Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥८२५
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रामका यश परन्तु सीताके पूर्व कर्म के दोषकर मूढ़ लोग यह अपवाद करें देखो विद्याधरोंका नाथ रावण उसने सीता हरी सो राम फिर ल्याय और गृहमे राखा यह कहां योग्य राम महा ज्ञानी बड़ेकुलीनचक्री महा शूरवीर तिन के घरमें जो यह रीति तो और लोकों की क्या बात इस भांति सब जन वार्ता करें | अथानन्तरस्वर्ग लोक को लज्जा उपजावे भैसी अयोध्यापुरी वहां भरत इन्द्रसमान भोगोंकर भी रति न मानते भए, अनेक स्त्रीयों के प्राण वल्लभ सो निरन्तर राज्यलक्षमी से उदास सदा भोगों की निंदा ही करें। भरत का मन्दिर अनेक मन्दिरों कर मण्डित नाना प्रकारकेरत्नों कर निर्मापित मोतियों की माला कर शोभित फल रहे हैं वृक्ष जहां अनेक आश्चर्य का भरा सब ऋतु के विलास कर युक्त जहां वीण सृदंगादिक अनेक वादित्र वाजे देवांगनासमान श्रतिसुन्दर स्त्रीजनों कर पूर्ण जिस के चौगिरद मदोन्मत्त हाथी गाजें श्रेष्ठ तुरंग हींसे गीत नृत्य वादित्रों कर महामनोहर रत्नों के उद्योत कर प्रकाश रूप महा रमणीक क्रीडा का स्थानक जहां देवों को रुचि उपजे परन्तु भरत संसार से भयभीत अति उदास उसे वहां रुचि नहीं जैसे पारधी कर भयभीत जो मृग सो किसी ठौर विश्राम न लहे भरत ऐसा विचार करे कि मैं यह मनुष्य देह महाकष्ट से पाई सो पानी के दवदावत क्षणभंगर और यह यौवन भागों के समान अतिसार दोषों का भरा और ये भोग यति विरस इन में सुख नहीं यह जीतव्य स्वप्न समान और कुटुम्वका सम्बन्ध जैसे वृक्षोंपर पक्षियों का मिलाप रात्रि को होय प्रभात ही दशों दिशा को उड़ जायें ऐसा जान जो मोक्ष का कारण धर्म न करे सोजरा कर जर्जरा होय शोक रूप अग्नि कर जरे यह नयन मदों को बल्लभ इस विषे कौन विवेकी राग करे कदाचित न करे यह आपवाद के समूह का
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