Book Title: Kalpasutra
Author(s): Dipak Jyoti Jain Sangh
Publisher: Dipak Jyoti Jain Sangh

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Page 321
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद ||157 || 40 500 40 500 500 40 www.kobatirth.org उसका सर्वस्व वापिस दे कर उसके मस्तक पर लिखाये हुए 'मेरी दासी का पति इन अक्षरों को आच्छादन करने के लिये अपना मुकुटपट्ट देकर श्री उदयन राजा ने चंडप्रद्योत को खमाया । यहां पर उपशान्त होने के कारण उदयन राजा को आराधकपन समझना चाहिये। किसी वक्त दोनों को आराधनापन होता है । वह इस प्रकार है एक समय कौशांबी नगरी में सूर्य और चंद्र अपने विमानद्वारा श्रीवीर प्रभु को वन्दनार्थ आये | चंदना साध्वी दक्षता होने के कारण अस्त समय जान कर अपने स्थान पर चल गई और मृगावती सूर्य चंद्रमा के गये बाद अंधकार पसरने पर रात जान कर डरती हुई उपाश्रय आई । ईर्यापथिकी कर के सोती हुई चंदना के पैरों में पड़ कर हे पूज्या ! मेरा अपराध क्षमा करो', यों कहने लगी। चन्दना ने कहा- हे भद्रे ! तेरे जैसी कुलीन को इतना अनुपयोग रखना योग्य नहीं है । मृगावती बोली- महाराज' ! फिर ऐसा न होगा । यों कह कर चरणों में लेट गई और अपने अनुपयोगतारूप अपराध के लिए अपने आत्मसाक्षी अनेकविध पश्चाताप करने लगी । इधर चंदना को निद्रा आ गई थी, अपने क्षमा प्रदान के लिये भी गुरूनी को जगाने की तकलीफ देना उसने उचित न समझा । अतः उसी प्रकार चरणों में पड़े हुए अपने उस अपराध की तीव्रालोचना करते हुए मृगावती ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। दैवयोग उस समय अकस्मात् कहीं से वहां एक सर्प आ निकला । निद्रागत चंदना का हाथ संथारा से नीचे की ओर झुका था और उसी तरफ सर्प आ रहा था । मृगावती ने For Private and Personal Use Only 240 500 40 500 500 400 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नौवा व्याख्यान 157

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