Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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| उपजाहे सो न रहेगा यह संसार बन महा विषमहे जिस विषे ये प्राणी मोहको प्राप्त भये भवसंटक भोगे ।
हैं उसे उलंघकर में जन्मजरा मृत्यु रहित जोपदवहां गया चाहूंहू यह बात हनूमान मंत्रियों से कही सो रगावासकी स्त्रियों ने सुनी उसकर खेदखिन्न होय महारुदन करती भई ये समझाने विषे समर्थ सो उन को शांतचित्त करी कैसे हैं समझावन हारे नाना प्रकार के वृत्तांत विषे प्रवीण और हनुमान निश्चल है चित्त जिस का सो अपने वडे पुत्र को राज्य देय और सवों को यथा योग्य विभूति देय रत्नों के समूह कर युक्त देवों के विमान समान जो अपना मंदिर उसे तज कर निकसा स्वर्ण रत्न मई देदीप्यमान जो पालकी उस पर चढ चैत्यवान् नामा बन वहां गया सो नगरके लोक हनुमानकी पालिकी देख सजल नेत्र भये पालिकी पर ध्वजाफर हरे हैं चमरों कर शोभित है मोतीयोंकी झालरीयों कर मनोहर है हनुमान बन विषे अाया। सो वन नाना प्रकार के वृक्षों कर मण्डित और जहां सूवा मैना मयूर हंस कोयल भ्रमर सुन्दर शब्द करे हैं और नाना प्रकार के पुष्पों कर सुगन्ध है वहां स्वामी धर्मरत्न संयमी धर्मरूप रत्न की राशि उत्तम योगीश्वर जिन के दर्शन से पाप विलाय जावे से सन्त चारण मुनिअनेक चारण मुनियों कर मण्डित तिष्ठते थे आकाश विषे हैगमन जिनका सो दूर से उन को देख हनुमान पालकी से उतरा महा भक्ति कर युक्त नमस्कार कर हाथ जोड कहता भया, हे नाथ में शरीरादिक परद्रव्यां से निर्ममत्व भया यह परमेश्वरी दीक्षा आप मुझे कृपाकर देवो तवमुनि कहते भये अहो भव्य तैने भली विचारी तू उत्तमजन है जिनदीक्षा लेवो यह जगत असार है शरीर विनश्वर है शीघ श्रात्म कल्यण कग अविनश्वर पदलेयवे की परम कल्याणकारणा बुद्धि तुम्हारे उपजी है यह बुद्धि विवेकी जीव के ही उपजेहै ।।
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