बल
नवल सर्व ज्योति सर्वप्रिय बल सर्वसा सर्व शरभभर आम्रष्टि निर्विष्ठ संत्रास विघ्न सूदन नाट वरवर कलोट पालन मंडल संग्राम चपल इत्यादि विद्याधर नाहों के रथ चढ़े निकसे विस्तीर्ण है तेज जिका नानाप्रकारके युद्ध घरे और महासामंत पनाका स्वरूप लिये प्रस्तार हिमवान गंगप्रिय
इत्यादि सुभः हवियों के रथ चढे निकसे दुष्ट पूर्णचन्द्र विधि सागर घोष प्रियविग्रह स्कंध चंदन पादा चंद्रकिरण और प्रतिघात महा भैरवकीर्तन दुष्ट सिंह कटि कुष्ट समाधि बहुल हल इंद्रायुध
त्रास संकट प्रहार ये नाहरों के रथ चढे निकसे विद्युतक बलशील सुपचरचनधन संभेद विचल साल काल चत्रचर अंगज विकाल लाल ककाली भंग भंगोर्मिः उरचित उतरंग तिलक कील सुषेण चरल करत बली भीमख धर्म मनोहर मुख सुख प्रमत मर्द कमतसार रत्नजटी शिवभूषण दूषणकौल विघट विरावित मनूर खनिने वेला याचेपी महावर नचत्र लुब्ध संग्राम विजयजय नक्षत्रमाल तोद प्रति विजय इत्यादि घोड़ों के रथ चढ़े निकसे कैसे हैं रथ मनोरथ समान शीघ्रवेगको घरे और विद्युतवाह
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६९२
पन माह स्थाणु मेव बाहन र विभाग प्रचंडालि इत्यादि लानानकों के वाहनोंपर चढे युद्धकी श्रद्धाको धेरै पुराण
हनुमानके संगनिकसे और बिनीषण रावणका भाई रत्नप्रभ नामा विमानपर चढा श्रीगमका पक्षी अति शोभताभया और युधावर्त बसंत कांत कौमुदि नन्दन भरि कोलाहल हेड भावित साधु वत्सल अर्धचन्द्र जिन प्रेमसागर सागर उरंग मनोग्य जिन जिनपति इत्यादि योधा नानावर्ण के विमानोंपर चढ़े महाप्रबल सन्नाह कहिये बखतर पहिरे युद्धको निकसे रामचन्द्र लक्ष्मण सुग्रीव हनुमान ये हंस बिमान चढ़े जिनके आकाश विषे शोभते भए रामके सुभट महामेघमाला मारिखे नानाप्रकारके वाहनचढे लंका के मुभटोंसे लड़नेको उद्यमी भए. प्रलयकालके मेघ समान भयंकर शब्द शंख आदिवादित्रोंके शब्द होतेभए जमा भेरी मृदंग कंपाल धुधुमंदय आमलातके हकार हुँदुकान ऊरदरहमगुंज काहल बीणा इत्यादि अनेक बाजे बाजते भए और सिंहोंके तथाहाथियों के घोड़ोंके भैंसोंके रथोंके ऊंटों मृगों पक्षियों के शब्द होतेभए तिनसे दशादिशा व्याप्तभई जब राम रावणकी सेनाका संघर्भया तब लॉक समस्त जीवन के संदेहको प्राप्तभर पृथ्वी कंपायमानभई पहाड़ कप योधा गर्वके भरे निगर्वसे निकसे दोनों कटक अतिप्रवल लाखनमें न पावें इन दोनों सेनामें युद्ध होनेलगासामान्य चक्र करोत कुठार सेल खडग गदा शाक्त बाण भिडिपान इत्यादि अनेक अायुवोंसे परस्पर युद्ध होताभया योधा हेलाकर योधावोंको बुलावतभए कैसे हैं योगा शास्त्रोंसे शोभित हैं भुजा जिनकी और युद्धकाहै सर्वसाज जिनके
ऐसे योधावोंगर पडतेभए आवेगसे दौडे परसेनामें प्रवेश करतेभए परस्पर अतियुद्ध भया लंका के । योधाोंने बानरबंशी योधा दबाये जैसे सिंह गोंको दबावें फिर बानरवंशियोंके प्रबल योधाअपने
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६.३॥
योधावोंका भंग देखकर राक्षसोंके योचावोंको हणतेभए और अपने योधावोंको धीर्य बंधाया बॉनर , पद्म पुराण बंशियोंके आगे लंकाके लोकों को चिगते देव बडे २ स्वामी भक्त गवणके अनुरागी महाबल से मंडित
हाथियों के चिन्हकी हैं धजा जिनके हाथियोंके रथ चढे महायोधा हस्तप्रहस्त बानरवंशियों पर दौडे
और अपने लोगों को धीर्य बंधाया हो सामंत हो भय मत कगे हस्त प्रहस्त दोनों महा तेजस्वी बानर वंशियोंके योधावोंको भगावते भए तब बानरवांशयों के नायक महाप्रतापी हाथियों के रथ चढ़े महाशूर
वीर परमतेज केधारक सुग्रीवके काकाके पुत्र नल नील महाभयंकर क्रोधायमान होय नानाप्रकारकेशस्त्रों | से युद्ध करने को उद्यमी भर अनेक प्रकारशस्रों से घनीवेर युद्ध भया दोनों तरफके अनेक योधा मुवे नल
ने उछल कर हस्त को हता और नीलने प्रहस्त को हता जवयह दोनों पड़े तब राक्षसोंकी सेना परांमुख | भई गौतमस्वामी राजाश्रेणिक से कहे हैं हे मगधाधिपति सेनाके लोक सेनापतिकोजबलग देखें तब लग
ही ठहरें और सेनापति के नाश भए सेना विखरजाय जैसे मालके टूटे अरहट की घडी विखर जाय और सिर विनाशरीर भी न रहे यद्यपि पुण्याधिकारी बडेराजा सब बातमें पूर्ण हैं तथापि विनाप्रधान कार्यकी सिद्धि नहीं प्रधान पुरुषोंकासंबंध कर मनवांछित कार्यकी सिद्धि होयहैं और प्रधान पुरुषों के संबंध विना मंदता को भने हैं जैसे राहु के योगसे सूर्यको प्राचादित भए किरणोंकासमूह मन्दहोय है । इतिअठावन पर्वपूर्णम! ___अयानतर राजाणिक गौतम स्वामीने पूछतामया हे प्रभो हस्त प्रहसत जैसे सामंत महा विद्या में प्रवीण थे बडामआश्चर्य है नल नील ने कैसे मारे इनके पूर्वभव काविरोधहै अकइसही भव कातक गण धर देव कहते भए हे राजन कर्मोंसे बंधे जीवों कीनाना गति है पूर्व कर्मके प्रभाव से जीवों की यही
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पद्म पाया
६९४
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रीति है जिसने जिसको मारा सो वहभी उसका मारनहारा है और जिसने जिसको छुडाया सो उसका छुडावन हारा है इस लोकमें यही मर्यादा है एक कुशस्थल नामा नगर वहां दोय भाई निर्धन एक माता के पुत्र इंधक और पल्लव ब्राह्मण खेती का कर्म करें पुत्र स्त्री श्रादि जिनके कुटुम्ब बहुत स्वभावही से दया वान साधुवों की निंदा परांमुख सो एक जैनी मित्र के प्रसंग से दानादि धर्म के धारक भए और एक दूजा निर्धन युगुल सो महा निर्दई मिथ्यामार्गी थे राजा के दान बटासो वित्रों में परस्पर कलह भया सो इंध कपल्लव को इन दुष्टों ने मारा सो दान के प्रसाद से मध्यभोग भूमि में उपजे दोय पल्य की आयु पाय
सो देव भए और वे क्रूर इसके मारणहारे अधर्म परणामों से मूवे सो कालिंजर नामा इन में सूस्या भए मिथ्या दृष्टि साधुवों के निंदक पापी कपटी तिनकी यही गति है फिर तिर्यंचगति में चिरकाल भ्रमण कर मनुष्य भए सो तापसी भए बढ़ी है जटा जिनके फल पत्रादिक के आहारी तीव्रं तपकर शरीर वृश किया कुज्ञान के अधिकारी दोनों मूए सो विजियार्ध की दक्षिण श्रेणि में अरिंजयपुर वहां का राजा अग्निकुमार राणी अश्विनी ताके ये दोय पुत्र जगत् प्रसिद्ध रावण के सेनापति भए और वे दोनों भाई इंधक और पल्लव देवलोक से चयकर मनुष्य भए फिर श्रावग के व्रतपाल स्वर्ग में उत्तम देव भए और स्वर्ग से चय किहकंधपुर में नल नील दोनों भाई भए पहिले हस्त प्रहस्त के जीवने नल नील के जीव मारे थे सो न नील ने हस्त प्रहस्त मारे जो कोहू को मारे है सो उससे भारा जाय है और जो काहू को पाले है सो उससे पालिए है और जो जासू उदासीन रहे है सो भी तासू दासीन रहे जिसेदेख निःकारण क्रोध उपजे सो जानिए परभव का शत्रु है और जिसे देख चित्त हर्षित होय सो निस्संदेह पर भक्कामित्र है जो जल में
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पद्म पुराण ॥६९
जहाज फट जाय है और मगरमछदि वाधा करे हैं और थल में म्ले छ वाधा करे हैं सो सब पाप का फल है पहाड़ समान माते हाथी और नाना प्रकार के आयुध घरे अनेक योधाऔर महातेज को धरे अनेक तुरंग
और वक्तर पहिरे बड़े बड़े सामंत इत्यादि जो अपार सेनासे युक्त जो राजा और निःप्रमाद तो भी पुण्य के उदयविना युद्ध में शरीरकी रक्षा न होयसके और जहां तहां तिता और जिसके कोऊ सहाई नहीं उसकी तप और दान रक्षा करें न देव सहाईनवांधवसहाई औरप्रत्यक्ष देखिए है धनवान शूरवीर कुटम्ब का धनी सर्व कुटम्ब के मध्यमरण करे है कोऊ रक्षा करने समर्थ नहीं पात्रदान से व्रत और शील और सम्यक्त
और जीवों की रक्षा होय है दयादानसे जिसने धर्मन उपार्जा और बहुत काल जीया चाहे सो कैसेरने इन जीवों के कर्म तपविना न विनसें ऐसा जानकर जे पंडित हैं तिनको बैरीयों पर भी क्षमा करनी
क्षमा समान और तप नहीं जे विचक्षण पुरुष बे ऐसी बुद्धि न धरें कि यह दुष्ट विगाड़ करे है इस जीव | का उपकार और विगाड़ केवल कर्माधीन है कर्मही सुःख दुःख का कारण है । ऐसा जानकरजे विचक्षण पुरुष,
हैंबे बाह्य सुःख दुःख का निमित्तकारण अन्य पुरुषों पर राग द्वेषभाव न घरे अंधकार से प्राचादित जो | पंथ उसमें नेत्रवान पृथिवीपर पड़े सर्प पर पग धरे और सूर्य के प्रकाशसे मार्ग प्रकटहोय तव नेत्रवान् सुखसे गमनकरे तैसे जोलग मिथ्यात्वरूप अंधकारसे मार्ग नहीं अवलोके तौलग नरकादि विवरमें पढ़ें,
और जब ज्ञानसूर्य का उद्योत होय तब सुखसे अविनाशापुर जाय पहुंचे ॥ इति उनसठवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___अथानन्तर हस्त प्रहस्त, नल नील ने हते सुन बहुत योघा कोधकर युद्धको उद्यमी भए मारी सिंह जघन स्वयंभू शंभू उर्जित शुक सारण चन्द्र अर्क जगत्वीभत्स निस्वन ज्वर उग्र ऋमकर वाचन
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पद्म
परायण
६६।।
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आत्मनिष्ठुर गंभीरनाद संनदसंवृध वाहू अनुसिदन इत्यादि राक्षस पक्षके योधा वानर वंशीयों - की सेना को क्षोभ उपजावते भए । तिन को प्रबल जान बानर बंशीयों के योधा युद्ध को उद्यमी भए मन्दन मदनाकुर संताप प्रक्षित आक्रोशनन्दन दुरित अनघ पुष्पास्त्र विघ्न प्रीयंकर इत्यादि अनेक वानरवंशी योधा राक्षसों से लड़ते भए उसने वाको ऊंचे स्वर से बुलाया घाने उसको बुलाया इनके परस्पर संग्राम भया नाना प्रकारके शस्त्रों से आकाश व्याप्त होय गया संताप तो मारीच से खड़ता भया और अप्रथितसिंहज घन से और विघ्न उद्यान से और आक्रोश सारण से नंदन से इन समान
·
धावों में अद्भुत युद्ध भया तब मारीच ने संतापका निपात किया और नन्दनने उपर के बक्षस्थल atara र सिंहकटि ने प्रथिति के और उद्दामकीर्ति ने विघ्न को दया उस समय सूर्यास्त भया अपने अपने पति को प्राणरहित भए सुन इनकी स्त्री शोकके सागर में मग्न भई सो उनको रात्रि दीर्घ होती भई दूजे दिन महा क्रोध के भरे सामन्त युद्ध को उद्यमी भए वज्राच और चुभितार मृगेन्द्र दमन और विधि शंभू और स्वयम्भू चन्द्रार्क और वज्रोदर इत्यादि राक्षस पक्ष के बड़े २ सामन्त और वानर वंशियोंके सामन्त परस्पर जन्मान्तर के उपार्जित बैर तिनसे महा क्रोधरूप होय युद्ध करते भए अपने जीवनमें निस्पृह संक्रोधने महाकोधकर खिपितार को महा ऊंच स्वरकर बुलाया और वाढवलीने मृगादि दमनको बुलाया और वितापीने विधिको बुलाया इत्यादि योधा परस्पर युद्ध करते भए और यौधा अनेक ए शार्दूलने वञ्चदरको घायल किया और वज्रोदरने शार्दूलको घायल किया और खिपितार संकोध • को मारताभया और शंभू ने विशालद्युति मारा और स्वयंभूने विजयको लोहयष्टि से मारा और विधि ने
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॥६
॥
पर वितापी को गदासे मारा वहुत कष्टसे इस भांति योधावों ने युद्ध में अनेक योधा हते सो बहुत बेर तक,
युद्धभया राजा सुग्रीव अपनी सेनाका राक्षसोंकी सेना से खेद खिन्न देख आप महा क्रोधका भरा युद्ध करनेको उद्यमी भया तब अंजनीका पुत्र हनूमान हाथियों के स्थपर चढ़ा राक्षसोंसे युद्ध करताभयो सोराक्षसों के सामन्तों के समूह पवन पुत्रको देखकर जैसे नाहरको देख गायडरे तैसे डरतेभए और राक्षस परस्पर वात करतेभए कि यह हनमान वानरधज आया सोअाज घनोंकी स्त्रियोंको विधवा करेगा तब इसके सन्मुख माली प्राया उसे पाया देख हनूमान धनुषमें वाण तान सन्मुखभए तिनमें महायुद्धभया मन्त्री मन्त्रियोंसे लड़नेलगेस्थी रथियों से लड़नेलगे घोड़ों के असवार घोड़ोंके असवारोंसे लड़तेभए हाथियों के असवार हाथियोंके असवारोंसे लड़ते भए सो हनूमानकी शक्तिसे माली परांगमुखमया तब बनोदरमहा पराक्रमीहनूमानपर दौड़ा युद्ध करताभया चिरकाल युद्धभय सो हनूमानने वडोदरको स्थ रहित कियातव वह और दूजे स्थपर चढ हनूमानपर दौड़ा तब हनूमानने फिर उसको रथ रहितकिया तब फिर पवनसे भी अधिकहै वेग जिसका ऐसे स्थपर चद हनूमानपर दौड़ा तब हनूमानने उसे हता सो प्राणरहित भया तब हनूमानके सन्मुख महा बलवान रावणका पुत्र जम्बूमाली याया सो प्रावताही हनुमान की ध्वजा छेद करताभया तब हनुमानने क्रोधसे जम्बूमालीका वक्तरभेदा धनुष तोड़ डारा जैसे तृणको तोड़े तब मंदोदरी का पुत्र नवां वक्तर पहिर हनुमोनके वक्षस्थल में तीक्षण वाणोंसे घाव करता भया सोहनमान नै ऐसा जाना मानों नवीन कमलकी नालिका का स्परा भया केसाहे हनमान पर्वत समान निश्चल है बद्धि जिसकी फिर हनूमानने चन्द्रवक नामा बाण चलाया सो जम्बूमाली के रथके अनेक सिंह जते थे सो
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छटगए उनहीके कटक में पड़े तिनकी विकराल दाढ विकराल वदन भयंकरनेत्र तिनसे सकलसेना विहल पुराण ६ भई मानो सेनारूप समुद्र में वे सिंह कल्लोलरूपभए उछलते फिरे हैं अथवा दुष्ट जलचर जीवों समान
विचरे हैं अथवा सेनारूप मेघमें विज़ली समान चमके हैं अथवा संग्रामही भया संसार चक्र उसमें सेना के. लोक बेई भए जीव तिनको ये रथके छुटे सिंह कर्मरूप होय महादुखी करे हैं इनसे सर्व सेना दुखरूप भइ तुरंग गज रथ पियादे सब ही विह्वल भए रणका उद्यमतज दशदिशा को भाजे तब पवनका पुत्र सबों को पेल रावण तक जायपहुंचा दूरसे रावण को देखा सिंहों के रथ चढ़ा हनूमान धनुष वाण लेय रावण पर गया। रोवण सिंहों से सेना को भयरूप देख और हनूमानको काल समान महा दुर्द्धरजान आप युद्ध करने को उद्यमी भया तव महोदर रोवण को प्रणाम कर हनमानपर महाक्रोध से इससे लड़नेको श्राया सो इसके
और हनूमानके महायुद्ध भया उस समयमें वे सिंह योधावोंने वश किये सो सिंहोंको वशीभूत भए देख महाक्रोधकर समस्त राक्षस हनूमान पर पड़े तव अञ्जनी का पुत्र महाभट पुण्योधिकारी तिन सबको अनेक बाणोंसे थांभताभया और अनेक राक्षसोंने अनेकबाण हनूमान पर चलाए परन्तु हनूमानको चलायमान न करते भए जैसे दुर्जन अनेक कुवचन रूप वाण संयमीके लगावे परन्तु तिनके एक न लगे तैसे हनूमान के राक्षसोंका एक बाणभी न लगा अनेक राक्षसोंसे अकेला हनूमानको वेढा देख वानरवंशी विद्याधर युद्ध के निमित्त उद्यमी भए सुषेण नल नील प्रीतंकर विराधित सत्रासत हरिकटसूर्य ज्योति महावल!
जांबूनन्द के पुत्र कई नाहरों के स्थ कई गजोंके स्थ कैई तुरंगों के स्थ चढ़े रावण की सेना पर दौड़े सो | वानखंशियोंने रावणकी सेना सब दिशा में विध्वंस करी जैसे क्षुधादि परीषह तुच्छतियोंके व्रतों को ।
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पद्म भंग करे तब रावण अपनी सेनाको व्याकुल देख श्राप युद्ध करनेको उद्यमी भया तब कुम्भकर्ण रावणको । ६नमस्कारकर श्राप युद्धको चलो तब इसे महाप्रबल योषा रणमें अग्रगामी जान सुषेण अादि सब ही
बानरवंशी व्याकुल भए जब वे चंद्ररश्मि जयस्कंध चन्द्राहु रतिवर्धन अंगअंगद सम्मेद कुमुद कशमंडल वालचंड तरंग सार रत्नजटी जय वेलक्षिपीवसंत कोलाहल इत्यादि अनेकयोधा रामके पक्षी कुम्भकर्ण से युद्ध करने लगे सो कुम्भकर्ण सब को अपनी निद्रानामा विद्या से निद्राके वश किए जैसे दर्शना वणीय कर्म दर्शनके प्रकाश को रोके तैसे कुम्भकर्ण की विद्या वानरवंशियों के नेत्रों के प्रकाश को रोकती भई सवही कपिध्वज निद्रा से घूमनेलगे और तिनके हाथोंसे हथियार गिरपडे, तब इन सबोंकों निद्रावश अचेतन समान देख सुग्रीवने प्रतिबोधनी विद्या प्रकाशी सो सब वानरवंशी प्रतिबोध भए और हनूमानादिक युद्धको प्रवर्ते वानवंशियोंके बल में उत्साह भया और युद्ध में उद्यमीभए और राक्षसोंकी सेनादबी तब रावण ओप युद्ध को उद्यमी भए तब बड़ा बेटा इन्द्रजीत हाथ जोड़ सिरनिवाय बीनती करता भया हे तात हे नाथ यदिमेरे होते आप युद्धको प्रवनें तो हमारा जन्म निष्फलहै जो तृण नखहीसे उपड़ आवे उसपर फरसी उठापना कहां इसलिये श्राप निश्चिन्त होवें में आपकी प्राज्ञा प्रमाण करूंगा ऐसा कहकर महा हर्षित भया पर्वत समान त्रैलोक्य कंटक नामा गजेन्द्रपर चढ़ युद्ध को उद्यमी भया | कैसाहै गजेन्द्र इन्द्रके गज समान और इन्द्रजीतको अतिप्रिय अपना सब साज लेय मंत्रियों सहित ऋद्धि
से इन्द्रसमान रावणका पुत्र कपियोंपर क्रूरभया सो महाबल का स्वामी मानी श्रावत प्रमाणही बान| वंशियोंका बल अनेक प्रकारायधोंसे जोपूण था सो सब विट्ठल किया सुग्रीवकी सेनामें ऐसा सुभष्ट
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कोई न रहा जो इन्द्रजीत के बाणों से घायल न भया लोक आनते भए कि यह इन्द्रजीत कुमा' नहीं अग्निकुमारों का इन्द्र है अथवासूर्य है सुग्रीव और भामण्डल ये दोनों अपनी सेनाका इन्द्रजीत कर दबी देख युद्धको उद्यमी भए इनके योधा इन्द्रजीतके योधों से और ये दोनों इन्द्रजीतसे युद्ध करने लगे सो परस्पर योघा योधावोंको हंकार हंकार बुलावते भए शस्त्रों से प्राकाशमें अन्धकार होय गया योधावों के जीवनेकी आशा नहींगजसे गजरथसे रथ तुरंगसे तुरंग सामन्तोंसे सामन्त उत्साहकर युद्ध करते भए अपने अपने नाथ के अनुराग में योधा परस्पर अनेक प्रायुधों से प्रहार करतेभएं उस समय इन्द्रजीत सुग्रीवको समीप आया देख ऊंचे स्वरकर अपूर्व शस्त्ररूप दुखचनों से छेदताभया अरे वानरवंशी पापी स्वामि द्रोही रावणसे स्वामीको तज स्वामीके शत्रुका किंकरभया अब मुझसे कहां जायगा तेरे शिरको तीक्षण बाणों से तत्काल छेदंगा वे दोनोंभाई भूमिगोचरी तेरी रक्षाकरें तब सुग्रीव कहताभया ऐसे वृथा गर्वके वचन कर क्या तू मानशिखर पर चढ़ा है सो अवारही तेरा मान भंग करूंगा जब ऐसा कहा तब इन्द्रजोतने कोपकर धनष चाय वाण चलाया और सुग्रीवने इन्द्रजीतपर चलायादोनों महा योधा परस्पर बार्णोसे लड़तेभए अाकाशवाणोंसे छोदित होयगया मेघवाहनने भामण्डलको हंकारा सो दोनों भिडे
और विराधित और वजनक्र युद्ध करतेभए सो विराधितने वजनक्रके उरस्थल में चक्रनामा शस्रकी दई और वज्रनकने विराधितके दई शूरवीर घाव पाय शत्रुके घाव न करें तो लज्जाहै चक्रोंसे वक्तर पीसेगए तिमके अग्निकी कणका उछली सोमानोंअाकाशसे उलकावोंके समूह पड़ें हैं लंकानाथके पुत्रने सुग्रीव अनेक शस्त्र चलाए लंकेश्वर के पुत्र संग्राममें अचल हैं जिस समान दूजा योधा नहीं तब सुग्रीवने वजूदंड से ।
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पद्म
जीत के शस्त्र निराकरण किए जिनके पुण्य का उदय है तिनका धात न होय फिर क्रोधकर इन्द्रजीत पुराण हाथी से उतर सिंगोंके रथ चढ़ा समाधानरूप है बुद्धि, जिसकी नाना प्रकारके दिव्य शस्त्र और सामान्य
शस्त्र इनमें प्रवीण सुग्रीवपर मेघ वाण चलाया सो संपूर्ण दिशा जल रूप होय गई तब सुग्रीव ने पवन वाण चलाया सो मेघ वाण विलाय गया और इन्द्रजीत का छत्र उड़ाया और ध्वजा उड़ाई और मेर वोहन ने भामंडल पर अग्नि वाण चलाया सो भामण्डलका धनुष भस्म होयगया और सेना में अग्नि प्रज्वलित भई तव भामण्डल ने मेघवाहन परमेववाण चलाया सो अग्निबाण विलयगया और अपनी सेना की रक्षा करी फिर मेघवोहन ने भामण्डल को स्थरहित क्रिया तब भामण्डल दूजेरथचढ युद्ध करने लगा मेघ बाहन ने तामसबाण चलाया सो भामण्डलकी सेना में अन्धकार होय गया अपना पराया कुछ सूझे नहीं मानों मूर्छा को प्राप्त भए तब मेघवाहन ने भामण्डल को नागपाश से पकडा मायामई सर्प सर्व अंग में लिपट गए जैसे चन्दन के वृक्ष के नाग लिपट जावें कैसे हैं नाग भयंकर हैंजे फण तिन करमहा विकराल भामण्डल पृथिवीपर पड़ा और इसही भान्ति इन्द्र जीतने सुग्रीवको नागपाश कर पकड़ा सो धरती पर पड़ा तबविभीषणजो विद्याबल में महाप्रवीण श्रीरामलक्ष्मण से दोनों हाथजोड़ सीसनिवाय कहता भया हे राम महबाहो लक्षमण महावीर इन्द्रजीत के बालोंसे व्याप्त सब दिशा देखो धरती आकाश बाणों से आयादित है उल्कापातके स्वरूप नाग बाण तिन से सुग्रीव और भामण्डल दोनों भूमि विषे बंधे पडे हे मन्दोदरी के दोनों पुत्रों ने अपने दोनोंमहाभट पकड़े अपनोसेनाकेजे दोनों मूलथे वे पकडेगए तवहमारेजीवनेसे क्या इनदिना सेना शिथल होयगई है देखोदशों दिशा कोलोक भागे हैं औरकुम्भकर्ण ने महायुद्धकर हनुमान को पकड़ा है
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पद्म
119031
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कुम्भकरण के बणों से हनूमान जरजरे भए छत्रउड़गये ध्वजाउड़गई घनुषटूटा वक्तर टूटा रावण के पुत्रइन्द्रजीत वाहन लगरहे हैं अबवे आयकरसुग्रीव भामण्डल कोलेजांयेगे सोवे न लेजावें उस पहिले प्राप उन को लेवें वे दोनों चेष्टारहित हैं सो मैं उनके लेवनेको जाऊं हूं और आप भामण्डल सुग्रीव की सेना निर्नाथ हो गई है सो उसे थांभो इस भान्ति विभीषण राम लक्षमण से कहे है उस ही समय सुग्रीव का पुत्र अंगद छानेाने कुंभकर्ण पर गया औरउसका उत्तरासनवस्त्र परे किया सो लज्जाके भारकर व्याकुल भया
कोयां तौलग हनूमान इसकी भुजाफांस से निकस गया जैसे नवा पकडापत्ती पिजरे से निकसजाय हनूमान नवीन जन्मको घरे और अंगद दोनों एक विमान बैठे ऐसे शोभते भए मानों देवही है और अंगदका भाई अंग और चन्द्रोदयका पुत्र विराधित इनसहितलक्ष्मण सुग्रीव की और भामंडल सेना को वैर्य बंधाय jedar और विभीषण इन्द्रजीत मेघवाहनपर गया सो विभीषण को आवता देखइन्द्रजीतमनमें विचारता भया जो न्यायविचारिए तो हमारे पितामें और इसमें क्या भेद है इसलिए इसके सन्मुख लडना उचित नहीं सो इसके सन्मुख खडान रहना यही योग्य है और ये दोनों भामंडल सुग्रीव नागपाश में बंधे सो निःसन्देह मृत्यु को प्राप्त भए और काकासे भाजिए तो दोषनहीं ऐसा विचार दोनों भाई महा अभिमानी न्याय के वेक्ता विभीषण से टरिगए और विभीषणा त्रिशूल का है आयुध जिसके रथ से उतर सुग्रीव भामंडल के समीप गया सो दोनों को नागपाश से मुर्छित देख खेद खिन्न होता भयातब लक्ष्मण ने राम से कही हे नाथ दोनों विद्याधरों के अधिपति महासेनाके स्वामी महा शक्ति के धनी भामंडल सुग्रीव रावण के पुत्रों ने शक्ति रहित कीए मूर्च्छित होय पडे हैं सो इन वगैर आप रावण को कैसे जीतेंगे तब राम को
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चुराख 199३
पुण्य के उदय से गरुडेंद्र ने बर दिया था सोचितार लक्षमणसे राम कहते भए हे भाई वशंस्थल गिरि | पर देशभूषण कुलभूषण मुनिका उपसर्ग निवारा उससमय गरुडेंद्रने वर दियाथा ऐसा कह महा लोचन रामने गरुडेंद्र को चितारा सो सुख अवस्था में तिष्ठेथा सो सिंहासन कंपायमान भया तब अवधि कर राम लक्षमण को काम जान चिंता वेग नामा देव को दोय विद्या देय पठाया सो प्राय कर बहुत श्रादरसे रामलक्षमणसे मिला और दोनों विद्या तिनको दई, श्रीराम को सिंहवाहिनी विद्यादई और लक्षमणको गरुडवाहिनी विद्या ई तब यह दोनों धीर विद्यालेय चिन्तावेगको बहुत सन्मान कर जिनेन्द्रिकी पूजा करतेभए और गरुंडेंद्रकी बहुत प्रशंसाकरी वह देव इनको जलबाण अग्नि बाण पवनबाण इत्यादि अनेक दिव्य शस्त्र देताभया और चांद सूर्य सारिखे दोनों भाइयों को छत्र दिए और चमर दिए नानाप्रकारके रत्न दिए कांतिके समूह और विद्युद्धक नाम गदालक्षमणको दई और हल मूसल दुष्टोंको भयके कारण रामको दिये इसभांति वह देव इनको देवोपुनीत शस्त्र देय और सैकड़ों अाशिष देय अपने स्थानकगया, यह सर्व धर्मका फल जानो जो समयमें योग्य बस्तुकी प्राप्तिहोय विधि पूर्वक निर्दोष धर्म अाराधाहोय उसके ये अनुपम फलहैं जिनके पायके दुःखकी निवृत्ति होय महा कार्यके धनी आप कुशलरूप और औरोंको कुशलकरें मनुष्यलोककी सम्पदाकी क्याबात पुण्या धिकारियों को देवलोक की वस्तुभी सुलभ होयहै इसलिये निरन्तर पुण्यकरो अहो प्रामि हो जो मुख चाटे तो सर्व प्राणियों को सुख देवो जिस धर्मके प्रसादसे सूर्य समान तेजके धारक होवो और | आश्चर्यकारी वस्तुओं का संयोग होय ॥ इति श्री साठवां पर्व संपूर्णम् ।
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ब्रद्म
पराया
अथानन्तर रामलक्ष्मण दोनों वीर तेज के मंडल में मध्यवर्ती लक्ष्मी के निवास श्रीवत्स लक्षणको रे | ०४: महामनोज्ञ कवच पहिरे सिंहवाहन गरुडवाहन पर चढ़े महासुन्दर सेना सागर के मध्य सिंहकी और गरुड़की
ध्वजाधरें परपचके चय करनेको उद्यमी महासमर्थ सुभदों के ईश्वर संग्राम भूमिकेमध्य प्रवेश करते भए
अ. लक्ष्मण चला जाय है दिव्य शस्त्र के तेजसे सूर्य के तज को अछादित करता हुआ हनूमान आदि बडेबडे गोधा वानरवंशी तिन कर मंडित वर्णन में न आवे ऐसा देवां कैसा रूप घरे १२ सूर्य की ज्योतीलिये लक्षमण को विभीषण ने देखा सो जगत्को आश्चर्य उपजावे ऐसे तेज कर मण्डित सो गरुडवाहन के प्रताप कर नागपांस का बन्धन भामण्डल सुग्रीव का दूर भया गरुड से पक्षों की पबन क्षीर सागर के जल को क्षोभ रूप करे उस से वे सर्प विलाये गये जैसे साधुवों के प्रताप से कुभाव मिट जाय ans के पतन की कांति कर लोक ऐसे होय गए मानों सुवर्ण के रस कर निरमापे हैं तब भामण्डल सुग्रीव नागपाश से छूट विश्राम को प्राप्त भए मानों सुख निद्रा लेय जागे अधिक शोभते भए तब इन कोदेख श्रीवृक्ष प्रथादिक सब विद्याधर विस्मय को प्राप्तभए और सब ही श्री राम लक्षमण की पूजाकरवनती करते भए हे नाथ आज की सी विभूति हम अब तक कभी न देखी वाहन वस्त्र सम्पदा छत्र ध्वजा में अद्भुत शोभा दीखे है तब श्रीराम ने जब से अयोध्या से चले तब से लेय सर्व वृत्तांत कहा कुलभूषण देशभूषण का उपसर्ग दूर किया सा सब वृत्तांत कहा तिन्हों को केवल उपजा और कही हमसे रुद्रतुष्टायमान भयासो व्यवार उसका चिन्तवनकिया उसमें यहविद्या की प्राप्ति भई तब वे यह कथा सुन परम हर्ष को प्राप्त भए और कहते भए इस ही भव में साधु सेवा से परम
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पद्म
पुराण ॥७०५ ।।
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यश पाइए है और यति उदार चेष्टा होय है और पुण्य की विधि प्राप्ति होय है और जैसा साघु सेवा से कल्याण होय वैसा न माता न पिता न मित्रन भाई कोई जीवों को न करे साघु या प्राणी सेवाकी प्रशंसा में लगाया है चित्त जिहोंने जिनेंद्र के मार्ग की उन्नति में उपजी है श्रद्धा जिन के वे राजा बलभद्र नारायण का आश्रय से महा विभूति से शोभते भए भव्य जविरूप कमल तिनको प्रफुल्लित करन हारी यह पवित्र कथा उसे सुनकर ये सर्व ही हर्ष के समुद्र में मग्न भए और श्री राम लक्ष्मण की सेवामें अति प्रीति करते भए और भामंडल सुग्रीव मूर्छा रूपनिद्रासे रहित भएहैं नेत्र कमल जिन के श्रीभगवानकी पूजा करते भए वे विद्यावर श्रेष्ठ देवों सारिखे सर्वथा प्रकार धर्म में श्रद्धा करते भए जो पुण्याधिकारी जीवहैं सो इस लोकनें परम उत्सवके योगको प्राप्तहोय हैं यह प्राणी अपने स्वार्थ से संसार में महिमा नहीं पावे है केवल परमार्थ से महिमा होय है, जैसा सूर्य पर पदार्थको प्रकाश वैसे शोभा पावे है | इति इकसठवां पर्व संपूर्णम्
अथानन्तर श्रीराम के पक्ष के योधा महापराक्रमी रणरीति के वेत्ता शूरवीर युद्धको उद्यमीभए बानरवंशियों की सेनासे आकाश व्याप्तभया और शंख अदिवादित्रों के शब्द और गजकी गर्जना और तुरंगों के हीं सिबे का शब्द सुनकर कैलाशका उठावनाहारा जो रावण अति प्रचंड है बुद्धि जिसकी महामानी देवन सारीखी है विभूति जिसके महाप्रतापी बलवान से तारूप समुद्रकर संयुक्त शस्त्रोंके तेजकर पृथ्वी में प्रकाश करता पुत्र तादिक सहित लंकासे निकसा युद्धको उद्यमी भया दोनों सेना के योधा वखतर पहिर संग्राम के कार वाहनोंसे रूह अनेक ग्रायुधों के धरगुहारे पूर्वोपार्जित कर्म से महाक्रोधरूप
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स्प : परस्यु छ करेल भए व कार बमबाण खडा लोहयष्टि वन मुदगर कनक परिघ इत्यादि अनके ।
श्रायुधोंसे परस्पर युद्धभया घोड़ेके असवार घोडेके असवारोंसे लड़ने लगे हाथियों के असवार हाथियों के असवारोंसे रथोंके रथीयोंसे महाधीर लड़ने लगे सिंहों के असवार सिंहोंके असवारोंसे पयादे पयादों से भिडतेभए बहुत वेरमें कपिधजोंकी सेना राक्षसोंके योधावोंसे दवी तब नल नील संग्राम करने लगे सो इनके युद्धसे राक्षसों की सेना चिगी तब लंकेश्वरके योधा समुद्रकी कल्लोल सारिखे चंचल अपनी सेनाको कपायमान देख विद्युद्रचन मारीच चन्द्रार्क सुखसारण कृतांत मृत्यु भूतनाद संक्रोधन इत्यादि महा सामन्त अपनी सेना को धीर्य बंधायकर कपिध्वजों की सेनाको दबावतेभए तब मर्कटबंशी योघा अपनी सेनाको चिगी जान हजारां युद्धको उठे, सो उठतेही नाना प्रकार के श्रायुधों से राक्षसों की सेनाको हणते भए अति उदार है चेष्टा जिनकी तब रावण अपनी सेना रूप समुद्र को कपिध्वज रूप प्रलय काल की अग्निसे सूकता देख आप कोप कर युद्ध करनेको उद्यमी भया सो रावणरूप प्रलय कालकी पवनसे बानर बंशी सूके पात उड़ने लगे तब विभीषण महायोधा बानर बंशियों को धीर्य बंधाय तिनकी रक्षा कवे को श्राप रावणसे युद्धको सन्मुख भया तब रावण लहुरे भाईको युद्ध में उद्यमी देख क्रोधकर निरादर बचन कहता भरा रे बालक तू लघु भाता है सो मारबे योग्य नहीं मेरे सन्मुख से दूर हो मैं तुझे देखे प्रसन्न नहीं तब विभीषण ने रावणसे कही कालके योग से तू मेरी दृष्टि पड़ा तब मौपे कहां जायगा तब रावण अतिक्रोध से कहता भया रेपुरुषत्वरहित क्लिष्ट धृष्ट | पापिष्ट कुचेष्टि नरकाधिकार तोको तो सारिखे दीनको मारे मुझे हर्ष नहीं तु निर्बलरंक अवध्य हैं
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पद्म
पस
19294
और तो सारिखा मूर्ख और कौन जो विद्याधर्गे की सन्तानमें होयकर भूमिगोचरियोंका आश्रय करें । जैसे कोई दुर्बुद्धि पापकर्म के उदयसे जिन धर्म को तज मित्थ्यात्वका सेवन करें तब विभीषण बोला रावण बहुत कहनेसे क्या तेरेकल्याण की बात तुझे कहूंहूं सो सुन एती भई तोभी कुछ बिगडा नहीं जो तू अपना कल्याण चाहे है तो रामसे प्रीतिकर सीता रामको सौंप और अभिमानतज रामको प्रसन्न से स्त्री के निमित्त अपने कुलको कलंक मत लगावे अथवा तूमेरे वचन नहीं माने है सो जानिये है तेरी मृत्यु नजीक आई हैं समस्त बलवन्तों में मोह महा बलवानहै तू मोहसे उन्मतभयाहै ये बचन भाई के सुनकर रावण अतिक्रोधरूप भया तीक्ष्णबाण लेय विभीषणपर दौड़ा औरभी रथ घोडे. हाथीयों के असवार स्वामी भक्ति में तत्पर महा युद्धकरतेभए । विभीषणनेभी रावणको प्रावतादेख अर्धचन्द्र बाण से रावण की ध्वजा उडाई और रावण ने क्रोधसे बाण चलाया सो विभीषण का धनुष तोडा और हाथ से वाणा गिरा तक विभीषण नेदजा धनुष लेय बाण चलाया सो रावणका धनुष तोडा ,इसभांति दोनों भाई महायोषा परस्पर जोर से युद्ध करतेभए और अनेक सामन्तों का क्षयभया तब इन्द्रजीत महायोधा पिता भक्त पिता की पक्ष विभीषण पर आया तब उसे लक्षमणने रोका जैसे परत सागरको रोके, और श्रीरामने कुम्भकर्ण को घेरा और सिंहकटिसे नील और सम्भूसे नल और स्वयंभूसे दुर्मती और घटोदर से दुर्मुख शक्रासन से दुष्ट चन्द्रनख से काली भिन्नाजन से स्कन्ध विघ्न से विराधित और मय से अंगदः और। कुम्भकर्णका पुत्र जो कुम्भ उससे हनूमान का पुत्र और सुमालीसे सुग्रीव और केतुसे भामण्डल कामसे. दृढरथ क्षौभसे बुध इत्यादि बड़े बड़े राजा परस्परयुद्ध करतेभए और समस्तही योधा परस्पर रणरचते भए,
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1900
प। वह वाहि बुलावे वरावरके सुभट कोईकहे हैं मेरा शस्त्र अावे है उसे तू झेल कोई कहे है तू हम से युद्ध पराण | योग्य नहीं बालक है बृद्ध है रोगी है निर्बल है तू जा फलाने सुभट युद्ध योग्य है सो श्रावो इसभांति
के वचनालाप होय रहे हैं कोई कहे है याही छेदो इसे भेदो कोई कहे. है बाण चलावो कोई कहे है मारलेवोपकडलेवोबांधलेवो ग्रहणकरो छोड़ो चूर्णकरो घावलगे ताहि सहों घावदेहु आगेहोवो मूर्छित मत होवो सावधान होवो तू कहा डरे है मैं तुझे ने मार कायरोंको न मारनीभागोंको न मारना पडेको न मारना
आयुधरहित पर चोट नै करनी तथारोगसे असा मूर्छित हीन बाल वृद्ध यति बतीस्त्री शरणागत तपस्वी पागल पश पक्षी इत्यादिको सुभटन मारें यह सामन्तोंकी बृतिहै कोई अपने वंशियोंको भागतेदेख धिकार शब्द कहे हैं और कहै हैं तु कायर है नष्टहै मतिकांपे कहां जाय है धीरा रहो अपने समूहमें खडा रहु । तोसू क्या होयहै तोस कोन डरे तू काहेका क्षत्री शूर और कायरोंके परखनेका यह समयहै मीठामीठा अन्न तो बहुत खाते यथेष्टभोजन करते अब युद्धमें पीछे क्यों होवो इसभान्ति धीरों की गर्जना और वादित्रों का वाजना तिनसे दशों दिशा शब्द रूप भई और तुरंगोंके खुरकी रजसे अंधकार होयगया चक्र शक्ति गदा लोहयष्टि कनक इत्यादि शस्त्रोंसे युद्धभया मानों ये शस्त्र कालकी डाढही हैं लोग घायलभए दोनों सेना ऐसी दीखें मानों लाल अशोकका बनहै अथवा केसूका बन है और अथवा पारि भद्र जातिके वृक्षोंका वनहै कोई योधा अपने वषतरको टूटा देख दूजा वषतर पहरताभया जैसे साधु व्रत में दूषण उपजा देख फिर पीछे दोष स्थापनाकरे और कोई दांतोंसे तरवार थाम्भ कमर गाढी कर फिर युद्धको प्रवृत्ता कोई यक सामन्त माते हाथियों के दांतोंके अप्रभागसे विदारा गयाहै वक्षस्थल जिसका
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पद्म
19081
। सो हाथी के चालतेजे कान बेई भए बीजना उस से मानों हवा से सुख रूपकर रहे हैं और कोईयक
सुभट निराकुल बुद्धि हुया हाथी के दांतों पर दोनों भुजा पसार सोवे है मानों स्वामी कार्यरूप समुद्रसे उतरा और कैयक योधा युद्धसे रुधिर का नालाबहावतेभए जैसे पर्वतमें गेरुकी खानसे लाल नीझरने बहें और कैयक योधा पृथिवीमें साम्हने महसे पडे होठ डसते शस्त्र जिनके करमें टेढी भौंह विकराल वदन इसरीति से प्राण तजे हैं और कैएक भब्यजीव महा संग्रामसे अत्यन्त घायल होय कषायका त्याग कर सन्यास धर अविनाशी पदका ध्यान करते देहकोतज उत्तम लोकको पाये हैं कैएक धीरवीर हाथीयों के दांतोंको हाथसे पकड़कर ही देह रुधिरकी छटा शरीरसे पडे है शस्त्रहें हाथोंमें जिनके और कैएक काम आयगए तिनके समस्त गिरपड़े और सैंकडां धड नाचे हैं कैएक शस्त्र रहित भए और घावों से जरजरे भए तृषातुर होय जल पीवने को बैठ हैं जीक्तकी अाशा नहीं ऐसे भयंकर संग्रामके होते परस्पर अनेक योधावोंका क्षया भया इन्द्रजीत तीक्षण वाणोंसे लक्ष्मणको अच्छादने लगा और लक्षमण उसको सो इन्द्रजीत ने लक्षमण पर तामस वाण चलाया सोअन्धकार होयगया तब लक्ष्मणने सूर्यवाण चलाया उस से अन्धकार दूरभया फिर इन्द्रजीत ने प्राशीमें जातिके नाग वाण चलाए सो लक्षमण और लक्ष्मणका स्थ नागोंसे वेष्टित होनेलगा तब लक्ष्मण ने गरुडवाण के योगसे नागवाण का निराकरण किया जैसे योगी महातप से पूर्वोपार्जित पापोंके समूहको निराकरणकरें और लक्ष्मणने इन्द्रजीतको स्थरहित किया। कैसाहै इन्द्रजीत मन्त्रियोंके मध्य तिष्ठे है और हाथियों की घटावों से वेष्टित है सो इन्द्रजीत दूजे स्थपर। | अपनी सेनाको वचन से कृपाकर रक्षा करता सन्ता लक्षमणपर तप्त वाण चलावता भया उसे लक्ष्मण ।
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पुरा ५२०॥
ने अपनी विद्या से निवार इन्द्रजीतपर आशीविष जातिका नाग वाण चलाया सो. इन्द्रजीत नागवाण से अचेत होय भूमि में पड़ा जैसे भामण्डल पड़ाथा और रोमने कुम्भकरण को स्थ रहित किया फिर || कुम्भकरण ने सूर्यवाण रामपर चलाया सो रामने उसका वाण निराकरण कर नागवाणकर उसे बेद्रा सो कुम्भरणभी नागों का वेढा थका धरतीपर पड़ा । यह कथा गौतमगणधर राजा श्रेणिक से कहहैं हे श्रेणिक बड़ा आश्चर्य है वे नागवाण धनुषके लगे उल्कापात स्वरूप होय जाय हैं और शवोंके शरीरके लम नागरूपहोय उसको बेढे हैं यह दिव्य शस्त्र देवो पुनोत हैं मनअंछित रूप करे हैं. एक क्षणमें वाण एक क्षणमें दण्ड क्षण एक में पाररूप होय फरणवे हैं जैसे कर्म पाशकर जीव बंधे तैसे नागपाशकर कुम्भ करण बंधा सो राम की आज्ञापाय भामण्डलने अपने स्थमें राखा कुम्भकरणको समने भामण्डलके झाले किया और इन्द्रजीतको लक्ष्मणने पकड़ा सो विराधितके हवाले किया सो विराधितने अपने रथमें राखा खेद सिन्न है शरीर जिसका उस समय युद्धमें रावण विभीषण को कहताभया कि यदि त अापको योधा । माने है तो एक मेरा घाव सह जिससे रणकी खाजबुझे यह रावणने कही कैसा है विभीषण क्रोधकर रावण
के सन्मुख है ओर विकराल करी है. रणक्रीड़ा जिसने रावणने कोपकर विभीषणपर त्रिशूल चलाया कैसा | है त्रिशूल प्रज्वलित अग्निके स्फुलिंगोंकर प्रकाश किया है. आकाश में जिसने सो. त्रिशूल लक्षमणने
विभीषणतक श्रावने न दिया अपने वाणकर बीचही भस्मकिया तब रावण अपने त्रिशूलको भस्मकिया | देख अति क्रोधायमान भया और नागेंद्रकी दई शक्ति महा दारुण सो ग्रही और आगे देखे तो इन्दीवर | कहिये नीलकमल उस समान श्याम सुन्दर महा देदीप्यमान पुरुषोत्तम गरुडध्वज लक्षमण खड़े हैं तब
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पन
काली घटा समान गम्भीर उदारहै शब्द जिसका ऐसा दशमुख सो लक्षमणसे ऊंचे स्वरकर कहताभया पुराण मानों ताडनाही करे है तेरा बल कहां जो मृत्युके कारण मेरे शस्त्र तू मेले तू औरों की ज्यों मुझे मत जाने ॥१११
हे दुर्बुद्धि लक्षमण जो मवा चाहे है तो मेरा यह शस्त्र झेल तब लक्षमणयद्यपि चिरकालका संग्राम कर अति खेद खिन्न भया है तथापि विभीषणको पीछेकर श्राप आगे होय रावणकी तरफ दौड़े तब रावणने महो क्रोधसे लक्षमणपर शक्ति चलाई कैसीहै शक्ति निकसे हैं तारावों के आकार स्फुलिंगावों के समूह जिससे सो लक्षमण का वक्षस्थल महा पर्वतके तट सपान उप्त शक्तिसे विदारागया कैसी है शक्ति मह दिव्य अति देपीप्यमान अमोघमोपा कहिए वृथा नहीं है लगना जिसका सो शक्ति लक्षमणके अंगसों लग कैसी सीहती भई मानो प्रेमकी भरी बधही है सो लक्षमण शक्तिके प्रहार कर पराधीन भयाहे शरीर जिसका सो भमि पर पड़ा जैसे वज्रका मारा पहाड़ परे सो उसे भूमि पर पड़ा देख श्रीराम कमल लोचन
शोकको दवाय शत्रुके घात करिने निमित्त उद्यमी भए सिंहोंके रथ चढे क्रोध के भरे शत्रुको तत्कालही । रथ रहित किया तब रावण और रथ चढ़ा तब रामने रावण का धनुष तोड़ा फिर रावण दूजा धनुष लेय।
तितने राम ने रावण का दूजा स्थभी तोड़ा सो राम के बाणों से विठ्ठल हुआ रावण धनुष वाण लेय असमर्थ भया तीब बाणों से राम रावण का रथ तोड़ डारें वह फिर रथ चढ़े सो अत्यन्त खेद खिन्नभया छेदाहै धनुष और वक्तर जिसका सो छहबार रामने स्थाहित किया तथापि रावण अद्भुतपराक्रम का धारी
राम कर हता न गया तब राम आश्चर्य पाय रावण से कहते भए तू अल्पायु नहीं कोईयक दिन आयुवाकी ।। है सो मेरे बाणों से न मूवा मेरी भुजाबोंसे चलाए बाण महातीक्षण तिनसे पहाढ़ भी भिद जाय मनुष्यों
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पुराण
७१२
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कीतो क्या बात तथापि व्यायु कर्मने तुझे बचाया अब मैं तुझे कहूं सो सुन हे विद्याधरों के अधिपति मेरा भाई संग्राम में शक्ति से तैंने हना सो इस की मृत्यु क्रियाकर में तुझसे प्रभात ही युद्ध करूंगा तब रावण ने कही ऐसे ही करो, यह कह रावण इन्द्र तुल्य पराक्रमी लंका में गया कैसा है रावण प्रार्थनाभंग फरि को असमर्थ है, रावण मन में बिचारे है इन दोनों भाइयों में एक यह मेरा शत्रु अति प्रबल मा सो तो मैं हता यह विचार कasa हर्षित होय मंदिर में गया, कैयकनो योधा युद्ध से जीवते आए तिनको देख्ता भया कैसा है रावण भाइयों में है वात्सल्य जिस के फिरसुनी इन्द्रजीत मेघनाद पकड़े गए और भाई कुम्भकर्ण पकड़ा गया सो इस बृतांत से रावण प्रतिखेद खिन्न भया तिनके जीवने की आशा नहीं, यह कथा atara राजा श्रेणिक से कहे हैं हे भव्योत्तम अनेक रूप अपने उपार्जे कर्मों के कारण से जीवों के नाना प्रकार की साता श्रसाता होय हैं, देख इस जगत् में नानाप्रकार के कर्म तिन के उदय कर जीवों
नाना प्रकार के शुभाशुभ होय हैं और नाना प्रकार के फल होय हैं कैयक तो कर्म के उदय से र में नाश को प्राप्त होय हैं और कैइक बैरियों को जीत अपने स्थानक को प्राप्त होय हैं और किसी की विस्तीर्ण शक्ति विफल होय जाय है और बंधन को पावे है सो जैसे सूर्य्य पदार्थों के प्रकाशने में प्रवीण है तैसे कर्म जीवों को नाना प्रकार के फल देने में ग्रवीण है ।। इति बासठवां पर्व पूर्ण भया ।।
अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मण के शोकसे व्याकुल भए जहां लक्षमण पड़ा था वहां चाय पृथिवी मंडल का मंडन जो भाई उसे चेष्टा रहित शक्ति से आलिंगित देख मूर्च्छित होय पड़े, फिर घनी बेर में सचेत होयकर महाशोक से संयुक्त दःखरूप अग्नि से प्रज्वलित अत्यंत विलाप करते भए, हा बत्स कम
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पद्म
॥ ११३॥
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के योग कर तेरी यह दारुण अवस्था भई ष्याप दुर्लध्य समुद्र तर यहां आए, तू मेरीभक्ति में सदा सावधान मेरे कार्य निमित्त सदा उद्यमी शीघ्र ही मेरे से वचनालापकर कहां मौन घर तिष्ठे है तू न जाने मेरे में तेरे वियोगको एक क्षणमात्र भी सहिनेकी सक्ति नहीं उठ मेरे उरसे लग तेरा विनय कहांगया तेरे भुज गज के सूंड समान दीर्घ भुजवन्धनों से शोभित सो ये क्रियारहित प्रयोजन रहित होयगए भाव मात्र ही रह गए और तू माता पिता ने मोहि धरोहर सौंपा था सो अब में महानिर्लज्ज तिनको क्या उत्तर दूंगा अत्यन्त प्रेम के भरे अति अभिलाषी राम हा लक्ष्मण हा लक्ष्मण ऐसा जगत् में हितु तो समान नहीं इसभान्ति के वचन कहते भए लोक समस्त देखे हैं और महादीन भया भाई सों कहे हैं तू सुभटों में रत्न है तो बिना मैं कैसे जीऊंगा मैं अपना जीतव्य पुरुषार्थ तेरे बिना विफल मानूं हूं, पापों के उदय का चरित्र मैं ने प्रत्यक्ष देखा मुझे तेरे बिना सीतासे क्या और अन्य पदार्थों से क्या जिस सीताके निमित्त तेरे सारीखे भाई को निर्दय शक्तिसे पृथिवीपर पड़ा देखूं हूं सो तुम समान भाई कहां काम अर्थ पुरुषों को सब सुलभ हैं और और सम्बन्धी पृथिवी पर जहां जाईये वहां सब मिलें परन्तु माता पिता और भाई न मिलें हे सुग्रीव तैंने अपना मित्रपणा मुझे प्रति दिखाया अब तुम अपने स्थानक जावो और हे भामंडल तुम भी जावो अब मैं सीता की भी आशा तजी और जीवने की भी आशा तजी, अब मैं भाई के साथ निसंदेह अग्नि में प्रवेश करूंगा हे बिभीषण मुझे सीता का भी सोच नहीं और भाई का सोच नहीं परन्तु तुम्हारा उपकार हमसे कुछ न बना सो यह मेरे मनमें महाबाधा है जे उत्तमपुरुष हैं वे पहिले ही उपकार करें और जे मध्यम पुरुष हैं वे उपकार पीछे उपकार करें और जो पीछे भी न करें वे अधम
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धा पररागा
॥७९४ ॥
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पुरुष हैं सो तुम उत्तम पुरुष हो हमारा प्रथम उपकार किया ऐसे भाई से विरोधकर हम पै आए, और हमसे 'तुम्हारा कुछ उपकार न बना इसलिये मैं प्रति चाताप रूपहूं हो भामंडल सुग्रीव चिता रचो मैं भाई के साथ अग्निमें प्रवेश करूंगा तुम जोयोग्य होय सो करियो यह कहकर लक्ष्मणको रामस्पर्शने लगे तब जानन्द महा बुद्धिमान् मने करता भया हे देव यह दिव्यास्त्रसे मूर्छित भवा है तुम्हारा भाई सो स्पर्श तक यह अच्छा होजायगा ऐसे होय है तुम धीरता को धरो कायरता तजो आपदा में उपाय
कार्यकारी हैं यह विलाप उपाय नहीं तुम सुभट जनहो तुमको विलाप उचित नहीं यह विलाप करना क्षुद्र लोगों का काम है इसलिये अपना चित धीरकरो कोई यक उपाय यही बने है यह तुम्हारा भाई नारायण है सो अवश्य जीवेगा अवार इसकी मृत्यु नहीं यह कह सर्व विद्याधर विषादी भए और लक्ष्मण से शक्ति निक्सनेका उपायअपने मनमें सबही चितवते भए यह दिव्यशक्ति है इसे कोई निवार समर्थ नहीं और कदापि सूर्य उगा तो लक्ष्मण का जीवना कठिन है यह विद्याधर बारम्बार विचारते हुए उपजी है चिन्ता जिनके सो कमरबंध यादिक सब दूर कर या निमिष में धरती शुद्ध कर कपड़े के डेरे खड़े किए और कटक के सात चोंकी बिठाई सो बड़े बड़े योधा बक्तर पहिरे धनुषवाण धारे बहुत सावधानी से चौकी बैठे प्रथम चौकी नील बैठे धनुषवाण हाथ में घरे है और दूजी चौकी नल बैठ गढ़ा कर लिये और तीजी चौकी विभीषण बैठे महा उदार मन त्रिशूल थांभे और कल्पवृक्षों . की माला रत्नों के आभूषण पहरे ईशानइन्द्र समान और चौथी चौकी तरकश बांधे कुमुद बैठे महा साहस घरे पांचवी होकी वरची संभार सुषेण बैठे महा प्रतापी और छठी चौकी महा दृढ़
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पद्म
पुराव
भुजा सुग्रीव इन्द्र सारिखा शोभायमान भिंडिपाल लिये बैठे सातवीं चौकी महा शस्त्रका निकन्दक तरवार सम्हाल आप भामंडल बैठा पूर्व के द्वार अष्टपादकी ध्वजा जाके ऐसा सोहताभया मानों महाबली "अष्टपादही है और पश्चिमके द्वार जाम्बुकुमार विराजताभया और उत्तरके द्वार मन्त्रियों के समूह सहित बालीका पुत्र महा बलवान चन्द्रभारीच बैठा इस भांति विद्याधर चौकी कै सो कैसे सोहतेभए जैसे आकाश में नक्षत्र मंडल संभालते और वानरवंशी महाभट वे सब दक्षिण दिशा की तरफ चौकी बैठे इस भांति चौकी का यत्नकर विद्याधर तिष्ठे लक्षमण के जीने में है संदेह जिनके प्रबल है शोक जिनको जीवों के कर्म रूप सूर्यके उदय से का प्रकाश होय है ताहि न मनुष्य न देव न नागन असुर कोई भी निवारने समर्थ नहीं यह जीव अपना उपार्जा कर्म आपही भोगवे है ॥ इति त्रेसठवां पर्व संपूर्णम् ।।
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अथानन्तर राव लक्ष्मणका निश्चयसे मरण जान और अपने भाई दोनों पुत्रोंको बुद्धिमें मरण रूपही जान अत्यन्त दुःखो भया रावण विलाप करे है हाय भाई कुम्भकरण परम उदार अत्यन्त हितु कहा एसी बन्धन व्यवस्था को प्राप्त भए हाय इन्द्रजीत मेघनाद महा पराक्रम के धारी हो मेरी भुजा समान दृढ़ कर्म के योग से बंधको प्राप्तभए ऐसी व्यवस्था अबतक न भई में शत्रु का भाई हना है सो न जानिये शत्रु व्याकुलभया क्या करे तुम सारिखे उत्तम पुरुष मेरे परप वल्लभ परम व्यवस्था को प्राप्त भए इस समान भोकों यति कष्ट कहां ऐसे रावण गोप्य भाई और पुत्रोंका शोक करताभया और जानकी लक्षमण के शक्ति लगी सुन प्रति रुदन करती भई हाय लक्षमण विनयमान गुणभूष तू मोमन्द भागिनी के निमित्त ऐसी अवस्थाको प्राप्तभया में तुझे ऐसी अवस्थामें भी देखा चाहूं हूं सो दैव योगसे देखने
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पुराण ॥१६॥
नहीं पाऊं हूं तो सारिखे योधा को पापी शत्रुने हिना सो कहां मरे मरणका संदेह न किया तो समान पुरुष इस संसारमें और नहीं जो बड़े भाई की सेवा में आसक्त है चित्त जिनका समस्त कुटुम्ब को तज भाई के साथ निकसा और समुद्र तर यहाँ आया ऐसी अवस्थको प्राप्तभया तुझे में फिर देखें कैसा है तू वाल क्रीड़ा में प्रवीण और महा विनयवान महा मिष्ट वाक्य वा अद्भुतकार्यका करणहारा ऐसादिनभी होयगा जो तुझे में देख सर्व देव सर्वथा प्रकार तेरी सहाय करें हैं हे सर्वलोक के मन के हरण हारे त शक्ति की शल्य से रहित होय इस भांति महा कष्ट से शोकरूप जानकी विलापकरे उस भावों से अति प्रीति रूप जे विद्याधरी तिन ने धीर्य बंधाय शांत चित्त करी हे देवि तेरे देवर का अबतक मरने का निश्चय नहीं इस लिये तू रुदन मत करे और महा धीर सामन्तों की यही गति है और इस पृथिवी पर उपाय भी नाना प्रकार के हैं ऐसे विद्याधारियों के वचन सुन सीता किंचित निराकुलभई अब गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे राजन् अब जो लक्षमणका बृतान्त भया सो सुना एक योधा सुन्दर है मूर्ति जिसकी सो डेरोंके द्वार पर प्रवेश करता भामण्डल ने देखा और पूछा कि त कौन और कहां से आया और कौन अर्थ यहां प्रवेश करें है यहां ठहरोआगे मत जोवो तबावह कहताभया मुझे महीने ऊपर कई दिन गए हैं मेरे अभिलाषा राम के दर्शन की है सो राम का दर्शन करूंगा और जो तुम लक्षमण के जोवने की बांछा करोहो तो मैं जीवने का उपाय कहूंगा जब उसने ऐसा कहा तब भामंडल अति प्रसन्नहोय द्वारे आप समान और सुभट मेल ताहिलार लेय श्रीराम पे आया सो विद्याधर श्रीराम से नमस्कार कर कहता भया हे देव तुम खेद मत करो लक्षण कुमार निश्चय सेती जीवेगा देवगीत
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पद्म
पुराण
1930
नामा नगर वहां राजा शशिमण्डल राणी सुप्रभा तिनका पुत्र में चन्द्रप्रीतम सो एक दिन प्रकाश में || विचरताथा सो राजा वेलधिक्षका पुत्र सहस्राविजय सो उससे मेरा यह वैर कि में उसकी मांग परणा सो वह मेरा शत्रु उसके और मेरे महा युद्धभया सो उसने चण्डवा नाम शक्ति मेरे लगाई सो में आकाश से अयोध्या के महेन्द्रनामा उद्यान में पड़ा सो मुझे पड़ता देख अयोध्या के धनी राजा भरत आय मेढे भए शक्ति से विदारा मेरा वक्षस्थल देख वे महा दयावान उत्तमपुरुष जीवदाता मुझे चन्दनके जलकर छांय सो शक्ति निकसगई मेरा जैसा रूपथा वैसा होयगया और कुछ अधिक भया वा नरेंद्र भरतने मुझे नवां जन्म दिया जिस से तुम्हारा दर्शनभया यह वचनसुन श्रीरामचन्द्र पूछतेभये कि उस गन्धोदक की उत्पत्ति तू जाने है तब उसने कही हे देव जान हूं तुम सुनो में राजा भरतको पूछी और उसने मुझे कही सो कि यह हमारा समस्त देश रोगों से पीड़ित भया सो किसी इलाज से अच्छा न होय पृथिवी कौन रोग उपजे सो सुनो उरोघात महा दाह ज्वर लाला परिश्रम सवशूल और छिरद सोई फोरे इत्यादि अनेक रोग सर्वदेश के प्राणियों को भए, मानो क्रोध से रोगों की धाड़ ही देश में आई और राजोद्रण मेघ प्रजा सहित नीरोगतव में उस को बुलाया और कही हेमाम तुम जैसे नीरोग हो तैसा शीघ्र मुझे और मेरी प्रजा को करो तब राजा द्रोणमेघने जिसकी सुगन्धता से दशोंदिशा सुगन्ध होय उस जलसे मुझे सींचा सो में चंगा भया और उस जलसे मेरा राज लोक भी चंगा और नगर तथा देश चंगा भया. सर्व रोग निबृत भए सो हजारों रोगों की करणहारी अत्यन्त दुस्सह वायु मर्मकीभेदन हारी उस जलसे जाती रही तब मैंने द्रोणमेघ को पूछा यह जल कहां का है जिससे सर्वरोग का विनाश होय तब द्रोणमेघने
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पद्म पुराण ॥१६॥
कही हे राजन् मेरे विशिल्यानामा पुत्री सर्वविद्यामें प्रवीण महागणवती सो जव गर्भ में पाई तब मेरे । देश में अनेक व्याधि थी सो पुत्री के गर्भ में प्रावते ही सर्व रोग गए, पुत्री जिनशासन विपे प्रवीण है भगवान् की पूजा में तत्पर है सर्व कुटम्ब की पूजनीक हैं उसके स्नान का यह जल है उस के शरीर की सुगन्धता से जल महासुगन्ध है क्षणमात्र में सर्व रोग का विनाश करे है, ये वचन द्रोणामेघ के । सुनकर मैं आश्चर्य को प्राप्त भया उस के नगर में जाय उस की पुत्री की स्तुति की, और नगरी से । निकस सत्वहित नामा मुनि को प्रणाम कर पूछा हे प्रभोद्रोणमेघ की पुत्री विशल्या का चरित्रक हो तब चार। ज्ञान के धारक मुनि महावात्सल्य के धरणहारे कहतेभए हे भरत महाविदेहक्षेत्र में स्वर्गसमान पुंडरीक । देश वहां त्रिभुवनानन्द नामा नगर वहां चक्रधर नाम चक्रवर्ती राजाराज्य करे उसके पुत्री अनंगसरा गण । ही हैं आभूषण जिसके स्त्रियों में उस समान रूपअद्भुत और का नहींसो एकप्रतिष्ठित पुर कोधनीराजा पुनर्वसु विद्याधर चक्रवर्तीका सामन्तसो कन्याको देख काम बाणकर पीडितहोय विमान में बैठाय लेय गया सो चक्रवर्तीने क्रोधायमानहोय किंकर भेजेसो उससे युद्ध करते भए उसका विमान चूर डारा तब उस ने व्याकुलहोय कन्याअाकाशसे डारी सो शरदके चन्द्रमाकीज्योतिसमान पुनर्वसुकी परणलघुविद्या कर अटवीमें प्राय पडी सो अटवी दुष्ट जीवोंसे महा भयानक जिसका नाम श्वापद रौरव जहां विद्याधरोंका | भी प्रवेश नहीं वृक्षोंके समूहसे महा अंधकाररूप नानाप्रकारकी बेलोंसे बेढे नाना प्रकारके ऊंचे वृक्षों
की सघनतासे जहां सूर्यको किरणका भी प्रवेश नहीं और चीताव्याघ्र सिंह अष्टापद गेंडारीछ इत्यादि । अनेक वनचर विवरें और नीची ऊंची विषमभूमि जहां बडे २ गत (गटे) सो यह चक्रवर्तीकी कन्याअनंग
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पद्म
पुराण
॥७२
सरा बालक अकेली उस बनमें महाभयकर युक्त अति खेदखिन्न होती भई नदी के तीर जाय दिशा ! अवलोकन कर माता पिताको चितार रुदन करतीभई हायमैं चक्रवर्तीकी पुत्री मेरा पिता इन्द्रसमान उसके में अति लाडली दैवयोगसे इस अवस्थाको प्राप्तभई अब क्या करूं इस बनका ओड नहीं यह बनको देख दुःख उपजे हाय पिता महापराक्रमी सकल लोक प्रसिद्ध में इस बनमें असहाय पड़ी मेरी दया कौन करे हाय माता ऐसे महा दुःखसे मुझे गर्भ में गखी अब काहे से मेरी दया न कगे
हाय मेरे परिवारके उत्तम मनुष्यहो एक क्षणमात्र मुझे न छोडते सो अब तज दीनी और मैं होती | ही क्यों न मरगई काहेसे दुःखकी भूमिका भई चाही मृत्यु भी न मिले क्या करूं कहां जाऊं में | पापिनी कैसे तिष्ठं यह स्वप्नहै कि साक्षातहै इस भांति चिरकाल विलाप कर महा विह्वल भई ऐसे विलाप किए जिनको सुन महादुष्ट पशुका भी चित्त कोमल होय यह दीनचित्त तूधा तृष.से दग्ध शोकके सागरमें मग्न फल पत्रादिकसे कीनी है आजीविका जिसने कर्मके योगसे उस बनमें कई शीतकाल पूर्णकिए कैसे हैं शीतकाल कमलोंके बनकी शोभाका जो सर्वस्व उसके हरगाहारे और जिन ने अनेक ग्रीष्मके आताप सहेकैसे हैं ग्रीष्मके अाताप सूके हैं जलोंकेसमूह और जले हैं दावानलासअनेक न अनेक वृत्त और जरे हैं मरे हैं अनेकजन्तु जहां और जिसने उसवनमें वर्षाकालभी बहुत व्यतीत किए जिससमय जलधाराके अंधकारसे दबगई है सूर्यकी ज्योति और उसका शरीर वर्षाका धोया चित्राम के
समान होय गया कांतिरहित दुर्वल विखरे केश मलयुक्त शरीर लावण्यरहित ऐसाहोय गया जैसा सूर्य | के प्रकाशसे चन्द्रमाकी कलाका प्रकाश क्षीणहोय जाय कैथका बन फलोंसे नमीभूत वहां बैठी पिता
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पद्म
को चितार इस भांतिके वचन कहकर रुदनकरे कि में चक्रवर्तीके तो जन्मपाया और पूर्व जन्मके पापकर बनमें ऐसी दुख अवस्थाको प्राप्तभई इस भांति प्रांसुवोंकी वर्षा कर चतुर्मासिक किया और जे वृक्षोंसे टूटे फल सूक जांय तिनका भक्षणकरे और बेला तेला श्रादि अनेक उपवासोंसे क्षीण होय गया है शरीर जिसका सो केवल फल और जलसे पारणा करतीभई और एकही बार जल उसही समय फल यह चक्रवर्तीकी पुत्री पुष्पोंकी सेजपर सोवती और अपने केशभी जिसको चुभते सो विषम भूमिपर खेद सहित शयन करतीभई और पिताके अनेक गुणीजन रागकरते तिनके शब्द सुन प्रबोधको पावती सो अब स्याल आदि अनेक बनजरोंके भयानक शब्दसे रात्रि म्यतीत करती भई इसभांति तीन हजार वर्ष तप किया सूके फल तथा सूके पत्र और पवित्रजल आहार किये और महावैराग्यको प्राप्त होय खान पानका त्यागकर धीरता घर संलेषण मरण प्रारम्भा एक सौ हाथ भूमि पांवों से परे न जाऊं यह नियम धार तिष्ठी, आयु में छह दिन बाकी थे और एक अरहदास नामा विद्याधर सुमेरु की वन्दना कर के जावे था सो आय निकसा सो चक्रवर्ती की पुत्रीको देख पिताके स्थानक लेजाना विचारा संलेषणा केयोग से कन्याने मने किया तब अरहदास शीघ्र ही चक्रवर्ती पर जाय चक्रवर्ती को लेय कन्या पै आयो सो जिस समय चक्रवती पाया उस समय एक स्थूल अजगर कन्या को भखेथा सो कन्याने पिताको देख अजगरको अभयदान दिवायो और आपसमाधि धारण कर शरीर तज तीजे स्वर्ग गई पिता पुत्रीकी यह
अवस्था देखकर बाईस हजार पुत्रों सहित पैराग्यको प्राप्तहोय मुनि भया, कन्याने अजगरसे क्षमाकर अजगर | को पीड़ा न होने दई सो ऐसी दृढ़ता उमही से बने और वह पुनर्वसु विद्याधर अनंगसरा को देखता भया
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| सो न पाई तब खेदखिन्न होय द्रुमसेन मुनिके निकट मुनिहोय महा तप किया सो स्वर्गमें देव होय
महासुन्दर लक्षमणभया, और वह अनंगसरा चक्रवर्तीकी पुत्री स्वर्गलोकसे चयकर द्रोगामेघके विशल्या १७२१॥
भई और पुनर्वसुने उसके निमित्त निदान कियाथा, सो अब लक्ष्मण इसे बरेगा यह विशल्या इस नगरके इस देश में तथा भरतक्षेत्र में महा गुणवन्ती है पूर्वभवके तपके प्रभावसे महा पवित्रहै उसके स्नान का यह जलहै सो सकल विकारको हरे है इसने उपसर्ग सहा महातप किया उसका फल है उसके स्नान के जलसे जो तेरे देशमें वायु विषम विकार उपजाथा सो नाशभया ये मुनिके वचन सुन भरतने मुनि से पूछी हे प्रभो मेरेदेशमें सर्वलोकोंको रोगविकार कौन कारणसे उपजा तब मुनिने कही गजपुर नगर से एकव्यापारी महाधनवंत विन्ध्यनामासोरासभ(गधा)ऊंट भैंसालादेअयोध्याबाया और ग्यारह महीना अयोध्यामें रहा उसके एक भैंसा सो बहुत बोझके लादनेसे घायलभया तीब्र रोगके भारसे पीडित इस नगरमें मूवा सो अकाम निर्जराके योगसे अश्वकेतु नामा वायकुमार देव भया जिसका वाद्यावर्त नाम सो अवधि ज्ञानसे पूर्व भवको चितारा कि पूर्वभव विषमें असाथा सो पीठ कट रहीथी और महारोगोंसे पीडित मार्ग विषे कीचमें पडाथा सो लोकमेरे सिरपर पांव देय २ गए यह लोक महानिर्दई अब मैं देव भया सो में इनका निग्रह न करूं तो में देव काहेका,ऐसा बिचार अयोध्या नगरमें और सुकौशल देश में वायु रोग विस्तारा सो समस्त रोग विशल्याके चरणोदकके प्रभावसे विलय गया बलवानसे अधिक बलवानहै सो यह पूर्ण कथा मुनिने भरतसे कही और भरतने मो से कही सो में समस्त तुम को कही विशल्याका स्नान जलशीघहीमंगावो लक्षमणके जीवनेका अन्य यत्न नहीं इसभांति विद्याधरने
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11१२२.
श्रीरामसे कही सो सुनकर प्रसन्न भए। गौतमस्वामी कहे हैं कि हेश्रेणिक जे पुण्याधिकारी । हैं तिनको पुण्यके उदय से अनेक उपाय सिद्ध होयह ॥ इति श्री चौसठवां पर्व संपूर्णम्
अथानतर ये विद्याधरके बचन सुनकर राम ने समस्त विद्याधरों सहित उसकी अति प्रशंसा करी और हनूमान भामंडल तथा अंगद इनको मंत्रकर अयोध्याकी तरफ बिदा किये। ये क्षणमात्र में गए जहां महाप्रतापी भरत विराजे हैं सो भरत शयन करते थे तिनको रागसे जगावनेका उद्यम किया सो भरत जागते भए तब ये मिले सीताका हरण रावणसे युद्ध और लक्षमणके शक्तिका लगना ये समाचार सुन भरको शोक और क्रोधे उपजा और उसी समय युद्ध की भेरी दिवाईसो संपूर्ण अयोध्या के लोग ब्याकुल भए और विचार करते भए यह राज मंदिर में कहा कलकलाट शब्दहै आधीरात के समय क्या अतिवीर्यका पुत्र प्राय पड़ाकोईयक सुभट अपनीस्त्रीसहित सोताथा उसेतज बक्तर पहिरे और खडग हाथमें समारांऔर कोयक मृगनैनी भोरे बालकको गोदमेंलेय औरकुचोंपर हाथधर दिशावलोकन करती भई और कोई एक स्त्री निद्रा रहित भई सोते कन्थ को जगावती भई और कोई एक भरतजीका सेवक जान कर अपनीस्त्रीको कहता भया हे प्रिये कहां सोवे है आज अयोध्यामें कछु भलो नहीं राजमंदिर में प्रकाश होरहा है और स्थ, हाथी, घोड़े, प्यादे. राजद्वार की तरफ जाय हैं जो सयाने मनुष्य थे वे सब सावधान होय उठ खड़े हुये और कईएक पुरुष स्त्रीसे कहते भए ये सुवर्ण कलश और मणि रत्नों के पिटारे
तहखानों में और सुन्दर वस्त्रों की पेटी भूमि ग्रह में घरो और भी द्रव्य ठिकाने धरो और शत्रुघन भाई ।। | निद्रा तज हाथी चढ़ मंत्रियों सहित शस्त्रधारक योधावों को लेय राजद्वार आया औरभी अनेक सजा ।
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पुराश 11७२३॥
पन || राजदार श्राए सो भरत सबको युद्धका आदेश देय उद्यमी भया तबभामण्डल हनुमान अंगद भरतको नम
स्कार कर कहतेभये हे देव लङ्का पुरी यहांसे दूरहै और बीच समुद्र है तब भरतने कही क्या करना तब उन्हों ने विशिल्या का वृत्तान्त कहा हे प्रभो राजा द्रोणमेघकी पुत्री विशिल्या उसके स्नानका उदक देवोशीघ्र ही कृपा करो जो हम लेजायें सूर्यका उदय भए लक्ष्मण का जीवना कठिन है तब भरत ने कही उस के स्नानका जल क्या उसीको लेजावो मुझे मुनिने कहीथी यह विशल्या लक्ष्मणकी स्त्री होयगी तब द्रोण मेघ के निकट एक निज मनुष्य उसी समय पठाया सो द्रोणमेघने लक्ष्मण के शक्ति लगी सुन अति कोप किया औइ युद्ध को उद्यमी भया और उसके पुत्र मन्त्रियों सहित युद्धको उद्यमी भए तब भरत और माता केकईने श्राप द्रोणमेघके जायकर उसको समझाय विशिल्याका पठावना ठहराया तब भामण्डल हनुमान अंगद विशिल्याको विमान में बैठाय एक हजार अधिक राजाकी कन्या सहित लेय राम कटक में आए एक क्षणमात्र में संग्रामभमित्रायपहूंचे विमानसे कन्या उतारा ऊपर चमर दुरे हैं कन्या कमल सारिखे नेत्र सो हाथी घोड़े बड़े बड़े योधावों को देखतीभई ज्यों ज्यों विशिल्या कटकमें प्रवेश करे त्यों त्यों लक्ष्मणके शरीरमें साता होती भई वह शक्ति देवरूपिणी लक्षमण के अंग से निकसी ज्योतिके समूहसे युक्तमानो दुष्ट स्त्री घरसे निकसी देदीप्यमान अग्निके स्फुलिंगों के समूह आकाशमें उछलते सो वह शक्ति हनुमान ने पकड़ी दिव्य स्त्रीका रूपधरेतब हनूमान को हाथ जोड़ कहतीभई हे नाथ प्रसन्न होवो मुझेछोड़ो मेरा अपराध !
नहीं हमारी यहीरिति है कि हमको जो साधे हम उसके वशीभूत हैं में अमोघविजिया नोमा शक्ति विद्या तीन | !! लोकमें प्रसिद्ध हूंसो कैलाशपर्वत में बालमुनि प्रतिमा जोगधरे तिष्ठे थे और रावणने भगवान् के चैत्यालय में |
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॥२४॥
गान किया और अपने हाथोंकी नस बजाई और जिनेन्द्र के चरित्र गाये तब धरणेद्र का प्रासन कंपायमान | पुराण' भया सो धरणींन्द्र परम हर्षधर पाए रावण सो अति प्रसन्न होय मुझे दई मोरावण याचना में कायर मुझे
न इच्छे तब धरणेन्द्र ने हठकर दई सो में महो विकराल स्वरूप जिस के लगूउसके प्राण हरूं कोई मुझे निवाखे समर्थ नहीं एक इस विशल्या सुन्दरी को टार में देवों की जीतन हारी सो में इसके दर्शन ही से भाग जाऊं, इसके प्रभाव कर में शक्ति रहित भई तप का ऐसा प्रभाव है जो चाहे तो सूर्य को शीतल करे और चन्द्रमा को उष्ण करे इसने पूर्व जन्म में अति उग्रतप किए मिझना के फल समान इसका सुकुमार शरीर सो इसने तप में लगाया ऐसा उग्रतप किया जो मुनो से भी न बने, मेरे मन में संसार विषे यही सार भासे है जो ऐसे तप प्राणी करें वर्षा शीतल आताप और महा दुस्सह पवन तिनसे यह सुमेरु की चलिका समान न कांपी धन्य रूप इसका धन्य याका साहस धन्य इसका धर्म विषे हदमन इसकासा तप और स्त्रीजन करने समर्थ नहीं सर्वथा जिनेन्द्र चन्द्र के मत के अनुसार जे तपको धारण करे हैं वे तीनलोक को जीते हैं अथवा इसबात का क्या अाश्चर्य जिस तपसे मोक्ष पाईये उससे और क्या कठिन । में पराए अाधीन जो मुझ चलावे उसके शत्रु का में नाश करूं सो इस ने मुझे जीती अब मैं अपने स्थान क जाऊंहूं सो तुम तो मेरो अपराध क्षमा करो इसभांति शक्तीदेवीने कहा तब तत्वका जाननहारो हनूमान् उसे विदा कर अपनी सेना में पाया और द्रोणमेघ की पुत्री विशिल्या अति लज्जा
की भरी राम के चरणारबिन्द को नमस्कार कर हाथ जोड़ ठाढ़ी भई विद्याधर लोक प्रशंसा करते भए और | नमस्कार करते भए और पाशीर्वाद देते भए जैसे इन्द्र के समीप शची जाय तिष्ठे तैसे वह विशिल्या
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पुरास
॥७२॥
पन | सुलक्षणा महा भागवती सखियों के वचन से लक्षमण के समीप तिष्ठी वह नव यौवन जिसके मृगी।
कैसे नेत्र, पूर्णमासी के चन्द्रमा समान मुख जिस का और महा अनुराग की भरी उदार मन पृथिवी विषे सुख से सूते जो लक्ष्मण तिन को एकान्त में स्पर्श कर और अपने सुकुमार कर कमल सुन्दर तिन से पतिके पांव पलोटने लगी और मलयागिरि चन्दन से पतिका सर्व अंग लिप्त किया और इसकी लार हजार कन्या आईं थीं तिन ने इसके करसे चन्दन लेय विद्याघरों के शरीर छोटे सो सब घायल पाछे भए 'और इन्द्रजीत कुम्भकर्ण मेघनाद घायल भए थे सो उनकोभी चन्दनके लेप से नीके किये सो परमानन्द को प्राप्त भए जैसे कर्म रोग रहित सिद्धपरमेष्ठी परम आनन्द को पावें और भी जे योधा घायल भए थे। हाथीघोड़े पियादे सो सब नीके भए घावोंको शल्यजाती रही सब कटक अच्छा भया और लक्ष्मण जैसे सूता जागे तैसे जागे बीण के नाद सुन अति प्रसन्नभए और लक्ष्मण मोहशय्या छोडतेभए स्वांस लिए अांख उघड़ी उठ कर क्रोध के भरे दशों दिशा निरख ऐसे वचन कहते भए कहां गया रावण कहाँ गया वो रावण ये वचन सुन राम अति हर्षित भए फूल गए हैं नेत्र कमल जिन के महा आनन्द के भरे || बड़े भाई रोमांच भया है शरीर में जिन के और अपनी भुजावों से भाई से मिलते भए और कहते भए हे।
भाई वह पापी तुझे शक्ति से अचेत कर अापको कृतार्थ मान घरगया और इस राजकन्या के प्रसाद से त नाका भया और जाम्वन्तको आदिदेय सबविद्याधरों ने शक्तिके लागवे आदिनिकसवे पर्यन्त सर्व बृतान्त कहा औ लक्ष्मण ने विशिल्या अनुरोग को दृष्टि कर देखी कैसी है विशिल्या श्वेतश्याम पारक्त तीन वण कमल तिन समान हैं नेत्र जिस के और शरद की पुण्योंके चन्द्रमा समान है मुख जिस का और कोमल
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पुराम
કર
|| शरीर क्षीण कटि दिग्गज के कुम्भस्थल समान स्तन हैं जाके नव यौवन मानो साक्षात् मूर्तिवन्ती काम |
की क्रीड़ा ही है मानों तीनलोक की शोभा एकत्रकर नाम कर्म ने इसे रची है उसे लक्ष्मण देख आश्चर्य । को प्राप्त होय मनमें विचारता भया यह लक्ष्मी है अक इन्द्र की इन्द्राणी है अथवा चन्द्र की कान्ति है। यह विचार करे है और विशिल्या की लारकी स्त्री कहती भई हे स्वामी तुम्हारे विवाह का उत्साह हम देखा चाहे हैं तब लक्ष्मण मुलके और विशिल्या का पाणिग्रहण किया और विशिल्या की सर्व जगत्में कीर्ति विस्तरी, इसभांति जे उत्तम पुरुष हैं और पूर्वजन्म में महा शुभ चेष्टा करी है तिन को मनोग्य वस्तु का सम्बन्ध होय है और चांद सूर्य कीसी उनकी कांति होय है ॥ इति पेंसठवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथान्तर लक्ष्मण का बिशिल्यासे विवाह और शक्तिका निकासना यहसब समाचार रावणने हलकारी के मुख मुने और सुनकर मुलिक कर मंद बुद्धि कर कहता भया शक्ति निकसीतो क्या और विशिल्या ब्याही तो क्या तब मारीच आदि मन्त्री मंत्र में प्रवीण कहते भए हे देव तुम्हारे कल्याणकी बात यथार्थ कहेंगे तुम कोप करो अथवा प्रसन्न होवो सिंह बाहनी गरुड़वाहनी विद्या रामलक्षमणको यत्न बिना सिद्ध भई सो तुमदेखी और तुम्हारे दोनों पुत्र और भाई कुम्भकर्ण को तिन्होंने बांधलिए सो तुम देखे और तुम्हारी दिव्य शक्ति सो निरर्थक भई तुम्हारे शत्रु महाप्रबल हैं उनसे जो कदाचित तुम जीतेभी । तो भ्रात पुत्रों का निश्चय नाश है इसलिये ऐसा जानकर हमपर कृपा करो हमारी बिनती अबतक आप. ने कदापि भंग न करी इस लिये सीता को तजो और जो तुम्हारे धर्म बुद्धि सदा रही है सो राखो सर्व लोक को कुशल होय राघवसे संधि करो यहबात करनेमें दोष नहीं महा गुण है तुम हीसे सर्व लोकमें मर्यादा
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पन्न
॥१२॥
चले हैं धर्मकी उत्पत्ति तुम से है जैसे समुद्रसे रत्नोंकी उत्पत्ति होय ऐसा कहकर बडे मंत्री हाथ जोड़ नमस्कार करते भए और हाथ जोड बिनती करते भए सबने यह मंत्र किया कि एक सामंत वा दूत विद्या में प्रवीण सन्धि के अर्थ राम पै पठाइये सोएक बुद्धिसे शुक्रसमान महा तेजस्वी प्रतापवान मिष्ट बादी उसे बुलाया सो मंत्रियों ने महासुन्दर महाअमृत औषधी समान बचन कहे परन्तु गबणने नेत्र की समस्या कर मंत्रियोंका अर्थ दूषितकर डाला जैसे कोई विषसे महाऔषधि को बिषरूप कर डारे तैसे रावण संधिकी बात विग्रहरूप जताई सो दूत स्वामीको नमस्कार कर जायवेको उद्यमी भया कैसा है दूत बुद्धि के गर्व से लोकको गोपद समान निरखे है आकाशके मार्ग जाता रामके कटकको भयानक देख दूतको भय न उपजा इसके बादित्र सुन बानरबंशियोंकी सेना क्षोभको प्राप्त भई रावगा के पागम की शंका करी जब नजीक आया तब जानी यह रावण नहीं कोई और पुरुष है तब बानर बंशियोंकी सेनाको विश्वास उपजा दूत द्वारेश्राय पहूंचा तब द्वारपालने भामण्डल से कही भामण्डलने रामसे बिनतीकर केतेक लोकों सहित निकट बुलाया और उसकी सेना कटकमें उतरी रामसे नमस्कारकर दूत बचन कहता भया हे रघुचन्द मेरे वचनोसे मेरे स्वामीने तुमको कुछकहा है याते चित्त लगाय सुनो युद्धकर कछु प्रयोजन नहीं आगे युद्धके अभिमानी बहुप्त नाशको प्राप्तभए इस लिये प्रीतिही योग्य है युद से लोकोंका तय होय है और महा दोषउपजे हैं अपवाद होयहै पागे संग्राम की रुचिकर राजा दुर्वर्तक शंख धवलांग असुरसम्बरादिक अनेक राजो नोशको प्राप्त भए इसलियेमेरे सहित तुम को प्रीति ही योग्य है अहो जैसे सिंह महापर्वत की 'गुफा को पाय कर सुखी होय है तैसे अपने मिलोप से सुख
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॥७२॥
___पद्म होय है, में रावण जगत् प्रसिद्ध क्या तुमने न सुना जिस ने इन्द्रसे राजा बन्दी गृह में किए जैसे कोई स्रियों
को और सामान्यलोकोंको पकडै तैसे इन्द्र पकड़ाऔरजिसकी आज्ञासुर असुरोंकरन रोकी जाय पाताल में न जल में न आकाश विषेत्राज्ञा को कोई न रोक सके नानाप्रकारके अनेक युद्धों का जीतनहारा चीर लक्ष्मी जाको बरे ऐमा में सो तुमको सागरांत पृथिवी विद्याधरों से मण्डित दृहूं और लंकाके दोयभागकर बांटदूहूं ।
भावार्य। समस्त राज्य और प्राधीलंका दृहूं तुममेरा भाई और दोनोंपुत्र मोपे पठावो और साता मुझे देवो जिस से सब कुशलहोय और जो तुम यों न करोगे तोजो मेरे पुत्र भाई वन्धमें हैं तिनकोतो बलात्कार छुटाय लूंगा और तुम को कुशल नहीं, तब राम बोले मुझे राज्य से प्रयोजन नहीं और और स्त्रियों सेप्रयोजन नहीं सीता हमारे पगवो हम तुम्हारे दोनों पुत्र और भाई को पठावें और तुम्हारी लंका तुम्हार ही रहो और समस्त राज तुमही करो में सीता सहित दुष्टजीवों से संयुक्त जो बन उस में सुख से विचरूंगा हे दूत तू लंका के धनो सजाय कहो इसही बात में तुम्हरा कल्याण है,और भान्ति नहीं ऐसे श्राराम केसर्व पूज्य वचन मुख साता कर संयुक्त तिन को सुनकर दूत कहता भया हे नृपति तुम राज काज में समझते नहीं में तुम को फिर कल्याण की बात कहूं हूं तुम निर्भय होय समुद्र उलंघ पाए हो सो नीके | न करी और यह जानकी की आशा तुम को भलो नहीं यदि लंकेश्वर कोप भया तव जानकी की क्या बात तुम्हारा जीवना भी कठिन है और राजनीति में ऐसा कहा है जे बुद्धिमान् हैं तिन को निरन्तर अपने शरीर की रक्षाकरनी स्त्री और धन इन पर दृष्टि न धरनी और जोगरुडेन्द्र ने सिंहवाहन गरुड़वाहन तुम पे भेजे तो क्या और तुम छलछिद्रकर मेरे पुत्र और सहोदर बांधे तोक्यो जोलग में जीवं हूं तो लगइनबातोंका गर्व तुमको.
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॥७२।
बृथाहै जोतुम युद्ध करोगे तो न जानकीका नतिहारा जीवन इसलियेदोनोंमत खोवो सीता का हठ छोड़ो और पुराण | रावण ने यह कही है जे बड़े बड़े राजा विद्याधर इन्द्र तुल्य पराक्रम जिन के सो समस्त शस्त्र विष प्रवीण
अनेक युद्धों के जीतन हारे वे मैं नाश को प्राप्तकिए, तिनके कैलाशपर्वतके शिखर हाड़न के समूह देखो जब ऐसा दूतने कहा तबभामण्डल क्रोधायमान भया ज्वाला समान महा विकराल मुख उसकी ज्योतिसे प्रकाश किया है आकोश विषय जिसने भामण्डलने कही रे पापी दूत स्याल चातुयंता रहित दुद्धि बृथा शंका रहित क्या भाषे है सीता की क्या वार्ता सीता तो राम लेहींगे यदि श्रीराम कोपे तब रावण राक्षस कुचेष्टित पशु कहां ऐसा कह उसके मारबे को खड्ग सम्हारा तव लक्षमणने हाथ पकड़े और मनेकिया कैसे हैं लक्षमण नीतिही है नेत्रजिनके भामण्डल के क्रोधसे रक्तनेत्र होयगए वक्रहोय गए जैसी सांझ की लाली होय तैसा लालबदन होयगया तब मन्त्रियोंने योग उपदेश कह समता को प्राप्त किया जैसे विषका भरा सप मन्त्रसे वश कीजे है, हे नरेन्द्र क्रोध तजा यह दीन तुम्हारे क्रोध योग्य नहीं यह तो पराया किंकर है जो वह कहावे सो कहे इसके मारने से क्या स्त्री, बालक, दूत, पशु, पक्षी, प्रद्ध, रोगी, सोता,
आयुध रहित, शरणागत, तपस्वी गाय, ये सर्वथा अवध्य हैं जैसे सिंह कारी घटो समान गाजते गज तिनका मर्दन करने हारा सो मींडकों पर कोप न करे तैसे तुमसे नृपति दूतपर कोप न करें यहतो उसके शब्दानुसार है जैसे (छाया पुरुष है छाया पुरुषकी अनुगामिनीहै) और सूवाको ज्यों पढ़ावे तैसे पढ़े और । यंत्र को ज्यों बजावें त्यों बजे तैसे यह दीन वह बकावे त्यों बके ऐसे शब्द लक्षमण ने कहे तब सीता का भाई भामण्डल शांतचित्तभया श्रीराम दूतको प्रकटकहतेभए रे मूढ़दूत तू शीघहीजा और रोवणको ऐसे |
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पभ परागत i७३०
कहियो त ऐसे मढ़ मंत्रियोंका बहकाया खोटे उपायकर आपा ठगावेगा तू अपनी बुद्धिकर विचार किसी कुबुद्धिको पूछे मत सीताका प्रसंग तज सर्व पृथिवीका इन्द्र हो पुष्पक विमान में बैठा जैसे भ्रमे था तैसे विभव सहित भ्रमायह मिथ्या हठ छोड़ देशद्रोंकी बात मत सुनों करने योग कार्यमें चित्तधर जो सुखकी प्राप्ति होय ये वचन कह श्रीराम तो चुप होय रहे और और पुरुषोने दूतको फिर बात न करनेदई निकाल दीया दूत रोम के अनुचरों ने तीशण बाण रूप बचनों से बींधा और अति निरादर किया तब रावणके निकट गया मन में पीड़ा थका सो रावण सों कहताभया हे नाथ मैं तुम्हारे आदेश प्रमाण रामसों कहा जो या पृथिवी नाना देशों से पूर्ण समुद्रांत महा रत्नोंकी भरी विद्याधरोंके समस्त पट्टन सहित में तुमको दूंहूं और बड़े २ हाथा रथ तुरंग दृहूं और यह पुष्पक विमान लेवो जो देवोंसे न निवारा जाय इसमें बैठ विचरो और तीन हजार कन्या में अपने परवार की तुमको परणाय द और सिंहासन सूर्य समान
और चन्द्रमा समान छत्र वेलेह और निःकंटक राज करो एती बात मुझे प्रमाण हैं जो तुम्हारी प्राज्ञा कर सीता मोहि इच्छे यह धरा और राज लेवो और में अल्प विभूति राख बैंतही के सिंहासन पर बैठा रहूंगा विचक्षण हैं तो एक वचन मेरा मान सीता मोहि देवो एकचन में बार वार कहे सो रघुनन्दनसीता का हठ न छोड़े केवल उसके सीताका अनुरागहै और वस्तुकी इच्छा नहीं हे देव जैसे मुनि महा शांत चित्त अठाईस मूल गुणों की क्रिया न तजे वह क्रिया मुनिव्रतका मलहें तैसे राम सीताको न तजें सीता ही रामके सर्वस्व है कैसी है त्रैलोक्यमें ऐसी सुन्दरी नहीं और रामने तुमसे यह कही है कि हे दशानन ऐसे सर्वलोक निंद्य वचन तुमसे पुरुषों को कहना योग्य नहीं ऐसे वचन पापी कहे हैं उनकी जीभ के सौ
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पुराण
11७३१॥
टक क्यों न होय मेरे इस सीता बिना इन्द्र के भोगों से कार्य नहीं यह सर्व पृथिवी तू भोग में बनवास ही करूंगा और तू पर दारा हरकर मरनेको उद्यमी भया है तो में अपनी स्त्रीके अर्थ क्यों न मरूंगा और मुझे तीनहजार कन्या देहै सो मेरे अर्थ नहीं में बनके फल और पत्रादिकही भोजन करूंगा और सीता सहित बट में विहार करूंगा और कपिध्वजों का स्वामी सुग्रीव उसने हंसकर मोह कही जो कहा तेरा स्वामी अाग्रहरूप ग्रहके वश भयाहै कोई वायु का विकार उपजा है जो ऐसी विपरीत वार्ता रंक हुवा बके है और क्या लंका में कोऊ वैद्य नहीं अक मन्त्र वादी नहीं बायके तेलादिक कर यत्न क्यों न करे नातर संग्राममें लक्षमण सर्वरोग निवारेगा। भावार्थमारेगा। तब यह वचनसुन में क्रोधरूप अग्निकर प्रज्वलित
और सुग्रीवसे कही रेवानरध्वज तू ऐसे बके है जैसे गज के लार स्वान बके तू राम के गर्व से मवा चाहे है जो चक्रवर्ति कनिन्दा के वचन कहै है सो मेरे और सुग्रीवके बहुत बात भई और में राम सों कहा हे राम तुम महा रण में रावण का पराक्रम न देखा कोऊ तुम्हारे पुण्य के योग से बहु बार विकराल क्षमा में आये हैं वह कैलाश को उठावनहारा तीन जगत् में प्रसिद्ध प्रतापी तुम से हित किया चाहे है और राज्य देय है उस समान और क्या तुम अपनी भुजासे दशमुख रूपसमुद्रको कैसे तरोगे कैसा है दशमुख रूप समुद्र प्रचंड सेनो सोई भई तरंगों की माला तिनसे पूर्ण है और शस्त्ररूप जलचरों के समूह से भरा है हे राम तुम कैसे रावणरूप भयंकर बन में प्रवेश करोगे, कैसा है रावणरूप बन दुर्गम कहिए जिस विषे प्रवेश करना कठिन है और व्याल कहिए दुष्टगज वेईभए नाग तिनसे पूर्ण है और सेनारूप वृलों से समह ने महा विषम है, हे राम जैसे कमल पनकी मवनसे सुमेरु न डिगे और सूर्य की किरणों
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पराया १७३३॥
हाथ धर अघो मुख होय कछुएक चिन्ता रूप तिष्य अपने मनमें विचारे है जो शत्रु को युद्ध में जीतू हतो भ्रात पुत्रों की अकुशल दीखे है और जो कदाचित् वैरियों के कटक में मैं रति हावकर कुमारोंको ले
आऊं तो इस शम्ता में न्यूनता है रतिहाव क्षत्रियों के योग्य नहीं क्याकरूं कैसै मुझे सुखहोय यह विचार करते रावण को यह बुद्धि उपजी जो में बहुरूपणी विद्यासाधू कैसी है बहुरूपणी जोकदाचित देव युद्धकर तो भी नजीती जाय, ऐसा विचार कर सर्वसेवकों को आज्ञा करी श्री शांतिनाथ के मन्दिरमें समीचीन तोरणादिकों से अति शोभा करो सो सर्व चैत्यालयों में विशेष पूजा करो सर्व भार पूजा प्रभावना का मन्दोदरी के सिरपर धरा गौतम गणधर कहे हैं हे श्रेणिक वह श्री मुनिसुव्रतनाथ बीसमां तीर्थकर का समय उस समय इस भरतक्षेत्र में सर्वठौर जिन मन्दिर थे यह पृथिवी जिनमन्दिरों से मण्डित थी चतुर विध संघकी विषेश प्रवृति राजाश्रेष्ठि ग्रामपति और प्रजाके लोग सकल जैनी थे सो महा रमणीक जिन मंदिर रचते जिनमंदिर जिनशासनके भक्त जो देव तिनसे शोभायमान वे देव धर्मकी रक्षामें प्रवीण शुभ कार्यके करणहारे उससमय पृथ्वी भब्यजीवोसे भरी ऐसी सोहती मानो स्वर्ग विमानहीं है ठौर २ ध्वजा और २प्रभावना और २ दान हेमगधाधिपति पर्वत पर्वतविषे गांव र वि नगर र विर्षे बन बन विषेषट्टन पट्टन विषे मंदिर मंदिर विप जिनमंदिरथे महा शोभाकर संयुक्त शरदके पूनोंकी चन्द्रमासमान उज्ज्वल गीतोंकी धनिसे मनोहर नानाप्रकारके वादित्रोंके शब्दकर मानों समुद्र गाजे हैं और तीनों सन्ध्या वंदना को लोग आ सो साधुवोंके अंगसे पूर्ण नानाप्रकारके वादित्रोंके शब्दकर मानों समूह कालके आश्चर्यकर संयुक्त नानाप्रकारके चित्रामको घरे अगर चंदनकाधूप और पुष्पोंकी सुगन्धताकर महासुगंध
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पुराण
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पद्म मई महा विभूतिकर युक्त नाना प्रकारके वर्ण के वर्णकर शोभित महा विस्तीर्ण महा उतंग महा ध्वजाबों SUM से विराजित तिनमें रत्नमई तथा स्वर्णमई पंचवर्ण की प्रतिमा विराजे विद्याधरोंके स्थानों में अति मुन्दर
जिनमंदिरोंके शिखर तिनसे शोभा होय रही है उस समय नानाप्रकारके रत्नमई उपवनादिसे शोभित जे जिनभवन उनसे यह जगत व्याप्तथा और इन्द्र के नगरसमान लंकाका अंतर बाहिर जिनेंद्र के मंदिरोंसे मनोग्य था सो रावणने विषश शोभा कराई और श्राप गवण अठारह हजार राणी वेई भई कमलोंके बन तिनको प्रफुल्लित कर्ता वर्षाके मेघसमानहै स्वरूप जिसका महा नागसमान भुजा जिसको पूर्ण मासीके चन्द्रमासमान बदन सुन्दर गुडहरके फूलसमान लाल होंठ विस्तीर्ण नेत्र स्त्रियोंका मन हरण हारा लक्ष्मणसमान श्यामसुन्दर दिव्यरूपका धरणहारा सो अपने मंदिरों में तथा सर्वत्र विष जिनमंदिर की शोभा कगवताभया कैसाहै रावणका घरलग रहे हैं लोगोंके नेत्र जहां और जिनमंदिरोंकी पंक्ति उस से मंडित नानाप्रकारके रत्नमई मंदिर मध्य उतंग श्रीशन्तिनाथका चैत्यालय जहां भगवान शंति नाथ जिनकी प्रतिमा विराजे जे भव्यजीवहैं वे सकललोक चरित्रको असार अशाश्वता जानकर धर्म विष बुद्धिधर जिनमंदिरोंकी महिमाकरो कैसे हैं जिनमंदिर जगतकर बन्दनीकहें और इन्द्रके मुकट के विष लगे जे रत्न तिनकी ज्योतिको अपने चरणोंके नखोंकी ज्योतिकर बढावनहारे हैं धनपावनका यही फल जो धर्म करिये सो गृहस्थका धर्म दान पूजारूप और यतिका धर्मशांत भावरूप इस जगतविषे यह जिनधर्म मनवांछित फलका देनहाराहै जैसे सूर्य के प्रकाशकर नेत्रों के धारक पदार्थों का अवलोकन करे है तैसे जिनधर्मके प्रकाशसे भव्यजीव निजभावका अवलोकन करे हैं ।। इतिसतसठवांपर्वसंपूर्णम् ।।
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पदा
॥७३॥
अथानन्तर फाल्गुणशुदी अष्टमीसे लेय पूर्णमासी पर्यंत सिद्धिचक्रका वृत्तहै जिसे अष्टानिहका पुराग कहे हैं सो इन आठ दिनोंमें लंकाके लोग और लशकरके लोग नियम ग्रहणको उद्यमी भए सर्व सेना
के उत्तम लोक मनमें यह धारना करते भए कि यह आठ दिन धर्म के हैं सो इन दिनों में न युद्ध करें न और प्रारम्भ करें यथा शक्ति कल्याणके अर्थ भगवानकी पूजा करेंगे और उपवासादि नियम करेंगे इन दिनों में देवभी पूजा प्रभावना में तत्पर होय हैं क्षीरसागर के जे सुवर्णके कलश जलसे भरे थे तिनसे देव भगवानका अभिषेककरे हैं कैसाहै जल सत्पुरुषोंके यरासमान उज्ज्वल और औरभी जे मनुष्यादि हैं तिनको भी अपनी शक्ति प्रमाण पूजा अभिषेक करना इन्द्रादिक देव नन्दीश्वरद्वीप जायकर जिनेश्वरका अर्चनकरे हैं तो क्या ये मनुष्य अपनी शक्ति प्रमाण यहां के चैत्यालयों का पूजन न करे ? करेंही करें देव स्वर्ण रत्नोंके कलशोंसे करें हैं और मनुष्य अपनी संपदा प्रमाण करे महानिधन मनुष्य होय तो पलाश पत्रों के पुटहीसे अभिषेक करें देव रत्न स्वर्णके कमलोंमे पूजाकरें हैं निर्धन मनुष्य चित्तही रूप कमलोंसे पूजा करें हैं लंकाके लोक यह विचारकर भगवानके चैत्या लयों का उत्साह सहित ध्वजा पताकादिसे शोभित करते भए वस्त्र स्वर्ण रत्नादिकर अति शोभा करी रत्नों की रज और कनकरज तिनके मंडल मांडे और देवालयोंके द्वार प्रति सिंगारे और माण सुवर्णके कलश कमलों से ढके दधिदुग्ध घृतादिसे पुर्ण मोतियों की माला है कंठमें जिनके रत्नोंकी कांतिसे शोभित जिन बिम्बोंके अभिषेकके अर्थ भक्तिपंत लोकलाये जहां भोगी पुरुषों के घर सेंकड़ों हजारों मणिसुवोंक कलशनंदनवनके पुष्प और लंका के बनों के नाना प्रकार के पुष्प कार्ण ।
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पद्म
HH
कार अति मुक्त कदंब सहकार चंपक पारिजात मंदार जिनकी सुगन्धता से भ्रमरों के समूहगुंजार करें हैं और मणि सुवर्णादिक के कमल तिन से पूजा करतेभए और दाल मृदंग ताल शंख इत्यादि अनेक वादिनों के नाद होते भए लंकापुर के निवासी बेर तज श्रानन्द रूप होय पाठ दिन में भगवान की प्रति महिमा से पूजा करते भए, जैसे नन्दीश्वर दीप में देव पूजा के उद्यमी होय तैसे लंका के लोक लंका में पूजा के उद्यमीभए और रावण विस्तीर्ण प्रतापका धारक श्री शांतिनाथ के || मंदिरमें जाय पवित्र होय भक्तिकर महामनोहर पूजा करताभया जैसे पहिले प्रतिवासुदेव करे, गौतम || गणधर कहे हैं हेश्रोणिक जे महाविभवकर युक्त भगवानके भक्त महाविभूतिवंत अतिमहिमासे प्रभुका !! पूजन करे हैं तिनके पुण्यके समूहका व्याख्यान कौन करसके वे उत्तम पुरुष देवगति के सुख भोग । फिर चक्रवर्तीयों के भोग पावें फिर राजतज जैनमतके व्रतधार महातप कर परम मुक्तिपावें कैसा है तप सूर्य से भी अधिक है तेज जिसका॥
॥ इति अड़सठवांपर्व सम्पूर्णम ॥ अथानन्तर महाशंतिका कारण श्रीशांतिनाथका मंदिर कैलाशके शिखर और शरदके मेघ समान उज्वल महा देदीप्य मान मंदिरोंकी पंक्तिसे मंडित जैसे जम्बूद्वीप के मध्य महाउतंगमुमेरु पर्वत सोहै तैसे रावण के मंदिरके मध्य जिनमंदिर सोहता भया वहां रावण जाय विद्या केसाधनेमें आसक्तहे चित्त जिसका और स्थिरहे निश्चय जिसका परम अद्भुत पूजा करताभया भगवानका अभिषेक कर अनेक षादित्र बजावता । अति मनोहर द्रव्यों से महासुगंध धूपकर नानाप्रकार की सामग्री से शांत चित्तभया शांतिनाथ की पूजा करता भया मानों दूजा इन्द्रहीहै शुक्न बस्त्र पहिरै महासुन्दर जे भुज बंध उनसे शोभितहै भुजा
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पद्म पुराण
॥७३३।
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जिसकी सिरके केश भली भांति बांध उनपर मुकुटधर उसपर चूड़ामणि लहलहाट करती महाज्योति को घरे रावणदोनों हाथ जोड़े गोड़ोंसे धरतीको स्पर्शता मन बचन कायसे शांतिनाथको प्रणाम करता भया श्री शांतिनाथ के सन्मुख निर्मल भूमिमें खडा अत्यन्त शोभताभया कैसी है भूमि पद्मरागमणि की है फर्श जिस में और रावण के स्फटिकमणिकी माला हाथ में और उरमें धरे कैसा सोहता भया मानों क पंक्ति संयुक्त कारी घटाका समूहही है वह राक्षसोंका अधिपति महाधीर बिद्याका साधन आरंभता भया जब शांतिनाथ के चैत्यालय गया उस पहिले मंदोदरी को यह आज्ञा करी कि तुम मंत्रियों को और कोटपालको बुलायकर यह घोषणा नगर में फेरियो कि सर्वलोक दयाविषे तत्पर नियम धर्म के धारक होवें समस्त व्यापारतज़ जिनेंद्रकी पूजाकरो और थर्थी लोगों को मनवांछित धन देवो अहंकार तजो जौलग मेरा नियमन पूरा होय तौलग समस्त लोग श्रद्धाविषे तत्पर संयम रूप रहोजो कदाचित कोई बाधा करे तो निश्चय सेती सहियो महाबलवान होय सो बलका गर्व न करियो इन दिवसों में जो कोऊ क्रोधकर विकार करेगा सो अवश्य सजा पावेगा जो मेरे पिता समान पूज्य होय और इन दिनों में कषाय करे, कलह करे उसेमें मारूं जो पुरुष समाधिमरण से युक्त न होयसो संसार समुद्रको नतिरे जैसे अंधपुरुष पदार्थों को न परखे तैसे अविवेकी धर्मको न निरखें इसलिए सब विवेक रूप रहियो कोऊ पाप किया न करनेपावे, यहद्याज्ञा मंदोदरीको कर रावण जिनमंदिर गए और मंदोदरी मंत्रियोंको और यमदंडनामा कोटपाल को द्वारे बुलाय पति कीथाज्ञा प्रमाण आज्ञा करती भई तब सबने कहा जो आज्ञाहोयगी सोही करेंगे यहकह श्राज्ञा सिरपर घर घर गये और संशय रहित नियम धर्मके उद्यमी
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॥३८॥
पद्म होय नृपकी प्राज्ञापमाण करते भए समस्त प्रजाके लोग जिनपूजामें अनुरागी होते भये और समस्त पुराण कार्य तजे मूर्यकी कांति से भी अधिक है कांति जिनकी एसे जे जिनमंदिर तिनमें तिष्ठे निर्मल भावकर युक्त संयम नियम का साधन करते भये ॥ इति उनत्तरवां पर्व समाप्तम् ॥
अथानन्तर श्री राम के कटक में हलकारों के मुख यह समाचार आए कि रावण वह रूपणी विद्या के साधने को उद्यमी भया श्री शांतिनाथ के मंदिर में विद्या साधे है चौबीस दिन में यह वह रूपणी विद्या सिद्ध होयगी यह विद्या ऐसी प्रबल है जो देवोंका भी मद हरेसोसमस्त कपिध्वजों ने यह विचार । किया कि जोवह नियममें बैठा विद्यासाघे है सो उसको क्रोध उपजावें ताकि यहविद्या सिद्ध न होय इसलिये रावणको कोप उपजावने का यत्न करना, यदि उसको विद्या सिद्ध होय तो इन्द्रादिक देवों से भी न जीता. जाय हम सारिखे रंकों की क्या बात, तब विभीषण ने कही की कोप उपजाबने का उपाय करोशीघही करो तब सब ने मन्त्र कर राम से कही कि लंका लेने का यह समय है रावणके कार्य में विघ्न करिए और अपने को जो करना होय सो करिए तब कपिध्वजों के यह वचन सुन श्री रामचन्द्र महाधीर महा पुरुषों की है चेष्टा जिनकी सो कहते भए हो विद्याधर हो तुम महामढ़ता के वचन कहो हो क्षत्रियों के कुल का यह धर्म नहीं जो ऐसे कार्य करें अपने कुल की यह रीति है जो भय से भाजे उसका बध न करना तो जे नियमधारी जिनमन्दिर में बैठे हैं तिनसे उपद्रव कैसे करिए यह नीचों के कर्म हे सो कुलवंतों को योग्य नहीं यह अन्याय प्रबृति क्षत्रियों की नहीं कैसे हैं क्षत्री महामान्यभाव और शस्त्र कर्म में प्रवीण यह वचन राम के सुन सबने विचार किया कि हमारा प्रभु श्रीराम महा धर्म धारी है उत्तम भाव
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पन्न
पुरामा
219३।।
का धारक है सो इनको कदाचित भी अधर्म विषे प्रवृति न होयगी तव लक्ष्मण की जानमें इन विद्याघरोंने अपने कुमार उपद्रव को विदा किए और सुग्रीवादिक बड़े बडे, पुरुष आठ दिन का नियम धर तिष्ठे और पूर्णचन्द्रमा समान बदन जिनके कमल समान नेत्र नाना लक्षण के धरणहारे सिंह व्याघ्र बराह गज अष्टापद इनसे युक्त जे स्थ तिन पर बैठे तथा विमानों पर बैठे परम श्रायुधों को घरें कपियों के कुमार रावणको कोप उपजायबे का है अभिप्राय जिनके मानों यह असुरकुमार देवही हैं प्रीतंकर दृढ़रथ चन्द्राहू रतिवर्धन वातायन गुरुभार सूर्यज्योति महारथ समन्तवल नन्दन सर्वदृष्ट सिंह सर्वप्रिय नल नील सागर घोषपुत्र सहित पूर्ण चन्द्रमा स्कंध चन्द्र मारीच जांवव संकट समाधि बहुल सिंह कट इन्द्रामणि बल तुरंग सब इत्यादि अनेक कुमार तुरंगों के स्थ चढे और अन्य कैयक सिंह बाराह गज व्याघ इत्यादि मनसे भी चञ्चल बाहनों पर चढे पयादों के पटल तिनके मध्य महा तेज को घरे नाना प्रकारक चिन्ह तिनसे युक्त हैं छत्र जिनके और नाना प्रकार की ध्वजा फरहरे हैं जिनके महा गंभीर शब्द करते दशोंदिशा को
आछादित करते लंकापुरी में प्रवेश करतेभए मन में विचार करतेभए बड़ा आश्चर्य है कि लंका के लोक निश्चिन्त तिष्ठे हैं जानिये है कछ संग्राम का भय नहीं अहो लंकेश्वर का बड़ाधीर्य महागंभीरता देखो कि कुम्मकर्ण से भाई और इन्द्रजीत मेघनाद से पुत्र पकड़े गए हैं तौभी चिन्ता नहीं और अक्षादिक अनेक योधा युद्ध में हते गए हस्त प्रहस्त सेनापति मारे गए तथापि लंकपति को शंका नहीं, ऐसा चितवन करते परस्पर वार्ता करते नगर में बैठे तथा विभीषण का पुत्र सूभूषण कपिकुमारों को कहता भया तुम | भय तज लंका में प्रवेश करो बाल बृद्ध स्त्रियों को तो कुछ न कहना और सबको ब्याकुल करेंगे तब इस !
