Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुगरा
॥२८३"
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मनोहर शृङ्गार रस के भरे कलश ही हैं, नवीन कोंपल समान लाल सुन्दर सुलक्षण हैं हस्त और पांव जिसके चार नखों की कांति कर मानों लावण्यता को प्रकट करती शोभे है और शरीर महासुन्दर है अतिदाजुक क्षीण कटि कुचों के भार से मत कदाचित् भग्न हो जाय ऐसी शंका से मानों लिवली रूप डोरी से प्रतिवद्ध है । और जिस की जंघा लावण्यता को घरे हैं सो केले से भी प्रति कोमल मानों काम के मंदिर के स्तंभ ही हैं । सो मानो वह कन्या चांदनी रात्री ही है । मुक्ताफल रूप नत्र युक्त इंद्रवीर कमल समान हे रूपजिसका । सो पवनंजय कुमार एकाग्र लगे हैं नेत्र जिसके अंजनी को भले प्रकार देख मुखकी भूमिको प्राप्त भया उसही समय वसंततिलका सखी महाबुद्धिवती जना सुन्दरी कहती भई कि हे मुरूपे तू धन्य है जो तेरे पिताने तु वायुकुमारको दीनी वे वायुकुमार महा प्रतापी है तिनके गुण चन्द्रमा की किरण समान उज्ज्वल हैं तिन से समस्त जगत व्याप्त होय रहा है जिनके गुणने अन्य पुरुषों के गुण मंद भासे हैं जैसे समुद्र में लहर तिष्ठे तैसे उस योधा के अंग विषेतृ तिष्ठेगी कैसी है तू महा मिष्टभाणि चन्द्र कांति रत्नोंकी प्रभाको जीते ऐसी कांति तेरी तू रत्नकी धारा रत्ना चल पर्वत में पडी तुम्हारा सम्बन्ध प्रशंसा के योग्य भया इससे सर्वही कुटंबके जन प्रसन्न भए इस भांति जब पतिके गुण सखीने गाए तब वह लाजकी भरी चरणों के नखकी ओर नीचे देखती भई आनंद जल रूप जलकर हृदय भर गया और पवनंजय कुमार भी हर्षसे फूल गए ।
अथानन्तर उस समय एक मिश्रकेशी नामा दूजी सखी होंठ चावकर चोटी हलायकर बोली हो परम अज्ञान तेरा यह कहां पवनंजयका सम्बन्ध सगहा जो विद्युतप्रभ कुंदरसे सम्बन्ध होता तो श्रेष्ठ
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