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चक्र की पूजा तो हो ही गई, यूं सोच कर प्रतिदिन प्रभु को देखने की इच्छावाली मरूदेवी माता को हाथी की. अंबाडी पर आगे बैठा कर आगे चल कर अपनी सर्व ऋद्धि सहित भरत राजा प्रभु को वन्दन करने चला । समवसरण के पास आकर भरत ने कहा कि-'माता ! आप अपने पुत्र की ऋद्धि तो देखो' हर्ष से रोमांचित अंगवाली और आनन्द के अश्रुजल से निर्मल नेत्रवाली हुई मरूदेवी माता प्रभु की छत्र-चामरादि प्रातिहार्य की लक्ष्मी देख कर विचारने लगी कि-"अहो ! मोह से विह्वल हुए सर्व प्राणियों को धिक्कार है ! सब स्वार्थ के लिए ही स्नेह करते हैं, ऋषभ के दुःख से रुदन करते हुए मेरे नेत्र भी तेजहीन हो गये, परन्तु ऋषभ तो देव-देवेंद्रों से सेवित होने पर भी और ऐसी दिव्य समृद्धि प्राप्त करने पर भी मुझे कभी अपनी कुशलता का संदेश भी नहीं भेजता ! ऐसे स्नेह को धिक्कार है ! ऐसे एकत्व भावना भाते हुए मरूदेवी माता को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और उसी वक्त आयु क्षय होने से (अंतकृतेवली होकर) मोक्ष को प्राप्त हो गई । यहां पर कवि घटना करता है 'जगत् में युगादि-ऋषभदेव समान पुत्र नहीं है, क्योंकि जिसने एक हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भटक-भटक कर जो 2 केवलज्ञानरूप उत्तम रत्न प्राप्त किया था वह तुरन्त ही मातृस्नेह से माता को समर्पण कर दिया । मरूदेवी माता समान अन्य माता भी जगत् में नहीं है कि जो अपने पुत्र के लिए मुक्तिरूप कन्या को देखने वास्ते पहले ही मोक्ष में चली गई । प्रभु ने समवसरण में बैठ कर धर्मदेशना दी । उस वक्त वहा पर भरत के ऋषभसेन आदि पांच सौ . पुत्रों ने और सातसौ पौत्रों ने दीक्षा ग्रहण की । इनमें से प्रभु ने ऋषभसेन आदि चौरासी गणधर स्थापे ।
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