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॥७४01
पन पण, का वचन मान विद्याधरकुमार महा ऊद्धत कलहप्रिय श्राशीविष समान प्रचण्ड व्रतरहित चपल चञ्चल
लंका में उपद्रव करते भए तिनके महाभयानक शब्द सुन लोक अति व्याकुलभए और रावणके महलमें भी व्याकलतो भई जैसे तीब्र पवन से समुद्र क्षोभ को प्राप्त होय तैसे लंका कपिकुमारों से उद्धेग को प्राप्त । भई रावण के महिल में राज लोकों को चिन्ता उपजी कैसा है रावण का मन्दिर रत्नों की कांति कर | देदीप्यमान है और जहां मृदंगादिक के मंगल शब्द होबे हैं जहां निरन्तर स्त्री जन नत्य करे हैं और । जिनपूजा में उद्यमी राज कन्या धर्म मार्ग में प्रारूद सोशत्रु सेना के कर शब्द सुन आकुलता उपजी । त्रियों के आभूषणों के शब्द होते भए मानों बीण बाज़े हैं सब मन में विचारती भई न जानिए क्या होय इसभांति समस्त नगरी के लोग ब्याकुलता को प्राप्त भए विहल भए तब मन्दोदरी का पिता राजा मय विद्याघरों में दैत्य कहावे सो सब सेना सहित बक्तर पहिर आयुध घार महा पराक्रमी युद्धके अर्थ उद्यमी होय राजदार आया जैसे इन्द्र के भवन हिरण्यकेशी देवावे तब मन्दोदरी पिता से कहती भई हे तात जिस समय लंकेश्वर जिन मंदिर पधारे उस समय अाज्ञा करी कि सब लोक संबररूप रहियो कोई कषाय मत करियो इसलिये तुम कषाय मत करो ये दिन धर्म ध्यानके हैं सो धर्म सेवो और भांति करोगे तो स्वामीकी आज्ञा भंग होयगी और तुम भला फल न पावोगे, ये वचन पुत्रीके सुनराजा मय उद्धतता तज महा शांत होय शस्त्र डारतेभये जैसे अस्त समय सूर्य किरणोंको तजे मणियोंके कुण्डलों से मंडित और हार कर शोभे हैं वक्षस्थल जिसका अपने जिनमन्दिर में प्रवेश करता भया और ये बानर बंशी विद्याधरों के कुमारोंने निज मर्यादा तज नगरका कोट भंग किया वज्रके कपाठ तोड़े दरवाजा तोड़े।
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॥१४॥
सोइनको देख नगरके वासियोंको अति भय उपजाघरघर में ये बात होय है भाजकर कहां जाइये ये पाए। बाहिर खड़े मत रहो भीतर पैसो हाय मात ये क्या भया, हे तात देखो, हे भ्रात हमारी रक्षा करो हे आर्य || पुत्र महाभय उपजा है ठिकाने रहो इस भांति नगरी के लोक व्याकुलता के वचन कहते भए लोक भाग रावण के महिलमें आये अपने वस्त्र हाथों में सम्हाले अति विठ्ठल बालकों को गोद में लिये स्त्री जन कांपती भागी जाय हैं कैएक गिर पड़ी सो गोडे फूट गये कैएक चली जाय हैं हार टूट गए मो बडे २ || मोती विखरे हैं जैसे मेघमाला शीघ जाय तैसे जायहै त्रासको पाइ जो हिरणी उस समानहैं नेत्र जिनके ।
और ढीले होयगये हैं केशोंके बन्ध जिनके और कोई भयकर प्रीतम के उरसे लिपट गई इस मांति लोका। को उद्धेग रूप महा भयभीत देख जिन शासन के देव श्रीशान्तिनाथ के मन्दिरके सेवक अपसे पक्षके । पालनेको उद्यमी करुणांवन्त जिन शारुनके प्रभाव करनेको उद्यमीभए महा भैरव प्राकारघरे शांतिनाथके मंदिग्से निकसे नाना भेष धरे विकरालहैं दाढ़ जिनकी भयकरहै मुख जिनका मध्यान्हके सूर्य समान । तेज हैं नेत्र जिनके होंठ डसते दीर्घ है काया जिनकी नाना वर्ण भयंकर शब्द महा विषम मेष को । धरे विकराल स्वरूप तिनको देखकर बानरवंशियों के पुत्र महा भयसे अत्यन्त विहल भए वे देव क्षम में सिंह क्षण में अग्नि क्षण में मेघ क्षण में हायी क्षण में सर्प चण में वायु चण में वृक्ष क्षमा में। पर्वत सो इनसे कपिकुमारों को पीडित देख कटकके देव मदत करतेभए देवोंमें परस्पर युद्धभया लंका के देव कटकके देवोंसे और कपिकुमार लंकाके सन्मुख भए तब यतोंके स्वामी पूर्णभद्र मणिभद्र महा क्रोध को प्राप्तभए दोनों यतेश्वर परस्पर बार्ता करते भए देखो ये निर्दई कपियोंके पुत्र महा विकार को
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पद्म
पुराण
प्राप्तभएहैं रावण तो निराहार होय देहविषे भी निस्पृह सर्वजगतका कार्यतज पोसे बैठाहै सो ऐसे शांत | चित्तको यह छिद्रपाय पापी पीड़ा चाहे हैं, सो यह योधावों की चेष्टा नहीं यह बचन पूर्णभद्रके मुन । माणिभद्र बोला अहो पूर्णभद्र रावणका इंद्रभी पराभव करिबे समर्थ नहींगवण मुन्दर लक्षणोंसे पूर्ण शांत स्वभावहै तब पूर्णभद्रने कही जो लंकाको विघ्न उपजाहे सो आपा दूर करेंगे यह कहकर दोनो। धीर सम्यकदृष्टि जिनधर्मी यचोंके ईश्वर युद्धको उद्यमी भए सो बानरवंशियोंके कुमार और उनके पक्षी देव सब भागे, ये दोनों यत्तेश्वर महा वायु चलाय पाषाण बरसावतेभए और प्रलय कालके मेघ समान गाजतेभए तिनकी जांघोकी पवनकर कपिदल सूके पानकी न्याई उडे तत्काल भागगए तिन केलारही ये दोनों यक्षेश्वर रामके निकट उलहना देनेको पाए सो पूर्णभद्र सुबुद्धि रामकी स्तुति कर कहते भए राजादशस्थ महा धर्मात्मा तिनके तुम पुत्र और अयोग्य कार्यके त्यागी सदा योग्यकार्योंमें उद्यमी शास्त्र समुद्रके पारगामी शुभ गुणोंसे सकलमें ऊंच तुम्हारी सेना लंकाके लोकोंको उपद्रव करे यह कहांकी बात जो जिसका द्रव्य हरे सो उसका प्राणहरे है यह घन जीवोंके वाह्य प्राणहें अमोलिक हीरे वैडूर्य मणि मूंगा मोती पद्मराग मणि इत्यादि अनेक रत्नोंसे भरीलंका उद्वेगको प्राप्त करी तब यह । बचन पूर्णभद्रके सुन रामका सेवक गरुड़केतु कहिये लक्षमण नीलकमलसमान सो तेजसे विविध रूप वचन कहताभया ये श्रीरघुचन्द्र तिनके राणी सीता प्राणसेभी प्यारी शीलरूप आभूषणकी घरणहारी। वह दुरात्मा रावण छलकर हर लेगया उसका पक्ष तुम कहा करो, हेयतेन्द्र हमने तुम्हारा क्या अप| राध किया और उसने क्या उपकार किया जो तुम भृकुटी बांकीकर और सन्ध्याकी ललाई समान
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पुराण
१७४३५
अरुण नेत्रकर उलहना देनेको पाए सो योग्य नहीं एती बार्ता लक्ष्मणने कही और राजा मुग्रीव अति भयरूप होय पूर्णभद्रको अर्घ देय कहताभया, हे यक्षेन्द्र क्रोध तजो और हम लंकामें कछु उपद्रव न करें परन्तु यह बार्ता है रावण बहुरूपिणी विद्या साधे है सो जो कदाचित उसको विद्या सिद्ध होय तो उसके सन्मुख कोई ठहर न सके जैसे जिनधर्मके पाठकके सन्मुखबादीन टिके इसलिये वह क्षमावन्तहोय विद्या साधे है सो उसका क्रोध उपजावेंगे जो विद्या साध न सके जैसे मिथ्या दृष्टि मोक्षको साध न सके, तब पूर्णभद्र बोले ऐसेही करो परन्तु लंकाके एक जीर्ण तृणको भी बाधा न कर सकोगे और तुम रावणके अंगका बाधा मतकरो और अन्य बातोंसे क्रोध उपजावो परन्तु रावण अतिदृढ़है उसे क्रोध उपजना कठिन है ऐसे कह वे दोनों यक्षेन्द्र भव्यजीवों में है वात्सल्य जिनका प्रसन्नहै नेत्र जिनके मुनियों के समूहों के भक्त वैयाब्रतमें उद्यमी जिनधर्मी अपने स्थानक गए रामको उलहना देने पाए थे सो लक्षमणके वचनों से लज्जावान भए समभाव कर अपने स्थानक गए सो जाय तिष्ठे गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक !जौलग निदोषता होय तोलग परस्पर प्रति प्रीतिहोय और सदोषताभए प्रीति भंग होय जैसे सूर्य उत्पात सहित होय तो नीका न लगे॥ इति सत्तरवां पर्व संपूर्णम् ।।
अथानन्तर पूर्णभद्र मणिभद्रको शंतभाव जान सुग्रीवका पुत्र अंगद उसने लंकामे प्रवेश किया सो अंगद किहकंध कांड नामा हाथीपर चढ़ा मोतियोंकी माला कर शोभित उज्ज्वल चमरों से युक्त
ऐसा सोहता भया जैसा मेघमाला में पूर्णमासीका चन्द्रमा सोहे, अति उदार महा सामन्त तथा स्कंध || इन्द्र नील यादिबड़ी ऋद्धिकर मंडित तुरंगों पर चढ़े कुमार गमनको उद्यमी भए और अनेक पयादे
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पम चन्दनसे चर्चित हैं अंग जिनके तांबूलों से लाल अधर कांधे ऊपर खडग धरे सुन्दर वस्त्र पहिरे TH स्वर्णके आभूषण से शोभित सुन्दर चेष्टा धरे आगे पीछे अलग बगल पयादे चले जांय हैं वीण
बांसुरी मृदंगादि वादित्र बाजे हैं नृत्य होता जायहै कपिबंशियोंके कुमार लंका में ऐसे गए जैसे स्वर्ग पुरी में असुरकुमार प्रवेश करें अंगदको लंकामें प्रवेश करता देख स्त्रीजन परस्पर बार्ता करती भइ देखो यह अंगदरूप चन्द्रमा दशमुखकी नगरीमें निर्भय भया चलाजायहे इसने क्या प्रारम्भा आगे अब क्या होयगा इस भांति लोक बात करें हैं ये चले चले रावणके मंदिरमें गए सोमणियोंका चौक देख इन्होंने जानी ये सरोवरहै सोत्रासको प्राप्तभए फिर निश्चय देख मणियोंका चोक जाना तव आगे गए मुभेरुकी गुफासमान महा रत्नों से निर्मापित मंदिरका द्वार देखा माणयोंके तोरणोंसे देदीप्यमान वहां अंजन पर्वत सारिखे इन्द्र नील मणियोंके गज देख महास्कंध कुम्भस्थल जिनके स्थुलदंत अत्यन्त मनोग्य और तिनके मस्तक पर सिंहों के छावा जिनके सिर पर पूछ हाथियों के कुम्भस्थल पर सिंह विकराल बदन तीक्षण दाद डरावने केश तिनको देख पयादे डरे जानिए सांचेही हैं. तब भयकर। भागे अतिविहल भए अंगद ने नीके समझाए तब थागे चले रावण के महिल में कपि वंशी ऐसे जावें जैसे सिंहोंके स्थान में मृग जांय अनेक द्वार उलंघ धागे जाने को असमर्थ भए घरोंकी रचना गहन सो असे भटके जैसे जन्म का अंधाभ्रमें स्फटिकमणि के महिल वहां अाकाशकी आशंका से भ्रमको प्राप्त भए और. इन्द्र नीलमणि की भीति सो अन्धकार स्वरूप भासे मस्तक में शिला की लागी सो अाकुल होय भूमि में पड़े वेदना से व्याकुल हैं नेत्र जिनके किसीएक प्रकार गार्ग उलंघकर भागे गए जहां स्फदिक मणिकी
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. भीति सो घनों के गोड़े फटे ललाट फटे दुखी भए तव उलटे तिरे सो मार्ग न पावें आगे एक रत्न मई पुराण स्त्री देखी साक्षात् स्त्रीजान उसे पूछतेभए सो क्या कहे तवमहाशंका के भरे अागे गए विहलहोय स्फटिक ॥६४५।। मणिकी भमिमें पड़े अागे शान्तिनाथके मन्दिरका शिखर नजर अाया परन्तु जायसकेंनहीं स्फटिककी भीति
प्राडा तब वह स्त्री दृष्टिपरीथी त्यों एक रत्नमई द्वारपाल दृष्टिपड़ा हेमरूप बैंतकी छड़ी जिसके हाथमें उसे कही श्रीशान्तिनाथ के मन्दिरका मार्ग बताो सो क्या बतावे तब उसे हाथ से कूटा सो कूटनहारे की अंगुरी चूर्णं होयगई फिर भागेगए जाना यह इन्द्र नीलमणि को द्वारा है शान्तिनाथ के चैत्यालयमें जाने की बुद्धि करी कुटिल हैं भाव जिनके आगे एक वचन बोलता मनुष्य देखा उसके केश पकड़े और कही तू हमारे आगे आगे चल शान्तिनाथ का मन्दिर दिखाय, जब वह अग्रगामी भया तब ये निराकुल भए श्री शान्तिनाथ के मन्दिर जाय पहुंचे पुष्पांजलि चढाय जय जय शब्द कीए स्फटिक के थम्भों के ऊपर बड़ा विस्तार देखा सो आश्चर्य को प्राप्तभए मनमें विचारते भए जैसे चक्रवर्ती के मन्दिर में जिनमन्रि होय तैसे हैं अंगद पहिलेही वाहनादिक तज भीतर गया ललाटपर दोनों हाथ धर नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा देय स्तोत्र पाठ करता भया सेना लारथी सो बाहिरले चौक में छाड़ी कैसा है अंगद फूल रहे हैं नेत्र जिसके रत्नों के चित्राम से मण्डल लिखा सोलह स्वप्ने का भाव देख कर नमस्कार किया मण्डिप की आदि भीति में वह धीर भगवान को नमस्कार कर शातिनाथ के मन्दिर में गया अति हर्षका भरा भगवानको वन्दना करता भया फिर देखे तो सन्मुख रावख पद्मासन धरे तिष्ठे है इन्द्र नीलमणि की किरणों के समूह समान है प्रभा जिसकी भगवान के सन्मुख कैसा बैठा है जैसे सूर्य के सन्मुख राहु बैठा होय विद्या को |
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पद्म
पुराण १४६॥
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" ध्यावे जैसे भरत जिन दीक्षा को ध्यावे सो रावण को अंगद कहता भया हे रावण कहो अब तेरी क्या बात तोसे ऐसी करूं जैसी यम न करे तैंने कहा पाखंड रोपा भगवान के सन्मुख यह पाखंड कहां धिक्कार तुझे पाप कर्मीको वृथा शुभक्रिया का आरंभ किया है ऐसा कहकर उसको उत्तरासन उतारा और इसकी राणीयों को इसके आगे कूटता भया कठोर वचन कहता भया और रावणके पास पुष्पपड़े थे सो उठाय लीये और स्वर्ण के कमलोंसे भगवान की पूजाकरी हाथमेंसे स्फटिककी माला छीन लई सो मणियां विखर गई फिर मणियें चुन माला परोय रावण के हाथ में दई फिर बिनाय लई फिर परोय गले में डाली फिर मस्तक पर मेली फिर रावण का राजलोक मोई भया, कमलों का वन उसमें ग्रीषम कर तप्तायमान जो ant हाथी उसकी न्याई प्रवेश किया और निःशंक भया राजलोक में उपद्रव करताभया जैसे चंचल घोड़ा कूदता फिरे तैसे चपलता से परिभ्रमण किया काढू के कंठ में कपड़ो को रस्सा बनाय बांधा और काहू के कण्ठ में उतरासन डोर थंभ में बांध फिर छोड़ दई काहू को पकड़ अपने मनुष्यों से कही इसे बेच यावो उसने हंसकर कही पांच दीनारों को बेच आया इस भांति अनेक चेष्टा करी काहू के कानों
घुंघुरू घाले और केशों में कटिमेखला पहिराई काह. के मस्तक का चड़ामणि उतार चरणों में पहिराया और काइको परस्पर केशों से बांधी और काढू के केशों में शब्द करते मोर बैठाये इस भांति जैसे सांड. गायों के समूह में प्रवेश करे और तिनको व्याकुल करे तैसे रावण के समीप सब राज लोकों को क्लेश उपजाया और अंगद क्रोध से रावण को कहता भया, हे अधम राक्षस तैने कपट कर सीता हरी अब हम तेरे देखते तेरी समस्त स्त्रियों को हरे हैं तो मैं शक्ति होय तो यत्न से ऐसा कह कर इसके
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पद्म पुराण 19891
आगे मन्दोदरी को पकड़ ल्याया जैने मृगराज मृगी को पकड, ल्यावे कंपाय मान हैं नेत्र जिसके | चोटी पकड रावण के निकट खींचता भया जैसे भरत राज लक्ष्मी को खींचे और रावण को कहताभया देख यह पटरानी तेरे जीव से भी प्यारी मन्दोदरी गुणवन्ती उसे हम हर लेजांय हैं यह सुग्रीव के चमर ग्राहिणी चेरी होयगी सो मन्दोदरी प्रांखों से आंसू डारती भई और विलाप करने लगी रावण के पायन में प्रवेश करे कभी भुजों में प्रवेश करे और भरतार सों कहती भई हे नाथ मेरी रक्षा करो ऐसी दशा मेरी कहां न देखो हो तुम क्या और ही होय गए तुम रावण हो अक औरही हो अहो जैसी निरग्रन्थ मुनिकी वीतरागता होय तैसी तुम वीतरागता पकड़ी सो ऐसे दुख में यह अवस्था क्या धिक्कार तुम्हारे बलको जो इस पापी का सिर खडग सो न काटो तुम महा बलवान चांद सूर्य समान पुरुषोंका पराभव न सहो सो ऐसे रंक का कैसे सहो हे लंकेश्वर ध्यान में चित्त लगाया न काहकी सुनो न देखो अर्घ पर्यकासन घर बैठे अहंकार तज दिया जैसा सुमेरु का शिखर अचल होय तैसे अचल होय तिष्ठे सर्व इन्द्रियों की क्रिया तजी विद्या के आरोधन में तत्पर निश्चल शरीर महा धीर ऐसे तिष्ठे हो मानों काष्ठ के हो अथवा चित्राम के होजैसे राम सीता को चिन्तवें तैसे तुम विद्या को चितवो हो स्थिरता से सुमेरु के तुल्य भए हो जब इस भान्ति मन्दोदरी रावण से कहती भई उसही समय बहुरूपिणी विद्यादशों दिशा में द्योत करती जय जय कार शब्द उचारती रावण के समीप अाय ठाडी रही, और कहती भई हे देव प्राज्ञा विषे उद्यमी मैं तुम को सिद्ध भई मुझे आदेश देवो एकचक्री अर्धचक्री को टार जो तुम्हारी अाज्ञा से विमुख होय उसे वश करूं इस लोक में तुम्हारी प्राज्ञाकारणी हूं हम सारिखों की यही रीती है ||
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पुगण ॥४८॥
जो हम चक्रवर्तीयों से समर्थ नहीं जो तू कह तो सर्वदैत्यों को जीतू देवों को वश करूं जो तोसे अप्रिय होय उसे वशीभूत करू और विद्याधर तो मेरे तृण समान हैं यह विद्या के बचन सुन रावण योग पूर्ण से ज्योति का धारक उदार चेष्टा का धरण हारा शान्तिनाथ के चैत्यालय की प्रदक्षिणा करतो भया उस ही समय अंगद मन्दोदरी को छोड अाकाश गमन से राम के समीप पाया कैसा है अंगद सूर्य समान है तेज जिसका ॥
॥ इकहत्तरिमा पर्व सम्पूणम् ॥ ___ अथानन्तर रावणकी अट्ठारह हजारस्त्री रावणके पास एक साथ सर्व ही रुदन करतीभई सुन्दर हैं दर्शन जिन के हे स्वामिन् सर्व विद्याधरों के अधीश तुम हमारे प्रभु सो तुम के होते सन्ते मूर्ख अंगद ने
आयकर हमारा अपमान किया तुम परम तेजके धारक सूर्य समान सो ध्यानारूदथे और विद्याधर अाज्ञा समान, सो तुम्हारे मूह अगिला छोहरा सुग्रीव का पुत्र पापो हम को उपद्रव करे, सुन कर तिनके वचन रावण सब की दिलासा करता भया और कहता भया हे प्रिये! वह पापी ऐसी चेष्टा करे है सो मृत्यु के पाश से बंधा है तुम दुख तजो जैसे सदा आनन्द रूप रहो हो उसी भान्ति रहो में सुग्रीव को निग्रीव कहिए मस्तक रहित भूमि पर प्रभात ही करूंगा और वे दोनों भाई राम लक्ष्मण भूमिगोचरी कीट समान हैंतिन पर क्या कोप, ये दुष्टविद्याधर सब इन पै भेले भए हैं तिन का क्षय करूंगा, हे पिये मेरी भोंह टेढी करनेही में शत्रु विलाय जाय और अब तो बहुरूपणी महाविद्या सिद्धभई मोसे शत्रु कहां जी इस भांति
सर्व स्त्रियों को महा धीर्य बंधाय मन में जानता भया में शत्रु हते भगवानके मंदिर से व.हिर निकसा | नाना प्रकार के वादित्र बाजते भए गीत नृत्य होते भए रावण का अभिषेक भया कामदेव समान |
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पदा है रूप जिसका स्वर्ग रत्नों के कलशों से स्त्री स्नान करावती भई कैसी हैं स्त्री कांति रूप चांदनीसे पुराण मंडित है शरीर जिनका चंद्रमा समान वदन और सुफेद ममियों के कलशों से स्नान करावें सो
अद्भुत ज्योति भासती भई और कई एक स्त्री कमल समान कांति को घरें मानों सांझ फूलरही है और उगते सूर्य समान सुवर्ण के कलश तिनसे स्नान करावें सो मानों सांझ ही जल बरसे हैं और कई एक स्त्री हरित मणि के कलशो से स्नान कगवती अतिहर्ष की भरी शामें हैं मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हैं कमल पत्र हैं कलशों के मुख और कैयक केलेके गोभ समान कोमल महासुगंध शरीर जिन पर । भ्रमर गंजार करे हैं वे नानाप्रकार के सुगन्ध उबटना से रावणको नाना प्रकार के रत्नों कर जड़ित सिंहा
सन पर स्नान करावतो भई सो रावण ने स्नान कर आभषण पहिरे महा सावधान भावों कर पर्ण | शांतिनाथ के मन्दिर में गया वहां अरहन्तदेव की पूजा कर स्तुति करताभया बारम्बार नमस्कार करता ।
भया फिर भोजनशालामें आया चार प्रकारका उत्तम ग्राहार किया प्रशन पान स्वाद्य खाद्य फिर भोजन कर विद्याकी परख निमित्त कोड़ा भमि में गया वह्यं विद्यासे अनेक रूप किये नानाप्रकारके अद्भुत कम् विद्याधरों से बनें सो बहुरूपिणी विद्यासे कीए अपने हाथकी घात कर भूकम्पः किया राम के कटक में कपियोंको ऐसा भय उपजा मानो मृत्यु आई और रावणको मन्त्रो कहते भए हे नाथ तम टार राघवका जोतनहारा और नहीं राम महा योधा है और क्राधान होवें तब क्या कहना, सो उसके सन्मुख तुम ही प्रावो और कोई रणमें रामके सन्मुख भावनेको समर्थ नहीं ।
अथानन्तर रावणने बहुरूपिणी विद्या से मायामई कटक बनाया और आप उद्यान में जहां सीता
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पुराण 1940 m
तिष्ठे वहां गया मन्त्रियों से मण्डित जैसे देवों से संयुक्त इन्द्र होय, सो सर्य समान कांतिकर युक्त श्रावता भया तब उसको आवता देख विद्याधरी सीता सों कहती भई हे शुभे महा ज्योतिबन्त रावण पुष्पक विमान से उतर कर पाया जैसे ग्रीपम ऋतु में सूर्य की किरण से अातापको पाता गजेन्द्र सरोवरी के भोर अावे तैसे कामरूप अग्नि से ताप रूप भया श्रावे है यह प्रमद नामो उद्यान पुष्पों की शोभासे शोभित जहां भ्रमर गुजार करे हैं तब सीता बहुपिणी विद्याकर संयुक्त सवयको देख कर भयभीतभई मनमें विचारे है इसके बलका पार नहीं सो राम लक्षमण इसको धीरे घोरे जीतेंगे में मन्दभागिनी समको अथवा लक्षमण को अथवा अपने भाई भामंडलको मत हना सुन यह विचार कर ब्याकुल है चित्त जिसका कांपती चिन्ता रूप तिष्ठे है वहां रावण आया सो कहताभया हे देवी में पापी ने कपट करतुझे हरासो यह बात क्षत्री कुलमें उत्पन्न भए हैं जे धीर अति वीर तिनको सर्वथा उचित नहीं परन्तु धर्मकी गति ऐसी है मोहकर्म बलवान है और मैं पूर्व अनन्तवीर्य स्वामीके समीप ब्रत लिया था कि जो परनारी मुझे न इच्छे उसे मैं न हूं उर्वशी रंभा अथवा और मनोहर होय तो भी मेरे प्रयोजन नहीं यह प्रतिज्ञा पालते हुए मैं तेरी कृपाही की अभिलाषा करी परन्तु बलात्कार रमी नहीं हे जगत विषे उत्तम सुन्दरी अब मेरी भुजों कर चलाए जे बाण तिनसे तेरे अवलम्बन रामलक्षमण भिदे ही जान और तू मेरे संग पुष्पक विमानमें बैठी श्रानन्दसे बिहार कर मुमरुके शिखर चैत्य वृक्ष अनेक बन उपबन नदी सरोवर अवलोकन करती बिहारकर तब सीता दोनों हाथ कानोंपर धर गद्गद् बाणीसेदीन शब्द कहतीभई हे दशानन तू बडे कुल विषे उपजाहै तो यह करियो जो कदाचित संग्राममें तेरे और मेरे ।
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पा || बल्लभके शस्त्र प्रहारहोय तो पहिले यह संदेशा कहे बगैर मेरे कंथको मत हतियोंयह कहियो हे पद्म भामंडल usyu की बहिन ने तुमको यह कहा है जो तुम्हारे वियोगसे महाशोक के भारकर महा दुःखी हूं मेरे प्राण
तुम्हारे जीवे ही तक, मेरी दशा यह भई है जैसे पवनकी हती दीपक की शिखा हे गजर्षि दशरथ के पुत्र जनककी पुत्री ने तुमको बारम्बार स्तुतिकर यह कही है तुम्हारे दर्शनकी अभिलाषाकर यह प्राण टिक रहे हैं ऐसा कहकर मूर्छितहोय भूमिमें पडी जैसे माते हाथीसे भग्न करी कल्प वृक्ष की बेल गिर पडे यह अवस्था महासतीकी देख रावणका मन कोमल भया परम दुःखीभया यह चिन्ता करताभया अहो कोंकेयोगकर इनका निःसंदेह स्नेह है इनके स्नेहकाचयनहीं और धिक्कारमोको मैं अतिअयोग्य कार्य किया जो ऐसे स्नहेवान युगलका वियोग किया पापाचारी महानीच जन समान में निकारण अपयशरूप मलसे लिप्तभयाशुद्ध चन्द्रमासमान गोत्र हमारा में मलिन किया मेरे समान दुरात्मामेरे बंश में न भया ऐसा कार्य काहूने न किया सो मैंने किया जे पुरुषों में इन्द्र हैं वे नारीको तुच्छ गिने । हैं यह स्त्री साक्षात विषफल तुल्य है क्लेशकी उत्पत्तिका स्थानक सर्पके मस्तककी मणि समान और । महा मोहका कारण प्रथमतो स्त्री मात्रही निषिद्ध हैं और पर स्त्रीकी क्या बात सर्वथा त्याज्यही हैं पर
स्त्री नदी समान कुटिल महा भयंकर धर्म अर्थ की नाश करणहारी सदा सन्तों को त्याज्यही हैं मैं | महा पापकी खान अब तक यह सीता मुझे देवांगनासे भी अति प्रिय भासती थी सो अब विषके कुम्भ | तुल्य भासे है यह तो केवल राम अनुरागिनी है अवलग यह नइच्छती थी परन्तु मेरे अभिलाषा थी अब
जीर्ण तृणवत भासे है यहतो केवल रामसे तन्मय है मोसे कदाचित न मिले मेग भाई महा पण्डित
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पुराण ॥१२॥
पद्म विभीषण सब जानताथा सो मुझे बहुत समझाया मेरामन विकारको प्राप्तभया सोन मानी उससे द्वेष
किया जब विभीषण के बचनों से मैत्रीभाव करता तो नीके था अब महा युद्ध भया अनेक हतेगए अब कैसो मित्रता यह मित्रता सुभटों को योग्य नहीं और युद्ध करके फिर दया पालनी यह बने नहीं ग्रहो में सामान्य मनुष्य की न्याई संकट में पड़ा हूं जो कदाचित् जानकी रामपैं पठावों तो लोग मुझे असमर्थ जानें और युद्ध करिये तो महा हिंसा होय को ऐसे हैं जिनके दया नहीं केवल ऋरता रू पहें भी काल क्षेपकरें हैं और कईएक दयावान हैं संसार कार्यसे रहित हैं वे सुखसे जीव हैं में मानी युद्धाभिलाषी और कछु करुणाभाव नहीं सो हम सारिखे महा दुखी हैं और रामके सिंहवाहन और लक्ष्मण के गरुड़ बाहन विद्या सो इनकर महा उद्योत हैं सो इनको शस्त्र रहित करूं और जीवते पकड़ फिर बहुत धन और सीता दतो मेही बड़ो कीर्ति होय और मुझे पाप न होय यह न्याय है इसलिये यही करूं ऐसी मन में धार महा विभव संयुक्त रावण राजलोक में गया जैसे माता हाथी कमलों के बनमें जाय फिर अंगदने बहुत अनीति करी इस बात से अति क्रोध किया और लाल नेत्र होय पाए रावण हॉट डसता वचन कहताभया वह पापी सुग्रीव नहीं दुग्रीव है उसे निग्रीय कहिये मस्त करहित करूंगा उसके पुत्र अंगद सहित चन्द्रहास षड्ग कर दोय ट्रक करूंगा और तमो मण्डल को लोग भामण्डल कहें सो वह महा दुष्ट है उस दृढ़ बंधन से बांध लोह के मुदगरों से कट मारूंगा और हनुमान को तीक्षण करोत की धार स काठ क युगल में बान्ध विहराऊंगा वह महा अनीति हैं एक राम न्याय मार्गी है उसे छोडूंगा और समस्त अन्याय मार्गी | हैं तिनको शस्त्रों से चूरडारूंगा ऐसा विचार कर रावण तिष्ठा । और उत्पात सैकड़ों होने लगे सूर्य का
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पुराण
मण्डल अायुध समान तीक्षण दृष्टि पड़ा और पूणमासीका चन्द्रमा अस्त होय गया श्रासन पर भूकम्प भया, दशों दिशा कंपायमान भई उल्कापात भए शगाली (गीदड़ी)विरसशब्द बोलती भई तुरंग नाड हिलाय विरस विरूप हींसतेभए, हाथी रूक्ष शब्द करतेभए सूण्ड से धरती कूटते भए, यक्षों की मर्ति के अश्रपात पड़े बृक्षमल से गिर पड़े सूर्य के सन्मुख काग कटक शब्द करतेभए दीले पक्ष किये महा व्याकुल भए.
और सरोवर जलकर भरे थे वे शोषको प्राप्त भए और गिरियों के शिखर गिरपडे और रुधिरकी वर्षा भई थोडेही दिनमें जानिए है लंकेश्वर की मृत्यु होय ऐसे अपशकुन और प्रकार नहीं जब पुण्यक्षीण होय तब इन्द्र भी न बचें पुरुष में पौरुष पुण्य के उदय कर होय है जो कछू प्राप्त होना होय सोई पाइये है हीन अधिक नहीं प्राणीयों के शुरवीरता सुकृत के वल कर है देखो रावण नीति शस्त्र के विषे प्रवीण समस्त लौकिक नीति रीति जाने जैन ब्याकरण का पाठी महा गुणोंसे मंडित सो कर्मों से प्रेरा हुवा अनीति मोर्ग को प्राप्त भया मढ़ बुद्धि भया लोक में मरण उपरांत कोई दुःख नहीं सो इसको अत्यन्त गर्व कर विचार नहीं नक्षत्रोंके बलसे रहित और ग्रह सबही कराये सो यह अविवेकी रण क्षेत्रका अभिलाषी होताभया प्रताप के भंगका है भय जिसको और महा शूर वीरता के रससे युक्त यद्यपि अनेक शास्त्रों का अभ्यास किया है तथापि युक्त अयुक्त को न देखे. गौतम स्वोमी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे मगधा धिपति रावण महा मानी अपने मनमें विचारे है सो सुन सुग्रीव भामण्डलादिक समस्त को जीत और
कुम्भकरण इन्द्रजीत मेघनादको छुड़ाय लंकामें लाऊंगा फिर बोनखशियोंका वंश और भामंडलकाममंडल | से पराभवकरूंगा और भूमिगोचरियोंको भमिमें न रहने दूंगा और शुद्ध विद्याधरों को धरा में थागा
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पद्म
तब तीनजोक के नाथ तीर्थ कर देव और चक्रायुध बलभद्र नारायण हम सारिणे विद्याधरों के कुलही में उपजेंगे ऐसा वृथा विचार करता भया हे मगधेश्वर जिस मनुष्यने जैसे संचित कर्म किए होंय तैसाही फल भोगवे ऐसे न होय तो शास्त्रोंके पाठी कैसे भूलें शास्त्र हैं सो सूर्य समान हैं उसके प्रकाश होते अन्धकार कैसे रहे परन्तु जे घूघ समान मनुष्यहैं तिनको प्रकाश न होय ॥ इतिबहत्तरमा पर्वसंपूर्णम्
अथानन्तर दूजे दिन प्रभातही रावण महा देदीप्यमान स्थान मंडप में तिष्ठा सूर्य के उदय होते हुए सभामें कबेर बरुणा ईशान यम सोम समान जे बडे २ राजा उन से सेवनीक जैसे देवोंसे मंडित
डित इन्द्र विराजे तैसे राजावों से मंडित सिंहासन पर विराजा परम कांतिको धरे जैसे ग्रहों से युक्त चन्द्रमा सोहे अत्यन्त सुगन्ध मनोग्य बस्त्र पुष्पमाला और महा मनोहर गज मोतियों के हार तिनसे शोभे है उरस्थल जिसका महा सौभाग्य रूप सौम्यदर्शन सभा को देखकर चिंता करता भया जो भाई कुम्भकर्ण इन्द्र
जीत मेघनाद यह नहीं दीखे हैं सो उन विना यह सभा सोह नहीं और पुरुष कुमुदरूप बहुत हैं पर | वे पुरुष कमल रूप नहीं सो यद्यपि रावण महा रूपवान सुन्दर बदन है और फूल रहेहैं नेत्र कमल जिसके महा मनोग्य तथापि पुत्र भाई की चिंता से कुमलाया बदन नजर श्रावता भया और महाक्रोध स्वरूप कुटिल है,भृकुटी जिसकी मानोंक्रोधका भरा आशीविष सर्पही है महाभयंकर होंठ डसे महा विकराल स्वरूप मंत्री देखकर डरे आज ऐसा कौन से कोप है यह व्याकुलता भई तब हाथजोड़ासीसभूमि में लगाय राजामय उग्र शुक लोकात सारण इत्यादि धरतीकी ओर निरषते चलायमान कुण्डल जिनके विनती करते भए हे नाथ तुम्हारे निकटवर्ती योधा सवही यह प्रार्थना करे हैं प्रसन्न होवो और कैलाश के |
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पुराण 19५५॥
पद्म शिखर तुल्य ऊंचे महल जिनके मणियों की भीति मणियोंके झरोखा तिनमें तिष्ठती भ्रमररूप हैं नेत्र ।
जिनकेऐसी सब राणियों सहित मंदोदरी सो इसे देखती भई कैसा देखा लाल हैं नेत्र जिसके प्रतापका भरा उसे देखकर मोहित भयो मन जिसका फिर रावण उठकर प्रायुधशालामें गया कैसी है आयुधशाला। अनेक दिव्यशस्त्र और सामान्य शस्त्र तिनसे भरी अमोषवाण और चक्रादिक अमोघ रत्न कर भरी जैसे बजशाला में इन्द्रजाय जिससमय रावण आयुधशाला में गया उस समय अपसकुन भए प्रथम ही छींक भई सो शकुनशास्त्र में पूर्वदिशा को छींक होय तो मृत्यु और अग्नि कोण में शोक दक्षिण में हानि नैऋतमें शुभ पश्चिममें मिष्ट आहार वायुकोणमें सर्वसंपदा उत्तरविषेकलह ईशान विषेषनागम
आकाश विषे सर्व संहार पाताल विषे सर्व संपदा ये दशों दिशा विषे छींकके फल कहे सोगवणको मृतुकी छींक भई फिर आगे मार्ग रोके महा नाग निरखा और हा शब्द ही शब्द धिक शब्द कहां जाय है यह वचन होते भए और पवनकर छत्रके वैडूर्य मणि का दण्डभन्न भया और उतरासन गिर पड़ा काग दाहिनावोला इत्यादि और भी अपशकुनभए वे युद्ध में निबारते भए बचनकर कर्मकर निवारते भए जे नानाप्रकार के शकुन शास्त्र विषे प्रवीण पुरुषथे वे अत्यन्त आकुल भए और मंदोदरी शुकसारा इत्यादि बडे बडे मंत्रियों से कहती भई तुम स्वामी को कल्याण की बात क्यों न कहो हो अब तक क्या अपनी और उनकी चेष्टा न देखी कुम्भकर्ग इन्द्रजीत मेघनाद से बंधनमें आए वे लोकपाल समान महा तेजके धारक अद्भुत कार्यके करणहारे तब नमस्कार कर मंत्री मंदोदरी से कहते भए हे स्वामिनी रावण महामानी यमराजसा क्रूर प्रापही आप प्रधानहै ऐसा इस लोकमें कोई नहीं जिसके बचन रावण माने
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- पुराण १७५६.
जो कुछ होनहारहै उसे प्रमाण बुद्धि उपजे है बुद्धि कर्मानुसारणी है सो इंद्रादिककर तथा देवोंके समूह कर और भांति न होय सम्पूर्ण न्यायशास्त्र और धर्म शास्त्र तुम्हारा पति सब जाने है परन्तु मोह कर उन्मत्तभयाहै हम बहुत प्रकार कहा सो काहू प्रकार माने नहीं जो हठ पकड़ाहै सो छाड़े नहीं जैसे वर्षाकालके समागम विष महा प्रवाहकर संयुक्त जो नदी उसका तिरना कठिनहे तैसे कर्मोंका प्रेरा जो जीव उसका सम्बोधना कठिन है यद्यपि स्वामीका स्वभाव उसका दुर्निवारहै तथापि तुम्हारा कहा करे तो करे सो तुम हितकी बात कहो इसमें दोष नहों यह मंत्रियोंने कही तब पटराणी साक्षात लक्ष्मीसमान निर्मल है चित्त जिसका सो कम्पायमान पतिके समीप जायवेको उद्यमी भई महा निर्मल जल समान बस्त्र पहिरे जैसे रति कामके समीप जाय तैसे चली सिरपर छत्र फिरे है अनेक सहेली चमर द्वारे हैं जैसे अनेक देवियोंकर युक्त इन्द्राणी इन्द्रपै जाय तैसे यह सुन्दरबदनकी धरणहारी पतिपै गई निश्वास नाखती पांय डिगते शिथिलहोय गई कटि मेखला जिसकी भरतारके कार्य विषे सावधान अनुराग की भरी उसे स्नेहकी दृष्टिकर देखती भई आपका चित्त शस्त्रोंमें और बक्तरमें तिनको आदरसे स्पर्शे है सो मन्दोदरीसे कहतेभए हे मनोहरे हंसनी समान चालकी चलनहारी हे देवी ऐसा क्या प्रयोजन है जो तुम शीघ्रतासे आवोहो हे प्रिय मेरा मन काहेकोहरो हो जैसे स्वप्न विषे निधान तब वह पतिव्रता पूर्ण चन्द्रमासमान है बदन जिसका फूले कमलसे नेत्र स्वतः स्वभाव उत्तम चेष्टाकी घरणहारी मनोहर । जे कटाक्ष वेई भए बाण सो पतिकी ओर चलावनहारी,महा विचक्षण मदनका निवासहै अंग जिस का महामधुर शब्दकी बोलनहारी स्वर्णके कुम्भसमान हैं स्तन जिस के तिनके भार कर नयगया है उदर
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19५॥
जिसका दाडिमके बीज समान दांत मूंगासमान लालधर अत्यन्त सुकुमार अतिसुन्दरी भरतार की। पुराण | कृपा भूमि सो नाथको प्रणामकर कहती भई हे देव मुझे भतार की भीख देवो श्राप महादयावन्त
धर्मात्माओंसे अधिक स्नेहवन्त मैं तुम्हारे वियोगरूपनदी विषे डूबूहू सो महाराज मुझे निकासो कैसी है नदी दुःखरूप जलकी भरी संकल्प विकल्परूप लहरकर पूर्गहै, हेमहाबुद्धे कुटुम्बरूप श्राकाशविषेसूर्यसमान प्रकाशके कर्ता एक मेरी बिनती सुनों तुम्हाग कुलरूप कमलोंका वन महा विस्तार्ण प्रलय हुआ चायैह सो क्यों न राखो हे प्रभो तुम मुझे पटगणी का पद दिया सो मेरे कठोरवचनोंकी छमा करो जे अपनेहित हैं तिनका बचन यौषध समान ग्राधहै परिणाम सुखदाई विरोध रहित स्वभावरूप आनन्दकारी है में यह कहूं हूं तुम काहे को संदेहकी तुला चढ़ो हो यह तुला चढिवे की नहीं काहेको श्राप संताप करो हो और हम सब को संतापरूप करो हो अबभी क्या गया तुम्हारा सब राज तुम सकल पृथिवी के स्वामी और तुम्हारे भाई पुत्रों को बुलाय लेहु तुम अपना चित्त कुमार्ग से निवारो अपनामन वश करो तुम्हारा मनोरथ अत्यन्त अकार्य विषेप्रबरता है सो इंद्रीय रूप तरल तुरंगों को विवेक रूप दृढ़ लगामकर वश करो इंदियों के अर्थ कुमार्ग विष मनको कौन प्राप्त करे तुम अपबाद का देन हाग जो उद्यम उस विषे कहा प्रवर्ते जैसे अष्टापद अपनी छाया कूपविषे देख क्रोध कर कृप विषे पड़े तैसे तुम अप ही क्लेरा उपजाय आपदामें पड़ो हो, यह क्लेश का कारणजोअपयशरूप वृक्ष उसे तज कर सुख से तिष्ठो केलि के थंभ समान असार यह विषय उसे कहां चाहो हो यह तुम्हारा कुल समुद्रसमान गंभीर प्रशंसा योग्य उसे सोभित करो यह भूमि गोचरीकी स्त्रा बड़े कुलवन्तों को सिरवायु सनान है उसे तजो हेस्वामी जे सामंत
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७५८
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पन सामंत सों युद्ध करे हैं वे मन विषे यह निश्चय करे हैं हम मरेंगे अथवा उनको मारेंगे हे नाथ तुम कौन
अर्थ मरो हो पराई नारीकेनारके अर्थक्यामरणा इस मरिणे में यशनहीं और उनको मारो तुम्हारीजीत होय तोभों यश नहीं क्षत्री गरे हैं यश के अर्थ इसलिये सीता सम्बन्धी हठ को छोड़ो और जो बड़े बड़े व्रत हैं तिन की महिमा तो क्या कहनी एक यह परदारा परित्याग ही पुरुष के होय तो दोनों जन्म सुधरें शीलवन्त पुरुष भवसागर तिरें जो सर्वथा स्त्री का त्याग करेंसोतो अतिश्रेष्ठही हैं काजल समान कालिमाकी उपजावन । हारी यह परनारी तिनविषे जे लोलुपी उनविषे मेरु समान गुण होंय तो भी तृष्ण समान लघु होय जाय जो । चक्रर्वी का पुत्र होय और देव जिसकी पत्नहोय और परस्त्रा के संगरूप कीत्रविषेड्वे तो महा अपयशको प्राप्त होय जो महमति परस्त्री से रति करे है सो पापीग्राशीविष भुजंगनी से रमे है, तुम्हारा कुल अत्यन्त निर्मल सोअपयशकर मलिन मतकरो, दुर्बुद्धितजोजेमा बलवान्थे, औरदूसरोंको निर्वलजानते थेअर्ककीर्ति प्रशन घोषादिक अनेकनाशको प्राप्त हुए सोहे सुमुख तुम कहा नसुने ये बचन मन्दोदरी के सुनरावण कमल नयन कारी घटा समान है वर्णजिसका मलियागिरचन्दन कर लिप्त मन्दोदरीसे कहता भया हे कांते तू काहे को कायर भई मैं अर्ककीर्ति नहीं जो जय कुमार से हारा और में अशनघोष नहीं जो अमिततेज से हारा
और और भी नहीं में दशमुख हूं तू काहेको कायरताकी बातकहे है में शत्रुरूपबृत्तोंके समूहको दोवानल रूपहूं सीता कदाचित् नदूं, हे मन्दमानसेतू भयमत करे, इस कथा कर तुझे क्या, तोको सीता की रक्षा सौंपी है सो रक्षा झली भांतिकर और जो रक्षा करिव को समर्थनहींतो शीघ मोहि सौंप देवो, तबमन्दोदरी कहती भई तुम उससे रति सुख बांछो हो इसलिये यह कहो हो मोहि सौंप देवो सोयहनिर्लज्जता की बात
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पुराण 59५२॥
कुलवन्तों को उचित नहीं. फिर कहतीभई तुमने सीता का क्या महात्म्य देखाजो उसे बाम्बारखांछो हो वह ऐसी गुणवन्ती नहीं ज्ञाता नहीं,रूपवंतियों का तिलकनहीं,कलाविषेप्रवीणनहीं,मनमोहनीनहीं पतिके छांदेचलने वारीनहीं,उस सहित रतिविषे बुद्धि करो होसो हे कंत यह क्याबार्ता अपनी लघुता होयहै सो तुम नहीं जानोहो में अपनेमुख अपनी प्रशंसा क्या करू अपने मुख अपनेगुण कहे गुणोंकी गौणता होयहै. और पराए मुख सुने प्रशंसा होय है, इसलिये में क्या कहूं तुम सब नीके जानो हो विचारी सीता कहां लक्ष्मी भी मेरे तुल्य नहीं इसलिये सीता की अभिलाषा तजो मेरा निरादर कर तुम भूमिगोचरणी को इच्छो हो सो मन्दमति हो जैसे बालबुद्धि वैडूर्य मणि को तज और कांच को इच्छे उसका कछ दिव्यरूप नहीं तुम्हारे मन में क्या रुंबीयह ग्राम्यजनको नारो समान अल्प मति उसकी क्या अभिलाषा और मुझे आज्ञा देवो सोई रूपधरूं तुम्हारे चितकी हरणहारी में लक्ष्मीका रूपधरूं और आज्ञा करोतो शची इन्द्राणीका रूपधरूं कहो ता रतिका रूपधरू हेदेव तुम इच्छा करो सोई रूपकरूं यहवार्ता मंदोदराकी सुन रावणने नीचामुख किया और लज्जावान भया फिर मंदोदरी कहतो भई तुम परस्त्री आसक्त होय अपनी आत्मा लघुकिया विषय रूप आमिष को आसक्ती है जिसके सो पापका भाजन है धिक्कारहै ऐसी तुद्र चेष्टा को यहवचन सुन रापण मंदोदरी से कहता मया हे चन्द्रबदनी कमल लोचनी तुम यह कहीजोकहो जैसा रूप फिर धरूं सो औरोंके रूप से तुम्हारा रूप क्या घटतीहै तुम्हारा स्वतः स्भावही रूप मुझे अति बल्लभहें अहो उत्तम मेरे और स्त्रियों कर कहां तब हर्षित चित्त होय कहती भई हे देव सूर्य को दीपका उद्योत कहां दिखाइये, मै जोहितके वचन आप को कहे सो औरोको पूंछ देखो में स्त्री हूं मेरेमें ऐती बुद्धि नहीं शास्त्र में यह कही है जो
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॥७६०॥
पद्म | धनी सबही नय जाने हैं परन्तु दैव योग थकी प्रमादरूपभया होय तो जे हितु वे समझा जैसे विष्णु
कुमार स्वामी को विक्रियाऋद्धि का विस्मरण भया तो औरों के कहे कर जाना, यह पुरुष यह स्त्री ऐसा विकल्प मन्द बुद्धियोंके होय है जे बुद्धिमान हैं वे हितकारी वचन सबही का मानलेय, अापका कृपाभाव मो ऊपर है तो मैं कहूं हूं तुम पर स्त्री का प्रेम तजो में जानकी को लेकर रामपै जाऊं और राम को तुम्हारे पास ल्याऊं, और कुम्भकर्ण इन्द्रजीत मेघनाद को लाऊं अनेक जीवों की हिंसा कर क्या ऐसे वचन मन्दोदरी ने कहे तबरावण अतिक्रोधकर कहताभया शीघही जावो जावो जहांतेरा मुख नदेखू तहां जावो अहो तू श्राप को बृथा पंडित माने है आपकी ऊंचता तज परपक्ष की प्रशंसा में प्रवरती तू दीनचित्त है योधावों की माता तेरे इन्द्रजीत मेघनाद कैसे पुत्र और मेरी पटराणी राजामय की पुत्री तोमें एती कायरता कहांसे
आई ऐसाकहा तवमन्दोदरी बोली हेपतिसुनो जोज्ञानियोंके मुखबलभद्र नारायणप्रतिनारायणका जन्मसुनिये है पहिला वलभद्र विजयनारायण त्रिपृष्ठ प्रतिनारायण अश्वग्रीव, दूजा बलभद्र अचल नारायण द्विपृष्ठ प्रतिहरि तारक इसभाँति अबतक सात बलभद्र नाराकण होय चुके सो इनके शत्रु प्रतिनारायण इन्हों ने हते अब तुम्हारे समय यह बलभद्र नारायण भए हैं और तुम प्रतिवासुदेव हो आगे प्रतियासुदेव हठ कर हतेगए तैसे तुम नाश को इच्छो हो जै बुद्धिमान हैं तिनको यही कार्य करणा जो या लोक परलोक में सुखहोय और दुःख के अंकुरे की उत्पति न होयसो करनी यहजीव चिरकाल विषय से तृप्त न भया तीन
लोक में ऐसा कौन है जो विषयों से तृप्त होय तुम पाप कर मोहित भए हो सो वृथा है और उचित तो | यह है तुमने बहुतकाल भोग किए अब मुनिव्रतधरो अथवा श्रावगके व्रतधर दुखों का नाश करो अणुव्रत ।
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प रूप खड्गकर दीप्त है अंग जिसका नियम रूप क्षत्रकर शोभित सम्यक दर्शनरूप बक्तर पहिरे शील पुराण | रूपवजा कर शोभित अनित्यादि वारह भावना अथवा में भावना आदि चारतेई चन्दन तिनर चर्चित ॥७६१
है अंग जिसका और ज्ञानरूप धनुषको धरे वशक्रिया है इंद्रियों का वल जिसने, शुभध्यान और प्रताप कर युक्त मर्यादा रूप अंकुशकर संयक्त निश्चलरूप हाथीपर चढ़ा जिनभक्तिकी है महाभक्ति जिसक दुर्गतिरूप कुनदी सो महा कुटिल परमरूप है वेग जिसका अतिदुःसह सो पंडितों कर तिरिय है, उस तिरकर सुखी होवो और हिमवान् सुमेरु पर्वत में जिनालय को पूजते संते मेरे सहित ढाई दाप मं विहार कर अष्टादश सहस्र स्त्रियों के हस्त कमल पल्लव उनकर लडाया संता समेरु पर्वत के वन विषे | क्रीडा कर, और गंगाकेतट पर क्रोडाकर ओर और भी मनवांछित प्रदेशों में रमणीक क्षेत्रों में हे नरेन्द्र | सुख से विहार कर, इस युद्ध कर कछ प्रयोजन नहीं प्रसन्न होवो मेरा वचन मान कैसा है मेरा वचन, । सर्वथा सुख का कारण है यह लोकापवाद मतकरावो अपयशरूपसमुद्रमें काहेको ड्यो हो यह अपवाद | विष तुल्य महानिन्ध परम अनर्थ का कारण भला नहीं दुर्जन लोक सहज ही परनिन्दा करें सो ऐसी
बात सुनकर तो करेहीं करें. इसभांति के शुभ वचन कह यह महासती हाथ जोड़ पति का परम हित बांछित पतिके पायन पड़ी तव रावण मन्दोदरी को उठाय कर कहता भया तु निःकारण क्यों भय को प्राप्त भई हे सुन्दरबदनी मुझ से अधिक इस संसार में कोई नहीं. तू स्त्रीपर्याय के स्वभाव से बृथा काहे को भय करे है तैने कही जो यह बलदेव नारायण हैं सो नाम नारायण और नामवलदेव भया तो क्या, नामभएकार्य की सिद्धिनहीं, नाम नाहरभया तो क्या नाहरके पराक्रमभए नाहर होय कोई मनुष्य
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पद्म चुराया
॥ १६२॥
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सिद्ध नाम कहाया तो क्या मिद्ध भया, हे कांते तू कहा कायरता की वार्ता करे रथनुपुर का राजा इन्द्र कहावता हो क्या इन्द्र भया वैसे हम नारायण नहीं इस भांनि रावण प्रतिनारायण ऐसे प्रबल वचन स्त्री को कह महा प्रतापी क्रीड़ाभवन में मन्दोदरी सहित गया जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित क्रीड गृहमें जाय मां के समयय सांझ फली. सूर्य अस्त समय किरण संकोचने लगा जैसे संयमी कपायों को संकोचे सूर्यासक्त होय अस्तको प्राप्त भया कमल मुद्रित भए चकवा चकवी वियोग के भय कर दीन वचन ते भए मानो सूर्य को बलावे हैं और सूर्यके अस्त होयवेकर ग्रह नक्षत्रोंकी सेना द्याकाश में विस्तरी मानों चन्द्रमाने पठाई रात्रि के समय रत्नद्वीपों का उद्योत भया दीपों की प्रभा कर लंका नगरी ऐसी शोभती भइ मानों सुमेरु की शिखाही है, कोई वल्लभा वल्लभ से मिलकर ऐसे कहती भई एक रात्रितो तुम सहित व्यतीत करगे फिर देखए क्या होय और कोई एक प्रिया नाना प्रकारके पुष्पों की सुगंधता के मकरन्द कर उन्मत्त भई स्वामी के अंग में मानो महा कोमल पुष्पों की वृष्टि ही पड़ी कोई नारी कमल तुल्य हैं चरण जिसके और कठिन हैं कुत्र जिसके महा सुन्दरशरीर की धरणहारी सुन्दरपति के समीप गई, और कोई सुन्दरी ग्राभूषणों को पहली ऐसी शोभती भई मानों स्वर्ण रत्नों का कृतार्थ करे है॥ भावार्थ - उस समान ज्योति रत्न स्वणों में नहीं । रात्रि समय विद्याकर विद्याधरी मन वांछित क्रीड़ा करते भए घर घर में भोग भूमिकी सी रचना होती भई महा सुन्दर गीत और बीए बांसुरियोंका शब्द तिन कलंका हर्षित भई मानो वचनालापही करे है और ताम्बुल सुगन्ध मूल्यादिक भोग और स्त्री यादि उपभोग सो भोगोपभोगोंकर लोग देवोंकी न्याई रमतेभए और कैएक उन्मत्तभई स्त्रियोंको नाना प्रकार
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19३॥
रमावतेभये और कईयक नारी अपने बदन की प्रतिविश्व रत्नोंकी भीतिमें देखकर जानतीभई कि कोई दूजी स्त्री मन्दिरमें पाई है सो ईर्पा कर नील कराल से पति को ताडना करती भई, स्त्रियों के मुख की। सुगन्धता कर केसर सुगन्ध होय गया और कैयक योगकर नारियों के नेत्र लाल होय गए और कोई यक नायिका नवोढ़ा थी और प्रीतमने अमल खवाय उन्मत्तकारी सो मन्मथ कर्ममें प्रवीण प्रौढ़ाके भावको प्राप्तभई लज्जा रूप सखीको दूरकर उन्मत्ततारूप सखीने क्रीड़ा में अत्यन्त तत्परकरी और घमें हैं नेत्र जिसके और रसखलित, वचन जिसके स्त्री पुरुषोंकी चेष्टा उन्मत्तताकर विकटरूप होतीभई नर नारियोंके अधर मंगा समान शोभायमास दीखते भये, नर नारी मदोन्मत्त भये सो न कहनेकी बात कहते भये
और न करने का बात करतेभये लज्जा छुटगई चन्द्रमा के उदय कर मदनकी बृद्धि भई ऐसाही तो इन का योबन ऐसेहो सुन्दर मन्दिर और ऐसाहो अमल का जोर सो सबही उन्मत्तता चेष्टाका कारण प्राय । प्राप्त भया, ऐसी निशा में प्रभातमें होनहार है युद्ध जिनके सो संभोगका योग उत्सवरूप होता भया,
और राक्षसोंका इन्द्र सुन्दरहै चेष्टा जिसकी सो समस्तही राजन्लोकको रमावताभया बारम्बार मन्दोदरी से स्नेह जनावता भया इसका बदन रूपचन्द्र निरखते रावणके लोचन तुम्न न भये मन्दोदरी रावणसे कहती भई में एक क्षणमात्र भी तुमको न तजंगी हे मनोहर सदा तुम्हारे संगही रहूंगी जैसे बेल वाहवल के सर्वअंगसे लगी तैसे रहगी आप युद्ध में विजय कर वेगही आवो, में रत्नोंको चूर्ण कर चौंक पूरूंगी
और तुम्हारे अर्घपाद्य करूंगी प्रभुकी महामख पूजा कराऊंगी प्रेमकर कायरहै चित्त जिसका अत्यन्तप्रेम के वचन कहते निशा व्यतीतभई और कूकडा बोले नक्षत्रोंकी ज्योती मिटी संध्यालालभई और भगवान
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पराया
॥७६४॥
पद्म | के चैत्यालयों में महा मनोहर गीत ध्वनि होती भई और सूय्य लोक का लोचन उदय को सन्मुख भया !
अपनी किरणों कर सर्व दिशा विषे उद्योत करता सन्ता प्रलय काल के अग्नि मण्डल समान है प्राकार जिसका प्रभात समय भया तब सब रोणी पति को छोडती उदास भई, तब रावण ने सब को दिलासा करी गम्भीर वादित्र बाजे शंखों के शब्द भए, रावण की आज्ञा कर जे युद्ध विर्ष विचक्षण हैं महाभट महा अहंकार को घरते परम उद्धत अति हर्ष के भरे नगर से निकसे तुरंग हस्तीरथों पर चढे खड्ग धनूप गदा वरछी इत्यादि अनेक आयुधोंको धरे, जिन पर चमर दुरते छत्र फिरते, महा शोभायमान देवों जैसे स्वरूप बान महा प्रतापीविद्याधरों के अधिपति योधा शीघ्र कार्य के करण हारे श्रेष्ठ ऋद्धि के धारक युद्ध का उद्यमी भए, उस दिन नगर की स्त्री कमलनयनी करुणा भाव कर दुख रूप होती भई, सोतिन को निरखे दुर्जन का चित भी दयाल होय, कोई यक सुभट घर से युद्ध को निकसा और स्त्री लार लगी आवे हैं, उसे कहता भया हे मुग्धे घर जावो हम सुख से जाय हैं और कोई एक स्त्री भरतार चले हैं तिन को पीछे से जाय कहतीभई हे कन्त तुम्हारा उत्तरासन लेवो तब पति सन्मुखहोय लेते भए कैसी हैगनयनीपतिकमुख । देखने की है लालसा जिस के और कोई एक प्राणवल्लभा पति को दृष्टि से अगोचर होते संते सखिया । सहित मर्छा खायपडी, और कोई एक पति से पाली प्राय मौन गह सेज पर पडो, मानों काठ की पूतली ही है और कोई यक शरवीर श्रावक के व्रत का धारकपीठ पीछे अपनी स्त्री को देखताभया और आगे देवांग नाओं का दखताभया। भावार्थ । जे सामन्त अणुव्रत के धारक हैंवेदेवलोक के अधिकारी हैं। और जे सामन्त पहिल पूण मासी के चन्द्रमा समान सौम्यवदन थे वें युद्ध के आगमन विषे कालसमान कराकार हाय गए सिर पर टोप धरे वक्तर पहिरे शस्त्र लीए तेज भासते भए ।।
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पुराया
॥७६५॥
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__ अथानन्तर चतुरंग सेना संयुक्त धनुष छत्रादिक कर पूर्ण मारीच महा तेजको धरे युद्ध का अभिलाषी प्राय प्राप्त भया फिर विमलचन्द्र आया महाधनुष धारी और सुनन्द प्रानन्द नन्द इत्यादि हजारों राजा पाए सो विद्या कर निरमापित दिव्यस्थतिन पर चढे अग्नि कैसी प्रभा को धरे मानों अग्निकुमारदेव ही हैं कैयक तीक्ष्ण शस्त्रों कर सम्पूर्ण हिमवान पर्वत समान जे हाथी उनकर सब दिशावोंको पालादते हुए पाए जैसे विजुरीसे संयुक्त मेघमाला अावे और कैयक श्रेष्ठ तुरंगों पर चढ़े पांचों हथियारों कर संयुक्त शीघ्रही ज्योतिष लोकको उलंघ आवतेभए नाना प्रकारके बडे बडे बादित्र और तुरंगोंका हींसना गजोंका गर्जना पयादों के शब्द योधायोंके सिंहनाद बन्दीजनोंक जय जय शब्द और गुणी जनों के गीत वीर रसके भरे इत्यादि औरभी अनेक शब्द भले भए धरती प्रकाश शब्दायमानभए जैसे प्रलय कालके मेघपटल होवे तैसे निकसे मनुष्य हाथी घोडे स्थ पियादे परस्पर अत्यंत विभूति कर देदीप्यमान बडी भुजावों से बखतर पहिरे उतंग हैं उरस्थल जिनके विजयके अभिलाषी और पयादे खडगसम्हालें हैं महा चंचल आगे २ चले जाय हैं स्वामी के हर्ष उपजावनहारे तिनके समूहकर अाकाश पृथ्वी और सर्व दिशा व्याप्त भई ऐसे उपाय करते भी इस जीवके पूर्व कर्मका जैसा उदय है तैसाही होयह यह प्राणी अनेक चेष्टा करे है परन्तु अन्यथा न होय जैसा भवितव्य है तैसा ही होय है सूर्य भी और प्रकार करने समर्थ नहीं ॥ इति तिहत्तरवां पर्व पूर्ण भया ।
अथानन्तर लंकेश्वर मन्दोदरीसे कहताभया हे प्रिये नजानिये फिर तुम्हारा दर्शन होय वा न होय || तब मन्दोदरी कहती भई हे नाथ सदा वृद्धिको प्राप्त होवो शत्रुवोंको जीत शीघ्रही आय हमको देखोगे।
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पद्म
॥६६॥
और संग्रामसे जीत प्रावोगे ऐसा कहाऔर हजारां स्त्रियोंकर अवलोका संता राक्षसों का नाथ मंदिर से बाहिर गया महा विकटताको धरे विद्याकर निरमापा ऐंद्रीनामा रथ उसे देखताभया जिसके हजार हाथी जुमानों कारी घयका मेघही है वे हाथी मदोन्मत्त झरे हैं मद जिनके मोतियोंकी मालातिन कर पूर्ण महा घटाके नादकर युक्त ऐरावतसमान नानाप्रकारके रंगोंसे शोभित जिनका जीतना कठिन और विनयके धाम अत्यन गर्जनाकर शोभित ऐसे सोहते भए मानों कारी घटाके समूहहीं हैं मनोहर है प्रभा जिनकी ऐसे हाथियों के रथ चढा रावणा सोहताभया भुजबन्ध कर शोभायमान हैं भुजा जिसकी मानों साक्षात् इन्द्रही है विस्तीर्ण हैं नेत्र जिसके अनुपमहे श्राकार जिसका और तेजकर सकल लोकमें श्रेष्ठ १० हजार आप समान विद्याधर तिनके मंडलकर युक्तरणमें पाया सोवे महा बलवानदेवों सारिखे अभिप्रायके वेत्ता रावणको अाया देख मुग्रीव हनूमान क्रोधको प्राप्तभए और जब रावण चढा तब अत्यन्त अपशकनभए भयानक शब्दभए और आकाश विषे गृध्र भ्रमतेभए आछादित किया है सूर्यका प्रकाश जिन्होंने सोये तयके सूचक अपशकुनभए परंतु गवणके सुभट न मानतेभए युद्धको पाएही और श्रीरामचंद्र अपनी सेना विषे तिष्ठते सोलोकोंसे पूछतभए हे लोको इस नगरीके समीप यह कौन पर्वत है तब सुषेणादिक तो तत्कालही जवाब न देय सके और जांबूवादिक कहतेभए यह बहुरूपिणी विद्या से रचा पद्मनागनामा रथहै घनेयोंको मृत्युका कारण अंगदने नगरमें जायकर रावणको क्रोध उपजाया सो अब बहुरूपिणी विद्या सिद्धभई हमसे महाशत्रुता लिएहै सो तिनके बचन सुनकर लक्षमण सारथीसे कहताभया मेरा रथ शीघूही चलाय तब सारथीने रथ चलाया और जैसे समुद्र गाजे ऐसे वादित्र बाजे
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॥१६
॥
| वादित्रोंकेनाद सुनकर योधा विकटहै चेष्टा जिनकी लक्षमणके समीप पाए कोई एक रामकेकटकका
सुभर अपनी स्त्रीको कहताभया हे प्रिये शोकतज पीछे जावो मैं लंकेश्वरको जीत तुम्हारे समीप श्राऊंगा. इस भांति गर्वकर प्रचण्ड जे योधा वे अपनी अपनी स्त्रियों को धीर्य बंधाय अन्तःपुरसे निकसे परस्पर स्पर्धा करते वेगसे प्रेरे हैं वाहन स्थादिक जिन्होंने ऐसे महायोधा शस्त्रके धारक युद्धको उद्यमीभए भूत| स्वननामा विद्याधरोंका अधिपति महाहाथियोंके रथ चढा निकसा गम्भीर है शब्द जिसका इस विधि
और भी विद्याधरोंक अधिपति हर्ष सहित रामके सुभट क्रूर हैं श्राकार जिनके क्रोधायमान होय रावण के योधावोंसे जैसा समुद्र गाजे तैसे गाजते गंगाकी उतंग लहर समान उछलते युद्धके अभिलाषी भए रामलक्षमण डेरावोंसे निकसे कैसे हैं दोनों भाई पृथिवी में व्याप्त हैं अनेक यश जिनके कूर आकारको धरे सिंहोंके रथ चढ बपतर पहिरे महाबलवान उगते सूर्यसमान श्री राम शोभते भए और लक्षमण गरुडकी है ध्वजा जिसके और गरुडक रथ चढा कारी घटा समानहे रंग जिसका अपनी श्यामताकर श्यामकारी हैं दशदिशा जिमने मुकटको धरे कुण्डल पहिरे धनुष चढाय बखतर पहिरे बाण लिये जैसा सांझके समय अंजनगिरि सोहे तैसे शोभताभया । गौतमस्वामी कहे हैं । हे श्रेणिक बडे २ विद्याधर नाना प्रकार के वाहन और विमानोंपर चढे युद्ध करिबेको कटकसे निकसे जब श्रीराम चढे तब अनेक शुभशकुन अानंद के उपजावनहारे भए रामको चढा जान रावण शीघूही महा दावानल समान है श्राकार जिसका युद्धको उद्यमी भया दोनोंही कटकके योधा जे महासामंत तिनपर अाकाशस गंधर्व और अप्प्सरा पुष्पवृष्टि करती भई अंजनगिरिसे हाथी महाबतों के प्रेरे मदोन्मत चले पियादों कर ।
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19C
या | वेदे और सूर्यके स्थ समान रथ चञ्चल हैं तुरंग जिनके सारथीयों कर युक्त जिन पर महा योधा चढ़े युद्ध पुराण
कोप्रवर्ते,और धोड़ों पर चढ़े सामन्त गम्भीर हैं नाद जिनके परम तेजको धरे गाजते भए और अश्व हासत भए परम हर्पके भरे देदीप्यमान हैं आयुध जिनके और पयाद गर्बके भरे पृथिवी विषे उछलते भए खड्गपेट बरछी है हाथमें जिनके युद्धकी पृथिवी विषे प्रवेश करते भए परस्पर अस्पर्धा करे हैं दौड़े हैं हने हैं योधावोमें परस्पर अनेक प्रायुधों कर तथा लाठी मूकी लोह यष्टियों कर युद्ध भया परस्पर केश ग्रहण भया खड़ग कर विदारा गया है शरीर जिनका कैयक बाणोंकर बींधे गये तथापि योधा युद्धको आगेही भए मारे हैं प्रहार करें हैं गाजेहैं घोड़े व्याकुल भये भ्रमें है कैयक श्रासन खाली होय गए असवार मारे गए मुष्टियुद्ध गदा युद्ध भया, कैंयक वाणोंसे बहुत मारे गये के यक खडग कर के यक सेलोंकर घाव खाय फिर शत्रु को घायल करते भए कैयक मन बांछित भोगो कर इंद्रियोंको रमावते सो युद्ध विषे इंद्रिये इनको छोडती भई जैसे कार्य परे कुमित्र तजे कैयक के प्रांतन के ढेर हो गये तथापि खेद न मानते भये शत्रुओं पर जाय पडे और शत्रु सहित श्राप प्राणान्त भये डसे हैं होठ जिन्होंने जे राजकुमार देव कुमार सारिखे सुकुमार रत्नोके महिलोंके शिखर विषे क्रीडा करते महा भोगी पुरुष स्त्रियों के स्तनकर रमाये संते वे खडग चक्र कनक इत्यादि प्रायुधोंकर विदारे संते संग्रामकी भूमि में पडे विरूपाकार तिन के गृध पक्षी और स्याल भषहैं और जैसे रंग महिल मे रंगकी भरी रामा नखों कर चिन्ह करती और निकट श्रावती तैसे स्यालनी नख दन्तों कर चिन्ह करे हैं और समाप आवें हैं फिर श्वासके प्रकाश कर जीवते जान वे डर जांय हैं जैसे डाकनी मंत्रबादीसे दूर जांय और सामंतों को जीवते जान पक्षिणी डर
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पद्म
पुराण
६
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कर उड़ जाती भई जैसे दुष्टनारी चलायमान हैं नेत्र जिसके पातिके समपिसे जाती रहे, जीवों के शुभा शुभ प्रकृति का उदय युद्धविषे लखिये है दोनों बराबर और कोई की हार होय कोई की जीत होय और कहूंकल्प सेना का स्वामी महा सेनाके स्वामी को जीते और कोई एक सुकृत के सामर्थ से बहुतों को जीते और कोई बहुत भी पाप के उदयसे हार जाय जिन जीवोंने पूर्व भवमें तप किया वे राज्य के अधिकारी होय विजयको पावें हैं और जिन्होंने तपन किया श्रथवा तप भंग किया तिनकी हार होय है, गौतमस्वामी राजाश्रेणिक से कहे हैं हे श्रेणिक यह धर्म मर्म की रक्षा करें है और दुर्जयको जीते है धर्मही भड़ा सहाई है बड़ा पक्ष धर्मका धर्म सत्र ठौर रक्षा करे है घोड़ों कर युक्त रथ पर्वत समान हाथी पवन समान तुरंग असुर कुमार से पयादे इत्यादि सामग्री पूर्ण हैं परन्तु पूर्वपुण्य के उदय बिना कोई राखवे समर्थ नहीं एक पुण्याधिकारीही शत्रुवों को जीते है, इस भांति राम रावण के युद्धकी प्रवृत्त में योधावों कर योधा हते गए तिनकर र खेत भर गया अवकाश नहीं चायुधों कर योधा उछले हैं। परे हैं सो आकाश ऐसा दृष्टि पड़ता भया मानों उत्पात के बादलों कर मंडित है ॥
ह
अथानन्तर मारीच चन्द्रनिकर बज्रात शुकसारण और भी राक्षसोंके अधीश तिन्होंने रामका कटक दबाया तब हनूमान चन्द्रमारीच नील कुमुद भूत स्वन इत्यादि रामपक्ष के योधा तिन्होंने राक्षसों की सेना दवाई तब रावण के योधा कुन्द कुम्भनिकुम्भ विक्रम क्रमाण जंबूमाली काकवली सूर्यार मकरध्वज शनिरथ इत्यादि राक्षसों के बड़े २ राजा शीघ्र ही युद्धको उठे तब भूधर अंचल सम्मेद निकाल कुटिल अंगद सुखे कालचन्द्र उर्मितरंग इत्यादि बानवंशी योथा तिनके सन्मुख भए उनही समान उस समय कोई सुभटप्रति पक्षी
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पमा सुभट विनादृष्टि न पड़ा भावार्थ-दोनोंपक्षके योधा परस्पर महायुद्धकरतेभए और अंजनीका पुत्र हाथियोंके स्थ UST परचढ़कर रणमें क्रीड़ा करता भया जैसे कमलोंकर भरे सरोवर में महा गज क्रीडाकरेगौतम गणधर कहे हैं हे
श्रेणिक उस हनुमान शूरवीर ने राक्षसों की बड़ी सेना चलायमान करी उसे रुचा जो किया तब राजा मय विद्याधर दैत्य बंशी मन्दोदरी का बाप क्रोधके प्रसंगकर लाल हैं नेत्र जिसके सो हनूमान के सन्मुख
आया तब वह हनुमान कमल समोन हैं नेत्र जिसके बाण बृष्टि करताभया सो मयका रथ चकचर किया तब बह दूजे स्थ चढ़कर युद्धको उद्यमी भया तब हनमान ने फिर स्थ तोड़ डाला तब मय को विहलदेख रोवणने बहुरूपिणी विद्या कर प्रज्वलितोत्तमरथ शीघही भेजा सो राजा मय ने उस स्थ में चढ़ कर हनु मान से युद्धकिया और हनुमान का रथ तोड़ा तब हनमान को दबा देख भामंडल मदद आया सो मयने बाण वर्षाकर भामंडल का भी रथ तोड़ा तब राजो सुग्रीव इनके मदद पाए सो मयने उसक शस्त्र रहित किया और भूमि में डारा तब इनकी मदद विभीषण अाया सो विभीषण के और मय के अत्यन्त युद्ध भया परस्पर बाण चले सो मयने विभीषण का बषतर तोड़ डारा सो अशोक वृक्ष के पुष्प समान लाल होय तैसी लाल रूप रुधिर की धारा विभीषणके पड़ी तब बानर बंशियों की सेना चलायमान भई और राम युद्ध को उद्यमी भए विद्यामई सिंहों के रथ चढे शीघही मय पर आए और बानर बंशियों को कहते भए तुम भय मत करो रावण की सेना विजुरी सहित कारी घटा समान उस में उगते सूर्य समान श्रीराम प्रवेश करते भए और पर सेनाका विध्वंस करनेको उद्यमी भए तब हनुमान भामंडल सुग्रीव विभीषण को धीर्य उपजा और बानरबंशियों की सेना यद्ध करनेको उद्यमी भई रामका बल पाय |
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पराण 4.१११॥
रामके सेवकों का भय मिटा परस्पर दोनों सेनाके योघावों में शस्त्रों का प्रहार भया, सो देख देख देव ।
आश्चर्यको प्राप्त भए और दोनों सेना में अंधकार होयगया प्रकाशरहित लोक दृष्टि न पड़े, श्रीराम राजा । मयको बाणों कर अत्यन्त अालादते भए थोडे ही खेद कर मय को विहल किया जैसे इन्द्र चमरेन्द्र को करे तब राम के बाणों कर मयको विहल देख, रावण काल समान क्रोधकर राम पर घाया तब लक्ष्मण रामकी ओर रावण को श्रावता देख महातेज कर कहते भए हो विद्याधर तू किधर जाय है में तुझे प्रोज देखा खड़ा रहो खड़ारहो हे रंक पापी चोर परस्त्रीरूप दीपकके पतंग अघमपुरुष दुराचारी अाज में तोसों ऐसी करूं जैसी काल न करे, हे कुमानुष श्रीराघवदेव समस्त पृथिवीके पति तिन्होंने मुझे आज्ञाकरी है कि इस चोरको सजा देवो, तब दशमुख महाक्रोध कर लक्ष्मणसे कहता भया रे मूढ़ तैने कहां लोकप्रसिद्ध मेरा प्रताप न सुना इस पृथिवीमें जे सुखकारी सारवस्तु हैं सो सबमेरी हैं में राजा पृथिवीपति जो उत्कृष्ट वस्तु सो मेरी, घंटा गज के कंठ में सोहे स्वानकै न सोहे है तैसे योग्यवस्तु मेरे घर सोहे और के नहीं त मनुष्यमात्र बृथा विलाप करे तेरी क्या शक्ति तू दीन मेरे समान नहीं में रंक से क्या युद्धकरूंत अशुभं के उदयसे मोसे युद्ध किया चाहे है सो जीवने से उदास भया है मूवा चाहे है । तब लक्ष्मण बोले तु जैसा पृथिवीपति है तैसा में नीकेजान हूंजतेरागाजनापूर्ण करूंगा जब ऐसा लक्ष्मणनेकहा तब रावणने अपने वाण लक्ष्मणपर चलाए, और लक्ष्मणने रावणपर चलाए, जैसेवर्षाकामेघ जलवृष्टिकर मिरिको आछादित । करेसेस काणबृष्टिकर उसने उसको वेढाऔर उसने उसको वेवासो रावणकेवाणलक्ष्मणनेवज्रदंडकरबीचही तोड़ | डारे आप तक प्रावने न दीए, बाणों के समूह छेदे भेदे तोडे फाड़े चूरकर डारे, सो घरती आकोश बोण ।
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रामा 199२॥
खंडों कर भरगर लक्षमण ने रावणको सामान्य शस्त्रों से विहल कीया तब रावणने जानी यह सामान्य शस्त्रों से जीता न जाय तब लक्षमण पर रावणने मेघवाण चलाया सो धरती आकाश जलरूप होय गए तब लक्ष्मणने पवनवाण चलाया क्षणमात्रमें मेधवाण विलयकीया, फिर दशमुखने अग्निबाण चलाया सा दशों दिशाप्रज्ज्वलित भई तव लक्षणने वरुणशस्त्र चलाया सो एक निमिषमें अग्निवाण नाशको प्रातभया फिर लक्षमणने पोपवाण चलाया सो धर्मवाणकर रावणने निवारा फिर लक्षमणने इंधनवाण चलाया सोरावणने अग्निबाण कर भस्मकिया फिर लक्ष्मणने तिमिरखाण चलाया सो अंधकार होय गया अाकाश बृक्षों के समूहकर प्राचादित भया कैसे हैं वृक्ष प्रासार फलों कोवरसावें हैं आसारपुष्पों के पटल छाय गए तब रावणने सर्यवाण कर तिमिवाण निवारा और लक्ष्मणपर नागवाण चलाया अनेक नाग चले विकराल हैं फण जिनके तव लक्ष्मणने गरुड़वाण कर नागवाण निवारा, गरुड़की पापोंकर अाकाश स्वर्ण की प्रभारूप प्रतिभासता भया, फिर राम के भाई ने रावण पर सर्पबाण चलायां प्रलयकाल के मेव समान है शब्द जिसका और विषरूप अग्नि के कणोंकर महाविषम तब रोवण ने मयखाण कर सर्प बाण निवारा और लक्ष्मण पर विघ्नवाण चलाया सो विघ्नबाण दुर्निवार उस का उपाय सिद्धिवाण सो लक्षमण को याद न आया तब वज्रदण्ड श्रादि अनेक शस्त्र चलाए रावण भी सामान्य शस्त्रों से युद्ध करता भया, दोनों योधावोंमें समान युद्ध भया जैसात्रिपृष्ठ औरअश्वग्रीवके युद्ध भया था, तैसा लक्षमण रावण के भया जैसा पूर्वोपार्जित कर्म का उदय होय तैसा ही फल होय तैसी ही क्रिया करे जे महा क्रोध के वश हैं और जो कार्यारंभा उस विषे उद्यमी हैं वे नर तीन शस्त्र को न गिनें और अग्नि को | न गिने सूर्य को न गिने वायु को न गिने ॥ इति चौहत्तरवां पर्व समपूर्णम् ॥
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पुराण
॥७३॥
___अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रोणक से कहे हैं हे भव्योत्तम दोनोंही सेना विषे तृषावंतों को शीतल मिष्टजल प्याइये है और क्षुधावन्तों को अमृत समानाहार दीजिए है और खेद वन्तोंको मलया गिरि चन्दन से छिडकिये है ताडवृक्ष के बीजने से पवन करिये है बरफके बारिसे छांटिये है तथा और भी उपचार अनेक कीजिए है अपना पराया कोई होवे सब के यत्न कीजिए हैं यही संग्रामकी रीति है दश दिन युद्ध करते भए दोनों ही महाबीर अभंग चित राबण लक्ष्मण दोनों समान जैसा वह तैग्गवह सो यक्ष गंधर्व किन्नर अप्सरा आश्चर्य को प्राप्त भए और दोनों का यश करते भए दोनों पर पुष्प वर्षा करी और एक चन्द्रवर्धन नामा विद्याधर उसकी अाठ पत्री सो प्राकारा विषे विमान में बैठी देखें तिनको कौतूहल से अप्सरा पूछती भई तुम देवायों सारिखी कौन हो तुम्हारी लक्षमण में अधिक भक्ति दीखे है
और तुम सुन्दर सुकमार शरीर हो तब बे लज्या सहित कहती भई तुमको कौतूहल है तो सुनो जवसीता का स्वयम्बर हुअा तब हमारा पिता हम सहित वहां आया था, वहां लक्षमण को देख हम को देनी करी
और हमारा भी मन लक्षमण में मोहित भड़ा, सो अब यह संग्राम विषे वर्ते है नजानिए क्या होय यह मनुष्यां में चन्द्रमा समान प्राणनाथहै जो इसकी दशा सो हमारी ऐसे इनके मनोहर शब्द सुनकर लक्षमण ऊपर को चोंके, तब वे घाटों ही कन्या इनके देखवेकर परम हर्षको प्राप्तभई और कहती भई हेनाथ सर्वथा तुम्हारा कार्य सिद्ध होवे तब लक्षमण को विघ्नबाण का उपाय सिद्धवाण याद आया, और प्रसन्न बदन भया सिद्धवाण चलाय विघ्नवाण विलय किया और अाप महाप्रताप रूप युद्ध को उधमी भया। जो जो शस्त्र रावण चलावे सो सो राम का बीर महा धीर शस्त्रों विष प्रवीण छेद डारे, और अाप ।
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| बाणों के समूह कर सर्व दिशा पूर्ण करी जैसे मेघपटल कर पर्वत प्राछादित होय रावण बहुरूपिणी विद्या
के क्ल कर रणक्रीडा करता भया लक्षमण ने रावण का एक सीस छेदा, तब दोय सीस भए दोय छेदे तब चार भए और दोय भजा छेदी तवचार भई और चार छेदी तक्याठभई इस भांति ज्यों ज्यों छेदी त्यों त्यों दुगुनी भई और सीस दुगुणे भये हजारों सिर और हजारों भुजा भई रावण के कर हाथी के संड समान भुज बन्धन कर शोभित और सिर मुकटों कर मंडित तिन कर रणछेत्र पूर्ण भया, मानो रावण रूप समुद्र महाभयंकर उसके हजारों सिर वेई भए ग्राह और हजारोंभुजा वेईभईतरंग तिनकर बढ़ता भया और रावणरूप मेघ जिसके बाहुरूप विजुरी और प्रचण्ड है शब्द और सिरही भए शिखर उन कर सोहता भया. रावण अकेला ही महासेनो समान भया, अनेक मस्तक तिन के समूह जिन पर छत्र फिरें मानों यह विचार लक्ष्मणने इसे बहुरूप किया कि आगे में अकेले अनेकों से युद्ध किया, अब इस अकेले से क्या। युद्ध करूं इसलिये याहि बहुशरीरकिया रावणप्रज्वलित बनसमान भासताभया, रत्नों के आभूषण और शस्त्रों की किरणों के समूह कर प्रदीप्त रावण लक्षमण को हजारों भुजों कर बाण शक्ति खड्ग बरछी। सामान्य चक्र इत्यादि शस्त्रोंकी वर्षाकर श्राछोदता भया सो सब बाण लक्षमणने छेदे और महाक्रोध रूप होय सूर्य समान तेज रूप बाणों कर रावणके पीछादने को उद्यमी भया एक दोय तीन चार पांच छह । दस बीस शत सहस्र दश सहस्र मायामई रावण के सिर लक्षमणने छेदे हजारों सिर हजारों भुजा भूमि में पडे सो रणभूमि उनकर आछादित भई ऐसी सोहे मानों सर्पो के फणों सहित कमलों के बन हैं, भुजों सहित सिर पड़े. वे उल्कापात से भासें जेते रावणके बहुरूपिणी विद्या कर सर और भुज भए तेते सब ।
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पुराण
#994#
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सुमित्रा के पुत्र लक्षमण ने छेदे जैसे महामुनि कर्मों के समूह को छेदें, रुधिर की धारा निरन्तर पड़ी तिनकर आकाश में मानों सांझ फूली, दोय भुजाका धारक लक्षमण उसने रावणकी असंख्यात भुजाविफल करी, कैसे हैं लक्षमण महा प्रभाव कर युक्त हैं रावण पसेव के समूह कर भरगया है अंग जिस का स्वास कर संयुक्त है मुख जिसका यद्यपि महाबलवान् था तथापि व्याकुलचित्त भया । गौतमस्वामी कहैं हैं है श्रेणिकं बहूरूपिणी विद्याके बलकर रावणने महा भयंकर युद्ध किया, पर लक्षमणके आगे बहुरूपिणी विद्या का बल न चला तब रावण मायाचार तज सहज रूप होय क्रोधका भरा युद्ध करता भया अनेक दिव्यास्त्रों कर और सामान्य शस्त्रों कर युद्ध किया परन्तु बासुदेव को जीत न सका । तब प्रलयकाल के सूर्य समान है प्रभा जिसकी परपक्ष का क्षय करणहारा जो चक्ररत्न उसे चितारा केसा है
रत्न प्रमाण प्रभाके समूह को घरे मोतियोंकी झालरियोंकर मंडित महा देदीप्यमान दिव्य वज्रमई नाना प्रकार के रत्नों कर मंडित है अंग जिसका दिव्यमाला और सुगन्ध कर लिप्त अग्नि के समूह तुल्य धारावों के समूहकर महा प्रकाशवन्त वैडर्य मणि के सहस्र आरे जिन कर युक्त जिस का दर्शन सहा न जाय, सदा हजार यक्ष जिसकी रक्षा करें महा क्रोध का भरा जैसा काल का मख होय उस समान वह चक्र चितवते ही कर में आया, जिसकी ज्योति कर जोतिष देवों की प्रभा मन्द होय गई और सूर्य की कांति ऐसा होय गई मानों चित्राम का सूर्य है और अप्सरा विश्वासु तूंवरु नारद इत्यादि गंध के भेद आकाश में राका कौतुक देखते थे सो भयकर परे गए, और लक्षमण अत्यन्त शत्रु कोच संयुक्त देख कहता भया, हे अधम नर इसे क्या लेरहा है जैसे कृपण कौडीको रहे
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1990
पद्म तेरी शक्ति है तो प्रहार कर ऐसा कहा तब वह महा कोधायमान होय दांतों कर डसे हैं होंट जिसने लाल
हैं नेत्र जिसके चकको फेर लक्षमण पर चलाया कैसा है चक मेघ मंडल समान है शब्द जिसका और महा शीघ्रता को लिये प्रलयका- के सर्य समान मनुष्यों को जीतव्य के संशय का कारण उसे सन्मुख
आवता देख लक्षमण वजमई है मुख जिनका ऐसे बाणों कर चक्रके निवारिवेको उद्यमी भया और श्री राम वज्रावर्त धनुष चढ़ाय अमोघ बाणोंकर चक्रके निवारिखको उद्यमीभए और हल मूशलनको भ्रमावते
चक्रके सन्मुख भए और सुग्रीव गदाको फिराय चक्र के सन्मुखमए और भामंडल खड्ग को लेकर निवा| खेिको, उद्यमी भा और विभीषण त्रिशूल ले आढे भए और हनुमान जलका मुद्गर लांगल कनकादि | लेकर उद्यमी भए. और अंगद पारद नामा शस्त्र लेकर ठाढ़े भए और अंगदका भाई अंगकुठार लेकर महा तेज़ रूप खड़े और भी दूसरे श्रेष्ठ विद्याधर अनेक प्रायुधों कर युक्त सब एक होय कर जीवने को अाशा तज चक्र के निवारिख को उधमी भए परन्तु चकको निवार न सके कैसा है चक देवकरे हैं सेवा जिसकी उसने प्रायकर लक्ष्मणकी तीन प्रदक्षिणा देय अपना स्वरूप विनय रूप कर लक्षमण के कर में तिष्ठा, सुखदाई शान्त है प्राकार जिसका । यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे है हे मगधाधिपति राम लक्षमणका महाऋद्धिको धरे यह महात्म्य तुझे संक्षेप से कहा कैसाहै इनका महात्म्य जिसे सुने परम आश्चर्य उपजे और लोकमें श्रेष्ठ है के एक के पुण्य के उदय कर परम विभूति होय है और कैएक पुण्यके क्षयकर नाश होय हे जैसे सर्य का अस्त होय है चन्द्रमा का उदय होय है तैसे लक्षमण के पुण्यका उदय जानना ॥
॥ इति पचहत्तरवां पर्व संपूर्णम् ।।
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पद्म पुराण
11999:1
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अथानन्तर लक्षमण के हाथ में महासुन्दर चक्ररत्न श्राया देख सुग्रीव भामंडलादि विद्याधरों के पतिति हर्षित भए और परस्पर कहते भये यागे भगवान अनन्तवीर्य केवली ने श्राज्ञा करी थी जो लक्षमण आठवां वासुदेव है और राम आठवां वलदेव है सो यह महा ज्योति चक्रपाणि भया अति उत्तम शरीर का धारक इस के बलका कौन वर्णन करसके, और यह श्रीराम वलदेव जिसके रथको महो तेजवन्त सिंह चलावें जिसने राजामय को पकड़ा और हल मूसल महा रत्न देदीप्यमान जिसके करमें सोहें ये बलभद्र नारायण दोनों भाई पुरुषोत्तम प्रकट भये पुण्य के प्रभाव कर परमप्रेमके भरे लक्षमण के हाथमें सुदर्शन चक्रको देख राक्षसोंका अधिपति चित्तमें चितारे है कि भगवान श्रनन्तवीर्यने आज्ञाकरी थी सोई भई निश्चय सेती कर्मरूप पवन का प्रेरा यह समय आया, जिसका छत्र देख विद्याधर डरते और महासेना पर की भागजाती पर सेनाकी ध्वजा और छत्र मेरे प्रतापसे बहे बहे फिरते और हिमाचल विन्ध्याचल हैं स्तन जिसके समुद्र हैं वस्त्रजिसके ऐसी यह पृथिवी मेरी दासी समान श्राज्ञाकारिणी थी ऐसा मैं रावण सोरण में भूमिगोचरियों ने जीता, यह अद्भुत बात है कष्टकी अवस्था या प्राप्त भई, धिकार इस राज्य लक्ष्मी को कुलटा स्त्री समान है चेष्टा जिसकी पूज्य पुरुष इस पापनी को तत्काल तजें यह इन्द्रीयों के भोग इन्द्रायण के फल समान इनका परिपाक विरस है अनन्त दुःख सम्बन्ध के कारण साधुवों कर निन्द्यहैं त्याज्य हैं पृथिवी में उत्तम पुरुष भरत चक्रवत्र्त्यादि भये वे धन्य हैं जिन्होंने निः कंटक छह खंड पृथिवीका राज्य किया और विष के मिले अन्नकी न्याई राज्यको तज जिनेन्द्रवत धारे रत्नत्रय को आराधन कर परम पद को प्राप्त भए मैं रंक विषियाभिलाषी मोह बलवान ने मुझें
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चुराख 118980
जीता यह मोह संसार भ्रमणका कारण धिक्कार मुझे जो मोह के वश हाय ऐमी चेष्टा करी रावणतो यह चितवनकरे है और अायाहै चक्र जिसके ऐसा जो लक्षमण महा तेजका धारक सो विभीषणकी अोर निरख रावण से कहता भया हेविद्याधर अबभी कळू न गया है जानकीको लाय श्री रामदेव को सोंपदे और यह बचन कह कि श्रीरामके प्रसादकर जीवं हूंहमको तेरा कछु चाहिये नहीं तेरी राज्यलक्ष्मी तरेही रहो तब रावण मंदहास्य कर कहताभया हे रंक तेरेवृथा गर्व उपजाहै अवारही अपने पराक्रम तुझे दिखावूहूं हे अधम नर में तुझे जो अवस्था दिखाऊं सो भोग, मैं रावण पृथ्वीपति विद्याधर तू भूमिगोचरी रंक,तब लक्ष्मण बोले बहुत कहिनेसे क्या मैं नारायण संवथा तेरा मारणहारा उपजा, तब रावगाने कही इच्छा मात्रही नारायण हूजिये है तो जो तू चाहे सो क्यों न हो इन्द्रहो, तू कुपुत्र पिताने देशसे बाहिर किया महा दुखी दलिद्री बनचारी भिखारी निर्लज्ज तेरी बासुदेव पदवी हमने जानी तेरमेनमें मत्सर है सो मैं तेरे मनोरथ भंग करूंगा यह घेघलीसमान चक्रहै जिससे गर्वा है सो रंकों की यही गति खलिका टूकपाय मनमें उत्सव करे बहुत कहिवेसे क्या ये पापी विद्याधर तुझ सोमले हैं तिन सहित और इस चक्रसहित वाहन सहित तेरा नाशकर तुझे पातालको प्राप्त करूंगा,ये रावणके बचन सुनकर लक्षमणने कोपकर चक्रको भ्रमाय सरण पर चलाया बज्रपातके शब्दसमान भयंकरहै शब्द जिसका और प्रलयकालके सूर्यसमान तेजको धरे चक्र रावण पर आया तब रावण बाणोंसे चक्रके निवारबेको उद्यमी भया, फिर प्रचंड दण्ड कर और शीघ्रगामी बज्र बाणकर चक्रके निवारवे का यत्न किया तथापि रावणका पुण्य क्षीण भया जो चक्रन रुका नजीक पाया तब रावण चन्द्रहास खडग लेकर चक्रके समीप अाया चक्रके खडगकी दई
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पद्म
पुराण #99
सो व्यग्निके कणोंसे याकाश प्रज्वलित भया खडगका जोर चक्रपर न चला, सन्मुख तिष्ठता जो रावण महाशूरवीर राक्षसों का इन्द्र उसका चक्रने उरस्थल भेदा सो पुराय चयकर अंजनगिरिसमान रावण भूमिमें पडा, मानों स्वर्णसे देव चया, अथवा रतिका पति पृथिवी में पडा ऐसा सोहताभया मानों बीररसका स्वरूपही हैं चढ़ रही हैं मोह जिसकी इसे हैं होंठ जिसने स्वामीको पडा देख समुद्र समान था शब्द जिसका ऐसी सेना भागिवेको उद्यमी भई, ध्वजा छत्र वहे वहे फिर समस्त लोक रावण के विह्ननभए विलाप करते भागे जाय हैं कोई कहे हैं रथको दूरकर मार्ग देहु पीछेसे हाथी यावे है कोई कहे हैं विमानको एक तरफकर अरे पृथिवीका पति पडा अनर्थ भया महा भयकर कंपायमान वह उस पर पडे वह उसपर पडे तब सबको शरण रहित देख भामंडल सुग्रीव हनुमान रामकी आज्ञा से कहते भए भयमत को भय मत करो धीर्य बंधाया और वस्त्र फेरे काहूको भय नहीं तव अमृतसमान कानों की प्रिय ऐसे वचन सुन सेन को विश्वास उपजा । यह कथा गौतम गणधर राजा श्रेणिक सो कहे हैं हे राजन रावण ऐसी सहा विभूतिको भोग समुद्र पर्यन्त पृथिवीका राज्यकर पुण्यपूर्ण भए अन्तदशाको प्राप्तभया । इस | लिये ऐसी लक्ष्मीको धिक्कार है यह राज्य लक्ष्मी महा चंचल पापका स्वरूप सुकृतके समागम का
शाकर वर्जित ऐसा मन में विचार कर हो बुद्धिजन हो तपही हैं धनजिनके ऐसे मुनि होवो | कैसे हैं मुनि तपोधन सर्व से अधिक है तेज जिनका मोह तिमिरको हरे हैं ।। इति बहत्तरवां पर्वसंपूर्णम् ॥
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अथानन्तर विभीषण ने बड़े भाईको पड़ा देख महा दुःख का भरा अपने घात के अर्थ हुरी विषे हाथ लगाया सो इसको मरणकी करणहारी मूर्छा आयगई चेष्टाकर रहित शरीर हो गया फिर
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॥१८
॥
परा, सचेत होय महादाहका भरा मारने को उद्यमीभया तब श्रीरामने स्थसे उतर हाथ पकड़कर उरसे लगाया
धीर्य बंधाया फिर मूर्छा खाय पड़ा अवेत होय गया श्रीरामने सचेत किया तब सचेतहोय विलाप करता भया । जिसका विलाप सुने करुणा उपजे, हाय भाई उदार क्रियावन्त सामंतोंके पति महाशूरबीर रण धीर शरणागत पालक महामनोहर ऐसी अवस्थाको क्यों प्राप्तभए मैं हितके बचन कहे सो क्यों न माने यह क्या अवस्थाभई जो मैं तुमको चक्र के विदारे पृथिवी विषे परे देखू हूं देव विद्याधरोंके महे श्वर हे लंकेश्वर भोगोंके भोक्ता पृथ्वी में कहा पौढे महा भोगोंकर लडायाहै शरीर जिनका यह सेज आपके शयन करने योग्य नहीं, हे नाथ उठो सुन्दर बचनके वक्ता मैं तुम्हारा बालक मुझे कृपाके बचन कहो, हे गुणाकर कृपाधार में शोक के समुद्र विषे डूबू हूं सो मुझे हस्तालंबन कर क्यों न निकालो इस भांति विभीषण विलाप करे है डार दिये हैं शस्त्र और बक्तर भूमि में जिसने ॥
अथानन्तर रावणके मरणके समाचार रणावासमें पहुंचे सोराणियां सर्व अश्रुपातकी धाराकर पृथ्वी तल को सींचती भई और सर्वही अन्तःपुर शोककर व्याकुल भया सकल राणी रण भूमिमें आई गिरती पड़ती गिरती परती ढिगेहैं चरण जिनके वे नारी पतिको चेतनारहित देख शीघही पृथिवीविषे पडी कैसा है पति पृथ्वी की चूड़ामणिहै मन्दोदरी, रंभा, चन्द्रानना, चन्द्रमंडला,प्रवरा, उर्वशी महा देवी, सुंदरी कमलानना, रूपिणी, रुक्मणा, शीला, रत्नमाला,तनूदरी, श्रीकांता, श्रीमती, भद्रा, कनक, प्रभा, मृग वती,श्रीमालामानवी, लक्ष्मी, अनन्दा,अनंगसुन्दर्ग,बसुन्धरा,तडिन्माला,पद्मापद्मावती,सुखादेवी,कांति प्रीति, संध्यावली,सुभा, प्रभावती,मनोवेगा, रतिकांता, मनोवती, इत्यादि अष्टादशसहस्र राणी अपने २ ।
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पद्म
पुरा
८९
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परिवारसहित और सखियाँसहित महाशोककी भरी रुदनकरती भई कैयक मोहकी भरी मूर्छाको प्राप्त भई सो चन्दन के जल कर छांटी कुमलाई कमलनी समान भासती भई कैयक पति के अंग से अत्यन्त लिपटकर परी अंजनगिरि सो लगी संध्या की श्रुतिको धरती भई कैयक मूर्छासे सचेत होय उरस्थल कूटती भई पति के समीप मानों मेघ के निकट विजुरी ही चमके है कैयक पति का बदन अपने अंग में लेय कर विह्वल होय
को प्राप्त भई कोई यक विलापकरे हैं हाथ नाथ मैं तुम्हारे विरहसेप्रति कायर मुझे तजकर तुम कहां गए तुम्हारे जन दुःखसागर में डूबे हैं सो क्यों न देखो तुम महाबली महा सुन्दरी परम ज्योतिके धारक विभूति कर इन्द्र समान मानों भरत क्षेत्र के भूपति पुरुषोत्तम महाराजा के राजा मनोरम विद्याधरों के महेश्वर कौन अर्थ पृथिवीमें पौढ़े ष्ठो हे कांत करुणानिधे स्वजनवत्सल एक अमृत लमान बचन हमसे कहो, हे प्राणेश्वर प्राणबल्लभ हम अपराध रहित तुमसे अनुरक्त चित्त हमपर तुम क्यों कोप भए हमसे बोलो ही नहीं जैसे पहिले हास्य कथा करते तैसे क्यों न करो तुम्हारा मुखरूपी चन्द्र कांतिरूप चांदनी कर मनोहर प्रसन्नतारूप जैसे पूर्व हमे दिखावते थे तैसे हमें दिखावो और यह तुम्हारा बक्षस्थल स्त्रियों की क्रीड़ा का स्थानक महासुन्दर उसविषे चक्र की धाराने कैसे पगधरा और विद्रुम समान तुम्हारे ये लाल घर अब क्रीड़ारूप उत्तर के देने को क्यों न स्फुटायमान होयहैं अबतक बहुत देरलगाई क्रोध कबहूं न किया अब प्रसन्नहोवो, हम मान करती तो आप प्रसन्न करते मनावते इन्द्रजीत मेघवाहन स्वर्गलोक से चयकर तुम्हारे उपजे सो यहां भी स्वर्गलोक कैसे भोग भोगें अब दोनों बन्धन में हैं और कुम्भकर्ण बन्धनमें है सो महापुण्य धिकारी सुभट महागुणवन्त श्रीरामचन्द्र तिनसे प्रीतिकर भाईपुत्रको
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पुराना 1961
पद्म छुडीवो हे प्राणवल्लभ प्राणनाथ उठो हमसे हितकी बात करो हे देव बहुत सोवना क्या राज.वो को
राजनीति विषे सावधान रहना सो आप राज्य काज विषे प्रवर्तों हे सुन्दर हे प्राण प्रिय हमारे अंग बिरह रूप अग्नि कर अत्यन्त जरे, सो स्नहरूप जलकर बुझावो हे स्नेहियों के प्यारे तुम्हाग यहबदन कमल औरही अवस्थाको प्राप्त भया है मो इमे देख हमारे ह्रदयके सौ टूक क्यों न हो जावें यह हमार, पापी हृदय वनकाहै दुःखकाभाजन जो तुम्हारीयह अवस्था जानकर विनस न जाय है यह हृदय महा निदई है हाय विधाता हम तेरा क्या बुराकिया जोतेने निर्दई होयकर हमारे सिरपर ऐसा दुःश्व डाग हे प्रीतम जब हम मान करती तब तुम उरसे लगाय हमारा मान दूर करते और वचन रूप अमृत हम को प्यावते महा प्रेम जनावते हमाग प्रेमरूप कोप उसके दूर करके अर्थ हमारे पायन पडते सोहमारा हृदय वशीभूत होय जाता अत्यन्त मनोहर क्रीडा करते, हे राजेश्वर हमसे प्रीतिकारी परम आनन्दकी करणहारी वे क्रीडा हमको याद आयें हैं सो हमारा हृदय अत्यन्त दाह को प्राप्त होय है इसलिये अब उठो हम तुम्हारे पायों पडे हैं नमस्कार करें हैं जो अपने प्रिय जन होंय तिनसे बहुत कोप न करिये प्रीति विपे कोप न सोहे हे श्रेणिक इस भांति रावण की राणी ये विलाप करती भई जिनका विलाप सुन कर कौन का हृदय द्रवी भूत न होय ॥ __अथान्तर श्रीराम लक्षमण भामण्डल सुग्रीवादिक सहित अति स्नेहके भरे विभीषण को उर से । लगाय प्रांसू डारते महाकरुणाबन्त वीर्य बन्धावने विषे प्रवीण ऐसे वचन कहते भए लोक वृतांतमें पंडित हे राजन बहुत रोयवे कर क्या अबविपाद तजो यह कर्मकी चेष्टा तुम कहां प्रत्यक्ष नहीं जानोंहो ।
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पुराण ॥७३॥
पूर्वकर्म के प्रभावकर प्रमोदको धरते जे प्राणी तिनके अवश्य कष्टकी प्राप्ति होय है उसका शोक कहां भार तुम्हारा भाई सदा जगतके हितविषे सावधान परम प्रीति का भाजन समाधान रूप बुद्धि जिसकी राजकार्य विषे प्रवीण प्रजाका पालक सर्वशास्त्रोके अर्थकर धोयाहै चित्त जिसने सो बलवान मोह कर दारुण अवस्थाको प्राप्तभया और विनाशका प्राप्तभया जब जीवोंका विनाश काल आवे तबबुद्धि अज्ञान रूप होय जायहै ऐसे शुभ वचन श्रीराम ने कहे फिरभामंडल अति माधूर्यताको धरे वचन कहते भये हे विभीषण महाराज तुम्हारा बाई रावण महाउदार चित्त भयंकर रणविषे युद्ध करता संता वीर मरणकर परलोक को प्राप्तभया जिसका नाम न गया उसका कछु ही न गया वे धन्य हैं जिन सुभटता कर प्राण तजे वे महापराक्रमके धारक वीर तिनका कहा शोक एक राजाअरिंदमकी कथा सुनो॥अक्षयकुमार नामा नगर वहां राजा अरिंदम जिसके महाविभूति सो एक दिन काहू तरफ से अपने मंदिर शीघ्रगामी घोडे चढ़ाअकस्मात अाया सो रागी को श्रृंगार रूप देख और महल की अत्यन्त शोभादेख राणी को पूछा तुमइयाग श्रागम कैसे जाना तब राणीने कही कीर्तिधरनामा मुनि अवधिज्ञानी अाज अाहार को आए थेतिनको मैंने पूछा राजा कब श्रावेंगे सो उन्होंने कही राजा श्राजअचानक घारगे यह बात सुन राजा मुनि गया और इर्षाकर पूछता भया हे मुनि तुमको ज्ञान है तो कहो मेरे चित्तमें क्या है तब मुनिने कही तेरे चित्तमें यह है कि मैं कब मरूंगा सो तू अाजसे सातमें दिन वळपात से मरेगा और विष्टामें कीट होयगा, यह मुयिके वचन मुन राजा अरिंदम घर जाय अपने पुत्र प्रीत्यंकर को कहता भया मैं मर कर विष्टाके घर में स्थूल कोट होगा ऐसा मेरा रंगरूप होयगा सो तू तत्काल मार डारियो ये बचन
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पद्म
का 1
१८४ ।
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पुत्र को कहे आपसात दिन मरकर विष्टा में कीड़ा भया सो प्रीत्यंकर कीट के हनिवेको गया सो कट मरने के भयकर विष्टामें पैठिगया तब प्रीत्यंकर मुनिपै जाय पूछता भया हे प्रभो मेरे पिता ने कही थी जो मैं मलमें कीट होब'गा सो तू हनियो यत्र वह कीट मरिवे से डरे है और भागे है तब मुनि ने कही तू विषाद मतकरे यह जीव जिसगति में जाय है वहां ही रम रहे है इसलियतू आत्मकल्याण कर जिसक पापों से छूटे और यह जीव सबही अपने अपने कर्मका फल भोगये हैं कोई काहूका नहीं यह संसार का स्वरूप महादुख का कारण जान प्रीत्यंकर मनि भया सर्व वांळा तजी, इसलिये हे विभीषण यह नानाप्रकार जगत् की अवस्था तुम कहानं जानो हो तुम्हारा भाई महा शूरवीर दैव योगसे नारायणने हता संग्राम के सन्मुख महा प्रधान पुरुष उसका सोचक्या तुम अपना चित कल्याण में लगावो यह शोक दुःखका कारण उसे तो यह वचन और प्रीत्यंकरकी कथा भामण्डल के मुख सेविभीषण ने सुनी, कैसी है प्रीयंकर निकी कथा प्रतिबोध देवे में प्रवीण और नाना स्वभावकर संयुक्त और उत्तम पुरुषोंकर कहिये योग्य सो सर्व विद्याधरों ने प्रशंसा करी सुनकर विभीषण रूप सूर्य शोकरूप मेघ पटल से रहित भया लोकोत्तर चार का जानने वाला ॥ इति सतत्तरखांपर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर श्री रामचन्द्र भामण्डल सुग्रीवादि सबसे कहते भए, जो पण्डितों के बैर वैरी के मरण पर्यन्ती है लंकेश्वर परलोक को प्राप्त भए सो यह महानर थे इनका उत्तम शरीर अग्नि संस्कार करिए तब सबों ने प्रमाण करी और विभीषण सहित रामलक्षमण जहां मन्दोदरी आदि टारह हजार राणीयों सहित जैसे कुरुचिपुकारे तैसे विलाप करती थी सो वाहनसे उतर समस्त विद्याधरों सहित दोनों
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पन्न
पुराण
॥
१॥
..वीर वहांगए सो राम लक्षमण को देख अति विलोप करती भई तोड़ डारे हे सर्व आभषण जिन्होंने और
घुलकर धूसरा हैं अंग जिनका तब श्रीराम महा दयावन्त नानाप्रकार केशभ वचनों कर सर्व राणीयों को दिलासा करी धीर्य बन्धाया और आप सब विद्याधरों को लेकर रावण के लोकाचारकोगए कपूरअगर मलियागिरि चन्दन इत्यादि नानाप्रकार के सुगन्ध द्रव्योंकर पद्मसरोवर पर प्रतिहरिका दाह भया फिर सरोवर के तीर श्रीराम तिष्ठे कैसे हैं राम महा कृपालु है चित्त जिन का गृहस्थाश्रम में ऐसे परिणाम कोई विरले के होय हैं फिर अाज्ञा करी कुम्भकर्ण इन्द्रजीत मेघनाद को सब सामन्तों सहित छोड़ो तब कैयक विद्याधर कहते भए वे महाकर वित्त हैं और शत्रु हैं छोड़बे योग्य नहीं बन्धन ही में मरें तब श्रीराम कहते भए यह क्षत्रीयों का धर्म नहीं जिनशासन में क्षत्रीयों की कथा क्या तुमने नहीं सुनी है सूते को बन्धे को डरते को दन्त में तृण लेते को भागे को बाल वृद्ध स्त्री को न हने यह क्षत्री का धर्म
शास्त्रों में प्रसिद्ध है तब सब ने कही आप जो आज्ञा करो सो प्रमाण है, रामकी आज्ञा प्रमाण बड़े २ । योधा नाना प्रकार के आयुधों को धरे तिन के ल्यायवे को गए कुम्भकरण इन्द्रजीत मेघनाद मारीच
तथा मन्दोदरी का पिता राजा मय इत्यादि पुरुषों को स्थल बन्धन सहित सावधान योधा लिए श्रावे हैं सो माते हाथी समान चले आये हैं. तिनको देख वानरवंशी योधा परस्पर बात करते भए जो कदा|चित इन्द्रजीत मेघनाद कुम्भकर्ण रावणकी चिता जरती देख क्रोध करें तो कपिबंशियों में इनके सन्मुख
लड़ने को कोई समर्थ नहीं जो कपिवंशी जहां बैठा था वहां से उठ न सका और भामंडलने अपने सब योघावों से कहा जो इन्द्रजीत मेघनाद को यहां तक बंधेही अति यत्न से लाइयो अवार विभीषण
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पुराम ७८६.
का भी विश्वास नहीं है जो कदाचित् भाई भतीजों को निर्धन देख भाईको वैर चितारे सो इसको विकार | उपज आवे भाई के दुःख से बहुत तप्तायमान है यह विचार भामंडलादिक तिन को अति यत्न से राम लक्षमण के निकट लाए सो वे महाविरक्त राग द्वेष रहित जिनके मुनि होयवे के भाव महा सौम्य दृष्टिकर भूमि निरखते आवें शुभ हैं अानन जिन के वे महा धीर यह विचारे हैं कि इस असार संसार सागर में कोई सारता का लवलेश नहीं एक धर्मही सर्व जीवनका बांधव है सोई सारहे ये मनमें विचारे हैं जो आज बंधन से छटे तो दिगम्बर होय प्राणिपात्र आहार करे यह प्रतिज्ञा धरते राम के समीप
आए इन्द्रजीत कुम्भवार्णादिक विभीषण की ओर पाए तिष्ठे यथा योग्य परस्पर संभाषण किया फिर कुम्भकर्णादिक श्री राम लक्षमण से कहते भए अहो तुम्हारे परम धीर्य परम गंभीरता अद्भुत चेष्टा देवों कर भी न जीताजाय ऐसा राक्षसों का इन्द्र रावण मृत्युको प्राप्त किया पंडितों के प्रति श्रेष्ठ गुण का धारक शत्रभी प्रशंसा योग्य है तब श्रीराम लक्षमण इन को बहुत शंतता उपजाय अति मनोहर वचन कहते भए तुम पहिले महा भौगरूप जैसे तिष्ठते तैसे तिष्ठो तब वह महा विरक्त कहतेभये अब इन भोगों से हमारे कुछ प्रयोजन नहीं यह विषसमान महा दारुण महा मोह के कारण महा भयंकर महा नरक निगोदादि दुःखदाई जिन कर कबहूं जीव के साता नहीं जे विचक्षण हैं बे भोग सम्बन्ध को कभी! न बांछे राम लक्षमण ने घनाही कहा तथापि तिनका चित्त भोगासक्त न भया जैसे रात्रि में दृष्टि
अन्धकार रूप होय और सर्य के प्रकाश कर वही दृष्टि प्रकाश रूप होय जाय तैसेही कुम्भकर्णादिक । की दृष्टि पहिले भोगासक्त थी सो ज्ञान के प्रकाश कर भोगों से विरक्त भई श्रीरामने तिन के बन्धन
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छुड़ा और इन सब सहित पद्म सरोवर में स्नान किया कैसा है सरोवर महा सुगन्ध है जल जिसका पुराण उस सरोवर में स्नान कर कपि और राक्षस सब अपने अपने स्थानक गए ॥
पद्म
अथानन्तर कैयक सरोवर के तीर बैठे विस्मय कर व्याप्त है चित्त जिनका शूरवीरों की कथा करते भए कैयक क्रूर कर्मको उलाहना देते भए कैयक हथियार डारते भए कैयकरावण के गुणोंकर पूर्ण है चित्त जिनका सो पुकार कर रुदन करते भए कैयक कर्मोंकी विचित्र गति का वर्णन करते भए और कैयकसंसारवनको निन्दते भए कैसा है संसार बन जाथकीनिकसना प्रतिकठिन है के यक भोग विषेचरुचिको प्राप्तभएराज्यलक्षमी को महा चंचल निरर्थकजानते भएऔर यक उत्तम बुद्धियकार्यं कीनिन्दा करते भए कैयक रावण की गई की भरीकथा करते भए कैयक श्रीराम के गुण गावते भए कैयक लक्षमण की शक्ति का गुण वर्णन करते भए, कैयक सुक्रत के फल की प्रशंसा करते भए निर्मल है चित्त जिनका घरघर मृतकों की क्रिया होती भई, बाल वृद्ध सब के मुख यही कथा लंका विषे सर्व लोक रावण के शोक कर अश्रुपात डारते चतुर्मास्य करते भए शोक कर द्रवीभूत भया है हृदय जिनका, सकल लोकों के नेत्रों से जल के प्रवाह वहे सो पृथिवी जल रूप हो य गई और तत्वोंकी गौणता दृष्टि पड़ी मानो नेत्रों के जलके भयकर याताप घुसकर लोकों के हृदय में पैठ सर्वलोकों के मुख से यह शब्द निकसे धिकार विकार अहो बड़ा कष्ट भया हायहाय यह क्या अदभुत भया इसमांति लोक विलापकरे हैं औरांडारें हैं कैयक भूमिमें शय्याकरते भए मौनधार मुख नीचा करते भये निश्चल है शरीर जिनका मानोंकाष्टके हैं कैयक शस्त्रोंको तोड डारतेभए कैयकोंने आभूषण डार दिए और स्त्री के मुखकमल से दृष्टि संकोची कैयक अति दीर्घ उष्ण निस्वासनाषे हैं सो कलुष होय गए अधर जिनके
भावले त ३००
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पद्म पुराण
19531
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मानों दुःख के अंकुरे हैं और कैयक संसारके भोगों से विरक्त होय मनविषे जिनदीक्षा को उद्यमकरते भए । अथानन्तर पिले पहिर महासंघ सहित अनन्तवीर्य नामा मुनि लंका के कुसुमायुध नामा विषे छप्पन हजार मुनि सहित आए जैसे तारावों कर मंडित चन्द्रमा सोहे तैसे मुनियों कर मंडित सोहते भए, जो ये मुनि रावण के जीक्ते धावते तो रावण मारान जाता लक्षमण के औररावण के विशेष प्रीति होती जहां ऋद्धिधारी मुनि तिष्ठे वहां सर्व मंगल होवें चौरकेवली विराजेवहां चारों ही दशाओं में दोय सा योजन पृथिवी स्वर्ग तुल्य निरुपद्रव होय और जीवन के बैरभाव मिट जावे जैसे आकाश विषे अमूर्तत्व अवकाशप्रदानता निर्लेपता और पवन में सवोर्यता, निसंगता, अग्नि में उष्णता, जल में निर्मलता पृथिवी में सहनशीलता तैसेसुते स्वभाव महामुनि के लोक को आनन्द दायकता होय है सो अनेक अदभुत गुणों केधारक महामुनि तिन सहित स्वामी विराजे, गौतमस्वामी कहे हैं, हे श्रेणिक तिनके गुण कौन वर्णन कर सके जैसे स्वर्ण का कुम्भ अमृत का भरा अति सोहे तैसे महामुनि अनेक ऋद्धि के भरे सोहते भए निर्जंतु स्थानक वहां एक शिला उसऊपर शुक्ल ध्यान घर तिष्ठे सो उसही रात्रि विषे केवलज्ञान उपजा जिनके परम अद्भुत गुण वर्णन किए पापों का नाश होय तत्र भुवनवासी असुर कुमार नागकुमार गरुडकुमार विद्युतकुमार ग्नि कुमार पवनकुमार मेघकुमार दिकुमार दीपकुमार उदधिकुमार ये दश प्रकार तथा
प्रकार तिर किन्नर किंपुरुष महोरग गंधर्व यक्ष राक्षस भूत पिशाच, तथा पंच प्रकार ज्योतिषी सूर्य ग्रह तारा नक्षत्र और सोलह स्वर्ग के सर्वही स्वर्गबासी ये चतुरनिकाय के देव सोधर्म इन्द्रादिक सहित Eight खंडीप के विषे श्रीतीर्थंकर देव का जन्म भया था सो मुमेरु पर्वत विषे क्षीर सागर के जल कर
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प पुराण 19c९॥
स्नान कराए जन्म कल्यानक का उत्सव कर प्रभुको माता पिताको सोंप वहां उत्सव सहित तांडव नृत्य कर प्रभुकी बारम्बार स्तुति करते भये कैसे हैं प्रभु बाल अवस्था को धरे हैं परन्तु बाल अवस्थाकी अज्ञान चेष्टा से रहित हैं वहां जन्म कल्याणकका समय साधकर सब देव लंकामें अनन्तवीर्य केवलीके दर्शनको श्राए कैएक विमान चढ़े आए कैएक राजहंसों पर चढ़ पाए और कई एक अश्व सिंह व्याघादिक अनेक वाहनों पर चढ़े आये ढोल मृदंग नगारे वीण बांसुरी झांझ मंजीरे शंख इत्यादि नाना प्रकार के वादित्र बजावते मनोहर गान करते श्राकोश मंडल को पालादते केवलो के निकट महा भक्तिरूप अर्घ रात्रि के समय आये तिनकी विमानोंकी ज्योति कर प्रकाश होय गया और वादित्रों के शब्दकर दशों दिशाव्याप्त होय गईं राम लक्षमण यह वृत्तान्त जान हर्ष को प्राप्त. भंये समस्त बानरवंशी और राक्षस बंशी विद्याधर इन्द्रजीत कुम्भकर्ण मेघनाद आदि सर्व रामलक्षमणके संग केवलीके दर्शनके लिये जायचे को उद्यमी भये श्रीराम लक्षमण हाथी चढ़े और कईएक राजा रथपर चढ़े कईएक तुरंगोंपर चढे छत्रचमर ध्वजाकर शोभायमान महा भक्ति कर संयुक्त देवों सारिखे महा सुगन्धहैं शरीर जिनके अति उदार अपने बाहनों से उतर महा भक्ति कर प्रणाम करते स्रोत्र पाठ पढ़ते केवली के निकट आये अष्टांग दरडवत कर भूमि में तिष्ठे धर्म श्रवणकी है अभिलाषा जिनके केवली के मुखसे धर्म श्रवण करत भये दिव्य ध्वनि में.
