Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥३991
तुम्हारे घरसे आहार बिना कभी भी साधपीछे न गए यह बृतान्त सुन राजा सुकौसल मुनिके दर्शन को महलसे उतर चमरछत्र बाहन इत्यादि राज चिन्ह तज कर कमल से भी अति कोमल जो चरण सो उबाणे ही मुनिके दर्शनको दौड़े और लोकों को पूछतेजावें तुमने मुनिको देखेतुमनेमुनिदेखेइसभांतिपरम अभिलाषा संयुक्त अपने पिता जो कीर्तिधर मुनि तिनके समीप गये और इनके पीछे छत्रचमर वारे सब दोंडेही गए महामुनि उद्यान विषे शिला परविराजे थे तैसे राजा सुकौसल अश्रुपात कर पुर्ण है नेत्र जिसके शुभ है भावना जिसकी हाथजोड़ नमस्कारकर बहुत बिनय से मुनिके आगे खडे जिन द्वार पार्लोने बारसेनिकासे थे सो उनसे तिलज्जावन्त होय महामुनिसों बिनती करते भए हेनाथजैसेकोई पुरुष अग्निप्रज्वलित घरमें सूता होवे उसे कोई मेघके नादसमान ऊंचा शब्द कर जगावे तैसे संसार रूप ग्रहजन्म मृत्युरूप अग्निसे प्रज्वलित उस विषेमें मोहनिद्रामें बुकशयन करूंथा सो मुझे आपने जगाया अब कृपाकर यह तुम्हारी दिगम्बरीदीक्षा मुझे देवो यह कष्ट का सागर इससे मुझे उधागेजव श्रेसे बचन मुनि से राजामकोशलने कहे तवहीसमस्त सामन्त लोक पाए और राणी विचित्र माला | गर्भवती थी सो भी अति कष्ट से विषाद सहितसमस्त राजलोक सहित पाई इनको दीचाके उद्यमी मुन सवही अन्तःपुरके और प्रजाके शोक उपजा तब राजासुकौशल कहते भये इसराणी बिचित्रमाला के गर्भ विषे पुत्रहे उसे मैंने राज्यादयात्रैसा कहकर निस्सह भए आश रूप फांसिको छेद स्नेहरूमजो। पीजरा उसेतोड़ खीरूप बन्धन से छूट जीर्ण तणवत पजको जानतजा और वस्त्राभूषण समहीतने | वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर के केशोंका लोंच किया और पद्मासनधारतिष्ठे कीर्तिधर मुनींद्रइन के ।
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