Book Title: Kalpasutra
Author(s): Dipak Jyoti Jain Sangh
Publisher: Dipak Jyoti Jain Sangh

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Page 304
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 40 400 500 40 500 40 www.kobatirth.org साधु को अनाच्छादित जगह में भिक्षाग्रहण करके आहार करना नहीं कल्पता । अनाच्छादित स्थान में आहार करते हुए यदि अकस्मात् वृष्टि पड़े तो भिक्षा का थोड़ा हिस्सा खा कर और थोड़ा हाथ में ले कर उसे दूसरे हाथ से ढक कर हृदय के आगे ढक रखे या कक्ष (बगल में ढक रखे, इस प्रकार कर के गृहस्थ के आच्छादित स्थान तरफ जावे या वृक्ष के मूल तरफ जावे कि जिस जगह उस साधु के हाथ पर पानी के बिन्दु विराधना न करें या न पड़ें । यद्यपि जिनकल्पी आदि कुछ कम दश पूर्वधर होने से प्रथम से ही वृष्टि का उपयोग कर लेते हैं इससे आधा खाने पर उठना पड़े यह संभवित नहीं है तथापि छद्मस्थता के कारण कदाचित् अनुपयोग भी हो जावे । कथन किये अर्थ का ही समर्थन करते हुए कहते हैं कि चातुर्मास रहे पाणिपात्र साधु को कुछ भी पानी बिन्दु उस पर पड़े तो उस जिनकल्पी आदि को गृहस्थ के घर भात पानी को जाना आना नहीं कल्पता । यह करपात्रियों का विधि कहा, अब पात्र रखनेवाले साधुओं का विधि कहते हैं । चातुर्मास रहे पात्रधारी स्थविरकल्पी आदि साधु को अविच्छिन्न धारा से वृष्टि होती हो अथवा जिसमें वर्षाकाल - वर्षाकाल में ओढने का कपड़ा या छप्पर की लौती पानी से टपकाने लगे या कपड़े को भेदन कर पानी अन्दर के भाग में शरीर को भिगोएवे तब गृहस्थ के घर भात पानी के लिए आना नहीं कल्पता । यहां अपवाद कहते हैं कि उस स्थविरकल्पी को यदि अन्तर अन्तर से थम थम कर वृष्टि होती हो तब या अन्दर सूत का वस्त्र और ऊपर उनका वस्त्र इन दोनों से लिपटे हुए स्थविरकल्पी को थोड़ी वृष्टि में गृहस्थ के घर भात 40 5 12405 124054400 For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir

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