यह कथनभया कि ये प्राणी अष्ट कर्म से बंधे महा दुख के कर्म पर चढ़े चतुर्गति में भ्रमण ण करे हैं मार्गः। | रोद्र ध्यान कर युक्त नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्मोंको घरे हैं महा मोहिनी कर्मने ये जीव. बुद्धि. रहित । किये इसलिये सदा हिंसा करे हैं असत्य वचन कहे हैं पराये मर्मबेदका वचन कहे हैं परनिन्दा करे हैं पर ।
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पुरात
49COLL
द्रव्य हरे हैं पर स्त्रीका सेवन करे हे प्रमाण रहित परिग्रहको अंगीकार करे हैं बढा है महालोभ जिनके वे कैसे हैं महा निन्यकर्म कर शरीर तज अधोलोक विषे जाय हें वहां महा दुखके कारण सप्त नस्क तिनके नाम रत्नप्रभा, शर्करा, वालुका, पंकप्रभा धमप्रभा, तम महातम सदा महा दुःख के कारण सप्न नस्क अन्धकार कर युक्त दुर्गंध सूघा नाजावे देखा न जाय स्पर्शान जाय महाभयंकर महा विकराल है भूमि जिनकी सदा रुदन दुर्वचन त्रासनानाप्रकार के छेदन भेदन तिनकर सदा पीड़ित नारकी खोटे कर्मसे पापबन्ध कर बहुत काल सागरों पर्यंतमहा तीब्रदुख भोगवे हैं ऐसा जान पण्डित विवेकी पापन्धसे रहितहोय धर्मम चित्त घरो। कैसे हैं विवेकी बत नियमके धरणहारे निःकपटस्वभाव अनेक गुणोंकर मंडित वे नानाप्रकारक तपकर स्वर्ग लोकको प्राप्त होय हे फिर मनुष्य देह पाय मोक्ष प्राप्त होय हैं और जे धर्मकी अभिलाषासे रहित हैं.बे कल्याणके मार्ग से रहित बारम्बार जन्म मरण करते महादुखी संसारमें भ्रमण करे हैं जे भव्यजीव सर्वज्ञ वीतरागके क्चन कर धर्म में तिष्ठे हैं वे मोक्षमार्गी शील सत्य शोच सम्यगदर्शनज्ञान चारित्रकर जवलग अष्ट कर्मका नाश न करें तबलग इन्द्र अहमिंद्र पदके उत्तम सुखको भोगवे हैं नानाप्रकारके अद्भुतसुख भोग वहां से चय कर महाराजाधिराज होय फिर ज्ञान पाय जिनमुद्राधरमहातफ्कर केवलज्ञानउपाय अंष्ट कर्म रहित सिद्धहोय हैं, अनन्तप्रक्निाशीअात्मिकस्वभावमयीपरमानंद भोगवे हैं यहव्याख्यान सुन इन्द्रजीत मेघनाद अपनेपूर्वभव पूछते भए सो केवलीकहेहें एक कौशांबी नामा नगरी वहां दो भाई दलिद्रीएकका
नामप्रथम दूजे का नाम पश्चिम एकदिनविहार करते भवदत्तनामा मुनिवहां आये सो ये दोनोंभाईधर्मश्रवण । कर ग्यारमी प्रतिमा के धारक क्षुल्लक श्रावकभएसो मुनिकेदर्शनको कौशांबीनगरीका राजाइन्द्रनाम राजा ।
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च
पुराल
॥१॥
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या सो मुनि महाज्ञानी राजाकोदेख जाना इसके मित्थ्यादर्शन दुर्निवार हैं और उम्ही समय नन्दीनामा श्रेष्ठी महाजिनभक्त मुनि के दर्शनको माया उसका राजा ने आदर किया उसको देख प्रथम और पश्चिम दोनों भाईयों में से छोटे भाई पश्चिम ने निदान कीया जो मैं इस धर्म के प्रसाद कर नन्दी सेठके पुत्र होऊ
बड़े भाई ने और गुरु ने बहुत सम्बोधा जो जिनशासन में निदान महानिन्द्य है सो यह न समझा कुबुद्धि निदानकर दुखित भया मरण कर नन्दी के इन्दुमुखी नामा स्त्री उसके गर्भमें श्राया सो गर्भ में यावते ही. बड़े बड़े राजावों के स्थान कमें कोटका निपात दरवाजों का निपात इत्यादि नानाप्रकार के चिन्ह होते भए, तब बड़े बड़े राजा इसको नानाप्रकार के निमित कर महानर जान जन्म ही से अति आदर संयुक्त दूत भेज भेज द्रव्य पठाय सेवते भए, यह बड़ा भया इसका नाम रतिवर्धन सो सबराजा इसको सेवें कोशांबीनगरी का राजा इंदु भी सेवा करे नित्य प्राय प्रणाम करे इसभांति यह रतिवर्धन महाविभूति कर संयुक्त भया और बड़ा भाई प्रथम मर कर स्वर्ग लोक गया, सो छोटे भाई के जीव को संबोध के अर्थ क्षुल्लक का स्वरूप घर आया सो यह मदोन्मत्त राजाम दकर अन्धा होय रहा सो चुल्लकको दुष्ट लोकोंकर द्वारमें पैठने न दिया तब देवने क्षुल्लकका रूप दूरकर रतिवर्धनका रूप किया तत्काल उसका नगर उजाड़ उद्यान कर दीया और कहता भया अब तेरी कहां वार्ता तब वह पांयनपर पड, स्तुति करता भया. तब उसको सकल वृत्तांत कहा जो आपां दोनों भाई थे में बड़ा तू छोटा सो क्षुल्लक के व्रतधारे सो र्तेने नन्दी सेठ को देख निदान कीया सो मरकर नन्दी के घर उपजा राजविभूति पाई और मैं स्वर्ग में देव भया यह सब वार्ता सुन रतिवर्धन को सम्यक्त उपजा मुनि भया और नन्दीको आदि दे अनेक राजा रतिवर्धन के संग
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नद्य pite
१९२ ।
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मुनि भए रतिवधन तपकर जहां भाई का जीव देवथा वहां ही देव भया फिर दोनों भाई स्वर्गसे चयकर राजकुमार भए एकका नाम उर्व दूजेका नाम उर्वस, राजा नरेन्द्र राणी विजिया के पुत्र फिर जिनधर्म का आराधनकर स्वर्ग में देव भए वहांसे चयकर तुम दोनों भाई रावणके राणी मन्दोदरी उसके इन्द्रजीत मेघनाद पुत्र भए और नन्दी सेटके स्त्री इन्दुमुखी रतिवर्धन की माता सो जन्मांतर में मन्दोदरी भई पूर्व जन्म में स्नेह था सो अभी माता का पुत्रसे प्रतिस्नेह भया कैसी है मन्दोदरी जिनधर्म में यासक्त है चित्त जिसका यह अपने पूर्व भव सुन दोनों भाई संसार की मायासे विरक्त भए उपजा है महा बैराग्य जिनको जैनेश्वरी दीक्षा चादरी और कुम्भकर्ण मारीच राजा मय और भी बड़े बड़े राजा संसारसे महा विरक्त होय मुनि भए तजे हैं विषय कषाय जिन्होंने विद्याधरोंके राजकीविभूति तृणवत् तजी महा योगीश्वर हो नेक ऋद्धि धारक भए पृथिवी विहार करते भव्यों को प्रतिबोधते भए, श्री मुनि सुव्रतनाथ के मुक्तिगए पीछे तिनके तीर्थ में यह बड़े बड़े महा पुरुष भए परम तपके धारक अनेक ऋद्धि संयुक्त वह भव्य जीवों को बारम्बार वन्दिवे योग्य हैं, और मन्दोदरी पति और पुत्रोंके विरह कर अंतिव्याकुल भई. महा शोककर मूर्छा को प्राप्त भई फिर सचेत होय कुरचिकी न्याईं विलाप करती भई दुखरूप समुद्र मग्न होय हाय पुत्र इन्द्रजीत मेघनाद यह क्या उद्यम किया मैं तुम्हारी माता प्रतिदीन उसे क्यों जी यह तुमको कहां योग्य कि दुखकर तप्तायमान जोमाता उसका समाधान किये बगैर उठगए हाय पुत्र हो तुम कैसे मुनि धारोगे तुम देवों सारिखे महाभोगी शरीर को लडावन हारे कठोर भूमिपर कैसे शयन करोगे समस्त विभवतजा समस्त विद्या तजी केवल अध्यात्म विद्या में तत्पर भए और राजा मय
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।।
३।
मुनि भया उसका शोककरे है हाय पिता यह कहा क्या जगत्को तज मुनिरूप धरा तुम मोसे तत्काल पुराण ऐसा स्नेह क्यों तजा में तुम्हारी बालक मोसे दया क्यों न करी बालअवस्था में मोपर तुम्हारी अति कृपा
थी मैं पिता और पुत्र और पति सबसे रहित भई स्त्रीके यही रक्षक हैं अब में कौनके शरण जाऊं में पुण्यहीन महा दुखको प्राप्त भई इस भांति मन्दोदरी रुदन करे उसका रुदन सुन सवही को दया उपजे अश्रुपातकर चतुर्मास्य कर दिया उसे शशिकांता आर्यिका उत्तम बचनकर उपदेश देतीभई हे मूर्खणी कहां रोवे है इस संसार चक्रमें जीवोंने अनन्त भवधरे तिनमें नारकी और देवोंके तो सन्तान नहीं और मनुष्यों
और तियचोंके है सो तैंने चतुर्गति भ्रमण करते मनुष्य तियचोंके भी अनन्त जन्मघरे तिनमें तेरेअनन्त पिता पुत्र बांधव भए जिनका जन्म २ में रुदन किया अब कहां विलाप करे है निश्चलता भज यह संसार असारहै एक जिनधर्मही सारहै तू जिनधर्मका पागधन कर दुखसे निवृति होय ऐसे प्रतिबोधके कारण आर्थिका के मनोहर बचन सुन मन्दोदरी महा विरक्त भई उत्तम हैं गुण जिसमें समस्त परिग्रह तज कर एक शुक्ल बस धारकर आर्यिका भई कैसी है मन्दोदरी मन बचनकायकर निर्भलजो जिनशासन उस में अनुरागिणी है और चन्द्रनखा रावणकी बहिन भी इसही आर्यिकाके निकट दीक्षाधर आर्यिका भई जिस दिन मन्दोदरी आर्यकाभई उसदिन अडतालीस हजार आर्यिकाभई इतिअठत्तरवां पर्व संपूर्णम्॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कह हैं हे राजन ! अब श्रीरामलक्ष्मणका विभूति सहित लंका में प्रवेश भया सो सुन महाविमानों के समूह और हाथियोंकी घटा और श्रेष्ठ तुरंगोंके समूह और मंदिर समान स्थ और विद्याधरोंके समूह और हजारां देव तिनकर युक्त दोनों भाई महाज्योति ।।
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पद्म पुरागा 19९४
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को धरे लंका प्रवेश करते भए तिनको देख लोक अति हर्षित भए जन्मान्तरके धर्म के फल प्रत्यक्ष देखते भए राजमार्ग में जाते श्रीराम लक्षमण तिनको देख नगरके नर और नारियों को अपूर्व आनंद भया फूल रहे हैं मुख जिनके स्त्री झरोखावों में बैठी जालियों में होय देखे हैं कमल समान हैं मुख जिन के महाकौतुक कर युक्त परस्पर बार्ता करे हैं हे सखी देखो यह राम राजादशरथ का पुत्रगुणरूप रनों की राशि पूर्णमासीके चन्द्रमा समान है वदन जिसका कमल समान हैं नेत्र जिसके अद्भुत पुण्यकर यह पद पाया है प्रतिप्रशंसा योग्य है श्राकार जिनका धन्य हैं वह कन्या जिन्होंने ऐसे बर पाए जाने यहबर पाए उसने कीर्तिका थंभ लोक विषे थापा जिसने जन्मान्तरमें धर्म श्राचरा होय सोही ऐसा नाथ पांवे उससमान और नारी कौन जिसका यश अत्यन्त राजा जनककी पुत्री महाकल्याण रूपणी जन्मांतर में महा पुण्यं उपाजें हैं इसलिये ऐसे पति जैसे शची इंद्र के तैसे सीता रामके और यह लक्षमण बासुदेव चक्रपाणि शोभे है जिसने सुरेन्द्रसमान रावण रणमेहता नीलकमलसमान कांतिजिसकी और गौर कांतिकर संयुक्त जो बलदेव श्रीरामचन्द्र तिनसहित ऐसे सोहे जैसे प्रयाग विषे गंगा यमुना के प्रवाहका मिलाप सो है। और यह राजा चन्द्रोदय का पुत्र विराधित है जिसने लक्षमण से प्रथम मिलापकर विस्तीर्ण विभूति पाई और यह राजा सुग्रीव किहकंधापुर का धनी महा पराक्रमी जिसने श्रीराम देव से परम प्रीति जनाई और यह सीताका भाई भामंडल राजा जनक का पुत्र चन्द्रगति विद्याधरने पाला सो विद्याधरों का इंद्र है और यह अंगदकुमार राजा सुग्रीवका पुत्र जो रावणको बहुरूपिणी विद्या साधते विघ्न का उद्यमी भया और हे सखि यह हनूमान महासुन्दर उतंग हाथियों के रथ चढा पवनकर हाले है बानर के चिन्ह
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पद्म
SEYN
की ध्वजा जिसके जिसे देख रणभूमिमें शत्रु पलाय जांय सो राजा पवनका पुत्र अंजनीके उदर विष । पुराण, उपजा जिसने लंकाके कोट दरवाजे ढाहे हैं ऐसी बात परस्पर स्त्री जन करे हैं तिनके बचनरूप पुष्पों
की मालाकर पूजित जो रामसो राजमार्ग होय आगे गए एक चमर ढारती जो स्त्री उसे पूछा को हमारे विरहके दुःखकर तप्तायमान जो भामंडलकी वहिन सो कहां तिष्ठे है तब वह रत्नोंके चूडाकी ज्योति कर प्रकाश रूपहै भुजा जिसकी सो गांगुरकिर समस्याकर स्थानक दिखावतीभई हे देव यह पुष्पप्रकीर्ण नामा गिरि निझरनावों के जलकर मानों हास्यहीकरे है वहां नन्दनवन समान महा मनोहर बन उस. विषे राजा जनककी पुत्री कीर्तिशील है पग्विार जिसके सो तिष्ठे है इसभांति रामजीसे चमर ढारती स्त्री कहती भई और सीताके समीप जोउर्मिका नाम सखी सब सखियोंमें प्रीतिकी भजनहारी सो प्रांगुरी । पसार सीताको कहती भई हे देवि यह चन्द्रमा समानहै छत्र जिनका और चांद सूर्य समान हैं | कुंडल जिनके और शरद् के नीझरने समान है हार जिन के सो पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र तुम्हारे बल्लभ पाए तुम्हारे वियोगकर मुख विषे अत्यन्त खेदको धरे हैं हे कमलनेत्र जैसे दिग्गज आवे तैसे आवे हैं यह बात सुन सीताने प्रथम तो स्वप्न समान वृतांत जाना फिर आप अतिश्रानंदको धरे जैसे मेघपटलसे चन्द्र निकसे तैसे हाथीसे उतर आए जैते रोहिणीके निकट चन्द्रमाणावे तैसे पाए तब सीता नाथको निकट पाया जान अतिहर्षकी भरी उठकर सन्मुख बाई कैसी है सीता धूरकर धूसर है
अंग और केश बिखर रहे हैं श्याम पडगए होठ जिसके स्वभाव कर कृशथी और पतिके वियोगकर ॥ अत्यंत कृश भई अब पति के दर्शन कर उपजा है अतिहर्ष जिसको प्राण की अाशा बंधी, मानों स्नेह की
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पुराण
मन भराशरार की कांति कर पति से मिलाप ही करे है और मानों नेत्रों की ज्योतिरूप जलकर पतिको स्नानही isen करावे है और क्षणमात्र में बढ़ गई है शरीर की लावण्यता रूप संपदा और हर्ष के भरे निश्वास कर मानों
अनराग के भरेबीज बोवे है कैसी है सीता रामके नेत्रों को विश्रामकी भूमि और पल्लवसमान जे हस्त तिन कर जीते हैं लक्ष्मीके करकमल जिसने सौभाग्य रूप रत्नों की खान संपूर्ण चंद्रमा समानहै वदन जिसका चंद्र कलंकी यह निःकलंक विजुरी समान है कांति जिसकी वह चंचल यह निश्चल, प्रफुल्लित कमल समान हैं नेत्र जिसके मुखरूप चंद्रकी चंद्रिका कर अतिशोभाको प्राप्त भई है यह अद्भुत वार्ता है कि कमल तो चंद्रकीज्योति करमुद्रित होय हैं और इस के नेत्र कमल मुख चंद्रमा की ज्योति कर प्रकाश रूपहें कलुपता रहित उन्मत्त हैं.स्तन जिसके मानों कामके कलशही हैं सरल हैचित्त जिसकासो कौशल्याका पुत्र राणी विदेहा की पुत्री को निकट प्रावती देख कथन में न आवे ऐसे हर्ष को प्राप्त भया, और यह रति समान सुन्दरी रमण को प्रावता देख विनय कर हाथ जोड़ खडी अश्रुपात कर भरे हैं नेत्र जिसके जैसे शची इंद्र। के निकट आये रति काम के निकट प्राव दया जिनधर्म के निकट प्राव सुभद्रा भरत के निकट श्रावे तैसे । ही सीता सती गमके समीप बाई सो घने दिनोंका वियोग उसकर खेदखिन्न रामने मनोरथके सैकड़ों कर । पाया है नवीन संगम जिसने सोमहाज्योतिका धरणहाग सजलहैं नेत्र जिसके भुज बंधन कर शोभित जे भुजा उनकर प्राण प्रिया से मिलता भया उसे उरसे लगाय सुख के सागरमें मग्न भया उर से जुदीन कर सके मानों विरह से डरे है और वह निर्मल चित्तकी धरणहारी प्रीतम के कंठ विषे अपनी भुज पांसि डार ऐसी सोहती भई जैसे कल्पवृक्षों से लपटी कल्प बोल सोहे, भया रोमांच दोनों के अंग विष परस्पर ।
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पुरावा
1890
मिलाप कर दोनोंही अति सोहते भये देवोंके युगुल समान हैं जैसे देव देवांगना सोहैं तैसे सोहतेभये सीता
और रामका समागम देख देव प्रसन्न भये सो अाकाशसे दोनों पर पुष्पों की वर्षा करते भये सुगंध जलकी वर्षा करतेभएऔरऐसेवचनमुखसे उचारतेभएअहो अनुपम है शील सीताका शभहै चित्त सीता धन्यहै इस की अचलता गंभीरता धन्य है व्रत शील की मनोग्यता भी धन्य है निर्मलपन जिस का धन्य है सतियों में उत्कृष्टता की जाने मन कर भी द्वितीय पुरुष न इच्छाशद्ध है नियम व्रत जिसका इस भांति देवोंने प्रशंसा करी उसही समय अतिभक्ति का भरा लक्षमण प्रायसीता केपायन पड़ा विनय कर संयुक्त सीता अश्रुपात डारती ताहि उरसों लगाय कहती भई हे वत्स महा ज्ञानी मुनि कहते जो यह बासुदेव पद का धारक है सो त प्रकट भया और अर्धचक्री पद का राज तेरे पाया निरन्थ के वचन अन्यथा न होय
और यह तेरे बड़े भाई बलदेव पुरुषोत्तम जिन्होंने विरह रूप अग्नि में जरती जो में सोनिकासी फिर चंद्रमा समान है ज्योति जिसकी ऐसा भाई भामंडल बहिन के समीप आया उसे देख अतिमोह कर मिली कैसा है भाई महा विनयवान है और सुग्रीव वा हनूमान् नल नील अंगद विराधित चंद्र सुषेण जांचव इत्यादि बड़े बड़े विद्याधर अपनानाम सुनायवंदना औरस्तुतिकरतेभएनाना प्रकारकेवस्त्राभूषण कल्पवृक्षोंकेपुष्पों की माला सीता के चरण के समीप स्वर्ण के पात्र में मेल भेट करते भए और स्तुति करते भए हे देवि तुम तीनलोक विषे प्रसिद्ध हो महो उदारता को धरो हो गुण संपदा कर सब में बड़े हो देवों कर स्तुति करने योग्य हो और मंगल रूप है दर्शन तुम्हारा जैसे सूर्य की प्रभा सूर्य सहित प्रकाश करे तैसे तुम श्रीरामचन्द्र सहित जयवन्त होवो ॥
वन्नासीवां पर्व समपूर्णम् ॥
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पुराण .७६८॥
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अथानन्तर सीता के मिलाप रूप सूर्य के उदय कर फल गया है मुख कमल जिनका ऐसे जो राम सो अपने हाथ कर सीता का हाथ गह उठे ऐरावत गज समान जो गज उस पर सीता सहित आगे हण किया मेव समान वह गज उस की पीठ पर जानली रूप रोहिणी कर युक्त राम रूप चन्द्रमासोहते भए समाधान रूप है बुद्धि जिनकी दोनों अतिप्रीति के भरे प्राणीटं के समूहको भानंदके करता बड़े बडे अनुरागी विद्याधर लार लक्षमण लार स्वर्ग विमान तुल्य रावण का महल वहाँ श्रीराम पधारे रावणके महिल के मध्य श्रीशांतिनाथ का मंदिर अति सुन्दर जहां स्वर्ण के हजारों थंभ नाना प्रकार के रत्नोंकर मंडित मंदिर की मनोहर भीति जैसे महाविदेह केमध्य सुमेरु सोहे तैसे रावण के मंदिर में शांतिनाथ का मंदिर सोहे जिसको देख नेत्र मोहित होय जांय जहां घंटा बाजे हैं ध्वजा फरहरे हैं महा मनोहर वह शांतिनाथ का मन्दिर बरणन में न आवे श्रीराम हाथी से उतर नागेंद्र समान है पराक्रम जिनका प्रसन्न हैं नेत्र महालक्ष्मीवान जानकी सहित किंचित्काल कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञाकरी प्रलंबित, भुजा जिनकी महा प्रशांत हृदय सामायिक को अंगीकार कर हाथ जोड़ शांतिनाथ स्वामी का स्तोत्र समस्त अशुभ कर्म का नाशक पढ़ते भए हे प्रभो तुम्हारे गर्भावतार में सर्वलोक में शांति भई महा कांति की करणहारी सर्वरोग हरणहारी और सकल जीवन को आनन्द उपजे और तुम्हारे जन्मकल्याणकमें इन्द्रादिक देव महा हर्षित होय पाए क्षीर सागर के जल कर सुमेरु पर्वत पर तुम्हारा जन्माभिषेक भया और तुमने चक्रवती पद घर जगत् का राज्य किया वाह्यशत्रु वाह्यचक्रसे जीते और मुनि होय माहिले मोह रोगादिक शत्रु ध्यानकर जीते केवल बोध लहा जन्म जरा मरणसे रहित जो शिवपुर कहिये मोक्ष उसकातुम
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पद्म पुराण
496Cu
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अविनाशी राज्य किया कर्म रूप बैरी ज्ञान शस्त्रसे निराकरण किए कैसे हैं कर्म शत्रु सदा भव भ्रमण के कारण और जन्म जरा मरण भय रूप श्रायुधोंकर युक्त सदा शिवपुर पथके निरोधक कैसा है वह शिवपुर उपमा रहित नित्य शुद्ध जहां परभाव का ध्याश्रय नहीं केवल निज भावका याश्रय है अत्यन्त दुर्लभ सो तुम थप निर्वाणरूप औरोंको निर्वाणपद सुलभ करोहो सर्व जगतको शांति के कारण हो हे श्री शांतिनाथ मन वचन काय कर नमस्कार तुमको हे जिनेश हे महेश अत्यन्त शांति दिशाको प्राप्तभए हो स्थावर जंगम सर्वजीवोंके नाथहो जो तुम्हारे शरण यावे तिसके रक्षक हो समाधि बोघ के देनहारे तुम' एक परमेश्वर सवन के गुरु सबके बांधव हो मोक्ष मार्ग के प्ररूपणहारे सर्व इंद्रादिक देवों कर पूज्य धम तीर्थके कर्ताहो तुम्हारे प्रसाद कर सर्व दुख से रहित जो परम स्थानक ताहि मुनिराज पावे हैं हे देवाधिदेव नमस्कार है तुमको सर्व कर्म विलय किया है है कृतकृत्य नमस्कार तुमको पाया है परम शांति पद जिन्हों
तीनलोक को शांति के कारण सकल स्थावर जंगम जीवोंके नाथ शरणागत पालक समाधि बोध के दाता महाकांतिके धारक हो हे प्रभो तुमही गुरु तुमही बांधव तुमही मोक्षमार्ग के नियंता परमेश्वर इन्द्रादिक देवोंकर पूज्य धर्म तीर्थक कर्ता जिनकर भव्य जीवोंको सुख होय सर्व दुखके हरणहारे कर्मों के अन्तक नमस्कार तुमको, हेलव्ध लभ्य नमस्कार तुमको लब्ध लभ्य कहिये पाया है पायवे योग्य पद जिन्होंने महा शांत स्वभावमें विराजमान सर्व दोष रहित हे भगवान कृपाकगे वह अखंड अविनाशी पद हमें देवो इत्यादि महास्तोत्र पढ़ते कमल नयन श्रीराम प्रदक्षिणा देकर बन्दना करतेभए महा विवेकी पुण्यकर्म में सदा प्रवीण और रामके पीछे नम्रीभूत है अंग जिसका दोनोकर जोड़े महा समाधान रूप जानकी स्तुति
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प
या
७
11400
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करती भई श्रीराम के शब्द महा दुन्दुभी समान और जानकी महामिष्ट कोमल बीए समान बोलती भई और विराल्या सहित लक्ष्मण स्तुति करते भए, और भामण्डल सुग्रीव तथा हनूमान मंगलस्तोत्र पढ़ते भए जोड़े हैं कर कमल जिन्होंने और जिनराजमें पूर्ण है भक्ति जिनकी महा गान करते मृदंगादि बजावते महा ध्वनि करते भए मयूर मेघकी ध्वनि जान नृत्य करते भए बारम्बार स्तुति प्रणाम कर जिनमन्दिर में यथायोग्य तिष्ठे उससमान राजा विभीषण अपने दादा सुमाली और तिनके लघुवीर माल्यवान् और सुमाली के पुत्र रत्नश्रवा रावणके पिता तिनको यदि दे अपने बड़े तिनका समाधान करता भया, कैसा है विभीषण संसार ताके उपदेश में अत्यन्त प्रवीण सो बड़ों को कहता भया हे तात यह सकल जीव अपने उपार्जे कर्मों को भोगे हैं इसलिये शोक करना वृथा है और अपना चित्त समाधान करो आप जिन आगम के वेत्ता महा शांतचित्त और विचक्षणहो औरों को उपदेश देयवे योग्य आपको हम क्या कहें जो प्राणी उपजा है सो अवश्यमरणको प्राप्तहोय है औरयौवन पुष्पोंकी सुगंधतासमानक्षणमात्रमें और रूपहोय है और लक्ष्मी पल्लवकी शोभासमानशीघ्रही और रूप होय है औरविजुरीके चमत्कारसमानयह जीतव्य है औौरपानी के बुदबुदासमान बंधूका समागम है और सांझकेबादर के रंगसमान यह भोग हैं जो यहजी व परमार्थकनय करमरण न करतो हमभवांतरसे तुम्हारेवंश में कैसे यावते हे तातयपनाही शरीरविनाशीकहैतोहितुजन का अत्यंत शोक काहे को करिए शोक करना मूढ़ता है सत्यपुरुषों को शोक से दूर करिबे अर्थ संसारका स्वरूप विचारणा योग्य है, देखे सुने अनुभव जे पदार्थ वे उत्तम पुरुषों को शोक उपजावे हैं परन्तु विशेष शोक न करना क्षणमात्र भया तो भया इस शोककर बांधवका मिलापनहीं बुद्धिभ्रष्ट होय है इसलियेशोक न करना
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प पुरा
१८०१
यह विचारणा इस संसार असारमें कौनकौन न भए ऐसा जान शोकतजना अपनी शक्ति प्रमाण जिन धर्म का सेवन करना यह बीतराग का मार्ग संसार सागरका पार करणहारा है सो जिनशासन में चित्त घर अात्म कल्याण करना इत्यादि मनोहर मधुर वचनोंकर विभीषण ने अपने बड़ों को समाधान किया फिर अपने निवास गया अपनी विदग्ध नामा पटराणी समस्त व्यवहार में प्रवीण हजारों राणियों में मुख्य उसे श्रीरामके नौतिवेको भेजी सो आयकर सीता सहित रामको और लक्ष्मणको नमस्कार कर कहती भई हे देव मेरे पतिका घर अापके चरणारविन्द के प्रसंगकर पवित्र करो श्राप अनुग्रह करिवे योग्य हो इसभांति राणी विनती करे है तबही विभीषण अाया अतिओदर से कहता भया हे देव उठिये मेरा घर पवित्र करिए तब आप इसके लार ही इसके घर जायबे को उद्यमी भए नानाप्रकार के बाहन कारी घटा समान गज अति उत्तंग और पवनसमान चंचल तुरंग और मंदिर समान स्थ इत्यादि नाना प्रकारके जे बाहन तिनपर मारूढ अनेक राजा तिन सहित विभीषणके घर पधारे समस्त राजमार्ग सामंतों कर प्राछादित भया विभीषण ने नगर उछाला मेघकी ध्वनि समान वादित्र बाजते भए, शंखों के शब्द कर गिरि की गुफा नाद करती भई झंझा भेरी मृदंग ढोल हजारों बाजते भए लपाक काहल धुन्धु अनेक बाजे और दुन्दभी बाजे दशों दिशा वादित्रों के नादकर पूरीगई ऐसेही तो वादित्रों के शब्द और ऐसेही नानाप्रकार के बाहनोंके शब्द ऐसेही सामंतों के अट्टहास तिनकर दशो दिशा पूरित भई कैयक सिंह शार्दूल पर चढे हैं कैयक केशरी सिंहों पर चढ़े हैं कैयक रथों पर चढ़े हैं कैयक हाथियों पर कैयक तुरंगोंपर चढ़े हैं नाना प्रकार के विद्यामई तथा समान बाहन तिनपरचढे चले नृत्यकारिणीनृत्य करे
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पन पुराण ॥८०२०
| हैं नट भाट अनेक कला अनेक चेष्टा करे, अति सुन्दर नृत्य होय है बन्दीजन विरद बखाने हैं ऊंचे स्वर
से स्तुति करे हैं, और शरदकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान उज्ज्वल छत्रों के मंडल कर अंबर छाय रहा है नाना प्रकार के आयुधों की कांति कर सूर्य की किरण दब गई है, नगर के सकल नर नारी रूप कमलनी के बन को आनन्द उपजावते भानु समानश्री राम विभीषणके घर गए। गौतमस्वामी कहे हे हे श्रेणिक उस समय की बिभूति कही न जाय महाशभ लक्षण जैसी देवों के शोभा होय तसी भई विभीषण ने अर्थ पाद्य किये अति शोभा करी श्री शांतिनाथ के मंदिर से लय अपने महिलतक महा मनोग्यपांडवकिये श्राप श्रीराम हाथीसे उतर सीता और लक्षमण सहित विभीषण के घरमें प्रवेश करते भये विभीषणके महिल के मध्य पद्मप्रभु जिनेंद्रका मंदिर रत्नोंके तोरणेंकर मंडित कनकमई उसके चौगिर्दअनेक मंदिर जैसे पर्वतों के मध्य समेरु सोहे तैसे पद्मपभुका मंदिर सोहे सुवर्ण के हजारों थम्भतिनके ऊपर अतिऊंचे देदीप्यमानप्रति विस्तार संयुक्त जिनमंदिर सोहें नानाप्रकारकी मणियोंके समूहकर मंडित अनेक रचनाको धरे अति सुंदर पद्मराग मणिमई पद्मप्रभु जिनेंद्रकी प्रतिमा अति अनुपम विराजे जिसकी कांतिकर मणियोंकी भूमि विष मानों कमलोंका बन फूल रहाहै सो रामलक्ष्मण सीतासहित बंदनाकर स्तुतिकर यथा योग्य तिष्ठे ॥
अथानन्तर विद्याधरोंकी स्त्रियें रामलक्षमण सीताके स्नानकी तयारी करावती भई अनेक प्रकार के सुगन्ध तेल तिनके उबटना किये नासिका को सुगंध और देहीकी अनुकूल पूर्व दिशाकी और स्नान ।
की चौकी पर विराजे बड़ी ऋद्धिकर स्नानको प्रवरते सुवर्ण के मरकत माणके हीरावों के स्फटिक | मणिके इंद्रनीलमाणके कलश सुगंध जलके भरे तिनकर स्नानभया, नाना प्रकारके वादित्र बाजे गीत ||
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पुराण ५८०३.
गान भए, जब स्नान होय चुका तब महापवित्र वस्र प्राभूषण पहिरे फिर पद्मप्रभुके चैत्यालय जाय बन्दना करी विभीषणने गमकी मिजमानी करी उसका बिस्तार कहां लग कहिए, दुग्ध दही घी शर्यत की वावड़ी भरवाई पक्वान और अन्नके पर्वत किए और जे अद्भुत बस्तु नन्दनादि बन में पाइये वे मंगाई मनको श्रानन्दकारी नासिकाको सुगन्ध नेत्रोंको प्रिय अतिस्वादको धरे जिह्वाको बल्लभष्ट रसोंसहित भोजनकी तयारी करी सामग्री तो सर्व सुन्दरही थी और सीताके मिलापकर रामको अति प्रिय लगीरामके चित्तकी प्रसन्नता कथनमें न आवे जब इष्टका संयोग होय तब पांचों इंद्रियोंके सर्वही भोग प्यारे लगे नातर नहीं, जब अपने प्रीतमका संयोग होयतब भोजन भली भांति रुचे मुगंधरुचे सुंदर बस्त्र का देखनारुचे रागका मुननारुचे कोमलस्पर्शरुचे मित्र के संयोगकर सब मनोहरलगे,और जब मित्रका वियोग होय तवस्वर्गतुल्य विषयभी नरकतुल्य भासे और प्रियके समागम विष महा विषमवन स्वर्गतुल्य भासे महा सुन्दर अमृतसारिखे रस और अनेक वर्णके अद्भुन भक्ष्य तिनकर रामलक्षमण सीताको तृप्त किये अद्भुत भोजन क्रिया भई भूमिगोचरी विद्याधर परिवार सहित अति सनमानकरजिमाए, चंदनादि सुगंधके लेप किये तिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं और भद्रसाल नंदनादिक वनके पुष्पों से शोभित किये और महा सुन्दर कोमल महीन बस्त्र पहिलाए नानाप्रकारके रत्नोंके आभूषण दिए कैसे हैं आभूषण जिनके रत्नों की ज्योतिके समूहकर दशोंदिशा में प्रकाश होरहा है जेते रामकी सेनाके लोक थेवे सब विभीषण ने सनमान कर प्रसन्न किये सबके मनोरथ पूर्ण किये रात्रि और दिवस सब विभीषण ही का यश करें अहो यह विभीषण राक्षसबश का प्राभूषणहै जिसने राम लक्षमणकी बड़ी सेवा करी यह महा प्रशंसा ।
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पण योग्यहै मोटा पुरुष है यह प्रभावका धारक जगत विषे उतंगताको प्राप्तभया जिसके राम लक्षमण मंदिर ॥८०४ में पधारे, इस भांति विभीषणके गुण ग्रहण विषे तत्पर विद्याघर होते भए सर्व लोक मुख से तिष्ठे
राम लक्षमण सीता और विभीषण की कथा पृथ्वी विषे प्रवरती ॥
अथानन्तर विभीषणादिक सकल विद्याधर राम लक्षमण का अभिषेक करने को विनयकर उद्यमी भए तब श्रीराम लक्षमणने कही अयोध्या विषे हमारे पिताने भाई भरतको अभिषेक कराया सोभरत ही हमारे प्रभु हैं तब सपने कही आपको यही योग्य है परन्तु अब श्राप त्रिखंडी भए तो यह मंगल स्नान
योग्यही है इसमें क्या दोष है और ऐसी सुनने में आये है भरत महा धीर है और मन बचनकाय कर | आपकी सेवामें प्रवरत है विक्रियाको नहीं प्राप्त होयह ऐसा कह सबने गमलक्षमण का अभिषेक सकिय | जगत विषे बलभद्र नारायणकी प्रति प्रशंसा भई जैसे स्वर्ग विषे इंद्र प्रतिइंद्र की महिमा हो तैसे लंका विषे राम लक्ष्मणकी माहिमा भई इंद्रके नगर समान वह नगर महा भोगोंकर पूर्ण वहां राम लक्षमणकी आज्ञा से विभीषण राज्य करे है नदी सरोवरों के तीर और देशपुर प्रामादिमे विद्याधर राम लक्षमणही का यश गावते भए विद्याकर युक्त अद्भुत प्राभूषण पहिरे सुन्दर वस्त्र मनोहर हार सुगंधा दिकके विलेपन उनकर युक्त क्रीड़ा करते भए जैसे स्वर्ग विषे देव क्रीड़ा करे और श्रीरामचंद्र सीता | का मुख देखतें तृप्ति को न प्राप्तभए कैसा है सीताका मुख सूर्यके किरणकर प्रफुल्लित भया जो कमल
उस समानहै प्रभा जिसकी अत्यन्त मनकी हरणहारी जो सीता उस सहित राम निरंतररमणीय भूमि | विषे रमते भए और लचमण विशल्या सहित रतिको प्राप्त भए मनवांछित सकल वस्तु का है समागम
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पद्म पुरा
१८०५॥
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जिनके उन दोनों भाइयोंके बहुत दिन भोगोपभोग युक्त सुख से एक दिवस समान गए, एक दिन लक्ष्मण सुन्दर लक्षणों का धरणहारा विराधित को अपनी जे स्त्री तिनके लेयवे अर्थ पत्र लिख बड़ी ऋद्धिसे पठावता भया सोजायकर कन्यावोंके पितावों को पत्र देताभया माता पितावोंने बहुत हर्षित होय कन्यायों को पठाई सो बडी विभूति सो आई देशांग नगर के स्वामी बज्रकर्णकी पुत्री रूपवती महा रूपकी धरणहारी और कूवर स्थानक नाथ बालखिल्यकी पुत्री कल्याणमाला परम सुन्दरी और पृथ्वी
नगरके राजा पृथ्वीवर की पुत्री बनमाला गुणरूपकर प्रसिद्ध और खेमाजल के राजा जितशत्रु की पुत्री जितपद्मा और उज्जैन नगरी के राजा सिंहोदरकी पुत्री यह सब लक्ष्मणके समीप आई विराधितले लाया जन्मांतर के पूर्ण पुण्य दया दान मन इंद्रियों को बशकरना शील संयम गुरुभक्ति महा उत्तम तप इनशुभ कर्मों कर लक्ष्मण सा पतिपाइये इन पतिव्रतावोंने पूर्व महातप किये थे रात्रि भोजन तथा चतुर्विधि संघकी सेवा करी इसलिए बासुदेव पतिप ये उनको लक्ष्मणही बर योग्य और लमण के ऐसेही स्त्री योग्य तिनकर लक्ष्मणको और लक्ष्मणकर तिनको प्रति सुख होताभया परस्पर सुखीभये गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे श्रेणिक जगतविषे ऐसी संपदानहीं ऐसी शाभा नहीं ऐसा भोग नहीं ऐसी लीला नहीं ऐसी कला नहीं जो इनके न भई रामलक्षमण और इनकी राणी तिनकी कथा कहां लग कहें और कहां कमल कहांचन्द्र इन के मुखकी उपमा पावे और कहां लक्ष्मी और कहांरति इनकी राशियों की उपमा पावें रामलचमण की ऐसी संपदा दखविद्याधरों के समूहको परम आश्चर्य होताभया चन्द्रवर्धन की पुत्री और अनेक राजावकी कन्या तिनसे श्रीराम लक्षमणका अति उत्सव से विवाह होता भया सर्व लोकको
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अानन्द के करणहारे दे दोनों भाई महाभोगोंके भोगतामन वांछित सुख भोगते भये इंद्र प्रतींद्र समान आनन्द कर पूर्ण लंका विषेरमतेभये सीता विषे हे अत्यन्त राग जिनका ऐसे श्रीराम तिन्होंने छहवर्ष लंका में व्यतीत किये सुखके सागरमें मरन सुन्दर चेष्टाकेधरण हारे श्रीरामचन्द्र सकलदुःख भूलगए॥
अथान्तर इंद्रजीतमुनि सर्व पापोंके हरनहारे अनेकऋद्धिसहितागजमान पृथिवी विष विहार करते भये वैराग्यरूप पवनकर प्रेरी ध्यानरूप अग्निकर कर्मरूपवन भस्मकिये कैसा है ध्यानरूप अग्नि क्षायक सम्यक्तहप अरण्यकी लकडी उसकर करहै और मेघवाहन मुनिभी विषयरूपईंधनको अग्नि समान प्रारम ध्यानकर भस्मकरते भये केवलज्ञानको प्राप्तभय केवलज्ञान जीवका निजस्वभावहै और कुम्भकर्ण मुनि सम्यक दर्शन ज्ञानचारित्र के धारक शुक्ल लेश्या कर निर्मल जो शुक्लध्यान उसके प्रभावकर केवलज्ञान को प्राप्त भये लोक और अलोक इनको अवलोकन करते मोहरज रहित इंद्रजीत कुम्भकर्ण केवलीश्रायु पूर्णकर अनेक मुनियों सहित नर्मदाके तीर सिद्धपद को प्राप्त भये सुरसुर मनुष्योंके अधिपतियोंकर गाइये है उत्तम र्कीति जिनकी शुद्ध शीलके धारणहारे महादेदीप्यमान जगत बंधु समस्त ज्ञेयकेज्ञाता जिनके ज्ञान समुद्रमें लोकालोक गायके खुर समान भासे संसारका क्लेश महा विषम उसके जालसे निकसे जिसस्थानक गए फिरयत्न नहीं वहां प्राप्त भये उपमा रहित निर्विघ्न अखंडमुखको प्राप्त भये जे कुंभकर्णादिक अनेक सिद्ध भये वे जिनसासनके श्रोतावों को अरोग्य पद देवें नाश किये हैं कर्म शत्रु जिन्होंने वे जिनस्थानकों से सिद्धभए हैं वे स्थानक अद्यपि देखिये हैं वे तीर्थ भब्योंकर बंदवेयोग्य हैं विंध्याचलकी बनी विषे इंद्रजीत मेघनाद तिष्ठेसो तीर्थ मेघरवकहा है और जम्बूमाली महा बलवान |
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पद्म
पुराण
॥८०७॥
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तूणीमत नामापर्वत विषे अहिमिंद्र पदको प्राप्त भए सो पर्वत नानाप्रकारके वृक्ष और लतावो कर मंडित अनेक पक्षियोंके समूह कर तथा नानाप्रकारके बनचरों कर भरा हो भव्यजीव हो जीवदया आदि अनेक गुणों कर पूर्ण ऐसाजो जिनधर्म उसके सेवन से कछु दुर्लभ नहीं जिनधर्म के प्रसाद से सिद्धपद अहिमिंद्रपद इत्यादिकपद सबही सुलभ हैं जम्बूमालीका जीव अहिमिंद्र पदसे ऐगवत क्षेत्र विषे मनुष्य हाये केवल उपाय सिद्धपद को प्राप्त होवेंगे और मंदोदरीका पिता चारण मुनि होय महा ज्योतिको घरे
द्वीप विषे कैलाश आदि निर्वाण क्षेत्रोंकी और चैत्यालयों की बंदना करते भये देवोंका है श्रागमन जहां सो मय महामुनि रत्नत्रय रूप श्राभूषण कर मंडित महावीर्य धारी पृथिवी विषे विहार करें। और मारीच मंत्री महा मुनि स्वर्ग विषे वडी ऋद्धिके धारी देव भये जिनका जैसा तप तैसा फल पाया सीताके दृढ़ कर पतिकामिलाप भया जिस को रावण डिगाय न सका सीताका अतुलधीर्य अद्भुतरूप महानिर्मल बुद्धि भरतारविषे अधिकस्नेह जो कहने में न आवे सीता महा गुणों र पूर्णशील के प्रसादसे जगत विषे प्रशंसा योग्य भई कैसी है सीता एक निजपति विषे है संतोष जिसके भवसागर की तरणहारी परंपराय मोतकी पात्र जिसकी साधु प्रशंशा करें गौतमस्वामी कहें हैं है श्रेणिक जो स्त्री विवाहही नहीं करे बाल ब्रह्मचर्य घरे सो तो महाभाग्यही है और पतिव्रता का व्रत च्यादरे मनबचनकायकर परपुरुषका त्याग करे तो यह व्रत भी परम रत्न हैं स्त्री को स्वर्ग और परंपराय मोक्ष देवे को समर्थ है शीलवत समान और व्रत नहीं शील भवसागर की नाव है राजामय मंदोदरीका पिताराज्य अवस्था में मायाचारी था और कठोर परणामी था, तथापि जिन धर्म के प्रसादसे राग द्वेष रहित हो अनेक ऋद्धि
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पद्म पुराख
८०८
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का धारक मुनि भया यह कथा सुन राजा श्रेणिक गौतमस्वामीको पूछतेभए हे नाथ में इन्द्रजीतादिक का महात्म्य सब सुना अब राजा मयका महात्म्य सुना चाहूं हूं और हे प्रभो जो इस पृथिवी में पतिव्रता शीलवती स्त्री हैं निज भरतारमें अनुरक्तहें वे निश्चयसे स्वर्ग मोक्षकी अधिकारिणो हैं तिनकी महिमा मुझे विस्तार से कहो, तब गणधर कहते भए जे निश्चयकर सीता समान पतित्रता शीलको धारण करे वे चल्प भव में मोक्ष होय हैं, पतिव्रता स्वर्गही जाय परम्पराय मोक्ष पावें, अनेक गुणोंकर पूर्ण । हे राजन् जे मन वचन काय करशीलवन्ती हैं चित्तकी वृत्ति जिन्होंने रोकी है वे धन्य हैं घोड़ों में हाथियों में लोहेन में पाषाण में वस्त्रों में काष्ठो में जल में वृक्षोंमें बेलों में स्त्रियों में पुरुषों में बड़ा अन्तर है सबही नारियों में पतिव्रता न पाइये और सबही पुरुषों मेंविवेकी नहीं जे शील रूप अंकुश कर मन रूप माते हाथी को वश करें वे पतिव्रता हैं पतिव्रता सवही कुलमें होय हैं और वृथा पतित्रताका अभिमान कीया तो क्या जे जिन धर्मसे वहिरमुख हैं वे मन रूप माते हाथीको वश करने समर्थ नहीं वीतराग की बाणीकर निर्मल या है चित्त जिनका वेई मनरूप हस्तीको विवेक रूप अंकुश से वशीभूत कर दया शील के मार्ग में चलायवे समर्थ हैं । हे श्रेणिक एक अभिमाना नाम स्त्री उसकी संक्षेपसे कथा कहिए है सो सुन यह प्राचीन कथा प्रसिद्ध है एक ध्यानग्रामनामो ग्राम वहां नोदन नामा ब्राह्मण उसके अभिमाना नाम स्त्री सो अग्निनामा ब्राह्मणकी पुत्री माननी नाम माता के उदर में उपजी सो थति अभिमान की धरण हारी सो नोदन नामा ब्राह्मण चुधाकर पीड़ित होय अभिमाना को तजदई सो गज बन में करूरूह नाम राजाको प्राप्त भई, वह राजा पुष्प प्रकीर्ण नगरका स्वामी लंपट मो ब्राह्मणी को रूपवन्ती जान
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पद्म पुराण 1508
लेगया स्नेह कर घर में राखी एक दिन रति में उसने राजा के मस्तक में चरण की लात दई प्रात समय सभा में राजाने पंडतों से पूछा जिसने मेरा सिर पांव कर हता होय उसका क्या करना तब मूर्ख पंडित कहते भए हे देव उसका पांव छेदना अथवा प्राणहरने उससमय एक हेमांक नामा ब्राह्मण राजा के अभिप्राय का वेत्ता कहताभया उसके पांचकी आभूषणादि कर पूजा करिये तब राजाने हेमांक को पूछी हे पंडित तुमने रहस्य कैसे जाना तब उसने कही स्त्री के दन्तों के तुम्हारे अधरोंमें चिन्ह दीखे इस लिये यह जानी स्रो के पांकी लगी तब राजाने हेमांकको अभिप्राय का बेत्ता जान अपना निकट कृपापात्र किया बड़ो ऋद्ध दई सो हेमांक घाके पास एक मित्र यशानामा विधवा ब्राह्मणी महादुःख अमोघ सर नाम ब्राह्मणकी स्त्री है सो रहे सो अपने पुत्र को शिक्षा देती थी भरतार के गुण चितार चितार कहती थी हे पुत्र वाल अवस्था में जो विद्याको अभ्यास करे सो हेमांककी न्याई महा विभूति को प्राप्त होय इस हेमांक ने बाल अवस्थामें विद्याका अभ्यास किया सो अब इसकी कीर्ति देख और तेरा बाप धनुष बाण विद्यामें अति प्रवीण थे उसके तुम सुपुत्र भये प्रांसू डार माता ने यह वचन कहे उसके वचन सुन माताको धीर्य बंधाया महाअभिमान का धारक यह श्रीवर्धित नामा पुत्र विद्यासीखने केअर्थव्याघपुर नगरगया सो गुरुके निकट शस्त्र शास्त्रसर्व विद्या सीखी और इस नगरके राजा सुकांतकी शीला नामा पुत्री उसे ले निकसा तब कन्या का भाई सिंहचन्द्र इस ऊपर चढ़ा सो इस अकेले ने शस्त्र विद्या के प्रभाव कर सिंहचन्द्र को जीता और स्त्री सहित माता के निकट अाया माता को हर्ष उपजाया शस्त्र कला कर इस की पृथिवी विषे प्रसिद्ध कीर्ति भई सो शस्त्र केबल कर पोदनापुर के राजाराजाकरूरुह
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को जीत कर लिया और व्यापपुर का राजा शीला का पिता मरण को प्राप्त भया उसका पुत्र सिंहचन्द्र । पुराण | शत्रुवोंने दवाया सो सुरंग के मार्ग होय अपनी राणी को ले निकसा राज्यभ्रष्ट भया पोदनापुर विषे अपनी
बहिन का निवास जान तंबोली के लार पानों की झोली सिर परधरस्त्री सहित पोदनपुर के समीप पाया रात्रि को पोदनपुर के वन में रहा, इस की स्त्री मर्प ने डसी तब यह उसे कांधे धर जहां मय महामुनि विराजे थे वे बज्र के थंभ समान महानिश्चल कायोत्सर्ग धरे अनेक ऋद्धि के धारक तिनको भी सर्व
औषधी ऋद्धि उपजी थी सो तिन के चरणारविंद के समाप सिंहचन्द्र ने अपनी राणीडारीसो तिनके ऋद्धि के प्रभाव कर राणी निर्विष भई स्त्रीसहित मुनि के समीप तिष्ठे था उस मुनि के दर्शन विनयदत्त नाम श्रावक श्राया उसे सिंहचन्द्र मिला और अपना सब बृतान्त कहा तब उसने जाय कर पोदनापुरके राजा श्रीवर्धित को कहा जो तुम्हारी स्त्री का भाई सिंहनन्द्र पाया है तब वह शत्रु जान युद्ध को उद्यमी भया तब विनयदत्तने यथावत् बृतांत कहा जो तुम्हारे शरण आया है, तब उसे बहुत प्रीतिउपजी औरमहाविभूति से सिंहचन्द्र के सन्मुख आया दोनों मिले अति हर्ष उपजा फिर श्रीवर्धित मय मुनि को पछता भयो ह भगवन् में मेरे और अपने स्वजनों के पूर्व भव सुना चाह हूं तव मुनि कहते भए एक शोभपुर नामानगर वहां भद्राचार्य दिगंवरने चीमासे में निवास किया सो अमलनामा नगर का राजा निरंतर प्राचाय के दर्शनको प्रावे सो एक दिवस एक कोटिनी स्त्री उसकी दुर्गंध आई सो राजा पांवपयादाही भाग अपने घर गया उसकी दुर्गंध सह न सका और वह कोढणीने चैत्यालय दर्शन कर भद्राचार्य के समीप श्राविका के व्रतधारे, समाधि मरण कर देवलोक गई वहा से चयकर तेरी स्त्री शीला भई और वह राजा अमल
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पद्म। अपने पुत्र को राज्यभार सौंप श्राप श्रावकके व्रत धारे अाठ ग्राम पुत्र पैले संतोष घरा शरीर तज देव लोक पुराण गया वहां से चय कर तू श्रीवर्द्धित भया, अब तेरी माता के भव सुन एक विदेशी क्षुधा कर पीडित
ग्राम में प्राय भोजन मांगता भया सो जब भोजन न मिला तब महा कोपकर कहता भया कि में तुम्हारा ग्राम वालंगा असे कटक शब्द कह निकसा दैवयोगसे ग्राममें आगलगी सो ग्राम के लोगों ने जानी इस ने लगाई तब क्रोधायमान होय दौंडे और उस ल्याय अग्नि में जराया सो महा दुःखकर राजा की रसोवणि भई मर कर नरक विषे घोरवेदना पाई वहां से निकस तेरी माता मित्र यशा भई और पोदनापुर विषे एक गोवाणिज गृहस्थ मर कर तेरी स्त्री का भाई सहचन्द्र भया
और वह भुजपत्रा उस को रे रतिवर्धनी भई पूर्व जन्म विपे पशुओं पै वोझ लादे थे सो इस भव विषे भारवहे, ये सर्व के पूर्व जन्म कह कर मय महा मुनिअाकाश मार्ग विहार करगए और पोदनापुरका राजा श्रीवर्धित सिंहचन्द्र सहित नगर में गया, गौतमस्वामी कहे हैं हे श्रोणिक यह संसार की विचित्र गति है कोईयक तो निर्धन से राजा हो जाय और कोई यक राजा से निर्धन हो जाय है श्रीवर्धित ब्राह्मण कापुत्र सा राजा होयगया और सिंहचन्द्रराजाका पुत्रसो राज्य भ्रष्ट होय श्रीवर्धित के समीप आया एक गुरुके निकट प्राणी धर्मका श्रवण करे तिन में कोई समाधि मरणकर सुगति पावे कोई कुमरण कर दुर्गति पावे कोई रत्नों के भरे जहाज सहित समुद्र उलंघ सुखसे स्थानक पहुंचे कोई समुद्र में डूबे किसी को चोर लूट लेय जावें ऐसा जगत्का स्वरूप विचित्र गति जान जे विवेकी हैं वे दया दान विनय वैराग्य जप तप इन्द्रियों का निरोध शांतता अात्मध्यान तथा शास्त्राध्ययनकरात्म कल्याण करे ऐसे मय मुनिके
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वचन सुन राजा श्रीवर्धित और पोदनापुरकेबहुत लोकशांतचित्त होय जिनधर्मका अाराधन करतेभए यह मय मुनिका महात्म्य जे चित्तलगाय पढ़ें सुनें तिनको वैरियोंकी पीडा न होय सिंहव्याघादि न हतें सर्पादिन डसें __ अथानन्तर लक्ष्मणके बड़े भाई श्रीरामचन्द्र स्वर्गलोक समान लक्ष्मी को मध्यलोक में भोगते भये चन्द्र सूर्य समानहै कांति जिनकी और इनकी माता कौशल्या भर्तार और पुत्रके वियोगरूप अग्नि की ज्वाला कर शोकको प्राप्त भया है शरीर जिसका महिल के सातवें खण बैठी सखियों कर मंडित अतिउदास आंसुवों कर पूर्ण हैं नेत्र जिसके जैसे गायको बच्छे का वियोग होय और वह व्याकुल होय उस समान पुत्र के स्नेह में तत्पर तीव्र शोक के सागर में मग्न दशों दिशा की ओरदेखे महिलके शिखर में तिष्ठता जो काग उसे कहे है हे बायस मेरा पुत्र राम श्रावे तो तुझे खीरका भोजन दू ऐसे वचन कहकर विलाप करे अश्रुपात कर कियाहै चातुर्यमास्य जिसने हाय वत्सतू कहांगया में तुझे निरन्तर सुख से लडाया था तेरे विदेश भ्रमणकी प्रीति कहां से उपजी कहां पल्लव समान तेरे चरण कोमल कठोर पंथ में पीड़ा न पावे महा गहन बन विषे कौन वृक्ष के तले विश्राम करता होयगा में मन्द भागिनी अत्यन्त दुःखी मुझे तज कर तू भाई लक्षमण सहित किस दिशाको गया इसभांति माता विलाप करे उस समय नारद ऋषि आकाश के मार्गमें आए पृथिवीमें प्रसिद्ध सदो अढाई द्वीप में भ्रमतेही रहें सिर पर जाशुक्ल वस्त्र पहिरे उसको समीप पावताजान कौशल्याने उठकर सन्मुख जाय नारदका आदरसहित सिंहासन विछाय सन्मान किया तब नारद उसे अश्रुपात सहित शोकवन्ती देख पूछतेभएहे कल्याणरूपिणी | तुम ऐसी दुःख रूप क्यों तुमको दुःखका कारण क्या सुकौशल महाराज की पुत्री, लोक विषे प्रसिद्ध,
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पद्म
पुरा
राजा दशरथ की राणी. प्रशंसा योग्य श्रीरामचन्द्र मनुष्यों में रत्न तिनकी माता, महा सुन्दर लक्षण १२ की धरण हारी तुम को कौन ने रुसाई जो तुम्हारी आज्ञा नमाने सो दुरात्मा है वारही उसका राजा दशरथ
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निग्रह करें तब नारदको माता कहती भई हे देवर्षे तुम हमारे घरका वृतांत नहीं जानो हो इसलिये कहो हो और तुम्हारा जैसा वात्सल्य इस घरसेथा सो तुम विस्तीर्ण किया कठोर चित्त होयगए अब यहां आावना ही तजा अब तुम बातही न बूझो हे भ्रमणप्रिय बहुत दिन में आए तब नारदने कही हे माता धातुकी खंड द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्र वहां सुरेंद्र रमणनामा नगर वहां भगवान तीर्थंकर देवका जन्म कल्याणक
या सो इन्द्रादिक देव आए भगवानको सुमेरुगिरि लेगए अद्भुत विभूतिकर जन्माभिषेक किया सो देवाधिदेव सर्व पाप नाशनहारे तिनका अभिषेक मैं देखा जिसे देखे धर्मकी बढ़वारी होय वहां देवों ने आनन्द से नृत्य किया श्री जिनेंद्र के दर्शन विषे अनुराग रूपहै बुद्धि मेरो सो महामने हर धातकी खंड विषे तेईस वर्ष मैंने सुखमे व्यतीत किये तुम मेरी मातासमान सो तुमको चितार इस जम्बूद्वीप के भरतचेत्र में आया अब कोइक दिन इस मंडलही में रहूंगा अब मोहि सब वृतांत कहो तुम्हारे दर्शन
आया हूं तब कौशल्याने सर्व वृतांत कहा भामंडलका यहां आावना और विद्याधरों का यहां आवना और भामंडलको विद्याधरों का राज्य और राजादशरथका अनेक राजावों सहित वैराग्य और रामचन्द्रका सीता सहित और लक्षमणके लार विदेशका गमन फिर सीताका वियोग सुग्रीवादिकका राम से मिलाप रावण से युद्ध लंकेशकी शक्तिका लक्षमण के लगना फिर द्रौणमेघ की कन्याका वहां गमन एती खबरतो हमको है फिर क्या भया सो खबर नहीं, ऐसा कह महादुःखित होय अश्रुपात डारती भई
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पद्म और विलाप किया हाय हाय पुत्र तू कहां गया शघ्रि आव मोसे वचन कहो, मैं शोकके सागरमें मग्न SM उसे निकास में पुण्यहीन तेरेमुख देखे बिना महा दुःखरूप अग्निसे दाहको प्राप्तभई मुझे सातादेवो और
सीता वाला पाणी रावण उसे बंदीगृहमें डारी महा दुःश्वसे तिष्ठती होयी निर्दई रावण ने लक्षमणके
शक्ति लगाई सो न जानिए जीव है के नहीं हाय दोनों दुर्लभ पुत्र हो, हाय सीता तू पतिव्रता क्यों | दुःखको प्राप्तभई यह वृतांत कौशल्या के मुख सुन नारद अति खेदखिन्न भया बीया धरतीमे डारदई और
अचेत होयगया फिर सचेत होय कहता भया हे माता तुम शोक तजो मैं शीघ्रही तुम्हारे पुत्रोंकी वार्ता क्षेम कुशल की लाऊहूं मेरे सब बातमें समर्थ है यह प्रतिज्ञाकर नारद बीणको उठाय कांधे धरी आकाश मार्ग गमन किया पवन समान है वेगजिसका अनेक देश देखतालका की ओर चला सो लंकाके समीपजाय बिचारी राम लक्ष्मणकी वाती कौन भांति जानियेमे आवे जो रामलक्षमण की वार्तापछिए तोरावणके लोकों से विरोध होय इस लिये रावणकी वार्ता पूछिये तो योग्य है रावण की बार्ता कर उनकी वार्ता जानी जायगी यह विचार नारद पद्म सरोवर गया वहां अंतःपुर सहित अंगद क्रीडा करता था उसके सेवकोको रावणकी कुशल पूछी वे किंकर सुनकर क्रोधरूप होय कहतेभए यह दुष्टतापस गवण का मिलापी है इसको अंगदके समीप लगए जो रावणकी कुशलपछेहै नारदने कहीमेगरावणसे कछुप्रयोजन नहीं तब किंकरों ने कही तेराकछु प्रयोजन नहीं तो रावणकी कुशल क्यों पूछेथा तब अंगदने हंसकर कही इस तापतको पद्मनाभिके निकटलेजावो सो नारदको खींचकर लेचले नारद विचारेहै नजानिये कौन पद्मनाभिहै कौशल्याका पुत्र होयतो मोसे ऐसी क्यों होय ये मुझे कहां लेजायहें मैं संशयमें पडाहूं जिन
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॥८१५॥
शासनके भक्त देव मेरी सहाय करो, अंगदके किंकर इसे विभीषणके मंदिर श्रीराम विराजेथे वहां लेगए। पुराण श्रीराम दूर से देख इसे नारद जान सिंहासनसे उठे अति आदर किया और किंकरोंसे कही इन से |
दूर जावो नारद श्रीराम लक्षमणको देख अति हर्षित भया आशीर्वाद देकर इनके समीप बैठा तब मार बोले अहो क्षल्लक कहां सेत्राए बहुतदिनों में पाएहो नीके हो तब नारदने कहाँ तुम्हारी माताकष्ट के सागर में मग्न है सो वार्ता कहिवे को तुम्हारे निकट शीघ्र ही आया हूं कौशल्या माता महासती जिनमती निरंतर अश्रुपात डारे है और तुम बिना महा दुखी है जैसे सिंही अपने बालक बिना व्याकुल होय तैसे अति व्याकुल भई विलाप करे है जिसका विलाप सुन पापाण भी द्रवाभूत होय तुमसे पुत्र माता के प्राज्ञाकारी
और तुम होते माता ऐसी कष्टरूपरहे यह आश्चर्य की बात, वह महागुणवती सांझ सकार में प्राण रहित होयगी जो तुमताहि न देखोगे तो तुम्हारे वियोग रूप सूर्यकर सूक जायगी इसलिये मोपे कृपा करो उठो उसे शीघ ही देखो इस संसार में माता समान पदार्थ नहीं तुम्हारी दोनों मातावों के दुख करके केकई सुप्रभा सवही दुखी हैं कौशल्या सुमित्रा दोनों मरण तुल्य होय रही हैं श्राहार नींद सब गई रात दिन प्रांसू डारे हैं तिनकी स्थिरता तुम्हारे दर्शन ही से होय जैसे कुरुचि विलाप करे तैसे विलाप करे हैं और सिर और उर हाथों से कूटे हैं दोनों ही माता तुम्हारे वियोग रूप अग्नि की ज्वाला कर जरे हैं तुम्हारे दर्शन रूप अमृत की धार कर उनका अाताप निवारो ऐसे नारद के वचन सुनदोनों भाई मातावोंके दुख
कर अति दुखी भए शस्त्र डार दीए और रुदन करनेलगे तब सकल विद्याधरोंने धीर्य बंधाया राम लक्षण | नारदसे कहतेभए महो नारद तुमने हमारा बड़ा उपकार किया हम दुराचारी माताको भूल गए सो तुम
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पद्म पुरा ne १६
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स्मरण कराया तुम समान हमारे और वल्लभ नहीं वही मनुष्य महा पुण्यवान् हैं जो माता के विनय में तिष्ठे हैं दास भए माता की सेवा करें जे माता का उपकार विस्मरण करे हैं वे महा कृतघ्न हैं इस भांति माता के स्नेह कर व्याकुल भया है चित्त जिनका दोनों भाई नारदकी प्रति प्रशंसा करते भए ।
अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मण ने उसी समय यति विभ्रम चित्त होय विभीषण को बुलाया और भामंडल सुग्रीवादि पास बैठ हैं दोनों भाई विभीषण से कहते भए हे राजन् इन्द्र के भवन समान तेरा भवन वहाँ हम दिन जाते न जाने अब हमारे माता के दर्शन की प्रति बांछा है हमारे अंग अति ताप रूप हैं सो माता के दर्शन रूप अमृतकर शांतता को प्राप्त होवें अब अयोध्या नगरी के देखने को हमारा मन | प्रवरता है वह अयोध्या भी हमारी दूजी माता है तब विभीषण कहता भया हे स्वामिन जो आज्ञा करोगे सो ही होयगा अवार ही अयोध्या को दूत पठावें जो तुम्हारी शुभवार्ता मातावों को कहें और तुम्हारे
गम की वार्ता कहें जो मातावों के सुख होय और तुमकृपाकर षोडश दिन यहांही विराजो हे शरणागत प्रतिपाल मोसे कृपाकरो ऐसा कह अपना मस्तकराम के चरण तले धरा तब राम लक्ष्मणने प्रमाण करी ॥
अथानन्तर भले भले विद्याधर अयोध्याको पठाए सो दोनों माता महिलपर चढ़ी दक्षिण दिशा की ओर देख रही थीं सो दूरसे विद्याधरों को देख कौशल्या सुमित्रा से कहती भई हे सुमित्रे देख दोय यह विद्याधर पवनके प्रेरे मेघ तुल्य शीघ्र यावे हैं सो हे श्रावके अवश्य कल्याण की वार्ता कहेंगे यह दोनों भाइयों के भेजे यावे हैं तब सुमित्राने कही मजो कहो हो सो ही होय यह वार्ता दोनों मातावों में होय है तब ही विद्याधर पुष्पों की वर्षा करते आकाश से उतरे प्रतिहर्ष के भरे भरतके निकट आए राजा भरत ति
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। प्रमोदका भरा इनका बहुतसन्मानकरताभया, औरयहप्रणोमकरअपनेयोग्यासनपरबैठे, अतिसुन्दरहै चित्त पुराण। जिनका यथावत बृतांत कहतेभए, हे प्रभो राम लक्ष्मणने रावण को हता विभीषणको लंकाका राज्य दीया
श्रीराम को बलभद्रपद और लक्ष्मण को नारायणपद प्राप्त भया, चक्ररत्न हाथ में आया तिन दोनों भाइयों के तीन खंड को परम उत्कृष्ट स्वामित्व भया, रावण के पुत्र इन्द्रजीत मेघनाद भाई कुम्भकर्ण जो बंदीगृह में थेसो श्रीराम ने छोड़े उन्होंने जिन दीक्षाघरनिर्वाण पद पाया और गरुडेन्द्र श्रीराम लक्ष्मण से देशभूषण कुलभूषण मुनि के उपसर्ग निवोरिखकर प्रसन्नभए थे सोजबरावण से युद्धभया उसहीसमय सिंह वाण और गरुडवाण दिये, इसभांति रोम लक्षमण के प्रताप के समाचार सुन भरत भूप अतिप्रसन्न भए तांबल सुगंधादिक तिन को दिये और इनको लेकर दोनों मोताओं के समीप मरत गया, राम लक्षमण की माता पुत्रों की विभति की वार्ता विद्याधरों के मुख से सुन पानंद को प्राप्त भई उसही समय आकाश के मार्ग हजारों वाहन विद्यामई स्वर्ण रत्नादिक के भरे आए और मेघमाला समान विद्याधरों के समूह अयोध्या में आये जैसे देवों के समूह पावें वे आकाश विषेतिष्ठे नगर विषे नाना रत्नमई बृष्टि करते भए रत्नों के उद्योत कर दशों दिशा विषे प्रकाश भया अयोध्याविषे एक एक गृहस्थके घर पर्वत समान सुवर्ण रत्नों की राशि करी अयोध्या के निवासी समस्त लोक ऐसे अति लक्षमीवान किए मानों स्वर्ग के देव ही हैं और नगर में यह घोषणा फेरी कि जिसके जिस वस्तु की इच्छा होय सो लेवो तब सब लोक प्राय कर कहते भए हमारे घर में अट भण्डार भरे हैं किसी वस्तु का बांछी नहीं अयोध्या में दरिद्रता का नाश भया, राम लक्षमण के प्रतप रूप सूर्य कर फूल गए हैं मुख कमल जिन के ऐसे अयोध्या के नर
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द्म
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नारी करते गए और वापर महाचतुर याय कर रत्न स्वर्ण मई मन्दिर नाम और भगवान् के त्यालय महामनोग्य ने बनाये मानों विन्ध्याचल के शिखर ही हैं। हजारों स्तम्भों कर मंडित नाना प्रकार के मंडप रचे और रत्नों कर जडित उन के द्वार रचे जिन मंदिरों पर वक्ताओं की पंक्ति छहरें हैं तोयों के समूह तिन कर शोभायमान जिनमंदिर रूपें गिरों के शिखर समान ऊंचे तिन में यहा उत्सव होते गए कार्य कर भरी अयोध्या होती मई लंका की शोभा को जीतनारा संगीत की धनी कर दशों दिशा शब्दायमान भई कारी घटासमान वन उपवन सहोते अए जिन में नाना प्रकार के फल फूल तिन परभ्रमर गुंजार कर हैं समस्त दिशावों विषे वन उपवन ऐसे सोते भए म नन्दनवन ही है अयोध्या नगरी वारयोजन लम्बी नव योजन चौड़ी प्रतिशोआयमान मालती भई सोलह दिन में विद्यावर शिलावटों ने ऐसीबनाई जिसका सौ वर्ष तक वर्णनभी नकीया जाय जहां वापीयों के रत्न स्वर्णके सिवान और सरोवरों के रत्नके तट जिनमें कमल फूल रहे हैं ग्रीष्मविष सदा भरपूर ही रहे जिनके तट भगवान के मंदिर और वृक्षों की पंक्ति प्रति शोभा को घरे स्वर्गपुरी समान नगरी सो बलभद्र नारायण लंका से श्रवोध्या की ओरगमनको उद्यमी भए गौतम स्वामी कहे हैं। हे कि जिस दिन से नारद के मुख से राम लक्ष्मणने माताओं की वार्तामुनीउसी दिन से सब बात भूल गए दोनों माता का ध्यान करते भये पूर्व जन्म के पुण्य कर ऐसे पुत्र पाइए पुण्य के प्रभावकर सर्व वस्तुकी सिद्धि होवे है पुण्यकर क्या न होय इसलिये हे प्राणीही पुण्य में तत्पर होवो जिसकर शोकरूप सूर्यका आताप न होय ॥ इति इक्यासीवां पर्व संपूर्ण ॥
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पद्म पुराण
४८ १६ ।।
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अथानन्तर सूर्य के उदय होतेही बलभद्र नारायण पुष्पक नामा विमान में चढ़कर अयोध्या को गमन करते भए प्रकार के वाहनों पर थारू विद्याधरों के अधिपति राम लक्ष्मण की सेवा में तत्पर परिवार सहित सँग जे छत्र और ध्वजावोंकर रोकी है सूर्य की प्रभा जिन्होंने आकाश में गमन करने दूर से पृथिवीकी देखते जाय हैं पृथिवी गिरि नगर बन उपवनादिक कर शोभित लवण समुद्र को fast fame of के भरे लीला सहित गमन करते मागे चाए कैसा है लवण समुद्र नानाप्रकार के जलचरजीवोंके समूहकर भरा है रामके समीप सीता सती अनेक गुणांकर पूर्ण यानों साक्षात लक्ष्मीही है सो सुमेरु पर्वतको देखकर रामको पूछतीभई हे नाथ यह जंबूद्वीपके मध्य अत्यन्त मनोग्य व कमल समान क्या दीखे है तब राम कहतेभर हे देवी यह सुमेरु पर्वत है जहां देवाधिदेव श्रीमुनि सुव्रतनाथका जन्माभिषेक इन्द्रादिक देवों ने किया कैसे हैं देव भगवान् के पाँचो कल्यानक में जिनके प्रति हर्ष है यह मुंगेरु रत्न मई ऊंचे शिखरों कर शोभित जगत् में प्रसिद्ध है और फिर आगे जाकर कहते भयं यह दंडक न है जहां लंकापति ने तुमको हरा और अपना काज किया इस बनमें चार मुनिको हमने परणा करायाथा इसके मध्य यह सुन्दर नदी है और हे सुलोचने यह वंशस्थल पर्वत जहां देश भूषण कुलभूषण का दर्शन किया उसी समय मुनोंको केवल उपजा और हे सौभाग्यवती कल्याणरूपिणि यह बालखिल्य का नगर जहां लक्ष्मण ने कल्याणमाला पाई और यह दशांग नगर जहां रूपवतीका पिता वज्रक परम श्रावक राज्य करे फिर जानकी पृथिवी पतिको पूछती भई हे कान्ते यह नगरी कौन जहां विमान समान घर इन्द्रपुरी से अधिक शोभा अबतक यह पुरी मैंने कभी भी न देखी ऐसे जानकी के वचन सुन जानकी
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पुराण
नाथ अवलोकन कर कहते भये हे प्रिये यह अयोध्यापुरी विद्याधर सिलावटोंने बनाई है लंकापुरीकी ज्योति २०० को जीतन हारी फिर आगे आए तब रामका विमान सूर्यके विमान समान देख भरत महा हस्ती पर चढ़ अति आनन्द के भरे इन्द्र समान परम विभूति कर युक्त सन्मुख याए सर्वदिशा विमानोंकर आवादित देखी भरतको आवता देख राम लक्षमणने पुष्पक विमान भूमि में उतारा भरत गजसे उपर निका स्नेहका भरा दोनों भाइयों को प्रणाम कर अर्धपाद्य करता भया और ये दोनों भाई विमान से उतर भरत से मिले उरसे लगाय लीया परस्पर कुशल बार्तापूछी फिर भरतको पुष्पक विमानमें चढ़ाय लीया । और अयोध्या में प्रवेश किया अयोध्या रामके आगमन कर अति सिंगारी है और नाना प्रकारकी ध्वजा फर हरे हैं नाना प्रकार विमान और नानाप्रकारके रथ अनेक हाथी अनेक घोडेतिनकर मार्ग में अवकाश नहीं अनेक प्रकार वादित्रों के समूह वाजते भये शंख झांझ भेरी ढोल घूकल इत्यादि बादित्रोंका कहां लग वर्णन करिये महा मधुर शब्द होते भये ऐसेही वादित्रों के शब्द ऐसीही तुरंगों की हींस ऐसीही गजों की गर्जना सामन्तोंके अदृहास मायामई सिंह व्याघ्रादिकके शब्द ऐसेही वीण बांसुरीवोंके शब्द तिनकर दश दिशा व्याप्तभई बन्दीजन बिरद बखाने हैं नृत्यकारिणी नृत्य करें हैं भांड नकल करें हैं नट कला करें हैं सूर्य के रथ समान रथ तिनके चित्राकार विद्याधर मनुष्य पशुवोंके नाना शब्द सो कहां लग वन करिए विद्याघरोंके अधिपतियोंने परमशोभा करी दोनों भाई महा मनोहर अयोध्या विषे प्रवेश करते भए अयोध्या नगरी स्वर्गपुरी समान रामलक्षमण इंद्र प्रतीन्द्रसमान समस्त विद्याधर देव समान तिनका कहां लग वर्णन करिए श्रीरामचन्द्रको देख प्रजारूप समुद्र विषे श्रानन्दकी ध्वनि वढती भई भले
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पुरुष अर्घ्यपाद्य करते भए सोई तरंग भई पैड पैड विषे जगतकर पूज्यमान दोनों वीर महाधीर तिनको समस्त जन आशीर्वाद देते भए हे देव जयवन्त होवो वृद्धिको प्राप्त होवो चिरंजीव होवो नादोविरदो इसभांति असीस देतेभए और अति ऊंचे विमानसमान मंदिर तिनके शिखर विषे तिष्ठती सुंदरी फूल गएहैं नेत्रकमलं जिनके वे मोतियोंके अक्षत डारती भई, सम्पूर्ण पूर्णमासीके चन्द्रमा समान गम कमल नेत्र और वर्षाकी घटा समान लक्ष्मण शुभ लक्षण तिनके देखवेको नर नारी श्रावते भए और समस्त कार्य तजे झरोखों में बैठी नारी जन निरखे हैं सो मानों कमलोंके वन फूल रहे हैं और स्त्रियों के परस्पर संघट्टकर मोतियोंके हार टूटे सो मानों मोतियोंकी वर्षा होयहै स्त्रियों के मुख से ऐसी ध्वनि निकसीये श्रीराम जिनके समीप राजा जनककी पुत्री सीता बैठी इसकी माता राणी विदेहाहै और श्री रामने साहसगति विद्याधर मारा वह सुग्रीवका आकारधर आयाथा विद्याधरों में दैत्य कहावे और यह लक्षमण रामका लघुबीर इंद्र तुल्य पराक्रम जिसने लंकेश्वरको चक्रकर हता,और यह सुग्रीव जिसने राम से मित्रता करी और यह भामंडल सीता भाई जिसको जन्म से ही देव हर लेगया फिर दया कर छोड़ा सो राजा चन्द्रगति के पला श्राकाश से बन विषे गिरा राजाने लेकर राणी पुष्पावती को सौंपा देवोंने काननमें कुंडल पहराकर आकाश से डाला सो कुंडलकी ज्योतिकर चन्द्रसमान भासा इस लिये भामण्डल नाम धरा और यह राजा चन्द्रोदय का पुत्र विराधित और यह पवनका पुत्र हनूमान कपिध्वज इस भांति आश्चर्य कर युक्त नगरकी नारी वार्ता करती भई॥
अथानन्तर राम लक्षमण राजमहिल में पधारे सो मन्दिर के शिखर तिष्ठती दोनों माता
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पुराण
पम पुत्रों के लिये तत्पर जिनके स्तन से दुग्ध झरे महा गणों की घग्णहारी कौशिल्या सुमित्रा २२ और केकई नाममा शारों माता मंगल विष उद्यमी पुत्रों के समीप आई. राम लक्ष्मण पुष्पक विमान
से उत्तर मौलायों से मिले माताओं को दोख हर्ष को प्राप्त भए कमल मानने दोनों भी लोकपालसमान हाथ जोड़ न मोजत होय अपनी स्त्रियहित माताको प्रणाम करतेमाचारों ही माला नेकपकार । अलोग देती भइ तिनही मील कल्याण की करणहारी है और वो ही माता राम लक्षामाकोर से लगाय परम सुख को पास कई जन कारख ही जाने काहिब में न आये बारम्बार उसे लगायलिस पर हाथ धरती भई आनंद के अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्रजिन में परस्पर माता पुत्र कुशल क्षेम सुख दुःख की वार्ता पूछ परम संतोष को प्राप्त भए. माता मनोरथ करती थी सो हे श्रेणिक बांछासे अधिक मनोरथ पूर्ण भए वे माता योधावोंकी जननहारी माधवोंकी भक्त जिन धर्म में अनुरक्त सुन्दर चित्त बेटानों की बह सैकड़ों तिन को देख चारों ही अति हर्षित भई अपने योधा पुत्र तिनके प्रभावकार पूर्ण पुण्यके उदय कर अति महिमासंयुक्त जगतमें पूज्य भई राम लक्षमण का सागर पर्यंत कंटक रहित पृथिवी में एक छत्र राज्य भया सवार यथेष्ट
आज्ञा करते भए रामलक्षमण का अयोध्या में आगमन और मातावों से तथा भाइयों से मिलाय यह अध्याय जो पढ़े सुनेशुद्ध है बुद्धि जिसकी सो पुरुष मनवांछित संपदा को पावे पूर्ण पुण्य उपार्जे शुभमति एक ही नियम दृढ़ होय भावन की शुद्धतासे करे तो अतिप्रताप को प्राप्त होय पृथिवी में सूर्य समान प्रकाश को करे इसलिये अबत तज व्रत नियमादिक धारण करो ।। इति बयासीवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर राजा श्रेणिक नमस्कार कर गौतम गणधर को पूछता भया, हे देव श्रीराम लक्षण
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पुराणा
पाट२३॥
पद्म । की लक्ष्मी का विस्तार सुनने की मेरे अमिलापा है तब गौतमस्वामी कहते भए हे श्रेणिक राम लक्ष्मण
भरत शत्रुघन इनका वर्णन कौन कर सके तथापि संक्षेप से कहे हैं राम लक्ष्मण के विभव का वर्णन हाथी घर के बियालीस लाख और रथ एतेही घोडे नौ कोटि, पयादे व्यालीस कोटि और तीन लंड के देव विद्याधर सेवक रामके रत्न चार हल मुशल रत्नमाला गदा और लक्ष्मण के सात संख चक्र गदा खड्ग दण्ड नागशय्या कौस्तुभमणि राम लक्ष्मण दोनों ही वीरं महाधीर धनुषधारी और जिनका घर लक्ष्मी का निवास इन्द्रर के भवन तुल्य ऊंचे दरवाजे और चतुश्शाख नामा कोट महापर्वत के शिखर समान ऊंचा
और वैजयन्तीनामा सभा महामनोग्य और प्रसाद कुटम्बनामा अत्यंतउत्तंग दशदि के अवलोइन का यह औरविन्ध्याचलपर्वतसारिखो वर्धमानक नामा नृत्य देखवेका गृह और अनेक सामग्री सहितकार्य करन का गृह और कूकड़े के अंडे समान महाअद्भुत शीतकाल में सोक्ने का गर्भगृह और ग्रीष्म में दुपहरी के विराजवे का धारा मंडपगह, इक थंभा महा मनोहर और राणीयों के घर रत्नमई महासुन्दर दोनों भाइयों की सोराकी शय्या जिनके सिंहों के आकार पाए पद्मराग मणि के अतिसुन्दर मोहका नान विजुरी कांसा चमत्कारधरे, वर्षा ऋतु में पौढये का महिल और महाश्रेष्ठ उगते सूर्य मगाना नहासन और चन्द्रमा तुल्य उज्ज्वल चमर और निशाचर समान- उज्ज्वल छत्र और महा सुन्दर विमों का नाम पारड़ी तिनके प्रभाव से सुखसे श्राकाश में गमन करें और अमोलिक वस्त्र और महादिव्य भामरण । अमेय वक्तर महा मनोहर मणियों के कुण्डल और अमोगदा खमा कनक वाण अनेक शास्त्र रहा सुन्दर महारण के जीतन हारे और पचास लाप हल कोटि से अधिक गाय अक्षय भण्डार और अयोध्या
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॥८२४
आदि अनेक नगर जिनमें न्याय की प्रवृति प्रजा सब सुखी संपदा कर पूर्ण और महा मनोहर बन उपवन | पुराण नाना प्रकार फल पुष्पों कर शोभित और महा सुन्दर स्वर्ण रत्नमई सिबाणों कर शोभित क्रीड़ा करवे योग्य
वापिका और पुर तथा ग्रामों में लोकप्रति सुखी जहां महिल अति सुन्दर और किसाणों को किसी भांति का दुःख नहीं जिनकगाय भैसोंके समूह सर्व भांतिकेसुख और लोकपोलों जैसे सामन्त और इन्द्र तुल्यविभव के घरण हारे महा तेजवन्त अनेक राजा सेवक और राम के स्त्री आठ हजार और लक्षमणके स्त्री देवांगना समान सोलह हजार जिनके समस्त सामग्री समस्त उपकरण मनवांछित सुखके देनहारी श्रीरामने भगवान के हजारां चैत्यालय कराये जैसे हरिषेण चक्रवर्तीने कराये थे वे भब्यजीव सदा पूजित महा ऋद्धिके निवास देशग्राम नगर वनगृहगली सर्व ठौर २ जिनमंदिर करावतेभये सदासर्वत धर्मकी कथालोक अति सुखी सुकौशलदेशक मध्य इन्द्रपुरी तुल्य अयोध्याजहां अति उतंग जिनमंदिर जिनका वर्णन किया न जाय और क्रीडा कर के पर्वत मानों देवोंके क्रीड़ा करवे के पर्वतहैं प्रकाशकर मंडित मानों शरदके बादरही हैं अयोध्या का कोट अति उतंग समुद्रकी वेदिका तुल्य महाशिखर कर शोभित स्वर्ण रत्नोंका समूह अपनी किरणों कर प्रकाश कियाहै आकाश विषे जिसने जिसकी शोभा मनसे भी अगोचर निश्चयसेती यह अयोध्या नगरी पवित्र मनुष्योंकर भरी सदाही मनोग्यथी अब श्रीरामचन्द्र ने अति शोभित करी जैसे कोई स्वर्ग सुनिये है जहां महासंपदा है सोमानों रामलक्ष्मण स्वर्गसे आये सो मानों सर्व संपदाले पाए आगे
अयोध्या थी इसलिये रामके पधारे अति शोभायमान भई पुण्य हीन जीवों को जहांका निवास दुर्लभ । अपने शरीरकर तथा शुभ लोकोंकर तथा स्त्री धनादि कर रामचन्द्र ने स्वर्ग तुल्य करी, सर्व ठौर |
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॥८२५
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रामका यश परन्तु सीताके पूर्व कर्म के दोषकर मूढ़ लोग यह अपवाद करें देखो विद्याधरोंका नाथ रावण उसने सीता हरी सो राम फिर ल्याय और गृहमे राखा यह कहां योग्य राम महा ज्ञानी बड़ेकुलीनचक्री महा शूरवीर तिन के घरमें जो यह रीति तो और लोकों की क्या बात इस भांति सब जन वार्ता करें | अथानन्तरस्वर्ग लोक को लज्जा उपजावे भैसी अयोध्यापुरी वहां भरत इन्द्रसमान भोगोंकर भी रति न मानते भए, अनेक स्त्रीयों के प्राण वल्लभ सो निरन्तर राज्यलक्षमी से उदास सदा भोगों की निंदा ही करें। भरत का मन्दिर अनेक मन्दिरों कर मण्डित नाना प्रकारकेरत्नों कर निर्मापित मोतियों की माला कर शोभित फल रहे हैं वृक्ष जहां अनेक आश्चर्य का भरा सब ऋतु के विलास कर युक्त जहां वीण सृदंगादिक अनेक वादित्र वाजे देवांगनासमान श्रतिसुन्दर स्त्रीजनों कर पूर्ण जिस के चौगिरद मदोन्मत्त हाथी गाजें श्रेष्ठ तुरंग हींसे गीत नृत्य वादित्रों कर महामनोहर रत्नों के उद्योत कर प्रकाश रूप महा रमणीक क्रीडा का स्थानक जहां देवों को रुचि उपजे परन्तु भरत संसार से भयभीत अति उदास उसे वहां रुचि नहीं जैसे पारधी कर भयभीत जो मृग सो किसी ठौर विश्राम न लहे भरत ऐसा विचार करे कि मैं यह मनुष्य देह महाकष्ट से पाई सो पानी के दवदावत क्षणभंगर और यह यौवन भागों के समान अतिसार दोषों का भरा और ये भोग यति विरस इन में सुख नहीं यह जीतव्य स्वप्न समान और कुटुम्वका सम्बन्ध जैसे वृक्षोंपर पक्षियों का मिलाप रात्रि को होय प्रभात ही दशों दिशा को उड़ जायें ऐसा जान जो मोक्ष का कारण धर्म न करे सोजरा कर जर्जरा होय शोक रूप अग्नि कर जरे यह नयन मदों को बल्लभ इस विषे कौन विवेकी राग करे कदाचित न करे यह आपवाद के समूह का
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निवास सन्ध्याके उद्योत समान विनश्वर और यह शरीररूपो यन्त्र नाना व्याधिके समूहका घर पिता के बीर्य माता के रुधिर से उपजा इसविषे कहां रति, जैसे इन्धन कर अग्नि तृप्त न होय और समुद्र जल से तृप्त न होय तैसे जीव इन्द्रीयों के विषयों कर तृप्त न होय यह विषय अनादि से अनन्तकाल सेवे परन्तु तृप्तिकारी नहीं यह मूढ़ जीव काम में आसक्त अपना भलाबुरा न जाने पतंग समान विषय रूप अग्नि में पड़ पापी महाभयंकर दुःख को प्राप्त होय यह स्त्रियों के कुच मांस के पिण्ड महावीभत्स गलगंड समान तिन में कहां रति, और स्त्रियों का मुख रूप विल दंतरूप कीड़ों कर भरा तांबूल के रस कर लाल छुरी के घाव समान उसमें कहां शोभा और स्त्रियोंकी चेष्टा वायुविकार समान विरूप उन्माद कर उपजी उसमें कहां प्रीति और भोग रोग समान हैं महा खेद रूप दुःख के निवास इन में कहां बिलास और यह गीत वादित्रों के नाद रुदन समान तिन में कहां प्रीति, रुदन कर भी महल गुमट गाजें और गान कर भी गाजें । नारियों का शरीर मल मूत्रादि कर पूर्ण चर्म कर वेष्टित इस के सेवन में कहां सुख होय विटा के कुम्भ तिनका संयोग अतिवीभत्स प्रति लज्जा कारी महा दुःखरूप नारियों के भोग उन में मूढ़ सुख माने देवों के भोग इच्छा मात्र उत्पन्न तिन कर भी जीव तृप्त न भया तो मनुष्यों के भोगों कर कहाँ तृप्त होय, जैसे डाभकी अणीपर श्रीसकी बूंद जो उसकर कहां तृषा बुझे और जैसे इंधन का
नहारा सिर पर भार लाय दुखी होय तैसे राज्यके भार का घरणहारा दुखी होय, हमारे बड़ों में एक राजा सौदास उत्तम भोजन कर तृप्त न भया और पापी अभक्ष्य का आहार कर राज्य भ्रष्ट भया जैसे गंगा के प्रवाह में मांस का लोभी काग मृतक हाथी के शरीर को चूथता तृप्त न भया समुद्र में डूब
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पदा
'८२७॥
मुवा , तैसे यह विषियाभिलाषी भवसमुद्र में ड्वे हैं यह लोक मींडक समान मोह रूप कीच में मग्न पुराण । लोभरूप सर्प के ग्रसे नरक में पड़े हैं ऐसे चितवन करते शांतचित्त भरत को कैयकदिवसप्रति विरस से
बीते जैसे सिंह मही समर्थ पांजरे में पड़ा खेदखिन्न रहे, उसके बन में जायबे की इच्छा तैसे भरत महा राज के महाव्रत धारिखे की इच्छा, सो घर में सदा उदास ही रहे महाबत सर्व दुःख का नाशक, एक दिवस वह शांतचित्त घर तजिवे को उद्यमी भया तब केकई के कहे से राम लक्ष्मणने थांभा, और महा स्नेह कर कहते भए हे भाई पिता वैराग्यको प्राप्तभए तब तुझे पृथिवी का राज्यदिया सिंहासन पर बैठाया सो तू हमारा सर्व रघुवंशियों का स्वामी है, लोक का पालन कर यह सुदर्शनचक्र यह देव और विद्याधर तेरी याज्ञा में हैं इस धरा को नारी समान भोग में तेरे सिर पर चन्द्रमा समान उज्वल छत्र लिये खड़ा रई.
