Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥२६॥
व्रतधारे उसके फलका क्या कहना विशेष फल पावें स्वर्ग विवे रत्नमई विमान वहां अप्सरावों के समूह पुराण केमध्यमें बहुत काल धर्मके प्रभावकर तिष्ठे हैं फिर दुर्लभ मनुष्य देही पावें इस लिये सदा धर्मरूप रहना | और सदा जिनराजकी उपासना करनी जे धर्म परायण हैं उनको जिनेन्द्रकी आराधनाही परम श्रेष्ठ है
कैसे हैं जिनेन्द्रदेव जिनके समोसरणकी भूमि रत्न कंचन निरमापित देव मनुष्य तिर्यचों कर वन्दनीक हैं जिनेन्द्र देव जिनके पाठ प्रातिहार्य चौंतीस अतिशय महाअद्भूत हजारां सूर्य समान तेज महासुन्दर | रूप नेत्रोंकोसुखदाता, जो भव्यजीव भगवान को भावकर प्रणामकरें सो विचक्षण थोड़ेहीकाल में संसार | समुद्र को तिर श्रीवीतरागदेव के सिवाय कोई दूसरा जीवोंको कल्याण की प्राप्तिका उपाय नहीं इसलिये जिनेन्द्रचन्द्रहीका सेवन योग्य है और अन्य हजारों मिथ्यामार्ग उवट मार्ग हैं तिनमें प्रमादी जीव भूल कर पड़े हैं तिनके सम्यक्त नहीं और मद्य मांसादिक के सेवन से दया नहीं और जैन विषे परम दयाहै रंचमात्र भी दोपकी प्ररूपणा नहीं और अज्ञानी जीवों के यह बड़ी जड़ता है जो दिवस में आहार का त्याग करें और रात्री में भोजन कर पाप उपार्जे चार पहर दिन अनशन व्रत किया उसका फल रात्री भोजन से जाता रहे महा पापका बन्ध होय रात्रीका भोजन महा अधर्म जिन पापियों ने धर्म कह कल्पा कठोर है चित्त जिनका उनको प्रति बोधना बहुत कठिन है जब सूर्य अस्त होय जीव जन्तु दृष्टि न पावें तब जो पापी विषयों का लालची भोचन करे है सो दुरगति के दुःखको प्राप्ति होय हैं योग्य अयोग्य को नहीं जाने हैं सो अविवेकी पाप बुद्धि अन्धकार के पटल कर आच्छादित भए हैं नेत्र जिसके रात्री को भोजन करे हैं सो मक्षिका कीट केशादिक का भक्षण करे हैं जो रात्री भोजन
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