Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
परण
बाहिर राख अपने समीपी लोगों सहित जहां जानकी थी वहां खाए जय जयशब्द कर पुष्पांजलि चढ़ाय ४१ ॥ पांयन को प्रणाम कर अति विनय संयुक्त प्रांगण में बैठे, तब सीता यांसू डारती अपनी निन्दा करती
भई दुर्जनों के वचनरूप दावानल का दग्ध भये हैं अंग मेरे सो क्षीरसागर के जलकर भी सींचे शीतल तब वे कहते भये हे देवि भगवति सौम्ये उत्तमे व शोक तजो और अपना मन समाधान में लावो इस पृथिवी में ऐसा कौन प्राणी है जो तुम्हारा अपवाद करे, ऐसा कौन जो पृथिवी को चलायमान करे और अग्नि की शिखा को पीछे और सुमेरु के उठायचे का उद्यम करे और जीभ कर चांद सूर्य्य को चाटे ऐसा कोई नहीं तुम्हारा गुणरूप रत्नों का पर्वत को चलाय न सके, और जो तुमसारिखी महा सतीयों का अपवाद करें तिनकी जीभ के हजार ट्रक क्यों न होवें हम सेवकों के समहको भेजकर जो कोई भरतक्षेत्र में अपवाद करेंगे उनदुष्टों का निपात करेंगे और जो विनयवान् तुम्हारे गुणगायवे में अनुरागी हैं उनके गृहमें रत्नदृष्टि करेंगे यह पुष्पक विमान श्रीरामचन्द्र ने भेजा है उस में वरूप होय अयोध्या की तरफ गमन करो सब देश और नगर और श्री राम का घर तुम बिना न सोह जैसे चन्द्र कला बिना आकाशन सोहे और दीपकविना मंदिर न साहे और शाखा बिना वृक्ष न सोहे हे राजा जनककी पुत्री आज रामका मुखचन्द्र देखो. हे पंडिते पतित्रते तुमको अवश्य पतिका बचन मानना जब ऐसा कहा तब सीता मुख्य सहेलियों को लेकर पुष्पक विमान में श्रारूढ़ होय शीघ्रही सन्ध्या के समय अयोध्या आई सूर्य अस्त होय गया सो महेन्द्रोयनामा उद्यान में रात्री पूर्ण करी आगे राम सहित यहां आती थी सो बन अति मनोहर दीखता था सो अब राम बिना रमणीक न भाषा
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