और भाई शत्रुघन चमर ढारे और लक्ष्मण सा सुंदर तेरे मंत्री और तृ हमारा वचन न मानेगा तोमें फिर विदेश उठ जाऊंगा मृगों की न्याई वन उपवन में रहूंगा, मैं तो राक्ष का तिलक जो रावण उसे जीत तेरे दर्शनके अर्थ पाया अब त निःकंटकराज्य कर पीछे तेरे साथ में भी मुनिग्रत आदरूंगा इसभांति महा शुभचित्त श्रीराम भाई भरत से कहते भए, तब भरत महानिस्पृह विषय रूप विषसेअतिविरक्तकहता भया हे देव में राज्य संपदा तुरत ही तजा चाहूं हूं जिसको तज कर शुरवीर पुरुष मोक्ष प्राप्त भए हे नरेन्द्र अर्थ काम महा दुःख के कारण जीवों के शत्रु महापुरुषों कर निन्द्य हैं तिनको मढ़ जन सेवें हैं, हे हलायुध यह क्षणभंगुर भोग तिन में मेरी तृष्णा नहीं यद्यपि स्वर्ग लोक समान भोग तुम्हारे प्रसाद कर अपने घर में हैं तथापि मुझे रुचि नहीं यह संसार सागर महा भयानक है जहां मृत्य रूप पातालकुण्ड।
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पास 11८२८
हा काम है और जन्म रूप कल्लोल उठे हैं और राग द्वेषरूप नाना प्रकार के भयंकर जलचर हैं और रति अरति रूप क्षार जल कर पूर्ण हैं जहां शुभ अशुभ रूप चोर विचरे हैं सो मैं मुनिव्रत रूप जहाजमें बैठकर संसार समुद्रको तिरा चाहूं हूं हे राजेन्द्र में नानाप्रकार योनि विषे अनन्त काल जन्म मरण किए नरक निगोद विषे अनंत कष्ट सहे गर्भ बासादि विषे खेद खिन्नभया, यह बचन भरतके मुन बड़े २ राजा अांखोंसे प्रांसू डारते भए महाअाश्चर्यको प्राप्तहोय गदगद बाणी से कहते भए हे महाराज पिताका वचन पालो कैयक दिन राज्य करो और तुम इसराज्य लक्ष्मीको चंचल जान उदास भए हो तो कैयक दिन पीछे मुनि हूजियो अवार तो तुम्हारे बडे भाई आएहैं तिनको साता देवो तब भरत ने कही मैं तो पिताक बचनप्रमाण बहुत दिन राज्य संपदा भोगी प्रजाके दुःख हरे पुत्रकी न्याई प्रजा का पालन किया दान पूजा आदि गृहस्थके धर्म श्रादरे साधुवोंकी सेवा करो अब जो पिताने किया सो में किया चाहूं हूं अब तुम इस बस्तु के अनुमोदना क्यों न करो प्रशंसा योग्य वस्तु विषे कहां विबादहै, हे श्रीरामहेलक्षमण तुमने महाभयंकर युद्ध मेंशत्रुवोंको जीत अगल बलभद्रबासुदेवकीन्याई लचमी उपार्जी सो तुम्हारी लक्ष्मी और मनुष्यों कैसी नहीं तथापि राजलक्ष्मी मुझेन रुचे तृप्ति न करे जैसे मंगादि नदियों समुद्रको तृप्त न करे इस लिये मैं तत्वज्ञानके मार्ग विषे प्रवरतूंगा ऐसा कहकर अत्यन्त विरक्तहोय राम लक्ष्मणको बिना पूछेही वैराग्य को उठा जेसे आगे भरतचक्रवर्ती उठे। यह मनोहर चालका चलनहारा मुनिराजके निकट जायवेको उद्यमी भया तब अतिस्नेह कर लक्षमणने थांभा भरतका करपल्लव ग्रह लक्ष्मण खड़ा उसही समय माता केकई आंसू डारती आई और रामकी आज्ञासे दोनों भाइयोंकी राणी सबही ।
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पद्म
राण
: २६ ॥
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आई लचमसमान है रूप जिनके और पवनकर चंचल जो कमल उस समानहैं नेत्र जिनके, आय भरत भी भई तिनके नाम सीता उर्वशी, भानुमती, विशल्यासुंदरी, रौद्री, रत्नवती, लक्ष्मी, गुणमती, बंधु मती, सुभद्रा, कुवेरा, नलकूवरा कल्याणमाला, चन्द्रनी, मदनोत्सवा, मनोरमा, प्रियनन्दा, चन्द्रकांता, कला वती, रत्नस्थली, सरस्वती,श्रीकांता. गुणसागरा, पद्मावती, इत्यादि सर्प आई जिनकरूपगुणका वर्णन किया न जाय मनको हरें श्राकारराजन के दिव्य वस्त्र और आभूषण पहिरे वडेकुल में उपजी सत्यवादनी शीलवंती पुण्यकी भूमिका समस्त कला विषे निपुण सो भरत के चौगिर्द खडी मानो चारों ओर कमलों का बनही फूल रहा है भरतका चित्तराज संपदाविषे लगायने को उद्यमी प्रति आदर कर भरतको मनोहर बचन कहती भई कि हे देवर हमारा कहा मानों कृपा करो श्रावोसरोवरों विषे जलक्रीड़ा करो और चिंता तजो जितबातकर तुम्हारे बड़े भाइयोंको खेद न होय सो करो और तुम्हारी माताको खेदन हो यस करो और हम तुम्हारीभावज हैं सो हमारी बीनती अवश्य मानिये तुम विवेकी विनयवानहो ऐसा कह भरतको सरोवर पर ले गई भरत का चित्तजल कीड़ासे विरक्त यहमव सरोवर में पैठी वह विनयकरसंयुक्त सगेवरके तीरऊभा ऐसासो हेमानों गिरिराज ही है और वे स्निध सुगंध सुन्दर वस्तुवो कर इसके शरीर के विलेपन करती भई और नाना प्रकार जल कोल करती भई यहउत्तम चेष्टाका धारक काहूपर जल न डारता भया फिर निर्मल जल से स्नान कर सरोवर के तीर जे जिन मंदिर वहां भगवान की पूजा करता भया उस समय त्रैलोक्य मंडन हाथी कारी घटा समान है आकार जिसका सो गजबंधन तुडाय भयंकर शब्द करता निज द्यावस थकी निकसा अपने मद झरखे कर चौमासे कैसा दिनकरता संता मेवगर्जना समान उसकी गाज सुन कर
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का
अयोध्यापुरी के लोग भय कर कंपायमान भये और अन्य हाथीयों के महावत अपने अपने हाथी कोले
दूर भागे शोर त्रैलोक्यनंडन गिरि समान नगर का दरवाजा भंग कर जहां भरत पूजा करते थे वहां 1८३०
प्राण तब राम लकण की समस्त राणी भयकर कपायमान होय भरत के शरण आई, और हाथा भरत के नजीक ग्राला तब समस्त लोक हाहाकार करते भए और इसकी मातामहा विठ्ठल भई विलाप करता भई पुत्र के स्नेह विषे तत्पर महा शंकावान भई और राम लक्ष्मण गज बंधन विष प्रवीण गजके पकडने को उद्यमीभर गजराज महा प्रबल समान्यजनांसे देखा न जाय महाभयंकर शब्द करताप्रति तेजवान नाग फांसि कर भी रोका न जाय औरमहा शाभायमान कमल नयनभरत निर्भय स्त्रयों के श्राग तिनके बचायवे को खडे सो हाथी भरत को देख कर पूर्व भव चितार शांतचित्त भया अपनी सूण्ड शिथिल कर महा विनयवान भया भरत के आगे ऊभा भरत इसको मधुर वाणी कर कहते भये अहो गजत कौन कारण क्रोध को प्राप्त भया असे भरत के वचन सुन अत्यंत शांतचित्त निश्चल भया सौम्य है मुख जिसका ऊभा भरत की ओर देखे है भरत महाशरवीर शरणागत प्रतिपालक असे सोहें जैसे स्वर्ग विषे देव सोहें हाथी को जन्मान्तर का ज्ञान भया सो समस्त विकार से रहित होयगया दीर्घनिश्वास डारे हाथी मन में विचारे है यह भरत मेरा परममित्र है छठे स्वर्ग विषे हम दोनों एकत्र थे यह तो पुण्य के प्रसाद कर वहां से चयकर उत्तम पुरुप भया और मैंने कर्म के योग से तिर्यंच की योनि पाई कार्य अकार्य के विवेक से रहित महानिंद्य पशुका जन्म है में कौन योग से हाथी भया धिक्कार इस जन्म को अब वृथा | क्या शोच असा उपाय करूं जिससे प्रातमकल्याण होय और फिर संसार भ्रमण न करूंशोच कीए क्या ।
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परामा
पद्म अब सर्वथा प्रकार उद्यमी होय भव दुखसे छूटिवे का उपाय करूं चितारे हैं पूर्व भवजिसने गजेन्द्र अत्यंत ३१. विरक्त पाप चेष्टा से पराङ्मुख होय पुण्यके उपार्जन में एकाग्र चित्त भया । यह कथा गौतमस्वामी राजा
श्रेणिक से कहेहैं हे राजन पूर्वे जीवनेअशुभ कर्म कीए वे संतापकोउपजावें इसलिये हे प्राणी हो अशुभ कर्मको तज दुर्गति के गमन से छूटो जैसे सूर्य होते नेत्रवान मार्ग विषे न अटके तैसे जिन धर्म के होते विवेकी कुमार्ग में नपड़ें प्रथम अधर्मको तज धर्म को अादरें फिर शुभा शुभ से निवृत्त होय अात्म | धर्म से निर्वाण को प्राप्त होवें ॥ इति त्रियासीवां पर्व शम्पूर्णम् ॥
___अथानन्तर वह गजराज महा विनयवान धर्म ध्यान का चितवन करता रामलक्षमण ने देखा और धीरे धीरे इसके समीप आए कारी घटा समान है अाकार जिसका सो मिष्ट अचमाबोल पकड़ा और निकटक्तों लोकों को आज्ञा करगजको सर्वश्राभूषण पहिराये हाथी शांतचित्त भया तवनगरके लोगों की अाकुलता भिटो हाथो असा प्रकल जिसकी प्रचंड गति विद्याधरों के अधिपति से न रुके, समस्त नगर में लोक हाथी की वार्ता करें यह त्रैलोक्य मंडन रावण को पाट हस्ती है इसके बल समान और नांही रामलक्षमण ने पकदा विकार चेष्टा को प्राप्त भया था अब शांतचित भया सो लोकों के महा पुण्य का उदय है, और घने जीवोंकी दीर्घ आयु भरत और सीता विशल्या हाथी पर चढ़े बड़ी विभूति से नगरमें आये और श्राद्धृत बस्त्राभरणसे शोभित समस्त राणी नाना प्रकार के बाहनों पर चढ़ी भरत को ले नगरमें पाई,और शत्रुधन माई'अश्व पर श्रारुढ़ महा विभूति सहित महा तेजस्वी भरतके हाथी के अwो नाना प्रकार ।। के वादियों के शब्द होते नंदन बन समान बनस नगर में आए, जैसे देव सुरपुर में श्रा, भरत हाथी
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पा
८३२
| से उतर भोजन शाला में गए साधुत्रों को भोजन देय मित्र बांधवादि सहित भोजन किया, और भावजों पुराण को भोजन कराया फिर लोक अपने अपने स्थान को गए समस्त लोक आश्चर्य को प्राप्त भए, हाथी रूठा फिर भरत के समीप खड़ा होय रहा सो सबों को आश्चर्य उपजा गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि हे राजन हाथीके समस्त महावत रामलक्ष्मण पै आए प्रणामकर कहते भए कि हे देव याज गजराज को चौथा दिन है कछू खायन पीवे न निद्रा करे सर्व चेष्टा तज निश्चल ऊभा है जिस दिन को किया था और शांत भया उसही दिन से ध्याना रूढ निश्चल बरते है हम नाना प्रकार के स्तोत्र कर स्तुति करे हैं अनेक प्रिय बचन कहे हैं तथापि श्राहार पानी न लेय है हमारे बचन कान न धरे अपनी मूण्ड को दांतों में लिये मुद्रित लोचन ऊभा है मानों चित्राम का राज है जिसे देखे लोकों को ऐसा भ्रमहोय है कि यह कृत्रिम गज है अथवा सांचा गजहै हम प्रियवचन कहकर आ हार दिया चाहे हैं सोन लेय नानाप्रकार के गजके योग्य सुन्दर आहार उसे न रुत्रे चिन्तावान सा ऊभा है. निश्वास डारे है समस्त शत्रुदों के वेत्ता महा पंडित प्रसिद्ध गज वैद्यों के भी हाथ हाथी का रोग न आया गंधर्व नानाप्रकार के गीत गायें हैं सो न सुने और नृत्यकारिणी नृत्य करे हैं सो न देखे पहिले नृत्य देखेथा गीत सुनेथा अनेक चेष्टा करेथा सो सब तजी नाना प्रकार के कौतुक होय हैं सो दृष्टि नवरे मंत्र विद्या औषधादिक अनेकउपाय किए सो न लगे माहारविहार निद्रा जल पानादिक सबतजे हम तिमित करे हैं सो न माने जैसे रूठे मित्रको अनेक प्रकार मनाइय सो नमाने न जानिए इस हाथी के सिमें क्या है काहू बस्तुसे काहू प्रकार रझेि नहीं काद्दू वस्तुपर लुभावे नहीं खिजाया संता
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1८३३" ।
पद क्रोध न करे चित्राम कैसा खड़ा है यह त्रैलोक्यमंडन हाथी समस्त सेना का श्रृंगार है जो आप को पुराण उपाय करना होय सो करो हम हाथी का सब बृतांत आप से निवेदन किया, तब राम लक्षमण गजराज
की चेष्टा सुन अति चिन्तावान् भए मनमें विचारे हैं यह गजबंधन तुड़ाय निसरा कौन प्रकार क्षमा को प्राप्त भया और आहार पानी क्यों न लेय दोनों भाई हाथी का शोच करते भए । ८४वां पर्व पूर्ण भया । ___अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे नराधिपति उस ही समय अनेक मुनियों सहित देशभूपण कुलभूषण केवली जिनका वंशस्थल गिरि ऊपर राम लक्ष्मणने उपसर्ग निवाराथा और जिन की सेवा करनेकर गरुडेन्द्र ने राम लक्षमणसे प्रसन्न होय उनको अनेक दिव्यशस्त्रदिए जिनकररद्ध में विजयपाई वे भगवान्केवली सुरअसुरोंकर पूज्य लोक प्रसिद्ध अयोध्या नन्दन वन समान महेन्द्रोदय नामा बन में महा संघ सहित प्राय विराजे, तबराम लक्षमण भरत शत्रुघन दर्शनके अर्थ प्रभातही हाथीयोंपर चढ़ जायवे को उद्यमी भए और उपजा है जाति स्मरण जिसको ऐसा जोत्रैलोक्यमण्डन हाथी सो प्रागेागे । चला जाय है जहां वे दोनों केवलो कल्याण के पर्वत तिष्ठे हैं वहां यह देवों समान शुभचित्त नरोत्तम गए
और कौशल्या सुमित्रा केकई सुप्रभा यह चारों ही माता साधु भक्ति में तत्पर जिनशासन की सेवक वर्ग निवासिनी देवीयों समान सैकड़ो राणीयों के युक्त चली और सुग्रीवादि समस्त विद्याधर महा विभूति संयुक्त । चले केवली का स्थानक दूर ही से देख रामादिक हाथी से उतर आगे गए, दोनों हाथ जोड़प्रणामकर पूजा करी, श्राप योग्यभूमिमें विनयसे बैठे तिनके वचन समाधानचित्तहोय सुनतेभए, वेवचनवैराग्य केमूलरागमदिककेनाशक क्योंकिरागादिक संसारकेकारणौरसम्यक्दर्शन ज्ञानचारित्रमोक्षके कारण हैं केवलीकी दिव्य
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1८३४०
ध्वनिमेंयहव्याख्यानभया कि अणुव्रतरूपश्रावककाधमौरमहाव्रतरूपयतिकाधर्म यह दोनों ही कल्याण के कारण हैं यतिका धर्म साक्षानिर्वाणकाकारण और श्रावककाधर्मपरम्पराय मोक्षका कारणहै ग्रहस्थका धम अल्पारम्भ अल्प परिग्रह को लीए कछु सुगमहैऔर यति का धर्म निरारम्भ निपरिग्रह अति कठिन महाशूर वीरों हीसे सधे है यह लोक अनादिनिधन जिसकी अादिअन्त नहीं इसमें यह प्राणी लोभकर मोहित नाना प्रकार कुयोनि में महादुःखको पावे हैं संसार का तारक धर्म ही है, यह धर्म नामा परम मित्र जीवों का महा हितु है जिस धर्म का मूल जीवदया की महिमा कहिये में नावे इसके प्रसादसे प्राणी मनवांछित सुख पावे हैं धर्मही पूज्य है जे धर्मका साधन करे वे ही पण्डित हैं यह दया मूल धर्म महाकल्याण को कारण जिनशासन विना अन्यत्र नहीं जो प्राणी जिनप्रणीत धर्म को लगें वे त्रैलोक्य के अग्र जो परम धाम है वहां प्राप्त भए यह जिनधर्म परम दुर्लभ है, इसधर्मका मुख्यफलतो मोक्षही है और गौण फल स्वर्ग में इन्द्रपद और पाताल में नागेन्द्रपद पृथिवी में चक्रवर्त्यादि नरेन्द्रपद यह फल है इसभान्ति केवलीनेधर्म का निरूपण कीया, तव प्रस्ताव पाय लक्षमण पूछते भए हे प्रभो त्रैलोक्यमण्डन हार्थी गजबंधन उपाड़ क्रोधको प्राप्त भया फिर तत्काल शान्त भाव को प्राप्त भया सो कौन कारण, तब केवलीदेशभूषण कहते भए, प्रथम तो यह लोकों की भीड़ देख मदोन्मत्तता थकी क्षोभ को प्राप्त भया फिर भरत को देख पूर्वभव चितार शान्तभाव को प्राप्त भयो चतुर्थ काल के श्रादि इस अयोध्या में नाभिराजा के मरु देवी के गर्भ में भगवान ऋषभ उपजे पूर्व भव में षोडश कारण भावना भाय त्रैलोक्य को आनन्द का कारण तीर्थंकर पद उपार्जे पृथिवी में प्रकट भए, इन्द्रादिक देवोंने जिनके गर्भ और जन्मकल्याणक कीए
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पन
पुराण
सो भगवान पुरुषोत्तम तीन लोक कर नमस्कार करने योग्य पृथिवी रूप पत्नी के पति भए कैसी है । पृथिवी रूप पत्नी विन्ध्याचल गिरि बेई हैं स्तन जिस के और समुद्र है कटिमेखला जिस की सो बहुत दिनपृथिवी का राज्यकीया तिनके गुण केवली बिना और कोई जानवे समर्थ नहीं जिनका अश्वर्य देख इन्द्रादिक देव अाहर्य को प्राप्त भए एक समय नीलांजसा नामा अप्सरा नृत्य करती थी सो विलायगई । उसे देख प्रतिबुद्धभए वे भगवान् स्वयं बुद्धमहामहेश्वर तिन की लोकांतिक देवों ने स्तुति करी जगत् । गुरु भरत पुत्रको राज्य देय वैरागी भए इन्द्रादिक देवों ने तप कल्याणक किया, तिलक नामा उद्यानमें महाबत धरे तब से यह स्थानक प्रयाग कहाया भगवान ने एक हजार वर्ष तपकिया सुमेरु समान अचल सर्वपरिग्रह के त्यागी महातप करते भए तिनके संगचारहजार राजा निकसे, वे परोषह न सह सकनेकर बत भ्रष्ट भये स्वेच्छा विहारी होय वन फलादिक भखते भए तिनके मध्यमारीच दण्डीका भेषधारता भया उस के प्रसंग से सर्योदय चन्द्रोदय राजा सुप्रभ के पुत्र के राणी प्रल्हादना की कुक्षि विषे उपजे वे भी चारित्रभ्रष्ट भए मारीच के मार्ग लगे कुधर्म के प्राचरण से चतुर्गतिसंसार में भ्रमें अनेक भवों में जन्म मरण किए फिर चन्द्रोदय का जीव कर्म के उदय से नागपुरनामा नगर में राजा हरिपति के राणी मनोलता के गर्भ विषे उपजा कुलंकर नाम कहाया फिर राज्यपाया और सूर्योदय का जीव अनेक भव । भ्रमण कर उस ही नगर विषे विश्व नामा ब्राह्मण जिस के अग्निकुण्ड नामा स्त्री उस के श्रुतिरति नामा पुत्र भया सो पुरोहित पूर्व जनम के स्नेह से राजी कुलकर को अतिप्रिय भया, एक दिन राज कुनकर तापसियों के समीप जाय था सो मार्ग विषे अभिनन्दन नामा मुनि को दर्शन भया वे मुनि ।
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पद्म
राख
८३६०
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ज्ञानी सर्व लोक के हितु तिन्हों ने राजा से कही तेरा दादा सर्प भया सो तपस्वियों के काष्ठ मध्य तिष्ठे है सो तापसी का विदारेंगे सो तू रक्षाकरियो तब यह वहां गया जो मुनिने कही थी त्योंही दृष्टि पड़ी इसने सर्प बचाया और तापसियों का मार्ग हिंसा रूप जाना तिन से उदास भया मुनिम्रत धरिये का उद्यम किया तब श्रुतिरति पुरोहित पापकर्मीने कही हे राजन् तुम्हारे कुल विषे वेदोक्त धर्म चला श्राया है और तापसही तुम्हारे गुरू हैं इसलिये तू राजा हरिपतिका पुत्रहै तो वेदमार्ग का ही आचरण कर जिनमार्ग मत चावरे पुत्रको राज्यदेय वेदोक्त विधिकर तू तापस का व्रतधर मैं तेरे साथ तप धरूंगा, इस भांति पापी पुरोहित मूढमति ने कुलंकर का मन जिनशासनसे फेरा और कुलंकर की स्त्री श्रीदामा सो पापिनी परपुरुषा सक्त उसने विचारी कि मेरी कुक्रिया राजाने जानी इस लियतप धारे हैं सो न जानिये तपधरे कै न घरे कदाचित मोहिमारे इसलिये मैंही उसे मारूं तब उसने विषदेयकर राजा और पुरोहित दोनों मारे सो मरकर निकुञ्जया नामा वन विषे पशुघात के पाप से दोनों सुखा भये फिर मीडकभये मूसा भए मोरभए सर्प भए कूकरभये कर्मरूपपवन के प्रेरे तिर्यंचयोनि में भ्रमे फिर पुरोहित श्रुति रतिका जीवहस्त भया और राजा कुलंकरका जीव मीडक भया सोहाथी के पगतले दबकर मुवा, फिर मींडकभयास सूकेसरोवर में कागनेभपा सो कूकड़ाभया हाथीमर माजर भया उसने कुक्कुट भषा कुलंकरका जीव तीनजन्म कूकड़ा भयासो पुरोहित के जी मारनेभपा फिरये दोनों मुसामार्जार मच्छभए सो झीवर ने जाल में पकडे कुहाडेन से काटे सो मुवे दोनों मरकर राजग्रही नगर विषे वव्हासनामा ब्राह्मण उसकी उल्का नाम स्त्री के पुत्रभये पुरोहित के जीवकानाम विनोद राजाकुलंकर के जीव का नाम रमण सो महादरिद्री और विद्या रहित तबरमण ने
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पद्म विचारी देशांतर जाय विद्या पद्धं तब घरसे निकसा पृथिवी विषे भ्रमता चारों वेद और वेदोंके अंगपटा Em: फिर राजगृही नगरी श्राय पहूंचा भाईके दर्शन की अभिलाषा सो नगरके वाहिर सूर्यग्रस्त होयगया
आकाशविर्ष मेघपटल के योगसे अति अंधकार भया सोजीर्ण उद्यानके मध्य एक यक्ष के मंदिरवहां बैठा और इस के भाई विनोदकी समिधा नामास्त्री सो महा कुशीली एक अशोकदत्त नामा पुरुषसे अासक्त सो तामे यक्षके मंदिर का संकेत कियाथा सो अशोकदत्तको तो मार्गमें कोटपाल के किंकरने पकड़ा और विनोद खडग हाथमें लिए अशोकदत्तके मारवेको यक्षके मंन्दिर पाया सो जार के भुलेसे खडग से भाई रमणको मारा अंधकारमें दृष्टि न पडा सो रमण मुवा विनोद घर गया फिर विनोद भी नुवा सो दोनों अनेक भवधारतेभए फिर विनोदका जीवतो सालवन बनमें श्रारण सा भया
और रमणका जीवधन्धा रीछ भया सो दोनों दावानलमें जरे मरकर गिरिवन विषे भल भए फिर मरकर हिरण भए स. भीलने जीवते पकडे दोनों अति सुन्दर सो तीसरा नागयण स्वयंभूति श्रीविमल नायगी के दर्शन जायकर पीछा अावेथा उसने दोनों हिरण लिय और जिन मंदिर के समीप गव सा राजद्वारसे इनकोमनवांछित आहारामले और मुनियोंके दर्शनकरेजिनवाणीका श्रवणकरें तिनमे ग्ममका जीव जो मृगथा सो समाधि मरमाकर स्वर्गलोग गया और विनोदका जीव जो मृगथा वह आर्ति यानसे नियंचगतिमें भूमाफिर जंबूद्धीपक भरत क्षेत्र में कंपिल्या नगर वहां धनदत्त नाम वणिकवाईस कोटि द नारका स्वामी भया चार टांक स्वर्णकी एक दीनार होय है ता बाणकके बागीनाम स्त्री. उसके गर्भ में दूजे भाई रमणका जीव मृग पर्यायसे देव भयाथा सो भूपणनाम पुत्रभया निमित्तज्ञानी ने इसके पिता
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1८३८॥
| से कहा कि यह सर्वथा जिन दीचा धग्गा सुनकर पिता चिन्तावान भया पिताका पुत्रसे अधिक प्रेम इस पुराण को घरहीमें गवे बाहिर निकमने न देय सब सामग्री इसके घरमें विद्यमान यह भूषण सुंदर स्त्रियों शोभाय
मान वस्त्र आहार नाना प्रकारके सुगन्धादि विलेपन कर घरमें सुखसे रहें इसको सूर्य के उदय अस्त की गम्य नहीं इसके गिताने सैकड़ों मनोरथकर यह पुत्र आया और एकही पुत्रसो पूर्वजन्मके स्नेहसे पिता के प्राणमे भी प्यारा पितातो विनोदका जीव और पुत्र रमणका जीव भाग दोनों भाई थे सो इस जन्म में पिता पुत्र भये संसारकी विचित्राति है ये प्राणी नटवत नृत्य करे हैं संसारका चरित्र स्वप्नके राज्य । समान असारहै एक समय यहधनदत्तका पुत्र भूषण प्रभात समय दुदुंभी शब्द मुन आकाश में देवोंका। आगमन देख प्रति बुद्ध भया यह स्वभावही से कोमलचित्त धर्म के प्राचार में तत्पर महाहर्ष का भरा। दोनों हाथ जोड़ नमस्कार करता, श्रीधर केवलीकी बन्दना को शीघ्रही जाय था सो सिवाण से उतर । ते सर्पने डसा देह तज महेन्द्र नाम जो चौथा स्वर्ग वहां देव भया वहां से चयकर पहकर हीप विषे चन्द्रादित्य नामा नगर वहां राजाप्रकाशयश उसके राणी माधवी उसके जगद्युतिनामा पुत्र भया योवन के उदयमें राज्यलक्ष्मी पाई परंतु संसारसे अतिउदास राज विषे चित्त नहीं सो इसके वृद्ध मन्त्रियों ने । कही यह राज्य तुम्हारे कुलक्रमसे चला आवे है सो पालो तुम्हारे राज्य से प्रजा मुख रूप होयगी सो! मंत्रियों के हठसे यह राज्य करे राजा विषे तिष्ठता यह साधूवों की सेवा करे सो मुनि दानके प्रभावसे । देवकुरु भोग भूमि गया वहांसे ईशान नाम दूजास्वर्ग वहांदेव भया चार सागर दोयपल्ल देवलोक के सुख भोगे देवांगनावों कर मंडित नाना प्रकारके भोग भोग वहां से चयासो जम्बू द्वीप के पश्चिम
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पद्म विदेह मध्य अचल नामा चक्रवर्ती के रत्न नामराणी के अभिराम नामापुत्र भया सो महा गुणों का niesen समूह अति सुन्दर जिसे देखे सर्वलोक को आन्दहोय सो बाल अवस्था ही से अति विरक्त जिनदीक्षा
धारा चाहे और पिता चाहे यह घरमें रहे तीनहजार राणी इसे परणाई सोवे नानाप्रकारके चरित्र करें परन्तु यह विषय सुखको विष समान गिने केवल मुनि होयवेकी इच्छा अतिशांत चित्त परन्तुपिता घरसें निकसने न देय यह महा भाग्य महाशीलवान महागुणवान महात्यागी स्त्रियोंका अनुराग नहीं इसको वे स्त्रीभांति भांति के बचन कर अनुराग उपजावें अति यत्न कर सेवा करें परन्तु इसको संसार की मायागर्त रूपभासे जैसे गर्त में पडा जोगज उसे पकडनहारे मनुष्य नानाभांति ललचावे तथापि गजको गर्त न रुचे ऐसे इसेजगत की माया न रुचे यहपरमशांतिचित्त पिताके निरोधसे अति उदासभया घरमें रहे तिनस्त्रियों के मध्य प्राप्त हुवा तीब्र असि धारा ब्रतपाले स्त्रीयोंके मध्यरहना और शीलपालना तिनसें संसर्ग न करना उसका नाम असिधाग व्रत कहिए मोतियों के हार बाजूबंद मुकटादि अनेक आभूषण पहिरे तथापि आभूषमासे अनुराग नहीं यहमहा भाग्यासिंहासन पर बैठा निरंतर स्त्रियों को जिनधर्मकी प्रशंसा का उपदेश देय त्रैलोक्य विषे जिनधर्म समान और धर्म नहीं ये जीव अनादिकाल से संसार बन विषे भ्रमण करे हैं सो कोई पुण्य कर्भके योगसे जीवोंको मनुष्य देहकी प्राप्ति होयहै यहबात जानता संता कौनमनुष्य संसार कृपमें पडे अथवा कोन विवेकी विषको पीवे अथवागिरिके शिखर पर कौन बुद्धिवान निंद्रा करे अथवामणिकी बांछा कर कौन पंडित नागका मस्तक हाथ से स्पर्श बिनाशीक ये काम भोग तिन विषे ज्ञानी को कैसे अनुराग उपजे एक जिनधर्मका प्रमुगग ही महा प्रशंसा योग्यमोक्षके
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पद्म
॥८४01
| सुखका कारण है यह जीवों का जीतव्य अत्यन्तचंचल इस विषे स्थिरता कहांजो अवांछिक निस्पृह पुराण चित्त हैं तिनके राज्य काज और इंद्रियों के भोगों से कौन कामइत्यादिक परमार्थक उपदेश रूपइस
को बाणी सुनकर स्त्री भी शांतचित्त भई नानाप्रकारके नियम धारती भई यह शीलवान तिनको भी शील विष दृढ़चित्त करताभया यह राजकुमार अपने शरीर विषे भी गगरहित एकांतरउपवास अथवा बेला तला आदि अनेक उपवासों कर कर्म कलंक खिपावता भया नानाप्रकारके तपकर शीरको शोखता भया जैसे ग्रीषमका सूर्य जलको शोखे समाधानरूप है मनजिसका मन इंद्रियों के जीतवे को समर्थ यह सम्यक दृष्टि निश्चलचित्त महाधीर बीर चौसठ हजार वर्षलग दुर्धर तपकरता भया फिर समावि मरण कर पंचनमोकार स्मण करता देहत्याग कर छठा जो ब्रह्मातरे स्वर्ग वहां महाऋद्ध का धारक देवभया
और जो भूषण के भवमें इसका पिता धनदत्त सेठथा विनोद ब्राह्मणका जीव सो मोह के योगसे अनेक कुयोनियों में भ्रमण कर जम्बू द्वीप भरत क्षेत्र वहां वादम नाम नगर उस विषे अग्निमुख नामा ब्राह्मण उसके शकुना नामा स्त्री मृदुमतिनामा पुत्रभया सो नामतो मृदुमति परन्तुकठोर चित्तप्रतिदुष्ट । सहाजवारी अविनयी अनेक अपराधों का भरा दुराचारी सो लोकों के उरोहने से माता पिता ने घर से निकासा सो पृथिवी में परिभ्रमण करता पोदनापुर गया, किसी के घर तृषातुर पानी पीवने को पैठा सो एक ब्राह्मणी ग्रांसू डारती हुई इसे शीतलजल प्यावती भई, यह शीतल मिष्टजलसे तृप्त हो ब्राह्मणी को । पूछता भया तू कौन कारण रुदन करे है तब उसने कही तेरे आकार एक मेरा पुत्र था सो में कठोरचित्तहोय । क्रोधकर घर से निकासा सो तेंने भ्रमण करते कहूं देखा होय तो कहो, नील कमल समान तो सारिखा ही।
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1८४१॥
। है, तब यह प्रांस डार कहता भया हे मात तू रुदन तज वह मैं ही हूं तुझे देखे बहुत दिन भए इसलिये पद मुझे नहीं पहिचाने है तू विश्वास गह में तेरा पुत्र हूं तब वह पुत्र जान राखती भई, और मोह के योग
से उसके स्तनों से दुग्ध झरा, यह मृदुमति तेजस्वी रूपवान् स्त्रीयों के मन का हरणहारा धूर्तों का शिरोमणि जुवा में सदाजीते बहुतचतुर अनेककला जाने कामभोग में आसक्त, एक वसंतमाला नामा वेश्या सो उसके अति बल्लभ और इसके माता पिता ने यह काढा था सोइसके पीछे वे अतिलक्ष्मीकोप्राप्त भए पिता कुण्डलादिक अनेक भूषण कर मण्डित और माता कांचीदामादिक अनेक अाभरणों कर शोभित सुख से तिष्ठे और एक दिन यह मृदमति संसाक नगर में राजमंदिर में चोरी को गया सो राजा नन्दीवर्धन शशंकमुख स्वामी के मुखधर्मोपदेश सुन विरक्तचित्त भया था सो अपनी राणी से कहे था कि हे देवी में मोक्ष सुखका देनहारा मुनि के मुख परम धर्म सुना, ऐ इन्द्रियों के विषय विषसमान दारुण हैं इनके फल नरक निगोद में सो मैं जिनेश्वरी दीक्षा धरूंगा तुम शोक मत करियो. इसभांति स्त्रीको शिक्षा देता था सो मृदुमति चोरने यह वचन सुन अपने मनमें विचारी देखो यह राजऋद्धि तज मुनिव्रत धारे है
और में पापी चोरी कर पराया द्रव्य हरूं हूं, धिक्कार मोको ऐसे विचार कर निर्मलचित्त होय सांसारिक विषय भोगों से उदासचित्त भया स्वामी चन्द्रमुख के समीप सर्व परिग्रह का त्यागकर जिनदीक्षा प्रादरी शास्त्रोक्त महादुर्धर तप करतो महाक्षमावान् महापाशुक आहार लेता भयो । ____ अथानन्तर दुर्गनाम गिरि के शिखर एक गुणनिधि नाम मुनि चार महीने के उपवास धर तिष्ठे थे वे सुर असुर मनुष्यों कर स्तुति करिवे योग्य महारद्धि धारी चारणमुनि थे सो चौमासे का नियम |
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पद्म पुराण
॥४२॥
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पूर्ण कर आकाश के मार्ग होय किसी तरफ चले गए, और यह मृदुमति मुनि आहार के निमित्त दुर्ग नामा गिरि के समीप लोक नामनगर वहां आहार को आया, जूडा प्रमाण भूमि को निरखता जाय था सो नगर के लोकों ने जानी यह वे ही मुनि हैं जो चार महीना गिरि के शिखर रहे यह जान कर यतिभक्ति कर पूजाकरी और इसे अति मनोहर आहार दिया नगर के लोकोंने बहुत स्तुति करी इसने जानी गिरिपर चार महीना रहे तिनके भरोसे मेरी अधिक प्रशंसा होय है सो मान का भरा मौन पकड़ रहा, लोकों से यह न कही कि मैं और ही हूं और वे मुनि और थे, और गुरु के निकट मायाशल्य दूर न करी, प्रायश्चित न लिया इसलिये तिर्यंचगति का कारणभया तप बहुत किये थे सो पर्याय पूरी कर
देव लोक जहां अभिराम का जीव देव भया था वहां ही यह गया पूर्वजन्म के स्नेहकर उसके इसके प्रतिस्नेह भया दोनों ही सामान ऋद्धि के घोरक अनेक देवांगनावों कर मंडित सुख के सागर में मग्न दोनों ही सागरों पर्यंत सुख से रमें सो अभिराम का जीव तो भरत भया और यह मृदुमति का जीव स्वर्ग से चय मायाचार के दोषसे इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उतंग हैं शिखर जिसके ऐसा जो निकुञ्ज नामा गिरि उसमें महा गहन शल्लकी नामा वन वहां मेघकी घटा समान श्याम अतिसुन्दर गजराज भया, समुद्र की गाज समान है गर्जना जिसकी और पवन समान है शीघ्र गमन जिसका महा भयंकर आकार को धरे, अति मदोन्मत्त चन्द्रमा समान उज्ज्वल हैं दांत जिसके, गजराजों के गुणों कर मंडित विजयादिक महा हस्ती तिनके व्रंस विषे उपजा महाकान्तिका घारक, रावत समान अतिस्वछंद सिंह व्याघ्रादिक को हननहारा महावृक्षों का उपरनहारा पर्वतों के शिखर का ढाहनहारा विद्याघरों कर न
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पुरागा
पद्म ग्रहा जाय तो भूमिगोचरियों की क्या बात, जाकी बास से सिंहादिक निवास तज भाग जावें ऐसा ।
प्रबल गजराज गिर के वन विषे नाना प्रकार पल्लव का आहार करता मानसरोवर विषे क्रीडा करता अनेक गजों सहित विचरे कभी कैलाश विषे विलास करे कभी गंगा के मनोहर द्रहों विषे क्रीडा करे
और अनेक बन गिरि नदी सरोवरों विषे सुन्दर क्रीडा करे और हजारों हथिनिवों सहित रमे, अनेक हाथियों के समूह का शिरोमणि यथेष्ट विचारतो ऐसा सोहे जैसा पक्षियोंके समूह कर गरुड | सोहे मेघ समानगर्जता मद के नीझरने तिनके झरने को पर्वत सो एक दिन लंकेश्वर ने देखा, सो विद्या के || पराक्रम कर महाउग्र उसने यह नीठि नीठि वश किया इसका त्रैलोक्यमंडन नाम धरो सुन्दर हैं लक्षण जिसके जैसे स्वर्ग विषे चिरकाल अनेक अप्सराओं सहित क्रीडा करी तैसे हाथियों की पर्याय में हजारों हथिनियों से क्रीडा करता भया यह कथा देशभूषण केवली राम लक्ष्मण से कहेहैं कि ये जीव सर्व योनि विषे रति मान लेय है निश्चय विचारिये तो सर्व ही गति दुःख रूप हैं अभिराम को जीव भरत और मृदुमति का जीव गज सूर्योदय चन्द्रोदय के जन्म से लेकर अनेक भव के मिलापी हैं इसलिये भरत को देख पूर्व भव चितार गज उमशांतचित्त भया और भरत भोगों से पराङ्मुख दूर आया है मोह जिसका अब मुनिपद लिया चाहे है इस ही भव से निर्वाण प्राप्त होवेंगे फिर भव न घरेंगे श्री ऋषभदेव के समय यह दोनों सूर्योदय चन्द्रदय नामा भाई थे, मारीच के भरमाए मिथ्यातत्व का सेवन कर बहुत काल संसार वषे भ्रमण कीया, बस स्थावर योनि में भ्रमे चन्द्रोदय का जीव कैयक भव पीछे राजा कुलंकर फिर कैयक भव पैछे रमण ब्राह्मण फिर कैयक भव घर, समाधि मरण करणहारा मृग भया, फिर स्वर्ग
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पत्र । विषे देव, फिर भूपण नामा वैश्यका पुत्र फिर स्वर्गकिर जगति नाम राजा वहां से भोग भूमि फिर दूजे ।
स्वर्ग देव, वहां से चय कर महाविदेह क्षेत्र विषे चक्रवर्ती का पुत्र अभिराम भया, वहां से छठे स्वर्गदेव, देव से भरत नरेन्द्र सो चरम शरीरी हें फिर देह न धारेंगे, और सूर्योदय का जीव बहुत काल भमण करराजा कुलंकर का श्रुतिनामा पुरोहित भया फिर अनेक जन्म लेय विनोदनामा विप्र भया, फिर अनेक जन्म लेय अार्तिध्यान से मरण हारा मृगभया फिर अनेक जन्म भमण कर भषण का पि. घनदत्त नामावणिक फिर अनेक जन्म धर मृदुमतिनामा मुनि उस ने अपनी प्रशंसा सुन राग किया मायोचार शल्य दूर न करी तप के प्रभाव से छठे स्वर्ग देव भया वहांसेचयकरत्रैलोक्य मंडन हाथी अबश्रावगवतधर देवहोयगा ये भी निकटभव्य हैइसभांति जीवोंकीगति प्रागति जान और इन्द्रीयों के सुख विनाशिक जान इस विषम संसार बनको तजकरज्ञानी जीवधर्म विषे रमो, जे प्राणीमनष्यदेह पाय जिनभाषित धर्म नहींकरहैं वेअनन्त काल संसार भमण करेगें आत्माकल्याणसेदूर हैं इसलिये जिनवर के मुख से निकसा दयामईधम मोक्षप्रास करने को समर्थ इस के तुल्य और नहीं मोह तिमीस्कादृरकरणहारा जीती है सर्यकी कान्तिजिसने सोमन वचन कायकर अंगीकार करो जिससे निर्मल परम पद पावो ॥ इति पच्चासिवा प्रव शम्पूर्णम् ॥
अथानन्तर श्रीदेशभूषण केवलीके बचन महापवित्र मोह अन्धकारके हरणहारे संसार सागर केतारण हारे नानाप्रकारके दुखके नाशक उनमें भरत और हाथीके अनेक भवका वर्णन सुनकर राम लक्षमण
आदि सकल भव्यजन आश्चर्यको प्राप्त भये, सकल सभा चेष्टारहित चित्राम कैसी होय गई और || भरत नरेन्द्र देवेन्द्र समानहे प्रभा जिसकी अविनाशी पदके अर्थ मुनि होयवेकी है इच्छा जिस के
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1280
mmam
पद्म गुरुवोंके चरणमें नम्रीभूत है सीस जिसका महा शांत चित्त परम वैराग्य को प्राप्त हुवा तत्काल उठ
कर हाथ जोड केवली को प्रणामकर महा मनोहर बचन कहता भया हे नाथ मैं संसार बनमें अनन्त काल भ्रमण करता नाना प्रकार कुयोनियों में संकट सहता दुखी भया अब मैं संसार भमणसे थका मुझे मुक्तिका कारण तुम्हारी दिगम्बरी दीक्षा देवो यह आशारूप चतुर्गति नदी मरणरूप उग्रतरंग को धरे उसमें मैं डूवूहूं सो मुझे हस्तालम्बन दे निकासा ऐसा कह केवलीकी आज्ञा प्रमाण तजाहै समस्त परिग्रहजिसने अपने हाथोंसे सिरके केश लोंचकिये परमसम्यक्ती महाव्रतको अंगीकार जिनदीक्षाधर दिगम्बर भया, तब आकाशमें देव धन्य २ शब्द कहतेभए और कल्पवृचोंके फूलों की वर्षाकरते भए, हजारसे अधिक राजा भरतके अनुरागसे राजऋद्धि तज जिनेंद्री दीक्षा धरते भये और कैयक अल्पशक्ति थे वे अणुव्रतधर श्रावक भये, और माता केकई पुत्रका वैराग्य सुन प्रांमुवों की वर्षा करती भई व्याकुलचित होय दौड़ी सो भूमिमें पडी महामोहको प्राप्तभई पुत्रकी प्रीतिकर मृतकसमान होय गयाहै शरीर जिस का सो चन्दनादिकके जलसे छांटी तोभी सचेत न भई धनीवर में सचेतभई जैसे वत्स बिना गाय पुकारे तैसे बिलाप करतीभई, हाय पुत्र महा विनयवान मुणोंकी खान मनको आल्हादका कारण हाय तू कहां गया, हे अंगज मेरा अंग शोकके सागरमें डूबे है सो थांभ तो सारिखे पुत्र बिना में दुःखके सागरमें मग्न शोककी भरी कैसे जीऊंगी हाय हाय यह क्या भया इसमांति विलाप करती माता श्री राम लक्षमण ने संबोधकर विश्रामको प्राप्तकरी अति सुन्दर बचनोंसे धीर्य बंधाया हे मात भरत महा विवेकी ज्ञानवान हैं तुम शोकतजो हम क्या तुम्हारे पुत्रनहीं तुम्हारे आज्ञाकारीकिंकर हैं और कौशल्या सुमित्रा मप्रभानबहुत
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पद्म , संबोधी तब शोकरहितहोर प्रतिबोधको प्राप्तभई शुद्ध है मन जिसका अपने अज्ञान की बहुत निन्दा Sear करती भई, धिक्कार इस स्त्री पर्यायको यह पर्याय महादोषोंकी खानहै अत्यन्त अशुचि वीमत्स नगर
की मोरी समान अब ऐसा उपाय करूं जिससे स्त्री पर्याय न घरूं,संसार समुद्रको तिरूं यह महा ज्ञान वान सदाही जिनशासनकी भक्तिवन्त थी अब महा वैगग्यको प्राप्त होय पृथ्वी मती आर्यिका के समीप आर्यका भई एक श्वंतवस्त्र धारा और सर्व परिग्रह तज निर्मलसम्यक्तको धरती सर्व प्रारम्भ टान्ती भई इसके साथ तीनसै आर्यकाभई यह विवेकी परिग्रह नजकर वारग्य धार ऐसी सोहती भई जैसी कलंक रहित चन्द्रमाकी कला मेघपटल रहित सोहे श्री देशभूषण केवली के बचनसुन अनेक मुनि भय अनेक आर्यिका भई तिन कर पृथ्वी ऐसी साहती भई जैसे कमलों कर सरोवरी सोहे और अनेक नर नारी पवित्र हैं चित्त जिनके तिन्होंने नाना प्रकारके नियम धर्म रूप श्राविकाके व्रत घारे, यह युक्त ही है कि सूर्य के प्रकाश कर नेत्रवान वस्तुका अवलोकन करे ही करे ॥ इति छियासीवां पर्व पूर्ण भया॥
अथानन्तरे त्रैलोक्यमण्डन हाथी अतिप्रशांतचित्त केवली के निकट श्रावक के व्रत घरता भया सम्यक् दर्शन संयुक्त महाज्ञानी शुभक्रिया में उद्यमी हाथी धर्म में तत्पर होता भया, पंद्रह पंद्रह दिन के उपवास तथा मासोपवास करता भया सके पत्रों कर पारणा करता भया हाथी संसार से भयभीत उत्तम चेष्टा में परायण लोकोंकर पूज्य महा विशुद्धताको धरे पृथिवी में विहार करता भया कभी पक्षोपवास कभी मासोपवास के पारणे ग्रामादिक में जाय तो श्रावक उसे अतिभक्तिसे शुद्ध अन्न शुद्धजल कर पारणा करवावते भए, क्षीण होय गया है शरीर जिसका वैराग्यरूप खूटे से बंधा महाउपतप करता भया ।
CALLIOJA
ss
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पद्म
पुराण
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यमनियम रूप है अंकुश जिसके वह फिर महाउग्रतपका करणहारा गजशनैः शनैः आहारकात्याग कर अंत संलेषणाघरशरीरे तज छठे स्वर्गदेवहोता भया, अनेक देवांगनाकरयुक्तहारकुण्डलादिकाभूषणोंकर मण्ड पुण्य के प्रभावसे देवगति के सुख भोगता भया, छठे स्वर्गही से आया था और छठे ही स्वर्ग गया परंपराय मोक्ष पावेगा, और भरत महामुनि महा तपके धारक पृथिवीके गुरु निर्बंथ जिनके शरीर का भी ममत्वनहीं वे महा
जहां पिछला दिन रहे वहां ही बैठरहैं जिनको एक स्थान न रहना, पवन सारिखे प्रसंगी पृथिवीसमान क्षमा को घरे, जल समाननिर्मल, अग्नि समान कर्म काष्ठके भस्मकरनहारे और प्राकाश समान लेपचार आराधनामें उद्यमी तेराप्रकारचारित्र पालते विहारकरतेभए निर्ममत्व स्नेहके बंधन से रहित मृगेंद्र सारिखे निर्भय समुद्र समान गंभीर सुमेरु समान निश्चल यथाजातरूप के धारक सत्य का वस्त्र पहरे चमा रूप खड्ग को घरे वाईस परीषह के जीतनहारे महातपस्वी समान हैं शत्रु मित्र जाके और समान हैं सुख दुख जिनके और समान हैं तृपरत्न जिनके महा उत्कृष्ट मुनि शास्त्रोक्त मार्गचलते भए तप के प्रभाव कर अनेक ऋद्धि उपजी सूई समान तीक्ष्ण तृणकी सली पावों में चुभें हैं परन्तु उनकी कब सुध नहीं और शत्रु वोंके स्थानक में उपसर्ग सहिबे निमत्त विहार करते भए तपके संयम के प्रभावकर शुक्ल ध्यान उपजा शुक्लध्यान के चलकर मोह का नाश कर ज्ञानावर्ण दर्शनावर्ण अंतराय कर्महर लोकालोक का प्रकाश करण हारा केवलज्ञान प्रकट भया फिर घातिया कर्म भी दूर कर सिद्धपद को प्राप्त भये जहां से फिर संसार विषे भ्रमण नहीं, यह केकइ के पुत्र भरत का चरित्र जो भक्ति कर पढ़े सुने सो सर्व क्लेशसेरहित होय यश कीर्ति वल विभूति आरोग्यता को पावे और स्वर्ग मोक्षपाव यह परम चरित्र महा उज्वल
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NEXEI
श्रेष्ठ गणोंकर युक्त भव्यजीव सुनों जिससे शीघ ही सूर्य से अधिक तेज केधारक होवो ॥ इति सतासीवां पर्व - अथानंतर भरत के साथ जे राजा महाधीर वीर अपने शरीर विष भी जिनका अनुराग नहीं घर से निकस जैनेश्वरी दिक्षा धर दुर्लभ वस्तु को प्राप्त भये तिनमें कैयकन के नाम कहिये हैं हे श्रेणिक त सुन सिद्धार्थ, रतिवर्धन, मेघरथ, जांबनंद.शल्प, शशांक, निरसनंदन, नंद, आनंद, सुमति, सदाश्रय, महावुद्धि सूर्य, इंद्र ध्वज, जनवल्लभ, श्रुतधर, सुचंद्र, पृथिवीधर, अलक सुमति, अक्रोध,कुण्डुर, सत्यवाहन हरिवामित्र धर्ममित्र, पूर्णचंद्र प्रभाकर, नघोष, सुनंद, शांति,प्रियधर्मा इत्यादि एक हजारसेअधिक राजा वैराग्य धारतेभये विशुद्धकुल विषे उपजे सदा पाचार विषे तत्पर पृथिवी विषे प्रसिद्ध है शुभ चेष्टा जिनकी ये महाभाग्य हाथी घोड़े रथ पयादे स्वर्ण रत्न रणवास सर्वतज कर पंच महाव्रत धारते भये, राज्य को तृणवत तजा महाशांत नानाप्रकार योगीश्वरऋधिके धारक भए आत्मध्यान के ध्याता कैयक तो मोक्ष गए कैयक अहमिद्र भए कैयक उत्कृष्ट देव भए भरत चक्रवर्ती सारिखे दशरथ के पुत्र भरत तिनको घर से निकसे पीछे लक्ष्मण तिनके गुण चितार चितार अतिशोकवंत भया अपना राज्यशन्य गिनता भया शोक कर ब्याकुल है चित्त जिम्मका, अति विषादरूप आंसू डारता भया दीर्घ निश्वास नाखतो भया नील कमल समान है कांति जिस की सो कुमलाय गया, विराधित की भुजावों पर हाथ धरै उसके सहारे बैठा मंद मंद बचन । कहे, वे भरत महाराज गुण हो हैं आभूषण जाकै सो कहां गए जिन तरुण अवस्था में शरीर से प्रीति । छाडी इन्द्र समान राज और हम सब उनके सेवक वे रघुवंश के तिलक लमस्त विभूति तजकर मोक्ष के अर्थीमहादुद्धर मुनिका धर्म धारते भए शरीरतो अतिकोमल कैसे परीषह सहेंगे धन्य वे और श्रीराम महा ।
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पद्य पुरास ICyen
ज्ञानवान कहते भए भरत की महिमा कही न जाय जिनका चित्त कभी संसार में न रचा जो शुद्धबुद्धि है तो उनकी ही है और जन्म कृतार्थ है तो उनका ही है, जे विष के भरे अन्न की न्याई राज्य को तज कर जिनदीक्षा धरते भए वे पूज्य प्रशंसायोग्य परमयोगी उनका वर्णन देवेंद्र भी न करसके तो औरों की क्या शक्ति बे राजा दशरथ के पुत्र केकईके नंदन तिनकी महिमा हम से न कही जाय इसभांति भरतके गुण गावते एक महूर्त सभा में तिष्ठे समस्त राजा भरत ही के गुण गाया करें, फिर श्रीराम लक्ष्मण दोनों भाई भरत के अनुराग कर अति उद्धेग रूप उठे सब राजा अपने अपने स्थानक गए घर घर भरत की चर्चा सब ही लोक आश्चर्य को प्राप्त भए यह तो उनकी यौवन अवस्था और यह राज्यऐसे भाई सर सामिग्री पूर्ण ऐसे ही पुरुष तजें सोई परम पदको प्राप्त होवे इसभांति सब ही प्रशंसा करते भए । ___ अथानन्तर दूजे दिन सब राजा मंत्रकर रामपै आए नमस्कारकर अतिप्रीतिसे वचनकहतेभए, हे नाथजो हम असमझहैं तो आपकेऔर बुद्धिवन्तहैं तो आपकेहम पर कृपाकर एक बीनती सुनो हे प्रभो हमसब भूमि गोचरो औरविद्याधर आपका राज्याभिषेककरें, जैसे स्वर्ग में इन्द्रका होय हमारेनेत्रऔरहृदय सफल होने तुम्हारे अभिषेककेसुख कर पृथिवी सुखरूप होय, तबराम कहते भए तुम लक्ष्मणका राज्याभिषेक करो वह पृथिवी का स्तंभ भधर है समस्त राजावों का गुरु वासुदेव राजावों का राजा सत्य गुण ऐश्वर्य का स्वामी सदा मेरे चरणों को नमे इस उपरांत मेरे राज्य कहां तब वे समस्त श्रीराम की अतिप्रशंसा कर जय
जयकार शब्द कर लक्ष्मणपै गए और सब वृत्तांत कहा तब लक्ष्मण सबों को साथलेय रामपै पाया । अब सा मोइ नमस्कार कर कहता भया कि हे वीर इसराज्य के स्वामी आपही हो मैंतो आपका अाज्ञा
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पुराण कारी अनुचर हूँ तब रामने कहा, हे वत्स तुम चक्र के धारा नारायण हो इसलिये राज्याभिषेक तुम्हाराही ।
योग्य है, सो इत्यादि वार्तालाप से दोनों का राज्याभिषेक ठहरा फिर जैसी मेघ की ध्वनि होय तैसी बादित्रों की ध्वनि होती भई दुन्दुभी वाजे नगारे ढोल मृदंग वीण तमूरे झालरझांझ मजीरे बांसुरीशंख इत्यादि बादित्र वाजे और नानाप्रकार के मंगल गीत नृत्य होते भए, याचकों को मनवांछित दानदीए सवों को अति हर्ष भया दोनों भाई एक सिंहासन पर विराजे स्वर्ण रनो के कलश जिनके मुख कमलोंमे ढके पवित्र जलसे भरेतिनकर विधि पूर्वक अभिषेक भया, दोनों भाई मुकट भजबन्ध हारकंदर कुण्डलादिक कर मण्डित मनोग्य वस्तुपाहरे सुगन्धकर चर्चित तिष्ठ विद्याधर भूमिगोचरी तथा तीन खरड़के देव जय जय शब्द कर कहते भए यह बलभद्र श्रीराम हलमसल के धारक और यह वासुदेव श्रीलक्ष्मण चक्रक धारक जयवन्त होवे दोनों राजेन्द्रीकाअभिषेक कर विद्याधर बड़े उत्साहसे सीता और विशल्याका अभि । षेक करावते भए, सीता रामकी राणी और विशिल्या लक्ष्मणकी तिनका अभिषेक विधि पूर्वक होता भया।
अथानन्तर विभीषणको लंका दई सुग्रीवकोकिहकंधापुर हनूमानको श्रीनगर और हनूरुह द्वीप दिया। विराधितको नागलोक समान अलंकापुर दिया, नलनीलको किकंधूपुर दिया समुद्रकी लहरोंके समूह कर महाकौतुक रूप और भामंडलको बैताडकी दक्षिणश्रेणी विषे रथनूपुर दिया समस्त विद्याधरोंका अधिपति किया और रत्नजटीको देवोपुनीत नगर दिया औरभी यथा योग्य सबों को स्थान दिये। अपने पुरयके उदय योग्य सबही रामलक्षमण के प्रतापसे राज्य पावते भए। रामकी प्राशकर यथा । योग्य स्थानको तिष्ठे । जे भन्यजीव पुण्य के प्रभावका जगतमें प्रसिद्ध फल जान धर्म में रति करे हैं वे मनुष्य सूर्य से अधिक ज्योति को पाये हैं ॥ इति अठासीवां पर्व संपूर्णम् ॥
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प्रयानन्तर राम लक्ष्मण महाप्रीतिसे भाई शत्रुघ्न से कहते भए जो तुमको रुचे सो देश लेवो। पद्म पुराण | जो तुम प्राधी अयोध्या चाहो तो श्राधी अयोध्या लेवो अथवा राजगृह अथवा पोदनापुर अथवा १८५९ पोंडसुन्दर इत्यादि सैकड़ा राजधानी हैं। तिन में जो नीकी सो तुम्हारी तब शत्रुघ्न कहता भया
मुझ मथुरा का राज्य देवो, तब राम बाले हे भातः वहां राजा मधुका राज्य है और वह रावणका जनाई है अनेक युद्धों का जीतनहारा उस को चमरेन्द्र ने त्रिशूल रत्न दिया है सो ज्येष्ठ के सूर्य समान दुस्सह है और देवोसे दुर्निवार है उसकी चिन्ताहमारे भी निरन्तर रहेहै वह राजा मधु हरिबंशियों के कुल रूप श्राकाश विषे सूर्य समान प्रतापी है जिसने वंशमें उद्योत किया है और जिसका लव
र्णार्णव नामा पुत्र विद्याधर्मों से भी असाध्य पिता पुत्र दोनों महाशूरवीर है इसलिये मथुरा टार और राज्य चाहो सोही लेवो तब शत्रुघ्न कहता भया बहुत कहिवेसे क्या मुझे मथुराही देवो जो में मधुके छाते की न्याई मधुको रण संग्राम में न तोडलूं तो दशरथका पुत्र नहीं जैसे सिंहों के समूह को अष्टापद तोड़ डारे तैसे उसके कटक सहित उसे न चूर डारूं तो में तुम्हारा भाई नहीं, जो मधुको मृत्य प्राप्तन करतो में सामाको कुचि में उपजाही नहीं इस भांति प्रचंड तेजका धरणहारा शत्रुघ्न कहता भया तव समस्त विद्याधरों के अधिपति आश्चर्यको प्राप्त भए और शत्रुन्न की बहुत प्रशंसा करतेभए तब शत्र. इन मथुरा जायवेको उद्यमी भया तक श्राराम कहतेभए. हे भाई में एक याचना करूंहूं सो मझे दक्षिण देवो तव शत्रुघ्न कहताभया सबके दाता बापहो सब अापके याचक हैं आप याचो से वस्तु क्या मेरे णही के नाथ पाप हो तो और वस्तुकी क्या बात एक मधु से युद्ध तो में न तजू और कहो सोही।
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८५२.
करूं तब श्रीरामने कही हे वत्स तू मधुसे युद्ध करे तो जिससमय उसके हाथ त्रिशलरत्न न होय उससमय । पुगव करियो तब शत्रुघ्नने कही जो आप अाज्ञा करोगे सोही होयगो ऐसाकह भगवानकीपूजाकर नमोकार
मन्त्र जप सिद्धोंको नमस्कारकर भोजन शालामेंजाय भोजनकर माताकेनिकटबाय आज्ञामांगी तब माता अति स्नेहसे इसके मस्तकपर हाथधर कहती भई हेवस्त त् तीक्षण वाणोंकर शत्रु बोकेसमहको जीत वहयोधा की माता अपने योधापुत्रसे कहती भई हे पत्र अवतक संग्राममें शत्रुवों ने तेरी पीठ नहीं देखी है और अब भी न देखेंगे तू रण जीत आवेगा तव में स्वर्ण के कमलों कर श्री जिनेन्द्रकी पूजा कराऊंगी वे भगवान त्रैलोक्य मंगलके कर्ता आप महामंगल रूप सुर असुरोंकर नमस्कार करने योग्य रागादिक के जीतन । हारे तुझे मंगल करें वे परमेश्वर पुरुषोत्तम अरहन्त भगवन्त जिनने अत्यन्त दुर्जजय मोह रिपु जीता। वे तुझे कल्याणकेदायकहोवें जे सर्वज्ञत्रिकाल दर्शो स्वयं बुद्धितिनके प्रसाद से तेरी विजय हो। जे केवल ज्ञानकर लोकालोकको हथलीमें अवला की न्याई देखेहैं वे तुझमंगलरूपहोवे हे बरसा वेसिद्धपरमेष्ठी अष्टकम से रहित अष्टगुण आदि अनन्त गणोंकर विराजमान लोकक शिखर तिष्ठे व सिद्ध तुझं सिद्धि के कता हो।
और प्राचार्य भन्यजीवों के परम अाधार तेरे विघ्न हरें जे कमल समान अलिप्त सर्य समान तिमिर हर्ता और चन्द्रमा समान आल्हाद के कर्ता भमि समान क्षमावान सुमेरु समान अचल समुद्र समान गंभीर
आकाश समान अखंड इत्यादि अनेक गुणोंकर मंडित हैं और उपाध्याय जिनशासन के पारगामी तुझे कल्याण के कर्ता होवें और कर्म शत्रुवों के जीतवेको महाशवीर बारह प्रकार तपकर जे निर्वाणको साधे हैं वे साधु तुझे महावीर्य के दाता होवें इसभांति विघ्न की हरणहारी मंगल की करणहारो माता आशीश
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पद्म
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देती सो शत्रुघ्न माथे चढ़ाय माताको प्रणामकर वाहिर निकसा स्वर्णकी सांकलोंकर मंडित जो गज ८५३॥उस पर चढ़ा ऐसा साहता भया जैसे मेघमाला ऊपर चन्द्रमा सोहे और नाना प्रकार के वाहनों पर
आरूढ़ अनेक राजा सँग चले सो तिन कर ऐसा सोहता भया जैसा देवों कर मण्डि देवेंद्र सोहे, राम लक्ष्मण को भाई से अधिक प्रीति सो तीन मंज्जिल भाई के संग गये, तब भाई कहता भया । हे पज्य पुरुषोत्तम पीछे अयोध्या जावो मेरी चिन्ता न करो मैं आप के प्रसाद से शत्रुवों को निस्सन्देह जीतूंगा तब लक्ष्मण ने समुद्रावर्तनामा धनुष दिया प्रज्वलित हैं मुख जिन के पवन सारिखे वेग को घरे ऐसे वाण दिये और कृतान्तवक्रको लारदिया और लक्ष्मण सहित रामपीछे अयोध्या याये परन्तुभाईकी चिन्ताविशेष ||
पुरा
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प्रथानन्तर शत्रुघ्न महाघीर बीर बड़ी सेना कर संयुक्त मथुरा की तरफ गया अनुक्रम से यमुना नदी के तीर जाय डेरे दिये जहां मन्त्री महासूक्ष्मबुद्धि मन्त्र करते भये देखो, इस बालक शत्रुध्न की बुद्धि जो मधु के जीत की बांबा करी है । यह नयवर्जित केवल अभिमान कर प्रदर्ता है, जिस मधुने पूर्व राजा मान्धाता रामें जीता सो मधु देवोंकर विद्याधरोंसे न जाता जाय, उसे यह कंस जातेगा राजा मधु सागर समान है उछलते पियारे वेई भये उतंग लहर और शत्रुवों के समूह वेई भये ग्राह तिनकर पूर्ण ऐसे मधुसमुद्र शत्रुघ्नको भुजावोंकर तिरा चाहे है सो कैसे तिरेगा, तथा मधुभूपति भयानक न समान है उस विषे प्रवेशकर कौन जीवता निसरे कैसा है राजा मधु रूप बन पयादोंके समूह वेई वृच जहां और माते हाथियोंकर महाभयंकर और घोड़ों के समूह वेई हैं मृग जहां, ये बचन मंत्रियों के सुन कृतांतवक कहता भया । तुम साहस छोड़ ऐसे कायरता के वचन क्यों कहो हो यद्यपि वह राजा
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पद्म | मधु चमरेंद्र कर दिया जो अमोघ त्रिशूल उसकर अति गर्वित । तथापि उस मधुको शत्रुधन सुन्दर पुराण
जीतेगा जैसे हायी महाबलवानहै और मुंडकर वृचोंको उपाडे है मद मरे है तथापि उसे सिंहजीते हैं यह । शत्रुघ्न.लक्ष्मी और प्रताप कर मंडितहै महाबलवान, शूरवीरहै महा पंडित प्रवीणहै और इसके सहाई। श्रीरामलक्ष्मणहें और श्राप सवही मले २ मनुष्य इसके सम्है इस लिये यह शत्रुध्न अवश्य शत्रु को जीतेगा जब ऐसे बयन कृतांतवक्रने कहे तव सवही प्रसन्नमव और पहिलेही मंत्रीजनोंने जो मथुरामें हल । का पठाये थे वे श्रायकर सर्व वृतांत शत्रुघ्नको कहते भए । हे देव मथुगनगरीकी पूर्व दिशाकी अोर अत्यंत । मनोग्य उपवन है वहां रणवास सहित राजा मधु रमें है गंजाके जयन्ती नाम पटराणी हैं उस सहित वनक्रीड़ा करे है जैसे स्पर्श इंद्रिय के वश भया गजराज बन्धनमें पड़े है, तैसे राजा मोहित भया विषयों के बन्धनमें पडाहै, महा कामी अाज छठादिनहै कि सर्व राज्य काज तज प्रमादके बशभया बनमें तिष्ठे.. है कामान्ध मूर्ख तुम्हारे पागमको नहीं जाने है,और तुम उसके जीतवेकी बांछा करी है इसकी उसे सुध। नहीं और मंत्रियों ने बहुत समझाया सो काहूकी बात धारे नहीं, जैसे मूढ रोगी वैद्यकी औषध न धारे। इस समय मथूरा हाय अावे तो अावे और कदाचित मधुपुरी में धसातोसमुद्रसमान अथाहहै, ये बचन । हलकारोंके मुखसे शत्रुन्न सुनकर कार्य प्रवीण उसही समय बलवान योधावोंके सहित दौड कर मथुरा गया, अर्धरात्रिके समय सर्वलोक प्रमादी थे और नगरी राजा रहितथी, सो शत्रुघन नगरमें जाय। पेठा जैसे योगी कर्मनाश कर सिद्धपुरीमें प्रवेशकरे, तैसे शत्रुधन द्वारको चरकर मथुरामें प्रवेश कस्ता भया मथुरा महामनोग्य है क्व बन्दीजनाके शब्द होते भये जो राजा दशरथका पुत्र शत्रुघन जयवंत होवे ये ।
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प्रश्न
॥५॥
शब्द सुनकर नगरीके लोक परचकका श्रागम जान अति ब्याकुलभए, जैसे लंकामें अंगदके प्रवेशसे । अतिव्याकुलता भईथी तैसे मथुरा में व्याकुलताभई । कईएक कायर हृदयकी धरनहारी स्त्रीथीं तिन के भयकर गर्भपात होयगये, और कैयक महाशूरंबीर कलकलाट शब्द सुनतत्काल सिंहकी न्याई उठे,शत्रुधन राजमंदिरगया आयुधशाला अपने हाथकरलीनी औरस्रो वालक आदिजे नगरीके लोक अतित्रासकोप्राप्त भये थे तिन को महामधुर वचन कर धीर्य बन्धाया कि यह श्रीराम का रज्य है यहां किसी कोदुःखनहीं तव नगरी के लोग त्रासरहित भये और शत्रुघ्नको मथुरा विषे आया सुन राजा मधु महाकोप कर उपयन से नगर को आया सो मथुरा विषे शत्रुघ्न के सुभटों की रक्षा कर प्रवेश न कर सका जैसे मुनिके हृदय में मोह प्रवेश न कर सके, नाना प्रकार के उपाय कर प्रवेश न पायो और त्रिशल से भी रहित भया तथापि महा अभिमानी मधुने शत्रुघन से संधि न करी यद्ध ही को उद्यमी भया, तब शत्रुघन के योधा युद्ध को निकसे दोनों सेवा समुद्र समान तिनमें परस्पर युद्ध भया, रथों के तथा हारियों के तथा घोड़ों के असवार परस्पर युद्ध करते भए और परस्पर पयादे भिड़े नानाप्रकार के प्रायुधों के धारक महासमर्थ नाना प्रकार श्रायुधों कर युद्ध करते भए उस समय पर सेनाके गर्वकान सहता संता कृतांतवक्र सेनापति पर सेना में प्रवेश करता भया नहीं निवारी जाय गति जिसकी वां रणक्रीडावरे है। जैसे स्वयम्भ रमणउद्यान में इन्द्र क्रीड़ा करे, तब मधुका पुत्र लवणार्णवकुमार इसे देख युद्धके अर्थ प्रायो
अपने बाणों रूप मेघ कर कृतांतवक रूप पर्वत को बाछादित करता भया, और कृतांतवक्र भी प्राशी | विष तुल्य वाणों कर उसके बाण छेदता भया, और धरती आकाश को अपने बाणों कर व्याप्त करता
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भया, दोनों महायोघा सिंह समान बलवान् गजों पर चढ़े क्रोध सहित युद्ध करते भए, उसने उस को पा स्थ रहित किया और उसने उसको, फिर कृतांतवक ने लवणार्णव के वक्षस्थल में बाण लगाया और उस
कावषतर भेदा तब लवणार्णव कृतांतवक ऊपर तोमर जातिका शस्त्र चलावता भया क्रोध कर लाल हैं
नेत्र जिस के दोनों घायल भए. रुधिर कर रंग रहे हैं वस्त्र जिन के, महा सुभटता के स्वरूप दोनों | क्रोष कर उद्धत फूले केसू के वृक्ष समान सोहते भए, गदा खड्ग चक्र इत्यादि अनेक आयुधोंकर परस्पर दोनों महा भयंकर युद्ध करते भए बल उन्माद विषाद के भरे बहुत बेर लग युद्ध भया, कृतांतवक ने लवणार्णव के वक्षस्थल में घाव किया, सो पृथिवी में पड़ा जैसे पुण्य के क्षय से स्वर्गवासी देव मध्य लोक में प्राय पहें लवणार्णव प्राणान्त भया, तब पुत्रको पड़ा देख मधु कृतांतवक्र पर दौड़ा सब शत्रुन्न
ने मधु को रोका, जैसे नदो के प्रवाह को पर्वत रोके मधु महा दुस्सह शोक और कोप का भरा युद्ध करता | भयो सो प्राशो विष की दृष्टि समान मधु की दृष्टि शत्रुन की सेना के लोक न सहार सकतेभए जैसे उग्र
पवन के योग से पत्रों के समूह चलायमान होय तैसे लोक चलायमान भए फिर शत्रुघ्न को मधु के सनमुख जाता देख धीर्य को प्राप्त भए शत्रु के भयकर लोक तबलगही डरें जवलग अपने स्वामी को प्रबल न देखें और स्वामी को प्रसन्न बदन देख धीर्य को प्राप्त होंय शत्रुघ्न उत्तम रथ पर आरूढ़ मनोग्य धनुष हाथ में सुन्दर हारकर शोभे है वक्षस्थल जिसका सिर पर मुकट घरे मनोहर कुण्डल पहिरे शरद के सूर्य
समान महातेजस्वी अखण्डित है गति जिसकी शत्रु के सन्मुख जाता अति सोहता भया. जैसे गजराज || पर जाता मृगराज सोहे, और जैसे अग्नि सूके पत्रों को जलावे तैसे मधु के अनेक योधा क्षणमात्र में
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1290
"विध्वंश किए शत्रुधन के सनमुख मधुका कोई योधा न ठहरसकाजैसेजिनशासन के पंडित स्यादवारी तिन | पुराण के सन्मुख एकांतवादी नठहिर सके जो मनुष्य शत्रुघन से युद्ध किया चाहे हैं सो तत्काल विनासको
पावें जैसे सिंहके आगे मृग मधुकी समस्त सेनाके लोक अति व्याकुल होय मधुके शरमात्राये सो मधु महा सुभठ शत्रुधनको सनभुख श्रावतादेख शत्रुघनके रथकी ध्वजा छेदी और शत्रुघनने बामों कर उसके स्थके अश्व हते तबमधु पर्वत समान जो बरुणेंद्र गज उसपर चढ़ा क्रोधकर प्रज्वलित है शरीराजिसका शत्रुधन को निरंतर बाणों कर आछादने लगाजेसे महामेघ सूर्यको श्राछादे सो शत्रघ्न महा शूरबीरने उसके बाणछेद डारे और मधुका बखतर भेदा जैसे अपने घर कोई पाहुनाथावे औरउस की भले मनुष्य भलीभांति पाहुन गतिकरे तैसे शत्रघ्न मधुकी रणविषे शस्त्रोंकर पाहुणगतिकरताभया
अथान्तर मधुमहा विवकी शत्रुधनको दुर्जयजान आपको त्रिशूल श्रायुधसे रहित जान पुत्रकी मृतु देख और अपनी प्रायुभीअल्पजान मुनियोंके वचन चितारता भया अहोजगतका समस्तही श्रारंभ महा हिंसारूप दुखका देनहारा सर्वथा ताज्यहै यह क्षण भंगुर संसारका चारित्र उसमें मूढजनराचे इस विषे धर्मही प्रशंसायोग्य है और अधर्मकाकारण अशुभ कर्म प्रशंशा योग्यनहीं महा निध यह पाप कर्भ नरक निगोद का कारण है जो दुर्लभ मनुष्य देह को पाय धर्म विषे बुद्धि नहीं धरे है सो प्राणी मोह कर्म कर उगाया अनन्त भव भ्रमणकरे हैं में पापी ने संसार असार को सार जाना क्षण भंगुर शरीर को ध्रुबजाना, आत्म हित न किया प्रमाद विषे प्रवरता रोग समान ये इन्द्रीयों के भोग भले जान भोगे, जब मैं स्वाधीन था तब मुझे सुबुधि नपाई, अब अन्तकाल आया अब क्या करूं घरको आग
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५.
पराण
१८५८
लगी उससमयतलाव खुदवाना कोन अर्थ और सर्पने डसा उस समय देशान्तर से मन्त्राधीसवुलवाना और । दूरदेशसे मणिपोषधी मंगावनाकोन अर्थ इसलिये अबसर्वचिंता तज निराकुलहोय अपनामनसमाधान में ल्याऊं यहविचार वह धीरवीरघावकर पूर्णहाथी चढाही भावमुनि होताभया,अरहन्तसिद्ध प्राचार्यउपाध्याय साधवों को मनकरवचनकर कायकरबारंबार नमस्कार कर और अरहंत सिद्ध साध तथा केवली प्रणीत धर्म यहाँ मंगल हैं यही उत्तम हैं इन ही कामेरे शरणहै अढाईद्वीप विषे पन्द्रहकम भूमि तिनविषे भगवान् अरहन्त देव होय हैं वे त्रलोक्यनाथ मेरे हृदय में तिष्ठो में बारम्बार नमस्कार करूं हूं अब में यावज्जीव सर्व पाप योग तजे चारों श्राहार तजे, जे पूर्व पाप उपार्जे थे तिन की निन्दा करूंहूं और सकल वस्तु का प्रत्याख्यान करूं हूं अनादि काल से इस संसार बन में जो कर्म उपार्जे थे मेरे दुःखकृत मिथ्या होवो॥
. भावार्थ-मुझे फल मत देवें, अब में तत्वज्ञान में तिष्ठा तजवे योग्य जो रागादिक तिन को त हूँ और लेयवे योग्य जो निजभाव तिनको लेऊहूं ज्ञान दर्शन मेरे स्वभावही हैं सो मोसे अभेद्य हें और जे शरीरादिक समस्त पर पदार्थ कर्म के संयोग कर उपजे वे मोसे न्यारे हैं देह त्याग के समय संसारी लोक भूमि का तथा तृण कासांथरा करे हैं सो सांथरा नहीं यह जीव ही पाप बुद्धि रहित होय तब अपना श्राप ही सांथरा है ऐसा विचारकर राजा मधु ने दोनों प्रकारके परिग्रह भावोंसे तजे और हाथी की पीठ पर बैठा ही सिर के केश लोंच करताभया, शरीर घावों कर अतिव्याप्त है तथापि महा दुर्धरधीर्य को धरकर अध्यात्म योग में प्रारूढ होय कोया का ममत्व तजता भया, विशुद्ध है बुद्धि जिसकी । तब शत्रुघ्न मधुकी परम शान्त दशा देख नमस्कार करता भया और कहताभया हे साधो मोअपराधी का अपराध क्षमाकरो, देवां
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पद्म
धुराक
की अप्सरा मधु का संग्राम देखनेको पाई थी आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा करती भई मघ का । वीर रस और शांत रस देख देव भी आश्चर्य को प्राप्त भए फिर मधु महा धीर एक क्षणमात्र में समाधि । मरण कर महासुखके सागर में तीजे सनत कुमार स्वर्ग में उत्कृष्ट देव भया, और शत्रुघ्नमधु की स्तुति करता महा विवेकी मथ रामें प्रवेशकरता भया जैसे हस्तिनागपुर में जयकुमार प्रवेश करता सोहता भया तैसा शत्रुघन मधुपुरी में प्रवेश करता सोहता भया, गौतमस्वामी राजाश्रेणिक से कहे हे हे नराधिपति प्राणियों के इस संसार में कर्मों के प्रसंग कर नाना अवस्था होय हैं इसलिये उत्तमजन सदा अशुभ कर्म तज' कर शभकर्म करो जिसके प्रभाव कर सूर्य मसानकांतकोप्राप्तहोवो ॥ इति नवासीवांपर्व पूर्णभया ॥ __अथानन्तर सुरकुमारों के इन्द्र जो चमरेन्द्र महाप्रचंड तिन का दीया जो त्रिशूलरत्न मधु के था उसके अधिष्ठाता देव त्रिशूल को लेकर चमरेन्द्र के पास गए, अतिखेद खिन्न महा लज्जावान होय मधु के मरण का वृतांत असुरेन्द्रसे कहते भए तिनकी मधुसे अति मित्रता सो पातालसे निकस कर महाक्रोधक भरे मथुरा प्रायवेको उद्यमी भए उस समय गरुडेन्द्र निकट अाए कि है दैत्येन्द्र कौन तरफगमन को उद्यमी भए हो तब चमरेन्द्र ने कही जिसने मेरा मित्र मधु मारा है उसेकष्ट देवेको उद्यमी भया हूं तब गरुडेन्द्र ने कही क्या विशिल्या का महात्म्य तुमने न सुनाहै तब चमरेन्द्र ने कही वह अद्भुत अवस्था विशिल्याकी कुमार अवस्था में ही थी और अब तो निर्विषभुजंगी समान है जौंलग विशिल्याने वासुदेव का श्राश्रय न किया था तोलग ब्रह्मचर्य के प्रसाद से असाधारण शक्ति थी, अब वह शक्ति विशिल्या में नहीं जे। निरतिवारवाल ब्रह्मचर्य धारे तिनके गुणों की महिमा कहिवे में नावे, शील के प्रसाद कर सुर असुर ।
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पिशाचादि सब डरें जौंलग शीलरूप खड्ग को धारे तलग सक्कर जीता न आय महा दुर्जय है "विशिल्या पतिव्रता है ब्रह्मचारिणी नहीं इसलिये वह शक्ति नहीं मद्य मांस मैथुन यह महापापहैं इनके सेवन से शक्ति का नाश होय है जिनकी व्रतशील नियम रूप कोटभग्न न भया तिनको कोई विघ्न करखें समर्थ नहीं एक कालाग्नि नामद्ध महा भयंकर भया सो हे गरुडैन्द्र तुम सुना ही होगा फिर वह स्त्री सेयासक्त होय नाश को प्राप्त भया इसलिये विषय का सेवन विषसे भी विषम है परम औश्वर्य का कार एक अखंड ब्रह्मचर्य है अब में मित्रके शत्रु पर जाऊंगा तुम तुम्हारे स्थानक जावो । ऐसा गरुडेंद्र से कहकर चमरेन्द्र मथुरा आए, मित्रके मरण कर कोपरूप मथुरा में वही उत्सव देखाजोमधु के समयथा तब
सुरेद्रने विचारी ये लोक महादुष्टकृतघ्न हैं देशकाघनी पुत्र सहित मरगया है और औरायबैठा है इनको सोक चाहिये कि हर्ष, जिसके भुजका छाया पाय बहुत काल सुखसे बसे उस मधु की मृत्यु का दुःख इनको क्यों न भया ये महाकृतघ्न हैं सो कृतघ्नका मुख न देखिये लोकोंकर शूरवीरसँवा योग् यशूरवीरोंकर पण्डित सेवा योग्य हैं सो पण्डित कौन जोपराया गुण जाने सो ये कृतघ्न महा मूर्ख हैं जैसा विचार कर मथुरा के लोकों पर चमरेन्द्र कोपा इन लोकों का नाश करूं यह मथुरापुरी इस देश सहित क्षय करू । महा क्रोध कें वश होय सुरेन्द्र लोकों को दुस्सह उपसर्ग करता भया, अनेक रोग लोगों को लगाये प्रलय काल की अग्नि समान निर्दयी होय लोक रूपवन को भस्म करने को उद्यमी भया, जी जहां ऊभी था सोवहां ही मर गया, और बढ़ाया सोबैठा ही रहा, सूता था सो सूताही रहा मरी पड़ी लोंक को उपसर्ग देख मित्र देव देवता के भयसे शत्रुघ्न अयोध्या श्राया सो जीत कर महा शूरवीर भाई आया बलभद्र नारायन अति हर्षित
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पुराण भये और शत्रघ्न की माता सुप्रभा भगवान् की अद्भुत पूजा करावती भई, और दुखी जीवों को करुणा
कर और धर्मात्मा जीवों का अति विलय कर अनेक प्रकार दान देती भई, यद्यपी अयोध्या महा सुन्द्र है स्वर्ण रत्नों के मन्दिीरों कर मण्डित है कामधेनुसमान सर्व कामनापूरणहारीदेवपुरी समान पुरी है तथापि शत्रुघ्न का जीव मथुरा से अतिआसक्त सो अयोध्या में अनुरागी न होता भया जैसे कैयक । दिन सीता विना राम उदा रहे. तैसे शत्रुघ्न मथुरा बिना अयोध्या में उदास रहे जीवों को सुन्दर वस्तु का संयोग स्वप्न समान क्षणभंगुरहेपरम दाहको उपजावे है ज्येष्ठके सूर्यसे भी अधिक आतापकारी है। इति वा पर्व
अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामी से पूछता भया हे भगवान कोन कारण कर शत्रुघ्न मयुरा ही को याचता भया अयोध्या से उसे मथुरा का निवास अधिक क्यों रुचा, अनेक राजधानी स्वर्ग लोक समान सो न बांछी और मथुरा ही बांछी असी मथुरा से क्यों प्रीति, तव गौतमस्याम ज्ञान के समुद्र सकल सभारूप नक्षत्रों के चन्द्रमा कहते भये, हे श्रेणिक इस शत्रुघन के अनेक भव मथुरा में भये इसालय । इस को मधु-पुरी से अधिक स्नेह भया। यह जीव कर्मों के सम्बन्ध से अनादि काल का संसार में बसे है सो अनन्त भव घरे यह शत्रुघन का जीव अनन्त भव भ्रमण कर मथुरा विषे एक यमनदेव नामा मनुष्य भया महकर धर्म से विमुख सो मर कर शूकर खर काग ये जन्म घर अजा पुत्र भया सो अग्नि में जल मूवा, भैंसा जलके लाद ने का भया सो छैचार भैंसा होय दुख से मूवा नीचकुल विनिर्धन मनुष्य भया, हे श्रेणिक महापापी तो नरक को प्राप्त होय हैं, ओर पुण्यवान जाव स्वर्ग विषे देव होय हैं और शुभाशुभ मिश्रित कर मनुष्य होय हैं फिर यह कुलन्धरनामा ब्राह्मण भया रूपवान औरशीलरहित सोएक
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॥८६२
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पद्म समय नगरका स्वामी दिगविजय निमित्त देशांतर गया उसकी ललितानाम राणीमहलके झरोखा विष । पुराण
तिष्ठे थी सो पापिनी इस दुगवारी विप्रको देख काम बाण करवेधी गई सो इसे महलमें बुलाया एक प्रासनपर रणी और यह बैठेथे उसही समय राजा दूरका चला अचानक पाया और इसे ही महल में देखा सो राणीने मायाचार कर कही जो यह बन्दीजनहै भित्तुकहै तथापि राजाने नमानीराजाके किंकर उसे पकडकर नृपको आज्ञासे आठो अंग दूर करवे के अर्थ नगरके बाहिर ले जाते थे सो कल्याणनामा साधू ने देख कही जो तू मुनिहाय तो तुझे छुडावें तब इसने मुनि होना कबूल किया तब किंकरों से। छूडाया सो मुनिहोय महातप कर स्वर्गमें ऋजु बिमानका स्वामी देव भया हे श्रेणिक धर्म से क्यान होय।। ___अथानन्तर मथुरामें राजा चन्द्रभद्र उसके राणी धरा उस के भाई सूर्य देव अग्निदेव यमुना देव ।
ओर पाठ पुत्र तिनके नाम श्रीमुख सुन्मुख मुमुख इन्द्रमुख प्रमुख उग्रमुख अर्कमुख परमुख और राजा चन्द्रभद्र के दूजी राणी कनक प्रभा उस के वह कुलन्धर नामा ब्राह्मण काजीव स्वर्ग विषे देव होय वहांसे चयकर अचल नाम पुत्र भया सो कलावान और गुणों कर पूर्ण सर्व लोकके मनका हरणहाग देव कुमार तुल्य क्रीडा विषे उद्यमी होता भया। '
अथानन्तर एक अंकनामा मनुष्य धर्मकी अनुमोदनाकर श्रावस्ती नगरी विषे एक कंपनाम पुरुष उसके अंगिका नामा स्त्री उसके अपनामा पुत्र भया सो अविनयी तव कंपते अपको घरसे निकास दिया सो महादुखी भूमिमें भ्रमण कर और अचलनामा कुमार पिताका अतिबल्लभ सो अचलकुमारकी | बड़ी माता धरा उसके तीन भाई और आठ पुत्र तिन्होंने एकांतमें अचलकें मारणेकामंत्र किया सो
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पद्म
पुरा
यह वार्ता अचल कुमारकी माताने जानी तब पुत्रको भगाय दिया सो तिलक बनमें उसके पाव में कांटा ६३॥ लगा सो कंपका पुत्र आप काष्टका भरा लेकर श्रावे यासो अचलकुमारको कांटेके दुखसे करुणावन्त देखा
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तब अपने काष्ठका भार मेल छूरीसे कुमारका कांटा काढ़ कुमारको दिखायासो कुमार अति प्रसन्न भया
आपको कहा तू मेरा अचलकुमार नाम याद रखियो और मुझे भूपति सुने वहां मेरे निकट आइयो इस भांति कह अपको बिदा किया सो अप गया और राजपुत्र महादुखी कौशांबी नगरीके विषे आया महापराक्रमी सो बाणविद्याका गुरुजो विशिषाचार्य उसेजीतकर प्रतिष्ठा पाई सोराजाने अचलकुमारको नगर में ल्यायकर अपनी इन्द्रदत्ता नाम पुत्री पराई अनुक्रमकर पुण्य के प्रभावसे राजपाया सो गदेश आदि अनेक देशों को जीतकर महाप्रतापी मथुरा श्राया नगरके बाहिर डेरा दिये बडी सेना साथ सब सामन्तों ने सुनी कि यह राजा चन्द्रभद्रकापुत्र अचलकुमार है सो सब प्राय मिले राजा चन्द्रभद्र अकेला रहगया तबराणी धराके भाइ सूर्यदेव अग्निदेव यमुनादेव इनको संधि करने भेजे सोये जायकर कुमार को देख बिलस्ने होय भागे और घराके उपुत्र भी भाग गए अचलकुमारकी माता श्राय पुत्रको लेगई पिता से मिलाय पिताने इसको राज्य दिया एकदिन राजा अचलकुमार नटों का नृत देखेथा उससमय पाया जिसने इसका वननें कांटा काढाथा सो उसे दरवान धक्का देयकाढे थे सो राजाने मनेकिए और अपको बुलाया बहुत कृपा करी और जो उसकी जन्मभूमि श्रावस्ती नगरीथी सो उसे दई और ये दोनों परममित्र भेलेही रहें एकदिवस महासंपदा के भरे उद्यान में कीड़ा को गयेथे सो यशसमुद्र चाचार्य को देख कर दोनों मित्र मुनिभये सम्यकदृष्टि परम संयमको प्राराव समाधिमरण कर स्वर्ग विषे उत्कृष्ट देवभये वहां
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से चयकर अचलकुमार का जीव राजा दशरथ के यह शत्रुघन पुत्रभया अनेक भव के सम्बन्ध से इसकी मथुरा से अधिक प्रीति भई गौतमस्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वृक्ष की छाया जो प्राणी बैठा होयतो उस वृक्ष से प्रीति होय है जहां अनेक भव घरे वहां की क्या बात संसारी जीवों की ऐसी अवस्था है और वह आपका जीव स्वर्ग से चयकर कृतांतबक सेनापति भया इसभांति धर्मके प्रसादसेये दोनों मिश्र संपदा को प्राप्त भये रजे धर्मसे रहित हैं तिनके कभी भी सुख नहीं अनेक भवके उपार्जे दुखरूप मल तिनके धोयवेको धर्मका सेबन ही योग्य है और जल के तीर्थों में मनका मैल नहीं धुवे धर्म के प्रसाद से शत्रुघन का जीव सुखी भया ऐसा जान कर विवेकी जीवधर्म विषे उद्यमी होवोधर्म को सुन कर जिन की श्रात्मकल्याण में प्रीति नहीं होय है तिनका श्रवण वृथा है जैसे जो नेत्रवान सूर्यके उदयमें कूपमें पड़े तो उसके नेत्र वृथा हैं । इति इक्यासपर्वसंपूर्णम् ॥
अथानन्तर आकाश में गमन करण हारे सप्तचारण ऋषि सप्त सूर्य समान है कांति जिनकी सो विहार करते निर्बं मुनींद्र मथुरापुरी थाये तिनके नाम सुरमन्यु श्रीमन्यु श्रीनिश्चय सर्वसुन्दर जय air बिनयलाल सजयमित्र ये सर्व ही महाचारित्र के पात्र अति सुन्दर राजा श्री नन्दनराणी धरणी सुन्दरी के पुत्र पृथिवी में प्रसिद्ध पिता सहित प्रीतंकर स्वामी का केवल ज्ञान देख प्रतिबोध को प्राप्त भयेथे पिता और प्रीतंकर केवली के निकट मुनि भये और एक महीने का वास्तक तु वरुनामा पुत्र उस को राज्य दीया पिता श्रीनन्दनतो केवली भया और ये सातों महामुनि चारण ऋद्धि यादि अनेक ऋद्धि के धारक श्रुतकेवली भये सो चातुर्मासिकमें मथुराके वनमें बदके वृक्ष तले आय बिराजे तिन के तपके
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प्रभावकर चमरेंद्रकी प्रेरी मेरी दूरभई जैसे श्वशुरको देखकर व्यभिचारणी नारी दूर भागे मथुराका समस्त मंडल सुखरूप भया बिनावा हे धान्य सहजही उगे समस्त रोगों से रहित मथुरापुरी ऐसी शोभती भई ८६५" जैसे नई बधू पतिको देखकर प्रसन्न होय, वह महामुनि रसपर त्यागादि तप और बेला तेला पचोपवासादि
पुरा
अनेक तपके धारक जिनको चार महीना चौमासे रहना तो मथुरा के बनमें और चारणऋद्धि के प्रभावसे चाहे जहां आहार कर वें सो एक निमिष मात्रमें आकाश के मार्ग होय पोदनापुर पारणाकर अ. ये कभी विजयपुरकर या उत्तम श्रावकके घर पात्र भोजनकर संयम निमित्त शरीरको राखें कर्म के खिपावेको उद्यमी एक दिन वे धीरबीर महाशांति भावके धारक जूडा प्रमाण धरती देख बिहार कर ईर्ष्या समति के पालनहारे आहार के समय आयोध्या आये शुद्ध भिक्षा के लेनहारे प्रलंबित हैं महा सुजा जिनकी दत्त सेठ के घर आये प्राप्त भए तव अदत्तने बिचारी वर्षाकाल में मुनिका बिहार नहीं ये चौमासा पहिलि तो यहां आये नहीं और मैं यहां जे जे साधु विराजे हैं गुफा में नबके तीर वृक्ष तले शून्य स्थानके विषे बनके चैत्यालयों में जहां जहां चौमासी साधु तिष्ठे हैं वे में सर्व वंदे यह तो अबतक देखे नहीं ये आचांग सूत्रकी आज्ञासे परामुख इच्छा बिहारी हैं वर्षाकाल में भी भ्रमते फिरे हैं जिन श्राज्ञा पराङ्मुख ज्ञान रहित निराचारी आचार्यकी आम्नायसे रहित हैं जिन द्याज्ञा पालक होय तो वर्षा में बिहार क्यों करें, सो यहतो उठ गया और इसके पुत्रकी बधूने प्रति भक्तिकर प्राशुक आहार दिया सो मुनि आहार लेय भगवान के चैत्यालय आये जहां द्युतिभहारक विराजते थे ये सप्तर्षि ऋद्धि के प्रभावकर धरती से चार अंगुल अलिप्त चले आये और चैत्यालय में धरतीपर पग धरते आये आचार्य उठ खड़े भये
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अतिश्रादरसे इनको नमस्कार किया और जे द्युतिभट्टारकके शिष्यथे तिन सबने नमस्कार किया फिर ये सप्त तो जिन वन्दनाकर अाकाश के मार्ग पीछे मथुरा गये इनके गये पीछे अहंदत्त सेठ चैत्यालय में
आया तब द्युतिभट्टारकन कही सप्तर्षिमहा योगीश्वरचारगा मुनि यहां आये थे तुमनेभीवह बंदे हैं वे महा पुरुष महातप के धारक हैं चार महीना मथुरा निवास किया है और चाहे जहां श्राहार लेजांय श्राज अयोध्यामें आहार लिया चैत्यालय दर्शन कर गये हमसे धर्मचर्चा करी वे महा तपोधन गंगनगामी शुभ चेष्टा के धरणहारे परम उदार वे मुनि बन्दिवे योग्य हैं तब वह श्रावकों में अग्रणी प्राचार्य के मुख से चारण सुनों की महिमा सुनकर खेदखिन्न होय पश्चाताव करता मया धिक्कार मुझे में सम्यक
रहित बस्तु का स्वरूप न पिकाना मैं अत्याचारी मिथ्या हाष्टिमो समान और अधर्मी कौन वे महा मुनि मेरे मंदिर आहारको आये और मैं नवधा भक्तिकर आहारन दिया जो साधु को सन्मान न करें और भक्तिकर अन्न जल न देय सो मिथ्याष्टिहें मैं पापी पापात्मा पापका भाजन महा. निन्द्य मोसमान और अज्ञानी कौन में जिनवाणी से विमुख अव में जौलग उनका दर्शन न करूं तौलग.. मेरे मनका दाह न मिदे, चारण मुनों की तो यही रीती है चौमोसे निबास तो एक स्थान करें और आहार अनेक नगरों में कर अावें चारण ऋधिक प्रभाव कर उनके अंग से जीवों को बाधा न होय ॥ __ अथानन्तर कार्तिक की पूनो नजीक जान सेट अर्हदत्त महासम्यक्दृष्टि नृपतुल्य विभूति जिस के अयोध्या से मथुग को सर्वकुटम्ब सहित सप्त ऋषि के पजन निमिस चला, जाना है मुनों का माहात्म्य | जिसने और अपनी बारम्बार निन्दाकरे है रथ हाथी पियादे तुरंगों के असवार इत्यादि बड़ीसेना सहित
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परामा 120
योगीश्वरों की पूजा को शीघ्र ही चला, बड़ी विभूति कर युक्त शुभ ध्यान में तत्पर कातिक शुदी सप्तमी के दिन मुनों के चरणों में जाय पहुंचा वह उत्तम सम्यक्त का धारक विधिपूर्वक मुनिवन्दनाकर मथुरा में अतिशोभा कराव्रता भया मथुरा स्वर्ग समान सोहती भई यहवृतांतसुनशत्रुघनशीघहीमहा तुरंगचढ़ा सप्त ऋषियों के निकट आया औरशत्रुघन की माता सुप्रभा भी मुनियों की भक्ति कर पुत्रके पीछे ही आई और
शत्रुघन नमस्कारकरमुनियोंकेमुख धर्म श्रवणकरता भया, मुनि कहते भए हैनृपयह संसार असार है वीतराग | कामार्गसार है जहां श्रावगके बारहबतकहे, मुनिके अठाईस मूल गुणकहे मुनोंको निर्दोष आहारलेनाकृत
अकारित रोगरहित प्राशुकथाहार विधिपूर्वक लीये योगीश्वरों के तपकी वधवारी होय तब वह शत्रुघन कहता भया हे देव आपके आये इस नगर से मरी गई रोग गए दुर्भिक्ष गया सर्व दिन गए सुभिक्षया सब साता भई प्रजा के दुख गए गर्व समृद्धि भई जैसे सूर्य के उदय से कमलनी फले, कोई दिन श्राप यहां ही तिष्ठो तब मुनि कहते भए हे शत्रुघन जिन अाज्ञा सिवाय अधिक रहना उचित नहीं यह चतुर्थकाल धर्म के उद्योत का कारण है इस में मुनिन्द्र का धर्म भव्य जीव धारे हैं जिनाज्ञा पाले हैं महा मुनियोंके केवल ज्ञान प्रकट होय है मुनिसुव्रतनाथ तो मुक्त भए अब नमि, नेमि, पार्श्व, महावीर चार तीर्थंकर और होवेंगे फिर पञ्चमकाल जिसे दुखमा काल कहिये सो धर्म की न्यूनता रूप प्रवरतेगा, उस समय पाखण्डी जीवों कर जिनशासन अतिऊंना है तोभी आछादित होयगा. जैसे रजकर सूर्यका बिम्ब अाछादित होय पाखंडी निर्दई दया धर्मकोलोप कर हिन्साका मार्गप्रवर्तन करेंगे उससमय मसान समान श्राम और प्रेत समान लोक कुचेष्टा के करणहारे होवगे महाकुधर्म में प्रवीण कर चोर पाखंडी दुष्ट व
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पद्म
॥८६॥
तिनकर पृथिवी पीड़ित होयगी किसाण दुखी होवेंगे प्रजानिर्धन होयगी महा हिंसकजीव परजीवों कंघातक होवेंगे निरन्तर हिंसाकी बढ़वारी होयगी पुत्र मातापिताकीआज्ञासे विमुखहोवेगेौरमाता पिताभीरनेहरहित होवगे और कलिकाल में राजा लुटेरे होवेंगे कोई सुखी नजर न श्रावेगा कहिये के सुखी वे पापचिस दुर्गति की दायक कुकथा कर परस्पर पाप उपजावेंगे। हे शत्रु घन कलिकाल में कषाय की बहुलता होगी और अतिशय समस्त विलय जावेंगे चारण मुनि देवविद्यधरों का प्रावना न होयगा अज्ञानी लोक नग्नमुद्राके धारक मुनियोंको देख निन्दा करेंगे मलिनचित्त मूढजन अयोग्यको योग्य जानेंगे जैसे पतंग दीपक की शिखा में पड़े तैसे अज्ञानी पाप पन्थ में पड़ दुर्गति के दुख भोगेंगे और जे महा शांत स्वभाव तिन की दुष्ट निन्दा करेंगे विषयी जीवों को भक्ति कर पूजेंगे दीन अनाथ जीवों को दयाभाव कर कोई न देवेगा और मायाचारी दुराचारियों को लोक देवेंगे सो वृथा जायगा जैसे शला में बीज बोय निरन्तर सीचे तोभी कुछ कार्य कारी नहीं तैसे कुशील पुरुषों को विनय भक्तिकर दीया कल्याण कारी नहीं, जो कोई मुनियोंकी अवज्ञाकरे है और मिथामार्गीयों को भक्तिकरपूजे है सोमलयागिरिचन्दन को तज कर कंटकवृक्ष को अंगीकार करें है असा जानकर हे वत्स तू दोन पूजाकर जन्म कृतार्थ कर गृहस्थी को दान पूजा ही कल्याणकारी है और समस्त मथुरा के लोकधर्म में तत्पर होवो, दया पालो साधर्मीयों से वात्सल्य धारो, जिनशासन की प्रभावना करो घर घर जिनविंव थापो पुजा अभिषेक की प्रवृति करो जिसकर सवशांति हो, जो जिनधर्म का पाराधन न करेगा और जिस के घरमें जिन पजा न होगी दान न | होवेगा उसे आपदा पीडेगी जैसे मृग को व्याघी भषे तैसे धर्म रहित को मरी भपेगी, अंगुष्ठ प्रमाण भी
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पुराब
पद्म जिनेन्द्र की प्रतिमा जिसके विराजेगी उस के घर में से मरी युं भाजेगी जैसे गरुड के भय से नागिनी
भागे ये वचन मुनियों के सुन शत्रुघन ने कही हे प्रभोजोआप आज्ञा करी त्योहीलोक धर्म में प्रवतेंगे। ___अथानन्तर मुनि आकाश मार्ग विहार कर अनेक निर्वाण भुमि बन्द कर सीता के घर अहार को आये, कैसे हैं मुनि तप ही है धन जिन के सीता महा हर्ष को प्रास होय श्रद्धा आदि गुणो कर मण्डित परप अन्न कर विधि पूर्वक पारणा करावती भई, मुनि थाहार लेयाक श क मार्ग विहार कर गये शत्रुधन ने नगरी के बाहिर और भीतर अनेक जिनमन्दिर कराए घर घर जिनप्रतिमा पघगई नगरी सर्व उपद्रव रहित भई, बन उपवन फल पुष्पादिक कर शोभित भए. वापिका सरोवर्ग वमलों कर मंडित सोहतीभई पक्षीशब्द करते भये कैलाशके तटसमान उज्वल मंदिर नेत्रोंको आनन्दकारी विमान तुल्य सोहते भये और सर्व किसाण लोक संपदा कर भरे सुख निवास करतभय गिग्केि शिखर समान ऊंचे अनाजोंके ढेर गावोंमें सोहते भये स्वर्ण रत्नादिककी शार्था में विस्तीर्णता होती भईसकललोक सुखी रामके राज्यमें देवों समान अतुल विभूति के धारक धर्म अर्थ कामविषे तत्परहोते भये शत्रुघ्न . मथुरामें राज्य करे रामके प्रतापसे अनेक राजाओं पर आज्ञा करता सोहे जैसे देवों विष बरुण सोहे इसभांति मथुग पुरीका ऋद्धिका धारी मुनियों के प्रतापकर उपद्रवदूरहोता भया जो यहअध्यायबांचे सुनेसो पुरुषशुभ नाम शुभगोत्र शुभसाता बेदनीका बंध करे जो साधुवोकी भक्ति विषे अनुरागी होय और साधुवों का समागम चाहे वह मनवांछित फल को प्राप्त होय इस साधुवोंके संग को पायकर धर्मको । आराधकर प्राणी मूर्य से भी अधिक दीप्ति को प्राप्त होवें हैं॥ इति बानवे पर्व सम्पूर्णम् ॥
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पुराण!
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पद्म अयानन्तर विजिया की दक्षिण श्रेणी विष रत्नपुरनामा नगर वहां राजा रत्नग्य उस की गमी। er पूर्णचन्द्रानना उसके पुत्री मनोरमा महारूपवंती उसे योवनवती देखगजा वर ढूंढवे की बुद्धिं कर
व्याकुल भया मंत्रियोंम मंत्र किया कि यह कुमारी कौनको परणाऊं इस भांति राजा को चिंतासंयुक्त कईएक दिन गये एक दिन राजाकी सभामें नारद आया राजाने बहुत सन्मान किया नारद सबही लौलिक रीतियोंमें प्रवीण उस गजा ने पुत्रीके विबाहनेका वृतांत पुछातब नाग्दन कही रामका भाई लक्षमण महा सुन्दर हैं जगत में मुख्य है चक्र के प्रभाव कर नवाए हें समस्त नरेंद्र जिसने ऐसी । कन्या उसके हृदय में आनन्ददायिनी होवे जैसे कुमुदनी के वन को चांदनी अानन्द दायनो होवे जवइस । भांति नारदने कही तब रत्नरथके पुत्र हरिवेग मनोवेग वायुवेगादिक महामानी स्वजनोंके घातकर उपजाहै वैर जिन के प्रलयकाल की अग्नि समान प्रज्वलित होय कहते भये जो हमारा शत्रु जिसे हम मारो चाहें उसे कन्या कैसे देवें यह नारद दुराचारी है, इसे यहां से काढों, असे वचन राजा पुत्रों के सुन किंकर नारद पर दौड़े तब नारद अाकाशमार्गविहार कर शीघ्र ही अयोध्या लक्ष्मण पै अाया अनेक देशान्तर की वार्ता कह रत्नरथको पुत्री मनोरमा का चित्राम दिखाया, सों वह कन्या तीनलोक की सुन्दरीयों का रूप एकत्र कर मानों बनाई है । सो लक्ष्मण चित्रपट देख अतिमोहित होय कामकैबश भया यद्यपि महा धीर वीर है तथापि वशीभूत होय गया, मन में विचारता भया जो यह स्त्रीरत्न मुझे न प्राप्त होय तो मेरा राज्य निष्फल और जीतव्यबृथा लक्ष्मण नारदसे कहताभया हे भगवान आपने मेर गुणकीर्तन किये। और उन दुष्टोंने आप से विरोध कीया, सो वे पापी प्रचण्डमानी महा क्षुद्र दुरात्मा कार्य के विचार से।
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पद्म पुराण ॥८ ॥
रहित हैं उनका मान में दूर करूंगा आप सम्मधान में चित्त लावो तुम्हारे चरण मेरे सिर पर हैं और उन दुष्टों को तुम्हारे पायन पाऊंगा असा कह कर विराधित विद्याधर को बुलाया और कही रत्नपुर ऊपर हमारी शीघ्र ही तयारी है इसलिये पत्र लिख सर्व विद्याधरों को बुलावो रण का सरंजाम करावो, तव विराधित ने सबों को पत्र पठाये वे महासेना सहित शीघ्र ही आये लक्ष्मण राम सहित सव नृपों को ले कर रत्नपुर को तस्फचले जैसे लोकपालों सहित इन्द्र चले, जीत जिस के सन्मुखहै नाना प्रकार के शस्त्रोंके समूह कर अाच्छादित करी है सूर्य कीकिरण जिसने सो रत्नपुर.जाय पहुंचे उज्वल छत्रकरशोभित तवराजारत्नस्थ परचक्राया जान अपनी समस्त सेना सहित युद्ध को निकसा महा तेज कर सो चक्र करोत् कुठार बाण खड्ग परछी पाश गदादि आयुधों कर तिनके परस्पर महायुद्ध भया, अप्सरों के समुह युद्ध देख योधाओं पर पुष्प बृष्टि करते भए लक्षमण पर सेना रूप समुद्र के सोखिने को बडवानल समान आप युद्ध करने को उद्यमी मया, परचक्र के योधा रूप जलचरों के चयका कारण सो लक्षमण के भय कर रथों के तुरंगों के हार्थीयों के असवार सब दशोदिशाओंको भागे और इन्द्रसपान है शक्ति जिनकी ऐसे श्रीगम और सुग्रीव हनुमान इत्यादिक सव ही युद्ध को प्रवस्ते इन योधाओं कर विद्याधरोंकी सेना ऐसेभागी जैसेपवन कर मेघ फ्ल विलायजावें तवरत्नस्थ और रत्नरथ के पुत्रोंकोभागते देख नारद ने परमहर्षितट्टोय ताली देय हंसकर कही अरे रत्नरंथ के पुत्रहो तुम महाचपल दुराचारा मन्दबुद्धिलक्षमणके गुणोंकी उच्चतान सद्द सके सो अव नप मानको पाय क्यों भागोहो तब उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया उसीसमय मनोरमा कन्या अनेक सखियों सहित स्थपर चढ कर महा प्रेमकीभरी लक्ष्मण के समीप आई जैसे इन्द्राणी इन्द्रकसमीप श्रावे उस देखकर ।।
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1291
लक्षमण क्रोधरहित भये, भ्रकुटी चढ रही थी सो शीतल बदन भये कन्या ग्रानन्दकी उपजोवनहारी तब पुराण
राजा रत्नरथ अपने पुत्रों सहित मान तज नानाप्रकार की भेटले कर श्री राम लक्षमण के समीप आया राजादेश कालकी विधिको जाने है और देखा है अपना और इन का पुरुषार्थ जिसने तब नारद सबके बीच रत्नस्थकोकहते भये हे रत्नस्थ अब तेरी क्यावार्तात रत्नरथ है के रजरथ है वृथा मान करेथा मा नारायण बलदेवों से कहांमान और ताली बजाय रत्नरथके पुत्रों से हँसकरकहता भया हो रत्नरथके पुत्र हो यह वासुदेव जिनको तुम अपने घर में उद्धत चेष्टा रूप होय मनमें आयो सो ही कही अवपायन क्यों पड़ो हो तब वे कहते भए हे नारद तुम्हारा कोप भी गुणकरे जो तुम हमसे कोप कीया तो बड़े पुरुषों का सम्बन्ध भया, इनका
सम्बन्ध दुर्लभ है इसभांति क्षणमात्र वार्ता कर सब नगर में गए श्रीराम को श्रीदामा परणाई रति समान है | रूप जिसका उसे पायकर रामानन्दमे रमते भए और मनोरमा लक्ष्मणको परणाई सो साक्षात् मनोरमा ही | है, इसभांति पुण्य के प्रभाव कर अद्भुत वस्तु की प्राप्ति होय है इसलिये भव्य जीव सूर्य से अधिक प्रकाश रूप | जो वीतराग का मार्ग उसेजानकर दया धर्म की आराधना करो ॥ इति त्राणवां पर्व पूर्ण भया॥ ___अथानन्तर और भी जे वीजयाकी दक्षिणश्रेणी में विद्याधर थे वे सब लक्ष्मणने युद्धकर जीते कैसा है युद्ध जहां नानाप्रकारके शस्त्रों के प्रहारकर और सेनाके संघट्टकर अन्धकार होयरहा है गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वे विद्याधर अत्यन्त दुस्सह महाविष घर समान थे सो सब राम लक्ष्मण के प्रतापकर मान रूप विषसेरहित होय गए. इसके सेवक भए तिनकी राजधानी देवों की पुरी समान तिनके नाम कैयक तुझं कहूं हूं रविप्रभ घनप्रभ कांचनप्रभ मेघप्रभ शिवमन्दिर गंधर्वगीत अमृतपुर लक्ष्मीघरप्रभ ।
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पद्म पुराण NE
किन्नरपुर मेघकूट मर्त्य गीत चक्रपुर स्थनपुर बहुरव श्रीमलय श्रीगृह अरिञ्जय भास्करप्रभ ज्योतिपुर । चन्द्रपुर गंधार, मलय सिंहपुर श्रीविजयपुर भद्रपुर यक्षपुर तिलक स्थानक इत्यादि बड़े बड़े. नगर सो सब लक्ष्मण ने वशमें किए सब पृथिवी को जीत, सप्त रत्न कर सहित लक्ष्मण नारायण के पद का भोक्ता होता भया, सप्तरत्नों के नाम चक्र शंख धनुष शक्ति गदा खड्ग कोस्तुभ मणि और राम के चार हल मुशल रत्नमाला गदा इसभांति दोनों भाई अभेद भाव पृथिवी का राज्य करें, तब श्रेणिक गौतम स्वामी को पूछता भया हे भगवान तुम्हारे प्रसाद से में राम लक्ष्मण का महात्म विधिपूर्वक सुना अब लवर्ण अंकुश की उत्पति और लक्षमण के पुत्रों का वर्णन सुनाचाहं हं सोश्राप कही। तब गौम गणघर कहते भए हे राजन मैं कहूं हूं सुन राम लक्षमण जगत् में प्रधान पुरुष निःकंकट राज्य भीगते भए तिन के दिन पक्ष मास वर्ष महा सुखसे व्यतीतहोंय जिनके बड़ेः कुलकी उपजी देवांगना समानस्त्रीलक्ष्मण के सोलहहजार तिनमें आठ पटराणी कीर्ति समान लक्ष्मी समान रति समान गुणवती शीलवती अनेक कला में निपुण महा सौम्य सुन्दराकार तिनके नाम प्रथम पटराणी राजा द्रोणमेघकी पुत्री विशिल्या दूजी रूपवती जिस समान और रूपवान नहीं तीजी वनमाला चौथी कल्याणमाला पांचमीरतिमाला छठी जितपद्मा जिसने अपने मुम्न की शोभाकर कमल जीते सातमी भगवती पाठमी मनोरमा और रामके राणी आठहजार देवांगना समान तिनमें चार पटराणी जगत् में प्रसिद्ध कीर्ति जिन में प्रथम जानकी दूजी प्रभावती तीजी रतिप्रभा चौथी श्रीदामा इन सबों के मध्य सीता सुन्दर लक्षण ऐसी सोहे ज्यों तारावों में चन्द्रकला और लक्षमण के पुत्र अढाईसे तिनमें कैयकोंके नाम कहूं हूं सो सुन वृषभधरण चन्द्र
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429४॥
4: शरभ मकरध्वज हरिनाग श्रीधर मदन यह महाप्रसिद्ध सुन्दर चेष्टा के धारक जिनके गणों कर सब पुराण लोकों के मन अनुरागी और विशिल्या का पुत्र श्रीधर अयोध्या में ऐसा सोहे जैसा आकाश में
चन्द्रमा और रूपवती का पुत्र पृथिवीतिलक सोपृथिवी में प्रसिद्ध और कल्याणमाला का पुत्र महा कल्याण का भाजन मंगल और पद्मावती का पुत्र विमलप्रम और बनमालाका पुत्र अर्जुनप्रभ और अतिवीर्य की पुत्री का पुत्र श्री केशी और भगवतीका पुत्र सत्य केसीऔर मनोरमाका पुत्र सुपार्श्वकीर्ति ये सबही महा बलवान पराक्रमकेधारक शस्त्र शास्त्र विद्यामें प्रवीण इन सब भाइयों में परस्पर अधिक प्रीति जैसे नख मांस में दृढ कभी भी जुदे न होवें, तैसें भाई जुदे नहीं योग्यहै चेष्टा जिनकी परस्पर प्रेमके भरे वह उसके हृदयमें तिष्ठे वह उसके हृदयमें तिष्ठे, जैसे स्वर्गमें देव रमें तैसे ये कुमार अयोध्यापुरीमें रमते भये, जेप्राणी पुण्याधिकारी हैं पूर्व पुण्य उपार्जे हैं महाशुभ चित्तहैं तिनके जन्म से लेकर सकल मनोहर बस्तु ही श्राय मिले हैं रघुवंशियों के साढे चारकोटि कुमार महामनोग्य चेष्टाके धारक नगरके बन उपवनादि में महा मनोग्य चेष्टासाहित देवों समान रमते भये और राम लक्ष्मणा के सोलह हजार मुकटवन्ध राजा सूर्यसे भी अधिक तेजके धारक सेवक होते भये। इति श्रीपद्मपुराण चतुर्थ महाअधिकार समाप्त हुवा ।
अथलवणांकुशके वृतान्तमें पांचवां महा अधिकार । अथानन्तर रामलक्षमण के दिन प्रति श्रानन्दसे व्यतीत होय, धर्म अर्थ काम ये तीनों इनके अवि । रुद्ध होते भये, एक समय सीता मुखसे विमानसमान जो महिल उसमें शरदके मेघ समान उज्ज्वल सेज | | मैं सोवती थी सो पिछले पहिर वह कमलनयनी दोयस्वप्ने देखती भई फिर दिव्यवादिनोंके नादमुन प्रात |
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परागा
H८१५॥
पद्म बोधको प्राप्तभई निर्मल प्रभातभए स्नानादि देह क्रियाकर सखियोसहित स्वामी पै गई जायकर पूछती
भई हे नाथ मैं आज रात्रिमें स्वप्ने देखे तिनका फल कहो दो उत्कृष्ट अष्टापद शरदके चन्द्रमासमान उज्ज्वल और क्षोभको प्राप्त भया जो समुद्र उसके शब्द समान जिनके शब्द कैलाशके शिखरसमान सुन्दर सर्व आभरणों कर मंडित महा मनोहरहें केश जिनके और उज्ज्वलहैं दाढ जिनकी सो मेरेमुख में पैठे और पुष्पक विमानके शिखरसे प्रबल पवनके मकोरकर में पृथ्वी विषे पडी तब श्री रामचन्द्र कहतेभये हे सुन्दरिदोय अष्टापद मुखमें पैसे देखे ताके ताके फलकर तेरे दोय पुत्र होयगे और पुष्पक विमान से पृथिवी में पडना प्रशस्त नहीं सो कछु चिंता न करो दान के प्रभाव से क्रूर ग्रह शान्त होवेंगे।
अथातन्तर वसन्तसमयरूपी राजा ओया तिलक जाति के वृक्ष फूले सोई उसके वषतर और नीम जाति के वृक्ष फूले वेई गजराज तिनपर आरूढ़ और प्रांब मौरआये सो मानो बनन्तका धनुष और कमल फूले सो वसन्तके वाण और केसरा फूले बेई रतिराजके तरकश और भूमर गुजार करे हैं सो मानो निर्मल श्लोकोंकर बमन्त नूप का यश गावे हैं और कदम्ब फले तिनकी सुगन्ध पवन आवे है सोई मानों वसन्त नप के निश्वास भये और मालतीके फूल फूले सो मानो वसन्त भूप शीतकालादिक अपने शत्रुवोंको हंसे है और कोयल मिष्ट वाणी बोले है सो मानों वसन्तराजाके वचन हैं इस भांति वसंत समय नृपति काँसी लीला धरे श्राया वसन्त की लीला लोकों को कामका उद्वेग उपजावनहारी है. फिर यह वसन्त मानों सिंहही है ग्राकोट जाति वृक्षादि के फूल बेई हैं नख जिसके और कुरवक. जाति के वृक्षों के फूल बेई दाढ़ जिसके और महारक्त अशोक के पुष्प वेईहैं. नेत्र जिसके और चंजलपवन वेई हैं जिव्हा जिसकी ऐसा संत
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६॥
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पद्म केसरी आय प्राप्तभया लोकों के मनकी वृति सोई भई गुफा उन में पैठा महेंद्रनामा उद्यान नंदनवन । गण समान सदाही सुन्दरहै सो बसंत समय अति सुन्दर होताभया नानाप्रकारके पुष्पोंकीपाखुडी और नाना
प्रकारकी कूपल दक्षिणदिशि की पवनकर हालती भई सोमानों उन्मत्तभई घुमे है और वापिका कमलादिक कर आछादित और पक्षियों के समूहनाद करे हैं और लोक सिवाणोंपर तथा तीरपर बैठे हैं और हंस सारस चकवाकौंच मनोहर शब्दकरे हैं और कारंड बोल रहे हैं इत्यादि मनोहर पक्षियोंके मनोहर शब्दरागी पुरुषोंको राग उपजा हैं पी जलविषे पडे हैं और उठे हैं तिनकर निर्मलजल कल ल रूपहाय रहा है जलतो कमलादिक कर भग है और स्थल जो हैं सोस्थलपद्मार्दिक पुष्पोंकर भरे हैं और श्राकाश पुष्पोंकी मकरन्दकर मंडित होय रहाहै गुलोंके गुच्छे और लता वृक्ष अनेकप्रकारके फूल रहे हैं बनस्पति की परमशोभा होयरही है उससमय सीता कछु गर्भके भारकर दुर्बलशरीर भई तब राम पूछते भये हे कांते तेरे जो अभिलाषा होय सो पूर्ण करूं तब सीता कहती भई हेनाथ अनेक चैत्यालयों के दर्शन करवेकी मेरे बांछा है भगवानकं प्रतिबिंब पाचोंवर्ग के लोक विषे मंगलरूप तिनको नमस्कारकरवेको। मेरा मनोरथ है स्वर्ण रत्नमई पुष्पोंकर जिनेंद्र को पूजं यह मेरे महाश्रद्धा है और क्या बांडूं ये वचन । सुनकरराम हर्षित भये फूलगया है मुखकमल जिनका राजलोक में विराजते थे सो द्वारपाली को बुलाय श्राज्ञाकरी कि हेभद्रे मंत्रियों को भाज्ञा पहुंचावो कि समस्त चैत्यालयों में प्रभावना करें और महेंद्रोदयनाम उद्यानमें जे चैत्यालय, तिनकी शोभा कगवें और सर्व लोकको आज्ञापहुंचावो किजिन । मंदिरोमें पूजा प्रभावनाबादि अति उत्सवकरें औरतोरणध्वजा घंटा झालरी चंदोवा सायवान महामनोहर
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12991
प बत्रों के बनावें तथा सुन्दर समस्त उपकरण देहुरा चढ़ावें लोक समस्त पृथिवी विषे जिन पूजाकरें। पुगस्य और कैलाश सम्मेद शिखर पावांपुर चंपापुर गिरनार शत्रुजय मांगी तुंगी आदि निर्वाण क्षेत्रों विषे ।
विशेष शोभा करावो कल्याण रूप दोहुला सीता को उपजा है सो पृथिवी विषे जिन पूजाकी । प्रवृत्ति करो हम सीतासहित धर्म क्षेत्रोंमें विहार करेंगे यह रामकी आज्ञा सुन वह द्वारपाली अपनी ठौर
औरको राखकर जाय मंत्रियोंको आज्ञा पहुंचावती भई और वे स्वामीकी आज्ञा प्रमाण अपने किंकरों को आज्ञा करते भए सर्व चैत्यालयों में शोमा कराई और महा पर्वतोंकी गुफाओं द्वार पूर्ण कलश थापे मोतियों के हागे कर शोभित और विशाल स्वर्णनकी भीतिमें मणियोंके चित्र पर मद्रव्य नाम उद्यान की शोभा नंदन बनकी शोभा समानकर अत्यन्त निर्मल शुद्धमांग योंके दर्पण थंभमें थापे
और झरोखाओंके मुख विष निर्मल मोतियों के हार लटकाये सो जल नीझरना समान सोहे हैं और पांच प्रकारके रत्नों को चूर्गा कर भूमि मंडित करी और सहस्रदल कमल तथा नानाप्रकारके कमल तिनकर शोभा करी और पांच वर्ण के मगियों के दंड तिनमें महा सुन्दर बस्रों की ध्वजा लगाया मंदिरों के शिखर पर चढ ई, और नाना प्रकारके पुष्पोंकी माला जिनपर भूमर गुंजार करें ठौर | लुंबाई हैं और विशालवादित्रशाला नाट्यशाला अनेक रची हैं तिनकर बन अति शोभे है मानों नंदन बनही है तब श्रीरामचन्द्र इन्द्रसमान सत्र नगरके लोकोंकर युक्त समस्त गजलोकों सहित बनमें पधारे सीता और श्राप गजपर श्रारुढ़ कैसे सोहें जैसे शची सहित इन्द्र ऐरावत गजपर चढ सोहैं और लक्ष्मण | भी परम ऋद्धिको धरे बनमें जाते भए और और भी सब लोक अानन्दस बन गये, और सबोंके अन्न ।
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mpperyan
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न पान बनही में भपा जहां महा मनोग्य लताओंके मंडप और कलिके वृक्ष वहांगणी तिष्ठी और और पुराण
भी लोक यथायोग्य मुखसे बनमें तिष्ठे, गम हायीसे उतरकर निर्मलजलका भरा जो सरोवर नानाप्रकार के कमलोंकर संयुक्त उम बनमें रमते भए जैसे इन्द्र क्षीर सागरमें रमे वहां क्रीडाकर जलसे बाहिर प्राय दिव्य सामग्रीकर विधिपूर्वक सीतासहित जिनेन्द्रकी पूजाकरतेभए, राममहामुन्दर और बनलक्ष्मी समान जे बल्लभा तिनकर मंडित ऐसे साहते भये मानों मूर्तिवंतही है पाठहजार राणी देवांगना समान तिन सहित राम ऐसे साहें मानों ये तारावोंकर मंडित चन्द्रही हैं अमृत का आहार और मुगंध का विलेपन मनोहर सेजमनोहर अासन नानाप्रकारके सुंगध माल्यादिक स्पर्श रसगंधरूपशब्द पांचों इंद्रियों के विषय अति मनोहर रामको प्राप्त भए जिनमंदिर विषे भलीविधिसे नृत्यपूजाकरी पूजा प्रभावना में रामके अति अनुराग होता भया सूर्यसे भी अधिक तेजके धारक राम देवांगनासमान मुन्दरजे दारा तिन सहित कैयक दिन सुख से बन में तिष्ठे ॥ इति पिचाणवा पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर प्रजा के लोक राम के दर्शन की अभिलाषा कर बनहीं में आये तैसे तिसाये पुरुष सरोवर पै आवें, तब बाहिर ले दरवान ने लोकों के प्रावने कावृत्तांत द्वारपालीयों से कहा वे द्वारपाली भीतर राजलोक में रामसे जायकर कहती भई कि हे प्रभो प्रजाकेलोकाप के दर्शनको आये हैं और सीता की दाहिनी आंख फुरकी तब सीतो विचारती भई यह अांखमुक्षे क्याकहे है कछु दुःखका अागमन बतावे है अागे अशभ के उदय कर समुद्र के मध्य में दुख पाये तो भी दुष्ट कर्म संतुष्ट न भया क्या और भी । दुख दीया चाहे है जो इस जीक्ने रागद्वेष के योग कर कर्म उपार्जे हैं तिन का फल ये प्राणी अवश्य पावे हैं
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पुरावा 10
किसी से भी निवारा नजाय तब सीता चिन्तावती होय और राणीयों से कहती भई मेरी दाहनी आंख फर्कने का फल कहो तब एक अनुमतिनामा राणी महाप्रवीण कहती भई हे देवि इसजीव ने जे कर्मशभ अथवा अशुभ उपार्जे हैं वे इस जोव के भले बुरे फल के दाता हैं कर्मही को काले कहिये और विधि कहिये
और देव कहिये इश्वर भी कहिये, सब संसारी जीव कर्मों के प्राधीन हैं सिद्ध परमेष्ठी कर्मों से रहित हैं फिर गुणदोष की ज्ञाताराणी गुणमाला सीता को रुदन करती देख धीर्य वन्धाय कहती भई हे देवी तुम पति के सबों से श्रेष्ठ हो तुमको किस प्रकारकादख नहीं और और राणी कहती भई बहुत विचारकर क्या शांतिकर्म करो जिनेन्द्रका अभिषेक और पूजा करावो और किम इछक दान देवो जिस की जो इच्छा होय सो लेजावो दान पूजा कर अशुभ को निवारण होय है इस लिये शुभ कार्य कर अशुभ को निवारो इसभांति | इन्होंने कही तब सीता प्रसनभई और कही योग्य है दान पूजा अभिषेक और तप ये अशुभ के नाशक हैं दान धर्मविघ्न कानाशक वैरकानाशक है पुण्यका और यश का मूलकारण यह विचार कर भद्रकलश नामा भंडारी को बुलायकर कही मेरे प्रसूति होय तो लग किमिछादान निरन्तर देवो तब भद्रकलशनेकही जो श्राप आज्ञा करोगी सोही होयगा यह कहकर भंडारी गया और जिमपूजादि शुभक्रिया विष प्रवरता जितने भगवान के चैत्यालय हैं तिनमें नानाप्रकार के उपकरण चढाये और सब चैत्यालयों में अनेक प्रकार के वादित्र वजवाये मानों मेघ ही गाजे हैं और भगवान् के चरित्र पुराण श्रादिकग्रंय जिनमन्दिरां में पधराय और त्रेलोक्य के पाट समोसरणकपाट द्वीपसमुद्रांतके पाट प्रभुके मन्दिरों में पधराये औरदध दही, घृत, जल मिष्टान्नकेभरे कलश अभिषेक कोपायेऔर सब खोजानो प्रधान जोखोजासो वस्त्राभषण ।
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पद्म
1122011
| पहरे हाथी चढा नगरमें घोषणा फेरे जिसको जो इच्छा होयसोही लेवोइस भांति विधि पूर्वक दान पूजा उत्सव बुरा कराये, लोक पूजा दानतप आदि विषे जवतें पाप बुद्धि रहित समाधानको प्राप्त भये सीता शांतचित्तधर्ममाग में रक्तभई और श्रीरामचन्द्र मण्डप में प्रायतिष्ठे, द्वारपाल ने जे नगरी के लोक आये थे वे राम से मिलाये स्वर्ण रत्न र निर्मापित अद्भुत सभा को देख प्रजा के लोक चकित हो गये, हृदय को ध्यानन्द के उपजावनहारेराम तिनको देखकर नेत्र प्रसन्नभये प्रजा केलोक हाथजोड़ नमस्कार करते भये कांपन जिनका और डरे है मन जिनका तब रामकहते भये, हेलोको तुम्हारेच्यागमकाकारण होतव विजयमुराजी मधुमानव सुलोघरकाश्यपपिंगल कालपे मइत्यादिनगर के मुखिया मनुष्य निश्चल होयचरणोंकी तरफ चौक गल गया है गर्व जिनका राजतेज के प्रताप करक कह न सकें यद्यपिचिरकाल में सोच सोच कहाचाहतथापिइनके मुख रूप मंदिर सेवाणी रूप विधु ननिकसे तबराम ने बहुत दिलासाकर कही तुमको नर्थयै हो सोक होइस भांति कही. तौभी वे चित्राम कैसे होय रहे कछु न कहें लज्जारूप फांस कर बंधा है कंठ जिनका और चलायमान हैं नेत्र जिनके जैसे हिरण के बालक व्याकुलचित्त देखें तैसे देखेंतच तिनमें मुख्य विजयनाम पुरुष चलायमान है शब्द जिसका सो कहता भया हे देव अभयदानका प्रसाद होय तब रामने कही तुम काहू बात का भय मत करो तुम्हारे चित्तमें जोहोय सो कहो तुम्हारा दुःख दूर कर तुमको साता उपज। ऊंगा तुम्हारेद्योगन नलगा
ही लूंगा जैसे मिले हुए दूधजल तिनमें जलको टार हँसदूधही पीछे है श्रीरामने अभयदान दीया तोभी तिक से विचारविचार धीरे स्वरकर विजय हाथ जोड़ सिर निवाय कहता भया कि हे नाथनरोत्तम एक atra सुनो व सकल प्रजा मर्यादारहित प्रवतें है यह लोक स्वभाव ही से कुटिल हैं और एक दृष्टांत
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1८८१॥
पन || प्रकट पावें तब इनको अकार्य करने में कहां भय, जैसे बानर सहजही चपलहै और महाचपल जोयंत्रपिंजरा पुरावा
उसपर चढ़ा तर क्या कहना निर्वलों की यौवनवंत स्त्री पापी बलवंत छिद्र पाय बलात्कार हरे हैं और कोईयक शीलवंती विरहकर पराये घर अत्यंत दुखी होय हैं तिनको कोईयक सहाय पाय अपने घर लेभावे हैं सो धर्म की मर्यादा जाय है, यह नजाय सो यत्न करो प्रजा के हितकी वांछा करो जिस विधि प्रजाका दुख टरेसोकरो इस मनुष्य लोकमें तुम बड़े. राजा हो तुम समान और कौन तुमही जो प्रजाकी रक्षा न करोगे तो कौन करेगा नदीयों के तट तथा वन उपवन कूप वापिका सरोवरों के तीर ग्राम ग्राममें घर घरमें सभामें एक यही अपवाद की कथा है और नहीं कि श्रीराम राजा दशरथके पुत्र सर्व शस्त्रमें प्रवीण स रावण सीता को हर लेगया ताहि घर में लेनाये सब पोरों को कहा दोष है जो बड़े पुरुषकरें सो सब जगत् को प्रमाण जिस रीति राजा नवर्ते उसहीरीति प्रजा प्रवर्ते “यथा राजा तथा प्रजो" यह वचन है इस भांति दुष्ट चित्त निरंकुशभए पृथिवी में अपवाद करे हैं तिनको निग्रह करो हे देव आप मर्यादाके प्रवर्तक पुरुषोत्तम हो एक यही अपवाद तुम्हारेराज्यमें न होतातो तुम्हाराजोराज्यइन्द्र मेभीअधिकहैयह वचनविजय के सुनकर क्षणएक रामचन्द्र विषादरूप मुद्गर के मारे चलायमानचित्त होयगए चित्तमें चितवते भए यह कौन कष्ट पड़ा मेरा यशरूप कमलोंका बन अपयशरूपअग्नि कर जलने लगा है जिससीताके निमित्त में विरह का कष्ट सहा सो मेरे कुलरूप चन्द्रमा को मलिन करे है अयोध्या में में सुखके निमित्त आया
और सुग्रीव हनूमानादिक से मेरे सुभटसी मेरे गोत्ररूप कुमुदनीको यह सीता मलिन करे है जिसके निमित्त मेंने समुद्र तिर रणसंग्राम कर रिपुको जीता सो जानकी मेरे कुलरूप दर्पण को कलुषकरे है और लोक
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॥८२
कहे हैं सो सांच है दुष्ट पुरुषके घरमें तिष्ठी सीता में क्यों लाया और सीता से मेरा अतिम जिसे क्षण । पुराण | मात्र न देख तो विरहकर अाकुलता लहूं और वह पतित्रता मोसे अनुरक्त उसे कैसे तज्जो सदा मेरे
नेत्र और उरमें वसे महागुणवती निर्दोष सीता सती उसे कैसे तजू अथवा स्त्रियों के चित्त की चेष्टा कौन जाने जिनमें सब दोषों का नायक मन्मथ वसे है धिक्कार स्त्री के जन्मको सर्वदोषोंकी खान आताप का कारण निर्मल कुल में उपजे पुरुषों को कर्दम समान मलिनता का कारण है, और जैसे कीच में फसा मनुष्य तथा पशु निकस न सके तैसे स्त्री के रागरूप पंकमें फसो प्राणी निकस न सके, यह स्त्री समस्त बलका नाश करणहारी है और रागका अाश्रय है और बुद्धि को भ्रष्ट करे है और आपटवे को खाई समान है निर्वाण सुखकी विघ्न करण हारी ज्ञान की उत्पत्ति को निवारण हारी भव भ्रमण का कारण है भस्म से दवी अग्यि समान दाहक है डांभ की सूई समान तीक्षण है देखबे मात्र मनोग्य परन्तु अपवाद का कारण ऐसी सीता उसे मैं दुःख दूर करके निमित्त तजु जैसे सर्प कांचिली कोतजे फिर चितवे । हैं जिसकर मेरो हृदय तीव्रस्नेहके बंधनकर वशीभूत सो कैसे तजीजाय, यद्यपिमें स्थिरहूं तथापि यहजानकी निकटवर्तिनी अग्नि कीज्वाला समान मेरेमन को प्राताप उपजावे है और यह दूर रही भी मेरे मन को मोह - उपजावे जैसे चन्द्ररेखा दरही से कुमुदनी को विकसित करे, एक ओर लोकापवाद का भय और एक ओर सीता के दुर्निवार स्नेह का भय और राग कर विकल्प के सागर में पड़ा हूं और सीता सर्वथा प्रकार देवांगना । से भी श्रेष्ठ महापतिव्रता सतीशीलरूपिणी मोसे सदा एकचित उसे कैसे तजं और जोन तजं तो अपकीर्ति प्रगट होय है इस पृथिवी में मोसमान और दीन नहीं स्नेह और अपवाद का भय उसविषे लगा है |
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पद्म परागण
८८३ ।।
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मन जिसका दोनोंकी मित्रताका तीन विस्तार वेगकर वशीभूतजो रामसो अपवादरूप तीव्रकष्टको मास ये सिंहकी है ध्वजा जिसके ऐसे राम तिनको दोनों बातोंकी प्रति श्राकुलतारूप चिंता असाताका कारण दुस्सह आताप उपजावती भई जैसे जेष्टके मध्यानका सूर्यदुस्सहद ह उपजावे ॥ इति छयानवां प
अथानन्तर श्रीराम एकाग्र चित्तकर द्वारपालको लक्ष्मणके बुलावनेकी आज्ञा करतेभये सो द्वारपाल लक्ष्मण पैंगया थाज्ञा प्रमाण तिनको कही, लक्ष्मण द्वारपालके वचन सुनकर तत्काल तेजतुरंगपर चढ रामके निकट आया हाथ जोड नमस्कार कर सिंहासन के नीचे पृथिवीपर वैठा रामके चरणोंकी ओर है दृष्टि जिसकी राम उठकर आधे सिंहासन परलेवैठे, शत्रुघन आदि सबही राजा और विराधित आदि सव ही विद्याधर यथा योग्य बैठे पुरोहित श्रेष्ठी मन्त्री सेनापति सब ही सभा में तिष्ठे तब क्षण एक विश्राम कर रामचन्द्र ने लक्ष्मणसे लोकापवादका वृत्तांत कहा, सुनकर लक्ष्मण क्रोधकर लालनेत्रभये और योधावों आज्ञाकरी वार उन दुर्जनों के अंत करवेको जाऊंगा पृथिवीको मृषावाद रहित करूंगा जेमिथ्या वचन कहैं तिनकी जिन्हा छेद करूंगा उपमा रहितजो शील व्रतकी धारणहारी सीता उसकी जेनिन्दा करें हैं तिनका क्षय करूंगा इसभांति लक्ष्मण महाकोष रूपभये नेत्र अरुण होयगये तब श्री राम इन बचनों से शांत करतेभये कि हे सौम्ययह पृथिवीसागरपर्यंत उसकी श्रीऋषभदेव ने रक्षाकरी फिरभरतने प्रतिपालना करी और इक्ष्वाकुवंशके तिलकभये जिनकी पीठरणमें रिपुयोंने न देखी जिन की कीर्ति रूप चांदनी से यह जगत् शोभित है सोअपने वंशमें अनेक यशके उपजावन हारे भये अवमें क्षणभंगुर पाप रूप are for यशको कैसे मलिनकरूं, अल्पभी अकीर्ति जो न टारिये तोबृद्धिको प्राप्त होय और उन
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पुरास
1८८४
नीतिवान् पुरुषोंको कीर्ति इन्द्रादिक देवोंसे गाईयेहै ये भोग बिनाशिक तिन से क्या जिनसे अकीर्ति रूप अग्नि कीर्तिरूप बनको बाले यद्यपि सीता सती शीलवन्ती निर्मलचित्त है तथापि इस को घर में राखे मेरा अपवाद न मिटे यह अपवाद शस्त्रादिक से हता न जाय यद्यपि सूर्यकमलोंके वनका प्रफुल्लित करणहारा है अतितिमिरका हरण हागहै तथापि रात्रिके होते सूर्य अस्त होय है तैसे अपवाद रूप रज महा विस्तारको प्राप्तभई तेजस्वी पुरुषों की कांति की हानी करे है सो यह रज निवारनी चाहिये हैं हे भ्रातः चन्द्रमा समान निर्मल गौत्र हमारा अकीतिरूप मेघमालासे आबादा जायहै सोन श्राबादाजाय येही मेरे यत्न है जैसे सूके इन्धनके समूह में लगी आग जलसे बुझाये बिना बृद्धिको प्राप्त होयहै तैसे अकीर्ति रूप अग्नि पृथिवी में विस्तरहै सो निवारे बिना न मिटे यह तीर्थंकर देवोंका कुल महा उज्ज्वल प्रकाश रूपहै इसको कलंकन लगे सो उपाय करो यद्यपि सीता महानिर्दोष शीलवन्तीहै तथामिमें तनुंगा अपनी कीर्ति मलिन न करूंगा। तव लक्षमण कहताभया कैसाहै लक्षमण रामके स्नेह में तत्परहै बुद्धि जिसकी हे देव सीता को शोक उपजावना योग्य नहीं लोक तो मुनियों काभी उपवादकरे हैं जिनधर्म काअपवादकरे हैं, तो क्या लोकापवादसे धर्म तजिये है तैसे लोकापवाद मात्रसे जानकी कैसे तजियेजो सब सतियोंके सीस विराजे है का प्रकारनिंदाके योग्य नहीं और पापी जीव शीलवन्त प्राणीयोंकी निंदा करे हैं क्या तिनके बचनसे शीलवन्तों को दोष लागेहै वे निर्दोषही हैं, येलोक अविवेकीहैं इनके बचन मे परमार्थ नहीं विषकर दूषित हैं नेत्र जिनके वे चन्द्रमा को श्यामरूप देखेहैं परन्तु चन्द्रमा श्वेत ही है । श्याम नहीं तैसे लोकों के कहे निकलंकीयों को कलंक नहीं लगेहै जेशील से पर्ण हैं तिनको अपना
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आत्मा ही साक्षी है पर जीवोंका प्रयोजन नहीं नीच जनों के अपवादसे पण्डित विवेकी कोध कोन प्राप्त होवें जैसे स्वानों के भौंकने से गजेन्द्र नहीं कोप करे हैं ये लोक विचित्रगति तरंग समान है चेप्य जिनकी परदोष कथवे में आसक्त सो इन दुष्टों का स्वयमेवही निग्रह होयगा जैसे कोई अज्ञानी शिला को उपाड कर चन्द्रमा की ओर वगाय उसे मारा चाहे सो सहज ही आप निस्सन्देह नाशको प्राप्तहोय है जो दुष्ट पराये गुणोंको न सहसकें और सदा पराई निंदाकरें हैं, सो पाप कर्मी निश्चय सेती दुर्गती को प्राप्त होयहैं, जब ऐसे वचन लक्ष्मणने कहे तब श्रीरामचन्द्र कहते भए हे लक्षमण तू कहे है सो सब सत्य है तेरी बुद्धिरागद्वेष रहित अति मध्यस्थ महाशोभायमान है, परन्तु जे शुद्ध न्याय मार्गी मनुष्य हैं वे लोक विरुद्ध कार्य को तजे हैं जिसकी दशोंदिशा में अकीर्ति रूप दावानला की ज्वाला प्रज्वलित है उसको जगत् में क्या सुख और क्या उसका जीतव्य अनर्थ का करणहारा जो अर्थ उसकर क्या और विषकर संयुक्त जो औषधि उसकर क्या और जो बलवान होय जीवों की रक्षा न करे शरणागत. पालकन होय उसके बलकर क्या और जिसकर प्रात्मकल्याण न होय उस अाचरणकर क्यों चारित्र सोई जो प्रात्म हित करे और जो अध्यात्मगोचर प्रात्मा को न जाने उसके ज्ञानकर क्या और जिसकी कीर्ति रूपवधु अपवाद रूप वलवान हरे उसका जन्म प्रशस्त नहीं ऐसे जीवने से मरण भला लोकापवाद की वाततों दूर ही रहो मुझे यह महा दोष है जो पर पुरुष ने हरी सीता में फिर घर में लाया राक्षस के भवन में उद्यान वहां यह बहुत दिन रही और उसने दूती पठाय मनवांछित प्रार्थना करी और समीप आय दुष्ट दृष्टिकर देखी और मनमें आये सो वचन कहे ऐसी सीता में घर में ल्याया इस समान और लज्जा क्या ।
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पद्म TH
सो महों से क्या न होय इस संसार की माया में में भी मढ भया इसभांति कहकर प्राज्ञा करी के शीघ्र ही कृतांतवक्र सेनापति को बुलाको, यद्यपि दोबालकों के गर्भसहित सीता है तौभी इसे तत्काल मेरे घर से निकासो यह अाज्ञा करी तब लक्षमण हाथ जोड़ नमस्कार कर कहता भया हे देव सीता को तजना योग्य नहीं यह रोजा जनक की पुत्री महाशीलवती जिनधर्मणी कोमल चरण कमल जिसके महा सुकुमार भोरी सदा सुखिया अकेली कहां जायगी, गर्भ के भारकर संयुक्त परम खेद को धरे यह राज पुत्र तुम्हारे तजे कौन के शरण जायगीऔर आपने देखने की कही सो देखकर कहांदोपभया जैसे जिनरोजके निकट चढाया द्रव्य निर्माल्य होयहै उसे देखिये है परन्तु देखे दोष नहीं और अयोग्य अभक्ष्य वस्तु आंखों से देखिए हैं परन्तु देखे दोष नहीं अंगीकार कीये दोष है इसलिये हे नाथ मोपर प्रसन्न होवो मेरी बीनती मानो महा निर्दोष सीता सती तुममें एकाग्रहै चित्त जिसका उसे न तजो तब राम अत्यन्त विरक्त होय कोषों
आगए और अप्रसन्न होय कही लक्षमण अब कळू न कहना में यह अवश्य निश्चय किया शुभ होवे । अथवा अशुभ होवे निर्मानुष बन जहां मनुष्य का नाम नहीं सुनिये वहां द्वितीय सहाय रहित अकेली सीता। को तजो अपने कर्म के योगकर जीवो अथवा मरो एक क्षणमात्र भी मेरे देश में अथवा नगरमें तथा कोई। के मन्दिर में मत रहो वह मेरी अपकीतिकी करणहारी है, कृतांतवक्र को बुलाया सो चार घोड़ों कास्थ चढ़ा। बड़ी सेना सहित जिसका बन्दीजन विरद बखाने हैं लोक जय जयकार करे हैं सो राजमार्ग होय आया| जिसपर छत्र फिरता और धनुष चढाये वपतर पहिरे कुण्डल पहिरे उसे इस विधि आवता देख नगर के। नर नारी अनेक विकल्प की वार्ता करते भए अाज यह सेनापति शीघ दौड़ा जाय है सो कौन पर।
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पुराम
८८
पद्म विदा होयगा आप कौन पर कोप भए हैं, अाज कोई का कछ विगोड़ है। ज्येष्ठ के सूर्य समान, | ज्योति जिस की काल समान भयंकर शस्त्रों के समूह के मध्य चला जाय है सो आज न जानिये
कौन पर कोपा है, इस भांति नगर के नर नारी बात करे हैं और सेनापति राम देव के समीप आया स्वामो को सीस निवाय नमस्कार कर कहता भया । हे देव जो अाज्ञा होय सो ही करूं तब रामने कही, शीघही सीताको ले जावो और मार्गविषे जिनमंदिरोंका दर्शन कराय समेद शिखर
और निर्वाण भूमि तथा मार्गके चेत्यालय वहां दर्शन कराय इसकी आशा पूर्णकर और सिंहनादनामा अंटवी जहां मनुष्यका नाम नहीं वहां अकेली मेल उठ श्रावो तब उसने कही जो प्राज्ञा होयगी सोही होयगी कवितर्क न करी और जानकीपैजाय कही हे माता उठो रथमें चढो चैत्यालयोंके दर्शनकी बांछा है सो करो इसभांति सेनापतिने मधुरस्वरकर हर्ष उपजाया तब सीता रथचढ़ी, चढते समय भगवान को नमस्कार किया और यह शब्द कहा जो चतुर्विध संघ जयवन्त होवे श्रीरामचन्द्र महाजिनधर्मी उत्तम प्रा. चरण विषे तत्पर सो जयवन्त होवे और मेरे प्रमादसे अमुन्दर चेष्टाई होवे सो जिनधर्मके अधिष्ठाता। देव क्षमा करो और सखी जन लार भई तिनसे कही तुम सुखसे तिष्ठो में शीघ्रही जिन चेत्यालयों के दर्शनकर श्राऊ हूं इसभांति तिनसे कह और सिद्धोंको नमस्कारकर सीता आनन्दसे रथ चढी सो रत्न स्वर्णका रथ उसपर चढी ऐसी सोहती भई जैसी बिमान चढ़ी देवांगना सोहे, वह रथ कृतांतबक्रने चलाया सो ऐसाशीघ चलायाजैसा भरत चक्रवर्तीकाचलाया बाणचले सो चलते समय सीताको अपशकुन भय सके वृक्षपर काग बैठा बिरस शब्द करता भया और माथा धुनताभया और सन्मुख स्त्री महाशोक
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प्रराब ॥८८८ः।
पद्य की भरी सिरके वाल बखेरे रुदन करती भई इत्यादि अनेक अपशकुन भए तो पणिसीता जिन भाक्तिमें
अनुरागिणी निश्चलचित्त चली गई अपशकुन न गिने पहाड़ोंके शिखर कंदरा अनेक बन उपबन उलंघ कर शीघूही रथ दूर गया गरुडसमान बेग जिनका ऐसे अश्वोंकर युक्त सुफेद ध्वजाकर विराजित सूर्य के रथ समान रथ शीघ्र चला मनोरथ समान वह रथ तापर चढी रामकी राणी इन्द्रार्णासमान सो प्रति सोहती भई कृतान्तवक्र सारथीने मार्ग में सीताको नाना प्रकारकी भूमि दिखाई ग्राम नगर बन और कमल से फल रहे हैं सरोवर नानाप्रकार के पुष्प नानाप्रकार के वृक्ष कईएक सघन वृक्षोंकर बन अन्धकार रूप है । जैसे अन्धेरी रात्रि मेघमालाकर मण्डित महा अन्धकार रूप भासे कछ नजर न आवे कईएक विरले बृच हे सघनता नहीं वहां कैसी भासे है जैसी पंचमकालमें भरत ऐरावत क्षेत्रोंकी पृथिवी विरले सत्पुरुषों कर सोहे और कछुक बनी पतझड़ होयगई है सो पात्ररहित पुष्प कलादि रहितहें छाया रहित कैसी दीखे जैसे बड़े कुलकी स्त्री विधवा । भावार्थ--विधवाभी पत्र रूपी पुष्प फलादि रहित हैं और आभरण तथा
सुन्दर वस्त्रादि रहित और कान्ति रहित हैं शोभा रहित हैं तैसी वनी दीखे है और कई एक बन में सुन्दर । माधुरी लता ग्राम के वृक्ष से लगी ऐसी सोहे हैं जैसी चपल बेरा ग्राम से लगी अशोक की वांच्छा | करे है और कैयक दावानल कर बृक्ष जर गये हैं सो नहीं सोहे हैं जैसे हृदय क्रोघरूप दावानल कर जरा
न सोहे और कहीं एक सुन्दर पल्लवोंके समूह मन्द पवनकर हालते सोहे हैं मानो बसन्तराजके प्रायवेकरवन पंक्ति रूप नारी प्रानन्दसे नृतही करे है और कहीं एकभीलों के समूह तिनके जे कलकलाट शब्दकर मगदूर भागगए हैं और पक्षी उड़गये हैं और कहीं एक बनी अल्प है जल जिनमें ऐसी नदी तिनकर
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1८८६
| कैसी भासे है जैसी संताप की भरी विरहनी नायिका अमुवन कर भरे नेत्र संयुक्त भासे और कहीं एक बनीनानापक्षियों के नादकर मनोहर शब्द करहै और कहूंएक निर्मल नीझरनावोंक नादकर शब्दकरती तीब्रहास्य करे है और कहूंइक मकरंद विषे अति लुब्ध जे भ्रमर तिनके गुजार कर मानों बनी वसंत नृप की प्रस्तुतिही करे है और कहूं इक बनी फलोंकर ननीभूत भई शोभा को धरे है जैसे सफल पुरुष दातार नमीभूत भये सोहे हैं और कहूंइक बायुकर हालते जे वृत्त तिनकी शाखा हाले हैं और पल्लव हाले हैं और पुष्प पड़े हैं सो मानों पुष्पवृष्टि ही करें हैं इत्यादि रीतिको धरे बनी अनेक क्रूरजीवोंकर भरी उसे देखती सीता चली जाय है राममें है चित्त जिसका मधुरशब्द सुनकर विचारती भई मानो रामके दुंदुभी वाजेही बाजे हैं इस भांति चितवती सीता आगे गंगा को देखती भई केसी है गंगा अति सुन्दर है शब्द जिसमें और जिसके मध्य अनेक जलचर जीव मीन मकर माहादिक बिचरेहें तिनके बिचरवे कर उद्धत लहर उठे हैं इसलिये कंपायमान भये हैं कमल जिसमें और मूलसे उपा हैं तीरके उतंगवृक्ष जिसने और उखाडे हैं पर्वतोंके पाषाणों के समूह जिसने समुद्रकी और चलीजाय है अति गंभीर है उज्वल फूलोंकर शोभे है झागों के समूह उठे हैं और भ्रमते जे भवण तिनकर महा भयानक है और दोनों हाहावों पर बैठे पची शब्द करे हैं सो परम तेज के धारक रथके तुरंग उस नदी को तिरपार भये पवन समानहै बेग जिनका जैसे साधुसंसार समुद्रके पारहोय नदीके पार जायसेना पति यद्यपि मेरुसमान अचल चित्त था तथापि दया के योग से अति विषाद को प्राप्त भया महा दुखका भरा कछु कह न सके अांखों से आंसू निकल आये स्थको थांभ ऊंचे स्वर कर रुदन करने लगा
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गया
1801
पाहीला बोध गमाग जितका जातो रही है कान्ति जिसकी तब सीता सती कहती भइ। हे कृतान्तवक्री
त काहेको महा दुखीकी न्याई रोवे है बाजाजनकन्दनाके उत्सवका दिन तु हर्ष में विषाद क्यों करेहै । इसनिर्जन बनमें क्यों रोवे है तब वह अति रुदनकर यथावत वृतांतकहताभया वह बचन विष समान अग्नि समान शस्त्रसमानहें हे मातः दुर्जनोंके बचनोंसे राम अकीर्तिके भयसे जोन तजाजाय तुम्हारा स्नेह उसे तजकर चैत्यालयोंके दर्शनकी तुम्हारे अभिलाषा उपजी थी सो तुमको चैत्यालयोंके औरनिर्वाण क्षेत्रों के दर्शन कराय भयानक बनमें तजी है हे देवी जैसे यति गगपरणतिको तजे तेसे रामने तुमको तजी । है, और लक्षमणने जो कहिवेकी हदथी सो कही कछू कमी न राखी तुम्हारे अर्थ अनेक न्याय के ! शब्द कहे, परन्तु रामने हठ न छोड़ी। हे स्वामिनि राम तुमसे नीराग भए अब तुमको धमही शरण । है सो इस संसारमें न माता, न पिता, न भाता, न कुम्ब एक धर्महीजीवका सहाई है अब तुमको यह मृगोंका भरा बनही आश्रयहै, ये वचन सुनकर सीता बज्रपातकी मागे कैसी होय गई हृदय । में दुखके भारकर मू को प्राप्त भई फिर सचेतहोय गदगद वाणीसे कहती भई शीघ्रही मुझे प्राण नाथ से मिला तब उसने कही हे मातः नगरी दूर रही और रामका दर्शन दूर तब अश्रुपातरूप जलकी धारासे मुखकमल प्रचालती हुई कहतीभई कि हे सेनापतितूमेरेबचनरामसेकहियोकिमरेत्यागकाविषाद अापन करणा परम धीर्थको अवलंब कर सदा प्रजाकी रक्षा करियो जैसे पिता पुत्रकी रक्षा करे श्राप महा न्यायवन्तहो और समस्त कलाके पारगामी हो राजाको प्रजाही श्रानन्दका कारणहै राजा वही जिसे प्रजा शरदकी पुनों के चन्द्रमा की न्याई चाहे और यह संसार असारहै महाभयंकर दखरूप है
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पगा
1280
जिस सम्यकदर्शन कर भव्यजीव संसारसे मुक्त होवे हैं सो तुम्हारे पाराधिवे योग्यहै तुम राजास सम्यक दर्शनको विशेषभला जानियो वह राज्य तो बिनाशीक हैं और सम्यक दर्शन अविनाशी सुखका दाताहै यदि अभव्य नीव निन्दा करें तो, उनकी निन्दाके भयसे हे पुरुषोत्तम सम्यक्दर्शनको कदाचित न तजना यह अत्यन्त दुर्लभहै जैसे हाथमें पाया रत्न समुद्र विषे डालिये तो फिर कौन उपायसे हाथ आवे। और अमृत फल अंधकृपा डारा फिर कैसे मिले जैसे अमृतफलको डाल बालकपश्चातापकरेतैसेसम्यक्दर्शनसे रहितहुवा जीव विषादकरे है यह जगतदुर्निवार है जगतकामुख बंद करवेको कौन समर्थ जिसकेमुखमें जो आसोहीकहेइसलियेजगतकीवातसुनकरजो योग्यहोयसोकरियोलोकगडलिकाप्रवाहसोअपने हृदय में हे गुणभूषमा लौकिक बार्ता न धरणी और दानसे प्रीतिके योगकर जनोंको प्रसन्न राखना और बिमल स्वभावकर मित्रोंको वश करना और साधु तथा आर्यिका आहारको जावें तिनकोप्राशुक अन्नसे अतिभक्ति कर निरंतर आहार देना और चतुर्विध संघकी सेवा करनी मन बचन कायकर मुनोंकी प्रणाम पूजन अर्चनादिकर शुभ कर्म उपार्जन करना और क्रोधको क्षमाकर मानको निगर्वताकर मायाको निष्कपटता कर लोभको संतोष कर जतिना श्राप सर्व शास्त्रविषे प्राणहो सो हम तुमको उपदेश देने को समर्थ नहीं क्योंकि हम स्त्रीजनहें श्रापकी कृपा के योगसे कभी कोई परिहास्यकर अविनय भरा बचन कहो हो तो क्षमा करियो ऐसा कहकररथसे उतरी और तृणपाषाणकर भरी जो पृथ्वी उसमें अचेतहोय मूछ खाय पड़ी सो जानकी भूमि में पड़ी ऐसी सोहती भई मानों रत्नोंकी राशिही पड़ी है कृतांतबक नीताको चेष्टाहित मूर्छित देख महादुखीभया और चित्तमें चितनताभया हाय यह महा भयानक वन
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पभ
सण अनेक दुष्ट जीवों कर भरा जहां जे महाधीर शूरवीर होंय तिनके भी जीवने की आशा नहीं तो यह कैसे ॥३२ जीवेगी इसके प्राण बचने कठिन हैं इस महासती माताको मैं अकेली बन में तजकर जाऊं हूं सो भुक
समान निर्दई कौन मुझे किसीप्रकार भी किसी ठौर शांति नहीं एकतरफ स्वामीकी आज्ञा और एकतरफ ऐसी निर्दयता में पापी दुखके भवण में पड़ा हूं धिक्कार पराई सेवाका जगत में निंद्य पगधीनताजोस्वामी कहे सो न करना जैसे यंत्रको यंत्री बजावे त्योंही बाजे सो पराया सेवक यंत्र तुल्यहै और चाकरसे कूकर भला जो स्वाधीन आजीवका पूर्ण करे है जैसे पिशाबके बश पुरुषज्यों वह वकावे त्यो बक तैसे नरेंद्र के वश नर वहजो आज्ञा करें सो करे चाकरक्या न करे और क्या न कहें और जैसे चित्रामका धनुष निष्प्रयोजन गुण कहिये फिणच को घरे है सदा नमीभूत है तैसे पर किंकर निःप्रयोजन गुणको धरेहे सदा नमीभूत है धिक्कार किंकरका जीवना पराईसेवा करनी तेज रहित होना है जैसे निर्माल्य बस्तु निंद्यहे तैसे पर किंकरता निंद्य धिग् २ पराधीनके प्राण धारणको यह पराधीन पराया किंकर टीकली समान है जेसे टीकली पर तंत्र होय कूपका जीव कहिए जल हरे है तैसे यह परतंत्र होय पराए प्राण हरे है कभी भी चाकर का जन्म मत होवे पराया चाकर काठकी पूतली समानहै ज्यों स्वामी नचावे त्यों नाचे उच्चता उज्वलता लज्जा और कांति तिनसेपर किंकर रहित है जैसे विमान पराएश्राधीन है चलाया चाले थमाया थमें ऊंचाचलावे तो ऊंचाचढ़े नीचाउतारे तो नीचा उतरे धिक्कार पराधीन के | जीतब्यको जो निर्मल अपनेमांसका बेवनहारा महालघु अपने आधीन नहीं मदा परतंत्राधिकारकिंकर
के प्राणधारणको में पराईचाकरीकरी और परवश भया तो ऐसे पापकर्म कोकरूं हूं, जो इसनिर्दोष महासतीको
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पद्म
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पुरा
अकेली भयानक बनमें नजकर जाऊं हूं । हे श्रेणिक जैसे कोई धर्म की बुद्धि को तजे तसे वह सीता को बन ८६३ में तकर अयोध्या को सन्मुख भया अति लज्जावान् होयकर चलो और सीता इसके गए पीछे केतीक वार में मूर्छा सचेत होय महा दुख की भरी युथ भ्रष्ट मृगी की न्याई विलाप करती भई सो इसके रुदन कर मानों सबही बनस्पति रुदन करे हैं वृक्षों के पुष्प पडे हैं सोई मानो प्रांसु भए स्वतः स्वभाव महा रमणीक इसके स्वर निकर विलाप करता भई महा शोक की भरी हाय कमलनयन राम नरोत्तम मेरा रक्षा करो मुझसे वचनालाप करो, और तुम तो निरन्तर उत्तम चेष्टा के धारक हो महागुणवंत शांतचित्त हो तुम्हारा लेशमात्र भी दोष नहीं तुम तो पुरुषोत्तमहो में पूर्व भवमें जो अशुभ कर्म की एथेतिनके फल पाये जैसा करना तैसा भोगना क्या करे भर्तार और क्या करे पुत्र तथामाता पिता पांधव क्याकरे अपना कर्म अपने उदय आावे सो अवश्य भोगना में मन्दभागिनी पूर्वजन्म में अशुभ कर्म कीये उसके फल से इस निर्जन नमें दुःख को प्राप्त भई, में पूर्वभव में किसीका अपवाद कीया परनिदा करीहोगी उसके पापकर यह कष्ट पाया तथा पूर्वभव में गुरों के समीप व्रत लेकर भग्न कीये उसका यह फल पाया अथवा विषफल समान जो दुर्वचन तिनकर किसीका अपमान कीया उससे यह फल पाये अथवा में परभवमें कमलों के वन में तिष्ठताचकवा चकवीका युगल विछोड़ा इसलिये मुझे स्वामी का वियोग भया अथवा में परभव में कुचेष्टा कर हंस हंसनी का युगल विछोड़ा जे कमलों कर मण्डित सरोवर में निवास करणारे और बड़े बड़े पुरुषोंको जिनकी चालकी उपमा दोजे और जिनके वचन अति सुन्दर जिनके चरण चोंच लोचन कमल समान अरुण सो मैं विछोडे उनके दोषकरऐसी दुःख अवस्था को प्राप्त भई अथवा में पापिनी कबूतर
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पचः
प्रा
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कबूतरीके युगल विछोड़े हैं जिनके बाल नेत्र आधीचिरम समान और परस्पर जिन में प्रतिस्नेह और | कृष्णागुरु समान जिनका रंग अथवा श्याम घटा समान अथवा घूम समान घूसरे प्रारंभी है मुख से क्रीड़ा जिन्होंने और कंट में तिष्ठे है मनोहर शब्द जिनके सो में पापिनी जुदे की ये अथवा भले स्थानकसे बुर स्थानक में मेले अथवा बांधे मारे ताके पापकर असंभाव्य दुःख मुझे प्राप्त भया अथवा वसंत के समय फले वृक्ष तिन में केलि करते कोकिल कोकिली के युगल महामिष्ट शब्द के करन हारे परस्पर भिन्न भिन्न कीये, उस का यह फल है अथवा ज्ञानी जीवों के बंदिवे योग्य महाव्रती जितेन्द्रिय महामुनि तिन की निन्दा करी, अथवा पूजा दान में विघ्न कीया, और परोपकार में अन्तराय किए हिसादिक पाप किए, ग्रामदाह, बनदाह स्त्री बोलक पशुहत्यादि पाप कीए तिन के यह फल हैं अन छाना पानी पिया रात्री को भोजन किया बीघा अन्न भषा अभक्ष्य वस्तु का भक्षण कीया न करिबे योग्य काम किए तिनके यह फल हैं मैं बलभद्र की पटराणी स्वर्ग समान महल की निवासिनी हजारां सहेली मेरी सेवा की करन हारी सो अब पाप के उदय से निर्जन बन में दुख के सागर में वी कैसे तिष्ठ । रत्नों के मन्दिर में महा रमणीक वस्त्र तिनकर शोभित सुन्दर सेजपर शयन करण हारी मैं कहां पड़ी हूं सर्व सामग्री कर पूर्ण महा रमणीक महल में रहणहारी में अब कैसे अकेली बन का निवास करूंगी महा मनोहर बीए बांसुरी मृदंगादिक के मधुर स्वर तिनकर सुख निद्रा की लेन हारी मैं कैसे भयंकर शब्द कर भयानक बन में अकेली तिष्ठ्गी, राम देव की पटराणी अपयश रूपी दावानल कर जरी महा दुःखिनी एकाकी नीपापिनी कष्टका कारण जो यह बन जहां अनेक जाति के कीट
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पा
nce
और करकस डोभकी अणी और कांकरान से भरी पृथिवी इस में कैसे शयन करूंगी ऐसी अवस्था भा। पायकर जो मेरे प्राण न जाय तो ये प्राणही वज्र के हैं अहो ऐसी सवस्था पायकर मेरे हृदय के सौ टूक न होय हैं सो यह वज्रका हृदय है क्या करूं कहां जाऊं कौन से क्या कहूं कौन के आश्रय तिष्ठं हाय गुणसमुद्र राम मुझे क्यों तजी, हे महा भक्त लक्षमणमेरी क्यों न सहायकरी हाय पिता जनक हाय माता विदेहा यह क्या भया अहो विद्याधरोंके स्वामी भामण्डल में दुख के भवन में पड़ी कैसे तिष्ठू में ऐसी पापिनी जो मो सहित पति ने परम संपदा कर जिनेन्द्रका दर्शन अर्चन चितया था सो मुझे इस बनी में डारी । हे श्रेणिक इस भांति सीता सती विलाप करे है और राजा वज्रजंघ पुण्डरीक पुरका स्वामी हाथी पकड़वे निमित्तवन में प्रायोथा सो हाथी पकड़ बड़ी विभूति से पीछे जायथा सो उसकी सेनाके प्यादे शूरवीर कटारी
आदि नानाप्रकारके शस्त्र धरे कमर बांधे पाय निकसे सो इसके रुदन के मनोहर शब्द सुनकर शंशयको । और भयको प्राप्त भये एक पैंडभा न जायसके, और तुरंगों के सवार भी उसका रुदन सुन खड़े होय रहे उनको यह अशंका उपजी कि इस वन में अनेक दुष्ट जीव वहां यह सुन्दर स्त्री के रुदनका नाद कहां होय हैमृग सुसा रोक सांप रीछ ल्याली बघेरा पारणे भैंसे चीता गैंडा शादल अष्टापद वन शकर गज तिनकर । विकराल यहबन उस विषे यह चन्द्रकला समान महामनोग्य कौन रोवे है यह कोई देवांगना सौधर्म । स्वर्गसे पृथिवी में आई है यह विचारकर सेना के लोक आश्चर्य को प्राप्त होय खंड रहे और वहसेना । समुद्र समान जिसमें तुरंगही मगर और पयादे मीन और हाथी ग्राह हैं समुद्रभीगाजे और सेनाभी गाजे है और समुद्र में लहर उठे हैं शेनामें सूर्य की किरण कर शस्त्रोंकी जोतउठे है समुद्र भी भयंकर
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है सेना भी भयंकरहै सो सकल सेना निश्चल होय रही ॥ इति साननवां पर्वसम्पूर्णम् ॥ पुराण || अथानन्तर जैसी महाविद्याकी यांभी गंगा थंभी रहे तैसे सेनाको थंभीदेख राजा बजजध निकटवर्ती
पुरुषों को पूछताभया कि सेनाके थंभने का कारणक्या है तबवह निश्चयकर राजपुत्री के समाचारकहते।
भए उससे पहिले राजाने भी रुदनके शब्दसुने सुनकर कहताभया जिनका यह मनोहर रुदनकाशन । मुनिये है सो करो कौन है तब कई एक अग्रेसर होय जाय कर पूछते भये हे देवि तू कौन है और इस निर्जन वन में क्यों रुदन करे है तो समान कोऊ और नहीं तूदेवी है अक नाग कुमारी है अक कोई उत्तम नारा है तू महा कल्याण रूपिणी उत्तम शरीर की धरणहारी तुझे यह शोक कहां हमको यह बड़ा कौतुक है तब यह शस्त्र धारक पुरुषों को देख प्राप्त भई कांपे है शरीर जिसका सो भयकर उनको अपने अपने आभरण उतारकर देने लगी तब वे स्वामीके भयकर यह कहते भये हे देवी त क्यों डरे हैं शोक का तज धीरता भज आभषण हमको काहे को देवे है तेरे ये श्राभषण ते रेही रहो ये तुझे योग्य हैं हे माता त बिहुल क्यों होय है, विश्वाश गह यह राजा वज्रजंघ पृथिवी में प्रसिद्ध महा नरोत्तम राजनीनि कर युक्त है और सम्यकदर्शन रूप रत्न भषण कर शोभित है केसाहै सम्पदर्शन जिस समान और रत्न नहीं अविनाशी है अमोलिक है किसीसे हरा न जाय महा सुखको दायक शंकादिक मल रहित सुमेरु सारिखा निश्चल है हे माता जिसके सम्यग्दर्शन होवे उसके गुण हम कहांलग वर्णनकरें यह राजा जिनमार्गके रहस्यका ज्ञाता सरणागत प्रतिपालक है परोपकार में प्रवीण महा दयावान महा निर्मल पवित्रात्मा निंद्य कर्मसे निबत्त लोकों का पिता समान रक्षक, महा दातार जीवां की रक्षा में सावधान दीन अनाथ
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1८६७
दुर्बल देह धारीयों को माता समान पाले है सिद्धि कार्य का करण हारा शत्रुरूप पर्वतों को बज पुराण- समान है शास्त्र विद्या का अभ्यासी परधन का त्यागी पर स्त्री को माता बहिन बेटी समान माने है
अन्याय मार्ग को अजगर सहित अन्धकूप समान जाने है धर्म में परप अनुरागी संसार के भ्रमण से भय भीत सत्यवादी जितेन्द्रिय है इसके समस्त गुण जो मुख से कहा चाहे सो भुजावों से समुद्र को तिरा चाहे है, ये बात बजू जंघ के सेवक कहे हैं, इतने में ही राजा श्राप अाया हाथी से उतर बहुत विनय कर सहज हो है श द दृष्टि जितकी मो सीता से कहता भया हे बहिन वह बज समान कठोर महा असमझ है जो तुझे असे बन में तजे और तुझे तजते जिस का हृदय न फट जाय हे पुण्यरूपिणि अपनी अवस्था का कारण कहो, विश्वास को भज भय मत करे और गर्भ का खेद मत करे लब यह शोक से पीडित चिन फिर रुदन करतीभई राजाने बहुत धीर्य बंधाया तब यहहंस की न्याई अांस डार गद् गद् वाणीसे कहतो भई हेराजन मो मन्दभागनी की कथा अत्यन्तदीर्घ है यदि तुम सुना चाहो हो तो चित्त लगाय सुनो में राजा जनककी पुत्री भामण्डलकी बहिन राजादशरथके पुत्रकी बधू सीता मेरानाम रामकी राणी राजा दशरथने केकईको वरदान दीयोथा मो भरतको राज्यदेकर राजातो बैरागी भये और राम लक्ष्मण वनको गये सो में पतिके संग वनमें रही, रावण कपटसे मुझे हरले गया ग्यारवें दिन मैंने पतिकी वार्ता सुनभोजन किया पति सुग्रीवके घररहे फिर अनेक विद्याधरोंको एकत्रकर आकाशके
मार्गहोय समुद्रको उलंघ लंकागये, रावणको युद्ध में जीत मुझे ल्याये फिर राज्यरूप कीचको तज भरत | तो वैरागी भये कैसे हैं भरत जैसे ऋषभदेवके भरत चक्रवर्ती तिनसमानहै उपमा जिनकी सो भरत तो
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पुराण
कर्म कलंक राहत परमधाम को प्रातभये और केकई शोकरूप अग्नि से आताप का प्राप्त भई फिर 1८६८, वीतराग का मार्ग सार जानकर आर्यिका होय महा तप से स्रीलिंग छेद स्वर्ग में देवभई मनुष्य होय
मोक्ष पावेगी रामलक्ष्मण अयोध्यामें इन्द्र समान राज्य करें सो लोक दुष्टचित्त निश्शंक होय अपवाद करतेभये किरावण हरकर सीता को लेगया फिर राम ल्याय घरमें राखी सो राम महा विवेकी धर्म शास्त्र के वेत्ता न्यायवन्त असी रीति क्यों आचरें जिस रीति आचरें उसी रीति प्रजा प्रवरते सो लोक मर्यादा रहित होने लगे, कहें रामही के घर यह रीति तो हम को क्या दोष और मैं गर्भ सहित दुर्बल शरीर यह चितवन करती थी कि जिनेन्द्र के चैत्यालयों की अर्चना करूंगी और भरतार भी मुझ सहित जिनेद्र के निर्वाण स्थानक और अतिशय स्थानक तिन की बन्दना करने को भाव सहित उद्यमी भय थे और मुझे असे कहते थे कि प्रथम तो हम कैलाश जाय श्री ऋषभदेव का निर्वाण क्षेत्र बन्देगे फिर और निर्वाण क्षेत्रों को बन्द कर अयोध्या में ऋषभ आदि तीर्थकर देवों का जन्म कल्याणक है सो अयोध्या की यात्रा करेंगे जेते भगवान के चैत्यालय हैं तिन का दर्शन करेंगे कंपिल्या नगरी में विमलनाथ का दर्शन करेंगे और रत्नपुर में धर्मनाथ का दर्शन करेंगे कैसे हैं धर्मनाथ धर्म का स्वरूप जीवोंको यथार्थ उपदेशहैं फिर श्रावस्ती नगरीमें संभव नाथको दर्शन करेंगे औरचम्पापुरमें वासुपुज्ज का योर का कंदापर में पुष्पदन्तका चन्द्रपुरी में चन्द्र प्रभका कौशांबीपुरी में पद्मप्रभको भद्रकपुर में शीतलनाथ का और मिथिलापुरी में मल्लिनाथ स्वामी का दर्शन करेंगे और वाणारसी में सुपार्श्वनाथ स्वामी का दर्शन करेंगे और सिंहपुर में श्रेयांसनाथ का और हस्तनागपुर में शांति कुन्थु अरहनाथ का पूजन करेंगे
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पद्म | और हे देवि कुशाग्रनगर में श्रीमुनिसुव्रतनाथ का दर्शन करेंगे जिनका धर्मचक्र प्रवर्ते है और और । पुराण
भी जे भगवान् के अतिशय स्थानक महापवित्र हैं पृथिवी में प्रसिद्ध हैं वहां पूजा करेंगे, भगवान के चैत्य और चैत्यालय सुरअसुर और गन्धर्वो कर स्तुति करवे योग्य हैं नमस्कार योग्य हैं तिन सबों की बन्दना हम करेंगे, और पुष्पक विमान में चढ़ सुमेरु के शिखर पर जे चैत्यालय, तिनकादर्शन करभद्रशाल बन नन्दन बन सौमनस बन वहां जिनेन्द्र की अर्चा कर और कृत्रिम अकुत्रिम अढाई द्वीप में जैते चैत्यालय हैं तिन की वन्दना कर हम अयोध्या अावेंगे, हे प्रिये भावसहित एकबार भी नमस्कार श्री अरहंतदेव को करें तो अनेक पापों से छूटे है, हे कांते धन्य तेग भाग्य जो गर्भ के प्रार्दुभाव में तेरे जिन बन्दना की वांछा उपजी मेरे भी मनमें यही है तो सहित महापवित्र जिनमन्दिरों का दर्शन करूं हे प्रिये पहिले
भोगभमि में धर्म की प्रवृत्ति न थी लोक असमझ थे सो भगवान ऋषभ देवने भव्यों को मोक्ष मार्ग | का उपदेश दिया जिन को संसार भ्रमण का भय होय तिनको भव्य कहिये, कैसे हैं भगवान ऋषभ || प्रजा के पति जगत् में श्रेष्ठ त्रैलोक्य कर बन्दवे योग्य नानाप्रकार अतिशय कर संयुक्त सुरनर असुरों
को आश्चर्य कारी वे भगवान भव्यों को जीवादिक तत्वों का उपदेश देय अनेकों को तारनिर्वाण पधारे सम्यक्तादि अष्ट गुण मण्डित सिद्ध भए जिनका चैत्यालय सर्व रत्नमई भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर कराया और पानमे धपुष की रत्नमई प्रतिमा सूर्य से भी अधिक तेज को धरे मन्दिर में पधराई सो विराजे है जिसकी प्रमभो देव विद्याधर गंधर्व किन्नर नाग दैत्य पूजा करे हैं जहां अप्सरा नृत्य करे हैं जो प्रभु । स्वयंश सर्वगति निर्मल त्रैलोक्य पूज्य जिसका अन्त नहीं अनंतरूप अनन्त ज्ञान विराजमान परमात्मा सिद्ध
RANGI
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पद्म पु
६००
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शिव आदिनाथ ऋषभदेव तिन की कैलाश पर्वत पर हम चल कर पजा कर स्तुति करेंगे । वह दिन कब होयगा इसभांति मुझसे कृपा कर वार्ता करते थे और उसही समय नगर के लोक भेले होय प्राय लोकापवाद की दावानल सेभी दुस्सह वार्ता रामसे कही सो राम बड़े विचार के कर्ता चित्तमें यह चिताई यहलोक स्वभाव ही कर वक्र हैं सो और भांति अपवाद न मिटे इस लोकापवाद से प्रियजन को तजना भला अथवा मरणा भला लोकोपवाद से यश का नाश होय कल्पान्त काल पर्यंत अपयश जगत् में रहे सो भला नहीं ऐसा विचार महाप्रवीण मेरा पति उसने लोकापवाद के भयसे मुझे महायारण्यवन में तजा मैं दोष रहित सो पति नीके, और लक्ष्मण ने बहुत कहा सो न माना, मेरे ऐसा ही कर्म का उदय जे विशुद्ध कुलमें उपजे क्षत्री शुभचित्त सर्व शास्त्रों के ज्ञाता तिनकी यही रीति है और किसी से न डरें एक लोका पवाद से डरें यह अपने निकासने का वृतांत कह फिर रुदन करनेलगी शोकरूप अग्निकर तप्तायमान है। चित्त जिसका । सो इस को रुदनकरती और रजकर धसरा है अंग जिसका महादीन दुखी देख राजा वज्रजंघ उत्तम धर्मका घरणहारा अति उद्वेग को प्राप्त भया और इसको जनक की पुत्री जान समीप चाय बहुत आदर से धीर्य बन्धाया, और कहता भया हे शुभमते तू जिनशासन में प्रवीण है शोक कर रुदन मत करे, यह श्रार्तध्यान दुखका बढावन हारा है, है जानकी इस लोक की स्थिति त जाने है तू महा सुज्ञान अन्यत्व अशरण एकत्व अन्य इत्यादि द्वादश अनुप्रेक्षा की चिंतवन करणहारी तेरा पति सम्ब दृष्टि और तू सम्यक् सहित विवेकवन्ती है मिथ्या दृष्टिजीवों की न्याई कहा बारम्बार शोक करतू बाणीकी श्रोता अनेक बार महा मुनियोंके मुख श्रुतिके अर्थ सुने निरन्तर ज्ञान भावनाका घरणहारी
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पद्म, तुझे शोक उचित नहीं हो इस संसारमें भूमता यह मूढ प्राणी उसने मोक्षमार्गको न जाना इससे । veo क्या क्या दुख न पाये इसको अनिष्टसंयोग इष्टवियोग अनेक बार भये यह अनादिकाल से भवसामर
के मध्य क्लेश रूप भवणमें पड़ा है इस जीवने तियच योनि विषे जलचर नभचर के शरीर धर वर्षा शीत अातप आदि अनेक दुख पाये और मनुष्य देह विषे अपवाद विरह रुदन क्लेशदि अनेक दुख भोगे और नरकमें शीत उष्ण छेदन भेदन शूलागेहण परस्परघात महा दुगध क्षारकुण्ड विष निपात अनेक रोग अनेक दुख लहे और कभी अज्ञान तपकर अल्प ऋद्धिकाधारक देवभी भयावहांभी उत्कृष्ट ऋद्धिके धारक देवोंको देख दुखी भया, और मरणसमान महादुखीहोय विलापकर मूवा और कभीमहा। तपकर इन्द्रतुल्य उत्कृष्ट देव भया तोभी विषियानुरागकर दुखीही भया इसभांति चतुर्गति विषे भूमण करते इस जीवने भववनमें आधि व्याधि संयोग वियोग गेग शोक जन्म मृत्यु दुखंदाह दरिद्र हीनता । नानाप्रकार की बांछा विकल्पता कर शोच सन्ताप रूप होय अनन्त दुख पाये, अधोलोक मध्यलोक ऊर्थ लोकमें ऐसा स्थानक नहीं जहां इस जीवने जन्म मरण न किये, अपने कर्मरूप पवन के प्रसंग से। भवसागरमें भ्रमण करता जो यह जीव उसने मनुष्य देह में स्त्री का शरीर पाया वहां अनेक दुखः । भोगे तेरे शुभ कर्मके उदयकर गम सारिखे सुन्दर पति भये, जिनके सदा शुभका उपार्जनसो पुण्य के उदय कर पतिसहित महा सुख भोगे और अशुभके उदयसे दुस्सह दुखको प्राप्त भई. लंका द्वीप विषे
रावण हर लेगया वहां पतिकी वार्ता नमुनग्यारह दिनतक भोजनबिना रही और जबतक पतिका दर्शन । ॥ न भया तबतक आभूण सुगन्ध लेपनादि रहित रही फिर शत्रुको हत पतिले आये तब पुग्यके उदय ।
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पन से सुखको प्राप्त भई फिर अशुभका उदय आया तब बिना दोष गर्भवतीको पतिने लोकापवादकै भय । प्रा NO से घरसे निकामी लोकापवाद रूप सर्पके डसवे कर पति अचेत चित्त भया सो बिना समझे भयंकर बन
में तजी उत्तम प्राणी पुण्यरूप पुष्पोंका घर उसे जो पापी वचनरूप अग्निकर बोले हैं सो श्रापही दोष । ।। रूप दहनकर दाह दाहको प्राप्त होय हैं हे देवि तू परम उत्कृष्ट पतिव्रता महासती है प्रशंसायोग्य है चेष्टा । || जिसकी जिसके गर्भाधानमें चैत्यालयों के दर्शन की बांछा उपजी अबभी तेरे पुण्यही का उदय है त । | महा शालवती जिनमति है तेरे शोलके प्रसाद कर इस निर्जन वन में हाथी के निमित्त मेरा अामना।
भया में वनजंघ पुण्डरीकपुर का अधिपति राजा द्वारदवाय सौमवंशी महाशुभ प्राचरण के धारक तिन के सुबन्ध महिषी नामा राणी उसका में पुत्र तू मेरे धर्म के विधान कर बड़ी बहिन है पुण्डरीकपुर
चलो शोक तजो। हे वहिन ! शोक से कळू कार्य सिद्ध नहीं वहां पुण्डरीकपुर से राम तुझे दै || कृपाकर बुलावेंगे । राम भी तेरे वियोग से पश्चाताप कर अति व्याकुल हैं, अपने प्रमाद कर
अमोलिक महा गुणवान रत्न नष्ट भया, उसे विवेकी महा आदर से ढूंढे ही इस लिये हे पतिव्रते | निसंदेह राम तुझे अादरसे बुलावेंगे इस भांति उस धर्मात्माने सीताको शांतता उपजाई तबसीता वीर्य
को प्राप्त भई मानों भाई भामंडल ही मिला तब उसकी अति प्रशंसा करती भई तु मेरा अति उत्कृष्ट
भाई है महा यशवन्त शूरवीर बुद्धिमान शान्त चित्त साधर्मियों पर वात्सल्य का करणहारा उत्तम जीव । है। गौतमस्वामी कहे हैं हे श्रेणिक राजा वज्रजंघ अधिगम सभ्यग्दृष्टि, अधिगम कहिये गुरूपदेशकर
पाया है सम्यक्त जिसने और ज्ञानी है परम तत्त्व का स्वरूप जानन हारा पवित्रहै आत्माजिसकी साधु ।
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पुगया
समान हैं जिसके व्रत गुणशील कर संयुक्त मोक्षमार्ग का उद्यमी सो ऐसे सत्पुरुषोंके चरित्र दोष रहित पर उपकारकर युक्त कौनका शोक न निवारें कैसे हैं सत्पुरुष जिनमतमें अति निश्चलहै चित्त जिनका सीता कहे है हे भजजंघ तू मेरे पूर्व भवका सहोदरहै सो जो इस भव में तैने सांचा भाई पना जनाया मेरा शोक संताप रूप तिमिर हरा सूर्यसमान तू पवित्र आत्मा है ॥ इति अठानवेवां पर्वसम्पूर्णम् ॥
अथानन्तर वज्रजंघ ने सीताके चढवेको चणमात्र में अद्भुत पालकी मगाई सो सीता उसपरारूढ़ भई पालकी विमानसमान महा मनोग्य समीचीन प्रमाणकर युक्त सुन्दर हैं थम जिसके श्रेष्ट दर्पण थंभो में जडे हैं और मोतियों की झालरी कर पालकी मंडित है और चन्द्रमा समान उज्वल चमर तिनकर शोभित है मोतियों के हार जल के बुदबुदे समान शोभे हैं और विचित्र जे बस्रतिनकर मंडितहै चित्राम कर शोभितहै सुन्दर है झरोखा जिसमें ऐसी सुखपालपर चढ परम ऋद्धि कर युक्त बड़ी सेना मध्य सीता चली जायहै आश्चर्य को प्राप्त भई कर्मोंकी बिचित्रताको चितवे है तीनदिनमें भयंकर बनको उलंघ पुण्डरीकपुर के देशमें आई उत्तमहै चेष्टा जिसकी सब देशके लोक माताको अाय मिले ग्राम २ में भेट करें कैसा है बनजंघका देश समस्त जातिके अन्नकर जहां समस्त पृथिवी श्राछादित होयरही
और कूकड़ाउडान नजीक हैं ग्रामजहां रत्नोंकी खान स्वर्ण रूपादिक कीखान सुरपुर जैसे पुरसोदेखती थकी सीता हर्षको प्राप्त भई बन उपबनकी शोभा देखती चली जायके ग्राम के महंत भेट कर नाना प्रकार स्तुति करें हैं हे बगवति हे माता आपके दर्शन कर हम पाप रहित भये कृतार्थ भये और बारबार बन्दना करते भये अर्घ पाद्य किये और अनेक राजा देवों समान श्राय मिले सो नानाप्रकार |
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पद्म
पुरा ६०४.
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भेट करते भये इस भांति सीता सती पेंड २ पर राजा प्रजावों कर पूजी संती चली जाय है वज्रजंघ का देश अति सुखी ठौर २ बन उपबनादि कर शोभित ठौर २ चैत्यालय देख अति हर्षित भई मन में बिचारे है जहां राजा धर्मात्मा होय वहां प्रजा सुखी होय ही अनुक्रम कर पुण्डरीक पुर के समीप
सो राजा की आज्ञा से सीता का श्रागमन सुन नगरके सब लोक सन्मुख आए और भेदकरते भए नगर की अति शोभा करी सुगंध कर पृथिवी छांटी गली बाजार सब सिंगारे और इन्द्रधनुष समान तोरण चढ़ाए और द्वारों में पूर्ण कलश थापे जिनके मुख सुन्दरपल्लव युक्त हैं और मंदिरों पर ध्वजा चढ़ी और घर घर मंगल गावे हैं मानों वह नगर आनन्द कर नृत्यही करे है नगरके दरवाजे पर तथा कोटके कांगरे पर लोक खड़े देखे हैं हर्ष की वृद्धि होय रही है नगर के बाहिर और भीरत राजद्वार तक सीता के दर्शनको लोक खड़े हैं चलायमान जे लोकों के समूह तिनकर नगर यद्यपि स्थावर है तथापि जानिए जंगम होयरहा है । नानाप्रकार के बादित्र बाजें हैं तिनके नादकर दशों दिशा शब्दायमान हो रही है शंखबाजे हैं बन्दोजन बिरद बनाने हैं समस्त नगर के लोक आश्चर्यको प्राप्त भये देखे हैं और सीता ने नगर में प्रवेश किया जैसे लक्ष्मी देव लोकमें प्रवेश करे वज्रजंधके मंदिर में अति सुन्दर जिनमंदिर है सर्व राज लोक की स्त्री जन सीता के सन्मुख श्राई सीता पालकी से उत्तर जिनमंदिर में गई कैसा है जिनमंदिर मभा सुन्दर उपबन कर बेष्ठित है और वापिका सरोवरी तिन कर शोभित है सुमेरुके शिखर समान सुन्दर स्वर्ण मई है जैसे भाई भामंडल सीताका सन्मान करे तैसे बज्रजंध आदर करता भया बज्रजंघ के समस्त परिवार के लोक और राज लोक की
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पराग
समस्त राणी सीताकी सेवा करे और ऐसे मनोहर शब्द निरन्तर कहे हैं हे देवते हे पूज्य हे स्वामिनी हे || ईशानने सदा जयवन्त हो बहुत दिन जीवो आनन्दको प्राप्त होवो वृद्धिको प्राप्त होवो आज्ञा करो इस भांति स्तुति करें और जो आज्ञा कगे सो सीस चढ़ावें अति हर्षसे दोस्कर सेवा करें और हाथ जोड सीस निवाय नमस्कार करें वहां सीता अति आनंदसे जिन धर्मकी कथा करती तिष्ठे और जोसामंतों की भेट आवे और राजा भेट करें सो जानकी धर्मकाय में लगावे यहतो यहां धर्मका आराधन करे है। अयानन्तर वह कृतांतवक सेनापति तप्तायमानहै चित्त जिसका रथके तुरंगखेदको प्राप्त भएथे तिन को खेदरहित करता हुवा श्रीगमचन्द्रके समीप अाया इसको पावता सुन अनेक राजा सन्मुख पाए सो कृतांतबक आयकर श्रीरामचंद्रके चरणों को नमस्कार कर कहताभया हे प्रभो में प्राज्ञा प्रमाण सीता को भयानक बन में मेलकर आया हूं उसके गर्भमानही सहाई है हे देव वह नाना प्रकारके भयंकर जीवों के प्रति घोर शब्दकर महा भयकारी है और जैसा बेताल कहिये प्रेतों का वन उसका श्राकार देखा न जाय तैसे सघन वृक्षों के समूह कर अन्धकार रूपहै जहां स्वतःस्वभाव पारणे भैसे और सिंह द्वेषकर सदा युद्धक हैं और जहां घूघू बसे हैं सो विरूप शवदकर हैं और गुफावों में सिंह गुंजार करें
सो गुफा गुजार रही हैं और महाभयंकर अजगर शब्द करें हैं और चीतावोंकर हते गये हैं मृगजहां कालको भी विकराल ऐसा वह बन उस विषे हे प्रभो सीता अश्रुपात करती महादीम बदन आपको जो
शब्द करतीभई सो सुनो, आप आत्मकल्याण चाहो हो तो जैसे मुझे लजीतैसे जिनेंद्रकी भक्ति न तजनी, जिसे लोकोंके अपवाद कर मासे भतिअनुरागथा तोभी तजीतैसे किसीके कहनेसे जिनशासनकी श्रद्धा
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परागा 18०६
पद्म न तजनो लोकबिना बिचारे निदोषियोंका दोष लगावें हैं तैसे मुझे लगाया सो श्राप न्यायकगेसो अपनी
वुद्धिसे विचार यथार्थ करना किसीके कहे से काहूको झुठा दोष न लगावना और सम्यकदर्शनसे विमुख मिथ्यादृष्टि जिनधर्मरूप रत्नका अपवाद करे हैं सो उनके अपवादके भयसे सम्यकदर्शन की शुद्धतान तजनी वीतरागका मार्ग उरमें दृढ धारणा मेरेतजने का इस भवमें किंचित मात्र दुख है और सम्यक दर्शनकी हानिसे जन्म २ में दुखहै इस जीवको लोकमें निधि रत्न स्त्री बाहन राज्य सबही सुलभ हैं एक सम्यकदर्शन रत्नही महादुर्लभ है राजमें पापकर नरकमें पड़ना है एक ऊर्धगमन सम्यकदर्शन के प्रतापही से है जिसने अपनी आत्मा सम्यक दर्शनरूप अाभूषण कर मंडित किया सो कृतार्थ भया। ये शब्द जानकी ने कहे हैं जिसको सुनकर कौन के धर्म बुद्धि न उपजे है देव एक तो वह सीता स्वभावही कर कायर और महाभयंकर बनके दुष्ट जीवोंस कैसे जीवेगी जहां महा भयानक सों के समूह और अल्पजल ऐसे सरोवर तिनमें माते हाथी कर्दम करे हैं और जहां मृगोके हमस मृग तृष्णा विषे जल जान वृथा दौड़ व्याकुलहोय हैं जैसे संसार की माया विष गगकर रागी जीव दुखीहोय
और जहां कौछिकी रज के संग कर मर्कट अति चंचल होय रहे हैं और जहां तृष्णासे सिंह व्याघ्र ल्यालीयों के समूह तिनकी रसना रूप पल्लव लहलहाट करे हैं, और चिरम समान लाल नेत्र जिस के ऐसे क्रोधायमान भुजंग फुङ्कार करे हैं और जहां तीब्र पवन के संचार कर क्षणमात्र में वृक्षों के पत्रों के ढेर होय हैं और महा अजगर तिनकी विषरूप अग्नि कर अनेक वृक्ष भस्म होय गये हैं, और माते हाथियों की महा भयंकर गर्जना उसकर वह बन अति विकराल है और उनके शुकरों की सेनाकर सरोवर मलिन |
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पुरमा 18.0७.
जल होय रहे हैं, और जहां ठौरठौर भूमि में कांटे और सांठे और सांपों की बमी और कंकर पत्थर तिनकर || भूमि महा संकटरूप है और डाभ की अणी सूईसे भी अति पैनी हैं और सूके पान फूल पवनकर उडे उडे । फिरें हैं जैसे महाअरण्य में, हे देव जानकी कैसे जीवेगी, में ऐसा जानू हूं क्षणमात्र भी वह प्राण राखिवेको समर्थ नहीं, हे श्रेणिक सेनापति के यह वचन सुन श्रीरामश्रति विषाद को प्राप्त भए कैसे हैं वचनजिनकर निर्दईका भी मन द्रवीभत होय श्रीरामचन्द्र चितवते भए देखो में मदचित्तने दुष्टों के वचनोंकर अत्यन्त निंद्य कार्य कीया कहां वह राजपुत्री और कहां वह भयंकर बन यह विचार कर मर्या को प्राप्त भये फिर शीतोपचार कर सचेत होय विलाप करते भए सीता में है चित्त जिनका, हाय श्वेत श्याम रक्त तीन वर्ण के कमल समान नेत्रों की धरणहारो, हाय निर्मल गुणों की खान मुखकर जीता है चन्द्रमा जिसने, कमलकी किरण समान कोमल, हाय जानकी मोसे वचनालाप कर, तु जाने ही है कि मेरा चित्त तो विना अतिकायर है हे उपमारहित शीलव्रत की धरणहारी मेरे मन की हरणहारी, हितकारी हैं पालाप जिसके हे पाप वर्जिते निरपराध मेरे मन की निवासनी तू कौन अवस्थाको प्राप्त भई होगी, हे देवि वह महा भयंकर बनकरजीवों कर भरा उस में सर्वसामग्री रहित कैसे तिष्ठेगी हे मो में आसक्त चकोरनेत्र लावण्य रूप जल की सरोवरी महालज्जावती विनयवती त कहां गई, तेरे श्वास की सुगन्ध कर मुख पर गुञ्जार करते जे भ्रमरतिन
को हस्त कमल कर निवारती अति खेदको प्राप्त होयगी, तू यूथ से विछुरी मृगी की न्याई अकेली । भयंकर बनमें कहां जायगी जो बन चितवन करते भी दुस्सह उस में तू अकेली कैसे तिष्ठेगी कमल के
गर्भ समान कोमल तेरे चरण महासुन्दर लक्षण के घरणहारे कर्कश भूमि का स्पर्शकैसे सहेंगे और बनके
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पराया 18001
पभ । भील महा म्लेछ कृत्य अकृत्यके भेद से रहित है मन जिनका सो तुझे पकड़भयंकरपल्ली मेंलेगयेहो-गेसो
पहिले दुख से भी यह अत्यंतदुख है तू भयानक बन में मोविना महादुःखकोप्राप्त भईहोयगी अथवा तू खेदखिन्न महा अन्धेरी रात्री में बनकी रजकर मण्डित कहीं पड़ी होयगी सो कदाचित् तुझ हाथियों ने दाबी होय तो इस समान और अनथकहां औरगृध्ररीछ सिंह व्याघ्र प्रष्टापद इत्यादिदुष्ट जीवोंकर भराजोवन उस में कैसे निवास करेगी जहां मार्ग नहीं विकराल ढाढ के धरणहारे व्याघ महा क्षुधातुर तिन ऐगी अवस्था को प्राप्त करी होयगी जो कहिवे में न आवे अथवाअग्निकी ज्वाला के समूहकर जलताजोक्नउसमें अशुभ स्थानक को प्राप्तभई होयगी, अथवा सूर्यकी अत्यंतदुस्सह किरण तिनके आतापकर लाखकी न्यांई पिगलगई होयगी, छायामें जायवे की नहीं है शक्तिजिसकी अथवा शोभायमान शील की घरणहारी मो निर्दई में मन कर हृदय फटकर मृत्युको प्राप्तभई होयगी पहिले जैसेरत्नजटीनेमोहे सीताके कुशल की वार्ता प्राय कही थी तैसे कोई अवभी कहे, हाय प्रिये पतिव्रते विवेकवती सुखरूपिणी त कहां गई कहां तिष्ठेगी क्या करेगी अहो कृतांतवक्र कह क्या तैने सचमुच बन ही में डारी, जो कहुं शुभठौर मेली होय तोतेरे मुखरूप चन्द्रसे अमृतरूप वचन खिरें जबऐसा कहातब सेनापतिने लज्जाके भारकर नीचा मुखकिया प्रभा रहित हो गया कछू कह न सके अति व्याकुल भया मौन गह रहा तब रामने जानी सत्यही यह सीता को भयंकर बन में डार पाया तब मूर्खाको प्राप्त होय रामगिरे बहुत बेरमें नीठि २ सचेतभए तब लक्षमण पाए अंतःकरण विषे सोच को घरे कहते भए हे देव क्यों ब्याकुल भये हो धीर्यको अंगीकार करो जोपूर्वकर्म उपार्जा उसका फल भाय प्राप्तभया और सकल लोक को अशुभके उदयकर दुःख ।
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पन्न
पगा
प्राप्तभया केवल सीताही को दुख न भया मुख अथवा दुख जोप्राप्त होना होय सो स्वयमेव ही किसी ॥६॥ निमित्त से प्राय प्राप्त होय है हे प्रभो जो केई किसी को अाकाश में ले जाय अथवा क्रूरजीवों के भरे वन
में डारे अथवागिरि के शिखरधरे तो भी पूर्व पुण्य कर प्राणी की रक्षाहाय है सब ही प्रजा दुख कर तप्तायमान है अांसुवोंके प्रवाहकर मानों हृदय गल गया है सोई झरे है यह वचन कह लक्षमण भी अत्यन्त व्याकुल होय रुदन करने लगा जैसा दाह का माग कमल हाय तेसा होयगया है मुखकमल जिसका हाय माता तू कहांगई दुष्टजनों के बचनरूप अग्निकर प्रज्वलित है शरीर जिसका हेगुणरूप धान्य के उपजने की भूमि बारह अनुप्रेक्षा के चितवनकी करण हारी हशीलरूप पर्वतका पृथिवी हेसीते सौम्यस्वभाव कीधारक हे विवेकनी दुष्टोंके बचन सोई भये तुषार तिनकर दाहा गया है हृदय कमल जिसका गजहंस श्री राम तिनके प्रसन्न करनेको मानसरोवर समान सुभद्रा सारिखी कल्याणरूपर्सब
चार में प्रवीण परिवारके लोकों को मुर्तिवन्त सुखकी अाशिषा हे श्रेष्ठे तू कहां गई जैसे सूर्यबिना । आकाशकी शोभा कहां और चन्द्रमा दिनानिशाकी शोभा कहां से हेमातातो बिना अयोध्याकी शोभा । कहां इस भान्ति लक्षमण विलाप कर रामसे कहे हैं हे देव समस्त नगर बीण बांसुरी मृदंगादिकी ध्वनि
कर रहित भया है और अहर्निश रुदनकी ध्वनि दर पूर्ण है गलीगली में वन उपवन में नदियोंके तट में चौहटे में हाट हाट में घर घर में समस्त लोक रुदन करे हैं तिनके अश्रुपातकी धारा कर कीच होय ॥ रहा है, मानों अयोध्या में वर्षा कालही फिर आया है समस्त लोक आंसू डारते गद्गद् वाणी कर कष्ट
से वचन उचारते जानकी प्रत्यक्ष नहीं है पराक्षही है तौभी एकाग्रचित भये गुण कीर्तिरूप पुष्पों के
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गया।
६१.
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पञ्च । समह कर पूजे हैं. वह सीता पतिव्रता समस्त सतीयों के सिर पर विराजे है गुणोंकर महा उज्वल उम
के यहां श्रावने की अभिलाषो सवों के है यह सब लोक माता ने ऐसे पाले हैं जैसे जननी पुत्रकोपाले
सो सबही महा शोककर गण चितार चितार रुदन करे हैं ऐसा कौनहै जिसके जानकीका शोक न होय । इसलिये हे प्रभो तुम मा बातों में प्रवीणहो अब पश्चात्ताप तजो पश्चात्ताप से कछु कार्यकी सिद्धि नहीं । जो श्रापका चित्त प्रसन्न है तो सीताको हेरकर बुलाय लेंगे और उनको पुण्य के प्रभाव कर कोई विघ्न
नहीं अाप धीर्य अवलंबन करवे योग्य हो इस भांति लक्षमण के वचनकर रामचन्द्र प्रसन्न भये कछ Hएक शोक तज करतब्य मनधरा भद्रकलश भंडारीको बुलायकर कहीं तुम सीताको श्राज्ञासे जिस विधि
किम इच्छा दान करतेथे तैसेही दियाकरो सीताके नाम से दान बटे तब भंडारी ने कही जो आप अाज्ञा करोगे सोही होयगा नव महहीने अर्थियोंको किम इच्छा दान बटियो कीया, रामके अोठहज़ार स्त्री तिनकर सेवमान तौभी एक क्षणमात्र भी मन कर सीता को न विसारता भया सीता सीता यह अलाप सदा होता भया, सीता के गुणोंकर मोहा है मन जिसको सर्वदिशा सीतामई देखताभया स्वप्न विधे सीताको इस भांति देख तर्वत की गुफा में पड़ी है पृथिवी की रज कर मंडित है और नेत्रों के अश्रुपात कर चौमासा कर रखा है महा शोक कर व्याप्त है इस भांति स्वप्न में अवलोकन करता भया सीताकार शब्द करता राम ऐसा चितवन करे है देखो सीता सुन्दर चेष्टा की धरण हारी दूर देशान्तर में तिष्ठेहै तौभी मेरे चित्तसे दूर न होय है वह साधुवी शीलवन्ती मेरेहित में सदा उद्यमी इसभांति सदाचितारवो करे और लक्षमण के उपदेशकर और सूत्रसिद्धांत के श्रवण कर कछु इक राम का शोक क्षीण भया
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पद्म धीर्यको धारि धर्म ध्यान में तत्पर होता भया । यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कन्हे हैं वे पुराण | दोनों भाई महा न्यायवन्त अखंड प्रीतिके धारक प्रशंसायोग्य गुणोंके समुद्र रामके हल मूशलका आयुध
लक्षमणके चक्रायुध समुद्र पर्यत पृथिवीको भली भांति पालते सन्ते सौधर्म ईशान इन्द्र सारिखे शोभते भय वे दोनों धीर स्वर्ग समान जो अयोध्या उसमें देवों समान ऋद्धि भोगते महा कांतिके धारक पुरुषोत्तम पुरुषों के इन्द्र देवेंद्र समान राज्य करतेभये सुकृतके उदयसे सकल प्राणीयोंको अनन्द देयबेमें चतुर सुन्दर चरित्र जिनके सुखसागर में मग्न सूर्यसमान तेजस्वी पृथिवी में प्रकाश करतेभये ॥ इति निन्यानवां पर्व सम्पूर्णम् ___अथानन्तर गौतमस्वामी कहे हैं हे नराधिप रामलक्षमण तो अयोध्या विष तिष्ठे हैं और व लवणांकुश का वृतांत कहे हैं सो सुन अयोध्याके सवही लोक सीताके शोकसे पांडुता को प्राप्त भये
और दुर्बल होय गये और पुण्डरीकपुर में सीता गर्भके भारकर कछु एक पांडुता को प्राप्त भई और दुर्बल भई मानों सकल प्रजा महापवित्र उज्ज्वल इसके गुण बरणन करे है सो गुणों की उज्ज्वलता कर श्वेत होय गई है और कुचों की बीटली श्यामताको प्राप्त भई सो मानों माताके कुच पुत्रोंके पान करिवे के पयके घटहैं सो मुद्रित कर राखे हैं और दृष्टि क्षीरसागर समान उज्ज्वल अत्यन्त माधुर्यता को प्राप्त भई और सर्वमंगलके समूहका अाधार जिसका शरीर सर्वमंगल का स्थानक जो निर्मल रत्नमई प्रांगण उस विषेमन्दमन्द विचरे सो चरणों के प्रतिबिम्ब ऐसे भासे मानों पृथ्वी कमलोंसे सीता की सेवाही करे है और रात्रि विषे चन्द्रमा इसके मंदिर ऊपर पाय निकसे सो ऐसा भासे मानों मुफेद छत्रही है और सुगंध के महलमें सुंदर सेज ऊपर सूती ऐसा स्वप्न देखती भई कि महागजेंद्र कमलों के
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॥६१२॥
पुट विषे जल भरकर अभिषेक करावे है और बारम्बार सखीजनोंके मुख जयजयकार शब्द सुनकर जाग्रत होय है परिवार के लोक समम्त आज्ञारूप प्रवतें हैं कीड़ा विषे भी यहाज्ञाभंगन महमके सब अज्ञा कारी भए शीघही आज्ञा प्रमाण करे हैं तोभी सबों पर तेज करे है काहे से कि तेजस्वी पुत्र गर्भ विषे तिष्ठे हैं और मणियों के दर्पण निकट हैं तो भी खड़ग काढ खड्ग में मुख देखेहै और वीणावांसुरी मृदंगादि अनेक वादित्रों के नाद होय हैं सोनरुवें और धनु के चढ़ायवे की ध्वनि रुचे है और सिंहोंके पिंजरेदेख जिसके नेत्र प्रसन्न होंय और जिसका मस्तक जिनेंद्र टार और को न नमें ॥
.. अथानन्तर नव महीना पूर्णभये श्रावण शुदी पूर्णमासीके दिन श्रवण नक्षत्र के विपं वह मंगल । रूपिणी सर्वलक्षण पूर्ण शरदकी पूनोंके चंद्रमा समान बदन जिसका मुखसे पुत्र युगल जनताभई सो पुत्रोंके जन्म में पुंडरीकपुरकी सकल प्रजा अतिहर्षित भई मानों नगरी नाच उठी ढोल नगारे आदि अनेक प्रकार । के वादिन वाजने लगशंखोके शब्द भये राजा बज्रजंघ ने अतिउत्साह किया बहुत संपदा याचकों को। दई और एक का नाम अनंगलवण दूजे का नाम मदनांकुश ये यथार्थ नाम धरे फिर ये बालक बृद्धि को प्राप्त भए माता के हृदय को अति अानन्द के उपजावन हारे महाधीरशूरवीरता केअंकुर उपजे, सरसों के दाणे इनके रक्षा के निमित्त इनके मस्तक डारे सो ऐसे सोहते भए मानों प्रतापरूप अग्नि के कणही हैं जिनका शरीर ताये मुवर्ण समान अति देदीप्यमान सहजस्वभाव तेजकर अतिसोहता भया और जिन के नख दर्पणसमान भासते भए प्रथम बालअवस्था में अव्यक्त शब्द बोले सो सर्वलोक के मनको हरें और इनकी मंद मुलकनि महामनोग्य पुष्पों के विगसने समान लोकन के हृदय को मोहती भई और |
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॥१३॥
जैसे पुष्पों की सुगन्धता भ्रमरों के समह को अनुरागी करे तैसे इनकी वासना सब के मनको अनुरागरूप । पुराण करती भई यह दोनों माता का दूध पान कर पुष्ट भए और जिनका मुख महासुन्दर सुफेद दांतों कर
अति सोहता भयो मानों यह दांत दुग्ध समान उज्ज्वल हास्यरस समानशोभायमान दीखे हैं,धायकी प्रांगुरी पकडे प्रांगन में पांव धरते कौन का मन न हरते भए जानकी ऐसे सुन्दर क्रीड़ा के करणहारे कुमारों को देखकर समस्त दुःख भलगई । बालक बड़े भए अति मनोहर सहज ही सुन्दर हैं नेत्र जिनके विद्या पढ़ने योग्य भए तब इनके पुण्य के योगकर एकसिद्धार्थनामाक्षुल्लकशुद्धात्मापृथिवी में प्रसिद्ध वनजंघके मंदिर अाया सो महाविद्या के प्रभाव कर त्रिकाल संध्या में सुमेरुगिरि के चैत्यालय बंद आवे प्रशांतबदन साधु समान है भावना जिसके और खंडितवस्त्र मात्र है परिग्रह जिस के उत्तम अणुव्रत का धारक नानाप्रकार के गुणों करशोभायमान, जिनशासनके रहस्य का वेत्ता समस्त कालरूप समुद्रका पारगामी तपकर मंडित अति सोहे सो बाहारके निमित्त भ्रमता संता जहाँ जानकी तिष्ठे थी वहां आया सीता महासती मानों जिनशासन की देवी पद्मावती ही है सो क्षुल्लक को देख अति आदर से उठकर सन्मुख जाय इच्छाकार कारती भई और उत्तम अन्नपान से तृप्तकिया सीता जिनघर्मियों को अपनेभाईसमानजाने है सो क्षुल्लक अष्ट्रांग निमित्त ज्ञानके वेत्ता दोनों कुमारों को देखकर अति संतुष्ट होयकर सीता से कहता भया हेदेवि तुम सोच न करो जिसके असे देवकुमार समान प्रशस्त पुत्र उसे कहां चिंता। ___अथानन्तर यद्यदि क्षुल्लक महाविरक्त चित्त है तथापि दोनों कुमारों के अनुराग से कैयक दिन तिन के निकट रहा थोड़े दिनों में कुमागेको शस्त्रविद्या में निपुण किया सो कुमार ज्ञान विज्ञान में पूर्ण सर्व ।
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पुराव
कलाके धारक गुणों के समूह दिव्यास्त्र के चलायने और शत्रुओं के दिव्यास्त्र या तिन के निराकरण करवे की विद्या में प्रवीण होते भए, महापुण्य के प्रभाव से परमशोभा को धारें महालक्ष्मीवान् दूर गए हैं १४ मतिश्रुति यावर जिनके मानों उघडे, निधि के कलश ही हैं शिष्य बुद्धिवान् होय तब गुरु को पढ़ायका कळू खेद नहीं जैसे मंत्री बुद्धिवान् होय तब राजा को रोज्यकार्य का कछु खेद नहीं और जैसे नेत्रवान पुरुषों को सूर्य के प्रभावकर घटपटादिक पदार्थ सुख सो भासे तैसे गुरु के प्रभावकर बुद्धिवंत को शब्द अर्थ सुखसे भासें जैसे हंसों को मानसरोवर में धावते कछु खेद नहीं तैसे विवेकवान् विनयवान् बुद्धिवान् को गुरुभक्ति के प्रभाव से ज्ञान में आवते परिश्रम नहीं सुख से प्रतिगुणों की वृद्धि होय है और बुद्धिवान शिष्य को उपदेश देय गुरु कृतार्थ होय है और कुबुद्धि को उपदेश देना वृथा है ऐसा सूर्य का उद्योत घुघूत्रों को वृथा है यह दोनों भाई देदीप्यमान है यश जिनका अति सुन्दर महाप्रतापी सूर्य्यकी न्याई जिनकी ओर कोऊ विलोक न सके, दोनों भाई चन्द्र सूर्य्य समान दोनों में अग्नि और पवन समान प्रीति मानवह दोनों ही हिमाचल विंध्याचलसमान हैं वज वृषभनाराचसंहनन जिनके सर्व तेजस्वीयों के जीतवे को समर्थ सब राजावों का उदय और स्तजिनके अधीन होयगा महाधर्मात्माधर्म के धोरी अत्यन्तरमणीक जगत् को सुख के कारण सब जिनकी आज्ञा में, राजा ही आज्ञाकारी तो औरों की क्या बात किसी को श्राज्ञा रहित न देख सकें अपनेही पावों के नखों में अपनाही प्रतिबिम्बदेख न सकें तो और कौनसे नम्रीभूत और जिनको अपने नख और केशों का भंग न रुचे तो अपनी आज्ञाका भंग कैसे रुचे, और अपने सिरपर चूड़ामणि धरिये और सिरपर छत्र फिरे और सूर्य्य ऊपर होय प्राय जिनसे सोभी न सहार सकें तो
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पुराण
औरोंकी ऊंचता कैसे सहारे, मेघका धनुष चढ़ा देख कोपकरें तो शत्रुके धनपकी प्रबलता कैसे देखसकें । चित्रामके नृप न नमें तौभी सहारन सकें तो साक्षात् नृपोंका गर्व कब देखसके, और सूर्य नित्य उदयप्रस्त होय उसे अल्प तेजस्वी गिने औरपवन महाबलवानहै परन्तुचंचल सो उसेवलवान न गिने जो चलायमान सो बलवान काहे का जोस्थिरभूत अचल सो बलवान और हिमवान पर्वत उच्च है स्थिरभूतहै परतुं जड और कठोर कंटक सहित है इस लिए प्रशंसा योग्य न गिने और समुद्र गंभीर है रत्नों की खान है परन्तु क्षार और जल चर जीवोंको धरे और शंखों कर युक्त इस लिये समुद्र को तुच्छ गिनें येमहा. गुणों के निवास अति अनुपम जेते प्रबल गजा थे तेज रहित होय इन की सेवा करते भये ये महाराजावों के राजा सदा प्रसन्न बदन मुख से अमृत बचन बोलें सबो कर सेवने योग्य जे दूरवर्ती दुष्ट । भूपाल थे वे अपने तेज कर मलिन बदन किये सब मुरझाय गए इनका तेज ये जब जनमें तब से इन के साथही उपजा है शस्त्रों के धारण कर जिन के कर और उदर श्यामता को धरे हैं और मानों। अनेक राजावों के प्रताप रूप अग्नि के बुझायचे से श्याम हैं समस्त दिशा रूप स्त्री बशी भूत कर देने वाली भई महाधीर धनुष के धारक तिन के सब श्राज्ञा कारी भये जैसा लबण तैसा ही अंकुश दानों भाइये में केई कमी नहीं ऐसा शब्द पृथिवीमें सबके मुख ये दोनों नवयोवन महासुन्दर अदभुत चेष्टा के धागाहारे पृथिवी में प्रसिद्ध समस्त लोकोंकर स्तुति कम्बे योग्य जिनके देखवे की रब के अभिनाषा पुण्य परमाणुवोंकर रचाहै पिंड निनका सुखका कारण है दर्शनजिनका स्त्रियोंके मुखरूप कुमुद तिनको प्रफुल्लिन करने को शरदकी पूर्णमाससके चन्द्रमा समान सोहते भए माताके हृदयको अानंद
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पद्म
एब
॥३१६०
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के जंगम मंदिर ये कुमार सूर्यसमान कमलनेत्र देव कुमार सारिखे श्री वत्सलत्तण कर मंडित है बक्ष स्थल जिनका अनंतपराक्रम के धारक संसार समुद्र के तट आये चरम शरीरी परस्पर महाप्रेमके पात्र सदा धर्म के मार्ग में तिष्ठे हैं देवों का और मनुष्यों का मन हरे हैं ।
भावार्थ जो धर्मात्मा होय सो किसी का कुछ न हरें ये धर्मात्मा परधन परस्त्री तो न हरे परंतु पराया मनहरें । इनको देख सर्वोों का मन प्रसन्न होय ये गुणों की हद को प्राप्त भये हैं । गुण नाम डोक. भी है सो हदपर गांठको प्राप्त होय है और इनके उरमें गाठ नहीं महा निःकपटहै अपने तेज कर सूर्यको जीते हैं और कांतिकर चंद्रमाको जीते हैं और पराक्रमकर इंद्रको औरगंभीरता कर समुद्रको स्थिरता कर सुमेरुको और चमाकर पृथ्वीको और शूरवीरताकर सिंहको चालकर हंस को जीते हैं और महाजल में मकर ग्राह नकादिक जलचरोंसे कीड़ा करे हैं और माते हाथियोंसे तथा सिंह अष्टा पदों से क्रीडा करते खेद न गिने और महासम्यक दृष्टि उत्तम स्वभाव अति उदार उज्ज्वल भाव जिनसे कोई युद्धकर न सके महायुद्ध विषे उद्यमी जे कुमार सारिखे मधु कैटभ सारिखे इन्द्रजीत मेघनाद सारिखे योवा जिनमार्गी गुरु सेवा तत्पर जिनेश्वरकी कथा विषेरत जिनका नाम सुन शत्रुवोंको त्रास उपजे, यह कथा गौतम स्थानी राजा श्रेणिकसे कहते भये हे राजन वे दोनों बीर महावीर गुणरूप रत्नके पर्वत महा ज्ञानवान लीवान शोभा कांति कीर्ति के निवास चित्तरूप मांत हाथी के बशकर बेकी अंकुश महाराज रूप मंदिर के दृढ़ स्तम्भ पृथ्वी के सूर्य उत्तम आचरणके धारक लवण अंकुश नरपति विचित्र कार्य के कर हारे पुंडरीक नगरनें यथेष्ट देवोंकी न्याई रमें महा उत्तम पुरुष जिनके निकट जिनका तंज लख सूर्य भी लज्जावान
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पराण
18790
पन्न | होय जैसे बलभद्रनारायण अयोध्यामें रमें तैसे यह पुण्डरीकपुरमें रमे हैं । इति सौवां पर्व संपूर्णम् ॥
अयानन्तर अति उदार क्रिया विष योग्य अतिसुंदर तिनको देखकर बनजंघ इनके परणायबे विष उद्यमी भया. तब अपनी शशिचूना नाम पुत्री लक्षमा राणी उदरमें उपजी सो बत्तीस कन्या सहित मदन लवणको देनी बिचारी और अंकुश कुमारका भी विवाह साथही करना सो अंकुश योग्य कन्या इंडिवे को चिन्तावान भगा फिर मनमें विवारी पृथ्वीपुर नगरका गजा पृथु उसके गणी अमृतवती उस की पुत्री कनकमाला चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल अपने रूपकर लक्ष्मीको जीते है वह मेरी पुत्री शशि | चूनासमान है यह विचार तापै दूत भेजा सो दूत विचक्षण पृथ्वीपुर जाय पृथुसे कही जौलग दूतने कन्या याचनके शब्द न कहे तौलग इसका अति सनमान किया और जब इसने याचनेका वृतांत कहा। तब वह क्रोधायमान भया और कहता भया तू पराधीन है और पराई कहे है तुम दूत लोग जल के धोरा समान होजिस दिश चलावे ताही दिशचलो तुममें तेजनहीं बुद्धिनहीं जो ऐसे पापके बचन कहे उसका निग्रह करूं परतू पगया प्रेरा यंत्रसमानहै यंत्री बजावें त्यों बाजे इसलिय तू हनिचे योग्य नहीं हे दूत?कुल २शील३ धन४ रूप ५ समानता बलवयदेश-विद्या ये नवगुणवरके कह हैं तिनमें कुलमुख्य है सो जिन काकुलही न जानिये तिनको कन्याकैसेदीज इसलिये ऐसी निर्लजबात कहे सो राजा नीतिसे प्रतिकूल है सोकुमारी तो मैं न यूं और कु कहिये खोटी मारी कहियमृतु सोधू इसभांतिदूत को बिदाकिया सोदूत ने आयकर बज्रजंघ को व्योग कहा सो बजजंघापही चढ़कर अाधी दूर श्राय डेग किये और बडे मनुष्यों को भेज फिर पृथुमे कन्या यांची उसने न दई तबगजाबज़नंघ पृथका देश उजाटने लगा और
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पुगर
पन्न देशका रक्षक रजा व्याघ्ररथ उसे युद्धमें जीत बांध लिया तब राजा पृथुने सुनी कि व्याघ्ररथको राजा | बज्रजंघ ने बांधा और मेरा देश उजाड़े है तब पृथुने अपना परममित्र पोदना पुरका पति परम सेना से बुलाया तब बज्रजंघने पुण्डरीकपुर से अपने पुत्र बुलाये तब पिताकी आज्ञा से पुत्र शीघ्रही चलिवे को उद्यमी भये नगरमें राजपुत्रों ने कृचका नगाग बजाया सवसामंत बख्तरपहिरे श्रायुधसजकर युद्ध के चलने को उद्यमी भो नगरमें अति कोलाहल भया पुंडरीकपुरमें जैसा समुद्रगाजे ऐसा शब्दझ्या तब सामंतों के शब्दसुन लवण और अंकुश निकटवर्ती को पूछतेभए यहकोलाहल शब्द किसका है तब किसीने कही अंकुशकुमारक परणायवे निमित्त बज्रजंघ राजाने राजा पृथुकी पुत्री यांचीथी सो उसनेनदई तब राजा युद्धको चढे और अब गजाने अपनी सहायताक अर्थ अपने पुत्रोंको बुलाया है और सेना बुलाई है सो यह सेनाका शब्द है यहसमाचार सुन कर दोनों भाई आप युद्धके अर्थ अति शीघ्रही जायवेको उद्यमी भये कैसे हैं कुमार श्राज्ञा भंग को नहीं सह सके हैं तब बनजंघ के पुत्र इनको मने करते भये और सर्व राज लोक मने करते भये तौभी इन्होंने न मानी तब सीता पुत्रोंके स्नेहकर द्रवीभूत हुवा है मनजिसका सो पुत्रोंको कहती भई तुम बालक हो तुम्हारा युद्धका समय नहीं तब कुमार कहते भए हे माता तू यह क्या कही बडा भया और कायर भया तो क्या यह पृथिवी योधावों कर भोगवे यो. ग्य है और अग्निका कण छोटाही होय है और महावनको भस्म करे है इस भांति कुमागे ने कही तब माता इनको सुभट जन आंखोंसे हर्ष और शोक के किं. पतमात्र अश्रूपात श्रान चुप होय रही दोनों वीर महा धीर स्नान भे.जन कर प्राभूषण पहिर मन वचनक.य कर सिद्धोंको नमस्कारकर फिरमाता ।
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को प्रणामकर समस्त विधि विषे प्रवीण घर से बाहिर अाए तब भले भले शकुन भये दोनोरथ चढ | पुराण ।६१६१ | सम्पूर्ण शस्त्रों कर युक्त शीघ्रगामी तुरंग जोड़ पृथुपरचले महा सेनाकर मंडित धनुषवाणही हैं सहाय
जिनके महा पराक्रमी परम उदारचित्त संग्रामके अग्रेसर पांच दिवसमें बनजंघ पै जाय पहुंचे तब राजापृथु शत्रुवोंकी बडी सेनाबाई सुन आपभी बडीसेनासहित नगर से निकसा जिसके भाई मित्र पुत्र मामाके पुत्र सबही परम प्रीति पात्र और सूझ देश अंगदेश बंगदेश मगधदेश श्रादिअनेक देशों के बडे २ राजा तिन सहित रथ तुरंग हाथी पयादे बडे कटक सहित बज्रजंघ पर पाया तब बज्रजंघके सामन्त परसेनाके शब्द सुन युद्धको उद्यमी भये दोनों सेना समीपभई तब दोनो भाई लवणांकुशमहा उत्साहरूप परसेना में प्रवेश करते भये वेदोनों योधामहा कोपको प्राप्तभय अतिशीघहै परावर्त जिनका पर सेना रूप समुद्रमें क्रीडा करते सब ओर परसेना का निपात करते भये जैसे बिजली का चमत्कार इस ओर चमक उस ओर चमक उठे तैसे सब ओर मार मार करते भये शत्रुवों मे न सहा जाय पराक्रम जिनका धनुष पकडते बाण चलाते दृष्टि न पड़े और बाणों कर हते अनेक दृष्टि पड़ें नाना प्रकार के क्रूर वाण तिन कर वाहन सहित परसेना के अनेक योधा पीड़े पृथिती दुर्गम्य होय गई एक निमिष में पृथुकी सेना भागी जैसे सिंहके त्राससे मदोन्मत्त गजों के ममूह भागे एक क्षणमात्रमें पृथुको सेनारूपनदी लवणांकुशरूपसूर्य तिनकेवाणरूपकिरणोंसे शोककोप्राप्तभईकैयकमारपड यकभयो पीडित होय भागे, जैसे पाक से फूल उडे उडे फिरें राजा पृथु सहायरहित ग्विन्न होय भागने को उद्यमी भया तब दोनों भाई कहते भये हेप्टथु हम अाज्ञात कुल शील हमारा कुल कोई जाने नहीं तिनपै भागता न ।
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पन्न
18२०॥
लज्जावान् न होय है तू खडा रहो हमाग कुल शील तुझ वाणों से वतावें, तब पृथ भागता हुताथा सो पुराण | पीछा फिर हाथ जोड़ नमस्कार कर स्तुति करता भया तुम महा धीरवीर हो मेरी अज्ञानता जनित दोप
क्षमा करो में मूर्ख तुम्हारामाहात्म्य अवतक न जानाथा महा धीरवीरोंका कुलइससामंतताही से जानाजाय है कछु बाणीके कहेसेनजाना जाय है सोअवमेंनिसंदेहभया । बनके दाहकोसमर्थजो अग्नि सो तेजहीसे जानी जायहै सो श्राप परम धीर महाकुल में उपजे हमारे स्वामी हो महाभाग्यके योग्य तुम्हारा दर्शन भया तुम सबको मन वांछित सुख के दाता हो इस भांति पृथु ने प्रशंसाकरी तब दोनों भाई नीचे होय गये
और क्रोध मिटगया शांतमन और शांतमुख होय गये वज्रजंघकुमारों के समीप आया और सब राजे पाये कुमारों के और पृथके प्रीति भई जे उत्तम पुरुष हैं वे प्रणाम मात्र हीसे प्रसन्नताको प्राप्त होय हैं जैसे नदी का प्रवाह नम्रीभूत जे बेल तिनको न उपाड़े और जे महावृक्ष नम्रीभत नहीं तिनको उपाडे फिर राजा वज्रजंघको और दोनों कुमारों को पृथ, नगर में लेगया दोनों कुमार आनंद के कारण मदनांकुश को अपनी कन्या कनकमाला महाविभूतिसहित पृथुने परणाई एक रात्री यहां रहे फिर यह दोनों भाई विचक्षण दिगविजय करवे को निकसे सुह्यदेश मगध देश अंगदेश बंगदेश जीत पोदनापुर के राजाको प्रादि दे अनेक राजा संग लेय लोकाक्ष नगर गए उस तरफ के बहुत देश जीतेकुवेरकांत नामा राजा अतिमानी उसे ऐसा वशकीया जैसे गरुड़ नागको जीते सत्यार्थपने से दिन दिन इनके सेनावढी हजारों राजा वश । भए और सेवा करनेलगे फिर लंपाक देशगए वहां करण नामा राजा अतिप्रवल उसे जीतकर विजय स्थलकोगए वहांके राजा सौभाई तिनको अवलोकन मात्रही जीत, गंगा उतर कैलोश की उत्तर दिश।
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गए, वहां के राजा नाना प्रकारकी भेट ले आए मिले झषकुंतल नामादेश, तथा सालायं, नंदि नंदन पन पुराण |
स्यघल शलभ अनल भीम, भूतरव, इत्यादि अनेक देशाधिपतियों को वशकर सिंधु नदी के पारगये i६२१० समुद्र के तट के राजा अनेकों को नमाये अनेक नगर अनेक पेट अनेक अटव अनेकदेश वश कीये भीरु
देश यवन कच्छ चाख बजट नट सक्र केरल नेपाल मालव, अरल सर्वरत्रिशिर पार शैलगोशोल कुसीनर सरपार कमनत विधि शरसेन बाहीक उलक कोशल गांधार सौवीर अंध्र, काल. कलिंग इत्यादि अनेक देवशकीये कैसे हैं देश जिनमें नाना प्रकारकी भाषा और वस्त्रोंका भिन्न भिन्न पहराव और जुदे जुदे गुण नानाप्रकार के रत्न अनेक जाति के वृक्ष जिनमें और प्रकार स्वर्ण श्रादि धनके भरे कैयक दशां के राजाप्रताप ही से आय मिले कैयक युद्ध में जीत क्शकीये, कैयक भाग गए बड़े बड़े राजा देशपति अति अनुरागी होय लवणांकुश के आज्ञाकारी होते भए इनकी प्राज्ञा प्रमाण पृथिवी में विचरे व दोनों भाई पुरुषोत्तम पृथिवी को जीत हजारां राजावों के शिरोमणि होते भए सबों को वशकर लार लीए नानाप्रकार की सुन्दर कथा करते सवका मन हरते पुण्डरीकपुर को उद्यमीभए वजंघ लारही है अतिहर्षकेभरेअनेकराजावोंकी अनेकप्रकारभेटवाई सोमहाविभतिकोलीयेअतिसेनाकर मंडितपुण्डरीकपुरके
समीप पाए सीता सतखणे महिल चढ़ा देखे है राजलोक की अनेकराणी समीप हैं और उत्तम सिंहासन | पर तिष्ठे हैं दूर से अति सेनाकी रजके पटल उठे देख सखीजनको पूछतीभई यह दिशामें रजका उड़ाव | कैसा है तब तिन्होंने कही हे देवि सेनाकी रज है जैसे जलमें मकर किलोल करें तैसे सेनाविखे अश्व । | उछलतेत्रांवे हैं हे स्वामिनियेदोनोंकुमार पृथिवी वशकर पाए इसभांति सखीजन कहे हैं और वधाई देन
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पद्य
पुराणा, हारे आए नगर की अतिशोभा भइ लाकां क अति आनंद भया निर्मल ध्वजा चढ़ाई समस्त नगर । ६२२१ सुगन्धकर छांटा औरवस्त्र प्राभूषणों कर शोभित कीया दरवाजेपर कलश थापेसो कलश पल्लवों से ढक और
और ठौर बंदनमाला शोभायमान दीखतीभई और हाट बाजार टवरादि वस्त्रकर शोभित भए जैसी श्रीराम लक्ष्मणके आए अयोध्या की शोभा भई थी तैसीही पुण्डरीकपुर की शोभा कुमारोंके अाएसे भई जिस दिन महाविभूतिसे प्रवेशकिया उसदिननगरके लोगोंको जो हर्षभया सो कहिवेमें न आवे दोनोंपुत्र कृत्य अकृत्य तिनको देखकर सोतापानंद के सागरमें मग्नभई दोनोंवीर महाधीर आयकर हाथजोड़ माताको नमस्कार करते भये सेनाकी रजकर धूसराहै अग जिसका, सीताने पुत्रको उरसे लगाय माथे हाथ घरामाता को अति आनन्द उपजाय दोनों कुमार चांद सूर्यकी न्याई लोकमें प्रकाश करते भये ।। इति एकसौ एकपर्व
___ अथानन्तर ये उत्तममानव परम ऐश्वर्य के धारक प्रवल राजावों पर अाज्ञा करते सुखसे तिष्ठे एक दिन नारद ने कृतान्तवक को पूछा कि त सीताको कहां मेल आया, तब उसने कही कि सिंहनाद अटवी में मेली सो यह सुनकर अति ब्याकुल होय दडता फिरे था सो दोनों कुमार वनक्रीड़ा करते देखे तब नारद इनके समीप अाया कुमार उठकर सन्मान करतेभये नारद इनको विनय वोन देख बहुत हर्षित । भया और असीस दई जैसे राम लक्षमण नर नाथ के लक्ष्मी है तैसी तुम्हारे होवो तब ये पूछते भये कि हे देव राम लक्षमण कौन हैं, और कौन कुल में उपजे हैं, और क्या उनमें गुण हैं और कैसा तिनको
आचरण है तब नारद क्षण एक मौन पकड़ कहते भये हे दोनों कुमरो कोई मनुष्य भुजावोंकर पर्वतको उखाड़े अथवा समुद्रको तिरे तौभी राम लक्षमण के गुण कह न सके अनेक वदनों कर दीर्घ काल तक
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indian
तिनके गुण वर्णन करे तौभी राम लक्षमण के गुण कह न सके अनेक वदनोंकर दीर्घ काल तक तिन
'के गण वर्णन करे तौभी न कर सके, तथापि में तुम्हारे वचन से किंचितमात्र वर्णन करूं हूं तिनके गुण २३॥ पुण्य के बढ़ावनहारे हैं अयोध्यापुरी में राजा दशरथ होते भये दुराचाररूप इन्धन के भस्म करवे को
अग्नि समान, और इक्ष्वाकु वंश रूप अाकाश में चन्द्रमा महा तेजोमय सूर्य समान सकल पृथिव। विषे प्रकाश करते अयोध्या विष तिष्ठे वे पुरुषरूप पर्वत तिनसे कार्तिरूप नदी निक सी, सोसकलजगत का आनन्द उपजावती समुद्र पर्यन्त विस्तारको धरती भई उस दशरथ भूपतिके राज्य भारके धुरन्धरही चार पुत्र महागुणवान भये एक राम दूजा लक्षमण तीजा भरत चौथा शत्रुघ्न तिनमे गम अति मनोहर सर्वशास्त्रके ज्ञाता पृथ्वी विषेप्रसिद्ध सो छोटे भाई लक्षमणसहित और जनक की पुत्रीजो सीता उससहित पिताकी आज्ञा पालवे निमित्त अयोध्याको तज पृथ्वी विषे बिहार करते दण्डक बन में प्रवेश करते भये । सो स्थानक महाविषम जहां विद्याधरोंकी गम्यता नहीं खरदूषणसे संग्रामभया रावणने सिंहनाद किया उमे सुन कर लक्ष्मणकी सहाय करने को राम गया पीछेसे सीताको रावण हरलेगया तब राम नमुग्रीव हनमान विराधित आदि अनेक विद्याधर भेले भये राम के गुणों के अनुराग से वशीभतहै हृदय जिनका या विद्यावों को लेकर राम लंकाको गये रावण को जीत सीता को लेय अयोध्या प्राये स्वर्ग पुरी समान अयोध्या विद्याधरों ने बनाई वहां गम लक्षमण पुरुषोत्तम नागेंद्र समान सुखसे राज्यकरें राम
को तुम अब तक कैसे न जाना जिसके लक्षमणमा भाई उसके हाथ मुदर्शन चक्र सो आयुध जिसके । एकएक नकी हजार हजार देव सेवाकरें ऐसे सातरत्न लक्षमणके और चाररत्न रामकै जिसने प्रजा के
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हत निमित्त जानकी तजी उस गमको सकललोक जाने ऐसा कोई पृथ्वीमें नहीं जो रामको न जाने
इस पृथ्वी की कहां बात स्वर्ग विषे देवोंके समूह गमके गुण वर्णन करें हैं तब अंकुशने कही हे प्रभो ॥३२४ रामने जानकी क्यों तजी सो वृतांत में सुना चाहूं हूं तब सताके गुणोंकर धर्मानुरागहै चित्त जिसका
ऐसा नारदसो आंसू डार कहताभया हे कुमार हो वह सीता सती महा निर्मल कुल विषे उपजी शील वंती गुणवन्ती पतिव्रता श्रावकके आचार विष प्रवीण रामकी आठहजार राणी तिनकी शिरोमणि
लक्षमी कीर्ति धृति लज्जातिनको अपनीपवित्रतोस जीतकर साक्षातजिनवाणी तुल्य सो कोई पूर्वोपार्जित | पापके प्रभावकर मूढलोक अपवाद करते भये इसलिय गमने दुखितहोयनिर्जनबनमें तजी खोटे लोक तिन । की बाणी सोई भई जेठ सूर्यको किरण उसकर तप्तायमान वह सती कष्टको प्राप्त भई महा सुकुमार जिस | में अल्प भी खेद न सहारा पड़े मालती की मालाद्धीपके आतापकर मुरझाय सो दावानल का दाह । कैसे सहार सके, महा भीमबन जिसमें अनेक दुष्ट जीव वहां सीता कैसे प्राणों को घरे, दुष्टजीवकी जिह्वा | भुजंग समान निरपराध प्राणियों को क्यों डसे शुभ जीवोंकी निन्दा करते दुष्टोंकी जीभ के सौ टूक । क्यों न होवें वह महासती पतिव्रतावोंकी शिरोमाण पटुता आदि अनेक गुणोंकर प्रशंसायोग्य अत्यन्त निर्मल महा सती उसकी जो लोक निंदाकरें सो इस भव और परभव विष दुखको प्राप्तहोय ऐसा कहकर शोकके भारकर मौनगह रहा विशेष कछू कह न सका सुनकर अंकुश बोले हे स्वामिन भयंकर बनविषे रामने सीताको तजते भला न किया यह कुलवन्तोंकी रीति नहीं है लोकापवाद निवारनेके और अनेक उपाय हैं ऐसा अविवेकका कार्य ज्ञानवन्त क्यों करेंअंकुशने तो यही कही बार अनंग लवणबोला यहांसे ।
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पद्म
पुराण
१६२५ ॥
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अयोध्या केतीक दूर तब नारद ने कही यहां से एकसौ साठ योजन है जहां राम विराजे हैं तब दोनों कुमार बोले हम रामलक्षमण पर जायेंगे इस पृथ्वी में ऐसा कौन जिसकी हमारे आगे प्रबलता, नाग्व सों यह कह और वज्रजंघ से कही हे मामा सूझ देश सिंधु देश कलिंग देश इत्यादि देशों के राजावों को आज्ञापत्र पटावहु जो संग्राम का सव सरंजाम लेकर शीघ्र ही यावें हमारा अयोध्या की तरफ कूच है और हाथी समारो मदोन्मत्त केते और निर्मद केते और घोडे. बायु समान है बंग जिनका सो संग लेकर और जे योधा रणसंग्राम में विख्यात कभी पीठ न दिखावें तिनको लाग्लेवो, सब शस्त्र सम्हारो बक्तरों की मरम्मत करावो और युद्ध के नगारे दिवा वो ढोल बजावो शंखों के शब्द करावो सब सामंतों को युद्ध का विचार करो यह आज्ञा कर दोनों वीर मन में युद्धका निश्चय कर तिष्ठे मानों दोनों भाई इन्द्र ही हैं देवों समान जे देशपति राजा दिनको एकत्र करिव को उद्यमी भए तब राम लक्ष्मण पर कुमारों की सवारी सुन सीता रुदन करती भई. और सीता के समीप नारदको सिद्धार्थ कहता भया यह शोभनकार्य तुम क्यों प्रारंभा में उद्यम करिब का है उत्साह जिनके ऐसे तुम सो पिता और पुत्रों में क्यों विरोध का उद्यम किया व का भांति यह विरोध निवारो कुटुम्बद बना पंचित नहीं तब नारद ने कही मैं तो ऐसा कछू जान्या नहीं इन विनय किया में असीस दई कि तुम राम लक्ष्मण से हावो इन्होंनेसुन कर पूछी राम लक्ष्मण कौन ? मैं सब वृतांत कहा अभी तुम भय न करो सब नीकं ही होयगा अपना मन निश्चल करो कुमारीने सुनी कि माता रुदन करें है तब दोनों पुत्र माता के पासच्याए कहते भए ह मातः तुम रुदन क्यों करो हो कारण कहो तुम्हारी आज्ञा को कौन लोप हुन्दर वचन
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163
कौनने कहे असदुष्ट के प्राण हरें ऐसा कौन है जो मर्पकी जीभ से क्रीडा करे, ऐमा कौन मनुष्य और कौन देव जे तुमको असाता उपजावे हे मातः तुम कौन पर कोप किया है जिस पर तुम कोप करो उस का जानिये अायु का अंत आया है. हमपर कृपा कर कोप का कारण कहो इसभांति पुत्रों ने विनती करी तब माता धांसू कार कहती भई हे पुत्रो में काहू पर कोप न किया न मुझे किसीने असातादई तुम्हारी पिता से युद्ध का प्रारंभ सुन मैं दुखित भई सदन करूं हूं. गौतमस्वामी कहे हैं. हे श्रेणिक तब पुत्र माता से पूछते भए हे माता हमाग दिता कौन तब सीता ने अादि से लेय सब वृतांत कहा राम का बंश और अपना बंश विवाह का वृत्तांत और बन का गमन अपना रावणकर हरण और प्रागमन जो। नारदने बृतांत कहा था सो सब विस्तार से कहा कछु छिपाव न राखा और कही तुम गर्भ में आए तब ही तुम्हारे पिता ने लोकापवाद का भयकर मुझे सिंहनाद अटवी में तजी वहां में रुदन करती थी सो राजा वज्रजंघ हाथी पकड़ने गया थो सो हाथो पकड़ बाहुडे था मुझे रुदन करती देखी सो यह महा। धर्मात्मा शीलवन्त श्रावक मुझे महा श्रादर से ल्याया बड़ी बहिन का आदर जनाया और सत् सनमान से यहाँ राखी में भाई भामण्डल समान इस का घर जाना तुम्हारा यहां सन्मान भया तुम श्रीराम के पुत्र हो राम महाराजधिराज हिमाचल पर्वत से लेय समुन्द्रान्त पृथिवी का राज्य करे हैं जिन के लक्ष्मण से भाई सो महा बलवान् संग्राम में निपुणहै न जानिये नाथ की अशुभ वार्ता सुन अक तुम्हारी अथवा देवरकी इसलिये भारतचित्तभई में रुदनकरूं हूं और कोई कारण नहीं तव सुनकर पुत्र प्रसन्न वदन भए और माता से कहते भए हे माता हमारा पिता महा धनुष धारी लोक में श्रेष्ठ लक्ष्मीवान्
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पुराण
पद्म विशाल कीर्ति का धारक है और अनेक अद्भुतकार्य किए हैं परन्तु तुम को वन में तजी सो भला न ॥६२७॥
कीया इसलिये हम शीघही राम लक्ष्मणका मानभंग करेंगे तुम विषादमतकरो, तब सीता कहतीभई हेपुत्र होवे तुम्हारे गुरुजन हैं उनसे विरोध योग्य नहीं । तुम चित्त सौम्य करो। महाविनयवन्त होय जाय कर पिताको प्रणाम करो यह ही नीतिका मार्ग है, तब पुत्र कहते भये हे मता हमारा पिता शत्रुभावको प्राप्त भया हम कैसे जाय प्रणाम करें और दीनतोके वचन कैसे कहें हमतो माता तुम्हारे पुत्रहैं इसलिये रण संग्राम में हमारा मरण होय तो होवो परन्तु योधावों से निन्द्य कायर वचन तो हम न सहें, यह बचन पुत्रों के सुन सीता मौन पकड़ रही परन्तु चित्तमें अति चिन्ता है दोनों कुमार स्नानकर भगवान्की पूजा कर मंगल पाठ पढ़ सिद्धों को नमस्कार कर माता को धीर्य बन्धाय प्रणाम करदोनों महामंगलरूपहाथीपर चढे मानों चान्द सूर्य गिरिक शिखरतिष्ठहैं अयोध्या ऊपर युद्धको उद्यमी भये जैसे रामलक्ष्मण लंका ऊपर उद्यमी भये थे इनका कूब सुन हज़ारों योधा पुण्डरीकपुर से निकसे सब ही योधा अपना अपना हल्ला देते भये वह जाने मेरी सेना अच्छी देखी वह जाने मेरी, महाकटक संयुक्त नित्य एक योजनका कूचकर सी पृथिवीकी रक्षा करते चले जायहैं किसीका कछ उजा नहीं पृथिवी नानाप्रकारके धान्य से शोभायमान है कुमारों का प्रताप आगे आगेबढ़ता जायहे मार्गके राजा भेटदे मिलेहैं, दस हजार बेलदारकुदाल लिए आगे आगे चलेजायहें और धरती ऊंची नीची को सम करें हैं और कल्हाडे हैं हाथ में जिनके वेभी आगे
आगे चले जायहें और हाथी ऊंट भ सा बलद खच्चर खजानेके लदे जायहें, मन्त्री प्रागेाग चलेजांय हैं || ओर प्यादे हिरणों की नाईं उछलते जाय हैं और तुरंगों के असवार अति तेजी से चलेजाय, तुरंगोंकी।
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पद्म
॥६२८॥
हीस होय रही है और गजराज चले जाय हैं जिनके स्वर्ण की सांकल और महा घटावों का शब्द होय । पुरात है और जिन के कानों पर चमर शोभे हैं और शंखों की ध्वनी होय रही है और मोतियों की झालरी
पानीके बदबूदा समान अत्यन्त सोहे हैं और सुन्दर हैं आभूषण जिन के महा उद्धत जिन के उज्वल दांतों के स्वर्ण आदि के बन्ध बन्धे हैं और रत्न स्वर्ण श्रादिक की माला तिन से शोभायमान चलते पर्वत समान नाना प्रकार के रंग से रंगे और जिन के मदझरे हैं और कारी घटा समान श्याम प्रचण्ड वेग को धरें जिन पर पाखर परी हैं नाना प्रकार के शस्रों से शोभित हैं और गर्जना करे हैं और राजन पर महादीप्ति के धारक सामन्त लोक चढे हैं और महावतों ने अति सिखाये हैं अपनी सेना का और परसेना का शब्द पिछाने हैं सुन्दर है चेष्टा जिन की और घोडों के असवार वखतर पहिरे खेट नामा
आयुध को धरे वरछी है जिन के हाथ में घोड़ों के समूह तिन के खुरों के घात से उठी जो रज उस से आकाश व्याप्त होय रहा है असा सोहे है मानो सुफेद बादलों से मण्डित है और पियादे शस्त्रों के समूह से शोभित अनेक चेष्टा करते गर्व से चले जाय हैं वह जाने में आगे चल वह जाने मैं और शयन आसन तांबूल सुगंधमाला महामनोहर वस्त्र आहार वलेपन नाना प्रकार की सामग्री वटती जाय है उस से सवही सेना के लोक सुखरूप हैं किसी को किसी प्रकार का खेद नहीं और मजल मजल कुमारों की प्राज्ञासे भले भले मनुष्यों को लोक नाना प्रकार की वस्तु देवे हैं उन को यही कार्य सौपा है सो बहुत सावधान हैं नाना प्रकारके अन्न जल मिष्टान्न लवण घत दुग्ध दही अनेकरस भांति भांति खानेकी वस्तु आदर सों देवें हैं, समस्त सेना में कोई दीन बुभुक्षित तृषातुर कुवस्त्र मलिन चिन्तावान |
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| दृष्टि नहीं पड़े है सेनारूप समुद्र में नर नारी नाना प्रकार के प्राभरण पहिरे सुन्दर बस्रोंकर शोभायमान
महा रूपवान अति हर्षित दीखें इस भांति महा विभूति कर मण्डित सीता के पुत्र चले चले अयोध्या स. के देश में पाये, मानों स्वर्ग लोक में इन्द्र अाये जिस देशमें यव गेहूं चावलादि अनेक धान्य फल
रहे हैं और पोंडे सांठेयों के वाडे ठोर ठौर शोभ हैं पृथिवी अन्न जल तृणहर पूर्ण है और जहां नदियों तीर हमोंके समूह क्रीड़ा करे हैं और सरोवर कमलों कर शोभायमान हैं और पर्वत. नाना प्रकारके पुष्पों कर सुगन्ध होयरहे हैं और गीतोंकी ध्वनि ठौर ठौर होय रहीहै और गाय भैस बलधों के समूह विचर रहे हैं और गवालणी विलोवणा विलोवे हैं, और जहां नगरों सारिखे नजीक नजीक ग्राम हैं और नगर ऐसे शोभे हैं मानो सुर पुरही हैं महा तेजकर युक्त लवणांकुश देशकी शोभा देखते अति नीति सेवाये किसीको किसीही प्रकारका खेद न भया, हाथियोंके मद झरिख कर पंथ में रज दब गई कीच होय गया
और चंचल घोड़ोंके खुरों के घात कर पृथिवी जर्जरी होयगई । चले चले अयोध्या के समीप आये दूरसे सन्ध्याके बावरों के रंग समान अतिसुन्दर अयोध्या देख बज्रजंघ को पूया हे माम यह महा ज्योतिरूप कैसी नगरी है तब बनजंघ ने निश्चयकर कही हे देव यह अयोध्या नगरी है जिसके स्वर्णमई कोट उनकी यह ज्योति भासे है इस नगरीमें तुम्हारा पिता बलदेवस्वामी विराजे हैं जिसके लक्षमण और शत्रुघ्नभाई इस भांति बनजंघ ने कही और दोनोंकुमार शूरवीरता की कथाकरते सुख से श्राय पहुंचे कटक के
और अयोध्याके बीच सरयू नदी रही दोनों भाईयों के यह इच्छा कि शीघ्रही नदी उतर नगरी जैसे कोई मुनिशीघ्र ही मुक्त हुवाचाहें उसेमोक्षकी श्राशारूपनदी यथाख्यात होने न देय आशारूप नदीको
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पराम
६३.
जैसे न
तिरे तब मुनि मुक्त होयतैसे सरयू नदी के योग से शीघ्र ही नदीसे पार उतर नगरीमें न पहुंच सके तब । जैसे नन्दनवन में देवोंकी सेना उतरे तैसे नदीके उपबनादिमें ही कटक के डेरा कराये॥
अथानन्तर परसेंना निकट आई सुन रामलक्षमण आश्चर्यको प्राप्त भये और दोनों भाई परस्पर बतलावे ये कोई युद्धके अर्थ हमारे निकट पाए हैं सो मुवा चाहे हैं बासुदेवने विरोधित को श्राज्ञा करी युद्ध के निमित्त शीघ्र ही सेना भेली करो ढील न होय जिन विद्याधरोंके कपियों की ध्वजा और बैलोंकीध्वजा
और हाथियों की ध्वजा सिंहोंकी ध्वजा इत्यादि अनेक भांति कीध्वजातिनको बेगबुलावो सो बिराधित ने कही जो श्राज्ञा होयगी सोई होयगा उसही समय सुग्रीवादिक अनेक गजावों पर दूत पठाये सादृत के देखवे मात्रही सब विद्याधर बड़ी सेनासे अयोध्या आये भामंडलभी आया सो भामण्डलको अत्यन्त अाकुलता होय शीघ्र ही सिद्धार्थ और नारद जाय कर कहते भये यह सीताके पुत्र हैं सीता पुण्डरीक पुर में है तब यह बात सुनकर बहुत दुखित भया और कुमारों के अयोध्या श्रायवे पर आश्चर्य को प्राप्त भया और इनका प्रताप मुन हर्षित भया मनके बेगसमान जो विमान उसपर चढ़कर परिवार सहित पुण्डरीकपुर गया बहिन से मिला सीता भामण्डलको देख अति मोहितभई अासूनाखती संती विलाप करती भई और अपने ताई घरसे काढनका और पुण्डरीकपुर प्रायवे का सर्व वृत्तान्त कहा तब भामण्डल बहिनको धीर्य बंधाय कहताभया हे बहिन ते रे पुण्यके प्रभावसे सब भला होयगा और कुमार अयोध्या गये सो भला न कीया, जायकर बलभद्र नारायण को क्रोध उपजायाराम लक्षमण दोनों भाई पुरुषोत्तम देवों से भी न जीते जांय महा योधा हैं कुमारों के और उनके युद्ध न होय सा ऐसा उपाय
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करें इस लिये तुमभी चलो तब सीता पुत्रोंकी वधू संयुक्त भामण्डल के विमान में बैठ चस्ली राम लक्षमण पुराण महा क्रोधकर रथ घोटक गज पयादे देव विद्याधर तिनकर मण्डित समुद्र समान सेनालेय बाहिर निकसे और
घोड़ों के रथ चढ़ाशनम्न महाप्रतापी मोतियों के हार कर शोभायमान है वचस्थल जिसका सो राम के संग अया, शोर कृत्तांतवक सब सेमा का अग्रसर भया जैसे इन्द्र की सेना का अग्रगामी हृदयकेशी नामा देव होय उसका रथ अत्यंत सोहता भया देवों के विमान समान जिसका रथ सो सेनापति चतुरंग सेना लिये अतुलबली अतिप्रतापी महाज्योति को धरे धनुष चढ़ाय वाण लिये चलाजाय है, जिसकी श्याम ध्वजा शत्रुवों से देखी न जाय उसके पीछे त्रिमन वन्हिशिख सिंहविक्रम दीर्घभुज सिहोदर सुमेरु बालखिल्य रौद्रभूत जिसके अष्टापदों के रथ वज्रकर्ण पथुमार दमन मृगेन्द्रहव इत्यादि पांचहजार नृपति कृतांतवक्र के संग अग्रगामी भए बन्दीजन बखाने हैं विरद जिनके और अनेक रघुवंशीकुमार देखे हैं अनेक रण जिन्हों ने शस्त्रों पर है दृष्टि जिनकी युद्धका है उत्साह जिनके, स्वामीभक्ति में तत्पर महाबलवस्त धरतीको कंपातेशीघही निकसे, कईएक नानाप्रकारके रथो परचढे कईयक पर्वत समान ऊंचे कारीघय समान हाथीयों परचढे, कईयक समुद्र की तुरंग समान चञ्चल तुरंग तिनपर चढ़े । इत्यादि अनेक वाहनों पर गढ़े यद्धको निकसे वादित्रों के शब्दकर करी है व्याप्त दशो दिशा जिन्होंनेवखतर पहिरे टोपधरेकोधकर संयुक्त है चित्त जिनका, तब लव अंकुश परसेना का शब्द सुन युद्ध को उद्यमी भए वजंघको प्राज्ञा करी, कुमार की सेना के लोक युद्धके उद्यमी थे ही । प्रलयकाल की अग्नि समान महाप्रचण्ड अंगदेश बंग देश नेपाल बर्वर पौंड मागध पारसैल स्यंघल कटिंग इत्यादि अनेक देशों के राजा रत्लाईको प्रादि दे.
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CITTE
११३२॥
पिन || महा बलवन्त ग्यारहहजार राजाउत्तमतेजके धारक युद्ध के उद्यमीभए दोनों सेनावों का संघट्ट भयो दोनों
सेनावों के संगम में देवों को असुरों को आश्चर्य उपजे ऐसा महा भयंकर शब्द भया जैसा प्रलयकाल का समुद्रगाजे परस्पर यह शब्द होते भए क्या देख रहा है, प्रथम प्रहार क्यों नकरे, मेरा मन तोपर प्रथम प्रहार करिवे पर नहीं इसलिये तू ही प्रथम प्रहारकर और कोई कहे है एक डिग आगे होवो जूशस्त्रचलाऊं
कोई अत्यन्त समीप होय गये तब कहे हैं खञ्जर तथा कटारी हाथ लेवो निपट नजीक भये वाणका अवसर ! नहीं । कोई कायर का देख कहे हैं तू क्यों कांप है में कायर को न मारूं तू परे हो अागे महा योधा । खड़ा है उससे युद्ध करने दे, कोई बृथा गाजे है उसे सामन्त कहे हैं हे क्षुद्र कहावृथा गाजे है गाजने
में सामन्तपना नहीं जो तोमें सामथहै तो आगे आव तेरी रणकी भख भगाऊं इस भांति योधावों म। | परस्पर वचनालाप होय रहे हैं तरवार रहे हैं भूमिगोचरी विद्याधर सब ही आये हैं भामण्डल । पवनवेग वीरमृगांक विद्युद्ध्वज इत्यादि बडे बडे. राजा विद्याधर बड़ी सेना कर युक्त महा रण में | प्रवीण सो लवण अंकुशके समाचारसुन युद्धसे पराङ्मुख शिथिलहोयगये और सब बातोंमें प्रवीण हनुमान
सो भी सीताके पुत्र जान युद्धसे शिथिलहोय रहा और बिमानके शिखर विषे आरूढ जानकी को देख । सवही विद्याधर हाथ जोड सीस निवाय प्रणामकर मध्यस्थ होयरहे सीता दोनों सेना देख रोमांच होय । श्राई कांपे है अंग जिसका लक्ण अंकुश लहलहाट करे हैं ध्वजा जिनकी रामलक्षमणसे युद्धके उद्यमी भये रामके सिंहकी ध्वजा लक्षमगाके गरुडकी सो दोनों कुमार महायोधारामलचमणसे युद्ध करते । भये लवण तो रामसे लडे और अंकुश लक्ष्मण से लडे सो लवने श्रावतेही श्री रामकी ध्वजा छेदी और
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धनुष तोडा तब राम हंसकर और धनुष लेयबेको उद्यमी भया । इतने में लवने रामका रथ तोडा तब राम और रथ चढ़ प्रचंड है पराक्रम जिसका क्रोध कर भृकुटी चढ़ाय ग्रीष्मकं सूर्य समान तेजस्वी जैसे चम रेंद्र पर इंद्र जाय तैसे गया तब जानकी का नन्दन लव रणकी पाहुनगति करनेको रामके सन्मुख आया रामके और लवके परस्पर महायुद्ध भया । उसने उसके शस्त्र के उसने उसके जैसा युद्ध राम और लवका भया तैसाही अंकुश और लक्षमणका भया इस भांति परस्पर दोनों युगल लडे तब योधा भी परस्पर लड़ें घोड़ों के समूह रणरूप समुद्रकी तरंग समान उच्छलते भये कोई एक योधा प्रतिपक्षीको टूटे खतर देख दयाकर मौन गह रहा और कई एक योधा मने करते करते पर सेना में पैसो स्वामी . का नाम उचारते परचक्रसे लड़ते भये कई एक महाभट माते हाथियों से भिड़ते भये केई एक हाथियों के अंतरूप सेजपर र निद्रा सुखसे लेते भये किसी एक महाभटका तुरंग काम आया सो पियादा लड़ने लगा किसी शस्त्र टूट गये तोभी पीछे न होता भया हाथोंसे मुष्टि प्रहार करता भया और कोई एक सामन्त वा वाहने चुक गया उसे प्रतिपक्षी कहताभया फिर चलाय सो लज्जाकर न चलावता और कोई एक निर्भयचित्त प्रति पचीको शस्त्र रहित देख श्रापभी शस्त्र तज भुजावों से युद्ध कराया वे योधा बडे दातारण संग्राम विषेप्राण देते भए परंतु पीठ न देतेभये जहां रुधिरका कीच ही रहा है सो रथोंके पहिये डूब गये हैं सारथी शीघ्रही नहीं चला सके हैं। परस्पर शस्त्रों के संपात कम पड रही है और हाथियों की मूंड के छांटे उछले हैं। और सामन्तों ने हाथियों के कुम्भ -स्थान बिहारे हैं सामन्तों के उरस्थल विहारे हैं हाथी काम प्राय गये हैं तिन कर मार्ग रुक रहा है
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पम | और हाथियों के मोती बिखर रहे हैं। वह युद्ध महा भयंकर होता भया जहा सामन्त अपना सिर । पुगगा 1१३४
देकरवरूप रत्न खरीदते भए जहां मूर्छित पर कोई घात नहीं करे और निर्बलपर घात करे समितों का है युद्ध जहां महा युद्धके करणहोर योधा जिनके जीवनकी श्राशा नहीं क्षोभ को प्राप्त भया समुद्र गाजे तैसा होय रहा है शब्द जहां सो वह संग्राम समरस कहिये समान रस होता भया ।
भावार्थ ॥ न वहमेना हटी न वह सेना हटी योधावोंमें न्यूनाधिकता परस्पर दृष्टि न पड़ी कैसे हैं योधा स्वामी विषे है परम भाक्त जिमकी और स्वामीने भाजविका दई थी उसके बंदले यह जीव दिया चाहे हैं.प्रचंड रणकोहे खाज जिनके सूर्य समान तेजको धरें संग्रामके धुरंधर होते भयोइतिएकादायवांपर्बपूर्ण,
अथानन्तर गौतम स्वामी- कहे हैं हे श्रेणिक अब जो बृतांत भया सो सुनो अनंगलवण के तो सोरथी राजा यजजंध और मदनांकुश के राजा पृथु और लक्ष्मण के विराधित और राम के कृतातवक्र तब श्रीराम वज्रावर्त यमुन को' बदायकर वृतांतवक्र से कहते भये अब तुम शीघ ही शत्रुवों पर स्थ चालावो ढील न करो, तब वह कहता भया हे देव देखो यह घोडे नरवीरके बाणोंकर जरजरे होयरहे हैं इन में तेज नहीं मानोंनिद्रा को प्राप्त भये हैं यह तुरंग लोह की धाराकर घरती को रंगे हैं मानों अपना अनुराग प्रभुको दिखाये हैं और मेरी भुजा इसके बाणोंकर भेदी गई है वक्तर टूटगया है तब श्रीराम कहते भए मेरा। भी धनुष युद्ध कर्म रहित ऐसा होयगया है मानों चित्राम का धनुष है और यह मूसल भी कार्यरहित होय गया है और दुनिवार जे. शत्ररूप गजराज तिनको अंकुश समान यह हल सो भी शिथिलता को मजे हैं शत्रुके पक्ष को भयंकर मेरे अमोघशस्त्रजिनकी सहस्र सहल यक्ष रक्षाकरें वे शिथिल होय गए हैं।
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पुराण
पद्म शस्त्रों को सामर्थ नहीं जो शत्रुपर चलें गौतमस्वामी कहे हैं हे श्रेणिक जैसे अनंग लवण श्रागे गम के ॥६३शा शस्त्र निरर्थक होय गये तैसे ही मदनांकुशके आगे लक्षमणके शस्त्र कार्य रहित होय गये वे दोनों भाई तो
जाने कि ये रामलक्ष्मणतो हमारेपिता और पितृव्य(चचा) हैं सो वे तो इनकाअंग बचाय शर चला औरये उनको जाने नहीं सो शत्रुजान कर शर चलावें लक्षमण दिव्यास्त्र की सामर्थ उनपर चलवेकी न जान शर शेल सामान्यचक्र खडग अंकुश चलावता भया सो अंकुश ने बज्रदण्डकर लक्षमण के श्रायुध निगकरण किये और गमके चलाएअायुध लवण ने निराकरण किये फिर लवणने रामकी अोर सेलचलाया और अंकुशभे लक्षमण पर चलाया सो ऐसी निपुणतासे जो दोनोंके मर्मकी ठौर न लागे सामान्यचोट लगीसो लक्षमणके नेत्र घूमने लगे बिराधित ने अयोध्या की ओर रथ फेरा तब लक्ष्मण सचेत होय कोष करबिराधितसे कहता भया हे बिराधित तैंने क्या कियामेरा रथ फेरा अब पीछा फिर शत्रुका सन्मुखलेवो रण में पीट न दीजिए जैशुरवीर हैं तिनकोशत्रु के सन्मुख मरण भला परन्तु यह पीठदेना महा निंद्यकर्म शूरवीगें को योग्य नहीं कैसे हैं शूरवीरयुद्ध में बाणोंकर पूरितहै अंग जिनका जे देव मनुब्योंकर प्रशंशा योग्य वे कायरता कैसे भनें मैं दशरथ का पुत्र राम का भाई बासुदेव पृथिवी विषे प्रसिद्ध सो संग्राम में पं.ठ कैसे देऊं यह बबन लक्षमण ने केही तब विराधित ने रथ को युद्ध के सन्मुख कियः सो लक्षमण के
और मदनांकुश के महायुद्ध भया लक्षमणने क्रोधकर महाभयंकर चक्रहाथमें लिया चक्र महाज्यालारूप ।. देखा न जाय ग्रीष्मके सूर्य समान सो अंकुश पर चलाया सो अंकुशके समीप जाय प्रभाहित होय
गया और उलटा लक्षमण के हाथ में पाया फिर लक्षमणने चक्र चलायासेो पीछा-याया इसभांति
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पुरा
॥३६॥
बारबार पीछापाया फिर अंकुशने धनुष हाथमें गहा तब अंकुशको महा तेजरूप देख लघमणके पक्षक सन सामन्त पाश्चर्यको प्राप्तभये तिनको यह बुद्धि उपजी यह महापराक्रमी अर्धचक्री उपजालक्ष्मण ने कोटि शिला उठाई और मुनिके वचन जिनशासनका कथन और भांति कैसेहोस और लशाण भी मनमें जानताभया कि ये बलभद्र नारायण उपजे श्राप अति लज्जावान होय युद्धकी क्रियागे शिथिलभयो - अथानन्तर लक्षमणको शिथिल देख सिद्धार्थ नारद के कहे से लक्षमणके समीप आय कहता भया वासुदेव तुमहीहो जिनशासन के वचन सुमेरुसे अति निश्चल हैं यह कुमार जानकी के पुत्र हैं गर्भ में थे तब जानकी को बन में तजी यह तुम्हारे अंग हैं इसलिये इनपर चक्नादिक शस्त्र न चलें तब लक्षमण ने दोनों कुमारोंका वृत्तान्त सुन हर्षित होय हाथसे हथियार डोर दिये वपतर दूर किया सीता के दुःख कर अश्रुपात डारनेलगा और नेत्र घूमने लगे रामशस्त्र डार वक्तर उतार मोह कर मूर्छित भए, चन्दन से छांट सचेत किये तब स्नेहके भरे पुत्रोंके समीप चले पुत्र रथसे उतर हाथ जोड़ सीस निवीय पिताके पायने पड़े श्रीराम रह कर द्रवी भूत भया है मन जिसका पुत्रोंको उरसे सगाय विलाप करतेभये. प्रांसुवों करन मेघ कासा दिन किया राम कहे हैं हाय पुत्रहो मेंमंद बुद्धि गर्भ में तिष्ठते तुमको सीता सहित भयंकर बनमें तजे. तुम्हारी माता निर्दोष हाय पुत्रहो में कोई विस्तीर्ण पुण्य कर तुम सारिखे पुत्र पाए सो उदर में तिष्ठते तुम भयंकर वन विषे कष्टको प्राप्त भए हाय वत्सहो जो यह बजजंघ बन में न श्रावता तो तुम्हारा मुखरूप चन्द्रमा में कैसे देखता, हाय बालक हो इन अमोघ दिव्यास्त्रोंकर तुम न हते गये सो मेरे पुण्य के उदयकर देवोंने सहाय करी हाय मेरे अंगज हो मे रे बाणोंकर बींधे तुम रणक्षेत्र में पड़ते तो न जनू ।
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18३७०
जानकी क्या करती सब दुखों में घरसे काढ़ने का बड़ा दुःख है सो तुम्हारी माता महा गुणवन्ती व्रत. वन्ती पतिव्रता में वनमें तजी और तुमसे पुत्र गर्भ में सो में यह काम बहुत बिना समझे कीयो और जो कदाचित् तुम्हारा युद्ध में अन्यथाभाव होता तो में निश्चय से जान हूंशोक से विहल जानकी न जीवती इस भान्ति राम ने विलाप कीया, फिर कुमार विनय कर लक्ष्मण को प्रणाम करते भये लक्षमण सीता के शोक से विहल प्रांस डारता. स्नेह का भरा दोनों कुमारों को उर से लगावता भया।शत्रुघ्न आदि यह बृतान्त सुन वहां आये कुमार यथायोग्य विनय करते भये ये उरसों लगाय मिले। परस्पर अतिप्रीति उपजी दोनों सेना के लोक अतिहित कर परस्पर मिले क्योंकि जब स्वामी स्नेह होय तब सेवकों के भी होय सीता पुत्रोंका महात्म्य देख अति हर्पित होय विमान के मार्ग होय पीछे पुण्डरीकपुरमें गई और भामंडल विमान से उतर स्नेह का भरा आंसू डारता भानजों से मिला, अतिहर्षित भया और प्रीतिका भरा हन. मान उरसे लगाय मिला और बारम्बार कहतो भया भली भई भली भई, और विभीषण सुग्रीव विराधित सव ही कुमारों से मिले, परस्पर हित संभाषण भया भूमिगोचरी विद्याधर सब ही मिले और देवोंका प्रा. गम भया सबों को अानन्द उपजा रौम पुत्रों को पाय कर अति आनन्द को प्राप्त भये, सकल पृथिवी के राज्य से पुत्रों का लाभ अधिक मानते भये. जोराम के हर्ष भया सो कहिवे में न आवे और विद्याधरी
आकाश में आनन्द से नृत्य करती भई और भूमिगोचरीयों की स्त्री पृथिवी में नृत्य करती भई और लक्ष्मण अापको कृतार्थमानता भया मानों सब लोक जीता इर्षसे फूलगये हैं लोचन जिसके और राम मन मनमें जानता भया में सगर चक्रवर्ती समान हूं और कुमार दोनों भीम और भगीरथ समान हे राम बज्रजंघ से ।
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पागा
॥६३८
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अतिप्रीत करताभया जो तुममेरे भामल समान हो अयोध्यापुरी तो पहिलेही स्वर्गपुरी समान थी तो | फिर कुमारों के प्रायवे कर अति शोभायमान भई जैसे सुन्दर स्त्री सहजही शोभायमानहोय और श्रृंगार
कर अति शोभाको पावे, श्रीराम लक्षमणसहित और दोनों पुत्रोंसहित सूर्यकी ज्योतिसमान जो पुष्पक विमान उसमें विराजे सूर्यसमानहै ज्योति जिनकी रामलक्षमण और दोनों कुमार अद्भुत आभूषण पहिरे सो कैसी शोभा बनी है मानों सुमेरुके शिखरपर महामेघ विजुरी के चमत्कार सहित तिष्ठा है।
भावार्थ-विमान तो मुमेरु का शिखर भया और लक्षमण महामेघका स्वरूपभया और गम तथा राम के पुत्र विद्युतसमान भय सोये चढ़कर नगरके वाह्य उद्यान विष जिनमंदिरहैं तिनके दर्शनको चले सो नगरके कोटपर ठौर २ ध्वजा चढी हैं ।तिनको देखते धीरे २ जायहैं लार अनेक राजा केई हाथियों पर चढ़े केई घोड़ों पर केई रों पर चढ़े जायहें और पियादों के समूह जाय हैं धनुष बाण इत्यादि । अनेक आयुध और ध्वजा छत्रों कर सूर्यकी किरण नजर नहीं पडे हैं और स्त्रियों के समूह झरोखों । में बैठी देखे हैं । लव अंकुशके देखबेका सबोंके बहुत कौतूहल है नेत्ररूप अंजलियोंकर लवणांकुश
के सुन्दरता रूप अमृतका पान करे हैं सो तृप्त नहीं होय एकाग्रचित्त भई इनको देखे हैं और नगर में नर नारियोंकी ऐसी भीड़भई किसीके हार कुंडलकी गग्य नहीं और नारीजन परस्पर बार्ता करे हैं कोई कहे है हे मातः टुक मुख इधर कर मुझे कुमारोंके देखिबे का कौतुक है । हे अखण्ड कौतुके तूने तो धनी बार लग देखे अब हमें देखने देवो अपनासिरनीचा करज्यों हमको दीखे कहां ऊंचा सिरकर रही है कोई कहे है हे सखि तेरे सिरके केश बिखर रहे हैं सोनीके समार और कोई कहे है हेक्षिप्तमान
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पद्म
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से कहिये एक ठौर नहीं चित्तजिसका तू कहा हमारे प्राणों को पीड़े है तू न देखे यह गर्भवती स्त्री खड़ी है पीड़ित है कोऊ कहे' टुक परे होहु कहा अचेतन होय रही है कुमारों को न देखनेदे हे यह दोनों रामदेव के कुमार रामदेव के समीप बैठे अष्टमी के चंद्रमासमान है ललाट जिनका कोई पूछे है इनमें लग कौन और अंकुश कौन यहतो दोनों तुल्यरूप भासे हैं तब कोई कहे है यह लाल वस्त्र पहिरे लवण है । और यह हरे वस्त्र पहिरे अंकुश है अहो धन्य सीता महापुण्यवती जिसने ऐसे पुत्रजने और कोई कहे है धन्य है वह स्त्री जिसने ऐसे वर पाए हैं एकाग्रचित्त भई स्त्री इत्यादि बार्ता करतीं भई इनके देखवे में है चित्त जिनकी प्रति भीड भई सो भीड में कर्णाभरणरूप सर्पकी डाढकर इसे गये हैं कपोल जिनके सोन जानती भई दगा है चित्त जिनका काहूकी कांची दाम जाती रही सो उसे खबर नहीं काहू के मोतियों के हार टूटे सो मोती बिखर रहें हैं। मानों कुमार ये सो ये पुष्पांजली बरसे हैं और केई एकों को नेत्रों की पलक नहीं लगे है सवारी दूर गई है तो भी उसी ओर देखे हैं नगरकी उत्तम स्त्री वेई भई वेलसा पुष्पवृष्टि करती भई सो पुष्पों का मकरंदकर मार्ग सुगंध होय रहा है श्रीराम प्रति शोभा को प्राप्त भये पुत्रसहित वन के चैत्यालयों का दर्शनकर अपने मंदिर आये कैसा है मंदिर महा मंगल कर पूर्ण है ऐसे अपने प्यारे जनोंके ग्रागनका उत्साह सुखरूप उसका वरणन कहां लग करिये पुण्य रूपी 1. सूर्य के प्रकाशकर फूला है मन कमल जिनका ऐसे मनुष्य वेईं अद्भुत सुख को पावें हैं ॥ इति १०३ पर्व पूर्ण अथानन्तर विभीषण सुग्रीव हनूमान् मिलकर राम से बिनती करते भये हे नाथ हम पर कृपा करो हमारी विनती मानों जानकी दुःख से तिष्ठे है इसलिये यहां लायवे की श्राज्ञा करो, तब राम दीर्घ उष्ण
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॥१४॥
निश्वास नाख क्षण एक विचार कर बोले, मैं सीता को शीलदोष रहित जानू हूं, वह उत्तम चित्त है। परन्तु लोकापवादकर घर से काढ़ा है अब कैसे बुलाऊं, इसलिये लोकों कोप्रतीति उपजायकर जानकी आबे तब हमारा उनका सहवास होय, अन्यथा कैसे होय इसलिये सब देशों के राजावों को बुलावो समस्त विद्याधर और भूमिगोचरी भावें सबों के देखते सीता दिव्य लेकर शुद्ध होय मेरे घर में प्रवेश करे जैसे शची इन्द्रके घर में प्रवेश करे तब सब ने कही जो आप अाज्ञा करोगे सोही होयगा तब सब देशों के राजा बुलाये सो वाल बृद्ध स्त्री परिवार सहित अयोध्या नगरी पाये जे सूर्य कोभी न देखें घरही में रहें वेनारी भी आई और लोकों की कहां बात जे वृद्ध बहुत बृतांत के जाननहारे देश में मुखिया सब दिशावों से आए कैयक तुरंगों पर चढ़े कैयक रथोंपर चढे तथा पालकी हाथी और अनेक प्रकार असवारियों पर चढ़े बड़ो विभति से आये विद्याधर आकाश के मार्ग होय विमान बैठे पाए और भूमिगोचरी भूमि के मार्ग प्राये मानों जगत् जंगम होयगया, रामकी आज्ञासे जे अधिकारीथे तिन्हों ने नगर के बाहिर लोगों के रहने के डेरे खडे काराए और महाविस्तीर्ण अनेक महिल बनाये तिनके दृहस्तंभ के ऊंचे मंडप उदार झरोखे सुन्दर जाली तिन में स्त्रिये भेली और पुरुष भेले भये पुरुष यथायोग्य बैठे दिव्य को देखने की है अभिलाषा जिनके जेते मनुष्य आए तिनकी सर्वभांति पाहुनगति राजद्वार के अधिकारियों ने करी, सबों को शय्या आसन भोजन तांबल वस्त्र सुगंध मालादिक समस्त सामग्री राज
द्वार से पहुंची सबों की स्थिरता करी और राम की प्राज्ञा से भामण्डल विभीषण हनुमान सुग्रीव विरा| धित रत्नजटी यह बडे बड़े राजा आकाश के मार्ग क्षणमात्र में पुण्डरीकपुर गए सो सब सेना नगर के
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पद्म
परण
बाहिर राख अपने समीपी लोगों सहित जहां जानकी थी वहां खाए जय जयशब्द कर पुष्पांजलि चढ़ाय ४१ ॥ पांयन को प्रणाम कर अति विनय संयुक्त प्रांगण में बैठे, तब सीता यांसू डारती अपनी निन्दा करती
भई दुर्जनों के वचनरूप दावानल का दग्ध भये हैं अंग मेरे सो क्षीरसागर के जलकर भी सींचे शीतल तब वे कहते भये हे देवि भगवति सौम्ये उत्तमे व शोक तजो और अपना मन समाधान में लावो इस पृथिवी में ऐसा कौन प्राणी है जो तुम्हारा अपवाद करे, ऐसा कौन जो पृथिवी को चलायमान करे और अग्नि की शिखा को पीछे और सुमेरु के उठायचे का उद्यम करे और जीभ कर चांद सूर्य्य को चाटे ऐसा कोई नहीं तुम्हारा गुणरूप रत्नों का पर्वत को चलाय न सके, और जो तुमसारिखी महा सतीयों का अपवाद करें तिनकी जीभ के हजार ट्रक क्यों न होवें हम सेवकों के समहको भेजकर जो कोई भरतक्षेत्र में अपवाद करेंगे उनदुष्टों का निपात करेंगे और जो विनयवान् तुम्हारे गुणगायवे में अनुरागी हैं उनके गृहमें रत्नदृष्टि करेंगे यह पुष्पक विमान श्रीरामचन्द्र ने भेजा है उस में वरूप होय अयोध्या की तरफ गमन करो सब देश और नगर और श्री राम का घर तुम बिना न सोह जैसे चन्द्र कला बिना आकाशन सोहे और दीपकविना मंदिर न साहे और शाखा बिना वृक्ष न सोहे हे राजा जनककी पुत्री आज रामका मुखचन्द्र देखो. हे पंडिते पतित्रते तुमको अवश्य पतिका बचन मानना जब ऐसा कहा तब सीता मुख्य सहेलियों को लेकर पुष्पक विमान में श्रारूढ़ होय शीघ्रही सन्ध्या के समय अयोध्या आई सूर्य अस्त होय गया सो महेन्द्रोयनामा उद्यान में रात्री पूर्ण करी आगे राम सहित यहां आती थी सो बन अति मनोहर दीखता था सो अब राम बिना रमणीक न भाषा
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अथानन्तर सूर्य उदय भया कमल प्रफुल्लितभये जैस राजाके किंकर पृथिवी में बिचरेंतैसे मूर्यकी पुराण | किरण पृथिवी ने बिस्तरी जैसे दिब्य कर अपबाद नस जाय तैसे सूर्य के प्रताप कर अंधकार दूर
भया तब सीता उत्तम नारियों कर युक्त राम के समीप चली हथनी पर चढ़ी मन की उदासीनता । कर हती गई है प्रभा जिसकी तौभी भद्र परिणामकी धरणहारी अत्यन्त सोहतीभई जैसेचन्द्रमाकीकला ताराओंकर मंडित सोहे तैसे सीता सखियोंकर मंडित सोह सब सभा विनय संयुक्त सीताको देख वंदना करते भये यह पापरहित धीरताकी करणहारी रामकी रमा सभा में पाई राम समुद्र समान क्षोभ को प्राप्त भये लोक सीताके जायकर विषाद के भरे थे और कुमारों का प्रताप देख पाश्चर्य के भरे भये अब सीता के प्रायवे कर हर्ष के भरे ऐसे शब्द करते भए हे माता सदा जयवन्त होवो नादो वरधो फूलो फलो धन्य यह रूप धन्य यह धीर्य धन्य यह सत्य धन्य यह ज्योति धन्य यह महानुभावता धन्य यह गंभीरता धन्य निर्मलता ऐसे वचन समस्तही नर नारियों के मुख से निकसे आकाश में विद्याधर भमिगोचरी महा कौतुक भरे पलक रहित सीता का दर्शन करते भए । और परस्पर कहतेभए पृथ्वी के पुण्यके उदय से जनकसुतो पीछे आई, कैएक तो वहां श्रीरामकी ओर निरखे हैं जैसे इन्द्रकी ओर देव निरखें कैएक रामके समीप बैठे लव और अंकुश तिनको देख परस्पर कहे हैं ये कुमार राम के सदृशहीहैं
और कई एक लक्षमणकी अोर देखे हैं कैसाहै लक्षमण शत्रुवों के पक्षके क्षय करिबे को समर्थ और कई शत्रुघ्नकीबोर का एक भामण्डलकी अोर कईएक हनूमानकी ओर कईएक विभीषणकी ओर कईएक विरा|| धितकी ओर और कईएक सुग्रीव की ओर निरखेहैं और कई एक आश्चर्यको प्राप्तभए सीताकीओर देखेहैं |
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पुराण 18४३॥
अथानन्तर जानकी आगे जायकर रामको देख श्रापको वियोग सागर के अन्तको प्राप्त भई | मानती भई, जब सीता सभामें आई तब लक्षमण अर्घ देय नमस्कार करता भया, और सब राजा प्रमाण
करते भए सीता शीघ्रता कर निकट श्रावने लगी तब राघव यद्यपि अक्षोभित हैं तथापि सकोप होय मनमें विचारते भये इसे विषम बन में मेलीथी सो मेरे मनकी हरणहारी फिर आई । देखो यह महाँ ढीठ हैं मैं तजी तौभी मोसे अनुराग नहीं छाडे है यह रामकी चेष्टा जान महा सती उदास चित्त होय विचारतीभई मेरे वियोगका अन्त नहीं पाया मेरा मनरूप जहाज विरह रूप समुद्र के तीर प्राय फटा चाहे है । ऐसी चिन्त से व्याकुल चित्तभई पगके अंगूठेसे पृथिवी कुचरती भई बलदेवके समीप भामंडल की बहिन कैसी सोहे है जैसी इन्द्र के आगे सम्पदा सोहे तब राम बोले हे सीते मेरे आगे कहां तिष्टहै तू परे जा में तेरे देखने का अनुरागी नहीं मेरी अांख मध्यान्हके सूर्य और प्राशी विष सर्प तिन को देख सके परन्तु तेरे तनु को न देख सके हैं तू बहुत मास दशमुख के मन्दिर में रही अब तुझे घर में गरूना मुझे कहां उचित तब जानकी बोली तुम महा निर्दई चित्तहो तुमने महा पण्डित होयकर भीमद लोकन की न्याई मेरा तिरस्कार कीया सो कहां उचित मुझे गर्भवती को.जिनदर्शन का अभिलाष उपजा था सो तुम कुटिलता से यात्रा का नाम लेय विषम वनमें डारी यह कहां उचित, मेरा कुमरण होता और कुगति जाती इसमें तुमको कहां सिद्ध, जो तुम्हारे मनमें तजवे की थी तो आर्यिकावों के समीप मेली हुतो ।
जे अनाथ दीन दलिदी कटुम्ब रहित महा दुखी तिनको दुख हरिवेका उपाय जिनशासन का शरण है इस | समान और उत्कृष्ट नहीं, हे पद्मनाभ तुम करने में तो कळू कमी नकरी, अबप्रसन्न होवो आज्ञा करो सो
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पद्म
६४४ ॥
1
करूं यह कहकर दुख की भरी रुदन करती भई । तब राम बोले हे देवि मैं जानू हूं तिहारा निर्दोषशील पुरा है और तुम निपाप अणुव्रत की धरणहारी मेरी आज्ञा कारिणी हो तुम्हारे भावनकी शुद्धता में भलि भांति जाहूं परन्तु ये जगत् के लोक कुटिल स्वभाव हैं । इन्होंने वृथातुम्हारा अपवाद उठाया सो इनका सन्देह मिटे और इनको यथावत् प्रीतीति यावे सो कर. तब सीता ने कही आप याज्ञा करो साही प्रमाण जगत् में जेते प्रकार के दिव्य हैं सो सभ कर के पृथिवी का सन्देहं हरू, हे नाथ विषों में महा विष कालकूट है जिसे सूकर आशी विष सर्प भी भस्म होय जाय सो मैं पीऊं और अग्नि की विषम ज्वाला में प्रवेश करूं और जो श्राप श्राज्ञा करो सो करू तत्र क्षण एक विचार कर राम बोले अग्नि कुण्ड में प्रवेश करो, सीता महा हर्ष की भरी कहती भई यही प्रमाण तब नारद मन में विचारते भये यह तो महासती है परन्तु अग्निका कहाँ विश्वास इसके मृत्य यासंगी और भामण्डल हनूमानदिक महा कोप से पीडित भये और लवकुश माता का अग्नि में प्रवेश करवेका निश्चय जान अति व्याकुल भये और सिद्धार्थ दोनों भजा ऊंची कर कहता भया हे राम देवों से भी सीता के शील की महिमा न कही जाय तो मनुष्य कहाँ कहें। कदाचित् सुमेरु पाताल में प्रवेश करे और समस्त समुद्र सूक जाय तो भी सीता का शीलवत चलायमान न होय, जो कदाचित् चन्द्र किरण उष्ण होय, और सूर्य किरण शीतल होय तो भी सीताको दूषण न लगे मैं विद्या के बल से पंच सुमेरु में तथा जे और अकृत्रिम चैत्यालय शास्वते वहां जिनबन्दना करी पद्मनाभ सीताके व्रत की महिमा में ठौर ठौर मुनियों के मुग्वसे सुनी है इसलिये तुम महा विचक्षण हो महासती को आाग्न प्रवेश की आज्ञा न करो और आकाश में विद्याधर र पृथिवी में
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18४५०
पद्म भूमिगोचरा सब यही कहते भये हे देव प्रसन्न होय सौम्यता भजो हे नाथ अग्निसमान कठोर चित्त न करो पुराण, सीता सती है सीता अन्यथा नहीं अन्यथा जे महा पुरुषों की राणी हो । कद ही विकार रूप न हों।
सब प्रजा के लोक यही वचन कहते भये और ब्याकुल भये मोदी मोटी आंसूत्रों की बन्द डारते भये तम रामने कही तुम ऐसे दयावान् हो पहिले अपवाद क्यों उठाया रामने किंकरों को श्राज्ञा करी एक सीनसे हाथ चौखुटिया वापी खोदो और सूके ईधन चन्दन और कृष्णागुरु तिनकर भरो और अग्निसे जाज्वल्यमानकरी साक्षात् मत्युकास्वरूप कगे तव किंकरो'ने प्राज्ञा प्रमाण कुद्दालों से खोद अग्निवापिका बनाई और उसी रात्री कोमहेन्द्रोदय नामा उद्यान में सकलभूषण मुनिको पूर्व वैर के योग से महारौद्र विद्युद्धक्रनामा राक्षसी ने अत्यन्त उपसर्ग कीया सो मुनि अत्यंत उपसर्ग को जीत केवलज्ञान की प्राप्त भये। यह कथा सुन गौतमस्यामी से श्रेणिक ने पूछी । हे प्रभो राक्षसी के और मुनि के पूर्व बैर कहाँ ? तब गौतमस्वामी कहते भये । हे श्रेणिक सुन विजियार्द्ध गिरिकी उत्तर श्रेणी में महा शोभायमान गुंजमामा नगर वहां राजा सिंहविक्रम राणी श्री जिसके पुत्र सकलभूषण उसके स्त्री पाटसै तिन में मुख्य किरण मण्डला सो एक दिन उसने अपनी सौकिन के कहे से अपने मामा के पुत्र हेमशिख का रूप चित्रपट में लिखा सो सकलभूषण ने देख कोप कीया तव सब स्त्रियों ने कही यह हमने लिखा है इसका कोई दोष नहीं तव सकलभूषण कोप तज प्रसन्न भया एक दिन यह किरणमण्डला पतिनता पलि सहित सूती थी सो प्रमाद थकी घरडकर हेमशिख ऐसा नोम कहा सो यह तो निषि इसके हेमशिख भाई की वृद्धि और सकलभूषण ने कछ और भाव विधारा राणीसे कोपकर बैराश्य को प्राप्त भए और राणी किरणमंडला।
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पक्षमा प्रार्गका मई परन्तु धनी प प भाव जो इसने झूठा दाप लगाया सो मर कर विद्युद्रक नामा राक्षसी । SHUN मई मो पूर्व वैर थकी सकलभूषण स्वामी अाहारको जाय तब यह अंतराय करे कभी माने हाथियों के
बन्धन तुड़ाय देय हाथी ग्राम में उपद्रव करें इनको अंतराय होय कमी यह अाहार को जांय लव अग्नि लगाय देय कभी यह रजोवृष्टि करे इत्यादि नाना प्रकार के अन्तराय करे कभी अश्व का कभी बृषभ का रूपकर इनके सन्मुख अावे कभी मार्ग में कांटे बखेरे इसभान्ति यह पापिनी कुचेष्टा करे एक दिन स्वामी कायोत्सर्ग धर तिष्ठे थे और इसने शोर किया यह चोर है सो इसका शोर सुनकर दुष्टों ने पकड़े अपमान किया फिर उत्तमपुरुषों ने छुड़ायदिए एकदिन यह अाहार लेकर जातेथे सो पापिनी राक्षसी ने काह स्त्री का हार लेकर इनके गले में डार दिया और शोर किया कि यह चोर है हार लिये जायहै तब लोग आय पहुंचे इनको पीडा करी हार लिया भले पुरुषों ने छुड़ायदिये इसभांति यह क्रूरचित्त दयारहित पूर्व बैर विरोध से मुनि को उपद्रव करे. गई रात्रि को प्रतिमा योगधर महेंद्रोदय नामा उद्यान में विराजे थे सो राक्षसी ने रौद्र उपसर्ग किया वितर दिखाये और हस्ती सिंह व्याघ सर्प दिखाए और रूप गण मंडित नाना प्रकार की नारी दिखाई भांति भांतिके उपद्रव किए परन्तु मुनि का मन न डिगा तब केवलज्ञान उपजा सो केवल की महिमा कर दर्शन को इन्द्रादिक देव कल्पवासी भवनवासी व्यंतर जोतिशी कैयक हाथियों पर चढ़े कैयक सिंहोंपरचढे कैयक ऊंट खच्चर मीढा वघेरा अष्टापद इन पर चढ़े
कैयक पक्षियों पर चढ़े कैयक विमान बैठे कैयक रथों चढ़े कैयक पालकीचढे इत्यादि मनोहर बाहनों | पर चढ़े पाए, देवों की असवारी के तिर्यंच नहीं देवों ही की माया है देव ही विक्रीयाकर तियच का |
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पद्म
चरा
१६४७
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रूप घरे हैं आकाश के मार्ग होय महा विभूति सहित सर्व दिशा में उद्योत करते आए मुकटघरे हार कुण्डल पहिरे अनेक ग्राभूषणों कर शोभित सकलभूषण केवली के दर्शन को प्राये पवन से चंचल है ध्वजा, जिनकी अप्सरावों के समूह सहित अयोध्या की ओर आए महेंद्रोदय उद्यानमें केवली विराजे हैं तिनके चरणारविंद विषे है मन जिनका पृथ्वी की शोभा देखते आकाश से नीचे उतरे और सीता के दिव्य को अग्निकुंड तयार होय रहाथा सो देखकर एक मेघकेतु नामा देव इन्द्रसे केहता भया हे देवेंद्र हे नाथ सीता महासतीको उपसर्ग आय प्राप्त भया है यह महाश्राविका पतिव्रता शीलवंती अति निर्मल चित्तहै इसे ऐसा उपद्रव क्यों होय तब इंद्रने आज्ञा करी हे मेघकेतु मैं सकलभूषण केवली के दर्शन को जाऊं हूं और तु महासतीका उपसर्ग दूर करियो इसभांति आज्ञाकर इन्द्रतो महेंद्रोदय नामा उद्यान में केवल के दर्शनको गया और मेघकेतु सीता के अग्निकुंड के ऊपर चाय श्राकाश विषे विमान
तिष्ठा कैसा है विमान सुमेरुके शिखर समान है शोभा जिसकी वह देव श्राकाशविषे सूर्य सारिखा देवीमान श्रीरामका और दखे गम महासुन्दर सब जीवों के मनको हरें हैं ।। इति १०४वां पर्व संपूर्णम् ।।
यान्तर श्रीराम उस अग्निवाका को निरखकर व्याकुल मन भया बिचारे है अब इस कांता को वहां देखूंगा यह गुणों की खान महा लावण्यता कर युक्त कांतिकी धरणाहारी शील रूप बस्त्रकर मंडित मालती की माला समान सुगंध सुकुमार शरीर अग्नि के स्पर्शही से भस्म होय जायगी जो यह राजा जनक के घर न उपजती तो भला था यह लोकापवाद अग्नि विषे मरण तो न होता इस बिना के भी सुख नहीं इस सहित वनमें वास भला और इस बिना स्वर्गका वास भी भला
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पागा
नहीं यह महा शलवन्ती परम श्राविकाहै इसे मरणका भय नहीं यह लोक परलोक मरण वेदना प्रक ॥६४८० स्मात असहायता चोर यह सप्तभया तिनकर रहित सम्यकदर्शन इसके दृढहै यह अग्नि विषे प्रवेश
करेगी और मैं रोकू तो लोगोंमें लज्जा उपजे और यह लोक सब मुझे कह रहे यह महा सती है याहि
आग्नकुंड में प्रवेश न करावो सो में न मानी और सिद्धार्थ हाथ ऊंचे कर कर पुकागदं न मानी सो वह भी चुपहोय रहा अब कौन मिसकर इसे अग्नि कुण्डमें प्रवेश न कराऊं अथवा जिसके जिस भांति मरण उदय होय है उसी भांति होय है टारा टरे नहीं तथापि इसका वियोग मुझसे सहान जाय इसभांति राम चिंता करे हैं और वापा में अग्नि प्रज्वलित भई समस्त नर नारियों के प्रांसुवों के प्रवाह चले धम कर अंधकार होय गया मानों मेघमाला प्रकाश में फैलगई श्राकाश भ्रमर समान श्याम होय गया अथवा कोकिल स्वरूप होयगया अग्नि के धमकर सूर्य प्राछादित हुश्रा मानों सीता का उपसर्ग देख नसका सो दयाकर छिपगया ऐसी अग्नि प्रज्वली जिसकी दूरतक ज्वाला विस्तरी मानों अनेकसूर्य ऊगे अथवा अाकाश में प्रलयकाल को सांझ फूली जानिये दशों दिशा स्वर्णमई होय गई हैं मानों जगत्. विजुरीमय होय गया अथवा सुमेरुके जीत को दूजा जंगम सुमेरु और प्रकटा नव सीता उठी अत्यन्तनिश्चलचित्त कायोत्सर्ग कर अपने हृदय में श्री ऋषभादि तीर्थकरदेव विराजे हैं तिनकी स्तुतिकर मिद्धोंको साधुवों को नमस्कार कर श्री मुनिसुव्रत नाथ हरिवंश के तिलक वीसमा तीर्थकर जिन के तीर्थ विषे ये उपजे हैं तिन का ध्यान कर सर्व प्राणियोंके हितु आचार्य तिनको प्रणाम कर सर्व जीवों मे क्षमाभाव कर जानकी कहती भई मन कर वचनकर काय कर स्वप्न विषे भी राम बिना और पुरुष में नजाना जो
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גי
में झूट कहती हूं तो यह अग्निकी ज्वालाक्षणमात्रमें मुझे भस्म करियो जो मेरे पतिव्रताभाव में अशुद्धता पुरा होय राम सिवाय और नर मन से भी अभिलाषा होय तो हे वैश्वानर मुझे भस्म करियो जो मैं मिथ्या ४६ ॥ दर्शनी पापिनी व्यभिचारिणी हूं तो इस अग्नि से मेरी देह दाह को प्राप्त होवे और जो मैं महा मती पतिव्रता अणुव्रत धारणी श्रावका हूं तो मुझे भस्म न करियो, ऐसा कह कर नमोकार मन्त्र जप सीता सती अग्निवापिका में प्रवेश करती भई सो इसकेशील के प्रभाव से अग्नि यी सो स्फटिक मणि मारिखा निर्मल शीतल जल होयगया मानों धरती को भेदकर यह वापिकापाताल से निकसी जल में कमल फूल रहे हैं भ्रमर गुंजार करें हैं अग्निकी सामग्री सब बिलाय गई न ईन्धन न अंगार जलके उठने लगे और अति गोल गंभीर महा भयंकर भ्रमण उटने लगे जैसी मृदंग की ध्वनि होय तैसे शब्द जल में होते भये जैसा चोभको प्राप्तभया समुद्र गाजे तैसा शब्द वापी विष होताभया और जलउछला पहले गोड़ों तक आया फिर कमर तक आया फिर निमिषमात्रमें छातीतक याया तब भूमिगोचरी डरे और आकाश में विद्याधर थे तिनकोभी विकल्प उपजा न जानिये क्या होय फिर वह जल लोगों के केतक आयात प्रतिभय उपजा सिर ऊपर पानी चला तब लोग अतिभयको प्रासभये ऊंची भुजाकर बस्त्र और बालकों को उठाय पुकार करते भये हे देवि लक्ष्मी हे सरस्वती हे कल्यागा रूपनी हे धर्मधुरंधर हे मान्ये हेप्राणी दयारूपणी हमारीर चाकरो हे महासाधी मुनिसमान निर्मल मनकीचरणहारी दया करो हे माता वत्रावो २ प्रसन्नहोवो जबऐसे वचन विह्वल जो लोक तिनके मुखसे निकसे तब माता की दया से जल थंभा लोक बचे जलविषे नानाजाति के ठौर ठौर कमल फले जल सौम्यताको प्राप्तभया जे भवणउठेथेसो
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पगगा। 18५०
पन । मिटे और भयंकर शब्द मिटे वह जल जो उछला था सो मानो कापी रूप वधू अपने तरंगरूप हस्तोंकर माता । | के चरण चगल स्पर्शती थी कैसे हैं चरण युगल कमल के गर्भ से अति कोमल हैं और नखोंकी ज्योति कर देदीप्यमान हैं जल में कमल फले तिनकी सुगंधता कर भ्रमर गजार कर हैं सो मानो संगीत करे ह
और क्रौंच क्या हंस तिन के समह शब्द कर हैं अति शोभा होय रही है और मणि स्वर्ण के सिवाण वन गये तिनको जल के तरंगों के समह स्पर्श हैं और जिसके तट मरकत मणि कर निर्माप अति सोह हैं ऐसे सरोवर के मध्य एक सहस्रदलका कमल कोमल विमल विस्तीर्ण प्रफुल्लित महाशुभ उसक मध्य देवोंने सिंहासन रचा रत्नोंकी किरणोंकर मंडित चन्द्र मंडल तुल्य निर्मल उसमें देवांगनापान सीताका पधराई और सेवा करतीभई सो सीता सिंहासनमें तिष्टी अति अद्भुतहै उदय जिसका शची तुल्य सोहती भई अनेक देव चरणों के तल पुष्पांजली चढ़ाय धन्य धन्य शब्द कहतेभए अाकाश में कल्प वृक्षा के पुष्पोंकी बृष्टिकरते भए और नाना प्रकार के दुन्दभी बाजे तिनके शब्द कर सब दिशा शब्द रूप होती भई गुञ्ज जाति के वादिन महा मधुर गुजार करते भये और मृदंग वाजते भए ढोल दमामा बाजे नांदी जाति के वादित्र वाजे और कोलाहल जातिके वादित्र बाजे और तुरही करनाल अनेक वादित्र वाजे शंखों के समूह शब्द करते भए और बीण बांसुरी बाजी ताल झांझ मंजीर झालरि इत्यादि अनेक वादित्र बाजे विद्याधरोंके समूह नाचते भए और देवों के यह शब्द भए श्रीमत् जनक राजाकी पुत्री एरम उदयकी धरणहारी श्रीमतरामकी गणी अत्यन्त जयवन्त होवे अहो निर्मल शील जिसका आश्चर्यकारी ऐसे शब्द सब दिशाविषे देवोंके होतेभये तब दोनों पुत्र लवण अंकुश कृत्रिम
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पद्म परीण 18५॥
। है मातासे हित जिनका सोजल तिरकर अतिहर्षके भरे माताके समीप गए दोनों पुत्र दोनों तरफ जाय । ठाढ़े भए, माता को नमस्कार किया सो माताने दोनों के सिर हाथ धरा रामचन्द्र मिथिलापुरी के राजा की पुत्री मैथिला कहिए सीता उसे कमलबासिनी लक्ष्मी समान देख महाअनुरागके भरे समीप गए कैसी हैं सीता मानों स्वर्णकीमूर्ति अग्निमें शुद्ध भई है अति उत्तमज्योतिके समूहकर मंडितहै शरीर जिसका राम कहे हैं हे देबि कल्याणा रूपिणी उत्तम जीवोंकर पूज्य महा अद्भुत चेष्टा की धरणहारी शरदंकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान है मुख जिसका ऐसी तुमसो हमपर प्रसन्न होवो अब मैं कभी ऐसा दोष न करूंगा जिसमें तुमको दुःखहोय हे शील रूपिणी मेरा अपराध क्षमा करो मेरेअाठ हजार स्त्री हैं तिनकी सिरताज तुम हो मोको आज्ञा करो सो करूं हे महासती मैं लोकापवाद के भय से अज्ञानी होयकर तुमको कष्ट उपजाया सो क्षमा करो और हे प्रिय पृथ्वीमें मो सहित यथेष्ट बिहार को यह पृथ्वी अनेक बन उपबन गिरियों कर मंडित है देव विद्याधरोंकर मंयुक्तहै समस्त जगतकर श्रादर मो पूजी थकी मो सहित इस लोक विष स्वर्ग समान भोग भोगो उगते सूर्यसमान यह पुष्पक विमान उममें मेरेसाहत प्रारूढ भई सुमेरु पर्वतकेवन विषे जिनमंदिर तिनका दर्शनकर और जिन जिन स्थानोंविषे तेरीइच्छा होय वहांक्रीड़ा कर हे कांते तू जो कहेसोही मैं करूं तेरावचन कदाचितनउलंघू । देवांगनाममान वह विद्याधारी तिनकर मंडित हेबुद्धिवंतीतू ऐश्वर्यको भज जो तेरी अभिलाषा होयगी सो तत्काल सिद्धहोयगी में विवेकरहित दोषक सागरमें मग्न तेरेसमीप यायाहूं हेमाधि अब प्रसन्नहोवो।।
अथानन्तर जानकी बोली हे राम तुम्हारा कुछ दोष नहीं और लोकों का दोष नहीं मरे पूर्वो
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पद्म । पार्जित अशुभ कर्भके उदयसे यह दुःख भया मेरा काहू पर कोप नहीं तुम क्यों विषाद को प्राप्तभए M. हे बलदेव तुम्हारे प्रसाद से स्वर्ग समान भोग भोगे अब यह इच्छाहै ऐसा उपाय करूं जिसपर स्त्री
| लिंग का अभाव होय यह महातून विनश्वर भयंकर इंद्रियों के भोग मूढ जनोंकर सेव्य तिनकर कहां प्रयोजन में अनन्त जन्म चौगसी लत यानि विषे खेद पाया अबसमस्त दुःवके निवृतिके अर्थ जिने श्वरी दिक्षा धरूंगी ऐसा कहकर नवीन अशोक वृक्ष के पल्लव समान अपने जेकर तिनकर सिरके केश उपाड रामके समीप डारे सो इन्द्र नील मणिसमान श्याम सचिवण पातरे मुगंधवक्र लम्बायमान महामृदु महा मनोहर ऐसे केशोंको देखकर गम मोहित होय मी खाये पृथ्वी में पड़े सो जौलग इन को सचेत करें तौलग साता पृथ्वीमती अार्यिका पै जायकर दीक्षा धरती भई एक वस्त्र मात्र परिग्रह जिसके और सब परिग्रह तजकर आर्यिका के व्रत घरमहा पवित्र परम पवित्र परम बैराग्यकर युक्तव्रत कर शोभायमान जगत के बंदिवे योग्य होतामई और राम अचेतभयथेसो मुक्ता फल और मलियागिरि चन्दन के छांटिबे कर तथा ताड़ के वाजनों की पवन कर सचेत भए तब दशों दिशा की ओर देखें ता साता को न देख कर चित्त शून्य होगया, शोक और कषायकर युक्त महा गजराज पर चढ़ सीता की
ओर चले सिर पर छत्र फिरे है चमर दुरे हैं जैसे देवों कर मंडित इन्द्रचले तैसे नरेन्द्रों कर युक्त राम चले कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके कपाय के वचन कहते भए अपने प्यारे जन का मरण भला परन्तु घिरद्द भला नहीं देवों ने सीता का प्रतिहार्य किया सो भला दिया पर उसने हम को तजना विचारा सो भला न किया अब मेरी राणी जो यह देव न देंतो मे रे और देवों के युद्ध होयगा यह देव न्यायवान होयकर मेरीस्त्री
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18५३
पन क्यों हरें ऐसे अविचार के वचन कहे लक्ष्मण समझावे सो समाधान न भया और क्रोध संयुक्त श्री घराण। रामचन्द्र सकल भूषण केवली की गन्ध कुटी को चले सो दूर से सकल भूषण केवली की गन्ध कुटी ।
देखी केवली महा धीर सिंहासन पर विराजमान अनेक सूर्य की दीप्ति घरे केवली ऋद्धि कर युक्त । पापों के भस्म करिख को साक्षात् अग्नि रूप जैसे मेघपटल रहित सूर्य का रिम्ब सोहे तैसे कर्म पटल।
केवली ज्ञान के तेजकर परम ज्योति रूप भासे हैं इन्द्रादिक समस्त देव सेवा करे हैं दिव्य ध्वनि खिरे है धर्म का उपदेश होय है सो श्रीराम गन्धकुटी को देख कर शांतचित्त होय हाथी से उतर प्रभ के समीप गए तीन प्रदक्षिणा देय हाथ जोड़ नमस्कार किया भगवान् केवली मुनियों के नाथ तिन का दर्शन कर अतिहर्षित भए बोरम्बार नमस्कार किया केवली के शरीर की ज्योति की छटा राम पर
आय पड़ी सो अतिप्रकाश रूप होय गए भाव सहित नमस्कार कर मनुष्यों की सभा में बैठे और चतुर निकाय के देवों की सभा नाना प्रकार के प्राभूषण पहिरे ऐसी भासे मानों के वली रूप जे गव तिनकी किरण ही है और राजावों के राजा श्रीरामचन्द्र केवली के निकट ऐसे सोहे हैं मानों सुमेरु के शिखर के निकट कल्पवृक्ष ही हैं और लक्ष्मण नरेन्द्र मुकट कुण्डल हारादि कर शोभित कैसे सोहें मानों विजुरी सहित श्याम घटो ही है और त्रुध्न शत्रुवों के जीतनहारे ऐसे सोहे मानों दूसरे कुवर ही हैं और लव अंकुश दोनों पीर महा धीर महा सुन्दर गुण सौभाग्य के स्थानक चांद सूर्य से सोहैं
और सीता आर्यिका आभूषणादि रहित एक वस्त्र मात्र परिग्रह ऐसी सोहे मानों सूर्यकी मूर्ति शांतता को प्राप्त भई है मनुष्य और देव सब ही विनय संयुक्त भूमि में बैठे धर्मश्रवण की है अभिलाषा ।
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- प ६५४॥
Our
जिनके वहां एक अभयघोष नामा मुनि सब मुनियों में श्रेष्ठ संदेह रूप पाताप की शांतिके अर्थ केवला से पूछते भए हे सर्वोत्कृष्ट सर्वज्ञदेव ज्ञानरूप शुद्ध आत्मा तत्वका स्वरूप नीके जानने से मुनिनको केवल बोघहोयउसका निर्णयकरो, तब सकलभूषण केवली योगीश्वरोंके ईश्वरकर्मोंके क्षयका कारण तत्वका उपदेश दिव्यध्वनिकर कहतेभए हे श्रेणिक केवलीने जो उपदेशदिया उसकार हस्य में तुमको कहूं हूं जैसेसमुद्र में से एक बन्द कोई लेयतैसे केवलीकी वाणी अतिप्रथाहउसके अनुसार संक्षेपव्याख्यान करूं हूं सोसुनो॥ ___हो भव्य जीव हो अात्म तत्व जो अपना स्वरूप सो सम्यक् दर्शन ज्ञान आनन्द रूप
और अमूर्तीक चिद्रप लोक प्रमाण असंख्य प्रदेशी अतेंद्री अखंड अव्याबाघ निराकार निर्मल निरंजन पर वस्तुसे रहित निज गुण पर्याय स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभाव कर अस्तित्व रूप है जिसका ज्ञान । निकट भव्यों को होय शरीरादिक पर वस्तु, असार हैं अात्मतत्व सार है सो अध्यात्म विद्या कर पाइये है वह सब का देखन हारो जाननहारा अनुभव दृष्टि कर देखिये आत्मज्ञान कर जानिये और जड़ पदार्थ पुद्गल धर्म अधर्मकाल आकाश ज्ञेयरूपहें ज्ञाता नहीं और यह लोक अनन्ते पालोका काश के मध्य अनन्त में भाग तिष्ठे हैं अधोलोक मध्य लोक ऊर्घलोक ये तीनलोक तिनमें सुमेरु पर्वतकी जड़ हजार योजन उसके तले पाताल लोक है उसमें सूक्ष्म स्थावर तो सर्वत्र हैं और बादरास्थावर अाधार में हैं विकलत्रय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच नहीं मनुष्य नहीं खरभाग पंकभाग में भवनवासी देव तथा वितरदेवोंके निवास हैं तिनके तले सात नरक हे तिनके नाम रत्नप्रभा १ शर्करी २ वालुका ३ पंकप्रभा ४ धूमप्रभा५ तमःप्रभा ६ महातमप्रभा ७ सो सातोंही नरक की धरा महा दुःखकी देने हारी सदा अन्धकाररूपहै चार
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'पराया ॥६५५
| नरकमें तो उष्णका बाधा है और पांचवें नरक ऊपर ले तीनभाग ऊष्ण और नीचला चौथा भाग शीत
और छठे नरक शीतही हैं और सातमें महा शीत ऊपरले नरकों में ऊष्णता है सो महा विषम और नीचले नरकों में शीत है सो अति विषम नरककी भूमि महा दुस्सह परम दुर्गम हैं जहां राधि रुधिर का कीच है महादुर्गंध है श्वान सर्प मार्जार मनुष्य खर तुरंग ऊंट इनका मृतक शरीर सड़जाय उसकी दुर्गंधसे असं ख्यातगुणी दुर्गपहे वहां नानाप्रकार दुखोंके सर्वकारणहें और पवन महा प्रचण्ड विकरालचले है जिसकर भयंकर शब्द होय रहा है जे जीव विषय कपाय संयुक्त हैं कामी हैं क्रोधी हैं पंचइन्द्रियोंके लोलुपी हैं जैसे लोहेका गोला जलमें डूबे तैसे नरकमें ड्वें हैं जे जीवोंकी हिंसाकरें मृषाबाणी बोलें परघन हरें परस्त्रीसेवें महा प्रारम्भीपरिग्रही वे पाप के भार कर नरक के विषे पड़े हैं मनुष्य देह पाय जे निरन्तर भोगासक्त भये हैं जिनके जीभ क्श नहीं मन चंचल वे पापी प्रचण्ड कर्म के कर्णहारे नरक जाय हैं जे पाप करें करावें पापका अनुमोदना करें वे आर्तरौद्र ध्यानी नरक के पात्र हैं वह वजाग्नि के कुण्डमें डारिये हैं वजाग्नि के दाह कर जलते थके पुकारे हैं अग्नि कुण्डसे छूटे हैं तब वैतरणी नदीकी ओर शीतल जल की बांछा कर जाय हैं वहां जल महा चार दुर्गघ उसके स्पर्शही से शरीर गल जाय है । दुखका भाजन वैक्रियक शरीर उसकर पाय पर्यंत नाना प्रकार दुख भोगवे हैं पहिले नरक अायु उत्कृष्ट सागर १ दूजे तीन तीजे ७ चौथे १३ पांचवें १७ छठे २२ सातमें ३३ सो पूर्णकर मरे हैं मार से मरे नहीं वैतरणी के दुख से डर छायाके अर्थ असिपत्र बन में जाय हैं वहां खडग बाण बरछी कटारी समान पत्र असराल पान कर पड़े हैं तिनकर तिनका शरीर विदारा जायहै पछाड़ खाय भूमि में पड़े हैं और तिन का
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पप्र की कु नी पाक में यकावे हे कभी नीवा माथा ऊंचा पंग कर लटकावें हैं मुदगरों से मारिये हैं कहाड़ों।
से काटिय हं करातनसे विदारिये हैं पानी में पेलिये हैं नानाप्रकारके छेदन भेदन हैं यह नारकी जीव महा दान महा तृषा कर तृषित पाने को पानी मांग हैं तब तांबादिक गाल प्यावे हैं वे कहे हैं हमको यहाँ तृपा नहाँ हमारा पाया छोड़ दो तब बलात्कार तिनको पछाड़ सण्डासियोंसे मुख फाड मार २ प्यावे हैं कण्ठ हृदय विदीर्णहोय जाय हैं उदर फट जाय है तीजे नस्कतक तो परस्परभी दुःख है और अमुर कुमारों की प्रेरणासे भी दुःख है और चौथे से लेयसातवें तक असुरकुमारोंका गमन नहीं परस्परही पीडाउपजावे हैं नरक मे नीचले से नीचले बढ़ता दुःख है सातवांनरक सबोंमें महादुःख रूप है नारकीयों को पहिलाभव याद
आवे है और दूसरे नारकी तथा तीजे लगअसुर कुमार पूर्वले कर्म याद करावें हैं तुम भले गुरुवों के बचन उलंघ कुगुरु कुशास्त्र के बलकर मांस को निर्दोष कहते थे नानाप्रकार के मांसकर और मधु कर मदिरा कर कूदेवोंका अाराधन करते थे सो मांसके दोषसे नरक में पडे हो ऐसा कहकर इनही काशरीर काट २ इन के मुख में देय हैं और लोहे के तथा तांबे के गोला बलते पछाड २ मंडासियों से मुख फाड़ २ छाती पर पांव देय २ तिनके मुख में घाले हैं और मुद्गरों से मारे हैं और मद्य पानीयों को मार २ । तातातावां शीशा प्यावे हैं और परदारारत पापियोंको बज्राग्निकर तप्तायमान लोहे की जे पूतली तिन से लिपटायें हैं और जे परदारारत फूलोंके सेज सूते हैं तिनको मूलों की सेजऊपर मुवावे हैं और स्वप्न की माया समान असार जो राज्य उसे पायकर जे गर्वे हैं अनीति करें हैं तिनको लोहके कीलोंपर बैठाय मुद्गरों से मारें हैं सो महाविलाप करे हैं इत्यादि पापी जीवों को नरकके दुःख होय हैं सो कहांलग कहें।
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॥६५७||
पद्म । एक निमिषमात्र भी नरकमें विश्रामनहीं आयु पर्यंत तिलमात्र अाहारनहीं और बून्दमात्र जलपान नहीं पारण। केवल मारही का आहार है इसलिए यह दुस्सह दुःख अधर्मके फलजान अधर्मको तजो वे अधर्म मधुमांसा
दिक अभक्ष्य भक्षण अन्यायवचन दुराचार रात्रिश्राहार बेश्या सेवन परदारागमन स्वामिद्रोह मित्रद्रोह विश्वास घात कृतघ्नता लंपटता ग्रामदाह बनदाह परधन हरण अमार्ग सेवन परनिंदा परद्रोह प्रासा घात बहु प्रारम्भ बहुपरिग्रह निर्दयता खोटीलेश्या रौद्रध्यान मृपावाद कृपणता कठोरता दुर्जनता मायाचार निर्माल्य का अंगीकार माता पिता गुरोंकी अवज्ञा बालवृद्ध स्त्री दीन अनाथों का पीड़न इत्यादि दुष्टकर्म नरकके कारण हैं वे तज शांतभाव धर जिनशासन को सेवो जिसकर कल्यामा होय जीव छैकायके हैं पृथिवी काय अप(जल)काय तेजः (अग्नि)काय बायुकाय बनस्पतिकाय त्रसकाय तिनकी दयापालो और जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल यह छै द्रव्य हैं और सात तत्व नव पदार्थ पंचास्ति कायतिनकी श्रद्धा करो और चतुर्दश गुणस्थानचतर्दश मार्गका स्वरूप और सत्रभंगी बाण का स्वरूप भलीभांति केवली की श्राज्ञाप्रमाण उरमें धारो,स्यात्अस्ति । स्यातनास्ति स्यात्अस्तिनास्ति ।स्यादवक्त व्य स्यातअस्तिप्रवक्तव्य । स्यातनास्ति वक्तव्य । स्यातअस्तिनास्ति श्रवक्तव्य।ये सप्तभंग कहे और प्रमाण कहिये वस्तुका सांग कथन और नय कहिये बस्तुका एक अंग कथन और निक्षेप कहियेनाम स्थापना द्रव्य भाव ये चार और जीवों में एकेद्री के दोय भेद सूक्ष्म बादर और पंचेन्द्री केदो भेद सैनी असैनी और वे इन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री ये सात भेद जीवोंके हैं से पर्याप्त अपर्याप्त कर चौदह भेद जीव समास होय हैं और जीवके दो भेद एक संसारी एक सिद्ध जिसमें संसारीके दो भेद एक भव्य दूसरा अभव्य
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पुराश
पत्र जो मुक्ति होने योग्य सो भव्य और मुक्ति न होने योग्य सो अभव्य और जीवका निजलचमा उपयोगहै । | उसके दोयभेद एक ज्ञान एकदर्शन ज्ञान समस्त पदार्थोंको जाने दर्शन समस्त पदार्थोंको देखे सो ज्ञानक
पाठभेद मति श्रुति अवधि मनपर्यय केवल कुमति कुश्रुत कुअवधि और दर्शनके भेद चार चतुअचत्तु अवाघ केवल और जिनक एक स्पर्श इंद्री होय सोस्थावरकहिये तिनके भेद पांच पृथिवी अप तेज बायु बनस्पति और त्रसके भेद चार वे इंद्री तेइंद्री चौइंद्री पंचेंद्री जिनके स्पर्श और रसनावे दे इंद्री जिन के स्पर्श रसना नासिका सो तेइंद्री जिनके स्पर्श रसना नासिका चक्षुवे चौइंदी जिनके स्पर्श रसनानासिकाचतु श्रोत्र वे पंचेंद्री चौइंद्रीतक तोसब सन्मूर्छन और सेनी हैं और पंचेंदीमें कईसनमुर्छन केई गर्भज तिनमें केई सैनी केई असैनी जिनके मन वे सैनी और जिनके मन नहीं वे असैनी और जे गर्भ से उपजे वे गर्भज और जे गर्भ बिना उपजे स्वते स्भाव उपजे वे सन्मूछन गर्भज के भेद तीन जरायुज अंडज पोतजजे | जेरकर मंडित गर्भ से निकसे मनुष्य घोटकादिक वेजरायुज और ने बिना जेर से सिंहादिकसो पोतजोर जेअंडावों से उपजे पक्षीश्रादिक वे अंडज और देव नारकीयोंका उपवाद जन्म हैं माता पिताकेसंग विनाही पुण्य पाप के उदय से उपजेहैं देव तो उत्पादकशय्या में उपजे हैं और नारकी बिलोंमें उपजे हैं देवयोनि पुण्यके उदयसे है और नारक योनि पाप के उदय से है और मनुष्य जन्म पुण्य पाप की मिश्रतासे है और तिर्यच गति मयाचार के योग से है देवनारकी मनुष्य इन बिनासर्वतिर्यंच जानने, जीवों की चौरासी लाख योनिये हैं उनके भेद सुनो पथिवीकाय जलकाय अग्निकाय वायुकाय नित्यनिगोद इतरनिगोद ये तो सातर लाख योनि हैं सोबयालीस लाख योनि भई और प्रत्येक वनस्पति दस लाख ये बावन लाख भेद स्थावर के |
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पद्म
भये, और वे इन्द्री ते इन्द्री चौइन्द्री ये दोय दोय लाख योनि उसके छ लाख योनि भेद विकलत्रयके भए और पुराण, पंचेंद्री तिर्यंचके भेद चार लाख योनियें सब तिर्यंच योनिके बासठ लाख भेद भये और देवयोनि के भेद
चार लाख नरकयोनियोंके चार लाख और मनुष्य योनिके चौदह लाख ये सब चौरासी लाख योनि महा दुखरूप हैं इनसे रहित सिद्धपदही अविनाशी सुखरूपहै संसारी जीव सवही देहधारी हैं और सिद्ध पर मेष्टी देहरहित निराकार हैं शरीरके भेद पांच औदरिकवक्रियक आहारिक तैजसकार्मण तिनमें तैजस कार्मण तो अनादिकालसे सब जीवनको लगरहे हैं तिनका अंतकर महामुनि सिद्ध पद पावे हैं प्रौदरिक से असंख्यात गुणा अधिकवर्गणावैक्रियकके हैं और वैक्रियकसे असंख्यातगुणीश्राहारकहऔराहारक से अनंतगुणी तैजसके हैं और तैजससे अनंतगुणी कार्मणके हैं जिस समय संसारी जीव देहको तजकर दूसरी गतिको जाय है जितनी देरी एक गातसे दूसरी गतिमें जाते हुये जीवको लगे है ।उस अवस्था में जीवको अनाहारी कहिये । और जितना वक्त एक गतिसे दूसरी गतिमें जानेमें लगे सो वह कर्म एक समय तग दो समय अधिक से अधिक तीन समय लगे हैं सो उस समय जीव के तेजस भोर कार्मण ये दो ही शरीरं पाइयें है वगैर शरीरके यह नीव सिवाय सिद्ध अवस्थाके और सी अवस्था में किसी वक भी नहीं होता इस जीव के हर वक्त और हरगति में जन्म ते मरते गर्भ में साथ ही रहते हैं जिस वक्त यह जीव घातया अघातिया दोनों प्रकार के कर्म तय करके सिद्ध अवस्थाको जाता है उस समय तैजस और कार्माणका क्षय होताहे और जीवोंके शरीरोंके परमाणुभोंकी सूक्ष्मता। | इस प्रकारहै कि औदरिक से वैक्रियक सूचम और वैकियक से आहारक सूचम आहारक से तेजस ।
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पद्म
पण
सूक्ष्म और तैजससे कार्म्मण मूक्ष्म है सो मनुष्य सौर तिथंचोंके तो । दरिकशरीर है और देवनागकियों के वाक ६० यक है और आहारक ऋद्धिधारी मुनियों के संदेह निवारिबेके अर्थ दसमद्वार से निकसे है सो केवल के निकट
जाय संदेह निवार पीछा आय दशमें द्वार में प्रवेशकरे हैं ये पांच प्रकारके शरीर कहे तिनमें एकैकाल एकजीव के कभी चारशरीरभीपाइयें तिनका भेदसुनों तीन तो सबही जीवोंकेपाइये नर और तिर्यंच के औदरिक और देव नारकीयों के वैक्रियक और तैजसकार्म्मण सबों के हैं तिन में कार्म्मण तो दृष्टिगोचर नहीं और तेजस किसी मुनि के प्रकट होय है उसके भेद दो हैं एक शुभ तेजस एक अशुभतैजस सो शुभतेजस तो लोकों को दुखी देख दाहिनी भुजा से निकस लोकों का दुख निवारे है और अशुभतैजस क्रोध के योगसे वाम Pyara fare प्रजा को भस्म करे है और मुनि को भी भस्म करे है और किसी सुनि के वैक्रिया ऋद्धि प्रकट होय है तब शरीर को सूक्ष्म तथा स्थूल करे है सो मुनि के चार शरीर भी किसी समय पाइयें एकै काल पांचो शरीर किसी जीव के भी न होंय ॥
अथानन्तरमध्यलोक में जंब द्वीप आदि श्रसंख्यात द्वीप और लवण समुद्रयादि श्रसंख्यात समुद्र हैं शुभ हैं नाम जिनके सो द्विगुण द्विगु विस्तार को लिये वलयाकार तिष्ठे हैं सब के मध्य जंबू है उसके मध्य सुमेरु पर्वत तिष्ठे है सौ लाख योजन ऊंचा है और जे द्वीपसमुद्र कहे तिन में जंबूद्वीप लाख याजन के विस्तार है और प्रदक्षिणा तिगुणी से कछू इक अधिक है और जंबू द्वीप में देवारण्य और भूतार दो वन हैं तिन में देवों के निवास हैं और षट् कुलाचल हैं पूर्व के समुद्र से पश्चिम के समुद्र तक लावें पड़े हैं तिनके नाम हिमवान् महाहिमवान निषेध नील रुकमी शिखरी, समुद्र के जल
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पद्म
| का है स्पर्श जिनकै तिनमें प्हद और प्हदोमें कमल तिनमें षट कुमारिकादेवि हैं श्रीही बुद्धिकीर्तिधति घराण | लक्ष्मी और जंबद्धोप में सात क्षेत्र में भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत ऐरावत और षटकुला ।६६१
चलोंसेगंगादिक चौदह नदीनिकी हैं आदिकेसे तीन और अंतकेसेतीन औरमध्यकेचारोंसेदोयदोयय ह चौदह हैं और दूजादीपधातुकी खण्ड सोलवणसमुद्र से दूना है उसमें दोय सुमेरुपर्वत हैं और वारह कुलाचल
और चौदह क्षेत्र यहां एक भरत वहां दोय यहां एक हिमवान वहां दोय इसभांति सर्व दुगणे जानने और नीजाद्वीप पुष्कर उसके अर्ध भाग में मानक्षेत्र पर्वत है सो अढाई द्वीप ही में मनुष्य पाईये हैं आगे नहीं अाधे पुष्कर में दोय मेरु वारां कुलोचल चौदहक्षेत्र धातु की खंडदीप समान जहां जानने अठाई दीप में पांच सुमेरु तीस कुलाचल पांच भरत पांच ऐरावत पांच महाविदेह तिन में एकसौ साठ विजय समस्त कर्म भूमि के क्षेत्र एक सौ सत्तर एक एक क्षेत्रमें छह छह खण्ड तिन में पांच पांच ग्लेक्षखण्ड एक एक आये खण्ड आर्य खंड में धर्म की प्रवृति विदेहछेत्र और भरत ऐरावत इन में कर्म भमि तिन में विदेह तो शाश्वती कर्मभूमि और भरत ऐरावत में अठारा कोडा कोडी सागर भोग भमि दोय कोड़ा कोड़ी। सागर कम्मभूमि और देवकुरु उत्तरकुरु यह शाश्वती उत्कृष्ट भोग भमि तिन में तीन तीन पल्य की
आयु और तीन तीन कोस की काय और तीन तीन दिन पीछे अल्प आहार सो पांचमेरु सम्बन्धी पांच देव कुरु पांच उत्तर कुरु और हरि और रम्यक यह मध्य भोग भूमि तिन में दोय पल्यकी आयु
और दोय कोस की काय दोय दिन गए श्राहार इसभांति पांच मेरु संबन्धी पांच हरि पांच रम्यक यह दश मध्य भोग भूमि और हैमवत हैरण्यवत यह जघन्य भोग भूमि तिन में एक पत्य की आयु
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पर और एक कोस की काय एक दिन के तिरे अाहार, सो पांच मेरु संवन्धी पांच हेमवत पांच हैरण्यवत
जघन्य भोग भमि दश इस भांति तीस भोग भूमि अढाई द्वीप में जाननी, और पंच महाविदेह पंच .भरत पंच ऐरावत यह पन्द्रह कर्मभूमि हैं तिन में मोक्षमार्ग प्रवरते हे अढाईद्वीप के आगे मानछेत्र के परे । मनुष्य नहीं देव और तिर्यच ही हैं तिनमें जलचर तो तीन ही समुद्र में हैं लवणोदधि कालोदधि तथा अंत का स्वयंभरमण इन तीन बिना और समुद्रों में जलचर नहीं और विकलत्रय जीव अढाईद्वीप में हैं।
और अंत का स्वयंभरमणदीप उसके अर्घ भाग में नागेन्द्र पर्वत है, उसके परे आधे स्वयंभूरमणदीप में और सारे स्वयंभूरमण समुद्र में विकलत्रय हैं मानुषोत्तर से लेयनागेन्द्र पर्वत पर्यंत जघन्य भोगभूमि ।। 1 की रीति है, वहां तिर्यचोंका एक पल्य का आयु है और सुक्ष्म स्थावर तो सर्वत्र तीनलोक में हैं और वादर ।
स्थावर अाधार में हैं सर्वत्र नहीं एकराजुमें समस्त मध्यलोक है मध्यलोकमें अष्टप्रकार व्यंतर और दशप्रकार भवन पतियोंके निवास हैं और ऊपरज्योतिषी देवोंके विमान हैं तिनके पांचभेद चन्द्रमा सूर्य ग्रह तारा नक्षत्र सो अढाई द्वीप में ज्योतिषी चरभी हैं और स्थिरभी हैं आगे असंख्यात द्रोपोंमें ज्योतिषी देवोंके विमान स्थिरही हैं फिर सुमेरु के ऊपर स्वर्गलोक हैं वहां सोलास्वर्ग तिनके नाम सौधर्म ईशान सनत्कुमार महेंद्र । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ट शुक्र महाशुक्र सतार सहस्रार आणत प्राणत पारण अच्युत यह सोलह । स्वर्ग तिनमें कल्पवासी देव देवी हैं और सोलह स्वों के ऊपर नवग्रीव तिनके ऊपर नव अनुत्तर तिनके ऊपर पंचोत्तर विजय वैजयन्त जयंत अपराजित सर्वार्थ सिद्धि ये अहमिन्दोंके स्थानक हैं जहां देवांगना नहीं और स्वामी सेवक नहीं और ठोर गमन नहीं, और पांचवां स्वर्ग ब्रह्म उसके अन्तमें लोकांतिक देव
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पद्म
॥६६३५
| हे तिनके देवांगना नहीं वे देवर्षि हैं भगवान् के तप कल्यानक मेंही पावें ऊर्घलोक में देवही हैं अथवा पुराण, पंच स्थावरही हैं। हे श्रेणिक यह तीनलोक का व्याख्यान जो केवली ने कहा उसको संक्षेपरूप जानना
तीन लोक के शिखर सिद्धलोक है उस समान देदीप्यमान और क्षेत्र नहीं जहां कर्म बंधनसे रहित अनन्त सिद्ध विराज हैं मानो वह मोक्ष स्थानक तीन भवन का उज्वल छत्रही है वह मोक्ष स्थानक अष्टमी धरा है अष्ट पृथिवी के नाम नारक १ भवनबासी २ मानुष ३ ज्योतिषी ४ स्वर्गवासी ५ ग्रीव ६और अनुत्तर विमान मोचये पाठपृथिवी हैं सोशुद्धोपयोगके प्रसादसे जे सिद्धभयेहें तिनकी महिमा कही न जाय तिनको मरण नहीं फिर जन्म नहीं महा सुखरूप हैं, अनन्त शक्ति के घारक समस्त दुःख रहित महानिश्चल सर्वके ज्ञाता द्रष्टा हैं यह कथन सुन श्रीरामचन्द्र सकलभूषण केवली से पूछते भये हे प्रभो अष्ट कर्म रहित अष्टगुणादि अनन्त गुण सहित सिद्ध परमेष्ठी संसारके भावन से रहित हैं सो दुःख तो उनको किसी प्रकारका नहीं और सुख कैसा है तब केवली दिव्य ध्वनि कर कहते भये इस तीन लोकमें सुख नहीं दुखहीहै अज्ञानसे वृथा सुख समान रहे हैं संसारका इन्द्रिय जनित सुख बाधा संयुक्त क्षणभंगुर है अष्टकर्म कर बंधे सदा पराधीन ये जगत्के तुछमात्र भी सुख नहीं जैसे स्वर्णका पिंड लोहकर संयुक्त होय तव स्वर्ण की कांति दव जाय है तैसे जावकी शक्ति कर्मोकर दवरही है सो सुख रूप नहीं दुखही भोगवे हैं यह प्राणीजन्म। जरा मरण रोग शोक जेअनन्त उपाधि तिनकर महापीडित है तनुका और मनका दुख मनुष्य तिर्यच नारकीयों को है और देवोंको दुख मनहीका है सो मनका महा दुख है उस कर पीड़ित हैं इस संसार । में सुख काहे का ये इन्द्री जनित विषय के सुख इन्द्र धरणीद्र चक्रवर्तियोंको शहतकी लपेटी खडग की।
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पर धारा समान हैं और विष मिश्रित अन्न समान हैं और सिद्धों के मन इन्दिी नहीं शरीर नहीं केवल ME स्वाभाविक अविनोशी उत्कृष्ट निरावाघ निरुपम सुखहै उसकी उपमा नहीं जैसे निद्रा रहित पुरुष को
सोयवे कर क्या और निरोगोंको औषधिकर क्या तैसे सर्वज्ञवीतराग कृतार्थ सिद्ध भगवान तिनको इन्द्री। योंके विषयों कर क्यासूर्य दोपको चन्द्रादिककर क्या जे निर्भय जिनके शत्रु नहीं तिनके श्रायुधों कर क्या जे सब के अंतर्यामी सब को देखें जाने जिनके सकल अर्थ सिद्ध भये कछु करना नहीं बांका। किमी वस्तुकी नहीं वे सुखके सागर, इच्छा मनसे होयहै सो मन नहीं अात्म सुखमें तृप्त परम आनंद । स्वरूप क्षुधातृषादि वाधा रयित हैं तीर्थंकर देव जिस सुखकी इच्छाकरें उसकी महिमा कहालग कहिए अहिमिन्द्र नागेंद्र नरेन्द्र चक्रवादिक निरन्तर उसही पदका ध्यान करे हैं और लोकांतिक देव उसीसुख । के अभिलाषी हैं उसकी उपमा कहाँलग करें यद्यपि सिद्ध पदका सुख उपमा रहित केवली गम्यहै तथापि । प्रतिबोध के अर्थ तुमको सिद्धोंके सुखका कछु इक वर्णन करे हैं अतीत अनागत वर्तमान तीनकाल के तीर्थकर चक्रवर्त्यादिक सर्व उत्कृष्ट भूमि के मनुष्यों का सुख और तीन काल का भोग भूमि का सुख और इन्द्र अहमिन्द्र आदि समस्त देवों का सुख भूत भविष्यत वर्तमान काल का सकल एकत्र करिए और उसे मनन्त गुणा फलाइये सो सिद्धों के एक समयके सुख तुल्य नहीं काहेसे जो सिद्धोंकासुख निराकुल निर्मलअब्यावाघ अखंड अतीन्द्रियवि शीहै और देवमनुष्योंकासुखउपाधिसंयुक्तबाधासहितविकल्प रूप व्याकुलता कर भरा विनाशीक है और एकदृष्टांत और सुनो मनुष्यों से राजा सुखी राजावों से चक्रवर्ती | सुखी और चक्रवर्ती यों से वितरदेव सुखी और वितरोंसे ज्योतिशी देव सुखी उनसे भवनवासी अधिकसुखी ।
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और भवनवासियों से कल्पवासीसुखी औरकल्पवासीयोंसे नवग्रीवके सुखीनवग्रीवसे नवअनुत्तरके मुखीऔर । पुरण तिनसे पंच पंचोत्तरकेसुखी पंचोत्तरसर्वार्थसिद्धसमानोगसुखी नहींसोसर्वार्थसिद्धकेहिमिन्द्रोंसे अनंतानंत ॥६६शा
गुणा सुख सिद्धपद में है सुख की हद सिद्धपद का सुख है अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनंत सुख अनंत वीर्य्य यह आत्मा का निज स्वरूप सिद्धों में प्रवते है और संसारी जीवों के दर्शनज्ञानमुख वीर्य कमों के क्षयोपशम से वाद्य वस्तु के निमित्त थकी विचित्रता लीये अल्परूप प्रवरते है, यह रूपादिक विषय सुख व्याधिरूप विकल्परूप मोह के कारण इन में सुख नहीं जैसे फोड़ा राध रुधिर कर भरा फूलै उसे सुख कहां तैसे विकल्परूप फोड़ा महा व्याकुलता रूप राधिका भरा जिनके है तिनके सख कहां सिद्ध भगवान् । गतागत रहित समस्तलोकके शिखर विराजे हैं तिनकेसुखसमानदूजासुसनहीं जिनके दर्शन ज्ञान लोकालोक को देखें जाने तिन समान सूर्य ता उदय अस्त को धरे है सकल प्रकाशक नहीं वह भगवान, सिद्ध परमेष्ठो हथेली में आंवले की न्याई सकल वस्तु को देखें जाने हैं छद्मस्थ पुरुष का ज्ञान उन । समान नहीं यद्यपि अवधिज्ञानो मनपर्य ज्ञानी मुनि अविभागी परमाणु पर्यंतदेखे हैं और जीवों के असंख्यात जन्म जाने हैं तथापि अपी पदार्थों को न जाने हैं और अनन्तकाल की न जाने, केवलाही । जाने, केवलज्ञान केक्लदर्शन कर यक्त उनसमान और नहीं सिद्धोंकेज्ञानअनन्त दर्शनअनंत और संसारी । जीवों के अल्पज्ञान अल्पदर्शन सिद्धों के अनन्तसुख अनन्तवीर्य और संमारियोंके अल्पसुख अल्पवीर्य । यह निश्चय जान सिद्धों के सुख की महिमा केवलज्ञानी हीजाने और चार ज्ञान के धारक भी पूर्ण न। | जाने यह सिद्ध पद अभव्यों को अप्राप्य है इसपद को निकट भव्य ही पावें अभव्य अनंत काल भी काय ||
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करें अनेक यत्न करें तौभी न पावें, अनादि काल की लगी जो अविद्यारूप स्री उनका विरह MEEM अभव्यों के न होय सदा अविद्या को लिये भव बनमें शयन करें और मुक्ति रूप स्त्री के मिलाप की
बांछा में तत्पर जे भव्य बे कैयक दिन संसार में रहे हैं सो संसार में रोजी नहीं तपमें तिष्ठते मोच ही के अभिलाषी हैं जिनमें सिद्ध होने की शक्ति नहीं उन्हें अभव्य कहिये और जे सिद्ध होनहार हैं। । उन्हें भव्य कहिये, केवलीकहे हैं हे रघुनन्दनजिनशासन बिना और कोई मोक्षका उपाय नहीं विना सम्यक्त । कर्मों का क्षय न होय अज्ञानीजीव कोटिभवमें जे कर्म न क्षिपायसके सो ज्ञानीतीन गुप्तिको घरेएकमहूर्त में । क्षिपावे सिद्ध भगवान परमात्माप्रसिद्धहें सर्वजगत्उनकोजानेहै किवेभगवान्हें केवलीविनाउनकोकोईप्रत्यक्ष | देख जानन सके, केवलज्ञानी ही सिद्धों को देखें जाने हैं मिथ्यात्व का मार्ग संसार का कारण इसजीवने । अनंत भवमें धारा तुम निकट भव्यहो परमार्थकी प्राप्तिकेअजिनशासनकी अखंड श्रद्धाधारो हे श्रेणिक यह वचन सकलभूषणकेवलीके सुन श्रीरामचन्द्र प्रणामकर कहतेभए हे नाथ इस संसार समुद्र से मुझे तारो | हे भगवान् यह प्राणी कौन उपाय से संसार के वाससे छूटे है तब केवली भगवान कहतेभए हे राम सम्यक् । दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्ष का उपाय है जिनशासन में यह कहा है तत्व का जो श्रधान उसे सम्यक्दर्शन । कहिये तत्वअनंतगुणपर्यायरूप है दोयभेदहेंएकचेतनदूसराअचेतन है सोजीव चेतन है और सर्वअचेतन । है और दर्शन दोय प्रकारसे उपजे हैएक निसर्ग एक अधिगम जोस्वतःस्वभावउपजे सोनिसर्गऔर गुरुके। | उपदेशसे उपजसो अधिगम सम्यक्दृष्टि जीव जिनधर्म विषेरतहें सम्यक्तके अतीचार पांचहें शंका कहिये । | जिनधर्म विषे संदेह और कांक्षा कहिये भोगों की अभिलाषा और विचिकित्सा कहिये महामुनि को ||
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पद्म
पुराब १६७
देख ग्लानि करनी और अन्यदृष्टि प्रशंसा कहिये मिथ्या दृष्टी को मनमें भला जानना और संस्तव, कहिये बचन कर मिथ्या दृष्टिकी स्तुति करणा, इनकर सम्यक्तमे दूषण उपजे है और मैत्री प्रमोद करुणा मध्यस्थ ये चार भावना अथवा अनित्यादि बारह भावना अथवा प्रशमसंवेग अनुकंपा अस्ति और शंकादि दोष रहित पना जिन प्रतिमा जिनमंदिर जिनशास्त्र मुनिराजोंकी भाक्त इन कर सम्यकदर्शन निर्मल होय है और सर्वज्ञ के बचन प्रमाण बस्तु का जानना सो ज्ञानका निर्मलता का कारण है
और जो किसी से न सधे ऐसी दुर्धर क्रिया आचरणी उसे चारित्र कहिये पांचों इंद्रियोंका निरोध वचन का निरोध सर्व पापक्रियावों का त्यागसो चारित्र कहिये त्रस स्थावर सर्व जीवकी दया सबको आप समान जाने सो चारित्र कहिये, और सुनने वालेके मन और कानोंको अानंदकारी स्निग्ध मधुर अर्थ संयुक्त कल्याणकारी वचन बोलना सो चारित्र कहिये, और मन वचन काय कर परघनका त्याग करना किसोका विनादोया कुछ नलेना और दीयाहुआ भीआहारमात्र लेना सो चारित्र कहिये और जो देवोंकर पज्य महादुर्धर ब्रह्मचर्यव्रतका धारणसोचारित्रकहियेऔरशिवमार्गकहियनिर्वाणकामार्गउसे विघ्नकरणहारी मूळ कहिये मनकी अभिलाषा उसका त्याग सोई परिग्रहका त्याग सा भी चारित्र कहिये है. ये मुनियोंकेधर्म । कहे और जो अणबतीश्रावक मुनियोंको श्रद्धाश्रादि गुणोंकरयुक्त नवधाभक्तिकर आहार देना सो एक देश चारित्र कहिये और परदारा परधनका परिहार पर पीडाका निवारण दया धर्मका अंर्ग:कार दान शीलपूजा प्रभावना पर्बोपवास वैराग्य बिनय विवेक ज्ञान मन इंद्रियोंका निगेध ध्यान इत्यादिधर्मका आचरण सो एकादेशचारित्र कहिये यह अनेक गुण कर युक्त जिनभासितचारित्र परमधामका कारण कल्याणकी प्राति ।।
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न के अर्थ सेवने योग्य है जो सम्यक दृष्टिजीव जिनशासनका श्रद्धानी परनिंदाका त्यागी अपनीअशुभक्रिया। HP का निंदक जगतके जावोसेन सधे ऐसे दुर्द्धरतपका धारक संयमका साधन हारा सोही दुर्लभ चारित्रमाग्वेि
को समर्थ होय है और जहां दया आदि समीचीन गुण नहीं वहां चारित्र नाही और चारित्र बिना संमारसे निवृति नहीं जहां दया क्षमा ज्ञान वैराग्य तप संयम नहीं वहां धर्म नहीं विषय कषायका त्याग सोई धर्म है शम कहिए समता भाव परमशांत दम कहिये मन इंद्रियोंका निरोध संवर कहिये नवीन कर्मका निगेध जहां ये नहीं वहां चारित्र नहीं जे पापी जीवहिंसा करे हैं झूठ बोले हैं चोरी करे हैं परस्त्री सेवन करे हैं। महा प्रारंभी हैं परिग्रही हैं तिनके धर्म नहीं, जे धर्मके निमित्त हिंसा करे हैं वे अर्धमी अधमगति के पात्र | हैं जो मूढ़ जिनदीचा लेकर प्रारंभ करे हैं सो पति नहीं यतिका धर्म प्रारंभ परिग्रहसे रहित है परिग्रह धारियों को मुक्ति नहीं जे हिंसा में धर्म जान षट काय के जीवोंकी हिंसा करे हैं वे पापी हैं हिंसा में धर्म नाही हिंसकों को इसभव परभव के सुख नहीं शिव कहिए मोक्ष नहीं जे मुखके अर्थ धर्मके अर्थ || जीवघात करे हैं सो वृथा हे जे माम क्षेत्रादिक में आसक्त हैं गाय भैंस राखे हैं मारे हैं बांधे हैं ताडेहें। दाहे हैं उनके वैराग्य कहां जे क्रिया बिक्रिया करे हैं रसोई परहेंडा आदि आरम्भ राखे हैं सुबर्णादिक | राखे हैं तिनको मुक्ति नहीं जिनदीचा निरारंभ है अतिदुर्लभ है जेजिनदीचा धारी जगत्का धंधाकरे हैवेदीर्घ संसारी हैं जे साधुहोय तेलादिकका मर्दन करे हैं स्नान करे हे शरीर का संस्कार करे हे पुष्पादिक
को सूंघे हैं सुगन्ध लगावे हे दीपक का उद्योत करे हैं धूप खेवे हैं सो साधु नहीं, मोक्षमार्ग से परांमुख | हैं अपनी बुद्धिकर जे कहे हैं हिंसा में दोष नहीं वे मूर्ख हैं तिनको शास्र का ज्ञान नहीं चारित्र नहीं
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_ | और जे मिथ्या दृष्टि तप करे हैं गाम विषे एक राग्नि बसे हैं नगर विषेपांच रात्री और सदाऊवाह राखे हैं। पुराण | मास मासोपवास करे हैं और वन विषे विचरे हैं मौनी हैं निपरिग्रही हैं तथापि दयावान नहीं दुष्ट है ॥६६६ हृदय जिनका सम्यक्त वीज विना धर्मरूप वृक्ष को न उगाय सकें अनेक कष्ट करें तो भी शिवालय कहिये
मुक्ति उसे न लहें जे धर्म की बुद्धिकर पर्वत से पढ़ें अग्नि में जरें जल में ड्वें धरती में गडे वे कुमरण कर कुगति को जावे हैं जे पापकर्मो कामना परायण भारत रौद्र ध्यानी विपरीत उपाय करें वे नरक निंगाद लहैं मिथ्या दृष्टि जो कदाचित दान दे तप करे सो पुण्य के उदय कर मनुष्य और देव गतिके सुख भोगे हैं परन्तु श्रेष्ठदेव श्रेष्ठ मनुष्य न होय सम्यकदृष्टियोंके फलके असंख्यातवें भाग भी फल नहीं सम्यकदृष्टि चौथे गुणष्ठाणे अव्रती है तौभी नियम विषहै । प्रेम जिनका सो सम्यकदर्शन के प्रसादसे देवलोक विष उत्तम देव होवें और मिथ्या दृष्टि कार्लंगी महातप भी करें तो देवीके किंकर हीनदेव होंय फिर संसार भ्रमण करें और सम्यकद्दष्टि भव धेरै लो उत्तम मनुष्य होय तिनमें देवन के
भव सात मनुष्यों के भव आठ इस भांति पंद्रह भवमें पंचमगति पावें बीतराग सर्वज्ञ देवने मोक्षका । मार्ग प्रगट दिखायाहै परन्तु यह विषयी जीव अंगीकार न करे हैं आशारूपी फांसीसे बंधे मोहके वश पड़े तृष्णाके भरे पाप रूप जंजीन्से जकडे कुगति रूप बन्दीग्रह में ५ हैं स्पर्श और रसना आदि इंद्रियों के लोलुपी दुःखही को मुख मात्रै हैं यह जगत के जीय एक जिनधर्म के शरमा विना क्लेश भोगे हैं इंद्रियों के मुख चाहें हैं सौ मिले नहीं और मृत्युसे डरे सो मृत्यु छाडे नहीं विफल कामना। और विफल भयके बशभए जीव केवल तापही को प्राप्त होयह तापके हरिवे का उपाय और नहीं।
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पुराण 18७०॥
प्राशा और शंका तजना यही सुखका उपाय है यह जीप ाश कर भरा भीगोंको भोग किया चाहे है और धर्म विषे धीर्य नहीं घरे हे क्लेश रूप अग्निकर उष्ण महा प्रारंभ विष उद्यमी का भी इथ नहीं पावे है उलटा गांठका खोवे है यह प्रांगी पापके उदयसे मनवांछित अर्थको नहीं पावहै उलटा अनर्थ । होय है सो अनर्थ अतिदुर्जय है यह में किया यह मैं करूंहूं यह मैं करूंगा ऐसे विचार करते ही मर कर कुगति जायहें ये चारों ही गति कुगति, एक पंचम गति निर्वाण सोई सुगतिहै जहांसे फिर भावना नहीं और जगतविषमृत्यु ऐसानहीं देखे है जो इसने यह किया यह न किया बाल अवस्यादिसर्यअवस्था में आय दाबे है जैसे सिंह मृगको सबस्थामें प्राय दाबे अहो यह अज्ञानी जीव अहित विष हितकी बांछा धरे है और दुख विषे सुखकी आशा करे है अनित्यको नित्य जाने हैं भय विषे शरण मानहें इन के विपरीत बुद्धिहै यह सब मिथ्यात्वका दोषहै यह मनुष्यरूप माताहाथी भार्या रूप गर्तमें पड़ा अनेक दुःखरूप बन्धनकर बंधे है विषयरूप मांसका लोभी मत्स्यकी नाई बिकल्परूपी जाल में पडे है यह प्राणी दुर्बल बदलकी न्याई कुब रूप कीच में फंसा खेद खिन्न होय है जैसे कोई वैरियों से बन्धा
और अंधकूपमें पड़ा उसका निकसना अति कठिनहै तैले स्नेह रूप फांसीकर बंधा संसाररूप अंधकूप ।। में पड़ा अज्ञानी जीव उसका निकसना अतिकठिनहै कोई निकटभब्य जिनवाणीरूपरस्सेको गहे और श्रीगुरुनिकासने वाले होय तो निकसे और अभव्यजीव जैनन्द्री श्राज्ञारूप अति दुर्लभअानंदका कारण जोआत्मज्ञान उसे पायवे समर्थनहीं जिनराजका निश्चय मार्ग निकटभव्यही पाव और अभव्य सदाकर्मों कर कलंकी भए अति क्लेशरूप संसारचक्र विषभ्रमे हैं। हे श्रेणिक यह बचन श्रीभगवान सकल भूषण
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घराण ४७१,
पन केवलीने कहे तब श्रीरामचन्द्र हाथ जोड सीस निवाय कहते भए हे भगवान में कौन उपायकर भव
भ्रमण से ढूंट्रं में सकल राणी और पृथ्वीका राज्य तनवे समर्थ हूं परन्तु भाई लक्ष्मणका स्नेह तजवे. समर्थ नहीं स्नेह समुद्र की तरंगों में डूबहूं आप धर्मोपदेश रूप हस्तालंबन कर कादो हे करुणानिधान मेरी रमा लगे, नन भगवान कहने भए हे गम शोक न कर तू बलदेवहै कैयक दिन वासुदेव सहित इंद्र की न्याई इस पृथिवी का राज्य कर जिनेश्वर का व्रत धर केवल ज्ञान पावेगा, ए केवलीके वचन सुन श्रीरामचन्द्र हर्ष कर रोमांचित भए नयनकमल फलगए बदनकमल विकसित भया परम धीर्य युक्तहोते भए और रामको केवलीके मुखसे चरमशरीरीजान सुरनर असुर सबही प्रशंसाकरअतिप्रीति करते भए।इति१० ___ अथानन्तर विद्याधरों विपै श्रेष्ठ राजा विभीषण रावण का भाई सुन्दर शरीर का धारक राम की भक्तिही है भाभपण जिसके सो दोनों कर जोड प्रणाम कर केवलीको पूछता भया, हे देवाधिदेव श्री रामचन्द्र ने पूर्व भव में क्या सुकृतकिया जिसकर ऐसी महिमा पाई और इनकी स्त्री सीता दण्डक बन से कौन प्रसंगार रावण हरलेगया धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ का बेत्ता अनेक शास्त्रका पाटी। कृय कृत्यको जाने धर्म अधर्म को पिछाने प्रधान गुण संपन्न सो काहे से मोह के वश होय पर स्त्री ।। के अभिलारा रूप अग्नि विपे पांग के भाव को प्राप्त भया और लक्षमण ने उसे संग्राम में हता। राग ऐसा बलवान विद्याधरों को नहेश्वर अनेकअद्भुत कायों का करण हारा, सो कैसे ऐसे मरणको
प्राप्तभया, तब केवली अनेक जन्म की कथा विभीषणको कहते भये हे लंकेश्वर राम लक्षमण दोनों अनेक || भाभाई हैं और रावण के जीव मे लक्षमण के जीवका व ल भव से रैर है सो सुन.जबूदीप के भरत
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E
:
पनक्षत्र म एक नगर वहां नयदत्त नामा वणिक अल्प धनका धनी उसकी सुनंदा स्त्री उसके पत्त नामा 1. 5 पुत्र सो रामका जीव और दूजा पुत्र वसुदत्त सो लक्षमणका जीव और एक यज्ञवलि नामा विप्र वसु। दत्तका मित्र सो तेरा जीव और उसही नगरमें एक और वणिक सागरदत्त जिसके स्त्री रत्नप्रभा पुत्री गुणवती
सो सीताका जीव और गुणवती का छोटा भाई जिसका नाम गुणवान सो भामंडल का जीव और गुण-1 वती रूप यौवन कला कांति लावण्यताकर मंडित सो पिता अभिप्राय जान धनदत्त से बहिनकी सगाई गुणवानने करी और उमही नगरमें एकम महा धनवान बणिक श्रीकांत सो खणकाजीव जोनिरन्तरगगवतीके, परिणवे की अभिलाषारोखे और गणवतीके रूपकर हरा गया है चित्त जिसका सो गुणवती का भाई लोभी धनदत्तको अल्पधनवंत जान श्रीकांतको महाधनवंत देख परणायवेको उद्यमीभया, सो यह वृत्तांत यज्ञवलि ब्राह्मणने वसुदत्तको कहा तेरेबड़े भाईकी मांग कन्याका बड़ाभाई, श्रीकांतको धनवान जान परणाया चाहे है तब वसुदत्त यह समाचार सुन श्रीकांत के माखेि को उद्यमी भया खड्ग पैनाय अंधेरी रात्री में श्याम वस्त्र पहिर शब्द रहित धीरा धीरा पग धरता जाय श्रीकांत के घर में गया सो वह असावधान बैठा था सो खड़ग से मारा तब पड़ते पड़ते श्रीकांत ने भी वसुदत्त को खड़ग से मारा सो दोनों मरे सो विंध्याचल की बनी में हिरण भए और नगर के दुर्जन लोक थे तिन्हों ने गुणवती धनदत्त को न परणायवे दीनी कि इस के भाई ने अपराध कीया, दुर्जन लोक विना अपराध कोपकरें सो यह तो एक बहाना पाया तब धनदत्त अपने भाई का मरण और अपना अपमान तथा मांग का अलाभ जान महादुखी होय घर से निकस विदेश गमनकरताभया और वह कन्या धनदत्तकी अप्राप्तिकर अतिदुखी भई और भी।
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किसीको न परणती भई, और कन्या मुनियों की निंदा और जिनमार्गकी अश्रद्धामिथ्यात्व के अनुरागकर । पाप उपार्ज काल पोय आर्त ध्यानकर मई सो जिस वनमें दोनों मृगभए थे उसहीरन में यह गी भई सो पूर्वले विरोधकर इसी के अर्थ वे दोनों मृग परस्पर लड़कर मए, सो वन शूकर भए फिर हाथी भैंसा बैल वानर गैंडा ल्याली मीढी इत्यादि अनेक जन्म घरते भए और यह बाही जाति की तिचनी होती भई सो इस के निमित्त वे परस्पर लड़कर मए जल के जीव थल केजीव होय होय प्राण तजते भए और धनदत्तमार्गके खेदकर अति दुखी एकदिन सूर्य अस्त समय मुनियों के प्राश्रमगया भोला कछ जाने नहीं साधुवों से कहता भया में तृषाकर पीडित हूं मुझे जल पिलायो तुम धर्मात्मा हो तब मुनितो नबोले और कोईजिनधर्मी मधर वचनकरइसेसंतोष उपजायकरकहताभया हे मित्ररात्रीको अमतभीनपीवनाजलकीकहा बात जिस समय आंखोंकर कछ सझनहीं सक्ष्मजीवदृष्टि नपड़ेंतासमयदेवत्सदितू अतिश्रातुर भी होयतो, भी खोन पान करना रात्री आहार में मांस का दोषलागे है इसलिये तून कर जिस कर भव सागर में । डुपिये यह उपदेश सुन धनदत्त शांत चित्त भया शक्ति अल्प थी इसलिये यति न होयसका दयाकर यक्त है चित्त जिसका सो अणुव्रती श्रावक भया. फिर काल पाय समाधिमरण कर सोधर्म वर्ग में बड़ी ऋद्धि का धारक देव भया, मुकुट हार भुजबंधादिक कर शोभित पूर्वपुण्य के उदय से देवांगनादिक सुख भोगे फिर स्वर्ग से चय कर महापुरनामा नगर में मेरुनामा श्रेष्ठी उसकी धारिणी स्त्री के पद्म संच नामा पुत्र भया और उसहा नगर में राजा छत्रछाय राणी श्रीदत्ता गुणों की मंजपा है सो एक दिन सेठ का पुत्र पद्मरुचि अपने गोकुल में अश्व चढ़ा आया सा एक वृद्धति वलदको कंटगत प्राधा देखा।
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तर इस सुगन्ध वस्त्र माला के धारकने तुरंग से उतर अतिदयाकर बैल के कानमें नमोकार मंत्र दिया । मो बलदने चित्त लगाय सुना और माण तज राणी श्रीदत्ता के गर्भ में पायउपजा राजा छत्रछाय के पुत्र न था सो पुत्रके जन्म में अतिहर्षित भया नगर की अतिशोभा करो बहुत द्रव्य खरचा बड़ा उत्सव । कीया वादित्रों के शब्द कर दशों दिशा शब्दायमान भई यह वालक पुण्यकर्म के प्रभावकर पूर्वजाम जानता भया सो बलद के भवका शीत पाताप आदि महादुख और मरण समय नमोकार मंत्र सुना उसके प्रभावकर राजकुमार भया सो पूर्व अवस्था यादकर बालक अवस्था में ही महा वियकी होतामया जब तरुणअवस्था भई तब एक दिन विहार करता बलदके मरण के स्थानक गया अपना पूर्व चारित्र चितार यह वृषभध्वज कुमार हाथी से उतर पूर्वजन्म की मरण भूमि देख दुखित भया अपने मरणका सुधारण हारा नमोकार मंत्रका देनहारा उसकेजानिबेकेअर्थ एक कैलाश के शिखर समान ऊंचा चैत्यालय बनाया और चैत्यालय के द्वार विषे एक बड़े बैलकी मूर्ति जिसकेनिकट बैठा एक पुरुष नमोकार मंत्र सुनावे है ऐसा एक चित्रपट लिखाय मेला और उसके समीप समझने मनुष्य मेले दर्शन करबेकोमेरु श्रेष्ठी का पदमरुचि आया सो देख अति हर्षित भया और भगवान का दर्शन कर पीछे पाय बलेकी चित्रपटके और निरखकर मनमें विचारे है बैलको नमोकार मंत्र मैंने सुनायाथा सो खड़ा खड़ा देखेवे पुरुष रखवारे थे तिन जाय राजकुमार को कही सो सुनते ही बड़ी ऋद्धि से युक्त हाथी चढ़ा शीघ्रही अपने परम मित्रसे मिलने आया हायी से उतर जिनमंदिर में गया कि फिर बाहिर अाय पद्मरुचिको बैलकी ओर निहारता देखा राजकुमारने श्रेष्ठी के पुत्रको पूछी तुम बैलके पटकी ओर कहां निरखा हो तव
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पद्म
18७॥
पद्मचिने कही एक मरते वैलको मैंने नमोंकार मंत्र दियाथा सो कहां उपजा है यह जानिये को इच्छा पुराण तब वृषभध्वज बोले वह मैं ऐसाकह पायन पड़ा और पद्मरुचि की स्तुतिकरी जैसे गुरुकी शिष्य करे
और कहता भया में पशु महा अविवेकी मृतुके कष्टकर दुखी था सो तुम मेरे महा मित्र नमोकार मंत्र के दाता समाधि मरण के कारण होते भये तुम दयालु परभवके सुधारणहारे ने महा मंत्र मुझे दिया उस से में राजकुमार भया जैसा उपकार राजा देव माता सहोदर भित्र कुटुम्ब काई न करे तैसा तुम किया जो तुम नमोकार मंत्रदिया उस समान पदार्थ त्रैलोक्यमें नहीं उसका बदला मैं क्या दूं तुमसे ऊरणनहीं तथापि तुमविषे मेरी भक्ति अधिक. उपजी है जोआज्ञा देवो सो करूं हे पुरुषोत्तम तुमत्राज्ञ दानकर मुझको भक्तकरो यहसकल राज्य लेवो मैं तुम्हारा दास यहमेरा शरीर उसकर इच्छाहोय सो सवा कावो इसभांति वृषभध्वज ने कही तब पद्मरुचिके और इसके अतिप्रीति बढ़ी दोनों सम्यवादृष्टि राजमें श्रावक के व्रत पालते भये ठौर २ भगवानके बड़े २ चैत्यालय कगए तिनमें जिनरिंद पधगए यह पृथिवी तिनकर शोभायमान होती भई फिर समाधि मरण कर वृषभध्वज पुण्यकर्म के प्रस.का दूजे स्वर्ग में देवभया देवांगना के नेत्ररूप कमल तिनके प्रफुल्लित करने को सूर्य समान होता भया वहां मनवांछित क्रीड़ा करताभया और पद्मरुचि सेठभी समाधि परणकर दूजेही स्वर्ग देव मया दोनों व परम मित्र भये वहां से चयकर पद्मरुचि का जीव पश्चिम विदह विश विजिय गिरि जहां नंद्यावर्त नगर वहां राजा नन्दीश्वर उसकी राणी कनकप्रभा उसके नयनानन्द नामा पुत्र भयो सो विद्याधरों के चक्रपद का संपदा भोगी फिर महा मुनियोंकी अवस्था धर विषम तप किया समाधि मरण कर चौथे स्वर्ग
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पद्म
पूरा ग
देवभया वहां पुण्य रूप बेल के सुख रूप फल महा मनाग्य भोगे फिर वहां से चयकर सुमेरु पर्वत के ७६ पूर्व दिशा की ओर विदेह वहां क्षेमपुरी नगरी राजा विपुल बाहन राणी पद्मावती तन के श्री चन्द्र नामा पुत्र भया वहां स्वग समान सुख भोगे तिन के पुण्य के प्रभाव से दिन दिन राजा की वृद्धि भई अटूट भंडार भया समुद्रांत पृथिवी एक ग्रामकी न्यांई वश करी और जिसके स्त्री इन्द्राणी समान सो इन्द्र कैसे सुख भोगे हजारों वर्ष सुख से राज्य किया एक दिन महा संघ सहित तीन गुप्ति के धारक समाधि गुप्ति योगीश्वर नगर के बाहर चाय विराजे तिन को उद्यान में चाय जान नगर के लोक बन्दनाको चले सो महा स्तुति करते वादित्र बजावते हर्ष से जाय हैं, श्री चन्द्र समीप के लोकों से पूछता भया यह हर्षका नाद जैसा समुद्र गाजे तैसा होय है सो कौन कारण है. तब मन्त्रियोंने किंकर दौड़ाये निश्चय कियाजो मुनिया हैं तिनके दर्शनको लोकजाय हैं, यह समाचार राजासुनकर फूलेकमल समान भए हैं नेत्र जिस के और शरीर में हर्ष से रोमांच होय आए समस्त राज लोक और परिवार सहित मुनि के दर्शन को गया प्रसन्न है मुख जिन का ऐसे मुनिराज तिन को राजा देख प्रणाम कर महा विनय संयुक्त पृथिवी में बैठा भव्य जीव रूप कमल तिनके प्रफुल्लित करने को सूर्य समान ऋषिनाथ तिन के दर्शन से राजा को यति धर्म स्नेह उपजा, वे महा तपोधन धर्मशास्त्र के वेसा परम गंभीर लोकोंको तत्वज्ञान का उपदेश देते भए यतिका धर्म और श्रावक का धर्म संसारसमुद्रका तारण हारा अनेक भेद संयुक्त कहा और प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोग का स्वरूप कहा प्रथमानुयोग कहिये उत्तम पुरुषांका कथन और करण नुयोग कहिये तीनलोकका कथन चरणानुयोग कहिये मुनिश्रावका धर्म और द्रव्यानुयोग
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॥६७७
। कहिये षद्रव्य सप्त तत्व नव पादार्थ पंचास्तिकाय का निर्णयकैसे हैं मुनिराजवक्ताओंमें श्रेष्ठ, और श्राक्षे । परा, पनी कहिए जिन मार्ग उद्योतनी और पनी कहिए मिथ्यात्व खंडनी और संवेगजनी कहिए धर्मानु
रागिणी और निवादिनी कहिए वैराग्यकारिणी यह चार प्रकार कथा कहते भए, इस संसार असार में कर्म के योग से भ्रमतो जो यह प्राणी सो महा कष्ट से मोक्ष मार्ग को प्राप्त होय है संसार का पाठ विनाशीक है जैसा संध्या का वर्ण और जल का बुबदा तथा जल के झाग और लहर और बिजरी का चमत्कार इंद्र धनुष क्षणभंगुर हैं प्रसार है ऐसा जगत् का चरित्र क्षणभंगुर जानना इस में सोर नहीं नरक तिर्यंचगति तो दुःख रूप ही है और देव मनुष्य गति में यह प्राणी सुख जाने है सो सुख नहीं दुःख ही है जिस से तृप्त नहीं सोही दुःख जो महेन्द्र स्वर्ग के भोगों से तृप्त नहीं भया सो मनुष्य भव के तुच्छ भव से कैसे तृप्त होय यह मनुष्य भव भोग योग्य नहीं वैराग्य योग्य है काहू एक प्रकार से दुर्लभ मनुष्य देह पाया जैसे दरिद्रीनिधानपावेसोविषय रस का लोभी होय वृथा खोया मोहकोप्राप्त भया जैसे सूके इन्धन से अग्निको कहां तृप्ति और नदियों के जल से समुद्र को कहां तृप्ति तैसे विषय सुख से जीवन को तृप्ति न होय, चतुर भी विषय रूप मद कर मोहित भया मंदता को प्राप्त होय है अज्ञान रूप तिमिर से मंद भया है मन जिस का सो जल में डूबता खेदखिन्न होय त्यों खेदखिन्न है परन्तु अविवेकी तो विषय ही को भला जाने है सूर्य तो दिनको तोप उपजावे और काम रात्रि दिन प्राताप उपजाये सूर्य के प्राताप निवारवे के अनेक उपाय हैं और कामके निवारवे का उपाय एकवि कहींहै जन्म जरा मरणका दुःख संसारमें भंयकर है जिसका चितवन किए कष्ट उपजे यह कर्मजनित जगतको बाट
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क रन वन्नकावरीनामनाजोगताह अपर ऊपरला नीचे, और यह शरीर पुराण
1 दुर्गधिहै यंत्र समान बलाया चलेहे विनाशिक है मोह कर्म के योग से जीवका काया से स्नेह जलके। ७६७८॥
बवदा समान मनुष्य भनके उपजे सुख असार जान बड़े कुलके उपजे पुरुष विरक्त होय जिनराज का भाषा मार्ग अंगीकार करे हैं उत्साह रूप वपतर परिर निश्चय रूप तुरंग के असवार ध्यान रूप खडग के धारक धीर कर्म रूप शत्र को विनाश निर्वाणरूपनगर लेयहें. यह शरीरभिन्न औरमें भिन्न ऐसा चितवन कर शरीरका स्नेह तजहेमनुष्यो धर्मको धर्म समानौर नहीं और धर्मोसे मुनिका धर्म श्रेष्टहै जिन महामुनियोंकेसुख दुःखदोनोंतुल्य अपना और पराया तुल्य जेराग द्वंप रहित महापुरुष हैं वे परम उत्कृष्ट । शुक्ल ध्यान रूप अग्नि से क. रूप बनी दुःख रूप दुष्टों से भरी भस्म करें हैं मुनि के बचन राजा। श्रीचन्द्र सुन बोध को प्राप्त भया विषयानुभव सुखसे वैराग्य होय अपने ध्वजकांति नामा पुत्रको राज्य देय समाधिगुप्ति नामा मुनि के समीप मुनि भया महा विरक्त है मन जिस का सम्यक की भावना से तीनों योग जे मन बचन काय तिनकी शद्धता धरता संता पांच सुमति तीनों गप्ति से मंडित राग द्वेष से परांमुख रत्नत्रय रूप आभूषणों का धारक उत्तम क्षमा प्रादि दशलक्षणं धर्म कर मंडित जिनशासन का अनुरागी समस्त अंग पूर्वाङ्गका पाठक समाधान रूप पंच महाव्रत का धारक जीवों का दयालु सप्त भय रहित परमधीर्य का धारक बाईस परीषह का सहनहारा, वेला तेला पक्ष मामादिक अनेक उपवास का करणहारा शुद्ध आहार का लेनहारा ध्यानाध्ययन में तत्पर निर्ममत्व अतीन्द्रिय भोगों की बांछा का त्यागो निदान बन्धन रहित महाशांत जिनशासन में है वात्सल्य जिसका, यति के प्राचार
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ପଦ୍ମ
120211
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में संघ के अनुग्रह में तत्पर बाल के अग्रभाग के कोटिवें भाग भी नहीं परिग्रह जिस के स्नान का त्यागी दिगंबर संसार के प्रबन्ध से रहित, ग्राम के बनमें एक रात्रि और नगर के बनमें पांच रात्रि रहन हारा गिरि गुफा गिरिशिखर नदी के पुलिन उद्यान इत्यादि प्रशस्त स्थान में निवास करणारा कायोत्सर्ग का धारक देह से भी निर्ममत्व निश्चल मौनी पंडित महातपस्वी इत्यादि गुणोंकर पूर्ण कर्म पिंजर को जर्जरा कर काल पाय श्रीचन्द्रमुनि रामचन्द्र का जीव पांच में स्वर्ग इन्द्र भया, वहां लक्ष्मी कीर्ति कांति प्रताप का धारक देवों का चूड़ामणि तीन लोक में प्रसिद्ध परम ऋद्धि कर युक्त महा सुख भोगता भया नन्दनादिक वनमें सौधर्मादिक इन्द्र इसकी संपदाकोदेख रहे इसके अवलोकन की सब के बांधा रहे महा सुन्दर विमान मणि हेममई मोतियों की झालरियों कर मंडित उस में बैठा विहार करे दिव्य स्त्रियों के नेत्रों को उत्सवरूप महासुख से कालव्यतीत करता भया, श्रीचन्द्र का जीव बोंद्र उसकी महिमा, हे विभीषण वचन कर न कही जाय, केवल ज्ञानगभ्य है यह जिनशासन मोलिक परमरत्न उपमा रहित त्रैलोक्य में प्रकट है तथापि मढ़ न जाने श्रीजिनेन्द्र मुनीन्द्र और जिनधर्म इनकी महिमा जानकर भी मूर्ख मिथ्या अभिमान कर गर्वित भए धर्म से परांमुख रहें जो ज्ञानी यह लोक के सुखमें अनुरागी भया है सो बालक समान अविवेकी है जैसे बालक बिना समझे अभयका भक्षणकरें हैं विषपान करे है तैसे मूढ अयोग्य का आचरण करें है जे विषयके अनुरागी हैं सो अपना बुरा करे हैं, जीवों
कर्म की विचित्रता है इसलिये सवही ज्ञान के अधिकारी नहीं कैयक महाभाग्य ज्ञानको पावे हैं और कैयकज्ञानकोपा वस्तुकी वांछाकर अज्ञान दशाको नापहोय हैं और कैयक महानिन्द्य जो यह संसारी
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गजीवों के मार्ग तिनमें रुचि करे हैं, वे मार्ग महादोष के भरे हैं जिन में विषयकषाय की बाहल्यता है।
जिनशासन से और कोई दुःख के छुड़ायवे का मार्ग नहीं इसलिये हे विभीषण तुम अानन्द चित्त होयकर जिनेश्वर देव का अर्चन करो, इसभांति धनदत्त का जीव मनुष्य से देव, देवसे मनुष्य होयकर नवमें भव रामचन्द्र भए, उसकी विगत पहिले भव धनदत्त १ दूजे भव पहले स्वर्ग देवर तीजे भव पद्मरुचि सेठ ३ चौथमा दुजे स्वर्ग देव ४ पांच में भव नयनानन्दराजा ५ छठे भव चौथे स्वर्ग देव ६ सातमें भव श्री चन्द्र राजा ७ अाठमें भव पांच में स्वर्ग इन्द्र - नवमें भव रामचन्द्र आगे मोक्ष यहतो रामके भव कहे हैं अवहेलंकेश्वर वसदत्तादिक का वृतांत सन कम्र्मों की विचित्रगति के योगकरमणालकण्ड नामानगर वहां राजा विजयसेन राणी रत्नचुला उसके वज्रकंच नामापुत्र उसके हेमवती राणी उसके शंभ नामापुत्र पृथियो में प्रसिद्ध सो यह श्रीकांत का जीव रावण होनहार सो पृथिवी में प्रसिद्ध और वसुदत्त का जीव राजा वा पुरोहित उसका नाम श्रीमति सो लक्ष्मण होनहार, महा जिनधर्मी सम्यकदृष्टि उसके स्त्री सरखतो उसके वेदवती नामा पुत्री भई, सोगावती का जीव सीता होनहार गुणवती के भव से सम्यक्त बिना अनेक तियवयोनिविषेभमणकर साधुओंकी निन्दाके दोषकर गंगाके तट मरकर हथिनीभईएकदिनाच में फंसी पराधीनहोयगयाहै शरीर जिसका नेत्र तिरमिराट और मन्द मन्द सांस लेयसो एकतरंगवेगनामा विद्याधर महा दयावान उसने हथिनीके कानमें नमोकार मंत्र दिया सो नमोकार मंत्रके प्रभावकर मंद || कषाय भई और विद्याधरने व्रतभी दिये सो जिनधर्म के प्रसादसे श्रीभूति पुरोहितके देववती पुत्री भई एक दिन मुनि श्राहारको आए सो यह हंसने लगी तब पिताने निवारी सो यह शांतचित्त होय श्राविका |
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पगम 18८१
पद्म भई और यह कन्या परमरूपवती सो अनेक राजावोंके पुत्र इसके परिणबेकी अभिलाषी भए और यह
राजा विजयसेन का पोता शंभ जो रावण होनहारहै सो विशेष अनुरागी भया भोर पुरोहितश्रीभूति महा जिनधर्मी सो उसने जो मिथ्यादृष्टि कुवेर समान धनवान होय तौभी में पुत्री न दूं यह मेरेप्रतिज्ञाहै तब शंभुकुमारने रात्रि विष पुरोहितको मारा सो पुरोहित जिनधर्मके प्रसाद से स्वर्ग लोक विष देव भया और शंभुकुमार पापी बेदवती साक्षात देवी समान उसे न इच्छती को बलात्कार परणवे को उद्यमी भया वेदवतीके सर्वथा अभिलाषा नहीं तव कामकर प्रज्वलित इस पापीने जोरावरी कन्याको अलि गनकर मुख चुंम मैथुन किया तव कन्या विरक्त हृदय कांपे है शरीर जिसका अग्नि की शिखा समान प्रज्वलित अपने शील घातकर और पिताके घातकर परम दुःखको धरती लाल नेत्र होय महा कोप कर कहती भई अरे पापी तैंने मेरे पिताको मार मो कुमारीसे बलात्कार विषय सेवन किया सोनीच मैं-सेरे नाशका कारणं होऊंगी मेरा पिता ने मारासो बडा अनर्थ किया में पिताका मनोरथ कभी भी न उलधू मिथ्यादृष्टि सेवनसे मरण भला ऐसा कह वेदवती श्रीभूति पुरोहितकी कन्या हरिकांता आर्या के समीप जाय पार्यियाके व्रत लेय परम दुर्धर तप करती भई केश लुंच किये महातप कर रुधिर मांस मुकाय दिये प्रकट दीखे है अस्ति और नसा उसके तपकर मुखाय दिया है देह जिसने समाधि । मरणकर पांच में स्वर्ग गई पुग्यके उदयकर स्वर्गके सुख भोगे और शम्भु संसार विषे अनीतिके योग कर अति निन्दनाक भया कुटुम्ब सेवक और धनसे रहित भया उन्मतहोय गया जिनधर्भ परामुख
भया साधुओं को देख हंसे निन्दा करे मद्यमांस शहत का ग्राहारी पाप किया विर्षे उद्यमी अशुभके | उदय कर नरक तियच विषे महा दुःख भागता भया ।
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६८२॥
श्रयानन्तर कुछ इक पापकर्म के उपशमसे कुशध्वज नामा ब्राह्मण उसके सावित्री नामा स्त्री के प्रमा4। सकुन्दनाना पुत्र भया सो दुलम जिनधर्भका उपदेश पाय विचित्रमुनिक निकटमुनिभया काम क्रोध मद
मत्सरहरे प्रारंभ रहितमा निर्विकार तपकर दयावान निस्पृही जितेंद्री पक्षमास उपवासकरे जहां सूर्य अस हो वहां शून्य बनायेषे बैठ रह मूलगुण उतरगुणाका वारक वाईन परीपहका सहनहाग ग्रीषममें गिरिके शिखर रहे वर्षाने वृत्त तल बसे और शांत कालमें नदी मरोवरीके तट निवास करे इसभांति उतम क्रियाकर युक्त श्री सम्मेद शिखर की बदनाको गया वह निर्वाण क्षेत्र कल्याणका मंदिर जिसका चित क्न किये पापो का नारा होय वहां कनकप्रभ नामा विद्याधरकी विभूति आकाशमें देख मूर्ख ने निदान किया जो जिनधर्म के तपका माहात्म्य सत्य है तो ऐसी विभूति में भी पाऊं यहकथा भगवान के लीने विभी
पण को कही देखो जीवोंकी मृढ़ता तीन लोक जिसका मोल नहीं ऐसा अमोलिक तप रूपरत्न भोगरूपी । मूठी साग के अर्थ बेचा कर्मके प्रभाव कर जीवनकी विपर्यय बुद्धि होय हैं निदान कर दुःखित विषमतप
कर वह तीजे स्वर्गदेवभया वहां से चयकर भोगों विष है चित्त जिसका सोराजा रत्नश्रवा के राणी केकसी उसके गवणनामा पुत्र भया लंकामें महा विभूति पाई अनेक हैं आश्चर्यकारी वात जिसकी महा प्रतापी पृथिवी में प्रसिद्ध और धनदत्तका जीव रात्री भोजन के त्याग से सुर नर गति के सुख भोग श्री चन्द्रराजा होय पंचम स्वर्ग दश सागर सुख भोग बलदेव भया रूपकर बलकर विभूति कर जिस समान जगत में और दुर्लभहै महा मनोहर चन्द्रमासमान उज्वल यशका धारक और बमुदत्तका जीव अनुक्रमसे लक्ष्मी रूप लता के लपटानका वृक्ष बासुदेव भया उसके भवसुन वसुदत्त १ मृगरशूकर३
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। हस्ती ४ महिष ५ वृषभ ६ वानर ७ चीता ८ ल्याली मीढा १० और जलचरस्थलचर के अनेक भव ११ श्रीभूत पुरोहित १२ देवराजा पुनर्बमु विद्याधर १४ तीजे स्वर्ग देव १५ बासुदेव १६ मेघा १७ कुटुम्बी का पुत्र १८ देव १६ बणिक २० भोग भूमि २१ देव २२ चक्रवर्ती का पुत्र २३ फिर कइयक उत्तमभव धर पुष्करार्द्धक विदेह में तीर्थकर और चक्रवर्तीदोयपदकाधारी होय मोक्ष पावेगा और दशानन के भव श्रीकांत १ मृग २ सूकर ३ गज ४ महिष वृषभ ६ बादर७चीता ल्यालीहमींढा १०और जल चर थलचर के अनेक भव ११ शंभु १२ प्रभासकुन्द १३ तीजे स्वर्ग १४ दशमुख १५ बालुका १६ कुटुम्बी पुत्र १७ देव १८ बणिक १६ भोगभूमि २० देव २१ चक्रीपुत्र २२ फिर कईएक उत्तमभव धर भरत क्षेत्र में जिनराज होय मोक्ष पावेगा फिर जगत जाल में नहीं और जानका के भव गुणवती ? मृगी २ शूकरी ३ हथिनी ४ महिषी ५ गाय ६ वानरी ७चीतीपल्यालनी गारढ १० जलचर स्यलचर के अनेकभव ११ चितोत्सवा १२ पुरोहतकी पुत्री बेदवती १३ पांचमेंस्वर्ग देवी अमृतवत्ती १४ बलदेवकी पटराणी १५ सोलहवें स्वर्ग प्रतेन्द्र१६चक्रवर्ती१७अहिमिंद्र१८ रावणकाजीव तीर्थंकर होयगा उसके प्रथम गणधर देव होय मोक्ष प्राप्त होयगा। भगवान सकलभूषण विभीषण से कहे हैं श्रीकांतका जीव कइयक भव में शंभुप्रभासकुन्द होय अनुक्रम से गवणभया जिसने अर्द्धक्षेत्र में सफल पृथिवी वश करी एक अंग्रल आज्ञा सिवाय नरही और गुग्णवती का जीव श्रीभूत की पुत्री होय अनुक्रमकर सीता भई रजा
जनककी पुत्री श्रीरामचन्द्र की पटगणी विनयवतीशीलवती पतिव्रतावों में अग्रेसर भई जैसे इन्द्रकेशची | चन्द्रके रोहणी रवि के रेणा चक्रवती के सुभद्रा तैसे राम के सीता सुन्दर है चेष्टा जिसकी और जो
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18८४
पद्म । गुगावती का भाई गुणवान् सो भामण्डल भया श्रीराम का मित्र जनकराजा की राणी विदेहाके गभ I में युगुल वालक भये भामण्डल भाई सीता बाहिन दोनों महा मनोहर और यज्ञबलि ब्राह्मगा का जीव विभीषण भया और बैल्का जीव जो नमोकार मंत्र के प्रभाव से स्वर्ग गति नर गतिके मुख भोंगे यह सुग्रीव कपिध्वज भया भामण्डल मुग्रीव और तूं पूर्वभव की प्रीति कर तथा पुण्य के प्रभाव कर मा पुण्याधिकारी श्रीराम, उसके अनुरागी भए यह कथा सुन बिभीषण बालि के भव पूछता भयाभोर , केवली कहे हे हे विभीषण तू सुन राग द्वेषादि दुःखों के समूह कर भरा यह संसार सागर चद्धति भई उस विषे वृन्दावन में एक कालेरा मृग सो साधु स्वाध्याय करते थे तिनका शब्द अंतकाल में सुनकर ऐमेवत चत्र विष दित स्थान नामा मगर वहां विहित नामा मनुष्य .म्यकदृष्टि मुंदर चेष्ट का धारक उसकी स्त्री शिवमती उसके मेघवत्त नामा पुत्रभया सो जिन पूजा में उद्यमी भगवान का भक्त अणुवतका धारक समाधि मरणकर दूजे स्वर्ग देव भया वहां से चयकर जम्बूद्वीप विषे पूर्व विदेह वहां विजियावतापुरी उसके समीप पड़ा उत्साह का भरा एक मतकोकिला नामां प्राम उसका स्वामी काति,शोक उसकी स्त्री रत्नागिनी है स्वप्रम नामा पत्र भयां महासुन्दर जिसको शुभशाचार भावे सो जिनधर्म में निपुण संयत नामा मुनि होय हजारों वर्ष विधि पूर्वक बहुत भांतिके महाप किये निर्मले है मन जिसका सो तपक प्रभावकर अनेक ऋद्धि उपजी तथापि प्रति निगर्व संयोग संवन्धे में ममता को तज उपशम श्रेणी धार शुक्ल ध्यान के पहिले पाए के प्रभाव से सर्वार्थ सिद्ध । गया सौ तेतील सागर.अहिमिन्द्र पदके सुख- भोग सजा सूर्यरज उसके बालि नामा पुत्र भयाविया
।
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पुराव
पञ्च धरों का अधिपति किहकंधपुरका धनी जिसका भाई सुग्रीव महा गुणवान सो जब रावण चढ़ पाया।
तब जीवदया के अर्थ बालीने युद्ध न किया सुग्रीव को राज्य देय दिगंबर भया सो जब कैलाश में तिष्ठे था और रावण पाय निकसा क्रोध कर कैलाश के उठायब को उद्यमी भया सो बाली मुनि चैत्यालयों की भक्तिसे ढीलासो अंगुष्ठ दबाया सो रावण दवने लगा तब राणीने साधुकी स्तुति कर अभयदान दिवाया रावण अपने स्थानकगयाऔर बाली महामुनिके गुरूकेनिकट प्रायश्चितनामा तप लेय दोष निराकरण कर चायक श्रेणी चढ़कर्म दग्ध किये लोकके शिखरसिद्धिचेत्र हैं वहांगए जीव का निज स्वभाव प्राप्त भया और वसुदत्तके और श्रीकान्तके गुणवती के कारण महाबैर उपजा था सो अनेक जन्मों में दोनों परस्पर लड लड मरे और गणवती से तथा वेदवती से रावणके जीव कै अभिलाष उपजी थी उस कारण कर रावण ने सीता हरी और वेदवती का पिता श्रीभूति सम्यक दृष्टि उत्तम ब्राह्मण सो वेदवती के अर्थ शत्रु ने हता सो स्वर्ग जाय वहां से चयकर प्रतिष्ठित नाम नगर विषे पुनर्वसु नाम विद्याधर भया सो निदान सहित तपकर तीजे स्वर्ग जाय रामका लघु भ्राता महा स्नेह वन्त लक्ष्मण भया, और पूर्वले बेर के योग से रावण को मारा और वेदवती से शंभुने विपर्यय करी इसलिये सीता रावणके नाश का । कारण भई जो जिसको हते सो उसकर हता जाय तीन खण्ड की लक्षमी सोई भई रोत्रि उसका चंद्रमा रावण उसे हप्ता लक्ष्मण सागरान्त पृथिवी का अधिपति भया रावण सो शूर वीर पराक्रमी इस भांति । मारा जाय यह कमों का दोष है दुर्बल से सबल होय सवल से दुर्बल होय घातक है सो हता जाय और । ॥ इता होय सो घातक होय नाय संसार के जीवों की यही गति है कर्म की चेष्टा कर कभी स्वर्गके सुख ।
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.पुरा पावे कभी नरकके दुःख पावे और जैसे कोई महास्वाद रूप परम अन्न उस विषे विष मिलावे दृखित करे ६८६" तैसे मूढ़ जीव उग्र तप को भोगाभिलाष कर दूरित करे हैं जैसे कोई कल्पवृक्ष को काट कोई की बाडि
करे और विष के वृक्ष को अमृतरसकर सींचेऔरभस्मकेनिमित्तरत्नोंकी राशिको जलावे और कोयलों के निमित्त मलिय गिरि चन्दन को दग्धकरे तैसे निदानबंधकर तपको यह अज्ञानी दूषित करें इस संसार में सर्व दोषकी खान स्त्री हैं तिन के अर्थ क्या कुकर्म अज्ञानी न करें जो इस जीवने कर्म उपार्जे हैं सो ॥ अवश्य फल देय हैं कोऊ अन्यथा करखे समर्थ नहीं जे धर्म में प्रीति कर फिर अधर्म उपार्जे बेकुगति । को प्राप्त होय हैं तिनकी भूल कहां कहिये जे साधु होयकर मदमत्सर घरे हैं तिन को उग्रतप कर मुक्ति नहीं और जिसके शांति भाव नहीं संयम नहीं तप नहीं उस दुर्जन मिथ्या दृष्टि के संसार सागर के तिरवे का उपाय कहां और जैसे असराल पवन कर मदोन्मत्त गजेन्द्र उड़े तो सुसा के उड़वे का
कहां आश्चर्य तैसे संसार की झूठी माया में चक्रवर्तादिक बड़े पुरुष भलें तो छोटे मनुष्योंकी क्या बात । इस जगत् में परम दुःख का कारण वैरभाव है सो विवेकी न करें आत्म कल्याण की है भावना जिन
के पाप की करणहारी बाणी कदापि न बोलें गणवती के भव में मुनों का अपवाद कीया था और वेदवती के भव में एक मंडलका नामा ग्राम वहां सुदर्शननामा मुनि बन में आये लोक वन्दना कर पीछे गये और मुनिकी बहिन सुदर्शना नामाअार्यिका नाम मुनि के निकट बैठी धर्मश्रवण करेथी सो बेदवतीने
देखकर ग्राम के लोकों के निकट मुनि की निंदा करी कि में मुनि को अकेली स्री के समीप बैठा देखाचब || कैयकोंने बाप्त मानी और कैयक बुद्धिवन्तीने नमानी परन्तु प्राममें मुनिका अपवादभया, तबमुनिने नियम |
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घराण 18८७
कीया कि यह झूठा अपवाद दूरहोय तो आहार को उतरना तब नगर देवताने बेदवती के मुखकर समस्त ग्राम के लोकों को कहाई कि मैं झूठा अपवाद किया यह बहिन भाई हैं और मुनिके निकट जाय वेदवतीने क्षमा कराई । कि हे प्रभो मैं पापनी ने मिथ्या वचनकहे सो क्षमाकरो इसभांति मुनिकी निंदाकर सीताका झा अपवाद भया, और मुनिसे क्षमा कराई उसकर अपवाद दूरभयो इसलिये जेजिनमार्गी हैं वे कभी भी परनिंदा न करें किसीमें सांचाभी दोषहै तौभी ज्ञानी न कहें और कोऊ कहताहोय इसे मनेकरें सर्वथा प्रकार पराया दोष ढाकें जे कोई पर निंदा करें हैं सो अनन्त काल संसार बनमें दुख भोगबें हैं सम्यक् दर्शनरूप जारत्न उसका बड़ागुण यही है जोपराया अपगुण सर्वथा ढांके जो सांचा भी दोष परायो कहें सो अपराधी हैं और जो अज्ञानी से मत्सरभाव से पराया भठा दोष प्रकाशे उस समान और पापी नहीं अपने दोष गुरू के निकट प्रकाशने और पगये दोष सर्वथा ढांकने जो पराई निंदा करे सो जिनमार्गसे पगंमुख हैं यह केवली के परम अद्भुत वचन सुनकर सुर असुर नर सब ही आनन्द को प्राप्त भए वैर भाव के दोष सुन सब सभा के लोग महादुख के भयकर कंपायमान भए मुनि तौ सर्व जीवों से निकर हैं अधिक शुद्ध भाव धारते भए और चतुनिकाय के सबही देव क्षमा को प्राप्त होय बैरभाव तजते भए
और अनेक राजा प्रतिबुद्ध होय शांति भाव धार गर्व का भार तज मुनि और श्रीवक भए औरजे मिथ्या वादी थे वहभी सम्यक्त को प्राप्त भए सबही कर्मों की विचित्रता जान निश्वास नाषते भए धिक्कार इस जगत्की माया को इसभांति सब ही कहते भए और हाथ जोड़ सीस निवाय केवली को प्रसाम कर सुर असुर मनुष्य विभीषण की प्रशंसा करते भए कि तुम्हार प्राश्रय से हमने केवली के मुख उत्तम पुरुषों के
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पश Hoe
मनपा
चारित्र सुने तुम धन्यहो फिर देवेंद्र नरेंद्र नागेंद्र सबही आनन्दके भरे अपने परिवार बर्ग सहित सर्वज्ञ देव की स्तुति करते भये हेभगवान पुरुषोत्तम यह त्रैलोक्य सकल तुमकर शोभे है इसलिए तुम्हारा सकल भूपण नाम सत्यार्थ है तुम्हारी केवल दर्शन केवलज्ञान मई निजविभूति सर्व जगतकी विभूति को जीत कर शोभे है यह अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी सर्व लोक का तिलक है यह जगतके जीव अनादि कालके वश होय रहे हैं महादुःख के सागर में पडे हैं तुम दीनों के नाथ दीनबंधुकरुणानिधान जीवोंको जिनराज पद दोहे केवलिन हम भव बनके मृग जन्म जरामरण रोग शोक वियोगव्याधि अनेक प्रकार के दुःख भोक्ता अशुभ कर्म रूप जाल में पड़े हैं इस लिए छूटना कठिन है सो तुम ही छुडाइवे समर्थहो हम को निज बोध देवो जिसकर कर्मका क्षय होय, हे नाथ यह विषय बासना रूप गहन बन उसमें हम निजपुरी का मार्ग भूल रहे हैं सो तुम जगतके दीपक हम को शिव पुरीका पंथ दरसावो और जे प्रात्म बोधरूप शांत रसके तिस.ये तिनको तुम तृषाके हरणहारे महा सरोवर हो और कर्म भर्म रूप बनक। भस्म करिबे को साक्षात् दावानलरूप हो और जेविकल्प जाल नानाप्रकारके वेई भए वरफ उसकर कंपायमान जगत् के जीव तिनकी शीत व्यथा इखि को तुम साक्षात् सूर्य्य हो. हे सर्वेश्वर सर्वभूतेश्वर जिनेश्वर तुम्हारी स्तुति करिबे को चार ज्ञान के धारक गणधर देव भी समर्थ नहीं तो और कौन हे प्रभो तुमको | हम बारम्बार नमस्कार करें हैं॥
१०६ एकसौ छठो पर्व संपूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर केवली के बचन सुन संसार भ्रमण का जो महादुःख उसकर खेदखिन्न होय जिन दीक्षा । की है अभिलाषा जिसके ऐसा राम का सेनापति कृतान्त वक राम से कहता भया हे देव में इस संसार ।
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पा असार विष अनादि कालका मिथ्या मार्ग कर भूमता हुवा दुःखितभया अब मेरेनुनिव्रत परिवेकी इच्छा। MEEE है,तब श्रीराम कहतेभए जिनदीचा अति दुर्धरहै तू जगतका स्नेह तज कसे धारेंगा महा तीब शीत ।
उष्ण आदि बाइस पगषह कैसे सहेगा और दुर्जन जनोंके दुष्टबचन कंटक तुल्य कैसे सहेगा और अब । तक तैंने कभी भी दुःख सहे नहीं कमलका किरण समान शरीर तेग सो कैसे विषमभूमि के दुख । सहेगा गहन बनमें कैसे रात्रि पूरी करेगा और प्रकट दृष्टि पडे हैं शरीर के हाड और नसा जाल वहां ऐसे उग्र तप कैसे करेगा और पत्र मास उपवास का दोष टाले पर घर नीरस भोजन कैसे कग्गा तू महा तेजस्वी शत्रुओं की सेनाके शब्द न सहि सके सोकैसे नीच लोकोंके किये उपसर्ग सहेगा तव कृतांतबक बोला हे देव जब मैं तुम्हारे स्नेहरूप अमृत के ही तजबेकी समर्थ भया तो मुझे कहीं। विषम है जस्तक मृत्युरूप बज्रकर यह देह रूप स्तंभ न विगे उस पहिले में महा दुःख रूप यह भव । बन अंधकार मई उससे निकसा चाहूंहूं जो बलते घरमे से निकसे उसे दयावान नरोके यह संसार असार महानिन्ध है इसे तनकर आत्म हितकरूं अवश्य इष्टका वियोग होयगा इस शरीर के योग कर सब दुःखहै सो हमारे शरीर फिर उदय न आवे इस उप.य विबुद्धि उद्यमी भई है ये बचन कृतांत बक्रके सुन श्रीराम के प्रांसू पाए और नीठे नीठे मोहका दाब कहते भए मेरसी विभूतिकोतज तूतष को सन्मुख भया है सो धन्य है जो कदाचित् इस जन्म मोक्ष न होय और देव होयतो संकटमें प्राय मुझे संबोधियो हे मित्र जो तू मेरा उपकार जाने है तो देवगतिमें विस्मरण मत करियो तब कृतांतबक्रने नमस्कारकरकही हे देव जो आप आज्ञाकरोगे सोही होयगा ऐसाकह सर्व आभूषण उतारे और सकलभूषण
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पुराण 1680
| केवलीको प्रणाम कर अन्तर बाहिरके परिग्रह तजे कृतांतवक्रथा सो सौम्यकबक्र होयगया सुंदरहै चष्टा जिमकी इसको श्रादि दे अनेक महाराजा वैरागी भए उपजी है जिनधर्मकी रुचि जिनके निथ । व्रत धारते भये और कइएक श्रावक व्रतको प्राप्तभए और कैयक सम्यक्त को धारते भए वह सभा हर्षित || होय रत्नत्रय प्रापणकर शोभित भई समस्त सुर असरनर सकल भूषण स्वामी को नमस्कारकर अपने || अपने स्थानक गये और कमलसमान नेत्र जिनके ऐसे श्रीराम सोसकलभूषणस्वामी को और समस्त। साधुवों को प्रणामकर महा विनयरूप सीता के समीपाए कैसी है सीता महानिर्मल तपकातेज धर जैसी। घृतकी आहुतिकर अग्निकी शिखा प्रज्वलित होय तैसी पापोंके भस्म करिवेको साक्षात अग्निरूप तिष्ठी। है आर्यिकावों के मध्य तिष्ठती देखी देदीप्यमान है किरणोंका समूह जिसके मानों अपूर्व चन्द्रकांति तारावों। के मध्य तिष्ठती है आर्यिकावों के व्रतधरे अत्यन्त निश्चलहै तजे हैं श्राभूषण जिसने तथापि श्री ही घृति। कीर्ति बुद्धि लमी लज्जा इनकी शिरोमणि सोहे है श्वेत वस्त्रको धरे कैसी सोहे है मानों मन्दपवन कर चलायमान हैं फैन कहिये झाग जिसके ऐसी पवित्र नदी ही है और मानों निर्मल शरद पूनोंकी चांदनी समान शोभा को धरे समस्त आर्यिकारूप कुमुदनियों. को प्रफुल्लित करणहारी भासे है महा वैराग्य को धरे । मूर्तिवंती जिनशासनकी देवताहीहै ऐसौ सो सीता को देख आश्चर्यको प्राप्तभया है मन जिसका ऐसे श्री राम कल्पवृक्ष समान क्षण एक निश्चल होय रहे स्थिर हैं नेत्र भ्रकुटी जिनकी जैसे शरदकी मेघमाला केसमीप कंचनगिरि सोहै तैसे श्रीराम अार्थिकावों के समीप भासतेभये, श्रीराम चित्त में चितवते हैं | यह साचात चन्द्रकिरण भव्य जन कुमुदनी को प्रफुलित करणहारी सोहे है बड़ा आश्चर्य है यह
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पद्म
परास
६६१ ।।
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कायर स्वभाव मेघके शब्द से डरती सो अब महा तपस्विनी भयंकरवन में कैसे भयको न प्राप्त होगी नितंबीके भार से आलस्य रूप गमन करणहारी महा कोमल शरीर तप से बिलाय जायगी कहां यह कोमल शरीर और कहां यह दुर्धर जिनराज का तप सो अति कठिन है जो दाह बड़े २ वृच्चों को दाहे उसकर कमलनी की कहां बात, यह सदा मनवांबित मनोहर याहार की करणहारी अव कैसे यथालाभ भिक्षा कर कालच्चेप करेगी यह पुण्याधिकारणी रात्रि में स्वर्ग के विमान समान सुन्दर महिल में मनोहर सेज पर पौढ़ती और बीण बांसुरी मृदंगादि शब्द कर निद्रा लेती सो अब भयंकर न में कैसे रात्रि पूर्ण करेगी बन तो डाभकी तीक्षण प्रणियों कर विषम और सिंह व्याघ्रादिके शब्द कर डरावना देखो मेरी भूल जो मूढ़ लोकों के अपवाद से मैं महा सती पतिव्रता शीलवंती सुन्दरी मधुर भाषिणी घरसे निकासी इस भांति चिंताके भारकर पीडित श्रीराम पवनकर कंपायमान कमल समान कंपायमान होते भये फिर केवली के बचनं चितार धीर्य घर धांसू पुंछ शोक रहित होय महा बिनकर सीताको नमस्कार किया लक्ष्मण भी सौम्य है चित्त जिसका हाथ जोड़ नमस्कार कर राम सहित स्तुति करता भया भगवती धन्यतुं सती बन्दनीक है सुन्दर चेष्टा जिसकी जैसेवरा मुमेरु को धारे तैसे तू जिनराजका धर्म धारे है तैने जिन बचनरूप अमृत पिया उसकर भव रोग निवारेगी सम्यक्त ज्ञान रूप जहाजकर संसार समुद्र को तिरेगी जे पतित्रता निर्मल चित्तकी धरण हारी हैं तिनकी . यही गति है अपना आत्मा सुधारें और दोनों लोक और दोनों कुल सुधारें पवित्रचित्तकर ऐसी क्रिया दरी हे उत्तम नियमकी धरणहारी हम जो कोई अपराध कियाहोय सो क्षमा करियो संसारी जीवों
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पन के भाव अविवेक रूप होय, सो तू जिनमार्ग विषे प्रवरती संसारकी माया अनित्य जानी और परम ह, आनन्द रूप यह दशा जीवों को दुर्लभ है इसभांति दोनों भाई जानकीकी स्तुति कर लव अंकुश को
भागे घरे अनेक विद्याधर महीपालं तिन सहित अयोध्यामें प्रवेश करते भए जैस देवों सहित इंद्र अमरावती में प्रवेश करें और समस्त राणी नाना प्रकार के नाहनों पर चढ़ी परिवारसहित नगरमें प्रवेश करती भई सो रामको नगरमें प्रवेश करता देख मंदिर ऊपर बैठी स्त्री परस्पर बार्ता करे हैं यह श्री रामचन्द्र महा शूरवीर शुद्धहै अन्तःकरण जिनका महा विवेकी मढ़ लोकोंके अपवाद से ऐसी पतिव्रता नारी खोई तब कैयक कहती भई जे निर्मल कुलके जन्में शूरवीर क्षत्री हैं तिनकी यही रीति है किसी प्रकार कु को कलंक न लगावें लोकोंके संदेह दर करिवे निमित्त रामने उसको दिव्य दई वह निर्मल प्रात्मा दिव्य में सांची होय लोकोंके संदेह मेट जिन दीक्षा धारती भई और कोई कहैं हे सखि जानकी बिना राम कैसे दीखे हैं जैसे बिना चांदनी चांद और दीप्ति बिना सूर्य तब काई कहती भई यह आप ही ! महा कांति धारी हैं इनकी कांति पराधीन नहीं और कोई कहती भई सीता का वजचित्त है जो ऐसे । पुरुषोत्तम पति को छोड़ जिन दीक्षा धारी तब कोई कहती भई धन्य है सीता जो अनर्थ रूप गृहबास को तज आत्म कल्याण किया और कोई कहती भई ऐसे सुकुमार दोनों कुमार महा धीर लव कुश कैसे तजे गए स्त्रीका प्रेम पतिसे छूटे परन्तु अपने जाए पुत्रों से न छूटे तब कोई कहती मई ये दोनों
पुत्र परम प्रतापी हैं इनका मातो क्या करेगी इनका सहाई पुण्य ही है और सबही जीव अपने अपने । कर्म के प्राधीन हैं इस भांति नगर की नारी बचनालाप करें हैं जानकी की कथा कौनको मानन्द
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६३
कारिणी न होय और यह सबही रामके दर्शन की अभिलोपिनी राम को देखती देखती तृप्त न भई पद्म पराग जैसे भ्रमर कमल के मकरन्द से तृप्त न होय और कैयक लक्षमणकी अोर देख कहती भइ ये नरोत्तम
नारायण लक्ष्मीवान अपने प्रतापकर वशकरी है पृथ्वी जिन्होंने चक्रके धारक उत्तमराज्य लक्ष्मीके स्वामी वैरियोंकी स्त्रियोंको विधवा करणहारे रामके श्राज्ञाकारी हैं इस भांति दोनों भाई लोक कर प्रशंसा योग्य अपने मन्दिर में प्रवेश करते भए जैसे देवेन्द्र देवलोक में प्रवेश करें । यह श्रीराम का चारित्र। जो निरन्तर धारण करे सो अविनाशी लक्ष्मी को पावे ॥ इति एकसौ सातवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ ___अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामी के मुख श्रीगम का चरित्र सुन मन में विचारता भयो । कि सीता ने लव अंकुश पुत्रों से मोह तजा सो वह सुकुमार मृगनेत्र निरन्तर सुख के भोक्ता कैसे माता। वियोग सहसके ऐसे पराक्रम के धारक उदारचित्त तिन को भी इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग होय है तो
औरों की क्या बात यह विचार कर गणधर देव से पूछा, हे प्रभो मैं तुम्हारे प्रसादकर राम लक्ष्मणका चरित्र सुनो अब वाकी लव अंकुश का सुना चाहूं हूं तब इन्द्रभूत कहिये गौतमस्वामी कहतेभए हे राजन् । कोकन्दी नाम नगरी उसमें राजारतिवर्द्धन राणी सुदर्शना उसके पुत्र दोय एक प्रियंकर दूजा हितंकर और मन्त्री सर्वगुप्त राज्यलक्ष्मी का धुरंधर सो स्वामीद्रोही राजाके मारिबे का उपाय चिन्तवे और सर्वगुप्त । की स्त्री विजियावली सो पापिनी राजा से भोग किया चाहे और गजा शीलवान परदारा पराङमुख इसकी माया में न आया, तब इसने राजा से कही मन्त्री तुम को मारा चाहे है सो राजाने इसकी बात न मानी तब यह पतिको भरमावती भई कि राजा तुझे मार मुझे लिया चाहे है तब मंत्री दुष्टने सब सामंत
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PM राजाने फोरे और राजा का जो सोवने का महिल वहां रात्रि को अग्नि लगाई सो राजा सदा सावधान पुराव ६६४/ थो और महिल में गोप सुरंग रखाई थी सो सुरंग के मार्ग होय दोनों पुत्र और स्त्री कोलेय राजा निकसा
सो काशी का धनी राजा कश्यप महान्यायवान् उग्रवंशी राजा रतिवर्धन का सेवक था उसके नगरको राजा गोप्य चला और सर्वगुप्त रतिवर्धनके सिंहासनपर बैठा सबको आज्ञाकारी किए और राजा कश्यप को भी पत्र लिख दूत पठाया कि तुमभी आय मुझे प्रणाम कर सेवा करो, तब कश्यपने कही हे दूत सर्व गुप्त स्वामीद्रोही है सोदुर्गति के दुःख भोगेगा, स्वामीद्रोही का नाम न लीजे मुख न देखिये सो सेवा कैसे कीजे उस ने राजा को दोनों पुत्र और स्त्री सहित जलाया सो स्वामी घात स्त्रीघात और बाल घात यह महादोष उस ने उपार्जे इसलिये ऐसे पापी का सेवन कैसे करीये जिस का मुख न देखना तो सर्व लोकों के देखते उस का सिर काट धनी का बैर लूगा, तब यह वचन कह दूत फेर दिया दूत ने जाय सर्वगुप्त को सर्व वृतांत कहा, सो अनेक राजावों कर युक्त महासेना सहित कश्यप ऊपर पाया सो आयकर कश्यप का देश घेरा, काशी के चौगिर्द सेना पड़ी तथापि कश्यप के सुलह की इच्छा नहीं युद्ध ही का निश्चय, और राजा रतिवर्धन रात्रि के विषे काशी के बनमें पाया और एक द्वार पाल तरुण कश्यप पर भेजा सो जाय कश्यपसे राजाके प्रावनेका बृतांत कहताषयासोकश्यपअति प्रसन्न भया और कहां महाराज कहां महाराज ऐसे वचन बारम्बार कहता भया, तब द्वारपालने कहा, महाराज बन में तिष्ठे हैं तब यह धर्मी स्वामी भक्त अतिहर्षित होय परिवार सहित राजापे गया और उसकी भारतीकरी प्रोस्पांवपकर जय जयकार करता नगरमें लाया नगर उछालाऔर यह ध्वनि नगरमें विस्तरी
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पन कि जो किसीसे न जीता जाय ऐसोरतिवधन राजेन्द्र जयवन्तहोवे राजा कश्यपने धनीके श्रावनेकाप्रति घराण' उत्सव किया और सब सेना के सामन्तों को कहाय भेजा कि स्वामी तो विद्यमान तिष्ठे है और तुम 1880
स्वामोद्रोही के साथ होय स्वामीसे लड़ोगे क्या यह तुमको उचित है तबवह सकल सामंत सर्बगुप्तको छोड स्वामीप पाए और युद्ध में सर्वगुप्त को जीवता पकड़ काकंदीनगरीकाराज्य रतिवर्धनके हाथ में आया राजाजीवतावचा सो फिर जन्मोत्सव किया महादान किए सामंतों के सनमान किए भगवान्की विशेष । पूजा करी कश्यप का बहुत सन्मान किया अति बधाया और घरको विदा किया सो कश्यप काशी के विषे लोकपालों की नाई रमें और सर्बगुप्त सर्वलोकनिन्द मृतक के तुल्य भया कोई भीटे नहीं मुख देखे नहीं, तब सर्वगुप्त ने अपनी स्त्री विजयावली का दोषसर्वत्र प्रकाशा कि इसने राजाबीच और मोबीच तफावत पाया यह बृतांत सुन विजियावली प्रति खेद को प्राप्त भई कि मैंने राजा की भई न धनी की भई सो मिथ्ण तप कर राक्षसी भई, और राजा रतिवर्धन ने भोगों से उदासहोय सुभानुस्वामी के निकट मुनिव्रत धरे सो राक्षसी ने रतिवर्धन मुनिको अति उपसर्ग किए मुनि शुभोपयोग के प्रसाद से केवली भए, और प्रियंकर हितंकर दोनों कुमार पहिले इसी नगर विषे वसुदेव नामा विप्र श्यामली स्त्री के वसुदेव की स्त्री विश्वा और सुदेव की स्त्री प्रियंगु इनका गृहस्थ पद प्रशंसा योग्य था इन श्री तिलक नाम मुनि को आहार दान दिया सो दान के प्रभाव कर दोनों भाई स्त्री सहित
उत्तरकुरु भोगभूमि में उपजै तीनपल्यका प्रायुभया, लाघुका जो दान सोई भया वृक्ष उसके महाफल भोग | भूमि में भोग दूजे स्वर्ग देवभए वहां सुख भोग चये सो सम्यग्ज्ञान रूपलक्ष्मी कर मंडित पाप कर्म के चय।
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पद्म
पुराण
करणहार प्रियंकर हितंकर भये मुनि होय चैवयक गये वहांसे चयकर लवगणांकुश भये महाभव्य तद्भव "६६६" मोक्षगामी और राजा रतिवर्धन की राणी सुदर्शना प्रियंकर हितंकर की माता पुत्रों में जिसका अत्यन्त अनराग था सो भरतार यार पुत्रोंके वियोग से अत्यन्त चार्तिरूप होय नानायोनियों में भ्रमणकर किसी एक जन्म विषे पुण्य उपार्ज यह सिद्धार्थ भया धर्म में अनुरागी सर्व विद्यामें निपुण सो पूर्व भव के स्नेहसे लवकुशको पढाए ऐसेनिपुण किए जो देवों करभी न जीते जांय यह कथा गौतमस्वामीने राजा श्रेणिक से कही और आज्ञाकारी हे नृप कि यह संसार असार है और इस जीव के कौन २ माता पिता न भए जगत के सबही संबंध झूठे हैं एक धर्म ही का सम्बन्ध सत्य है इस लिए विवेकियों को धर्म ही का यत्न करना जिस कर संसार के दुःखों से छूटे समस्त कर्म महानिंद्य दुःखकी वृद्धि के कारण तिनको तज कर जैन का भाषा तपकर अनेक सूर्य की कांति को जीत साधु शिवपुर कहिये मुक्ति गए । एकसौट० अथानन्तर सीतापति और पुत्रों को तजकर कहां २ तप करती भई । सो सुनों कैसी है सीता लोक में प्रसिद्ध है यश जिसका जिससमय सीता भई वह श्रीमुनि सुव्रतनाथजी का समय था वे बीसमें भगवान महाशोभायमान भवभूमके निवारण हारे जैसा अरहनाथ और मल्लिनाथका समय तैसामुनि सुव्रतनाथ का समय उस में श्री सकल भूषण केवली केवल ज्ञान कर लोक लोक के ज्ञाता विहार करें हैं अनेक tayahीए सकल अयोध्या के लोक जिन धर्म में निपुण विधि पूर्वक गृहस्थ का धर्म राधे सकल प्रजा भगवान सकलभूषण के वचन में श्रद्धावान जैसे चक्रवर्ती की आज्ञा को पालें | तैसे भगवान् धर्म चक्री तिनकी आज्ञा भव्य जीवपालें राम का राज्य महाधर्म के उद्योतरूप जिस समय
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पद्म । पुराण 188७॥
घने लोक विवेकी साधु सेवा में तत्पर देखो जो सीता अपनी मनोग्यता कर देवांगनावां की शोभा को जीतती थी सो तपकर ऐसी हो गई मानों दग्ध भई माधुरी लता ही है महावैराग्य कर मण्डित अशुभ । भाव कर रहित स्त्री पर्याय को प्रतिनिंदती महातप करती भई धर कर घसरे होय रहे हैं केश जिस के ।
और स्नान रहित शरीरके संस्कार रहित पसेव कर युक्त गात्र जिस में रज प्राय पड़े सोशरीर मलिन होय रहा है बेला तेला पक्ष उपवास अनेक उपवास कर तनु क्षीण किया दोष टार शास्त्रोक्त पारणा करे । शीलके गुण व्रतकेगुणोंमें अनुरागिणी अध्यात्म के विचार कर अत्यन्त शांत होयगया है चित्त जिसका। वश कीये हैं इन्द्रिय जिसने ओरों से न बने ऐसा उग्रतप करती भई मांस और रूधिर कर वर्जित भया । है सर्व अंग जिसका प्रकट नजर अावे हैं अस्थि और नसा जाल जिसके मानों काठकी पुतली ही है सूकी। नदी समान भासती भई बैठ गय हैं कपोल जिसके जड़ा प्रमाण धरती देखती चलेमहादयावन्ती सौम्य है। दृष्टि जिसकी तप का कारण देह उसके समाधान के अर्थ विधिपूर्वक भिक्षा बृत्ति कर अाहार करे। ऐसा । तप कीया कि शरीर और ही होगया अपना पराया कोई न जाने सो जो यह सीता है इसे ऐसा तप। करती देख सकल भार्या इसही की कथाकरें इस ही की रीति देख और आदरें सबोंमें मुख्यमई इसभांति । बासठ वर्ष महातप कीये और तेतीस दिन आयु के बाकी रहे तब अनशन बतधार परमश्राराधना श्राराध जसपुष्पादिकउछिष्ठमाथरेकोतजी तैसेशरीर कोतजकर अच्युतस्वर्ग में प्रतेन्द्रभई,गौतमस्वामी कहहैं.हे श्रेणिक जिनधर्मका माहात्म्य देखोजोयह प्राणिस्त्रोपर्यायविषे उपजीथीसोतपके प्रभावकर देवोंका प्रभु होय सोता.अच्युत स्वर्ग विषे प्रतेन्द्र, भई वहां मणियों की कांति कर उद्योत कीयाहै अाकाश विषे जिसने असे
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पश्च । विमान विष उपजी विमान मणि कांचनादि महाद्रव्यों कर मण्डित विचित्रता घरे परम अद्भत सुमेरु JI के शिखर समान ऊंचहें वहां परम ईश्वरता कर सम्पन्न प्रतेन्द्र भया हजारों देवांगना तिनके नेत्रों का
आश्रय जैसा तारावों कर मण्डित चन्द्रमा सोहे तैसा सोहता भया. और भगवान की पूजा करता भया मध्यलोक में प्राय तीयों की यात्रा साधवों की सेवा करता भया और तीर्थकरोंके समोसरण में गणघरों के मुख से धर्मश्रवण करताभया, यह कथा सुनगौतमस्वामी से राजा श्रेणिकने पूछी हे प्रभो सीताका जीव सोलमें स्वर्ग प्रतेन्द्र भया उस समय वहां इन्द्र कौन था तव गौतमस्वामी ने कही उस समय वहां राजा। मध का जोव इन्द्र था। उसके निकट यह प्रतेन्द्र भयासोवह मधुका जीव नेमिनाथ स्वामी के समय अच्यु तेन्द्रपद से चय कर वासुदेव की रुक्मणी राणी ताके प्रद्युम्न, पुत्र भयो और उस का भाई कैटभ जांबुवतीके शंभु नाम पुत्र भया, तब श्रोणिक ने गौतमस्वार्मा से बेनती करी हे प्रभो मैं तुम्हारे वचन रूप अमृत पीवता पीवता तृप्त नहीं जैसे लोभी जीव धनसे तृप्त नहीं इसलिये मुझे मधुको और उसकेभाई कैटभका चरित्र कहो तब गणधर कहते भये । एक मगध नामो देश सर्व धान्य कर पूर्ण जहां चारों वर्ण हर्ष सेवसें धर्म अर्थकाममोक्ष के साधक अनेक पुरुष पाईयें और भगवान् के सुन्दर चैत्यालय और अनेकनगर ग्राम तिन कर वह देश शोभित जहां नदियों के तट गिरियों के शिखर बनमें ठोर ठौर साधुवोंके संघ विराजे हैं राजा नित्योदित राज्यकरे उस देशमें एक शालि नाम ग्रामनगरसारिखाशोभितवहां एकबाहण सोमदेव उसके स्त्री अग्निला पुत्र अग्निभूत वायुभूत सोवे दोनों भाई लौकिक शास्त्र में प्रवीण और पठन पाठन | दान प्रतिग्रह में निपुण और कुल के तथा विद्या के गर्व कर गर्वित मनमें ऐसा जाने, हमसे अधिक
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प। कोई नहीं जिनधर्म से परांमुख रोग समान इन्द्रीयों के भोग तिन ही को भले जाने एक दिन स्वामी ।
नन्दीवर्धन अनेक मुनियों सहित बनमें प्राय विराजे बड़े. प्राचार्य्य अवधि ज्ञान कर समस्त मूर्तिक पदार्थों को जाने सो मुनियों का आगम सुन ग्राम के लोक सब दर्शन को आये थे और अग्निभूत वायु भूतने किसीसे पूछी जो यह लोक कहांजाय तब उसने कही नन्दिवर्धन मुनि आये हैं तिनके दर्शन जाय हैं तब मुनकर दोनों भाई कोधायमान भये जो हम बादकर साधुवोंको जीतेंगे तब इनको माता पिता ने मने किया जो तुम साधुवोंसे बाद न कगे तथापि इन्होंने न मानी बादको गये तब इनको श्राचार्य के निकट जाते देख एक सात्विक नामा मुनि अवधिज्ञानी इनको पूछते भये तुम कहां जावो हो तब इन्होंने कही तुम में श्रेष्ठ तुम्हारा गुरु है उनको बादकर जीतवे जायहें तब सात्विक मुनि ने कही हमसे चर्चा करो तब यह क्रोधकर मुनि के समीप बैठे और कही तुम क्या जानो हो तब मुनिने कही तुम कहाँ से आये तब वह क्रोधकर कहते भये यह तें कहां पूछी हम ग्राम में से आये हैं । कोई शास्त्रकी चर्चा कर तब मुनि कही यह तो हमा जाने हैं तुम शालिग्राम से पाये हो और तिहारे बापका नाम सामदेव माताका नाम अग्निला पोर तुम्हारे माम अग्विभूत तुम विप्रकुल हो सो यह तो प्रकटहै परन्तु हम तुम से यह पूछे हैं अनादिकालके भवन विषे भूमण करोहो सो इस जन्म विष कौन जन्म से प्राय हो तब इन्होंने कही यह जन्मान्तरकी बात हमको पछी सो और कोई जाने है तब मुनिने कही हम जाने हैं तुम सुनो पूर्वभव विष तुम दोनों भाई इस प्रामके बनमें परस्पर स्नेह के धारक स्याल थे | विरूप मुख और इसी ग्राम विषे एक बहुत दिनका बासी पामर नामा पितहड ब्राह्मण सो वह क्षेत्र
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।
पद्म में सूर्य अस्त समय तुधा कर पीडित नाडी आदि उपकरण तजकर आया और अंजनगिरि तुल्य मेघ परा"
माला उठी सात अहोरात्रको झड़ भया सोपामर तो घरसे पाय न सका और वे दोनों स्य.ल अतितुधा 'तुर अन्वेरी रात्रि आहा'को निकसे सो पामरके क्षेत्र में भीजी नाडी कर्मदकरलिप्त पडीथी सो इन्होंने भक्षणकी उसकर विकराल उदर वेदना उपजी स्याल मूवे काम निर्जराकर तुम सोमदेव के पुत्र भये और वह पामर सप्तदिन पीछे क्षेत्र बाया सो दोनों स्याल मूए देख और नाडी कटी देख स्यालों की चर्म ले भागडी करीसो अबतक पामर के घरमें टिकी है और पामरमरकर पुत्र के घर पुत्र भया सो जातिस्मरण होय मौन पकड़ी जो में कहा कहों पिता तो मेरा पूर्वभव का पुत्र और माता पूर्व भव के पुत्र
की बधू इसलिए न बोलनाही मला सो यह पामर का जाव मौनी यहांही बैठा है ऐसाकह मुनि पामर | केजीव से बोले अहो तू पुत्रके पुत्र भया ।सो यह आश्चर्य नहीं संसार का एसाही चरित्र है जैसे नृत्यक
अखाडे में बहुरूपी अनेक रूपवनाय नाचे तैसे यह जीव नाना पर्य्य यरूप मेशधरनाचें हैं राजारंकहोय रंक मे राजाहोय स्वामी से सेवक सेवकसे स्वामी पितासे पुत्र पुत्र से पिता मातास भार्या जो भार्यासे मात. । यह संसार अरहट की घड़ी है। ऊपरली नीचे नीचली ऊपर, असा संसार को स्वरूप जान हे वत्स अब
तू गंगापना तज वचनालाप कर इस जन्म का पिता है तासे पिता कह माता से माता कह पूर्व भव का | व्यवहार रहा यह वचन सुन वह विप्र हर्ष कर रोमांच होय फल गये हैं नेत्र जिस के मुनि को तीन प्रद
क्षिणा दय नमस्कार कर जैसे वृक्ष की जड उखड जाय और गिर पड़े तैसे पायन पड़ा । और मुनि को | कहता भया हे प्रभो तुम सर्वज्ञ हो सकल लोक की व्यवस्था जानों हो इस भयानक संसार सागर में मैं
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पा
चराण
१००१
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था सो तुम दया कर निकासा आत्मबोध दिया । मेरे मन की सब जानी अब मुझे दीक्षा देवो सा कह कर समस्त कुटुम्ब का त्याग कर मुनि भया यह पामर का चरित्र सुन अनेक लोक मुनि भये अनेक श्रावक भये और इन दोनों भाईयों की पूर्व भव की खाल लोक लेयाये सो इन्होंने देखी लोकों ने हास्यकरी कि यह मांसक भक्षक स्याल थे सा यह दोनों भाई दिज बड़े मूर्ख जो मुनियों से वाद करने येथे ये महा मुनि तपोधन शुद्धभाव सबके गुरु अहिंसा महाव्रत के घारक इस समान और नहीं यह महामुनि महाव्रत रूप शिखाके धारक क्षमारूप यज्ञोपवीत धेरें ध्यानरूप अग्निहोत्र के कर्ता महाशांत मुक्ति के साधन में तत्पर और जे सर्व आरम्भ विषे प्रवरते ब्रह्मचर्य रहित वे मुखसे कहे हैं कि हम द्विज हैं परन्तु क्रिया करें नहीं जैसे कोई मनुष्य इस लोक में सिंह कहावे देव कहावे परंतु वह सिंह देव नहीं तैसे यह नाम मात्र ब्राह्मण कहावें परंतु इनमें ब्रह्मत्व नहीं और मुनिराज धन्य हैं परमसंयमी घीर क्षमावान तपस्वी जितेंद्र निश्चय थकी येही ब्राह्मण हैं ये साधु महाभद्र परणामी भगवत के भक्त महा तपस्वी यति धीरवीर मूल गुण उत्तर गुण के पालक इन समान और नहीं यह अलौकिक गुण लिये हैं । और इनहीको परिवाजक कहिये काहे से जो वह संसार को तज मुक्ति को प्राप्त होवें ये निग्रन्थ ज्ञान तिमिर के हर्ता तप कर कर्मकी निर्जरा करे हैं चीण किये हैं रागादिक जिन्हों ने महा क्षमावान पापों के नाशक इसलिये इनही को क्षमा कहिये यह संयमी कषाय रहित शरीरसे निर्मोह दिगम्बर योगीश्वरध्यानी ज्ञानी पंडित निस्पृह सोही सदाबंदिवे योग्य हैं ये निर्वाणको साधें इसलिये साधु कहिये और पंच आचारको आप आचरें औरोंको आचरावें इस लिये श्राचार्य कहिये और आगार कहिए घर उसके
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१००२॥
पुराण त्यागीइसलिये अनागारकहिये शुद्ध भिक्षाके ग्राहकइसलिये भितूककहिये अतिकायक्लेशकरें अशुभकर्म |
के त्यागी उज्ज्वल क्रियाके कर्ता तप करते खेद न माने इसलिये श्रमण कहिये आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभवें इसलिये मुनि कहिये रागादिक रोगोंके हरिबेका यत्न करें इसलिये यति कहिये इस भांति लोकों ने साधुकी स्तुति करी और इन दोनों भाइयोकी निन्दा करी तब यह मानरहित प्रभा रहित विलखे होय घर गये गत्रिके विषेपापी मुनिके मारिबेको अाए और वे सात्विक मुनि परिग्रही संघको तज अकेले मसान भूमि विषे अस्थ्यादिकसे दूर एकांत पवित्र भूमिमें विराजे थे कैसीहै वह भूमि जहां रीछ व्याघू आदि दुष्ट जीवोंका नाद होय रहा है और राचस भूत पिशाचों कर भराहै नागों का निवास है
और अंधकाररूप भयंकर वहां शुद्ध शिला जीव जंतु रहित उसपर कायोत्सर्ग धर खड़े थे सो उन पापियों ने देखे दोनों भाई खडग काढ़ क्रोधायमान होय कहते भए जवतो तुझे लोकोंने बचाया अब कौन बचावेगा हम पंडित पृथिवी विषे श्रेष्ठ प्रत्यक्ष देवता तू निर्लज्ज हमको स्याल कहे यह शब्द कह दोनों अत्यन्त प्रचंड होंठ डसते लाल नेत्र दयारहित मुनिके मारिवे को उद्यमी भए तब बनका रक्षक यक्ष उसने देखे मनमें चितवता भया देखो ऐसे निर्दोष साधु ध्यानी कायासे निर्ममत्व तिनके मारिबे को उद्यमी भए तब यक्षने यह दोनों भाई कीले सो हल चल सके नहीं दोनों पसवारे खडे प्रभात भया सकल लोक आए देखें तो यह दोनों मुनिके पसवारे कीले खडे हैं और इनके हाथमें नांगी तलवारहै तब इनको सब लोक धिक्कार धिक्कार कहते भए यह दुराचारीपापी अन्याई ऐसा कर्म करनेको उद्यमी भए ! इन समान और पापी नहीं और यह दोनों चित्त में चितवते भये कि यह धर्म का प्रभाव है हम पापी
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पद्म
पुराण
थे सो बलात्कार की स्थावर सम करडारे व इस अवस्था से जीवते बचें तो श्रावग के व्रतचादरें और उसी समय इनके माता पिता आए बारम्वारमुनिको प्रणामकर विनती करते भए हेदेव यहकुपूत पुत्र हैं। १००३ | इन्होंने बहुत बुरी करी थाप दयालु हो जीवदान देवो साघु बोले हमारे काहू से कोप नहीं हमारे सब मित्र बांधव हैं तब यक्ष लाल नेत्रकर अति गुंजार से बोला और सबों के समीप सर्व वृतांत कहा कि जो प्राणी साधुवों की निन्दा करें सो अनर्थको प्राप्त होवें जैसे निर्मल कांच विषे बांका मुख कर निरखे तो बांका ही दीखे तैसे जो साधुवों को जैसा भावकर देखे तैसाही फल पावे जो मुनियों की हास्य करे सो बहुत दिन रुदन करे और कठोर बचन कहे सो क्लेश भोगवे और मुनिका घबकरे तो अनेक कुमरणपावे द्वेष करे सोपाप उपार्जे भव भव दुख भोगवे और जैसा करे तैसा फल पावे यक्ष कहे है है विप्र तेरे पुत्रों के दोषकर में कीले हैं। विद्या के मानकर गर्वितमायाचारी दुराचारी संयमीयों के घातक हैं ऐसे बचन यक्षने कहे तब सोमदेव विप्र हाथ जोड़ साधु की स्तुति करता भया और रुदन करता भया आपको निंदता छाती कूटता ऊर्घ भुजाकर स्त्री सहित बिलाप करता भया तत्रमुनि परम दयालु यक्षको कहते भए हेसुन्दर हे कमलनेत्र यह बालबुद्धि हैं इन atra तुम क्षमाकरो तुम जिनशासन के सेवक हो सदा जिनशासन की प्रभावना करोहो इस लिए मेरे कहे से इन से क्षमा करो तब यक्ष ने कही आप कहा सो ही प्रमाण वे दोनों भाई छोडे, तब यह दोनों भाई मुनि को प्रदक्षिणा देय नमस्कार कर साधु का व्रत धरिबे को असमर्थ इस लिये सम्यक् सहित श्रावक के व्रत आदर भए जिनधर्म की श्रद्धा के धारक भए और इनके माता पिता व्रतले छाड़ते भए सो वे तो अतके योग से पहिले नरकगए और यह दोनों विप्र पुत्र निसंदेह जिनशासन रूप अमृत
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घराण
११००४
of का पानकर हिंसा का मार्ग विषवत् तजते भए समाधिमरणकर पहिले स्वर्गउत्कृष्ट देव भए वहां से चय कर। । अयोध्या में समुद्र सेठ उसके धारणी स्त्री उसकी कूक्षिमें उपजे नेत्रोंकोयानम्दकारीएक का नामपूर्णभद्र
दूजे का नामकांचनभद्र सोश्रावकके व्रत धार पहिले स्वर्गगए और ब्राह्मणके भवके इनके माता पिता पापके योग से नरक गए थे वे नरक से निकस चांडाल और कूकरी भए वे पूर्णभद्र और कांचनभद्र के उपदेश से | जिनधर्म का आराधन करते भए समाधिमरणकर सोमदेव द्विज का जीव चाण्डाल से नन्दीश्वर दीपका। अधिपति देव भया और अग्निलाब्राह्मणीका जीव कूकरी से अयोध्या केरोजाकी पुत्री होय उस देवके उप-1 देशसे विवाह का त्याग कर आर्यिका होय उत्तम गति गई वे दोनों परम्पराय मोक्ष पायेंगे और पूर्णभद्रकांचनभद्र का जीव प्रथम स्वर्ग से चयकर अयोध्या का राजा हेम राणी अमरावती उसके मकैटभ नामापुत्र जगत्प्रसिद्ध भए जिनको कोई जीत न सके महाप्रबल महारूपवान जिन्होंने यह समस्तपृथिवी बशकरी सव राजा तिनके अाधीन भए भीम नाम राजा गढके वलकर इनकी आज्ञा न माने जैसे चमरेन्द्र असुर कुमारों का इन्द्र नन्दनवन को पाय प्रफुल्लित होय है, तैसे वह अपने स्थानक के बल से प्रफुल्लित रहे और एक बीरसेन नाम राजा बटपुर का धनी मधुकैटभ का सेवक उसने मधुकैटभ को विनती पत्र लिखा हे प्रभो भीम रूप अग्नि ने मेरा देश रूप बन भस्म किया, तब मधु क्रोध कर बड़ी सेना से भीम ऊपर चढ़ा सो मार्ग में बटपुर जाय डेरी किए बीरसेन ने सन्मुख जाय अतिभक्ति कर मिहमानी करी उसके स्त्री चन्द्राभा चन्द्रमा समान है बदन जिसका सो वीरसेन मूर्खने उसके हाथ मधु का आरता कराया और उसहीके हाथ जिमाया चन्द्राभा ने पतिसे घनी ही कही जोअपने घर में सुन्दर वस्तु होय सो राजा को न ।
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এরাত্ম
दिखाइये पतिने नमानी राजा मधु चन्द्राभा को देख मोहित भयो मनमें विचारी इस सहित विन्ध्याचलके बन का बास भला और इसविना सर्व भूमि का राज्य भी भला नहीं सो राजा अन्याय ऊपर आया तब मंत्री ने समझाया अवार यह बात करागे तो कार्य सिद्ध न होयगा और राज्य भ्रष्ट होयगा तब राजा मन्त्रियों के कहेसे राजा बीरसेनको लारलेय भीम पर गया उसे युद्ध में जीत वशीभत किया और और सब राजा वशकिए फिर अयोध्या आए चन्द्राभा के लेयवे का उपाय चिन्तया सर्वराजा बसंत की क्रीडा के अर्थ स्त्री सहित बलाए और बीरसेनको चन्द्रामा सहितकुलाया. तबभी चन्द्राभाने कही कि मुझे मत लेचलो सोनमानी लेही पाया, राजानेमास पर्यंत बनमें क्रीडा करो और राजा पाए थे तिनकोदान सनमान कर स्त्रियों सहित विदा किए और बीरसेनको केयकदिनराखा और बीरसेनकोभी अतिदान सनमान कर बिदा किया और चन्द्राभाके निमित्त कही इनके निमित्त अद्भुत आभूषण बनवाये हैं सो अभी वन नहीं चुके हैं इसलिये इनको तिहारे पीछे विदा करेंगे सो वह भोला कछ समझ नहीं घरगया वाकेगए पीछे मधुने चन्द्राभाको महिलमें बुलाया अभिषेककर पटराणी पददिया सबराणियोंके ऊपरकरी भोगकर अंघभया है मन जिसका इसे राख आपको इन्द्र समान मानताभया और वीरसन ने सुनी कि चन्द्राभा मभने राखी तब पगलो होय कैयक दिन में मंडव नामा तापस का शिष्य होय पंचाग्नि तप करता भया और एक दिन राजा मधु न्याय के अासन बैठा सो एक परदारा रत का न्याय प्रायासो राजा न्यायमें बहुत देर लग बैठ रहे फिर मन्दिर में गए तब चन्द्राभा ने कही महाराज आज धनी बेर क्यों लगी हम क्षुधा कर खेदखिन्न भई श्राप भोजन करो तो पीछे भोजन करें, तब राजा मधुने कही आज एक परनारीस्तकान्याय ।।
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पुराण
पन आयपडा इसलिये देर लगी तब चन्द्राभाने हंसकर कही जो परस्त्रारत होय उसकी बहुत मानता करनी ११००६
तब राजाने क्रोधकर कही तुम यह क्या कही जे दुष्ट व्यभिचारी हैं तिनका निग्रह करना जे परस्त्री का स्पर्श करें संभाषण करें वे पापी हैं सेवन करें तिनकी क्या बात जे ऐसे कर्म करें तिनको महादण्ड दे नगर से काढ़ने जे अन्याय मार्मी हैं वे महापापी नरक में पड़े हैं और राजावों के दण्ड योग्य हे तिनका मान कहां, तब राणी चन्द्रामा राजाको कहती भई हे नृप कि यह परदारासेवन महा दोष हे तो तुम
आपको दण्ड क्यों न देवो तुमही परदारारत होतो औरों को क्या दोष जैसा राजा तेसी प्रजा जहां राजा हिंसक होय और व्यभिचारी होय वहां न्याय कैसा इसलिये चुप होयरहो जिस जलकर वीज उगे और जगत् जीवे सो जलही जो जलायमारे तो और शीतल करणहारा कौन ऐसे उलाहना के वचन चन्द्रामा के सुन राजा कहता भया हे देवी तुम कहो हो सो ही सत्य है बारम्बार इसकी प्रशंसा करी और कहा में पापी लक्ष्मा रूप पाश कर बेढा विषय रूप कीच में फंसा अब इस दोष से कैसे छुटुं राजा ऐसा विचार करे है और अयोध्याके सहश्री नामा वन में महासंघ सहित सिंहपाद नामा मुनि अाए राजा सुनकर रणवास सहित और लोकों सहित मुनिके दर्शन को गया, विधिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देय प्रणाम कर भूमि में बैठा जिनेन्द्र का धर्म श्रवणकर भोगों से विरक्त होय मुनि भया और राणी चन्द्राभा बड़े राजा की बेटी रूपकर अतुल्य सो राज्य विभति तज अायिका भई दुर्गति की वेदना का है अधिक भय जिसको और मधु का भाई कैटभ राजको विनाशीक जान महा व्रतधर मुनि भया दोनोंभाई महा तपस्वी पृथ्विी विषे बिहार करते भए और सकल स्वजन परजनके नेत्रोंको अानन्दका कारण मधुका पुत्र कुल
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पुराण
पद्म वर्धन अयोध्याका राज्य करता भया और मधुसैकड़ों बरस ब्रतपाल दर्शन ज्ञान चारित्रतप एही चार
अाराधना आराध समाधि मरणकर सोलवां अच्युत नामा स्वर्ग वहां अच्युतेंन्द्र भया और कैटभ पंद्रमा पारण नामा स्वर्ग वहां पारणेंद्र भया गौतम स्वामीकहे हैं हे श्रेणिक यह जिनशासनका प्रभाव जानों जो ऐसे अनाचारीभी अनाचारका त्यागकर अच्युतेंद्र पदपावे अथवा इन्द्र पदका कहां आश्चर्य जिन धर्मके प्रसादसे मोक्ष पावे मधुका जीव अच्युतेंद्रथा उसके समीप सीताका जीव प्रतेंद्र भया और मधु का जीव स्वर्गसे चयकर श्रीकृष्णकी रुक्मिणी राणीके अद्युम्न नामा पुत्र कामदेव होय मोक्ष लही और कैटभका जीव कृष्णकीजामवन्ती राणीके शंभुकुमार नामा पुत्र होय परम धामको प्राप्त भया यह मधूका व्याख्यान तुझे कहा अब हे श्रेणिक बुद्धिवन्तों के मनको प्रिय ऐसे लक्ष्मण के श्रष्ट पुत्र महा धीरबीर तिनका चरित्र पापोंका नाश करणहारा चित्तलगाय सुनो॥ इति १०६ वां पर्व संपूर्णम ॥
अथानन्तर कांचन स्थान नामा नगर वहां राजा कांचनरथ उसकी राणी शतहदा उसके पुत्री दोय अति रूपवन्नी रूपके गबकर महा गर्बिततिनकेस्वयंवरके अर्थ अनेक राजाभूचर खेचर तिनके पुत्र कन्याके पिता नेपत्रलिख दूत भेजे शीघ्बुलाएसोदूत प्रथमही अयोध्या पठाया और पत्रमें लिखा मेग पुत्रियोंकास्वयंबर है से अपकृपाकरकुमारोंकोशीघ्रपठावोतबरामलक्षमणने प्रसन्नहायपरम्ऋषियुक्तसर्वसुतपठाएदोनोंभाइयों के सकल कुमार लव अंकुशको अग्रेसर कर परस्पर महा प्रेमके भरे कांचनस्थानपुर को चले सैकड़ों विमानों में बैठे अनेक विद्याधर लार,रूपकर लक्षमीकर देवों सारिखे अाकाशके मार्ग गमन करते भये | सोबडी सना सहित आकाश स पृथिवी को देखते जावें कांचनस्थानपुर पहुंचे वहां दोनों श्रोणियोंके विद्या
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पागा
०८
पम धर राजकुमार आये थे सो यथा योग्य तिष्टे जैसे इन्द्रकीसभामें नानाप्रकारके श्राभूषण पहिरे देवतिष्ठं और ।
नन्दनबन में देव नानाप्रकारकी चेष्टा करें तैसे चेष्टा करते थे और वे दोनो कन्या मन्दाकिनी और चन्द्रवका मंगलस्नानकर सर्वश्राभूषण पहिरे निजबास से रथ चढ़ी निकसी मानों साक्षात लक्ष्मी और लजाही हैं महागुणोंकर पूर्ण तिनके खोजा लार था सोराजकुमारोंके देश कुल संपति गुणनाम चेष्टा सब कहता भया । और कही ये आए हैं तिनमें कई बानरध्वज कई सिंहध्वज कई वृषभध्वज कई गजध्वज इत्यादि अनेक भांति की ध्वजा को धरे महा पराक्रमी हैं इन में इच्छा होय सो वरी तबवह सबोंको देखती भई और यह सब राजकुमार उनको देख संदेहकी तुला में प्रारूढ़ भये कि यहरूप गर्बित हैं न जानिये कौनको बरें ऐसी रूपवन्ती हम देखी नहीं मानो ये दोनों समस्त देवीयों का रूप एक कर बनाई हैं यह कामकी पताका लोकों को उन्मादका कारण इस भांति सब राजकुमार अपने २ मन में अभिलाषा रूप भए दोनों उन्मत्तकन्या लवअंकुश को देख कामबाण कर बेधी गई उनमें मन्दाकिनीनामा जो कन्या उस ने लवके कंठमें बरमाला डारा, और दूजी कन्या चन्द्रवका ने अंकुश के कण्ठ में वरमाला डारी तब समस्त राजकुमारों के मनरूप पक्षी तनुरूप पीजरें से उड़ गये और जे उत्तम जन थेतिन्होंने प्रशंसाकरी कि इन दोनों कन्यावों ने रामके दोनों पुत्रबरे सो नीके करी ये कन्या इनही योग्य हैं इस भांति सज्जनों के मुख से बाणी निकसी जे भले पुरुष हैं तिनका चित्त योगसम्बन्ध से आन्द को प्राप्त होय ॥
अथानन्तर लक्षमणकी विशल्या अादि आठ पटरानी तिनके पुत्र पाठ महा सुन्दर उदार चित्त शूरवीर | पृथिवी विषेप्रसिद्ध इन्द्रसमान सो अपने अढाईसे भाइयों सहित महाप्रीति युक्त तिष्ठते थे जैसे तारावों
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चराण।
पा में ग्रह तिष्ठे सो आठ कुमारी विन और सबही भाई रामके पुत्रों पर क्रोध भये । जो हम नागयण के
पुत्र कान्तिधारी कलाधारी नवयौवन लक्ष्मीवान बलबान सेनावान हम कौन गुणा कर हीन जो इन कन्याओंने हमकोनबरा और सीताके पुत्र बरे ऐसा विचार करकोपित भये तब बड़े भाई आठोंने इन को शांतिचित्त किये जैसे मंत्रकर सर्पको वश करिये तिनके समझानसे सबही भाई लवअंकशसे शांत चित्त भये ओर मन में विचारते भये जो इन कन्यावोंने हमारे बावा के बेटे बड़े भाई वरे तब ये हमारी भावज सो माता समान है और स्त्री पर्याय महा निन्धहै स्त्रियोंकी अभिलाषा अविवेकी करें स्त्रिय स्वभाव ही से कुटिल है इनके अर्थ विवेकी विकार को न भनें जिन को आत्मकल्याण करना होय सो स्त्रियोंसे अपना मन फेरें इस भांति विचार सबही भाई शान्त चित्त भये पहिले सबही युद्धके उद्यमी भये थे रणके बादित्रोंका कोलाहल शंख झंझा भरि झंझार इत्यादि अनेक जातिके वादिन बाजने लगे थे
और जैसे इन्द्रकी विभूति देख छोटे देव अभिलाषी होय तैसे ये स्वयंबरमें कन्यावोंके अभिलाषी भये थे सौ बडे भाइयोंके उपदेशसे विवेकी भये श्रादों बड़े भाइयों को वैगग्य उपजा सो विचारे हैं । यह स्थावर जंगमरूप जगतके जीव कौके विचित्रताके योगकर नानारूप हैं विनश्वर हैं जैसा जीवों के होन हारहै तैसाही होयहै जिसके जो प्राप्त होनी है सो अवश्य होयहै और भांति नहीं और लक्षमणकी रूपवती राणीका पुत्र हंसकर कहता भया । भो भ्रातः हो स्त्री क्या पदार्थ हैं। स्त्रियों से प्रेम करना महा
मूढताहै विवेकियों को हांसी श्राव है जो वह कामो क्या जान अनुराग करे हैं। इन दोनों भाइयों ने । ये दोनों राणी पाई । सो कहा बडी वस्तु पाई जे जिनेश्वरी दीचा धेरै वे धन्य हैं केलि के स्तंभसमान असार
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५. काम भी न पालाशे शातिनके वश होय रति अरतिभानना महामूढ़ताहै विवेकियों को शेकभी न पुराण करना और हास्य भी न करनी ये सबही संसारी जोव कर्म के वश भूम जाल में पड़े हैं ऐसा नहीं करें हैं
जिसकर कर्मों का नाश होय कोई विवेकी करे सोई सिद्धपद को प्राप्त होय इस गहन संसार बन विषे ये पाणी निजपुरझा मार्ग भूल रहे हैं ऐसा करें जिंसकरभव दुख निवृत्ति होय हे भाई हो यह कर्म भूमि
आर्यक्षेत्र मनुष्य देह उत्तम कुल हमने पाया सो एते दिन योही खोये अब बीतराग का धर्म आराध मनुष्य देह सफल करो एक दिनमें बालक अवस्था विषे पिताकी गोदमें बैठाथा सो वे पुरुषोत्तम समस्त-राजावाको उपदेश देतेथ वे बस्तुका स्वरूप सुन्दर स्वर कहते थे सो मे रुचिसों सुना चारों गति से मनुष्यगति दुर्लभहै सो जोमनुष्यभवपाय अात्महित न करे हैं सो ठगाएगए जान दानकर तोमिथ्याष्टि भोगभूमि जावें और सम्यग्दृष्टि दानकर तपकर स्वर्गजांय परम्पराय मोक्ष जावें और शुद्धोपयोग रूप आत्मज्ञानकर यह जीव इस ही भव मोक्ष पाये और हिंसादिक पापोंकर दुर्गति लहे जो तपन करे सोभवचन में भटके बारम्बार दुर्गति के दुख संकठ पावें इस भांति विचार वे अष्टकुमार शूरवीर प्रतिबोध को प्राप्त भये संसार सागर के दुःख रूप भवोंसे डरे शीघ्र ही पिता पै गए प्रणाम कर बिनय से खड़े रहे और महा मधुर वचन हाथ जोड़ कहते भए हे तात हमारी विनती सुनो हम जैनेश्वरी दिक्षा अंगीकार किया चाहे हैं तुम आज्ञा देवो यह संसार विजरी के चमत्कार समान अस्थिर है केलि के स्तम्भ समान असार
है हम को अविनासी पुर के पन्थ चलते विघ्न न करो तुम दयालु हो कोई महा भाग्य के उदयसे हम | को जिनमार्ग का ज्ञान भया अब ऐसा करें जिसकर भवसागर के पार पहुंचे ए काम मोग प्राशीविष
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पद्म
पुरा १०११५
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सर्प के फण समान भयंकर हैं परम दुःख के कारण हम दूरही से छोड़ा चाहें हैं इस जोवके कोई माता पिता पुत्र मित्र बांधव नहीं कोऊ इसका सहाई नहीं यह सदा कर्म के आधीन भव वन में भ्रमण करे है इस के कौन जीव कौन कौन संबंधी न भये हे तात हम सो तुम्हारा अत्यन्त वात्सल्य है और मातावों का है सो एही बन्धन है हमने तुम्हारे प्रसाद से बहुत दिन नाना प्रकार संसार के सुख भोगे निदान एक दिन हमारा तुम्हारा वियोग होयगा इस में संदेह नहीं इस जीवने अनेक भोग किए परन्तु तृप्त न भया ये भोग रोग समान हैं इन में अज्ञानी राचें और यह देह कामत्र समान है जैसे कुमित्रको नाना प्रकार कर पोषये परन्तु वह अपना नहीं तेसे यह देह अपना नहीं इस के अर्थ आत्मा का कार्य न करना यह विवेकियों का काम नहीं यह देह तो हमको तजेगी हम इस से प्रीति क्यों न तजें ये वचन पुत्रों के सुन लक्ष्मण परम स्नेह कर विल होय गए इनको उर से लगाय मस्तक चूच बारम्बार इन की और देखते भए और गदगद बाला कर कहते भए हे पुत्र ये कैलाश के शिखर समान हंबरत्न ऊंचे महिल जिनके हजारों कनक के स्तम्भ तिन में निवास करो नानाप्रकार रत्नों से निरमार है मांगन जिनके महा सुन्दर सर्वउपकरणों कस्मंडित मलियागिरि चन्दनकीचा सुगंध जहां उसकर भूमर गुजार करे हैं और स्नानादिक की विधि जहां ऐसी मंजन शाला और सब संपति से भरे निर्मल है भूमि जिनकी इन महिलों में देवों समान कोड़ा करो और तुम्हारे सुन्दर खो देवांगना सगोन दिव्यरूप शरद के पूनों के मापन प्रजा जिनकी अनेक गुणकर मंडित वीस बांसुरी मृगादि कवादित्र बजाय विषे निपुण महा लुकंठ सुन्दरी गावे में निपुण नृत्यकीकरण हारी जिनेंद्र
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११०१२
न की कथा में अनुरागिणी महापतित्रता पवित्र तिन सहित बनउपवनगिरि नदियोंकेतट तथा निजभवनके ।
उपवन वहां नाना विधि क्राडा करते देवों कीन्याई रमों हेवत्स हो ऐसे मनोहर सुखोंको तजकर जिन दीक्षाधर कैसे विषमवन और गिरिकेशिखर कैसेरहोगे मैं स्नेहकाभरा और तिहारी माता तुम्हारेशोक कर तप्तायमान तिनकोतजकर जानातुमको योज्ञनहींकैयक दिनपृथिवीका राज्यकरों तववेकुमार स्नेही वासना से रहित भयाहै चित्त जिनका संमारसे भयभीत इन्दियों के सखसे पराङ्मुख महा उदार महाशूरवीर कुमार श्रेष्ठ अात्मतत्व में लगा है चित्त जिनका क्षण एक विचार कर कहते भएं हे पिता इस संसार में हमारे माता पिता अनंत भए यह स्नेह का बंधन नरक को कारण है यह घर रूप पिंजरा पापारंभ का और दुःखों को बढ़ावनहारा है उसमें मूर्ख रति माने हैं ज्ञानी न मानें अब कभी देह संबंधी तथा मन संबंधी दुःख हम कोन होय निश्चय से ऐसा ही उपाय करेंगे जो प्रोत्मकल्याण न करें सो आत्मघाती हैं कदाचित् घर न, तजे और मनमें ऐसा जाने में निर्दोष हूं मुझे पाप नहीं तो वह मलिन है पापी है जैसे सुफेद वस्त्र अंग के संयोग से मलिन होय तैसे घरके संयोग से गृहस्थी मलिन होय है, जे गृहस्थाश्रम में निवास करे हैं तिनके निरन्तर हिंसा प्रारंभकर पाप उपजे है इसलिये सत्पुरुषोंने गृहस्थाश्रम तजे और तुम हम सों. कही कैयक दिन राज्य भोगो सो तुम ज्ञानवान होयकर हमको अंधकूप में खरो हो जैसे तृषाकर अातुर मृग जल पीवें और उसे पारधी मारे तैसे भोगोंकर अतप्त जो पुरुष उसे मृत्य मारे है. जगत के जीव विषय की अभिलाषा कर सदा आर्त ध्यानरूप पराधीन हैं जे काम सेवे हैं वे अज्ञानी विषहरणहारीजड़ी चिना प्राशो विष सर्प से क्रीडा करे हैं सो कैसे जीवे यहाणी मीन समान गृहरूप तालाब में वसते विषयरूप
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पद्म | मांस के अभिलाषी रोगरूप लोह के प्रांकडे के रोगकर कालरूप धीवर के जालमें पड़े हैं भगवान श्री पण तीर्थंकर देव जीनलोक के ईश्वर सुरनर विद्याधरों करवंदित यह ही उपदेश देतेभए कि यह जगत्के जीव
अपने अपने उपार्जे कर्मों के वश हैं और इस जगत् को तजे सो कमों को हते इसलिये हे तात हमारे इष्ट संयोगके लोभकर पूर्णता न होवे यह संयोगसंबंध विजरी के चमत्कारवत् चंचल हैं जं विचक्ष जन हैं ये इनसे अनुराग न करें और निश्चय सेती इस तनुसे और तनके संबंधियों से वियोय होयगा को इन में कहां प्रीति और महालंशरूप यह संसार बन उसमें कहां निवास और यह मेरा प्यारा ऐसी बुद्धि जीवों के अज्ञान से है यह जीव सदा अकेला भव में भटके है गतिगति में गमन करतामहादुखी हैं हपिता हम संसार सागर म झकोला खाते अति खेदखिन्न भए कैसा है संसार सागर मिथ्याशास्त्ररूप है दुखदाई बीप जिसमें और मोहरूप हैं मगर जिसमें और शोक संतापरूप सिवानकर संयुक्त सोऔर दुर्जयरूप नदियोंकर पूरितहै औरभ्रमणरूपभ्रमणके समूहका भयंकरहै और अनेक प्राधिव्याधि उपाधिरूप कलोलोंका युक्त है औरकुभावरूप पातालकुण्डोंकर अगमहै औस्क्रोधादिक्ररभावरूपजलचरोंके समहकर भरा है और वृक्षा बंकवादरूप हाय है शब्द जहां और ममत्वरूप पवन कर उठे हैं विकल्परूपतरंग जहां और दुर्गतिरूपक्षार जलकर भरा है और महादुस्सहइष्टवियोग अनिष्ट संयोगरूपातापसोई है बड़वानलजहां, ऐसे भवसागर
में हम अनादि काल के खेदखिन्न पडे हैं नानायोनि में भ्रमण करते अतिकष्ट से मनुष्य देह उत्तम । कुल पाया है सो अब ऐसा करेंगे फिर भवभ्रमण न होय। सो सबसे मोह छुड़ाय आठोंकुमारमहाशवीर
घररूप बन्दीखाने मे निकसे उन महाभाग्योंके ऐसी वैराग्य बुद्धि उपजी जो तीनखंड का ईश्वरपणाजीर्ण
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पद्म
पुराण
१०१४६
तृणवत् तजो वे विवेकी महेन्द्रोदय नामा उद्यान में जायकर महावलनामा मुनि के निकट दिगंवर भए सर्व प्रारंभ रहित अन्तर्वाह्य परिग्रह के त्यागी विधि पूर्वक ई- ममति पालते विहार करते भए महा। क्षमावान् इन्द्रियों के व.: करणहारे विकल्प रहित निस्पृही परम योगी महाध्यानी बारह प्रकार के तप कर कर्मों को भस्म कर अध्यात्मयोग्य से शभाशुभ भावों का निराकरण कर क्षीणकपाय होय केवल ज्ञान लह अनन्त सुख रूप सिद्ध पद को प्राप्त भए जगत् के प्रपंच से छुटे । गौतम गणधर राजा । श्रेणिक से कहे हैं हे नृप यह अष्ट कुमारोंका मंगल रूप चरित्र जो बिनयवान भक्तिकर पढे सुने उसके । समस्त पाप क्षय जावें जैसे सूर्य की प्रभाकर तिमिर विलाय जाय ॥ इति ११०वां पर्व संपूर्ण ॥
अथानन्तर महाबीर जिनेन्द्र के प्रथम गणधर मुनियों में मुख्य गौतमऋषि श्रेणिकसे भामंडल का चरित्र कहते भए हे श्रेणिक विद्याधरों की जो ईश्वरता सोई भई कुटिला स्त्री उसका विषम वासनारूप मिथ्या सुख सोई भया पुष्प उसके अनुराग रूप मकरंद विषे भामण्डलरूप भूमर अासक्त होता भया चित्तमें यह चितवे जो मैं जिनेंद्री दीक्षा धरूंगा तो मेरी स्त्रियोंका सौभाग्य रूप कमलों का बन सूक जायगा ये मेरेसे अासक्त चित्तहैं और इनके बिरह कर मेरेप्राणों का वियोग होयगा में यह प्राण सुख से पाले हैं इसलिये कैयक दिन राज्यके सुख भोग कल्याण का कारण जो तप सो करूंगा यह काम भोग दुर्निवारहैं और इनकर पाप उपजगासो ध्यानरूप अग्निकर क्षणमात्रमें भस्मकरूंगाकोईयकदिनराज्य करूं बडी सेना राख जे मेरेशत्रुहें तिनको राज्य रहित करूंगा वे खडगके धारी बडे सामंतमुझसे पराङ्मुख भये खडग कहिए गैंडा तिनके मानरूप खडग भंगकरूंगा और दक्षिण श्रेणी उत्तर श्रेणी विषे अपनी
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पुराण
पद्म अाज्ञा मनाऊं और सुमेरु पर्वत आदि पर्वतों विषे मरक मणित श्रादि नाना जाति के रत्नोंकी निर्मल १०१॥ शिला तिनमें स्त्रियों सहित क्रीड़ा करूं इत्यादि मनके मनोरथ करता हुवा भामंडल सैकडों वर्ष एक
महूर्तका न्याई व्यतीत करताभया यह किया यह करूं यह करूंगा ऐसा चितवन करता अायुका अन्त न जानता भया एक सतखणे महिलके ऊपर सुन्दर सेजपर पौढ़ाथा सो विजुरी पडी और तत्काल कालको प्राप्त भया, दीर्घ सूत्री मनुष्य अनेक विकल्प करें परन्तु अात्माके उद्धार का उपाय न करें तृष्णाकर हता क्षणमात्रमें भी साता न पावे मृत्यु सिरपर फिरे है उसकी सुध नहीं क्षण भंगुर सुख के निमित्त दुर्बुद्धि आत्महित न करें विषय बासनाकर लुब्ध भया अनेक भांति विकल्प करता रहे सो विकल्पकर्म बंधके कारण हैं धनयौवन जीतव्य सब अस्थिरहें जो इनको अस्थिर जान सर्व परिग्रहका त्यागकरें आत्मकल्याणकरें सो भवसागरमें न डूबे औरविषयाभिलाषी जीव भव भव विषकष्ट सहें हजारों शास्त्र पढ़े और शांततान उपजी तो क्या और एकही पदकर शांतदशाहोयतो प्रशंसायोग्य धर्म करिव की इच्छा होय तो सदा करवो करे और करे नहीं सो कल्याणको न प्राप्तहोय जेसे कटी पदाका कार उठ कर अाकाश विष पहूंचा चाहे पर जाय न सके जो निर्वाण के उद्यम कर रहितहैं सो निर्वाण न पायें जो निरुद्यमी सिद्धपद पावें तो कौन काहेको मुनिव्रत आदरें जो गरुके उतम बचन उर धाम धर्म का उद्यमी होय सो कभी खेदखिन्न न होय जो गृहस्थद्वारे प्रायो साध उसकी भक्ति न करे वाहादिफन दे सो अविवेकी है और गुरु के वचनसुन धर्मको न अादरे सो भव भ्रमण से न छटे जो घने प्रमादी हैं और नाना प्रकारके अशुभ उद्यमकर व्याकुल हैं उसकी आयु बृथा जाय है जैसे हथेली में पाया सन जाता रहे, ऐसा ।
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पभ पगगा
जान समस्त लौकिककार्य को निरर्थक मानदुःम्वरूप इन्द्रियोंके सुख तिनको तजकर परलोक सुधारिखके अर्थ । जिनशासनमें श्रद्धाकरो, भामंडल मरकर पात्रदानके प्रभावसे उत्तमभोग भूमिगया। इति १११ वां पर्व ॥ __ अथानन्तर राम लक्ष्मण परस्पर महास्नेह के भरे प्रजा के पिता समान परम हितकारी तिन का। राज्य विष सुख से समय व्यतीत होता भया, परमईश्वरता रूप अति सुन्दर राज्य सोई भया कमलों का बन उसमें क्रीडा करते वे पुरुषोत्तम पृथिवीको प्रमोद उपजावतेभए इनके सुखका वर्णन कहां तक करें। ऋतुराज कहिए वसंतऋतु उसमें सुगंध वायु बहे कोयल बोलें भ्रमर गुंजार करें समस्त बनस्पति ए.ले मदोन्मत्तहोय समस्तलोक हर्षकेभरेशृङ्गारक्रीडाकरें मुनिराज विषमबनमें विराजे प्रात्म स्वरूपका ध्यान करें। उसऋतुमें रामलक्ष्मण रणवास सहित और समस्त लोकोसहित रमणीक वनमें तथा उपवन में नानाप्रकार रंगक्रीडा रागक्रीडा जलक्रीडा बनक्रीडा करतेभए और ग्रीष्मऋतुमें नदीसूकें दावानल समान ज्वालावरसे महामुनि गिरिक शिखर सूर्यके सन्मुख कायोत्सर्ग धर लिष्ठेउसऋतुमें राम लक्ष्मण धारामंडप महिलमें। अथवा महारमणीक बनमें जहां अनेक जलयंत्र चन्दन कर श्रादि शीतल सुगंध मामिग्री वहां सुख । से विराजे हैं चमर दुरे हैं ताड़ के बीजना फिरे हैं निर्मल स्फटिककी शिलापर तिष्ठे हैं अगुरु चन्दन कर चर्चे जलकर तर ऐसे कमल दल तथा पुष्पों के सांथरे पर तिष्ठे, मनोहर निर्मल शीतल जल जिसमें लवंग इलायची कपूर अनेक सुगंध द्रव्य उनकर महा सुगंध उसका पान करते लतावोंके मंडपों में विराजते नाताप्रकार की सुन्दर कथा करते सारंग आदि अनेक राग सुनते सुन्दर स्त्रियों सहित उष्ण ऋतु को बलात्कार शीतकाल सम करते सुखसे पूर्ण करते भए, और वर्षाऋतु में योगीश्वर तरु तले तिष्ठते ।
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१०१७
| महा तपकर अशुभ कर्म का क्षयकरे हैं विजुरी वमके हैं मेघकर अंधकार होयरहा है मयूर बोले हैं ढाहा पगण | उपाड़ती महाशद करती नदी बहे हैं उसऋतु में दोनों भाई सुमेरु के शिखर समान ऊंचे नाना मणिमई
जे महिल तिन में महाश्रेष्ठ रंगीले वस्त्र पहिरे केसरके रंगकर लिप्त है अंग जिनका और कृष्णगरुका धूप स्खेय रहे हैं महासुन्दर स्त्रियों के नेत्र रूप भ्रमरों के कमल सारिखे इन्द्र समान क्रीडा करते सुख से तिष्ठे और शरद ऋतु में जल निर्मल होय चन्द्रमा की किरण उज्ज्वल होय कमल फूले हंस मनोहर शब्द करों मुनिराज वन पर्वत सरोवर नदीके तीर बैठेचिद्रूपका ध्यानकरें उसऋतु में रामलक्ष्मण राज लोकों सहित लांदनी के वस्त्र प्राभरण पहिरे सरिता सरोवर के तीर नानाविधि क्रीडा करते भए और शीत ऋतु में योगीश्वर धर्मध्यान को ध्यावते रात्रि में नदी तालावों के तट में जहां अति शीत पड़े वर्फ पासे मह्म ठण्डी पवन बाजे वहां निश्चल मिठे हैं महा प्रचंड शीतल पवन कर वृक्ष दाहे मारे हैं !! और सूर्य का तेज मन्द होयगया है ऐसी ऋतुमें राम लक्ष्मण महिलों के भीतरले चौबारों में तिष्ठते
मनवांछित विलास करते सुन्दर स्त्रियों के समूह सहित वीण मृदंग वासुरी आदि अनेक वादित्रोंके शब्द कानों को अमृत समान श्रवण कर मनको पाल्हाद उपजावते दोनों वीर महा धीर देवों समान और जिनके स्त्री देवांगना समान वाणी कर जीती हैवीण की ध्वनि जिन्होंने महापतित्रता तिनकर आदरते पुण्य प्रभावसे मुखसे शीतकाल व्यतीत करते भये अद्भुत भोगोंकी संपदाकर मंहित वे पुरुषोत्तम प्रजा को अानन्दकारी दोनों भाई सुख से तिष्ठे हैं। • अथानन्तर गौतमस्वामी कहें हैं हे श्रेणिक अव तु हनूमानका वृतान्त सुन हनूमान पवनका पुत्र |
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पन | कर्णकुण्डल नगर विषे पूर्व पुण्यके प्रभावसे देवोंके से सुख भोगवे जिसकी हजारों विद्याधर सेवा करें । १०१ और उत्तम क्रियाका धारक स्त्रियों सहित परिवार सहित अपनी इच्छाकर पृथिवी में बिहारकरे श्रेष्ठ |
विमान विष प्रारूढ़ परम ऋद्धिकर मंडित महा शोभायमान सुन्दर बनों में देवों समान क्रीड़ा करे सो बसंतका समय पाया कामी जीवनको उन्माद का कारण और समस्त वृक्षों को प्रफुल्लित करण हारा प्रिया और प्रीतमके प्रेमका बढ़ावनहारा सुगंध चले है पवन जिसमें ऐसे समय विषे अंजनी का पुत्र जिनद्रकी भक्ति विषे प्रारूदचित्त, अति हर्ष कर पूर्ण हजारों स्त्रियों सहित सुमेरु पर्वत की
ओर चला हजारों विद्याधरहें संग जिसके श्रेष्ठ विमान विष चढे परम ऋद्धि कर संयुक्त मार्ग में बन विषे क्रीडा करते भए कैसे हैं बन शीतल मन्द सुगन्ध चले हैं पवन जहां नाना प्रकार के पुष्प और फलों कर शोभित वृक्ष हैं जहां देवांगना रमें हैं और कुलाचलोंके विषे सुन्दर सरोवरों कर युक्त अनेक मनोहर बन जिन विषे भूमर गुंजार करें हैं और कोयल बोल रही हैं और नाना प्रकारके पशु पक्षियों के युमल विचरें हैं जहां सर्व जातिके पत्र पुष्प फल शोभे हैं और रत्नोंकी ज्योतिकर उद्योतरूपहें पर्वत जहां और नदी निर्मल जलकी भरी सुन्दर हैं तट जिनके और सरोवर अति रमणीक नाना प्रकार के कमलोंके मकरंदकर रंग रूप होय रहाहै सुगंध जल जिनका और वापिका अति मनोहर जिन के रत्नोके सिवान और तटोंके निकट बडे बडे बृक्ष हैं और नदीमें तरंग उठे हैं झागोंके समूहसहित महाशब्द करती बहे हैं जिनमें मगरमच्छ आदि जलचर क्रीडा करें हैं और दोनों तट विषे लहलहाट करते अनेक बन उपवन महा मनोहर विचित्रगति लिये शोभे हैं जिनमें क्रीड़ा करबेके सुंदर महिल और नाना ।
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पद्म
प्रकार रत्नकर निर्मापे जिनेश्वरके मंदिर पापोंके हरणहारे अनेक हैं पवन पुत्र सुंदर स्त्रियोंकर सेवित परम पुराण उदय कर युक्त अनेक गिरियों विषे अकृत्रिम चैत्यालयों का दर्शनकर विमान विषे चढा स्त्रियों को पृथिवी । १०१६॥
की शोभा दिखावता अति प्रसन्नतासे स्त्रियों से कहे है हे प्रिये सुमेरु विषे प्रति रमणीक जिन मंदिर स्वर्ण रत्नमयी भासे हैं और इनके शिखर सूर्यसमान देदीप्यमान महामनोहर भासे हैं और गिरिकी गुफा तिनके मनोहरद्वार रत्नजडित शोभानानारंगकी ज्योतिपरस्पर मिल रही है वहां अति उपजे ही नहीं सुमेरु की भूमि तल विषे अतिरमणीक भद्रशालवन है और सुमेरुकी कटि मेखला विषे विस्तार्या नंदम बन और सुपेरुके वक्षस्थलमें सौमनस बन है जहां कल्पवृक्ष कल्यताओंसे वेढे सोहे हैं और नानाप्रकार रनों की शिला शोभितहैं और सुभेरुके शिखरों पांडक बनहै जहां जिनश्वर देवका जन्मोत्सव होयह इन चारोंही बनमें चार चार चैत्यालयहें जहां निरंतर देव देवियों का आगम है यच किन्नर गंधों के संगीत कर नाद होय रहा है अप्सरा नृत्य करे हैं कल्पवृक्षों के पुष्प मनोहर हैं नानाप्रकार के मंगल द्रव्यकर पूर्ण यह भगवान्के अकृत्रिम चैत्यालय प्रानादि निधन हैं हे प्रिये पांडूक बन मैं परम अद्भुत जिनमंदिर सोहे हैं जिनके देखे मन हरा जाय, महाप्रज्वलितनिधूमअग्निसमान संध्याके वादरोंकेरंग समानउगते सूर्य समान स्वर्णमई शोभे हैं समस्त उत्तम रत्नकर शशभित सुन्दराकार हज़ारों मोतीयों की माला तिन कर मंडित महामनोहर हैं मोलावों के मोती कैसे सोहे हैं मानों जल के बुबुदाही हैं और घंटा झांझ मंजीरा मृदंग चमर तिनकर शोभित हैं चौगिरद कोट ऊंचे दरवाजे इत्यादि परम विभूति कर विराजमान ॥ हैं नाना रंगकी फरहरती ध्वजा स्वर्ण के स्तंभ कर देदीप्यमान इन अकृत्रिम चैत्यालयों कीशोभा कहांलग।
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घराण
२०२०
| कहें जिनका संपूर्ण वर्णन इन्द्रादिक देवभी न कर सकें, हे कांते यह पांडूक बन के चैत्सालय मानों सुमेरु
का मुकट ही है अति रमणीक हैं इसभांति महाराणी पटराणीयों से हनुमान वात कस्ते जिनमन्दिरों की प्रशंसा करतेमंदिरके समीपाये विमानसे उतर महाहर्षितहोय प्रदक्षिणा दई वहाँ श्रीभगवान्के अकृत्रिम । प्रतिविंवसर्व अतिशय विराजमान महा ऐश्वर्यकर मंडित महातेज पुञ्ज देदिप्यमान शरदके उज्ज्वल वादरे !
तिनमें जैसे चंद्रमा साहे तैसे सर्वलक्षण मंडित हनूमान हाथजोड़ रणवाससहित नमस्कार करता भया कैसा | ।। है हनमाने जैसे ग्रहतारावोंके मध्य चंद्रमा सोहे तैसा राजलोकके मध्य सोहे है जिनेन्द्र के दर्शनकरउपजाहै |
अतिहर्षजिसको सोसंपूर्णस्त्रीजन अतिश्रानंदकोप्राप्तभई रोमांचहोयआये नेत्रप्रफुल्लितभए विद्याधरी परम | भक्तिकर युक्त सर्व उपकरणों सहित परम चेष्टा की धरणहारी महा पवित्र कुल में उपजी देवांगनावों की || न्याई अति अनराग से देवाधि देवका विधिपूर्वक पूजा करती भई महापवित्र पद्मइद आदिक काजल,
ओर महा सुगंध चन्दन मुक्ताफलावों के अक्षत स्वर्ण मई कमल तथा पद्मसग मणि मई तथा चन्द्रकांति मणि भई तिन कर पूजा करतीभई और कल्पवृक्षों के पुष्प और अमृतरूप नैवेद्य और महाज्योति रूप रत्नोंके दीप चढ़ाए और मलयागिरि चन्दनादि महासुगंध जिसकर दशोंदिशा सुगंधमई होयरही हैं |
और परमउज्ज्वल महाशीतल जल और अगुरुअादि महापवित्र द्रव्योंकर उदजा जोधूपसो खेवतीभई और। महा पवित्र अमृत फल चढ़ावतीभई और रत्नोंके चूर्णकर मंडला मांडती भई महा मनोहर अष्टद्रव्यों से पतिसहित पजा करतीभई हनूमान राणीसहित भगवान की पजा करता कैसे सोहे है जैसा सौधर्म इन्द्र । इन्द्राणी सहित पूजा करता सोहे कैसा है हनुमान जनेऊ पहिरे सर्व आभषण पहिरे महीनवस्त्र पहिरे महा ।
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।१०२१
पण | पवित्र पापरहित बानर के चिन्हका है देदीप्यमान रत्नमई मुकटजिसके महाप्रमोदका भरा फलरहे हैं नेत्र
कमल जिसके सुन्दर है बदन जिसका पजाकर पापों के नाश करणहारे स्तोत्र तिनकर सुर असुरों के गुरु जिनेश्वर तिनके प्रतिबिम्ब की स्तुति करता भया, सो पूजा करता और स्तुति करता इन्द्रकी अप्स-1 रावोंने देखा सो अतिप्रशंसा करती भई और यह प्रवीण बीण लेयकर जिनेन्द्रचन्द्र के यश गावता भया जे शुद्धचित्त जिनेन्द्र की पूजा में अनुरागी हैं सब कल्याण तिनके समीप हे तिनको व छ ही दुर्लभ नहीं तिनका दर्शन मंगलरूप है उन जीवों ने अपना जन्म सुफल किया, जिन्होंने उत्तम मनुष्य देह पाय श्रावकके व्रत घर जिनवर में दृढ़ भक्ति धार अपने करमें कल्याण को धरा है, जन्मका फल तिन ही पाया हनुमान ने पूजा स्तुति वन्दनाकर वीणा बजाय अनेक राग गाय अद्भुत स्तुति करी यद्यपि भगबानके दर्शनसे विठुरनेका नहीं है मन जिसका तथापि चैत्यालयमें अधिक नरहे मलकोई श्राछादनलागे इसलिये जिनराज के चरण उरमें धर मन्दिर से बाहिर निकसा, विमानों में चढ़ हजारों स्त्रियों कर संयुक्त सुमेरु की प्रदक्षिणा दी, जैसे सूय्य देय तैसे श्रीशैल कहिए हनुमान सुन्दर हैं किया जिसकी सो शैल सज कहिए सुमेरु उस की प्रदक्षिणा देय समस्त चैत्यालयों में दर्शन कर भरतक्षेत्र की ओर सन्मुख
भया सो मार्ग में सूर्य अस्त होय गया और संध्या भी सूर्य के पीछे विलय गई कृष्णपक्ष की रात्रिसो तारा || रूप बंधुवों कर मंडित चन्द्रमा रूप पति बिना न सोहती भई हनुमान ने सले उतर एक सुर दुन्दभी नामा पर्वत वहां सेना सहित रात्रि व्यतीत करी, कमल आदि अनेक सुगंध पुष्यों से स्पर्श पवन आई उस कर सेना के लोक सुखसे रहे जिनेश्वर देव की कथा करयो किए रात्रिको साकारा से देदीप्यमान एक
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पक्ष तारा टा सो हनमानने देखकर मन में विचारी हाय हाय इस संसास्त्रसार-पसमें देव भी कालवश हैं २०२२ ऐसा कोई नहीं जो कालसे बचे विजुरी का चमत्कार और जल की तरंम जैसे क्षणभंगुर हैं तैसे शरीर
विनश्वर है इस संसारमें इस जीव ने अनन्त भव में दुःखही भोगे, यह जीव विषय के सुख को सुख माने है सो सुख नहीं दुःख ही है पराधीन है विषम क्षणभंगर. संसार में दुःखहीहै सुसनहीं अहोयह मोह का माहात्म्य है जो अनन्त काल जीव दुःख भोगता भ्रमण करे है अचन्वावसर्पणी काल भ्रमणकर मनुष्य देह कभी कोई पावे हे सो पायकर धर्म के साधन वृथा खोवे है यह विनाशिक सुख में प्रासक्त होय महा संकट पाये है यह जीव रागादिक के बश भया वीतराग भाव को नहीं जाने है यह इन्द्रिय जैन मोर्ग के आश्रय बिना न जीते जांय यह इन्द्री चंचल कुमार्ग के विषे लगायकर जीवों को इस भव परभव में दु:खदाई हैं जैसे मृग मीन और पक्षी लोभ के बश से बधिक के जाल में पड़े हैं तैसे यह कामी क्रोधी लोभी जीव जिन मार्गको पाए बिना अज्ञान के वश से प्रपंच रूप पारधी के विछाए विषय रूप जाल में पड़े हैं जो जीव अाशाविष सर्प समान यह मन इन्द्री तिन के विषयों से रमें हैं।
सो मुढ़े अग्नि में जरे हैं जैसे कोई एकदिन राज्य कर वर्ष दिन त्रास भोगवे तैसे यह मूढजीव अल्पदिन । विषियों के सुख भोग अनन्त काल पर्यंत निगोद के दुःख भोगवे हैं जो विषय के सुख का अभिलाषी है । सो दुःखों का अधिकारी है, नरकनिगोद के मूल यह विषय तिनको ज्ञानी न चाहे मोहरूप देगका टगा
जो आत्म कल्याण न करे सो.महा कष्ट को पावे जा पूर्वभव में धर्म उपार्जे मनुष्य देह पाय धर्मका प्रा| दर न करे सो जैसे धन ठयाय कोई दुखी होय तैसे दुखी होय है और देवों केभी भोगभोग यहजीव मरकर
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परराण
पद्म | देवसे एकेन्द्री होय हें इसजीव के पाप शत्रु हैं और कोई शत्र मित्र नहीं और यह भोग ही पाप के मल हैं १०२३॥
इस से तृप्ति न होय, यह महा भयंकर हैं और इनका वियोग निश्चय होयगा यह रहने के नहीं जो में इस राज्य को और यह जोमियजन हैं तिनको तजकर तप न करूं तो अतृत्भया सुभूमि चक्रवर्ती की नाई मरकर: दुर्गति को जाऊंगा और यह मेरे स्त्री शोभायमान मृगनयनी सर्व मनोरथ की पूर्ण हारी पतिव्रता स्त्रियों के गुणों कर मंडित नवयौवन हैं सो अवतक में अज्ञानसे इनको तज न सका सों में अपनी भल को कहां लक उराहना दूं देखो में सागर पर्यंत स्वर्ग में अनेक देवांगना सहित रमा और देव से मनुष्य होय इस चेत्रमें भवा सुन्दर स्त्रियों सहित रमा परन्तु तृप्त न भया जैसे इंधन से अग्नि तृप्त न होय
और नदियों से समुद्र तृप्त न होय तैसे यह प्राणी नाना प्रकार के विषय सुख तिन कर तृप्त न होय में नाना प्रकार के जन्म तिममें भ्रमण कर खेद खिन्न भया रे मत अब तू शांतता को प्राप्तहोह कहाँ ज्याकुल होयारहाहै क्या तैमे भयंकर मराकों के दुस्सम सुमे जहां रौद्र यामी हिंसक जीव जायहें जिन नरकोंमें महातील वेदमा असिपज बन पैसरमाी नदी संकट रूपहे सकल भूमि जहारे मन तू नरकसन हरे हे रागद्वेष कर उपजे अकर्म झालंक तिनको सपकर नाहि विपाये है तेरेएते दिन योंही वृधा मए विषय सुखरूप में पड़ा अपने आत्माको भवञ्जिाले निकास पाया जिम मार्ग में बुद्धिकाधक स मैंने लू अनादिकासका संसार मनसे खेदखिन्न भया अब अनादिके बंधे श्रात्मा को छुड़ाय हनुमान हेसम्म निश्चयकर संसार शरीफ भोगोंसे उदास भया जाना है यथार्थ जिनशासमका रहस्य जिसने जैसे सूर्य | मेघरूप पटलसे रहिन महा तेजरूप भासे तैसे मोइपटलसे रहित भासताभया जिस मार्ग होय जिनवर ।
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पळ | सिद्धि पदको सिधारें उस मार्ग विष चलिवेको उद्यमी भया ॥ इति एकसौ बारहवां पर्व मंपूर्णम् ॥ | .१.२४
: अथानन्तर रात्रि व्यतीत भई सोला बानी के स्वर्ण समान सूर्य अपनी दीप्तिकर जगत विर्ष उद्यांत करता भया जैसे साधु मोचमार्ग का उद्योत करे नचत्रोंके गण अस्तभए और सूर्य के उदयका कमल छले जैसे जिनराजके उद्योत कर भव्य जीव रूप कमल फूले हनूमान महा वैराग्य का भग जगतके भोगोंसे विरक्त मंत्रियों से कहता भया जैसे भरत चक्रवर्ती पूर्व तपोवनको गए तैसे हम जावेंगे तब मंत्री । प्रेमके भरे परम उद्वेगको प्राप्तहोय नाथसे विनती करते भए है देव हमको अनाथ न करो प्रसन्न होवो हम तुम्हारे भक्त हैं हमारा प्रतिपालन करो तब हनुमानने कही तुम यद्यपि.निश्चय कर मेश्राज्ञाकारी
हो तथापि अनर्थ के कारण हो हितके कारण नहीं जो संसार समुद्र से उतरे और उसे पीछे सागर में । डारे वे हितू कैसे निश्चय थकी उनको शत्रुही कहिए जब इस जीव ने नग्कके निवास विषे महा दुःख । भोगे तब माता पिता मित्र भाई कोई ही सहाई न भया यह दुर्लभ मनुष्य देह और जिनशासन का
ज्ञान पाय बुद्धिवानों को प्रमाद करना उचित नहीं और जैसे राज्य के भोगसे मेरे अप्रीतिभई तैसे || तुमसे भी भई यह कर्म जनित ठाठ सर्व विनाशिकहैं निसंदेह हमारा तुम्हारा वियोग होयगा जहां | संयोगहै वहां वियोगहै सुर नर और इनके अधिपति इन्द्र नरेंद्र यह सबही अपने अपने कर्मों के प्राधीन हैं कालरूप दावानल कर कौन कौन भस्म न भए में सागरापर्यंत अनेक भव देवोंके मुख भोगे परंतु
तृप्त न भया जैसे सूके इन्धनकर अग्नि तृप्त न होय गति जाति शरीर इनका कारण नाम. कर्म है | जिसकर ये जीव गति गति विषे भूमण करे हैं सो मोहका बल महाबलवानहै जिसके उदयकर यह शरीर ।
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FOTU
१०२५
| उपजाहे सो न रहेगा यह संसार बन महा विषमहे जिस विषे ये प्राणी मोहको प्राप्त भये भवसंटक भोगे ।
हैं उसे उलंघकर में जन्मजरा मृत्यु रहित जोपदवहां गया चाहूंहू यह बात हनूमान मंत्रियों से कही सो रगावासकी स्त्रियों ने सुनी उसकर खेदखिन्न होय महारुदन करती भई ये समझाने विषे समर्थ सो उन को शांतचित्त करी कैसे हैं समझावन हारे नाना प्रकार के वृत्तांत विषे प्रवीण और हनुमान निश्चल है चित्त जिस का सो अपने वडे पुत्र को राज्य देय और सवों को यथा योग्य विभूति देय रत्नों के समूह कर युक्त देवों के विमान समान जो अपना मंदिर उसे तज कर निकसा स्वर्ण रत्न मई देदीप्यमान जो पालकी उस पर चढ चैत्यवान् नामा बन वहां गया सो नगरके लोक हनुमानकी पालिकी देख सजल नेत्र भये पालिकी पर ध्वजाफर हरे हैं चमरों कर शोभित है मोतीयोंकी झालरीयों कर मनोहर है हनुमान बन विषे अाया। सो वन नाना प्रकार के वृक्षों कर मण्डित और जहां सूवा मैना मयूर हंस कोयल भ्रमर सुन्दर शब्द करे हैं और नाना प्रकार के पुष्पों कर सुगन्ध है वहां स्वामी धर्मरत्न संयमी धर्मरूप रत्न की राशि उत्तम योगीश्वर जिन के दर्शन से पाप विलाय जावे से सन्त चारण मुनिअनेक चारण मुनियों कर मण्डित तिष्ठते थे आकाश विषे हैगमन जिनका सो दूर से उन को देख हनुमान पालकी से उतरा महा भक्ति कर युक्त नमस्कार कर हाथ जोड कहता भया, हे नाथ में शरीरादिक परद्रव्यां से निर्ममत्व भया यह परमेश्वरी दीक्षा आप मुझे कृपाकर देवो तवमुनि कहते भये अहो भव्य तैने भली विचारी तू उत्तमजन है जिनदीक्षा लेवो यह जगत असार है शरीर विनश्वर है शीघ श्रात्म कल्यण कग अविनश्वर पदलेयवे की परम कल्याणकारणा बुद्धि तुम्हारे उपजी है यह बुद्धि विवेकी जीव के ही उपजेहै ।।
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पर असी मुनि को आज्ञा पाय मुनि को प्रणाम कर बद्मासन घर तिष्ठा मुकट कुण्डल हार प्रादि सर्व प्रा-1 १०२६॥ भूषण डारे और बस्त्र डारे जगत् से मनका राग निवारा, स्त्रीरूप बन्धनतुडाय ममतामोह मिटाय आप को
स्नेह रूप पाश सेछुडाय विष समान विषय सुख तज कर बैराग्य रूप दीपक की शिखा कर राग रुप अन्धकार निवारकर शरीर और संसारको प्रासार जान कमलों को जीते असे सुकमार जेकर तिनक(सिरके केश लौच करताभया समस्त परिग्रह से रहित होय मोक्षलक्ष्मी को उद्यमीभया महाव्रत धरे असंयम पर हरे हनुमान की लार साडा सात सौ षडे राजा विद्याधरशुद्धचित्त विद्यद्रगति को प्रादि दे हनमानकेपरममित्र अपने पुत्रों को राज्य देय अठाईसमूल गुण धार योगीन्द्र भये । और हनूमान की राणी और इन राजाओं की राणी प्रथम तो वियोग रूप अग्नि करततायमान विलाप करती भई फिर बैराग्य को प्राप्त होयवन्धु मति नामा आर्यिका के समीप जाय महाभक्ति कर संयुक्त नमस्कारकर आर्यिकाके व्रत धारती भई वेमहा बुद्धिवन्ती शीलवन्ती भव भ्रमण के भयसे आभूषण डार एक सफेद वस्त्र राखती भई शीलही है याभूषण जिनके तिन को राज्यविभूति जीर्ण तृणसमोन भासती भई और हनूमान महा बुद्धिमान महातपोधन महापुरुष संसारसे अत्यन्त विरक्त पंचमहाबत पञ्चसमिति तीन गुप्तिधार शैल कहिये पर्वत उससे भी अधिक श्रीशैल कहिये हनुमान राजा पवन के पुत्र चारित्र विषे अचल होते भये तिनका यश निर्मल इन्द्रादिक देव गा बारम्बार बन्दना करे और बडे बडे राजा कीर्ति करें निर्मल है आचरण जिन का असा सर्वज्ञ बीतराग देव का भाषा निर्मल धर्म आचार सोभवसागर के पोर भयावे हनमानमहा मुनि पुरुषों में सूर्य समान तेजस्वी जिनेन्द्रदेव | का धर्म आराध ध्यान अग्नि कर अष्ट कर्म की समस्त प्रकृति इन्धन रूप तिनको भस्म कर तुङ्गिगिरि
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पद्म पुराम १०२७
। के शिखरसे सिद्ध भये। केवल ज्ञान केवलदर्शनादि अनन्त गुणमईसदा सिद्ध लोक में रहेंगे॥इति ११३पर्व ।।
अथानन्तर श्रीराम सिहासनपर विराज थे लक्ष्मणक आठों पुत्रोंका और हनूमानका मुनि होना मनुष्यों के मुखसे सुनकर हंसे और करते भए इन्होंन मनुष्य भवके क्या सुख भोगे यह छोटी अवस्था में ऐसे भोग तजकर योग धारण करें हैं सो बड़ा आश्चर्य है यह हठ रूप ग्राहकर रहे हैं देखों ऐसे मनोहर काम भोग तज विरक्त होय बैठे हैं इस भांति कही यद्यपि श्रीराम सम्यकदृष्टि ज्ञानी हैं तथापि चारित्र मोहके वश कई एक दिन लोकोंकी न्याई जगत विषे रहते भय संमारके अल्पसुख तिन विषे गमलक्ष्मण न्याय सहित राज्य करते भये एक दिन महा ज्योतिका धारक सौधर्म इन्द्र परम ऋद्धिकर युक्त महा धीर्य और गम्भीरताकर मंडित नाना अलंकार धरे सामान्य जातिके देव जे गुरुजन तुल्य और लोक पाल जातिके देव देशपाल तुल्य और त्रयस्त्रिंशत जातिके देव मन्त्री समान तिनकर मंडित तथा
ओर सफल देव सहित इन्द्रासन विषे बैठे कैसे सोहें जैसे मुमेरु पर्वत और पर्वतों के मध्य सोहें महा तेज पुंज अद्भुत रत्नों का सिंहासन उसपर सुख से विराजता ऐसा भासे जैसे सुमेरु के ऊपर जिन राज भासे । चन्द्रमा और सूर्यकी ज्योति को जीते ऐसे रत्नोंके अाभूपण पहिरै सुन्दर शरीर मनोहर रूप नेत्रों के अानन्दकारी जैसी जल की तरंग निर्मल तैसी प्रभा कर युक्त हार पहिरे ऐसा सोहे मानों शीतोदा नदी के प्रवाह कर युक्त निषध्याचल पर्वत ही है मुकट कंठाभरण कुण्डल केयूर
आदि उत्तम ग्राभूषण पहिरे देवों कर मंडित जैसा नक्षत्रों कर चन्द्रमा सोहे तैसा सोहे है अपने || मनुष्य लोक में चन्द्रमा नक्षत्र ही भासे इस लिये चन्द्रमा नक्षत्रोंका दृष्टान्त दियाहै चन्द्रमा नक्षत्र
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११०२८
ज्योतिषी देव है तिन से स्वर्ग बासी दवों की प्रति अधिक ज्योति है और सब देवों से इन्द्र की पराम
महा अधिक है अपने तेजकर दशों दिशा विषे उद्योत करता सिंहासन विषे तिष्ठता जैसा जिनेश्वर भासे तैसा भासे इंद्रके इंद्रासन का और सभा का जो समस्त मनुष्य सहस्र जिला कर सैकड़ों वर्ष लग वर्णन करें तोभी न कर सके सभा में इंद्र के निकट लोकपाल सब देवों में मुख्य हैं मुन्दर है चित्त जिनके स्वर्ग से चय कर मनुष्य होय मुक्ति जावें हैं सोलहस्वर्ग के बारह इन्द्र हैं एकएक इंद्र के चारचार लोकपाल एक भवधारी हैं और इंद्रों में सौधर्म सनत्कुमार महेन्द्र लातवेन्द्र सत्यरेन्द्र पारणेंद्र यह षट् एकभवधारी हैं और शची इन्द्राणी लोकांतिक देव पंचम स्वर्ग के तथा सर्वार्थसिद्धि के अहिमिन्द्र मनुष्य होय मोक्ष जावे हैं सो सौधर्मइन्द्र अपनी सभा में अपने समस्त देवों कर युक्त बैठा लोकपालादिकाने अपने स्थानक बैठे सो इन्द्रशास्त्रकाव्याख्यानकरते भए वहां प्रसंग पाय यह कथन किया अहो देवो तुम अपने भाव रूप पुष्प निरन्तर महा भक्ति कर अहंत देव को चढ़ावो अहंतदेव जगत् का नाथ है समस्त दोषरूप बन के भस्म करिवे को दावानल समान है जिसने संसार का कारण मोत्तरूप महा असुर अत्यन्त दुर्जय ज्ञान कर मारा, वह असुर जीवों का बड़ा बैरी निर्विकल्प मुख का नाशक है और भगवान् बीतराग भव्य जीवों को संसार समुद्र से तारिबे समर्थ हैं संसार समुद्र कषाय रूप उग्र तरंग कर व्याकुन है काम रूपग्राह कर चंचलता रूप मोह रूप मगर कर मृत्यु रूप है ऐसे भवसागर से भगवान् विना कोई तारिख समर्थ नहीं कैसे हैं भगवान जिनको जन्म कल्याणक विषे इन्द्रादिक देव सुमेरुगिीर । ऊपर क्षीरसागर के जल कर अभिषेक करावे हैं और महा भक्ति कर एकाग्रचित्त होय परिवार ।
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पुराख
पद्म
|| सहित पूजा करे हैं धर्म अर्थ काम मोत यह वारों पुरुषार्थ हैं तिन विषे लगा है चित्त जिनका जिनेंद्रदेव । ।१०२६॥ पृथिवी रूप स्त्री को तजकर सिद्ध रूप बनिता को बरते भए कैसी है पृथिवी रूप स्त्री विन्ध्याचल और
कैलाश हैं कुच जिस के और समुद्र की तरंग हैं कटिमेखला जिसके ये जीव अनाथ महा मोह रूप अंधकार कर अालादित तिनको वे प्रभु स्वर्ग लोकसे मनुष्य लोक विषे जन्म धर भवसागरसे पार करते भए अपने अद्भुतानन्तवीर्य कर आठों कर्मरूप वैरी क्षणमात्र में खिपाए जैसे सिंह मदोन्मत्त हस्तियों को नसावे भगवान सर्वज्ञदेव को अनेक नामकर भव्यजीव गावे हैं जिनेंद्र भगवान अहंत स्वयंभू शंभ स्वयंप्रभ सुगत शिवस्यान महादेव कालजर हिरण्यगर्भ देवाधिदेव ईश्वर महेश्वर ब्रह्मा विष्णु बुद्ध बीतराग विमल विपुलप्रबल धर्म चक्री प्रभु विभु परमेश्वर परमज्योति परमात्मा तीर्थकर कृतकृत्य कृपाल संसार सूदन सुर ज्ञान चतु भवातक इत्यादि अपार नाम योगीश्वर गावें हैं और इंद्रधरणीन्द्र चक्रवर्ती । भक्ति कर स्तुति करे हैं जो गोप्य हैं और प्रकटहैं जिनके नाम सकल अर्थ संयुक्त हैं जिनके प्रसाद कर यह जीव कर्म से छूट कर परम घामको प्राप्त होय है जैसा जीवका स्वभाव है तैसा वहां रहे है जो ।। स्मरण कर उसके पाप बिलय जांय वह भगवान पुराण पुरुषोत्तम परम उत्कृष्ट आनन्द की उत्पति
का कारण महा कल्याण का मूल देवों के देव उनके तुम भक्त होवो अपना कल्याण चाहो हो तो अपने हृदय कमलमें जिनराजको पधरावो, यह जीव अनादि निधनहै कर्मोंका प्रेरा भव बनमें भटके है सर्व जन्ममें मनुष्य भव दुलभहै सो मनुष्य जन्म पायकर जे भूले हैं तिनको धिक्कार है चतुर्गति रूपहै भूमण जिस विषे ऐसा संसाररूप समुद्र उसमें फिर कब बोध पावोगेजे अहतका ध्यान नहीं करे |
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परा
पद्म हैं अहो धिक्कार उनको जे मनुष्य देह पाय कर जिनेन्द्रको न जपे हैं जिनेंद्र कर्म रूप वैरीका नाश !
करगाहाग उमे भूल पापी नाना योनिमें भ्रमण करे हैं कभी मिथ्या तपकर तुद्र देव होयहें फिर मरकर | स्थावर योनिमें जाय महा कष्ट भोगे हैं यह जीव कुमार्गके आश्रयकर महा मोहके बशभए इन्द्रोंका इंद्र जो जिनेंद्र उसे नहीं ध्यायें हैं देखो मनुष्य होयकर मूर्ख विषयरूप मांसके लोभी मोहिनी कर्म के योग कर अहंकार ममकारको प्राप्त होयहैं जिनदीचा नहीं धरे हैं मन्दभागियों को जिन दीक्षा दुर्लभ है कभी कुतपकर मिथ्या दृष्टि स्वर्ग में पान उपजे हैं सो हीन देव होय पश्चात्ताप करे हैं कि हम मध्य लोक रत्नदीप विष मनुष्य भए थे सो अहंतकामार्ग न जाना अपना कल्याण न किया मिथ्या तपकर कुदेव भए हाय हाय धिक्कार उनपापियोंकोजो कुशास्त्रकी प्ररूपणाकर मिथ्या उपदेशदेय महामानके भरे जीवों । को कुमार्गमें डारे हैं मूढ़ोंको जिनधर्म दुर्लभ है इस लिये भव भवमें दुःखी होयहैं और नारकी तिर्यंचतो दुखी हो हैं और हीन देव भी दुखो ही हैं और बड़ी ऋद्धिकेधारी देव भी स्वर्ग से चये हैं सो मरण का बड़ा दुःख है ।
और इष्ट वियोग का बड़ा दुःख है बड़ेदेवोंकी भी यह दशा तो और क्षद्रों की क्या बात जो मनुष्य देह में ज्ञान पाय अात्म कल्याण करे हैं सो धन्य हैं इन्द्र इसभांति कहकर फिर कहता भया ऐसा दिन कब होय जो । मेरी स्वर्ग लोक में स्थिति पूर्ण होय और में मनुष्य देह पाय विषय रूप वैरियों को जीत कर्मों का । नाश कर तप के प्रभाव से मुक्ति पाऊँ तब एक देव कहता भया यहां स्वर्ग में तो अपनी यही बुद्धि । होय है परन्तु मनुष्य देह पाय भूल जाय हैं जो कदाचित् मेरे कहेकी प्रतीति न करो तो पांचमें स्वर्ग । का ब्रह्मेन्द्रनामा इन्द्र अब रामचन्द्र भया है सो यहां तो योंही कहते थे और अब वैराग्यका विचार ही ।
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नहीं तब शची का पति सौधर्मइन्द्र कहता भया सब बंधन में स्नेह का बड़ा बन्धन है जो हाथ पग कंठ । पराण आदि अंग अंग बंधा होय सो तो छूटे परन्तु स्नेह रूप बंधन कर बंधा कैसे छूटे स्नेह का बंधा एक १०३
अंगुल न जायसके रोमचन्द्र के लक्ष्मणसे अतिअनुराग है लक्ष्मण के देखेबिना तृप्ति नहीं अपने जीव से भी उसे अधिक जाने हैं एक निमिष मात्र भी लक्ष्मणको न देखें तो रामका मन विकल्प होय जान सो लक्ष्मणको तजकर कैसे वैराग्य को प्राप्त होंय कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है जो बुद्धिमान भी मूर्ख होय जाय हैं, देखोसुने हैं अपने सर्व भव जिसनेऐसा विवेकी राम भी आत्महित न करे ग्रहो देव हो जीवोंकेस्नेह का बड़ा बन्धन है इस समान और नहीं इसलिये सुबद्धियों को स्नेह तज संसारसागर तरिख का यत्न करना चाहिये, इसभांति इन्द्र के मुख्नका उपदेश तत्वज्ञानरूप और जिनवर के गुणों के अनुराग से अत्यंत पवित्र उसे सुनकर देव चित्त की विशुद्धता को पाय जन्म जरा मरण के भय से कंपायमान भए मनुष्य हाय मुक्ति पायबे की अभिलाषा करते भए ॥ इति ११४ एकसो चौदवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___अथानन्तर इन्द्र सभा से उठे तव सुर कहिए कल्पवासी देव और असुर कहिए भवनवासी वितर ज्योतिषीदेव इन्द्रको नमस्कार कर उत्तम भावधर अपने अपने स्थानकगए, पहिले दूजे स्वर्ग लग भवन । वासी विंतर ज्योतिषी देव कल्पवासीदेवोंकर लेगए जाय , सो सभा में के दो स्वर्ग वासा देव रत्न चल
औरमृगचूल बलभद्रनागयणके स्नेह परखिबे को उद्यमी भए, मन में यह धारणा करी वे दोनों भाई परस्पर प्रेम के भरे कहिए हैं देखें उन दोनों की प्रीति राम के लक्ष्मण से ऐता स्नेह है जिस के देख | बिनो न रहे सो राम का मरण सुने लक्ष्मण को क्या चेष्टा होय लक्ष्मण शोक कर विहल भया क्या
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पन | चेष्टा करे सो क्षणएक देख कर श्रावगे शोक कर लक्ष्मण का कैसा मुख होजाय कौन से कोप करे व्या २०३२॥ कहे ऐसी धारणा कर दोनों दुराचारी देव अयोध्या आए सो राम के महिल में विक्रिया कर समस्त
अन्तहपुर की स्त्रियों का रुदन शब्द कराया और ऐसी विक्रिया करी द्वारपाल उमराव मंत्री पुरोहित आदि नीचामुख कर लक्षमणपै अाए और रामका मरणकहते भए, कि हेनाथ रामपरलोक पधारे ऐसेवचनसुनकर लक्षमणने मन्दपवन करचपल जो नील कमल उस समानसुन्दर हैं नेत्र जिसके सो हायहायशब्दको बाधा सा कह तत्काल ही प्राण तजे, सिंहासन ऊपर बैठा था सो वचन रूप वज्रपात का मारा जीव रहित । होय मया आंख की पलक ज्यों थी त्यों ही रहगई जीव जाता रहा शरीर अचेतन रह गया लक्षमण को।
भ्राता की मिथ्या मृत्यु रूप वचन रूप अग्नि कर जरा देख दोनों देव व्याकुल भए लक्षमण के जिवायचे | को असमर्थ तब विचारी इसकी मृत्यु इसही विधि कही थो मन में अति परताए विषाद और आश्चर्य के ।
भरे अपने स्थानक गए शोक रूप अग्नि कर तप्तायमान है चित्त जिनका लक्ष्मण की वह मनोहर मति ।
मृतक भई देव देख नसके वहां खड़े न रहे निन्द्य है उद्यमजिनका । गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे ।। हैं हे राजन बिना विचारे जे पापी कार्य करेंतिनको पश्चात्ताप ही होय देवता गए और लक्षमण की स्त्री । पति को अचेतन रूप देख प्रसन्न करने कोउद्यमी भई कहे है हे नाथ किस अविवेकिनी सौभाग्य के गर्व कर गर्वित ने आप का मान न किया सोउचित न करी हे देव आप प्रसन्न होवो तुम्हारी अप्रसन्नता
हमको दुखकाकारण है ऐसा कह कर वे परम प्रेम की भरी लक्षमण के अंग से प्रालिंन कर पायन पड़ी। ! वे राणीचतुराई के वचन कहि वे विषे तत्पर कोई यक तो बीण लेय बजावती भई कोई मृदंग बजावती
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पुराण
पद्म भई पति के गुण अत्यन्त मधुर स्वर से गावती भई पति के प्रसन्न करिये विषे उद्यमी है चित्त जिनका
कोई एक पति का मुख देखे है और पति के वचन सुनिवेकी है अभिलाषा जिनकेकोई एक निर्मल स्नेहकी धरणहारी पति के तनु से लिपट कर कुण्डल कर मंडित महा सुन्दर कांत के कपोलोंको स्पर्शती भई और कोई एक मधुरभाषिणी पति के चरण कमल अपने सिर पर मेलती भई और कोई मृगनयनी उन्माद की भरी विभ्रम कर कटाक्ष रूप जे कमल पुष्प तिनका सेहरा रचती भई जंभाई लेती पति का बदन निरखती अनेक चेष्टा करती भई, इस भांति यह उत्तम स्त्री पति के प्रसन्न करिख को अनेकयत्नकरे हैं परन्तु उन के यत्न अचेतन शरीर विषे निरर्थक भए वे समस्त राणी लक्ष्मण की स्त्री ऐसे कंपायमानहें जैसे कमलों का बन पवन कर कंपोयमान होय नाथ की यह अवस्था होते संतेस्त्रियों का मन प्रतिव्याकुल भयो संशय कोप्राप्तभई किक्षणमात्रमें यहस्याभया चितवनमेंनभावे पोरकथनमेंनभावे ऐसारखेदकाकारणशोकउसेमन में धर कर वे मुग्धा मोह की मारी पसर गई, इंद्र की इंद्राणी समान है चेष्टा जिनकी ऐसी वे राणी ताप कर तप्तायमान मूक गई न जानिए तिनकी सुन्दरता कहां जाती रही यह बृतान्त भीतर के लोकों के मुख से सुनश्रीरामचन्द्र मंत्रियों कर मंडित महा संभ्रम के भरे भाई पैाए भीतर राजलोक में गए लक्ष्मण का मुख प्रभातके चन्द्रमा समान मन्दकांति देखा जैसा तत्कालका वृक्ष मलसे उखड़ पड़ा होय तैसा भाईको देखा मन में चितवते भए बहू क्या भया विना कारण भाई प्राज मोसे रुसाहै यह सदा अानन्द रूप ।
आज क्यों विषाद रूप होय रहा है स्नेह के भरे शीघ्र ही भाई के निकट जाय उस को उठाय उर से | लगाय मस्तक चूमते भए दाहे का मारी जो वृक्ष उस समान हरि को निरख हलधर अंग से लपट गया |
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१०३२॥
पुराग यद्यपि जीतब्यता के चिन्हरहित लक्ष्मण को देखा तथापि स्नेह के भरे राम उसे मवा न जानते भए । | वक्र होय गई है ग्रीवा जिसकी शीतल होय गया है अंग जिसका जगत्की अागल ऐसी भुजा सो शिथिल ।
हीय गई सांमो स्वास नहीं नेत्रोंकी पलक लगेन विघटेलक्षमणकी यह अवस्थादेख रामखेदखिन्न होय कर ।। पसेव से भर गए यह दीनों के नाथ राम दीन होय गये बारम्बार मा खाये पड़े आसुवों कर भरगए हैं नेत्र जिनके भाई के अंग निरखे इसके एक नख की भी रेख न आई कि ऐसा यह महा बली कौन ।
कारणकर ऐसी अवस्थाको प्राप्त भया यह विचार करते संते भयाहै कंपायमान शरीर जिनका यद्यपि श्राप । सर्व विद्याके निधान तथापि भाईके मोहकर विद्या बिसरगई भू का यत्न जाने ऐसे वैद्य बुलाए मंत्र | ओंगधि विषे प्रवीण कलाके पारगामी ऐसे वैद्य प्राय सो जीवता होय कछु यत्न करें वे माथा धुन नीचे होय रहे तब राम निराश होय मूर्खा खाय पडे जैसे वृक्षकी जड़ उखड जाय और बृक्ष गिर पडे तैसे आप पडे मोतियों के हार चन्दन कर मिश्रित जल ताडके बीजनावोंकी पवनकर रामको सचेत । किया तब महा विह्वलहोय बिलाप करते भए शोक और विषादकर महा पीडित राम श्रासुवोंके प्रवाह | कर अपना मुख प्राछादित करते भये श्रासुत्रों कर पाछादित राम का मुख ऐसा भासे जैसा जल धारा कर माछादित चन्द्रमा भासे अत्यन्त विह्ववल राम को देख सर्वराज लोक रूप समुद्र से रुदन रूप ध्वनि प्रकट होती भई दुख रूप सागर विषे मग्न सकल स्त्री जन अत्यर्थ पणे रुदन करती भई तिनके शब्द कर दशों दिशा पूर्ण भई कैसे विलाप करें हैं हाय नाथ पृथ्वीको आनन्दके कारण सर्व सुन्दर हमको बचन रूप दान देवो तुमने बिना अर्थ क्यों मौन पकडी हमारा अपराध क्याबिना ,
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पन
१०३५
अपराध हमको क्यों तजो हो तुम तो ऐसे दयालु हो जो अनेक चूक पडे तो क्षमा करो ॥ पुराण अथानन्तर इस प्रस्ताव विषे लव औग्ग्रंकुश परमविषादको प्राप्त होय विचारते भए कि धिक्कार इससंसार
असारको और इस शरीर समान और क्षणभंगुर कौन जो एक निमिष मात्रमें मरणको प्राप्त होय जो बासुदेव विद्याधरोंकर न जीता जाय सोभी कालके जालमें प्राय पड़ा इस लिये यह बिनश्वर शरीर यह विनश्वर राज्य संपदा उसकर हमारे क्या सिद्धि यह विचार सांताके पुत्र फिर गर्भमे आयबे का है भय जिनको पिताके चरणारविन्दको नमस्कार कर महन्द्रोदय नामा उद्यान विषे जाय अमृत स्वर मुनिकी शरण लेय दोनों भाई महाभाग्य मुनिभए जबइन दोनों भाइयोंने दीचाधरी तब लोक अतिव्या कुल भए कि हमारा रक्षक कौन रामको भाई के मरणका बड़ा दुख सो शोकरूप भ्रमणमें पडे जिन को पत्र निकसनेका कुछ सुध नहीं रामको राज्यसे पुत्रोंसे प्रियायोंसे अपने प्राणसे लक्ष्मण अति प्यारा यह कर्मोंको विचित्रता जिसकर ऐसे जीवोंकी ऐसी अशुभ अवस्थाहोय ऐसा संसार का चरित्र देख ज्ञानी जीव वैराग्यको प्राप्तहोय हैं जे उत्तम जनहैं तिनके कछु इक निमित्त मात्र वाह्य कारण देख अंतरंग के विकारभाव दूरहोय ज्ञान रूप सूर्यका उदय होयहै पूर्वोपार्जित कर्मोका क्षयोपशम होय तब वैगग्य उपजे है।
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे भव्योत्तम लक्षमण के काल प्राप्त भए समस्त लोक व्याकुल भए और युगप्रधान जे राम सो अतिव्याकुल होय सब बातों से रहित भए कछु सुध नहा लक्षमण का शरीर स्वभाव ही कर महा सुरूप कोमल सुगंध मृतक भया तो भी जैसे का तैसा सो श्राराम लक्षमण को एक क्षण न तजें कबहूं उर से लगाय लेय कभी पपोले कभी चूबे कबहूं इसे
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पत्र।
चराख
लेकर श्राप बैठ जावें कभी लेकर उठ चलें एक क्षण काहू का विश्वास न करें एक क्षण न तज जैसे १९०३६ चालक के हाथ अमृत आवे और वह गाढ़ा गाढा गहे तैसे राम महाप्रिय जो लक्षमण उस को गाढ़ा
गाढ़ा गहे। और दीनों की नाई विलाप करे हाय भाई यह तुझे कहां योग्य जो मुझे तज कर तैंने । अकेले भाजिवे की वृद्धि करी में तेरा विरह एक क्षण सहारबे समर्थ नहीं यह बात तू कहा न जाने। है तूतो सब बातों में प्रवीण है अब मुझे दुःख के सागर में डार कर ऐसी चेष्टा करे है हाय भ्रातः यह क्या कर उद्यम किया जो मेरे बिना जाने मेरे बिना पूछे कूच का नगारा बजाय दिया हे वत्स हे बालक एक बार मुझे वचन रूप अमृत प्याय. ततो अति विनयवान् था विना अपराध मो से क्यों कोप किया, हे मनोहर अब तक कभी मोसे ऐसा मान न किया अब कछ और ही होय गया कहो मैं क्या किया, जो तू रूसा तू सदा ऐसा विनय करता मुझे दूर से देख उठ खड़ा होय सन्मुख प्रावता मुझे सिंहासन ऊपर बैठावता आप भूमि में बैठता अब क्या दशा भई में अपना सिर तेरे पायन में दूं तौभी नहीं बोले है तेरे चरण कमल चन्द्र कांति मणि से अधिक ज्योति को घरे जे नखों कर शोभित देव विद्याधर सेवे हैं हे देव अवशीघ ही उठो मेरे पुत्र बन को गए सो दूर न गए हैं तिनको हम तुरतही उलटे लावें और तुम बिना यह तुम्हारी राणी आर्त्तध्यान की भरी कुरची की नाई कल कलाट करे हैं। तुम्हारे गुण रूप पाश सो बंधी पृथिवी में लोटी लोटी फिरे हैं तिनके हार बिखर गए हैं और सीस फूल,
चूडामणि कटिमेखला कर्णाभरण विखरे फिरे हैं यह महा विलाप कर रुदन करे हैं अतियाकुल हैं इन || को रुदन से क्यों न निवारो अब में तुम विना क्या करूं कहां जाऊं ऐसा स्थानक नहीं जहां मुझे विश्राम !!
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पद्म
१०३७
उपजे और यह तुम्हारा चक्र तुम से अनुरुक्त इसे तजना तुम को क्या उचित और तुम्हारे वियोग में मुझे अकेला जान यह शोक रूप शत्रु दवावे है अब में हीनपुण्य क्या करूं मुझे अग्नि ऐसे न दहे और ऐसा विष कंठ को न सोखे जैसा तुम्हारा विरह सोखे है अहो लक्ष्मीधर क्रोधतज घनीबेर भई और तुम ऐसे धर्मात्मा त्रिकालसामायिक के करणहारे जिनराज की पूजामें निपुणसो सामायिक का समयटलपूजा का समय टला अब मुनियों के अाहार देयवे की बेला है सो उठो तुम सदा साधुवों के सेवक ऐसा प्रमाद क्यों करो हो, अब यह सूर्याभी पश्चिम दिशा को प्राया कमल सगेवर में मुद्रित होय गये तैसे तुम्हरे दर्शन विना लाकोंके मन मुद्रित होय गये इस प्रकारविलाप करतेकरते दिन व्यतीत भयानिशा भई तबरााम सुंदर सेज विछाय भाई को भुजावों में लेय सूते किसीकाविश्वास नहीं रामनेसव उद्यम तजेएकलक्षमण में जाव, रात्रि को कानों में कहे हे हे देव अब तो मैं अकेला हूं तुम्हारे जीव की बात मुझे कहो तुम कौन कारण असी अवस्था का प्राप्त भये हो तुम्हारे बदन चन्द्रमा से अतिमनोहर अब कांति रहित क्यों भाले है और तुम्हारे नेत्र मंद पवन कर चंचल जो नीलकमल उससमान अब और रूप क्यों भामे हैं अहो तुम को क्या चाहीए सो ल्याऊं हे लक्षमणसी चेष्टा करनी तुमको सोहे नहीं जोमन में होय सो मुखकर आज्ञा करा अथवा सीता तुमको याद आई होय वह पतिव्रता अपने दुःख में सहाय थी सो तो अब परलोक गई तुम दो खेद करना नहीं हे धीर विषाद तजो विद्याधर अपने शत्रु हैं सो छिद्र देख आये अव अयोध्या लुटेगी इसलिये यत्न करना होय सो करो और हेमनोहर तुम काह से क्रोध ही करते तबभी असे अप्रसन्न देखे नहीं अब असे अप्रसन्न क्यों भासो हो हे वत्स अब ये चेष्टा तजा प्रसन्न होवो में तुम्हारे ।
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!
1 प्रागा !!
पायन परूं हूं नमस्कार करूं हूं तुम तो महा विनयवंत हो सकलपृथिवी विषे यह बात प्रसिद्ध है कि ११०३८ । लक्षमण राम का आज्ञाकारी है सदा सन्मुख है कभी पराङमख नहीं तुम अतुल प्रकाशजगत् के दीपक हो मत कभी ऐसा होय जो कालरूप बायु कर बुझ जावो । हे राजावों के राजन् तुम ने इस लोक को अतिमानन्दरूप कीया तुम्हारे राज्य में अचेन किसी ने न पाया इस भरत क्षेत्रके तुम नाथ हो अब लोक को अनाथ कर गमन करना उचितनहीं. तुमने चक्र करशत्रुवोंके सकलचक्र जीते अब कालचक्रका पराभव कैसे सहो हो तुम्हारा यह सुन्दर शरीर राज्य लशमी कर जैसा सोहता था, वैसाहीमूर्छित भया सोई है हेराजेंद्र अब रात्री भी पूर्ण भई संध्या फूली सूर्य्य उदय होय गया, अब तुम निद्रा तजो. तुम जैसे ज्ञाता श्री मुनि सुत्रतनाथ के भक्त प्रभातका समय क्यों चूकोहो, जो भगवान वीतरागदेव मोहरूप रात्रीको हरलोका लोक का प्रकट करणहारा केवलज्ञान रूप प्रताप प्रकट करतेभये, वे त्रैलोक्य के सूर्य्य भव्यजीवरूपकमलों को प्रकट करणारे तिनकाशरण क्यों न लेवो और यद्यपि प्रभात समय भया परन्तु मुझे अंधकार ही भाते है क्योंकि मैं तुम्हारा मुख प्रसन्ननहीं देखूं इसलिये हेविचक्षण अवनिद्रा तजो जिनपूजाकर सभा में तिष्ठो सब सामंत तुम्हारे दर्शन को खड़े हैं, बड़ा आश्चर्य है सरोवर में कमलफूले तुम्हारा वदन कमल में फूला नहीं देखूं ऐसी विपरीतचेष्टा तुमने अब तक कभी भी नहींकरी उठो राज्यकार्य में चित्तलगावो हे भ्रातः तुम्हारी दोर्घ निद्रा से जिनमंदिरों की सेवा में कमी पड़े है संपूर्ण नगर में मंगल शब्द मिटाये गीत नृत्यवादित्रा बन्द होगये हैं औरों की क्यावात जे महाविरक्त मुनिराज हैं तिनको भी तुम्हारी यह दशा सुनउद्वेग उपज है तुम जिनधर्म के धोरी हो सबही साधर्मीक जन तुम्हारी शुभदशा चाहे हैं वीण बांसुरी मृदंगादिक के
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चा
१०३६ ।।
शब्द रहित यह नगरी तुम्हारे वियोग कर व्याकुल भई नहीं सोहे है कोई अगिले भव में महा अशुभ चरण कर्म उपार्जे तिनके उदय कर तुम सारीखे भाई की अप्रसन्नता से महाकष्ट को प्राप्त भया हूं हे मनुष्यों के सूर्य्य जैसे युद्ध में शक्ति के धावकर अचेत होय गये थे और आनन्द से उठे मेरा दुःख दूर किया तैसे ही उठकर मेरा खेद निवारो ॥ इति एक सोसत्तखां पर्व शप्पूर्णम ||
अथानन्तर यह वृत्तांत सुन विभीषण अपने पुत्रों सहित और विराधित सकल परिवार सहित और सुग्रीव आदि विद्याधरों के अधिपति अपनी स्त्रिों सहित शीघ्र अयोध्यापुरी याये सुवों कर भरे हैं नेत्र जिनके हाथ जोड़ सीस निवाय राम के समीप आये महाशोकरूप हैं चित्त जिनके अतिविषाद के भरे राम को प्रणाम कर भूमि में बैठे, क्षण एक तिष्ठकर मंद मंद बाण कर बीनती करते भये हे देव यद्यपि यह भाई का शोक दुर्निवार है तथापि आप जिनवाणी के ज्ञाताहो सकलसंसार का स्वरूप जानो हो इसलिये आप शोक तजिवे योग्य हो, ऐसा कह सबही चुप होय रहे फिर विभीषण सब बात में महा विषक्षण सो कहता भया हे महाराज यह अनादिकालकी रीति है कि जो जन्मा सो मुवा, सब संसार में यही रीति है इनहीको नहीं भई जन्मकासाथी मरण है मृत्यु अवश्य है काहू से न टरी न काहू से टरे इस संसार पिंजरे में पड़े. यह, जीवरूप पक्षी सबही दुखी हैं काल के वंश हैं मृत्युका उपाय नहीं और सब के उपाय हैं यह देह निसंदेह विनाशीक है इसलिये शोक करना वृथा है, जे प्रवीण पुरुष हैं वे आत्मकल्याण का उपाय करे हैं रुदन की से मरा न जीवे और न वचनालाप करे, इसलिये हेनाथ शोक न करो यह मनुष्यों के शरीर तो स्त्री पुरुषों के संयोग से उपजे हैं सो पानी के बुदबुदावत् दिलाय जाय इसका आश्चर्य कहां
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पद्म अहमिन्द्र इन्द्रलोकपाल अादि देव अायु के क्षय भए स्वर्ग से चये हैं जिन की सागरों की प्राय और पुराण | १०४०. किसी के मारे न मरें वे भी काल पाय मरें मनुष्यों की कहाबात यह तो गर्भके खेदकर पीडित और रोगों
कर पूर्ण डाभकी अणीके ऊपर जोप्रोसकीवदायपड़े उससमान पड़ने को सन्मुख हैं महामलिन हाडों केपीजरे ऐसे शरीरके रहिबेकी कहां आशा आप यह प्राणी अपने सुजनों का सोच करे सोश्रापक्या अजर अमर है श्राप ही काल की दाढ में कैा उसका सोच क्यों न करे जो इनहीं की मृत्यु बाई होय और और अमर हे ता रुदन करना जब सबकी यही दशा है तो रुदन काहे का, जते देहधारी हैं तेतेसब काल के अाधीन हे सिद्ध भगवान के देह नहीं इसलिये मरण नहीं यह देह जिसदिनउपजाउसही दिनसे कालइसके सेयवे के उद्यममें है यह सब संसारी जीवों की रीति है इसलिये सन्तोष अंगीकार की इष्टके वियोग से शोक करे सो बृथा है शोक कर मरे तौभी वह वस्तुपीछे नावे इसलिये शोक क्यों करिये देखो काल तो वज्रदंड लीये सिर पर खड़ा है और संसारी जीव निर्भय भए तिष्ठे हैं जैस सिंह तो सिर पर खड़ा है और हिरणहरा तृण चरें है त्रैलोक्य नाथ परमेष्ठी और सिद्ध परमेश्वर तिन सिवाय कोई तीन लोक में मृत्युसे बचा सुना नहीं वेही अमर हैं और सब जन्म मरण करे हैं यह संसार विंध्याचल के वन समान काल रूप दावानल समान उन्ले है सो तुम क्या न देखो हो यह जीव संसार बन में भ्रमण कर अति कष्ट से मनुष्य देह पावे है सो हा है काम भोग के अभिलाषी होय माते हाथी की न्याई बंधन में पड़े हैं नरक निगोद के दुःख भोगवे हैं कभोयक व्यवहार धर्म कर स्वर्ग में देव भी होय हैं आयु के अंत वहां से पड़े हैं जैसे नदीके ढाहे का | बृक्षक्कभी उखडे ही तैसे चारोंगति के शरीर मृत्युरूप नदी के ढाहे केवृक्ष हैं इनके उखड़वे का क्या अाश्चर्य
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है, इन्द्र धरणोंद चक्रवर्ती आदि अनन्त नाश को प्राप्त भए जैसे मेघ कर दावानल बझे तैसे शान्ति पुराण | रूप मेव कर कालरूप दावानल बुझे और उपाय नहीं पाताल में भूतल में और स्वर्ग में ऐसा कोई १०४१
स्थानक नहीं जहां काल से बचे, और छठेकाल के अन्त इस भरतक्षेत्र में प्रलय होयगी पहाड़ विलय हाय जावेंगे तो मनुष्यकी कहा बात जे भगवान तोर्थकरदेव वज्रबृषभ नाराच संहननकेधारक जिनके सम चतुर संस्थानक सुर असुर नरोंकर पूज्य जो किसी कर जीते न जांय तिनको भी शरीर अनित्य वेभी देहतज सिद्धलोक में निजभावरूप रहैं । तो औरोंका देह कैसे नित्य होय सुर नर नारक तिर्यचोंका शरीर केले के गर्भ समान असार है । जीव तो देह का यत्न करे है । और काल प्राण हरे है. जैसे विलके भीतर से गरुड सर्प को लेजाय तैसे देह के भीतर से जीवको काल लेजाय है, यह प्राणी अपने मवों को रोवे है हाय भाई, हाय पुत्र, हाय मित्र, इसभांति शोक करे है और कालरूप सर्प सबोंको निगले है जैसे सर्प मींडक को निगले, यह मढ बुद्धि झठे विकल्प करे है यह में कीया यह में करूं हूं यह करूंगा सो ऐसे विकल्प करता काल के मुख में जाय है जैसे ट्टा जहाज समुद्र के तले जाय । परलोक को गयो जो सज्जन उस के लार कोई जायसके तो इष्ट का वियोग कभी न होय जो शरीरादिक पर वस्तु से स्नेह करे हैं सो क्लेशरूप अग्नि में प्रवेश करे हैं । और इन जीवोंके इस संसार में एते स्वजनों के समूह भए जिनकी संख्या नहीं। जे समुद्र की रेणुकाके कण तिमसे भी अपार हैं और निश्चय कर देखिये तो इस जीव के न कोई शत्रु है। न कोई मित्र है, शत्रुतो रागादिक हैं, और मित्र ज्ञानादिक है। जिस को अनेक प्रकार कर लडाईये और निज जानिये सो भी बैर को प्राप्त भया महा रोस कर हणे, जिसके स्तनों का दुग्ध पीया जिसकर शरीर ।
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4 वृद्ध भया ऐसी माता को भी इने हैं धिकार इस संसार की चेष्टा को जो पहिले स्वामी था और बार बार १०७२॥
नमस्कार करता सो भी दोस होय जाय है तब पायों की लातों से मारिये है, हे प्रभो मोह की शक्ति देखो इसके वश.भया यह जीवश्राप को नहीं जाने हे परको आपा माने है, जैसे कोई हाथ कर कारे नाग को गहे तैसे कनककामिनी को गहे है इस लोकाकाशमें ऐसा तिल मात्र क्षेत्र नहीं जहाँ जीवने जन्म मरण न | कीये और नरक में इसको प्रज्वलित ताम्बाप्यायाऔर एतीवार यह नरककोगया जो उसकाप्रज्वलित ताम्र पान जोड़िये तो समुद्र के जल से अधिक होय और सूकर कूकर गर्दभ होय इस जीवने एता मल का श्राहार काया जो अनन्त जन्म का जोड़ियेतो हजारां विन्ध्याचल की राशी से अधिक होय और इस अज्ञानी जीव नेक्रोधके वशसे एते पराये सिर छेदे और उन्होंने इसके छेदे जो एकत्र करिये तो ज्योतिषचत्र को उलंघ कर यह सिर अधिक होवें जीव नरक प्राप्त भयावहां अधिक दुःख पाय निगोद गया वहां अनन्तकाल जन्म मरण कीये यह कथा सुनकर कौन मित्र से मोह माने एक निमिष मात्र विषय का सुख उसके अर्थ कौन अपार दुख सहे, यह जीव मोहरूप पिशाच केवशपड़ा उन्मत्त भया संसारबन में भटके है । हे श्रेणिक विभीषण राम से कहे है हे प्रभो यह लक्ष्मण का मृतक शरीर तजबे योग्य है । और शोककरना योग्य नहीं यह कलेबर उर से लगाय रहना योग्य नहीं, इसभांति विद्याधरों का सूर्य जो विभीषण उसने श्रीराम से बेनती करी और राम महा विवेकी जिन से और प्रति बुद्ध होंय तथापि मोह के योग से लक्ष्मण की मूर्ति को न तजी जैसे विनयवान् गुरुकी आज्ञा न तजे ॥ इति ११८ एक सो अठारवां पर्व संपूर्णम् ॥ ____ अथानन्तर सुग्रीवादिक सब राजा श्रीरामचन्द्र से बेनती करते भए अब वासुदेव की दग्ध क्रिया
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ण्द्म
१०४३.
करो तब श्रीराम को यह वचन प्रतिनिष्ट लगा और क्रोध कर कहते भए तुम अपने माता पिता पुरा पुत्र पौत्र सबों की दग्धकिया करो, मेरे भाई की दग्धकिया क्यों होय जो तुम्हारा पापीयों का मित्र बन्धु कुटुम्ब सो सब नाशको प्राप्तहोय मेरा भाई क्यों मरे उठो उठा लक्षमण इन दुष्टांके संयोग से और ठौर चलें जहांइनपापियों के कटुकवचन न सुनिये ऐसा कह भाईको उरसे लगाय कांधधर उठचले विभीषण सुग्रीवादिक अनेक राजा इनकी लार पीछे २ चले आ राम काहूका विश्वास न करे भाईको कांधे घरे फिर जैसे बालक के हाथ [पिफले आया और हितू छुडाया चाहें वह न छोडे तैसे राम लक्ष्मगा के शरीर को न छोड़े आंसूबोंसे भिज रहे हैं नेत्र जिनके भाई से कहते भए हे भ्रातः श्रच उठो बहुत बेर भई ऐसे कहां सोवो हो अब स्नानकी बेला भई स्नान के सिंहासन बिराजो ऐसा कह मृतक शरीर को सिंहासन पर बैठाया और मोहका भरा राम मणि स्वर्णके कलशों से भाईको स्नान करावता भयां और मुकुट आदि भूषण पहिराये और भोजनकी तैयारी कराई सेवकों को कही नानाप्रकारके रत्न स्वर्ग के भाजन में नानाप्रकारका भोजन ल्यावो उसकर भाईका शरीर पुष्प होय सुन्दर भातदाल फुलका नाना प्रकार के व्यंजन नानाप्रकार के रस शीघ्रही ल्यावो यह श्राज्ञा पाय सेवक सब सामग्रीकर ल्याये नाथके आज्ञा कारी तब रघुनाथ लचणके मुखमे प्रसदेयं मो न प्रसे जैसे अभव्य जिनराजका उपदेश न ग्रहे तब आप कहते भए जा तैंने मोसे कांप किया तो आहारसे कहाँ कोप आहार तो करो मोसे मत बोलो जैसे जिनवाणी अमृतरूप है परंतु दीर्घ संसारीको न रुचे तैसे वह अमृतमई आहार लक्षमण के मृतक शरीरको नरुवा फिर रामचंद्र कहें हैं हे लक्ष्मीधर यह नानाप्रकारकी दुग्वादि पविने योग्य बस्तु सो पीवो
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पम। ऐसा कहकर भाका दुग्यादि प्यायाचाह सो कहां पीयाकमा गौतनमानीओणे कसे कहे हैं वह विवेकी १. राम स्नेहकर जैसी जीवतेकी सेवा करिये तैसे मृतक भाईकी करताभया और नानाप्रकारके मनोहर गीत
बीण बांसुरी अादि नानाप्रकारके नाद करता भया सोमृतकको कहांरुचे मानों मरा हुवा लक्षमणरामका संग न तजताभया भाईको चन्दनसे चर्चा भुजावोंसे उठाय लेय उरसे लगाय सिर चूम्बे नुख चूम्बे हाथ । चूंचे और को हैं हे लक्षमण यह क्या भया तू तो ऐसा कभी न सोवता अब तो विशेष सोवने लगा अब निद्रा तनो इस भांति स्नेहरूप ग्रहका ग्रहा बलदेव नानाप्रकारकी चेष्टा कर यह वृतांत सब पृथिवी में प्रकट भया तिलक्षमण मूवालव अंकुश मुनि भये और राम मोहका मारा मूढ़ होयरहाहै तब वैरी क्षोभको प्राप्त भरे जैसे वर्ण ऋतुका समय पाय मेघ गाजे शंबूकका भाई सुंदर इसका नन्दन विरोधरूप है चित्त जिसका सो इन्द्रजीतके पुत्र बज्रमाली पै पाया और कही मेरा बाग और दादा दोनों,लक्षमणने मारेसो मेरा खुवंशियोंसे बेरहै और हमारा पाताल लंकाकाराज्य खोस लिया और विराधितको दिया और बानर बंशियों का शिरोमाणि सुप्रीव स्वामीद्रोही होयं रामसे मिला सोगम समुद्र उलंघ लंकापाये राक्षसनीप उजाडा रामको सीताका अति दुख सो लंका लेयवेका अभिलाषी भया और सिंहवाहिनी और गरुड वाहिनी दोय महा विद्या राम लक्षमणको प्राप्त भई तिनकर इन्द्रजीत कुम्भकर्ण -बन्दी में किये और लक्षण के चक्र हाथ आया उसकर रावणको हता अब कालचक्र कर लक्षमण मूवा सो बानरबंशियों
की पन टूटी बानर बंशी लक्ष्मण की भुजावों के आश्रय से उन्मत होय रहे थे अब क्या करेंगे वे | निरप व भये और रामको ग्यारह पत होय चुके बारहमां.पच लगा है सो गहला होय रहा है भाई |
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पद्म
के मृतक शरीर को लिये फिरे है ऐसा मोह कौन को होय यद्यपि राम समान योधा पृथ्वी में श्रीर १०४५ || नहीं वह हल मूशलका घरणहारा अद्वितीय मल्ल है तथापि भाईके शोकरूप कीच में फंसा निकसबे
पुराणा
समर्थ नहीं सो अब राम से बैर भाव लेनेका दाव है जिसके भाईने हमारे बंशके बहुत मारे शंबूक के भाई के पुत्र ने इन्द्रजीत के बेटे को यह कहा सो कोधकर प्रज्वलित भया मंत्रियों को श्राज्ञा देय रणभेरी दिवाय सेना भली कर शम्बूकके भाईके पुत्र सहित अयोध्या की ओर चला सेना रूप समुद्र को लिये प्रथम तो सुग्रीव पर कोप किया कि सुग्रीवको मार अथवा पकड उसका देश खोस लें फिर राम से लड़ें यह विचार इन्द्रजीत के पुत्र बज्रमाली ने किया सुन्दर के पुत्र सहित चढा तब ये समाचार सुनकर सर्व विद्यावर जे रामके सेवक थे वे रामचन्द्र के निकट अयोध्या में चाय भेले भये जैसा भीड़ अयोध्या में लवकुश के व्यायवे के दिन भई थी तैसी भई, वैरियों की सेना अयोध्या ..के समीप ाई सुनकर रामचन्द्र लक्ष्मण को कांधे लिये ही धनुप् बाथ हाथ में समारे विद्याधरों को संग ले आप बाहिर निकसे उस समय कृतांतवक का जीव और जटायु पक्षी का जोव चौथे स्वर्ग देव भये थे तिनके आसन कंपायमान भये, कृतांतवक का जीव स्वामी और जटायु पक्षी का जाव सेवक सो कुक का जीव जटायु के जीव से कहता भया हे मित्र आज तुम कोवरूप क्यों भये हो तब वह कहता या जब मैं गृध पक्षी था सो राम ने मुझे प्यारे पुत्र कीन्याइँ पाता और जिन धर्म का उपदेश दोया मरण समय नमोकार मंत्र दीया उस कर में देव भया अब वह तो भाई के शोक कर तप्तायमान है और शत्रु की सेना उसपर छाई है तब कृतांतवक का जीव जो देव था उसने अवधि जोड़कर कही है
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पद्म मित्र मेरा वह स्वामी था में उसका सेनापति था मुझे बहुत लड़ाया भ्रात पुत्रोंमे भीअधिक गिना और मेरे !
उनके वचन है जब तुमको खंद उपजेगा तब तुम्हारे पास में पाऊंगा, सो ऐसा परस्पर कह कर वे दोनों देव चौथे स्वर्ग के वामी सुन्दर प्राभूषण पहिरे मनोहर हैं कश जिन के मा अयोध्या की ओर आये दोनों विचवण परस्पर दोनों बतलाये कृतांतवक्र जीवने जगायक जीवसे कहा तुम तो शत्रुओं की सेनाकी ओर । जावो उन की बद्धि हरो और में रघुनाथके समीपजाऊहूं नर जटायुका जीव शत्रुाकी अोरगया कामदेव
का रूपकर उनको मोहित कोयाऔर उनको ऐमी माया दिखाई जो अयोध्या के आगेग्रोरपाछेदुग्गमपहाड़ । पडे हैं और अयोध्या अपार है यह अयोध्या काह से जीती न जाय यह कौशल पुरी सुभटों कर भरी
है कोट अाकाश लग रहे हैं और नगर के वाहिर भीतर देव विद्याधर भरे हैं हम ने न जानी जो यह नगरी महाविषम है धरती में देखिये तो आकाश में देखिये तो देव विद्याधर भर रहे हैं अब कौन प्रकार हमारे प्राण बचें कैसे जीवते घर जावें जहाँ श्रीरामदेव विराजें सो नगरी हम से कैसे लई जाय, ऐसी विक्रीयाशक्ति विद्याधरों में कहां हम विनाविचारे ये काम किया जो पटबीजना सूर्यसे वैर विचारे तो क्या कर सके अब जो भागों तो कौन राह होयकर भागों मार्ग नहीं इस भाँति परस्पर वार्ता कर कांपने लगे समस्त शत्रयों की सेना विहल भई तब जटायु केजीवने देव विकया की कीड़ाकर उनको दक्षिणकी ओर भागने का मार्ग दीया वे सब प्राणरहित होय कांपते भागे जैसे सिचान अागे परे वा भागे आगे जायकर इन्द्र जीत के पुत्र ने बिचारी जो हम विभीषण को कहां उत्तर देंगे और लोकों कोक्या मुख दिखावेंगे असा विचार लज्जावान होय सुन्दर के पुत्र चारों रत्न सहित और विद्याधरों सहित इन्द्रजीत
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१०४४॥
पन के पुत्र वज्र माली रतिवेग नामा मुनि के निकट मुनि भये, तब यह जटायु का जीव देव उन साधुओं । पराण
का दर्शन कर अपना सकल वृत्तांत कह क्षमा कराय अयोध्या आया जहां राम भाई के शोक कर चालक की सी चेष्टा कर रहे हैं तिनके संवोधवे के अर्थ वे दोनों देव चेष्टा करते भये, कृतांतवक्र का जीव तो सूके वृक्ष को सींचने लगा और जटायु का जीव मृतक बैल यगल तिनकर हलवाहवे का उद्यमी भया और शिला ऊपर बीज बोने लगा सो ये भी दृष्टांत रामके मन में न अाया फिर कृतांतवक्र का जीव गमके आगे जलको घृत के अर्थ विलोवता भया और जटायु का जीव बालू रेत को घानी में तेलके निमित्त पेलता भया सो इन दृष्टांतों कर रामको प्रतिबोध न भया और भी अनेक कार्य इसी भांति देवों ने कीये तब रामने पछी तुम बड़े मूढ़ हो सूका बृक्ष सींचा सो कहां और मवे बैलों से हल वाहना करो सो कहा
और शिला ऊपर बीज बोवना मो कहां और जलका विलोवना और बाल का पेलना इत्यादिकार्य तुम कीये सो कौन अर्थ. तब वे दोनों कहते भए तुम भाई के मृतक शरीर को वृथा लीएफिरो हो उसमें का यह वचन सुनकर लक्ष्मण को गाढा उर से लगाय पृथिवीका पति जोगम सो क्रोधकर उन से कहता भया हे कुबुद्धि हो मेरा भाई पुरुषोत्तम उसे अमंगल के शब्द क्यों कहो हो ऐमे शब्द बोलते तुमकोदोष उपजेगा इसभांति कृतांतवक्र के जीव के और के विवाद होय है उसही समय जदाय का जीव मवे मनुप्य का कलेवर लेय रामके आगे आया उसे देख राम बोले मरे को कलेवर काहं को कांधे लिये फिरो हो तब उसने कही तुम प्रवीण होय प्राण रहित लक्ष्मण के शरीर को क्यों लिये फिरो हो पगया अणमात्र भी दोष देखो ही और अपना मेरु प्रमाण दोष नहीं देखो हो, सारिखे की सारिखे से प्रीति होय है सो तुम
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पद्म
परा १०४=
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को मूद्र देख हमारे अधिक प्रीति उपजी है हम वृथा कार्य के करणहारे तिनमें तुम मुख्य हो हम उन्मत्ता की ध्वजा लिये फिरे हैं, सो तुमको अतिउन्मत्तदेख तुम्हारे निकट आए हैं इस भांति उन दोनों मित्रोंके वचन राम मोहरहित भया शास्त्रों के वचन चितार सचेत भए, जैसे सूर्य मेघ पटल से निकस अपनी किरण कर देदीप्यमान भासे तैसे भरतक्षेत्र का पति राम सोई भया भानु सो मोहरूप मेघपटल से निकस ज्ञानरूप किरणोंकर भासता भया, जैसे शरदऋतु में कारी घटा से रहित आकाश निर्मल सोहे तैसे रामका मन शोकरूप कर्दम से रहित निर्मल भासता भया राम समस्त शास्त्रों में प्रवाण अमृत समान जिनवचन चितार खेदरहित भए, घोरता को अबलंबनकर ऐसे सोहे जैसा भगवान्का जन्माभिषेक में सुमेरु सोहं जैसे महा दाहे की शीतल पवन के स्पर्श से रहित कमलों का बन सोहे और फूले तैसे शोकरूप कलुषता रहित राम का चित्त विगसता भया जैसे कोई रात्री के अंधकार में मार्ग भूल गया था और सूर्य के उदय भए मार्ग पाय प्रसन्न हो और महाक्षधाकर पीड़ित मनवांछित भोजन खाय अत्यंत श्रानन्द को प्राप्त होय और जैसे कोई समुद्र के तिरित्रेका अभिलाषी जहाज की पाय हर्षरूप होय, और बनमें मार्ग भूला नगर का मार्ग पाये खुशी होय और तृषा कर पीडित महा सरोवरको पाय सुखी होय, रोग कर पीडित राग हरण औषध hatta नन्द को पावे, और अपने देश गयो चाहे और साथी देख प्रसन्न होय और बंदीगृह से छुटा चाहे और बेड़ी कटे जैसे हर्षित होय तैसे रामचन्द्र प्रतिबोधको पाय प्रसन्न भए प्रफुल्लित भया 'है हृदय कमल जिनका परम कांति को धारते याप को संसार अंधकूप से निक्सा मानते भए मन में
मैं नवा जन्म पाया श्रीराम विचारे हैं अहो डाभकीय णीपर पड़ी योसकी बूंद उससमानचंचल मनुष्य
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२०४६
पद्य का जीतव्य एक क्षणमात्र में नाशको प्राप्त होय है चतुर्गति संसार में भ्रमण करते मेंने अत्यंत कष्ट से पुराण मनुष्य शरीर को पाया सो वृथा खोया कौमके भाई कौनके पुत्र कौनका परिवार कौनका धन कौनकी स्त्री
इस संसार में इस जीवने अनंत संबंधि पाये एक ज्ञान दुर्लभ है इसभांति श्रीराम प्रतिबद्ध भए तब वे दोनों देव अपनी माया दूरकर लोकों को श्राश्चर्य की करणहारी स्वर्गकी विभूति प्रकट दिखावते भए शीतल. मंद सुगंध पवन वाजी और आकाश में देवों के विमान ही विमान होय गए और देवांगनागावती भई वीण वासुरी मृदंगादि वाजते भए वे दोनों देव राम से पूछते भए आप इतने दिवस राज्य कीया सो सुख पाया तब राम कहते भये, राज्य में काहे कासुख जहां अनेक व्याधि हैं जो इसे तज मुनि भयेवे सुखी और में तुमको पूछ हूं तुम महा सौम्यवदन कौन हो और कौन कारण कर मुझसे इतना हित जनाया तब जटायु का जीव कहता भया हे प्रभो में वह गृध्र पक्षी आप मुनो को अाहार दिया वहां म प्रतिबद्ध भया और आप मुझे निकट सखा पुत्र कीन्यांई पाला और लक्ष्मण सीता मुझसे अधिक कृपा करते सीता हरीगई उसदिन मैं रावण से युद्ध कर कंठगति प्राण भयाापनेप्राय मझे पंचनमोकार मन्त्र दिया सो। में तुम्हारे प्रसाद कर चौथे स्पर्धदेव भया स्वर्ग के सुखकर मोहित भया अबतक आपके निकट न आया । अब अवधिज्ञान कर तुमको लमण के शोक कर व्याकुल जान तुम्हारे निकट आया हूंऔर कृतांतवक्र के जीवने काही हे नाथ में कृतांत्वक्र आपका सेनापति था आप मुझे धात पुत्रों से अधिक जाना और
बैराग्य होते मझ श्राप प्राज्ञाकरीची ओ देव होवो तोहमको कभी चिंता उपजे तब चितारियो सो श्रापके | लब्रमण के मरण की चिन्ता जान हम तुमपे आये तब राम दोनों देवों से कटते भये तुम मेरे परममित्र
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पुराण १०५०॥
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हो महा प्रभाव के धारक चौथे स्वर्ग के महाऋधिधारो देव मेर संबोधिवे को आये तुम को यही योग्य श्रेसा कहकर रामने लक्षमण के शोक से रहित होय लक्षमण केशरीर को सरयू नदी के दाहे. दग्ध कीया श्रीराम आत्म भाव के ज्ञाता धर्म की मर्यादा पालने के अर्थ शत्रुघ्न भाईको कहतेभए हे शत्रघ्न में मुनि के व्रतधारसिद्ध पदको प्राप्त हुआ चाहूं हूं तू पृथिवी का राज्य कर तर शत्रुघ्न कहते भये हे देव में भोगों का लोभी नहीं जिसके राग होय सो राज्य करे में तुम्हारे संग जिनराज के व्रत घारूंगा और अभिलाषा नहीं है मनष्यों के शत्रु ये काम भोग मित्र वांघव जीतव्य इनसे कौन तृप्त भया कोई ही तृप्त न भर। इसलिये इन सबों का त्याग ही जीवको कल्याणकारी है। इतिएकसौवोन्नीसवां पर्व सम्पूर्णम् ॥
अथ राम का निर्वाण नामा छठा अधिकार ॥ अथानन्तर श्रीगमचन्द्रने शत्रुघ्न के वैराग्यरूप नचन सुन उसे निश्चयसे राज्यसे पराङ्मुख जान क्षणएक विवारअनंगलवण के पुत्रको राज्य दिया सो पिता तुल्य गुणों की खानकुलकी धुराकाघरणहारा नमस्कार करे हैं समस्तसामंत जिसको सोराज्यविषे तिष्ठा प्रजाकामतिअनुरागहै जिससे महाप्रतापीपृथ्वीविषेधाज्ञा प्रवर्तीवता भया और विभीषण लंकाका राज्य अपने पुत्र सुभूषणको देय वैराग्य को उद्यमी भया और मुग्रीवभी अपना राज्य अंगदको देयकर संसार शरीरभोगसे उदास भया ये सब रामके मित्र राम की लार भवसागर तरवेको उद्यमी भये राजा दशरथ का पुत्र राम भरतचक्रवर्तीकी न्याई राज्यका भार तजताभया कैसाहै गम विष सहित अन्नसमान जाने हैं विषय मुख जिसने और कुलटा स्त्रीसमान जानी है समस्त विभूति जिसने एक कल्यागाका कारण मुनियोंके सेवबे योग्य सुर असुरोंकर पूज्य श्री मुनिसुव्रत ।
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१०५८
नाथका भाषा मार्ग उसे उरमें धारता भया जन्ममरणके भयसे कंपायमान भया है हृदय जिसका ढीले पुराण किये हैं कर्मबंध जिसने धोयडाले हैं रागादिककलंकजिसनेमहावैराग्यरूपहेचित्तजिसकाक्लेशभावसेनिवृत " जैसामेघपटलसे रहित भानु भासे तैसा भासताभया मुनित्रतधारिवेकाहै अभिप्राय जिसके उस समय अरह ।
दास सेठाया तब उसे श्रीराम चतुर्विध संघकी कुशल पूछते भए तब वह कहताभया हे देव तुम्हारे कष्ट कर मुनियों का भी मन अनिष्ट संयोगको प्राप्तभया ये बात करे हैं और खबर आई है कि मुनिव्रतमुव्रत नाथके बंशमें उपजे चार ऋद्धिके धारक स्वामी सुव्रतमहाबतके धारक कामक्रोध के नाशक आये हैं यह बात सुनकर महामानन्द के भरे राम रोमांच होय गयाहै शरीर जिनका फूल गये हैं नेत्रकमल
जिनके अनेक भूचर खेचर नृपों सहित जैसे प्रथम बलभद्रविजय स्वर्णकुम्भ स्वामी के समीप जाय मुनि । भये थे तैसे मुनि होनेको सुव्रतमुनिके निकट गये वे महाश्रेष्ठ गुणोंके धारक हजारां मुनि माने हैं अाज्ञा जिनकी तिनपै जाय प्रदक्षिणादेय हाथ जोड सिर निवाय नमस्कार किया साक्षात मुक्तिके कारण महा मुनि तिनका दर्शनकर अमृतके सागरमें मग्नभये परमश्रद्धाकर मुनिराजसे रामचन्द्रने जिनचंद्रकी दीता धारवेकी बिनती करी हे योगीश्वरोंके इन्द्र मैं भव प्रपंचसे विरक्त भया तुम्हारा शरण ग्रहा चाहूं हूं तुम्हारे प्रप्तादसे योगीश्वरोंके मार्गमें बिहार करूं इस भांति रामने प्रार्थना करी कैसे हैं राम धोये हैं समस्त रागद्वेषादिक कलंक जिन्होंने तब मुनींद्र कहते भए हे नरेंद्र तुम इस बातके योग्यही हो यइसंसार क्यापदार्थह ग्रह तजकरतुमजिनधर्मरूप समुद्रका अवगाहै करो यह मार्ग अनादिसिद्धवाधारहितअविनाशी मुखका देवहाला तुपसे बुद्धिवानही आदरें ऐसामुनिने कहा तब रामसंसारसे विरक्तमह प्रवीणजैसे सूर्य ।
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पद्म
घराण
१९०५२
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सुमेरु की प्रदक्षिणा करें तैसे मुनिन्द्र की प्रदक्षिणा करते भये उपजा हैमहाज्ञान । जनका वराग्यरूपवस्त्र पहिरे बांधी हे कर्मों के नाशको कमर जिन्होंने शारूपपाश तड़ स्नेह का पींजरा दग्घकर स्त्रीरूप बंधनसेबूटोमोह का मान मार हार कुंडल मुकट केयर कटिमेखलादि सर्व ग्राभषण द्वार तत्काल वस्त्र तजे, परम सत्वे विषे लगा है मन जिनका वस्त्राभरण यूं तजे ज्यों शरीर तजिए महासुकुमार अपने कर तिन कर केश लोंच किए पदमासन घर विराजे शील के मंदिर अष्टम बलभद्र समस्त परिग्रह को तेज कर ऐसे सोइते भए जैसा- राहु से रहित सूर्य सोई पंचमहाव्रत आदरे पंचसुमति अंगीकार कर तीन गुप्ति रूप मढ़ में विराजे मनोदंड वचनदंड काय दंड के दूर करणहारे पट कार्य के मित्र, सप्त भय रहित आठ कर्मों के रिपु, नवधा ब्रह्मचर्य के धारक, दश लक्षण धर्म धारक श्रीवत्स लक्षण कर शोभित है उरस्थल जिनका गुणभषण सकलदूषण रहित तत्वज्ञान विषे दृढ़ रामचन्द्र महामुनि भए तब देवों ने पंचाश्चर्य किए सुन्दर दुन्दभी बाजे और दोनों देव कृतांतवक्काजीव एक जटायकाजीव तिन्होंने परम उत्साह किए जब पृथिवी का पति राम पृथिवी को तज निकसा तब भमिगोचरी विद्याधर सब ही राजा याश्चर्य को प्राप्त भये और विचारते भए जो ऐसी विभूति ऐसे रत्न यह प्रताप तज कर रामदेव मुनि भए तो और हमारे कहां परिग्रह जिसके लाभ घर में तिष्ठे व्रत बिना हम एते दिन यहीं खोए ऐसा विचार कर अनेक राजगृह बन्धन से किसे और राग मई पाशी काट द्वेष रूप बैरी को विनाश सर्व परिग्रह का त्याग कर भाई
न मुनि भए और विभीषण सुग्रीव नील नल चन्द्रनख विराधित इत्यादि अनेक राजा मुनि भए विद्याधर सर्व विद्या का त्याग कर ब्रह्मविद्या का प्राप्त भए कयकों को चारणऋद्धि उपजी इस भांति
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पद्म राम के वैराग्य भये सोलह हजार कछु अधिक महीपति मुनिभय । और सत्ताईस हजार राणी श्रीमति पुराण आर्यिका के समीप आर्यिका भइ ॥
अथानन्तर श्रीराम गुरूकी श्राज्ञालेय एकाविहारी भए तजे हैं समस्त विकल्प जिन्हों ने गिरों की गुफा और गिरों के शिखर और विषम बन जिन में दुष्ट जोव विचरें वहां श्रीराम जिनकल्पी होग ध्यान धरते भए अवधिज्ञान उपजा जिस कर परमाणु पर्यंत देखते भए और जगत् के मर्तिक पदार्थ सकल भासे लक्षमणके अनेक भव जाने मोह का सम्बन्ध नहीं इस लिये मन ममत्व को न प्राप्त होता भया अब राम की आयु का व्याख्यान सुनो कौमार काल वर्ष सौ१०० मंडलीक पद वर्ष तीन सौ३०० दिग्विजय वर्ष चालीस ४० और ग्यारह हजार पाँचसे साठ वर्ष ११५६० तीन खंड का राज्य फिर मुनि भर लक्षमण का मग्ण इसही भांति था देवों को दोष नहीं और भाई के मरण के निमित्त से राम के बराम्य का उदय था अवधिज्ञान के प्रताप कर राम ने अपने अनेक भव जाने महा धीर्य को धरे ब्रत शील के पहाड शक्ल लेश्या कर यक्त महा गंभीर गणन के सागर समाधान चित्त मोक्ष लक्ष्मी विषे तत्पर । शुद्धोपयोग के मार्ग में प्रवरते, सो गौतम स्वामी राजा श्रेणिक अादि सकल श्रोताओं से कहे हैं जैसे ।। रामचन्द्र जिनेन्द्र के माम में प्रवर्ते तसे तुम भी प्रवरता अपनी शक्ति प्रमाण महा भक्ति कर जिनशासन । | मैं तत्पर होवों जिन नाम के अक्षर महा रत्नों को पाय कर हो प्राणी हो खोटा आचरण तजो, दुराचार । | महा दुःखका दाताहै खोटे प्रन्थका मोहितह आत्मा जिनका और पाखंड क्रियाकर मलिन है, चित्त ।।
जिनको वे कल्याण के मार्गको तज जन्मक अांधे की न्याई खोटे पंय में प्रवरते हैं कैयक मूर्ख साधुका
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प धर्म नहीं जाने हैं और नानाप्रकारके उपकरण साधुके बतावे हैं और निर्दोष जानग्रहे हैं वे वाचाल हैं, राख । जे कुलिंग कहिये खोटे भेष मूढ़ोंने पाचरें हैं वे वृथा तिनसे मोत्त नहीं जैसे कोई मूर्ख मृतकके भारको
वहे है सो व्या खेद करे है जिनके परिग्रह नहीं और काहूसे याचना नहीं वे ऋषिहैं वेई निर्ग्रन्थ उत्तम गुणेकर मंडित पंडितों कर सेयवे योग्य हैं यह महावली बलदेवके वैराग्यका वर्णन सुन संसारसे विरक्त होवो जिसकर भवताप रूप सूर्यका अाताप न पावो ॥ इति एकसौ बीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं। हे भव्योत्तम श्री रामचन्द्र के अनेक गुणा धरणींद्र | भी अनेकजीभ कर गायबे समर्थ नहीं वे महामुनीश्वर जगतकेत्यागी महाधीर पंचोपवास की है प्रतिज्ञा । जिनके सो ईर्या समति पालते नन्दस्थली नामा नगरी वहां पारणा के अर्थ गये उगते सूर्य समानहे । दीप्ति जिनकी मांनों चालते पहाड़ही हैं महा निर्मल स्फटिकमणि समान शुद्ध हृदय जिनका वे पुरुषो|त्तम मानों मूर्तिवंत धर्मही मानों तीन लोकका आनंद एकत्रहोय रामकी मूर्ति निपजी है महा कांति । के प्रवाहकर पृथ्वी को पवित्र करते मानों आकाश विषे अनेक रंगकर कमलों का वन लगावते नगर में प्रवेश करते भए तिनके रूप को देख नगरके सब लोक चोभको प्राप्त भये लोक परस्पर बतलावें
हैं अहो देखो यह अद्भुतरूप ऐसा प्राकार जगतमें दुर्लभ कभी देखिबे में न आवे यह कोई महापुरुष | महासुन्दर शोभायमान अपूर्व नर दोनों बाहु लुम्बाये श्रावे है धन्य यह धीर्य धन्य यह पराक्रम धन्य
यह रूप धन्य यह कांति धन्य यह दीप्ति धन्य यह शांति धन्य यह निर्ममत्वता यह कोई मनोहर पुराण पुरुषहै ऐसा और नहीं जुड़े प्रमाण धरती देखता जीवदया पालता शांत दृष्टि समाधान चित्त
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पन
जैनका यति चला आवे है ऐसा कौनका भाग्य जिसके घर यह पुण्याधिकारी श्राहार करे कौन के पवित्र करे उसके बड़े भाग्य जिसके घर यह आहार लेय यह इन्द्रसमान रघुकुलका तिलक अनोभ पराक्रमी शीलका पहाड़ गमचन्द्र पुरुषोत्तम है इसके दर्शनकर नेत्र सफलहोय मन निर्मल होय जन्म सफलहोय देही पाये का यह फल जो चारित्र पालिये इसभांति नगरके लोक रामके दर्शन कर श्राश्चर्यको प्राप्त भये नगरमें रमणीक ध्वनि भई श्रीराम नगरमें पैठे और समस्त गली और मार्ग ना पुरुषों के समूह कर भर गया नर नारी नाना प्रकार के भोजन, घरमें जिनके प्रकाश जलकी झारी भरे बारे पेखन करे हैं निर्मल जल दिखावते पवित्र धोवती पहिरे नमस्कार करे हैं । हे स्वामी अन्न सिष्ठ अन्न जल शुद्ध इसभांति के शब्द करे हैं नाही समावे है हृदयमें हर्ष जिनके हे मुनींद्र जयवन्त होवो हे पुण्यके पहार नादो विरदो इन बचनोंकरदशोंदिशा प्ररित भई घरघरमें लोग परस्पर बात करें हैं स्वर्णके भाजनमें दुग्ध दधि घृत ईषरसदाल भात तीर शीघ्रही तयारकर राखो मिश्री मोदक कपूरकर युक्त शीतल जल सुन्दर पूरी शिखिरणी भली भांति विधि से राखो या भांति नर नारियोंके बचनालाप तिनकर समस्त नगर शब्दरूप होय गया महासंभूमके भरे जनअपने बालकोंको न विलोकतंभए मार्ग | में लोक दोडे सो काहूके धके से कोई गिर पडे इसभांति लोकनके कोलाहलकर हाथी खूटा उपाडते भये और गांममें दौडते भए तिनके कपोलों से मद झरिबे कर मार्गमें जलका प्रवाह होयगया हाथियों के भय से घोड़े घास तज तज बन्धन तुडाय तुडोय भाजे और हींसतेभए सो हाथी घोड़ों की घमसाणकर लोक || व्याकुल भए तव दान विषे तत्पर राजा कोलाहल शब्द सुन मन्दिर के ऊपर बाय खडा रहा दूरसे मुनि
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पद्म का रूप देख मोहित भया राजाके मुनिसे राग विशेष परन्तु विवेक नहीं सो अनेक सामन्त दौडाये और |
| आज्ञाकरी स्वामी पधारे हैं सो तुम जाय प्रणामकर बहुत भक्ति बेनतीकर यहां अाहारको ल्यावा सोसामंत [ भी मूर्ख जाय पायनपर पड कहते भए हे प्रभो राजा के घर भोजन करह वहां महा पवित्र सुन्दर भोजनः । हैं पार सामान्य लोकों के घर अाहार विरस आपके लेयचे योग्य नहीं और लोकों को मने किए कि | तुम कहा दे जानों हो यह समवसनकर महामुनि आप को अनाराय जान नगर से पीछे चल सघामब लोग अति ब्याकुल भए वे महाप जिम आज्ञाके प्रतिपालक आचारांग सूत्र प्रमाणहै अाचरण जिनः का आहार के निमित्त नगर में बिहार कर अस्तराय जान मगर से पीछ बनमें गए चिद्रपध्यान विषे मान कायोत्संग घर तिष्ठे थे अतः अद्वितीय सूर्य मन और नेत्रको प्यारा लंगरूप जिनका नगर से किना हार गए तब सत्राही खेद खिन्न भये ॥ इति एकसौ इक्कीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर राम मुनियों में श्रेष्ठ फिरपंचोपवासका प्रत्याख्यान कर यह अवग्रह धारते भये कि बन । विषे कोई श्रावक शुद्ध आहार देय तो लेना नगर में न जाना इस भांति कांतारचर्या की प्रतिज्ञा करी सो एक राजा प्रतिनन्द उसको दुष्ट तुरंग लेय भागा सो लोकोंकी दृष्टिसे दूर गया तब राजाकी पटरानी प्रभवा अति चिन्तातुर शीघगामी तुरंग पर प्रारूढ राजाके पीछे ही सुभटों के समूह कर चली और राजाको तुरंग हर ले गयाथा सो बनके सरोवरों विष कीचमें फंस गया उतनेही में पटराणी जाय पहुंची राजा राणा पैगाया तब राणी राजासे हास्यके वचन कहती भई हे महाराज जो यह अश्व आप को न हरता तो यह नन्दन बन सो बन और मानसरोवरसा सर कैसे देखते, तब राजा ने कही हे राणी,
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"वनयात्रा अब सुफल भई जो तुम्हारा दर्शन भया, इस भांति दम्पती.परस्पर प्रीतिकी बात कर सखीजन | पुरण १०५७। सहित सरोवर के तीर बैटे नाना प्रकार जल क्रोडा कर दोनो भोजन के अर्थ उद्यमी भए उस समय श्रीराम ।
मुनि कांतारचर्या के करणहारे इस तरफ आहार को प्राए यह साधु की क्रिया में प्रवीण तिन कोदेख राजा हर्ष कर रोमांच भया राणी सहित सन्मुख जाय नमस्कार कर ऐसे शब्द कहता भया हे भगवान् । यहां तिष्ठो अन्न जल पवित्र है प्राशुक जल से राजा ने मुनि के पग धोए नवधा भक्ति कर सप्तगण सहितमुनिको महा पवित्र क्षीराहार दिया स्वर्ण के पात्र में लेय कर महा पात्र जे मुनि तिनके कर पात्र में पवित्र अन्न देता भयो निरंतराय अोहार भया तब देव हर्षित होय पंचाश्चर्य करते भए और थाप क्षीण महा ऋद्धि के घारक सोउसदिन रसोई का अन्मठ होय गयो पंचाश्चर्य के नाम, पंच वर्ण रत्नों की वर्षा
और महा सुगंध कल्पवृक्षों के पुष्प की वर्षाशीतल मन्द सुगंध पवन दुन्दुभीनाद जय जय शब्द धन्य यह दान धन्य यह पात्र धन्य यह विधि धन्य यह दाता नीके करी नीके करी नादो विरघौ फूलो फलो इस भांति के शब्द आकाश में देव करते भए अथवा नवधा भक्ति के नाम, मुनि को पड़ गाहनो ऊंचे स्थानक सेखना चरणारविन्द घोवने चरणोदक माथे चढ़ावना पूजा करनी मन शुद्ध बचन शुद्ध काय शुद्ध
आहार शुद्ध यह नवधा भक्ति और श्रद्धा शक्तिनिर्लोभता दयाक्षमा अदेयसापणो नहीं हर्ष संयुक्तयहदाता के सात गुण वह राजा प्रतिनन्दी मुनिदान से देवों कर पूज्य भयाऔरश्रावकके व्रत घारे निर्मलहै सम्यक्त | जिसके पृथिवी में प्रसिद्ध होता भया बहुत महिमा पाई और पञ्चाश्चर्य में नाना प्रकारकेरत्न स्वर्ण की | वर्षा भई सो दशों दिशा में उद्योत भया और पृथिवोका दरिद्रगया, सजा राशी सहित महाविनयवान्भक्ति
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कर नम्रोभूत महा मुनि को विधिपूर्वक निरंतराय आहार देय परम प्रबोध को प्राप्त भया अपना मनुष्य | जन्म सफल जानता भया और राममहामुनि तप के अर्थ एकांत रहें बारह प्रकार तप के करणहारे तप। ऋद्धि कर अद्वितीय पृथिवी में अद्वितीय सूर्य विहार करतेभए ।। इति एकसौवाईसवां पर्व सम्पूर्णम् ॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे श्रेणिक वह अात्माराम महा मनि बलदेव स्वामी शांत किए हैं रागद्वेष जिस ने जो और मनुष्यों से न बनाये ऐसा तप करते भए महा बन में विहार करते पञ्चमहाबत पंच सुमति तीन गुप्ति पालते शास्त्र के वेचा जितेन्द्री जिन धर्म में है अनुराग जिनका स्वाध्याय ध्यान में सावधान अनेक ऋद्धिउपजी परन्तुऋषियों की खबर नहीं महा विरक्त निर्विकार बाईस परीषह के जीतनहारे तिन के तपके प्रवाह से बन के सिंह व्याघ मृगादिक के समूह निकट आय बैठे जीवों का जाति विरोध मिट गया राम का शांतरूप निरख शांतरूप भए श्रीराम महो ब्रती चिदानन्द में हैचित्त जिनका पर वस्तु की बांछा रहित विरक्त कर्म कलंक हरिवे का है यत्न जिनके निर्मल शिला पर तिष्ठते पद्मासन घरे प्रात्म ध्यान में प्रवेश करते भए, जैसे रवि मेश्माला में प्रवेश करे वे प्रभ सुमेरु सारिखे अचल हैचित्त जिनका पवित्र स्थानक में कायोत्सर्ग धरे निज स्वरूप का ध्यान करते भएं कबहुक विहार करे सो ईर्ष्या समतिपालते जूडा प्रमाण पृथिवी निरखते महा शांत जीव दयो प्रतिपाल देव देवांगनादिक कर पूजित भए वेगात्म ज्ञानी जिनप्राज्ञाकपालक जैन के योगी ऐसातप करते भए जो पंचम काल में कहू के चितवन में नावे एक दिन विहार करते कोटि शिला श्राए जो लक्ष्मण ने नमोकार मन्त्र जप कर उठाई थी सो अोप कोटि शिला परध्यान घर तिष्ठे कर्मों के खिवायवे विषे उद्यमी क्षपक श्रेणी चढ्वे का है मन जिनका ॥
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पुरास
१०५६।
अथानन्तर अच्युतस्वर्गका प्रतेन्द्र सीता का जीव स्वयंप्रभ नामाअवघि कर विचारता भया, रामका" और आपका परम स्नेह अपने अनेक भव और जिनशासन का महात्म्य और रामका मुनिहोना और कोटि शिला पर ध्यान धर तिष्ठना फिर मन में विचारी वे मनुष्यों के इन्द्र पृथिवीके आभूषण मनुष्य लोक विषे मेरे पति थे में उनकी स्त्री सीतो थी देखो कर्म की विचित्रता में तो बतके प्रभाव से स्वर्गलोक पाया
और लक्ष्मण गम का भाई प्राण से प्रिय सो परलोक गया, राम अकेले रह गए जगत् के अाश्चर्य के करणहारे दोनों भाई बलभद्र नारायण कर्म के उदय से बिछुरे श्रीराम कमलसारिखे नेत्रजिनके शोभायमान हल मूसलके धारक बलदेव महाबली सो बासुदेव के वियोग से जिनदेवकी दीक्षाअंगीकार करतेभये राज अवस्था में तो शस्त्रोंकर सर्व शत्रुजीते फिर मुनिहोय मन इन्द्रिय जीते अब शुक्लध्यानधारकर कर्म शत्रु को जीताचाहे हैं असा होय जोमेरी देव मायाकर कछुइक इनका मन मोह में आवेवह शुद्धोपयोग सेच्युतहोय शुभोपयोगमें प्राय यहां अच्युतस्वर्ग में श्रावें मेरे इनके महाप्रीति है में और वे मेरुनन्दीश्वरादिककी यात्रा
कर और बाई ससागरपर्यन्त भेले रहें। मित्रतावढ़ावें और दोनों मिल लक्ष्मणकोदेखेंयह विचारकर सीताका || जीव प्रत्येन्द्र जहां राम ध्यानारूढथे वहांबाया इनको ध्यान से च्युत करवे अर्थ देवमायारची, बसन्त ऋतु । वन में प्रकट करी नानाप्रकार के फूल फूले और सुगन्ध वायुवाजने लगी, पक्षी मनोहर शब्द करने लगे
और भ्रमर गुन्जार करे हैं कोयल बोले हैं मैंना, सूवा, नाना प्रकार की ध्वनि कर रहे हैं अांव मौर आये भ्रमरोंकर मण्डितसोहे हैं कामके बाणजे पुष्प तिनकी सुगन्धताफैल रहीहै और कर्णकार जातिकबृक्ष फले । । हे तिन कर वन पीत होरहाहै सो मानों वसन्तरूपराजा पीतम्बरकर क्रीडा कररहाहै और मौलश्री की वर्षा
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पद्म
पुराण
१०६०
I
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रही है ऐसी बसंत की लीला कर आप वहप्रवेन्द्र जानकीका रूपधर राम के समीप आया. वहम नौहर जहां और कोई जननहीं और नाना प्रकारके वृक्षसवऋतुके फूल रहे हैं. उस समय राम के समीप सीता सुन्दरी कहती भई हे नाथ पृथिवी में भ्रमण करते कोई पुण्य के योग से तुम को देखे वियोगरूप लहर का भराजो स्नेहरूप समुद्र उसविषे मैं डूबहूं सो मुझे थांभो अनेकप्रकारराग के वचनकहे परन्तुमुनिधकंप सो वह सोता का जीवमोह के उदय से कभी दाहिने कभी बाई भ्रमे कामरूप ज्वरके योगसे कंपित शरीरचौरमहा सुन्दर र है रजिसके इस भांति कहती भई हे देव में बिना बिचारे तुम्हारी आज्ञा विना दीक्षा लीना मुझे विद्याधरीयोंने बहकाया अब मेरा मन तुम में है इस दीक्षाकरपूर्णता होवे परन्तु यह दीक्षा श्रत्यन्तवृद्धों का योग्य है कहां यह यौवनावस्था और कहांयह दुर्द्धर व्रत महाकोमल फूल दावानल की ज्वाला कैसे सहार सके और हजारों विद्याघरों की कन्या और भी तुम को बरा चाहे हैं मुझे आगे घरल्याई हैं कहे हैं तुम्हारे आश्रय हम बलदेव को वरें यह कहे हैं और हजारों दिव्य कन्या नानाप्रकार के आभूषण पहरे राजहंसनी समान है चाल जिनकी सो प्रत्येन्द्र की विक्रीया कर मुनीन्द्र के समीप आई कोयल से भी अधिक मधुर बोलें ऐसी सोहें मानो साक्षात लक्ष्मीही हैं मनको आल्हाद उपजावें कानोंको अमृत समान ऐसे दिव्य गीत गावती भई और बीण बांसुरी मृदंग बजावती भई भ्रमर सारिखे श्याम केश बिजुरी समान चमत्कार महासुकुमार पातरी कटि कठोर अति उन्नत हैं कुच जिन के सुन्दर श्रृंगार करे नाना वर्ण के वस्त्र पहिरे, हाव भाव विलास विभ्रम को धरती मुलकती अपनी कांति कर व्याप्त किया है या काश जिन्होंने मुनिके चौगिर्द बैठी प्रार्थना करती भई हे देव हमारी रक्षा करो और कोई एक पूछती भई
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परीण
-
पद्म । हे देव यह कौन बनस्पति है और कोई एक माधवी लता के पुष्प के ग्रहण के मिस बाहूं ऊंची करती १०६१॥ अपना अंग दिखावतीभई, और कोईएक भेलीहोय कर ताली देती रासमंडल रचती भई, पल्लवसमान है
कर जिनके और कोई परस्पर जल केलि करती भई इस प्रकार नाना भान्तिको क्रीडा कर मुनों के मन डिगायवे का उद्यम करती भई, सो हे श्रेणिक जैसे पवन कर सुमेरु न डिगे तैमे श्रीरामचन्द्रमुनि को मन न डिगा अात्म स्वरूप के अनुभवी रामदेव सरल है दृष्टि जिनकी विशुद्ध हैआत्मा जिनका परीषह रूप वज्रपात से न डिगे क्षपक श्रेणी चढ़े शुक्लध्यान के प्रथम पाए विषे प्रवेश किया, रामचन्द्र का भाव अात्मा में लग अत्यन्त निर्मल भया सो उनका जोर न पहुंचा मूढजन अनेक उपाय करें परन्तु ज्ञानी पुरुषों का चित्त न चले, वे आत्म स्वरूप में ऐसे दृढ़ भए जो किसी प्रकार नचिगे प्रतेन्द्रदेव ने माया कर . राम का ध्यान डिगायवे को अनेक यत्न किए परन्तु कछुही उपाय न चला, वे भगवान् पुरुषोत्तम अनादि काल के कर्मोको वर्गणा दग्य करिवेको उद्यमीभए पहिलेपाएके प्रसादसेमोहकानाशकर बारह में गुणस्थान चढ़े वहां शुक्लन्यान के दूजे पाए के प्रशाद से ज्ञानावर्ण अन्तराय का अन्तकिया, माघ शुक्ल द्वादशोकी पिछली रात्रि केवलज्ञान को प्राप्त भदे केवल ज्ञानविषे सर्व द्रव्य समस्तपर्याय प्रति. भामे ज्ञान, रूप दर्पन में लोकालोक सब भासे ता इन्द्रादिक देवों के आसन कंपायमान भए अवधि ज्ञान कर। भगवान राम को केवल उपजा जान कर कंवल कल्याणक की पूजा को आए, महाविभूति संयुक्त देवों
कर समूह सहित बड़े श्रद्धावान सब ही इन्द्र पाए घातिया कर्म के नाशक अहंत परष्ठी तिनको चारण | मुनि और चतुरनिकाय के देव सब ही प्रणाम करतेभए वे भगवान छत्र चमर सिंहासन आदिकर शोभित ।
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पद्म पुराव
१०६२
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त्रैलोक्य कर बन्दिवे योग्य संयोगकेवली तिनकी गंधकुटी देव रचते भए दिव्यध्वनि खिरती भई सव ही श्रवण करतेभए और बारम्बार स्तुति करते भए सीता का जीव स्वयंप्रभ नामा प्रतेन्द्र केवली की पूजा कर तीनप्रदक्षिणा देय बारम्बार क्षमा करायता भया, हे भगवान में दुर्बुद्धिने जो दोष किए सोक्षमा करो, गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वे भगवान बलदेव अनंत लक्ष्मी कांति कर संयुक्त आनन्द मर्त्ति केवली तिनकी इन्द्रादिक देव महाहर्ष के भरे अनादि रीति प्रमाण पजा स्तुति कर विहार की विनती करते भए, तब केवली ने विहार किया सो देव भी लार विहार करते भए । ॥ इति एक सौतेइसव पर्व सम्पूर्णम् ॥ अथानन्तर सीता का जीव तेंद्र लक्ष्मण के अनेक गुण चितार लक्ष्मण का जीव जहां था वहां जायकर उसको सम्यकज्ञान का ग्रहण करावता और खरदूषण का पुत्र शंबूक असुरकुमार जातिका देव भया था सो ये तीजे नरकतक नारकीयों को बाधा करावे हिंसानंद रौद्रध्यान विषे तत्परपापीनार की य को परस्पर लड़ावें, पाप के उदयकरजीव अधोगति जावे सो तीजे लगतो असुरकुमारभी लड़ाव हैं आगे
सुर कुमार नजय नारकी परस्पर ही लड़ें हैं जहां कईयकों को अग्निकुण्ड विषेडारे हैं सो पुकारे हैं कैयकों को कांटा कर युक्त जो शाल्मलीवृक्ष तिनपर चढाय घसीटे हैं कैयकों को लोहमईमुद्गर और मूसलोंकर कूटे हैं और जे मासाहारी पापी तिनको उन्ही का मांस काट काट खुवावे हैं और प्रज्वलित ताम्बे के लोहे का गोला तिनके मुखमें मार मार देवे हैं और कैयक मारके मारे भूमि में लोटे हैं और मायामई श्वान मार्जार सिंह व्याघ्र दुष्ट पक्षी भषे हैं, वहां तिर्यंच नहीं नरक की विक्रिया हैं कई यकों को सूली चढ़ावें हैं वज्र अग्नि के मुद्गरों कर मारे हैं कईयकों को कुम्भीपाक में डारे हैं कई यकों को ताता तांबा
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पुराण
... गाल गाल कर प्यावे हैं । और कहे हैं यह मदिरा पीने के फल हैं कैयकों को काठ में बांधकर करौंतों ।
से चीरे हैं और कैयकों को कुठारों से काटे हैं कैयकों को पानी में पेले हैं कैयकों की अांख काढे हैं कैयकों की जीभ काढे हैं वह कर कैयकों के दांत तोड़े हैं इत्यादि नारकीयों को अनेक दुःख हैं सो अवधिज्ञानकर प्रतेन्द्रनारकीयों की पीड़ा देख शंक के समझायवे को तीजी भूमि गया सो असुर कुमार जातिके देव क्रीडा करते थेवे तो इनके तेज से डर गये और शम्बू को प्रतेन्द्र कहते भए अरे पापी निर्दई तैने यह क्या प्रारंभाजो जीवों को दुःख देवे है हे नीचदेव कर कर्म तज, क्षमा पकड़ यह अनर्थ के कारण कर्म तिनकर कहां और यह नरक के दुःख सुनकर भय उपजे है त प्रतक्षनारकियों को पीड़ा करे है करावे है सो तुझे त्रास नहीं यह वचन प्रत्येन्द्र के सुन शंबक प्रशांत भया, दूसरे नारकी तेज न सह सके रोचते भए और भागते भए तब प्रत्येन्द्र ने कही होनारकी हो मुझसे मत डरो जिन पापों कर नरक में आये हो तिनसे डरो, जब इसभांति प्रत्येन्द्र ने कही तबउनमें कैयक मनमें विचारते भए जो हमहिंसा मृषावाद परधन हरण परनारीरमण बहु प्रारंभ बहु परिग्रह में प्रवर्ते रौद्र ध्यानी भए उसका यह फल है भोगों में प्रासक्त भए क्रोधादिक की तीव्रता भई खोटे कर्म कीये उससे ऐसा दुःख पाया- देखो यह स्वर्गलोक के देव पुण्यके उदयसे नानाप्रकार के विलास करे हैं रमणीक विमान चढे जहां इच्छा होय वहांही जांय इसभांति नारको विचारते भए और शंबूककाजीव जो असुरकुमार उसको ज्ञानउपजा फिर रावण के जीरने प्रतेन्द्रसे
पूछा तुम कौन हो तब उसने सकलवृतांत कहा मैं सीता का जीव तपकप्रभाव कर सोलमें स्वर्ग में प्रत्येन्द्र | भया, औरश्रीरामचन्द्र महामुनींद्रहोयज्ञानावर्ण दर्शनावर्ण मोहिनी अंतरायनी का नाशकर केवली भए सो
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पुराण
पद्य धर्मोपदेश देते जगत् को तारते भरतक्षेत्रमें तिष्ठे हैं नाम गोत्र वेदनी आयुका अंतकर परमधाम पधारेंगे और
तू विषय वासना कर विषम भूमि में पड़ा अबभीचेत ज्यू कृतार्थ होय, तब रावण का जोव प्रतिबोध को प्राप्त भया अपने स्वरूपका ज्ञान उपजा अशुभकर्म बुरे जाने मन में विचारता भया में मनुष्यभव पाय अणुबत महावत नपाराधे तिससे इस अवस्था को प्राप्त भया हाय हाय में व्याकिया जो श्रापको दु.ख समुद्र में डारा यह मोहका महात्म्य है जो जीव आत्महित न करसकें रावण प्रतेन्द्रको कहे हैं हे देव तुम धन्य । हो विषय की वासना तजी जिनवचनरूप अमृत को पीकर देवों के नाथ भए तर प्रत्येन्द्रने दयालु होयकर। कही तुम भय मत करो चलो हमारे स्थान को चलो ऐसा कह इसके उअब को उद्यमीभया तब रावण के जीवके शरीर की परमाणु विखर गई जैसे अग्नि कर माखन पिगलजाय काहू उपायकर इसे लेजायचे समर्थ न भया जैसे दर्पण में तिष्ठती छाया नग्रही जाय तब रावण का जीव कहता भया हे प्रभो तुम दयाल हो सो तुमको दया उपजेही परन्तु इनजीवोंनेपूर्वेजे कर्म उपार्जे हैं सिनका फल अवश्य भोगे हैं विषय रूप मांस का लोभी दुर्गति का आयु वांधे है सो आयु पर्यंत दुःख भोगवे है यह जीव कर्मों के प्राधीन इसका देव क्या करें हमने अज्ञान के योग से अशुभ कर्म उपार्जे हैं इनका फल अवश्य भोगबेंगे आप छुड़ायवे समर्थ नहीं तिससे कृपा कर वह उपदेश कहो जिसकर फिर दुर्गति के दुःख न पावें, हे दयानिधे । तुम परम उपकारी हो, तब देवने कही परमकल्याण का मूल सम्यकज्ञान है सो जिनशासन का रहस्य है । अविवेकियों को अगम्य है तीनलोक में प्रसिद्ध है अात्मा अमूर्तीक सिद्ध समान उसे समस्त परद्रव्यों। से जुदा जाने जिन धर्म का निश्चय करे यह सम्यकदर्शन कर्मों का नाशक शुद्ध पवित्र परमार्थ का मूल
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। जीमों ने न पाया इसलिये अनन्त भव आहे यह सम्यग्दर्शन अभव्यों को अप्राप्य है और कल्पलल्प है। पुराण। जगत् में दुर्लभ है सकल में श्रेष्ठ है सो जोतू प्रात्मकल्याण चाहे है तो उसे अंगीकारकर जिसकर मोच
पाये उससे श्रेष्ठ और नहीं न हुवा न होयगा इसीकर सिद्ध भए हैं और होयगे जे अरहंत भगवान ने | जीवादिक नव पदार्थ भाखे हैं तिनकी हदश्रद्धा करनी उसे सम्यग्दर्शन कहिये इत्यादि बचनों कर रावण के जीव को सुरेन्द्र ने सम्यक् ग्रहण कराया और इसकी दशा देख विचारता भया जो देसो रावण के भव में इसकी कहां कांति थी महासुन्दर लावण्य रूप शरीर था सो अब ऐसा होयगया जैसा नवीन बन अग्नि कर दग्ध होयजाय जिसे देख सकल लोक याश्चर्य को प्राप्त होते सो ज्योति कहां गई, फिर
उसे कहता भया कर्मभूमि में तुमः मनुष्य भए थे सो इन्द्रियों के छुद्र सुख के कारण दुराचार कर ऐसे । दुःख रूप समुद्र में हो । इत्यादि प्रत्येन्द्र ने उपदेश के वचन कडे, तिन को सुन कर उसके सम्यक् दर्शन दृढ़ भया और मन में विचारता भया कर्मों के उदय कर दुर्गति के दुःख प्राप्त भए तिनको भोग यहाँ से छूट मनुष्य देह पाय जिनराज का शरण गहूंगा. प्रत्येन्द्र से कही अहो देव तुम मेरा बड़ा हित किया जो संम्यकुदर्शन में मुझे लगाया, हे प्रत्येन्द्र महाभारय अब तुम जावो, वहां अच्युतस्वर्ग मैं धर्म के फल से सुख भोग मनुष्य होय शिवपुर को प्राप्त होवो, सब ऐसा कहा तब प्रत्येन्द्र उसे समाधान रूप कर कर्मों के उदय को सोचते संते सम्यक दृष्टि वहां से उपर माया संसार । की माया से शंकित है अात्मा जिसका अर्हत सिद्ध साघु जिन धर्म के शरण विषे तत्पर है मन जिसे का तीन के पंच मेरु की प्रदक्षिणा कर चैत्यालयों का दशन कर नारकीयों
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पुरा
पक्ष के दुख से कंपायमान हैचिस जिसका स्वर्ग लोक में भी भोगाभिलाषी नभयाः मानों नास्कीयों की
पनि सुने है, सोलमें स्वर्ग के देव को छठे नरक लग अवधिज्ञान कर दी है. तीखे तस्कके विषे सबष के जीवको और संवक काजीवजो असुरकुमारदेव था उसे संबोषिसम्यक्रमाप्तकिया इश्रेणिक उत्तम जीयों से पर उपकार ही ने फिर स्वर्ग लोक से भस्तक्षेत्र में श्रीराम के दर्शन को आए पवन से भी शीघ्र गामी जो विमान उस में प्रारुट अनेकदेवों को संग लिये नाना प्रकारके क्स पहिो हार.माला मुकला. दिक कर मंडित शक्ति गदा साधन भी शवन्नी इत्यादि अनेक आयुधों को घरे गज सुरंग सिंह, इत्यादि अनेक वाहनों पर चढ़े मृदंग बांसुरी बीण इत्यादि अनेक वादिनों के शम्द-तिन कर वशों दिशा पूर्ण करते केवली के निकट माए देवों के बाहन गज तुरंग सिंहादिक नियंच नहीं देवों की विक्रिया है श्रीराम को हाय जीड सीस निवाय बारंबार प्रणाम कर सीता का जीव प्रत्येंद्र स्तुति करता भया । हे संसारसागर के तारक तुमने ध्यानरूप पबन कर ज्ञानरूप अग्नि दीप्त करी, संसार सपाक्त भाम किया
और शुद्ध लेश्या रूप: त्रिशूल कर मोहरिपु-हता, वैराग्यरूप बन कर दृढ़ स्नेहरूप प्रिजरा मण किया। हैं नाथ हे मुनीन्द्र हे भवसूदनसंसारख्य धन से जे डरे हैं दिनको सुम शाण हो इसर्वज्ञ सन कृत्य जास गुरुपाया है पायवे योग्य पद जिन्होंने हे प्रभो मेरी रक्षा को संसार के भ्रमण से प्रतिव्याकुल है बत्त । मेरा तुम अनादि निधन जिनशासम का रहस्य जान प्रवल तप कर संसार सागर से पार भए, हे । देवाधिदेव यह तुम को कहां युक्त जो मुझे भवन में तज आप अकेले विमल पद को प्रधारे, तब भमनाम् कहते भए हे प्रत्येन्द्र तू राग तजजे वैराग्य में तत्पर हैं तिन ही को मुक्ति है । रागी जीवा संसार में।
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पद्म
1(०६॥
डूबे है जैसे कोई शिला को कंठ में बांध भुजावों कर नदी को नहीं तिर सके तैसे रागादिक भार कर" पुतण | चतुति रूपं नदी न तिरी जाय, जे ज्ञान वैराग्य शील संतोष के धारक हैं वेई संसार सागर को तिरे है
जे श्रीगुरु के वचन कर आत्मानुभव के मार्ग लगे वेई भव भ्रमण से छूटें और उपाय नहीं काहू काभी लेजाया कोई लोकशिखर न जाय एक बीतराग भाव ही से जाय इसभांति श्रीराम भगवान सीता के जीव को कहते भए, सोयह वार्ता गौतमस्वामीने श्रेणिकसे कही फिर कहतेभए हेनृप सीताके जीव प्रत्येक ने जो केवलीसे पूछी औरउसन कहासो तू सुन, प्रतेंद्र ने पूछी हेनाथ दशरथादिक कहांगए और लववेकश कहां जावेंगे तब भगवान् ने कही दशरथ कौशल्या सुमित्रा केकई सुप्रभा और जनक और जनक का भाई कनक यह सब तपके प्रभाव कर तेरहमें दवलोक गए हैं यह सब ही समान ऋद्धि के धारी येक हैं
और लवअंकुश महाभाग्य कर्म रूप रजसे रहित होय बिमल पद को इसही जन्म से पावेंगे, इसमांति केवली की ध्वनि सुन भामंडल की गति पूछी, हे प्रभो भामंडल कहां गया, तब श्राप कहते भए हे प्रत्येन्द्र तेग: भाई राणी सुन्दरमालिनी सहित मुनिदान के प्रभाव कर देवकुरू भोगभूमि में तीन पल्य की आयु के भक्ता भोगभूमिया भए तिन के दान की वार्ता सुन अयोध्या में एक बहु कोट धनकाधनी सब कुलपति उसके मकरा नामात्री जिसके पुत्र राजापों के तुल्य पराक्रमी सो कुलपति | नेमुनी सीता को बनमें निकासी तब उसने विचारीवह महायशावती शीलवती सुकुमार अंग निर्जनन
में कैसे अकेली रहेगी धिक्कार है संसारकी चेष्टा को, यह विचार दयालुचित्त होय युतिभहारक के समीप || मुनि भया और उसके दोय पुत्र एक अशोकर्जा तिलक यह दोनों मुनिभए सो युतिभट्टारकतो समाधि |
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२०६८
मरणकर नवमवेयक में अहिमिन्द भएं और यह पिता पुत्र तीनों मुनिताम्रचूडनामा नगर वहां केवली की वंदनाको गए सामार्ग में पचास योजनकी एक श्रखीवहां चतुर्मासिक पायपड़ा तबएकबृचकेतले तीनों साधु विराजे मानों साक्षात् स्नत्रय ही हैं वहां भामण्डल आय निकसा अयोध्या प्राने था सो विषम ! बन में मुनों को देख विचार किया, यह महा पुरुष जिन सूत्र की प्रान्ना प्रमाण निर्जन बन में विराजे चौमासे मुनियों का गमन नहीं अब यह आहार कैसे करें तब विद्या की प्रवल शक्ति कर निकट एक नगर बसाया जहां सब सामग्री पूर्ण बाहिर नानाप्रकार के उपवन सरोवर और धान के छेत्र और नगर के भीतर बड़ी वस्ती महासंपत्ति, चार महीना आपभी परिवार सहित उसनगर में रहा और मुनियों के वैयावत किये, वह बन ऐसा था जिस में जल नहीं सो अद्भुत नगर बसाया, जहां अन्नजल की बाहुल्यता सो. नगर में मुनों का आहारंभया और और भी दुखित भुखित जीवों को भान्ति भान्ति के दान दीए, और सुन्दरमालिनी राणी सहित श्राप मुनों को अनेकवार निरंतराय चाहोर दीया, चतुर्मास पूर्ण भए मुनि विहार करते भए और भामंडल अयोध्या आय फिर अपने स्थानक गया एक दिन सुन्दरमालिनी राणी सहित सुखसेशयन करे था सो महल पर विजुरी पड़ी राजा राणी दोनों मरकर मुनिदानके प्रभाव से सुमेरु पर्वत की दाहिनी ओर देवकुरू भोग भूमि वहां तीन पल्यके आयु के भोक्ता युगल उपजे, सो दानके प्रभाव से सुख भोगवे हे जे सम्यक्त रहित हैं और दान करे हैं सो सुपात्र दानके प्रभाव से उत्तमगति के सुखपावे हैं सो यह पात्रदान महासुख का दाता है यह बात सुन फिर प्रत्येन्द्र ने पूछी हे नाथ रावण तीजी भूमि से || निकस कहां उपजेगा और में स्वर्ग से चयकर कहां उपजंगा मेरे और लक्ष्मण के और रावण के केते ।
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पद्म भव बाकी हैं सो कहो, तब सर्वदेव ने कही हे प्रतेन्द्र सुन वे दोनों विजयावती नगरी में सुनंदनामा कुटम्बी
सम्यक दृष्टि उसके रोहिणी नामा भार्या उसके गर्स में अरहदास ऋषिदासनाम पुत्र होवेगे महागुणवान् । निर्मल चित्त दोनों भाई उत्तम क्रिया के पालकश्रावक के व्रत आराध समाघि मरण कर जिनराज का
ध्यान घर स्वर्ग में देव होंयगे वहां सागरांपर्यंत सुख भोग स्वर्ग से चयकर फिर उसही नगरी में बड़ेकुल । में उपजेंगे सो मुनों को दान देकर हरिक्षेत्र जो मध्यम भोग भूमि वहां युगलीया होय दोय पल्यका
पायुभोग स्वर्ग जावेंगे फिर उसही नगरी में राजा कुमारकीर्ती राणी लक्षमी तिन के महायोधा जय का
न्त जयप्रभ नामा पुत्र होयगे फिर तपकर सातमें स्वर्ग उत्कृष्ट देव होयगे देवलोक के महा सुख भोगेंगे। । ओर तू सोलवां अच्युत स्वर्गवहां से चयकर इसभरतक्षेत्र में रत्न स्थलपुर नामा नगर वहां चौघे रत्नका । स्वामी पट खंड पृथिवी का धनी चक्रनामा चक्रवर्ती होयगा तब वे सातवेंस्वर्गसे चयकर तेरे पुत्र होंयगे।
रावण के जीव का नाम तो इन्द्ररय और वसुदेव के जीव का नाम मेघस्थ दोनों महाधर्मातमाहोयेंगे परस्पर उनमें अतिस्नेह होयगा और तेग उनसे अति स्नेह होयगा जिस रावणने नोतिसे तीन खंड पृथिवी का अखंड राज्य काया और ये प्रतिज्ञा जन्म पर्यंत निवाही जो परस्त्री मुझेन इच्छे ताहि में नसेउं सो रावण का जीव इन्द्ररथ धर्मात्मा कैयकश्रेष्ठ भव घारतीर्थंकर देव होयगा, तीनलोक उसको पजेंगे और तू, चक्रवर्तीराज्यपदतज मुनि ब्रतधारी पंचोत्तरो में वैजयंतनामा विमान वहांतप के प्रभावसेअहिमिन्द्रहोयगा वहां से चयकर रोवण का जीवतीर्थकर उसके प्रथम गणघर होय निर्वाण पद पावेगा, यह कथा श्रीभगवान राम केवली तिनके मुख प्रतीन्द्र सुनकर प्रतिहर्षित भया फिर सर्वज्ञ देवने प.ही हे प्रतेन्द तेरा चक्रवर्ती ।
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पद्म पुरा ग
१०७०
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पदका दूजा पुत्र मेवाथ सो कैवक महाउत्तम भव घर धर्मात्मा पुष्करद्वीप के महादेविह क्षेत्र में शतपत्र नामा नगरवहां पंचकल्याणक का धारक तोर्थकर देव चक्रवर्ती पद को घरे होयगा, संसारका त्यागकर केवल उपाय अनेकों को तारेगा और आप परमधाम पघारेगा, ये वासुदेव के भव तुझे कहे और में अब सात वर्ष में आयु पूर्ण कर लोक शिखर जाऊंगा जहां से फिर भव नहीं, और जहां अनंत तीर्थंकर गये और जायेंगे अनंत केवल वहां पहुंचे जहां ऋषभादि भरतादि विराजे हैं अविनाशीपुर त्रैलोक्य के शिखर है, जहां अनंतसिद्ध हैं वहां हा मैं तिलूंगा ये वचन सुन प्रत्येंद्र पदमनाम जे श्रीरामचन्द्र सर्वज्ञ वीतराग तिनको बार बार नमस्कार करता भया और मध्यलोक के सर्वतीर्थवंदे भगवान के कृत्रिम कृत्रिम चैत्यालय, और निर्वाणक्षेत्र वहां सर्वत्र पूजा कर और नंदीश्वरद्वीप विषेयंजनगिरि दधि मुख रतिकर वहां बड़े विधान से • अटानिका की पूजा करी देवाधिदेव जे अरहत सिद्ध तिनकाध्यान करता भया, और केवली के वचन सुन पैसा निश्चय भया जो मैं केवलो होय चुका अल्प भव हैं और भाई के स्नेह से भोग भूमि में जहां भामंडल का जीव है वहां जाय उसे देखा और उसको कल्याण का उपदेश दीया और फिर अपना स्थान सोलवां स्वर्ग वहां गया जिसके हजारोंदेवारानो तिनसहित मानसिक भोग भोगतोभया श्री रामचन्द्र का सतरह हजार वर्ष की आयु सोलह धनुष की ऊंची काया कैयक जन्म के पापों से रहित होय सिद्ध भये व प्रभु भव्यजीवों को कल्याण करो जन्म जरा मरण महारिपु जीते परमात्मा भये जिनशासन में प्रकट है महिमा जिनकी जन्मजरा मरणका विछेदकर अखंड अविनाशी परम अतीन्द्रिय सुख पाया सुर असुर मुनिवर तिनंके जे अधिपति तिनकर सेय व योग्य नमस्कार करवे योग्य दोषों के विनाशक पच्चास वर्षं तपकर
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पन मुनित्रत पाल केवलीभये सो आय पर्यंत केवल दशा में भव्यों को धर्मोपदेश देय तीन भाकनका शिखर ।१०७१ जो सिद्ध पद बहां सिघारे, सिद्धपद सकल जीवोंकातिलक है रामसिद्धभये तुम रामकोसीसनिवायनमस्कार
| करो रामसुरनर मुनियों कराराधिषे योग्य हैं शुद्धहें भाव जिनके संसार के कारण जे रागदेपमोहादिक | तिनसे रहित हैं परमसमाधि के कारण हैं और महामनोहर हैं प्रतापकर जीता है नरुण मूर्य कालेज
जिन्होंने और उन जैसीशरदकी पूर्णमासीकेचंद्रमा में कांति नहीं सर्व उपमारहित अनुपम वस्तु हें और रूप | जो प्रात्मरूप उस में प्रारुढ हैं श्रेष्ठ हैं चरित्रजिनके श्रीराम यतीश्वरोंके ईश्वरदेवों के अधिपति प्रोद्रकी
माया से मोहिते न भये जीवों के हितु परम ऋद्धिकर युक्त भष्टम बलदेव पवित्र शरीर सोभायमान अमंस बीर्थ के धारी अतुल महिमा कर मंडित निर्विकार अगरहदोष कर रहित अष्टादशसहस्र शील के भेद तिनकर पूर्व प्रतिदार अति मंभीर ज्ञान के दीपक तीनखोक में प्रकट है प्रकाश जिनका अष्टकर्मफेदापकरणारे गणीसागर लोभ रहित सुमेरुसे प्रचलधर्मके मलकपायस्परिपुके नाशक समस्तविकल्परहित महानिर्दछ जिनशासमकारस्पपाय अंतरात्मा से परमात्माभये उन्होंने ग्रेखोक्यपज्य परमेश्वरपद पायातिनकोसुम पोपोर मरे हैं कर्मरूपमल जिन्होंने, केवलज्ञान केवल दर्शनमई योमीश्वरोंके नाथ सर्वदुःखकं वर करणहारे । मन्मथ नहारे तिनको प्रेखाम करो, यह श्रीवलदेव का चरित्र महामनोग्पजो भाषभर निरंसरबांचे सुने पढे पढाये शका रहित होय महाहर्षका भरा रामकी कथा का अभ्यास करे तिसके पुण्य की वृद्धि होय 'बीर पैरी खड्ग हाय मैलिये मारित्र को आया होय सो शांत होय जाय, इसग्रंथ के श्रवणसे-धर्म ।
अभी इधर्म को सहे यस का अर्थी यस को पावे राज्यबा और सज्य कामनाहोय तोराज्य
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| पावे इसमें संदेह नहीं इष्ट संयोग का अर्थी इष्टसंयोग लहै धनकाअस्थी धन पावे, जीत का प्रारथी जीत १०७२
पावे सी का परथी सुन्दर स्त्री पावे लाभकाअस्थी लामपावेसुखकायस्थीसुखेपा और काहूकाकाई वल्लभ विदेशया होय और उसके प्रायवे की प्राकुलताहीय सोवहसु स्वसे घरमावे जोमनविषेअभिलाषाहोय सोही सिद्धहोय सर्वन्याकिं शांत होय ग्राम के नगर के देवों के देव जलके देव प्रसन्न होय और नवग्रहों की पापा न होय,कर प्रहसोम्य होय जाय और जे पाप चितवन में नावे विलाय जाय भोर सकल अकल्याणरोम कथा कर क्षय होजाय और जितने मनोरथ हें वे सब राम कथाके प्रसादसे पाबें भोरवीतराग भाव हट होय उसकरहजारांभव के उपार्जे पापोंको प्रणी दूर करे कष्टरूप समुद्र को तिरसिद्धपद शीघ्र ही पाने यहन्धमहापवित्र हे जीवको समाधि उपजावने का कारण है नाना जन्म में जीवने पाप उपार्जेमहालेरा के कारण तिनका नाशक है और माना प्रकार के व्याख्यानतिनकर संयुक्त है जिसमें बड़े बड़े पुरुषों की कथा भव्यजीवरूप कमलों को प्रफुल्लित करणहारा है सकल लोककर नमस्कार करिने योग्य श्रीवर्षमान भगवान उन्होंने गौतमसेकहा औरगौतमने श्रेणिकसे कहा इसही भान्ति केवली श्रुतकेवलीकहते भए, रामचन्द्र का चरित्र साघुवों को समाधि की वृद्धिका कारण सर्वोत्तम महामंगलरूप सो मुनोकी परिपाटी कर प्रकटहोता भया सुन्दर हे वचन जिसमें समीचीन अर्थ को घरें प्रति अद्भुत इन्द्रगुरु नामा मुनि तिन के शिष्य | दिवाकरसेन तिनकेशिष्य लक्ष्मणसेन तिनकेशिष्य रविषेण तिन जिनाना अनुसार कहा, यह रामका पुराण सम्यग्दर्शन की सिद्धि का कारण महाकल्याण का कर्ता निर्मलज्ञानका दायक विचक्षणजीवों को निरंतस्सुनिबे योग्य है अतुलपराक्रमी अद्भुत पाचरण के धारक महासुकृतीजे दशरथके नंदन तिनकी महि
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एसस
माकहांलग कहूं इस ग्रन्थ में बलभद्र नारायण प्रतिनारायण तिनका विस्ताररूप चरित्र है जो इस में वद्धि लगावे तो अकल्याणरूप पोपों को तजकर शिव कहिये मुक्ति उसे अपनी करे जीव विषय की बांछाकर अकल्याण को प्राप्त होय हैं । विषियाभिलाष कदाचित् शांति के अर्थ नहीं, देखो विद्याधरों का अधिपति रावण पर स्त्री की अभिलाषाकर कष्ट को प्राप्त भया काम के रागकरहतो गया ऐसे पुरुषों की यह दशा है तो
और प्राणी विषय वासनाकर कैसे सुख पावें, रावण हजारां स्त्रियों कर मंडित निरंतर सुख सेवे था तृप्त न भया परदारा की कामनाकर विनाश को प्राप्त भया इन व्यसनों कर जीव कैसे सुखी होय जो पापी परदारा का सेवन करें सो कष्ट के सागर में पड़ें और श्रीरामचन्द्र महा शोलवान् परदारा पराङ्मुख जिनशासन के भक्त धर्मानुरागी बे बहुतकाल राज्य कर संसार को असार जान वीतराग के मार्ग में प्रवर्ते परमपदको प्राप्त भए और भी जे वीतराग के मार्ग में प्रवर्तेगे वे शिवपुर पहुंचेगे इसलिये जेभव्य जीव हैं वे जिनमार्ग की दृढ़प्रतीति कर अपनी शक्ति प्रमाणव्रत का पाचारण करोजो पूर्णशक्ति होय तो मुनि होवो औरन्यनशक्ति होय तोअणुव्रतके धारकश्रावक होवो यह प्राणीधर्मके फलकर स्वर्गमीक्षके सुख || पाबे हैं और पाप के फल से नरकनिगोदके दुःख पाये हैं यह निसंदेह जानों अनादि काल की यही रीति है
धर्म सुखदाई अधर्म दुखदाई पाप किसे कहिये और पुण्य किसे कहिए सो उरमें धारो जेते धर्म के भेद ॥ हैं तिनमें सम्यक्त मुख्य हैं और जितने पापके भेद हैं तिनमें मिथ्यात्व मुख्य है सो मिथ्यात्व कहां अतत्व | । की श्रद्धाऔर कुगुरु कुदेव कुधर्म का अाराधन परजीव को पीड़ा उपजावना और क्रोधमान माया लोभ
की तीव्रता और पांच इन्द्रियों के विषय सप्त व्यसन का सेवन और मित्रद्रोह कृतघ्न विश्वासघात अभक्ष्य ।
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परगा
२०७४
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का भक्षा अगत्य में गनन
का छेद
सुरापान इत्यादि पाप के अनेक भेद हैं ये सब तजने और दया पालना सत्य बोलना चोदी न करनी शील पालना तृष्णातजनी कामलोभ तजने शास्त्र पढ़ना का को कुवचन न कहना गर्व न करना प्रपंच न करना अपस का न होना शांत भाव धारना पर उपकार करना परदारा परथन परद्रोह तजना पर पीड़ा का वचन न कहना बहु आरंभ बहु परिग्रह का त्याग करना दान देना तप करना परदुख हरण इत्यादि तो अनेक भेद पुण्य के हैं वे अंगीकार करने, .अहो प्राणी हो सुख दाता शुभ है और दुःखदाता अशुभ है दारिद्र दुःख रोग पीड़ा अपमान दुर्ग यह सब अशुभ के उदय से होय हैं और सुख संपत्ति सुगति यह सब शुभ के उदय से होय हैं । शुभ अशुभ ही सुखदुःखके कारण हैं और कोई देव दानव मानव सुख दुःखका दाता नहीं अपने २० पाजें कर्मकाफल सबभोगवे हैं सबजीवोंसे मित्रता करना किसीसे बैर न करना किसी को दुख न देना सबही सुखीहों यहभावना मनमें धरनी, प्रथम अशुभको तज शुभमें घावना फिर शुभाशुभसे रहितहोय शुद्धपदको प्राप्त होना बहुत कहिये कर क्या इसपुराणके श्रवणकर एकशुद्धसिद्ध पदमें यारुहोना अनेक भेदकर्मों का विलय करानन्दरूप रहना है । हो पंडितोहो परमपद के उपाय निश्चय थकी जिनशासन में कहे हैं वे अपनी शक्ति प्रमाण धारण करो जिसकर भवसागरसे पार होवो। यहशास्त्र अति मनोहर जीवों को शुद्धताका देनहारा रवि समान सकलवस्तुका प्रकाशक है सो सुनकर परमानंद स्वरूपमें मग्न होवो, संसारासार है जिनधर्म सार है। जिस कर सिद्धपदको पाईये है सिद्धपद समान और पदार्थ नहीं जब श्रीभगवान् त्रैलोक्य के सूर्य वर्द्धमान देवाधिदेव सिद्धलोक को सिधारे तच्चतुर्थकालके तीनवर्ष सादाद्याठ महीना शेष थे सोभगवान्को मुक्तिभए
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पद्म
पुराण
पीछेपंचमकालमें तीन केवली और पांचश्रुतकेवला भएको वहांलगतो पुराण पूर्ण भया, जैसा भगवान्ने गौतम १०७५ गणधरसे कहा औरगौतम ने श्रेणिक सेकहा वैसाश्रुतकेवलीयोंने कहा श्रीमहावीरपीछे बासठवर्षलग केवलज्ञान रहा, और केवल पीछेसौवर्षतक श्रुतकेवलीरहा पंचमश्रुतकेवली श्रीभद्रवाहुस्वामी तिनके पीछे कालके दोष से ज्ञान घटता गया तब पुराणका विस्तार न्यूनहोता भया, श्रीभगवान् महावीर को मुक्तिपधारे बारह सौ साढ़े `तीन वर्षभए तब रविषेण चार्यने अठारह हजार अनुष्टुप्रश्लोकों में व्याख्यानकियो यह रामका चरित्रसम्यक्त का कारण है केवलो श्रुतकेवली प्रणीत सदापृथिवी में प्रकाश करो जिनशासनक सेवक देव जिनभक्ति में परायण जिनधर्मी जीवों की सेवा करे हैं जे जिनमार्ग के भक्त हैं तिनके समीप सम्यक्तदृष्टि देव द्यावे हैं नाना विधि सेवा करे हैं महाचादर संयुक्त सर्वउपायकर आपदामें सहायक हैं अनादिकाल से सम्यक दृष्टि देवों . की ऐसीही रीति है जैनशास्त्र अनादि है काकाकीया नहीं व्यंजनस्वर यहसब अनादिसिद्ध हैं रविदेणाचार्य कहे हैं मैं कडुनहीं किया शब्द अर्थ अकृत्रिम हैं अलंकार बंद आगम निर्मल चित्त होय नीके जानने इस ग्रंथ में : धर्म अर्थ काम मोक्ष सर्व हैं अठारह हजार तेईस श्लोक का प्रमाण पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ है इसपर यह भाषा भई सो जयवंत होवे जिनधर्म की वृद्धि होवे राजा प्रजा सुखी होवे ॥
1
चौपाई - जम्बदीप सदा शुभस्थान । भरतक्षेत्र ता माहि प्रमाण । उस में यार्यखंड पुनीत । बसें ताहि में लोक विनीत ॥ १॥ तिसके मध्य दूं ढारजुदेश । निवसें जैनी लोक विशेष नगर सवाई जयपुर महा । तिसकी उपमा जायन कहा || २ || राज्य करे माधवनृप जहां । काम दार जैनी जन तहां ॥ ठौर और जिन मन्दिर बने । पूजे तिनको भवजन घने ॥ ३ ॥ बसे महाजन नाना जाति | सेवें जिनमारग बहुन्याति ॥ रायमल्ल साधर्मी
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पत्र एक। जिसके घटमें स्वपर विवेक ॥४॥दयावंत गुणवंत सुजान । परउपकारी परम निधान ॥दौलतरामसु ता । पुराण के मित्र।तासो भाष्यो वचन पवित्र ।।५॥ पद्मपुराण महाशुभ ग्रन्थ। तामें लोकशिखरको पंथ ॥भाषारूप होय ।
जो येह । बहुजन बांचे कर अतिनेह ॥६॥ तिसकेवचन हिये में धार । भाषाकीनी श्रुतिअनुसार ॥ रविषेणाचार्य कृतिसार । जाहि पढे, बुद्धिजन गणधार॥७॥जिनधर्मन की प्राज्ञा लेयाजिनशासनमांही चितदेय॥ आनन्द सुतने भाषा करी । नंदोविरदो अतिरस भरी ॥८॥ सुखी होवे राजा और लोक। मिटो सबनके दुख । अरु शोक । वरतो सदामंगलाचार ।। उतरो बहुजन भवजल पार॥६॥ सम्वत् अष्टादश सत जान । ता, ऊपर तेईस बखान (१८२३)। शक्लपक्ष नवमी शनिवार । माघ मास रोहिणीऋक्ष सार ॥१०॥ दोहा-ता दिन सम्पूरण भयो, यह ग्रन्थ सुखदाय । चतुरसंघ मंगल करो, बढ़े धर्म जिनराय ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथउसकी भाषावनिकामें १२४ वां पर्व संपूर्णम् ॥
सूचना-इस समय हिंदुस्तान में सब से बड़ा जैनग्रंथों का भंडार यही है क्योंकि यहां अपनी और पराई सर्व प्रकारकी पुस्तकें एकत्रित हैं आवश्यक्तापूर्वक मंगावो ॥
पुस्तक मिलने का पताला जैनीलाल जैनमालिक दिगम्बर जैनग्रन्थ प्रचारक कार्यालय
मुकाम देवबन्द ज़िला सहारनपुर लाला जैनीलाल जैन के प्रबन्ध से जैनीलाल प्रिंटिंग प्रस दवबन्द में छपा ।
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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir सवप्रकार और सर्वजगह बम्बई,इटावा,लाहौर भादिके छपे जैनग्रंथ मंगानेका सबसे बड़ा कार्यालय pana ala2021salnesaman21536 श्री पाण्डवपुराण भाषा छन्दबद्ध मूल्य 2) * श्री पद्मपुराण भाषा* श्री श्राराधनासा कथाकोष 126 कथा ) o . Pisaleproatosi. 20nalealpacecaisal AAAAAAAAAAAAAAApps कोवा (गाधीनगर) पि 382009 श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र मा. श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर fofotog पता-जाला जैनीलाल जैन मालिक दिगम्बरजैनग्रन्थप्रचारक पुस्तकालय मु०देववन्द (सहारनपुर) For Private and Personal Use Only